विद्यालय का सामाजिक दायित्व

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विद्यालय का प्रशासन

शिक्षा का यूरोपीकरण

अंग्रेजों ने जब धार्मिक शिक्षा का यूरोपीकरण करना प्रारम्भ किया, उसका एक अंग था शिक्षाक्षेत्र को सरकार के हस्तक करना [1]। यह एक अप्रत्याशित घटना थी । धार्मिक मानस और धार्मिक व्यवस्था में न बैठने वाली यह बात थी। परन्तु आर्थिक क्षेत्र में भारत ने इतनी अधिक मार खाई थी कि शिक्षाव्यवस्था के इस परिवर्तन का प्रतीकार करने का उसे होश नहीं था । या कहें कि भारत का भाग्य ही ऐसा था। परन्तु यह परिवर्तन अनेक संकटों की परम्परा का प्रारम्भ बना । आज भी उसका प्रभाव इतना अधिक है कि हम उसकी तीव्रता को समझ नहीं रहे हैं । उसे समझना शिक्षा को रोगमुक्त करने के लिये अत्यन्त आवश्यक है ।

शिक्षा सरकार के अधीन

आज शिक्षाक्षेत्र सरकार के अधीन है । विश्वविद्यालय आरम्भ करना है तो उसका कानून संसद में अथवा राज्य की विधानसभा में पारित होता है। उसमें कानून पारित हुए बिना विश्वविद्यालय बन ही नहीं सकता । उसके बाद विश्वविद्यालय अनुदान आयोग से उसे मान्यता प्राप्त करनी पड़ती है । इस आयोग की रचना भी संसद ने पारित किये हुए कानून के तहत हुई है । विश्वविद्यालय आयोग के साथ और भी परिषदें हैं जो विभिन्न प्रकार की शिक्षासंस्थाओं को मान्यता देती है। ये सब सरकारी है। विश्वविद्यालय के कुलपति की नियुक्ति सर्कार के परामर्श के साथ राज्यपाल या राष्ट्रपति करते है। राज्यपाल राज्य के सभी विश्वविद्यालयों के और राष्ट्रपति सभी केंद्रीय विश्वविद्यालयों के कुलाधिपति होते है। इसी प्रकार माध्यमिक शिक्षा बोर्ड भी सरकार द्वारा की गई रचना ही होती है। प्राथमिक विद्यालयों की स्थिति भी वैसी ही है । राज्य और केन्द्र के शिक्षामन्त्री और शिक्षासचिव नीति और प्रशासन के क्षेत्र में सर्वोच्च होते हैं और वे शिक्षक हों यह आवश्यक नहीं होता । इसके अलावा आयुक्त और निदेशक भी सरकारी ही होते हैं । आयुक्त का शिक्षक होना आवश्यक नहीं, निदेशक शिक्षक होता हैं । अर्थात्‌ शिक्षाविषयक नीतियाँ और शिक्षा का प्रशासन शिक्षक नहीं ऐसे लोगोंं के हाथो में ही है । यह खास ब्रिटिश व्यवस्था है, या कहें कि यह पश्चिम की सोच है।

देश के लिये आवश्यक मात्रा में शिक्षा की व्यवस्था करना किसी भी सरकार के बस की बात नहीं है इसलिये दो प्रकार की व्यवस्था है। समाज के कुछ सेवाभावी सज्जन विद्यालय आरम्भ करने के इच्छुक होते हैं । भारत में तो शिक्षा की सेवा करना पुण्य का काम माना गया है। इन सज्जनों को संस्था बनानी होती है जो सोसायटी अथवा ट्रस्ट कहा जाता है, उसे सोसायटी और ट्रस्ट के लिये कानून के अन्तर्गत पंजीकृत करवाना होता है, उसकी शर्तों के अनुसार भवन तथा अन्य भौतिक सुविधायें जुटानी होती हैं । सरकार शिक्षकों का वेतन अनुदान के रूप में देती है, शेष व्यय ट्रस्ट को करनी पड़ती है । सरकार और ट्रस्टी मिलकर शिक्षकों का चयन और नियुक्ति करते हैं । दूसरा एक प्रकार होता है जिसमें सरकार शिक्षकों के वेतन के लिये भी अनुदान नहीं देती । विद्यार्थियों से शुल्क लिया जाता है, उसमें से शिक्षकों को वेतन दिया जाता है । भवन आदि अन्य आवश्यकताओं के लिये समाज का सहयोग लिया जाता है । ट्रस्टियों की सामाजिक प्रतिष्ठा के आधार पर और शिक्षा के लिये दान देना चाहिये ऐसी मानसिकता.के कारण विद्यालय हेतु दान मिलता है।

विद्यालयों का शिक्षाक्रम सरकार ट्रारा इस काम के लिये नियुक्त संस्थाओं द्वारा बने हुए पाठ्यक्रमों, पाठ्यपुस्तकों, निर्देशों तथा परीक्षातन्त्र के नियमन में चलता.है। शासन की नीति और प्रशासन के नियमों के अधीन होकर देश की शिक्षा चल रही है ।

शिक्षा अर्थ के अधीन

अंग्रेजों की जीवनदृष्टि अर्थनिष्ठ थी। अर्थनिष्ठता के कारन प्रजाजीवन की सारी व्यवस्था को बाजार का स्वरूप प्राप्त हुआ। आज शिक्षाक्षेत्र को यह आयाम भी चिपक गया है। अतः शासन की नीतियां, प्रशासन के नियम और बाजार का व्यापारवाद तीनों मिलकर शिक्षा का नियमन कर रहे है। शासन मालिक है, प्रशासन नियंत्रक है और विद्यार्थी यदि छोटा है।

भारत स्वाधीन तो हो गया परन्तु व्यवस्थायें सारी कारण प्रजाजीवन की सारी व्यवस्थाओं को बाजार का स्वरूप प्राप्त हुआ । आज शिक्षाक्षेत्र को यह आयाम भी चिपक गया है । अतः शासन की नीतियाँ, प्रशासन के नियम और बाजार का व्यापारवाद तीनों मिलकर शिक्षा का.नियमन कर रहे हैं । शासन मालिक है, प्रशासन नियन्त्रक है और विद्यार्थी यदि छोटा है तो उसके मातापिता और वयस्क है तो विद्यार्थी स्वयं ग्राहक है । इस तन्त्र में शिक्षक का स्थान कहाँ है? वह शासक का नौकर है और विद्यार्थी के लिए विक्रयिक (सेल्समेन ) दूसरे का माल दूसरे को बेचने वाला है। इसका उसे वेतन मिलता है।

बाजारतन्त्र में ग्राहक की मर्जी सम्हालनी होती है। यह तो प्रकट व्यवहार है । परन्तु प्रच्छन्न रूप से उत्पादक व्यापारी उसने जो बनाया है वह माल ग्राहकों को बेचना चाहता है। बेचने के लिये अनेक प्रकार के विज्ञापनों का सहारा लेता है । राजकीय पक्ष यही करते हैं । अंग्रेज भारत में ऐसा ही करते थे। उनका शासन स्थिररूप से जमा रहे इस हेतु से भारत के लोगोंं का भला करने की भाषा बोलते हए शिक्षा के माध्यम से प्रजा को गुलाम और निवीर्य बनाते थे । स्वतन्त्र भारत की सरकारें भी ऐसा ही करती रही हैं ऐसा मानने में क्षोभ का अनुभव होता है तो भी यह सत्य है ऐसा मानना पडता है।

शिक्षा की सभी व्यवस्थाएँ वही की वही

भारत स्वाधीन तो हो गया परन्तु व्यवस्थायें सारी ब्रिटीश तन्त्र की ही रहीं। इतने वर्षों के बाद हमें इसमें कुछ गलत या अनुचित नहीं लग रहा है। शिक्षा की व्यवस्था सरकार को ही करनी चाहिये ऐसा हमने स्वीकार कर लिया है। शिक्षक स्वयं विद्यालय कैसे चला सकता है यह प्रश्न अत्यन्त स्वाभाविक हो गया है। जिसका पैसा है उसी का स्वामित्व होता है यह बात भी हमें स्वाभाविक लगती है।

भारत में ऐसी व्यवस्था नहीं थी। शिक्षक को गुरु कहा जाता रहा है। शिक्षक आचार्य रहा है। विद्यार्थी का शिक्षक उसके परिवार का भी गुरु माना जाता रहा है। छोटे गाँवों में तो शिक्षक पूरे गाँव के लिये गुरुजी रहा है और वह गाँव का मार्गदर्शक रहा है । शिक्षक सबके लिये आदर का पात्र रहा है। शिक्षक ज्ञान देने वाला है। चरित्रनिर्माण करनेवाला है। जीवन बनानेवाला है। सबका भला करनेवाला है। शिक्षक धर्म सिखाता है।

एक नौकर का कभी ऐसा सम्मान नहीं होता है। इसका अर्थ है शिक्षक कभी नौकरी करनेवाला नहीं रहा है। शिक्षक यदि धर्म सिखाता है तो वह राज्य का या ट्रस्टियों का नौकर कैसे रह सकता है ? नौकर रहकर वह शिक्षा कैसे दे सकता है ? इस स्वाभाविक प्रश्न से प्रेरित होकर ही नियुक्त होनेवाला, गैरशिक्षक के द्वारा नियन्त्रित होनेवाला शिक्षक भारत में कभी नहीं रहा ।

प्राचीन भारत में शिक्षा का स्वरूप

तो फिर भारत में शिक्षा चलती कैसे थी ? छोटे गाँव में किसी ज्ञानवान व्यक्ति को लगता था कि मेरे गाँव के लोग अशिक्षित नहीं रहने चाहिये, मैं उन्हें शिक्षित बनाऊँगा, और वह विद्यालय आरम्भ करता था । गाँव का मुखिया किसी ज्ञानवान व्यक्ति को प्रार्थना करता था कि हमारे गाँव के बच्चे अनाडी नहीं रहने चाहिये, आप उन्हें ज्ञान दो, और वह व्यक्ति बिना किसी शर्त के विद्यालय आरम्भ करता था । वह अपने हिसाब से ही पढ़ाता था । विद्यालय कहाँ आरम्भ होता था ? अपने ही घर में शिक्षक विद्यालय आरम्भ करता था । यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है क्योंकि भारत में सारे व्यवसाय व्यवसायियों के घरों में ही चलते थे । वे व्यवसाय गृहजीवन के ही अंग होते थे । यदि विद्यार्थियों की संख्या अधिक रही तो किसी वटवृक्ष के नीचे बठ जाते थे, कहीं मन्दिर के अहाते में बैठ जाते थे, कहीं किसी के बड़े घर के आँगन में या बरामदे में बैठ जाते थे । गम्भीर से गम्भीर विषयों की शिक्षा भी बिना तामझाम के, बिना पैसे के हो जाती थी । विद्यार्थियों को पढ़ाने में शिक्षक का, उसे अपने घर का कमरा देने में उस घर के मालिक का, उसे गाँव के बच्चोंं को पढ़ाने की प्रार्थना करने वाले मुखिया का कोई अपना स्वार्थ नहीं था । शिक्षक किसी का नौकर नहीं था । पढने के लिये शुल्क नहीं देना पडता था फिर शिक्षक का निर्वाह कैसे चलता था ? उसकी व्यवस्था भी स्वाभाविक रूप से ही हो जाती थी । जब विद्यार्थी पहली बार पढने के लिये आता था तब कुछ न कुछ लेकर आता था । यह शुल्क नहीं था । कुछ न कुछ लाना अनिवार्य नहीं था । परन्तु देव, गुरु, पण्डित, राजा, बडा व्यक्ति, स्वजन के पास जाते समय खाली हाथ नहीं जाना यह भारत की परम्परा रही है । अतः विद्यार्थी कुछ न कुछ लेकर ही आता था । यह विद्यार्थी के घर्‌ की हैसियत के अनुरूप होता था । गरीब कम और अमीर अधिक मात्रा में लाता था | यह पैसे के रूप में न होकर अनाज, वस्त्र, गाय आदि के रूप में होता था ।

शिक्षक पूरे गाँव के लिये सम्माननीय था । घर के विवाहादि अवसरों पर शिक्षक का सम्मान किया जाता था और वस्त्र, अलंकार जैसी भौतिक वस्तु के रूप में यह सम्मान होता था । उसे भोजन के लिये भी बुलाया जाता था । विद्यार्थी जब अध्ययन पूर्ण करता था तब गुरुदक्षिणा देता था । यह भी उसके घर की हैसियत से ही होती थी । संक्षेप में गाँव के बच्चोंं को ज्ञान देने वाले को गाँव कभी भी दृरिद्र और बेचारा नहीं रहने देता था ।

यह भारत का स्वभाव ही रहा है । परिवार-भावना से जब सारी व्यवस्थायें चलती हैं तब सम्मान, सुरक्षा, आवश्यकताओं की पूर्ति होती ही है। भारत का जो सांस्कृतिक नुकसान हुआ है वह इन सारी व्यवस्थाओं के टूट जाने और उनके स्थान पर अनात्मीय, अपना अपना स्वार्थ देखनेवाली व्यवस्थाओं की प्रतिष्ठापना का हुआ है ।

सम्माननीय पदों को नौकर बना देने वाली व्यवस्था किसका भला कर सकती है ? अनात्मीय व्यवहार करने वालों के मध्य स्नेह और आदर कैसे हो सकता है ? यांत्रिक व्यवस्थाओं में जिन्दा व्यक्तियों का सम्मान कैसे हो सकता है ? निष्प्राण भौतिक पदार्थ संस्कृति का सम्मान कैसे कर सकता है ?

आज की विडम्बना

आज स्थिति ऐसी है । विडम्बना यह है कि आज भी हम शिक्षक को गुरु कहते हैं । आचार्य कहते हैं । आज भी गुरुपूर्णिमा जैसे उत्सव मनाये जाते हैं । आज भी गुरुदक्षिणा दी जाती है। आज भी कहीं कहीं शिक्षक को सम्मानित किया जाता है। छोटी कक्षाओं में विद्यार्थी शिक्षक के सम्मान में खडे होते हैं । आज भी शिक्षक के चरण स्पर्श किये जाते हैं। परन्तु ये केवल उपचार है। युगों से धार्मिकों के अन्तःकरण में गुरुपद्‌ का जो सम्माननीय स्थान है उसका स्मरण है, उस व्यवस्था के प्रति प्रेम है उसका स्वीकार है। वह इस रूप में व्यक्त होता है परन्तु वास्तविकता ऐसी नहीं है । वही गुरुपद से शोभायमान व्यक्ति अब कर्मचारी है । उसे नियुक्त करनेवाले के सामने वह खडा हो जाता है, उसकी ताडें सुन लेता है । शासन के समक्ष घुटने टेकता है, सरकार पुरस्कार देती है तो खुश हो जाता है। विधायक, सांसद, मंत्री उसके विविध देवता हैं और प्रशासन के अधिकारियों से वह डरता है । वह विद्यार्थियों और अभिभावकों से सहमा सहमा रहता है । वह सर्व प्रकार के खुलासे देने के लिये बाध्य हो जाता है । वह ज्ञाननिष्ठा, विद्याप्रीति और समाजसेवा से प्रेरित होकर नहीं पढ़ाता है, वेतन के लिये ही पढ़ाता है ।

वह क्या पढ़ाता है, क्यों पढ़ाता है उससे उसे कोई अंतर नहीं पडता । शासन कहता है कि भगतसिंह हत्यारा है तो वह वैसा पढायेगा, शासन कहता है कि शिवाजी पहाड का चूहा है तो वह वैसा पढायेगा । शासन कहता है कि अफझल खान दुष्ट है तो वह वैसा पढायेगा। उसे कोई अंतर नहीं पडता । उसके हाथ में दी गई पुस्तक में लिखा है कि अंग्रेजों ने भारत में अनेक सुधार किये तो वह वैसा पढायेगा, आर्य बाहर से भारत में आये तो वैसा पढायेगा, छोटा परिवार सुखी परिवार तो वैसा पढायेगा । उसे कोई अंतर नहीं पडता । अर्थात्‌ वह बेपरवाह है । और क्यों नहीं होगा ? नौकर की क्या कभी अपनी मर्जी, अपना मत होता है ? वह किसी दूसरे का काम कर रहा हैं, उसे बताया काम करना है, वह चिन्ता क्यों करेगा ?

आज शिक्षक अपना विद्यालय आरम्भ नहीं कर सकता । उसे नौकरी ही करना है । और वह क्यों करे ? सब कुछतो शासन तय करता है। अब शिक्षा कैसी है उसके आधार पर विद्यालय नहीं चलेगा, भवन, भौतिक सुविधाओं, अर्थव्यवस्था के आधार पर मान्यता मिलती है, शिक्षकों की पदवियों और संख्या के आधार पर मूल्यांकन होता है, पढाने की इच्छा, तत्परता, नीयत, चरित्र, विद्यार्थियों का. गुणविकास, सही ज्ञान, सेवाभाव, विद्याप्रीति, निष्ठा आदि के आधार पर नहीं । मान्यता नहीं तो प्रमाणपत्र नहीं, प्रमाणपत्र नहीं तो नौकरी नहीं, नौकरी नहीं तो पैसा नहीं ।

ऐसे में शिक्षा कैसे होगी ?

विडम्बना यह भी है कि ऐसी स्थिति में भी हम शिक्षकों को आचार्य बनने की, गुरु बनने की, राष्ट्रनिर्माता बनने की, विद्यार्थियों का चरित्रगठन करने की शिक्षा देते हैं, उनका प्रबोधन करते हैं। ऐसी स्थिति में भी हम “ज्ञान पवित्र है', “विद्या मुक्ति दिलाती है', “गुरु देवता है' आदि बातें करते हैं । विद्या की देवी सरस्वती को लक्ष्मी की दासी बनाकर अब सरस्वती की स्तुति करते हैं ।

धार्मिकता का तत्व कितना भी श्रेष्ठ हो उसका वर्तमान व्यावहारिक स्वरूप तो ऐसा ही है। यह एक अनर्थकारी व्यवस्था है। हम शिक्षा को धार्मिक बनाना चाहते हैं । तब हम क्या करना चाहते हैं। हम शिक्षा स्वायत्त होनी चाहिये ऐसा कहते हैं । तब क्या चाहते हैं ?

शिक्षा में धार्मिक करण के उपाय

वास्तव में शिक्षा का धार्मिककरण करने के लिये व्यवस्थातन्त्र का विचार तो करना ही पड़ेगा । हमें प्रयोग भी करने पड़ेंगे । हमे साहस दिखाना होगा ।

एक प्रयोग ऐसा हो सकता है - कुछ शिक्षकों ने मिलकर एक विद्यालय आरम्भ करना । इस विद्यालय हेतु शासन की मान्यता नहीं माँगना । शासन की मान्यता नहीं होगी तो बोर्ड की परीक्षा भी नहीं होगी । प्रमाणपत्र नहीं मिलेगा । नौकरी नहीं मिलेगी । इस प्रयोग के लिये नौकरी की चाह नहीं रखने वाले, प्रमाणपत्र की आकांक्षा नहीं रखने वाले साहसी मातापिताओं को इन शिक्षकों का साथ देना होगा। इस विद्यालयमें शिक्षित विद्यार्थी अच्छा अर्थार्जन कर सकें ऐसी शिक्षा उन्हें देनी होगी । समझो, वे किसी वस्तु का उत्पादन करते हैं तो उसे खरीद करने वाला ग्राहक वर्ग भी निर्माण करना होगा । यदि ऐसे विद्यालयों की संख्या बढ सके तो एक पर्याय निर्माण होने की सम्भावना बन सकती है । शिक्षा को स्वतन्त्रता की प्रतिष्ठा प्राप्त हो सकती है ।

यह काम इतना सरल नहीं है। शिक्षक और अभिभावकों का साहस बनना ही प्रथम कठिनाई है । यह कदाचित हो भी गया तो सरकार इसे “बच्चोंं को शिक्षा से वंचित कर रहे हैं क्योंकि ये मान्यता प्राप्त विद्यालय में नहीं पढ रहे हैं ।' कहकर दण्डित कर सकती है । इसलिये सरकार के साथ बातचीत करने का काम भी करना ही पड़ेगा । शिक्षकों को अधिक साहस जुटाना होगा ।

इसके साथ ही नया पाठ्यक्रम, नई पाठनसामग्री आदि भी तैयार करने होंगे। यदि ऐसा पर्याय निर्माण हो सकता है तो करना चाहिये ।दूसरा पर्याय कुछ समझौता करने का है।

देश में जो शैक्षिक संगठन हैं उन्होंने सरकार के साथ आग्रहपूर्वक बात करनी चाहिये और कहना चाहिये कि शिक्षामन्त्री, सचिव आदि सारे पद शिक्षकों के ही होने चाहिये । जो शिक्षक नहीं वह शिक्षा क्षेत्र की जिम्मेदारी नहीं ले सकता । यह काम यदि होता है तो गाड़ी सही दिशा में कुछ मात्रा में तो जा सकती है । यह भी साहसी काम है -

तीसरा प्रयोग है - निजी विद्यालय चलाने के लिये जो संस्थायें स्थापित होती हैं उनके सारे पदाधिकारी शिक्षक ही होने चाहिये । वे कभी शिक्षक रहे हैं ऐसे नहीं, प्रत्यक्ष पढाने वाले शिक्षक होने चाहिये । जो शिक्षक नहीं वह संस्था का सदस्य या पदाधिकारी नहीं हो सकता, संस्था के पदों की शब्दावली भी शिक्षाक्षेत्र के अनुकूल होनी चाहिये। अध्यक्ष, मंत्री, कोषाध्यक्ष, कार्यकारिणी, साधारणसभा आदि नहीं अपितु कुलपति, आचार्य, आचार्य परिषद जैसी नामावलि होनी चाहिये। ऐसी रचना होगी तो शिक्षा की गाड़ी आधे रास्ते पर आ सकती है।

ऐसा प्रयोग भी हो सकता है - शिक्षकों द्वारा आरम्भ किया गया प्रयोग निःशुल्क चलाना । इस विद्यालय को चलाने के लिये समाज का सहयोग प्राप्त करने हेतु शिक्षकों और अभिभावकों और विद्यार्थी आदि बड़े हैं तो विद्यार्थी शिक्षकों का सहयोग करें ऐसी व्यवस्था हो सकती है।

ऐसे और भी अनेक मौलिक प्रयोग हो सकते हैं । इस दिशा में विचार आरम्भ किया तो भारत के लोगोंं को अनेक नई नई बातें सुझ सकती हैं क्योंकि भारत के अन्तर्मन में शिक्षा और शिक्षक को उन्नत स्थान पर बिठाकर उनका सम्मान करने की चाह होती ही है।

अभी तो अविचार की स्थिति है। हमें वास्तविकता का खास ज्ञान और भान ही नहीं है । यदि भान आये तो मार्ग भी निकल सकता है।धर्म की तरह शिक्षा भी उसका सम्मान करने से ही हमें सम्मान दिला सकती है।

विद्यालय की यांत्रिकता को कैसे दूर करे

मनुष्य यंत्र द्वारा संचालित न हो

यन्त्र और मनुष्य में क्या अन्तर है ? यन्त्र ऊर्जा से तो चलता है परन्तु अपने विवेक से नहीं चलता । मनुष्य अपने विवेक से चलता है। यन्त्र में भावना नहीं होती। यन्त्र में अहंकार नहीं होता । यन्त्र पर संस्कार नहीं होते । भावना, अहंकार, संस्कार ये सब अन्तःकरण के विषय होते हैं । यन्त्र में अन्तःकरण नहीं होता, मनुष्य में होता है।

यन्त्र की शक्ति पंचमहाभूतात्मक शक्ति है । वह बना भी होता है पंचमहाभूतों का ही । उसमें ऊर्जा के कारण कार्यशक्ति आती है। उसके बाद उसे चलाने के लिये मनुष्य की ही आवश्यकता होती है। मनष्य में यन्त्रशक्ति है। मनष्य का शरीर ही एक अद्भुत यन्त्र है। शरीररूपी यन्त्र को चलाने के लिये ऊर्जा भी है। वह ऊर्जा है प्राण । प्राण की ऊर्जा यन्त्र को चलाने वाली सर्व प्रकार की ऊर्जा से श्रेष्ठ और अलग प्रकार की है । यन्त्रों को चलाने वाली सर्व ऊर्जा भी पंचमहाभूतात्मक ही है यद्यपि उसका स्रोत सूर्य है । मनुष्य में जो प्राणरूपी ऊर्जा है वह विशिष्ट इसलिये है कि वह मनुष्य शरीर को सजीव बनाती है और जिससे उसकी वृद्धि होती है और उसके ही जैसे दूसरे सजीव को जन्म देती है । इतना ही यन्त्र और मनुष्य में समान है। इसके बाद जितने भी प्रकार की शक्ति है वह केवल मनुष्य में है। पूर्व में कहा उसके अनुसार इच्छा, भावना, विचार, संवेदना, विवेक, निर्णय, संस्कार मनुष्य की विशेष शक्तियाँ हैं।

इसलिये मनुष्य को ही यन्त्र को चलाना चाहिये, यन्त्र द्वारा संचालित नहीं होना चाहिये । इस मुद्दे को सामने रखकर अब विद्यालय की वर्तमान व्यवस्था की ओर देखना चाहिये ।

यन्त्र आधारित वर्तमान व्यवस्था

विद्यालय में प्रवेश की आयु ५ वर्ष पूर्ण है । अब वह छः वर्ष हुई है। इसका कारण शैक्षिक नहीं है, व्यवस्थागत है । शैक्षिक दृष्टि से तो औपचारिक शिक्षा प्रारम्भ करने की आयु सात वर्ष के बाद होनी चाहिये । परन्तु यह किसी के लिये छः वर्ष, किसी के लिये सात, किसी के लिये आठ वर्ष की भी हो सकती है। फिर किसे किस आयु में प्रवेश देना चाहिये यह व्यवस्था द्वारा निश्चित दिनाँक को कैसे हो सकता है ? वह अभिभावकों और शिक्षकों के विवेक के अनुसार होना चाहिये ।

सबके लिए एक वर्ष में समान रूप से निश्चित पाठ्यक्रम क्यों होना चाहिये ? यह तो मानवीय स्वाभाविकता है कि सबकी आवश्यकता भिन्न होती है, रुचि भिन्न होती है, गति और क्षमता भिन्न होती है । उसके अनुसार ही पाठ्यक्रम और पाठनपद्धति भिन्न भिन्न होनी चाहिये । परन्तु वह व्यवस्था में नहीं बैठता इसलिये सब समान किया जाता है।

निश्चित समय के कालांश, निश्चित प्रकार का पाठ्यक्रम विभाजन, निश्चित प्रकार की परीक्षा पद्धति यान्त्रिकता का ही लक्षण है।

सभी विषयों की समान परीक्षा पद्धति भी यान्त्रिकता का लक्षण है । सर्व प्रकार का मूल्यांकन अंकों में रूपान्तरित कर देना भी यान्त्रिक प्रक्रिया है ।

यहाँ मौलिकता, विवेक, सृजनशीलता, भिन्न आकलन आदि कुछ मान्य नहीं होता । जहाँ कल्पनाशक्ति, दृष्टिकोण, स्वतन्त्र आकलन, विवेक के अभाव में अमान्य और वादग्रस्त हो जाते हैं और धीरे धीरे इसका मूल्यांकन बन्द हो जाता है और जिन्हें ‘ओब्जेक्टिव' कहा जाता है ऐसे ही प्रश्न पूछकर परीक्षा ली जाती है । इसमें समझ की गहराई नहीं नापी जाती, जानकारी नापी जाती है । इस प्रकार यान्त्रिक होते होते बात पत्राचार पाठ्क्रम, इ-लर्निंग आदि पर चली जाती है । यह यन्त्र के अधीन होने की परिसीमा है।

सर्व प्रकार का मूल्यांकन अंकों में और सर्व प्रकार की योग्यता अर्थार्जन में मानना यान्त्रिकता के अधीन ही जाना है । इससे जीवन भौतिक स्तर पर उतर आता है।

यान्त्रिकता और भौतिकता साथ साथ चलते हैं। भौतिकता का यह दृष्टिकोण विषयों के आकलन तक पहुँचता है।

उदाहरण के लिये आज विद्यालयों और विश्वविद्यालयों में योग शारीरिक शिक्षा के अन्तर्गत रखा गया है। योग की परिभाषा पातंजल योगसूत्र में इस प्रकार दी गई है, 'योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः' अर्थात् चित्तवृत्यिों के निरोध को योग कहते हैं । यहाँ 'चित्त' अन्तःकरण के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है । इसका अर्थ यह है कि योग का सम्बन्ध शरीर से नहीं, अन्तःकरण से है। अर्थात् योग को या तो मनोविज्ञान के अथवा इसे योगदर्शन कहें तो तत्वज्ञान के विभाग में समावेश होना चाहिये । परन्तु आज योग को व्यायाम अथवा चिकित्सा मानकर उसे शरीर से जोडते हैं । मनोविज्ञान को भारत में आत्मविज्ञान के प्रकाश में देखा जाता है, वर्तमान व्यवस्था में उसे भौतिक स्तर पर उतार दिया गया है । ये तो गम्भीर बातें हैं । ये सम्पूर्ण जीवन की दृष्टि ही बदल देती हैं ।

उपाय योजना

वास्तव में धार्मिक शिक्षा अध्यात्मनिष्ठ होनी चाहिये, वर्तमान व्यवस्था उसे देहनिष्ठ बना देती है।

ऐसे अनेक उदाहरण देखे जा सकते हैं । इनका विवरण अधिक अधिक करने के स्थान पर इसका उपाय क्या करना यही सोचना चाहिये।

प्रश्न यह है कि इसका क्या किया जाय ।

  • सर्वप्रथम शिक्षकों को अधिक विश्वसनीय बनना चाहिये । सारी समस्याओं की जड़ शिक्षक विश्वसनीय और दायित्व को समझने वाले नहीं रहे यह है ।
  • विश्वसनीय और दायित्वबोध से युक्त होने के बाद शिक्षकों को यान्त्रिकता यह प्रश्न क्या है, उसका स्वरूप कैसा है, उसके परिणाम कैसे हैं और धार्मिक जीवनदृष्टि और धार्मिक जनमानस के साथ यह कितना विसंगत है यह समझना होगा । यह शिशु से उच्चशिक्षा तक सर्वत्र व्याप्त प्रश्न है यह भी समझना होगा । अपने अपने स्तर पर इसके उपाय का विचार करना होगा ।
  • विद्यालय की आन्तरिक व्यवस्थाओं का मामला प्रथम हाथ में लेना चाहिये । जो शिक्षकों के हाथ में है वह पहले करना चाहिये । उदाहरण के लिये समयसारिणी में परिवर्तन कर सकते हैं । विद्यालय के समय में भी परिवर्तन हो सकता है। गृहकार्य, पाठ्यपुस्तक से बाहर की शैक्षिक तथा अन्य गतिविधियाँ आदि में बदल कर सकते हैं। इनमें मौलिकता, सृजनशीलता, स्वतन्त्र बुद्धि का विकास आदि को अधिकाधिक अवसर दिया जा सकता है । धीरे धीरे इस विषय की चर्चा अभिभावकों के साथ करते हुए यथासम्भव परिवर्तन किया जा सकता है । उन्हें ही अपने बालक के मूल्यांकन का अवसर दिया जा सकता है, उसकी सम्भावनाओं की चर्चा की जा सकती है।

यह प्रश्न बहुत धीरे धीरे हल होने वाला प्रश्न है यह व्यवस्था का नहीं, समझ का प्रश्न है । समझ धीरे धीरे खुलती जाती है, विकसित होती जाती है।

यह केवल एक विद्यालय का विषय नहीं है। केवल प्राथमिक या उच्च शिक्षा का विषय नहीं है। देखा जाय तो सम्पूर्ण जीवन का विषय है। यह धार्मिक और अधार्मिक जीवनदृष्टि का विषय है।

परन्तु परिवर्तन का प्रारम्भ मूल से और बहुत छोटी बातों से किया जाता है । केवल चिन्तन के स्तर पर परिवर्तन होने से काम नहीं चलता, व्यवहार में होने की आवश्यकता होती है । तत्व कितना भी श्रेष्ठ हो, जब तक वह व्यवहार का रूप धारण नहीं करता, परिणामकारी नहीं होता ।

इस मुद्दे को ध्यान में रखकर विद्यालय में परिवर्तन करने का प्रारम्भ करना चाहिये ।

विद्यालयीन शिष्टाचार

व्यव्हार कैसे होना चाहिए

अच्छे लोग एक दूसरे से बहुत शालीन ढंग से पेश आते हैं। उनकी भाषा, उनकी देहबोली (बोडी लेंग्वेज), उनका सर्व प्रकार का व्यवहार संयत, शिष्ट और संस्कारी होता है।

विद्यालय भी सज्जनों जैसे व्यवहार की अपेक्षा करता है। शिक्षकों का शिक्षकों, मुख्याध्यापक, संचालकों, अभिभावकों के साथ, विद्यार्थियों का विद्यार्थियों और शिक्षकों के साथ, अभिभावकों का शिक्षकों के साथ, संचालकों के साथ कैसा व्यवहार होना चाहिये ?

कुछ बातें ध्यान देने योग्य हैं:

  1. संचालक, मुख्यध्यापक, शिक्षक, विद्यार्थी और अभिभावक मिलकर विद्यालय परिवार बनता है । इस परिवार का मखिया मख्याध्यापक है यह बात सर्वस्वीकृत बनने की आवश्यकता है। वर्तमान में संचालक अपने आपको बड़े मानते हैं, संचालक मंडल का अध्यक्ष सबसे बड़ा माना जाता है और शिक्षकवृन्द, स्वयं मुख्याध्यापक भी इस व्यवस्था का स्वीकार कर लेते हैं।परन्तु यह मामला ठीक तो कर ही लेना चाहिये । धार्मिक शिक्षा संकल्पना तो यह स्पष्ट कहती है कि शिक्षा शिक्षकाधीन होती है। यह केवल सिद्धान्त नहीं है, केवल प्राचीन व्यवस्था नहीं है, उन्नीसवीं शताब्दी तक इसी व्यवस्था में हमारे विद्यालय चलते आये हैं ।
  2. अतः यह अभी अभी तक चलती रही हमारी दीर्घ परम्परा भी है। ब्रिटिशों ने इसे उल्टापुल्टा कर दिया । उसे अभी दो सौ वर्ष ही हुए हैं । हम मध्य के दो सौ वर्ष लाँघकर अपनी परम्परा से चलें यह आवश्यक है । थोडा विचारशील बनने से यह हमारे लिये स्वाभाविक बन सकता है । अतः समस्त विद्यालय परिवार मुख्याध्यापक का आदर करे और आदरपूर्वक अभिवादन करे यह आवश्यक है। आदर दर्शाने का सम्बोधन क्या हो और अभिवादन के शब्द क्या हों यह विद्यालय अपनी पद्धति से निश्चित कर सकते हैं। अभिवादन की पद्धति क्या हो यह भी विद्यालय स्वतः निश्चित कर सकता है । परन्तु अंग्रेजी के सर या मैडम, गुड मोर्निंग, हलो, हस्तधूनन आदि न हों यही उचित है।
  3. शिक्षकों का आपस में सम्बोधन और अभिवादन के शब्द तथा पद्धति क्या हो यह भी विचारणीय है । यहाँ भी सर, मैडम, हाय, हलो, हस्तधनन अच्छा नहीं है।
  4. विद्यार्थी शिक्षकों को क्या सम्बोधन करें ? कैसे अभिवादन करें ? क्या पद्धति अपनायें ? विद्यार्थियों को केवल अभिवादन नहीं करना है, सम्मान भी करना है। कैसे सम्मान करें ? विद्यार्थी यदि प्रणाम या चरणस्पर्श करें तो शिक्षक उन्हें क्या आशीर्वाद दें? विद्यार्थी को कैसे सम्बोधित करें ?
  5. क्या महाविद्यालय के विद्यार्थियों की पद्धति प्राथमिक विद्यालय के विद्यार्थियों से भिन्न होगी ? या वैसी ही होगी ? क्या उन्हें दिया जानेवाला आशीर्वाद भी भिन्न होगा ? या एक ही होगा ?
  6. कक्षा में शिक्षक आयें तब विद्यार्थी उनका कैसे सम्मान करें ? शिक्षक कक्षा में हैं तब तक कैसे विनय दर्शायें ? कक्षा के बाहर जायें तब कैसे सम्मान करें ? विद्यालय के बाहर कहीं शिक्षक सामने आ जायें तो विद्यार्थी क्या करें ?
  7. अपनी सन्तान के शिक्षक के साथ अभिभावक कैसे व्यवहार करें ? अभिभावक यदि मन्त्री है अधिकारी है या उद्योजक है तो उसका शिक्षक के साथ और शिक्षक का अभिभावक के साथ कैसा व्यवहार होगा ?
  8. विद्यार्थी आपस में कैसे अभिवादन करें ?
  9. विद्यालय में क्या करना चाहिये क्या नहीं करना चाहिये इन सारी बातों का बडा शास्त्र बन सकता है, पद्धतियों का विस्तृत विवरण किया जा सकता है। कुल मिलाकर यह अत्यन्त आवश्यक विषय है ।

शिक्षक के लिये सम्बोधन गुरुजी या आचार्य होना स्वाभाविक है । परापूर्व से यही चलता आया है। शिक्षक विद्यार्थी को छात्र कहे यह भी स्वाभाविक है। छात्र का अर्थ है शिक्षक के छत्र के नीचे रहकर जो अध्ययन करता है वह छात्र । जो स्वयं अध्ययन करता है वह विद्यार्थी अवश्य होता है, छात्र नहीं होता। आचार्य उस शिक्षक को कहा जाता है जो स्वयं आचारवान है और छात्रों को आचार सिखाता है । इस सम्बोधन में ही शिक्षा आचरण में उतरने से ही सार्थक होती है यह भाव है। आचरण से ही तो व्यवहार चलता है।

विनयशील व्यवहार का अर्थ

विद्यार्थी का शिक्षक के प्रति विनयशील व्यवहार होना चाहिये इसका अर्थ क्या है ?

  1. शिक्षक कक्षा में आयें उससे पूर्व सभी विद्यार्थियों को उपस्थित हो जाना चाहिये । बाद में आना ठीक नहीं । शिक्षक आयें तब विद्यार्थियों ने खड़े होकर सम्मान करना चाहिये । दोनों हाथ जोडकर प्रणाम कर प्रणाम आचार्यजी' कहना चाहिये । कहीं कहीं 'नमस्ते' या 'नमो गुरुभ्यः' कहने का भी प्रचलन है। यह अपना अपना शिष्टाचार है, विद्यालय स्वयं तय कर सकता है। जब विद्यार्थी अभिवादन करते हैं तब शिक्षक को भी प्रत्युत्तर में आशीर्वाद देने चाहिये । आजकल विद्यार्थी 'गुड मोर्निंग' कहते हैं तो शिक्षक भी वही कहते हैं, विद्यार्थी ‘नमस्ते' कहते हैं तो शिक्षक भी ‘नमस्ते' कहते हैं । इस समानता के स्थान पर शिक्षक बडप्पन दिखा सकते हैं। उन्हें आशीर्वाद सूचक 'शुभं भवतु' कहना चाहिये । और भी समानार्थी शब्द हो सकते हैं । कक्षा पूर्ण होने पर शिक्षक जब जाते हैं तब भी विद्यार्थियों ने खडे होकर प्रणाम आचार्यजी' कहना चाहिये । कहीं कहीं बैठे बैठे भूमि पर माथा टेककर 'नमो गुरुभ्यः' कहने का भी प्रचलन है । इस समय शिक्षक ने भी आशीर्वाद देने चाहिये।
  2. शिक्षक के जाने तक विद्यार्थियों को रुकना चाहिये । शिक्षक से पहले कक्षा नहीं छोडनी चाहिये । कक्षा चल रही है तब तक मध्य में से छोडकर नहीं जाना चाहिये।
  3. कक्षा चल रही हो तब विद्यार्थी आपस में बातें न करें । अपना और कोई काम न करें, खायें पीयें नहीं यह भी आवश्यक है । आजकल पानी की बोतल सबके साथ रहती है और प्यास लगे तब पानी पीना सबको स्वाभाविक लगता है । लघुशंका के लिये भी मध्य में ही जाना स्वाभाविक माना जाता है। आवेगों को नहीं रोकना चाहिये ऐसा शास्त्रीय कारण भी दिया जाता है । यह सब तो ठीक है परन्तु कक्षा प्रारम्भ होने से पूर्व ही इन कामों को निपट लेने की सावधानी सिखाना चाहिये । एक साथ कम से कम दो घण्टे बिना पानी के, बिना लघुशंका गये काम कर सकें ऐसा अभ्यास होना चाहिये । यह तो सभाओं और कार्यक्रमों में पालन किया जाना चाहिये ऐसा शिष्टाचार है । कक्षाकक्षों में ही इसके संस्कार होते हैं । यहाँ नहीं हुए तो जीवन में भी नहीं आते । घरों में और समाज में कक्षाकक्षों से ही पहुँचते हैं।
  4. अनिवार्य कारण से यदि मध्य में ही कक्षा के अन्दर आना पड़े या बाहर जाना पड़े, बिना अनुमति के नहीं आना चाहिये । अनुमति माँगने पर मिलेगी ही या देनी ही चाहिये ऐसा नियम नहीं है । अनुमति देना या नहीं देना शिक्षक के विवेक पर निर्भर करता है (मर्जी पर नहीं)।
  5. कक्षा चल रही है तब शिक्षक की अनुमति के बिना विद्यार्थी तो क्या कोई भी नहीं आ सकता, यहाँ तक कि मुख्याध्यापक भी नहीं। जिस प्रकार मुख्याध्यापक विद्यालय का मुखिया है, शिक्षक अपनी कक्षा का मुखिया है। उसकी आज्ञा या अनुमति के बिना कुछ नहीं हो सकता। आजकल निरीक्षण करने के लिये आये हुए सरकारी शिक्षाविभाग के अधिकारी अनुमति माँगने की शिष्टता नहीं दर्शाते, परवाह भी नहीं करते । परन्तु यह होना अपेक्षित है।
  6. कक्षा में शिक्षक के आसन पर और कोई नहीं बैठ सकता । कक्षा के बाहर अनेक व्यक्ति आयु में, ज्ञान में, अधिकार में शिक्षक से बड़े हो सकते हैं, वहाँ शिक्षक उनका उचित सम्मान करेगा परन्तु कक्षा के अन्दर सब शिक्षक का ही सम्मान करेंगे। विद्यार्थियों को भी इस बात की जानकारी होनी चाहिये, अन्यथा वे स्वयं ही खडे हो जाते हैं । शिक्षक का सम्मान करना है यह विषय शिक्षक स्वयं नहीं बतायेंगे, मुख्याध्यापक ने स्वयं विद्यालय के सभी छात्रों को सिखानी चाहिये। कक्षा में यदि मुख्याध्यापक या कोई वरिष्ठ अधिकारी या कोई सन्त आते हैं तब शिक्षक स्वयं विद्यार्थियों को खडे होकर प्रणाम करने की आज्ञा दे यही उचित पद्धति है।
  7. कभी कभी मुख्याध्यापक, अन्य शिक्षक, अभिभावक या निरीक्षक भिन्न भिन्न कारणों से कक्षा देखना चाहते हैं। तब शिष्टाचार यह कहता है कि वे सब विद्यार्थियों की तरह कक्षा आरम्भ होने से पूर्व, शिक्षक कक्षा में आने से पूर्व कक्षा में पीछे जाकर बैठें और शिक्षक जब आयें. विद्यार्थियों की तरह शिक्षक को आदर दें और कक्षा के अनुशासन का पालन करें । विद्यार्थियों को यह अनुभव न होने दें कि कक्षा में शिक्षक से भी बड़ा कोई होता है।
  8. कक्षा में शिक्षक जब तक खडे हों विद्यार्थी बैठने में संकोच करेंगे। वे बैठें यह उचित भी नहीं है। वह अशिष्ट आचरण है। अतः बैठकर पढाना, उत्तर आदि जाँचने की आवश्यकता हो तो विद्यार्थी का उठकर शिक्षक के पास जाना उचित है। शिक्षक खडे होकर पढायें । स्वयं विद्यार्थी के पास जायें ऐसी व्यवस्था उचित नहीं है। एक बार इस सिद्धान्त का स्वीकार हुआ तो उसके अनुकूल सारी व्यवस्थायें हो सकती हैं। आजकल तो हम पाश्चात्य सिद्धान्त के अनुसार चलते हैं इसलिये शिक्षक से खडे खडे पढाने की अपेक्षा करते हैं, फिर उसमें सुविधा देखते हैं । वास्तव में सभाओं में भाषण भी बैठकर होने चाहिये । निवेदन करना है तभी खडा होकर किया जाता है, प्रवचन, विषय प्रस्तुति, उपदेश, आदि खडे होकर नहीं दिये जातें ।
  9. कक्षा में या कक्षा के बाहर विद्यालय परिसर में शिक्षक आज्ञा करें, सूचना दें और विद्यार्थी उसका पालन न करें यह सम्भव ही नहीं है। जहाँ शिक्षक और विद्यार्थी अच्छे हों वहाँ देर से आये, अशिष्ट आचरण किया, गृहकार्य नहीं किया, सूचना या आज्ञा का पालन नहीं किया ऐसा हो ही नहीं सकता । दोनों का अच्छा होना पहली आवश्यकता है। दोनों अच्छे नहीं हैं तब तक अध्ययन अध्यापन हो ही नहीं सकता । इसलिये अच्छाई प्रथम सिखाना चाहिये, बाद में विषय । ये तो आचरण के विषय हैं । विद्यार्थी छोटे होते हैं। तब तो वे सरलता से यह सब करते हैं परन्तु अच्छे और सही आचरण का स्रोत हृदय के भाव होते हैं। शिक्षक के हृदय में विद्यार्थियों के प्रति प्रेम और विद्यार्थियों के हृदय में शिक्षक के प्रति श्रद्धा ही विनयशील आचरण का स्रोत है । विद्यार्थियों में श्रद्धा के भाव का स्रोत भी शिक्षक के हृदय का प्रेम ही है। जब यह होता है तब विद्यार्थी बड़े होते हैं तब विनयशील बने रहते हैं, नहीं तो किशोर आयु के विद्यार्थियों के लिये विनयशील होना कठिन हो जाता है। महाविद्यालय के विद्यार्थी विनयशील बने रहें इसके लिये शिक्षक में प्रेम और आचारनिष्ठा के साथ साथ ज्ञाननिष्ठा भी आवश्यक होती है। शिक्षक में यदि ये तीन नहीं हैं तो युवा विद्यार्थियों का विनयशील होना कठिन हो जाता है।
शिक्षक के ह्रदय में प्रेम, आचारनिष्ठा व ज्ञाननिष्ठा का अभाव

आज का शिक्षाक्षेत्र का संकट हम समझ सकते हैं। शिक्षकों के हृदय में प्रेम, आचार निष्ठा और ज्ञाननिष्ठा का अभाव लगभग सार्वत्रिक बन गया है और वही विद्यार्थियों में उद्दण्डता बनकर प्रकट होता है।

शिक्षक ऐसे गुणवान हों तब भी यदि विद्यार्थी अविनयशील हो तो वह दण्ड के पात्र हैं। कई कारणों से शिक्षक गुणवान होने पर भी विद्यार्थी विद्यार्थी के लक्षण से युक्त नहीं रहते । तब वे दण्ड के पात्र तो हैं ही, साथ ही पढने के भी अधिकारी नहीं रहते।

विद्यालय परिसर के बाहर भी विद्यार्थी शिक्षक के प्रति विनयशील रहे यह अपेक्षित ही है। यदि नहीं रहता है तो उसके संस्कार और अध्ययन में ही कहीं कमी है ऐसा मान सकते हैं।

अपना पुत्र या पुत्री अपने शिक्षक का सम्मान करे इसके संस्कार घर में मिलने चाहिये । अभिभावकों में भी शिक्षक के प्रति सम्मान का भाव होना चाहिये । विनयशील व्यवहार तो होना ही चाहिये । आजकल अखबारों में अनेक प्रकार से शिक्षकों को उपालम्भ और उपदेश दिये जाते हैं, अधिकारी विद्यार्थियों के सामने ही शिक्षकों के साथ अविनयशील व्यवहार करते हैं, मातापिता घर में शिक्षक के सन्दर्भ में अविनयशील सम्भाषण करते हैं, सरकार विद्यार्थियों के पक्ष में होती है, न्यायालय में शिक्षक और विद्यार्थी समान माने जाते हैं - ऐसे अनेक कारणों से विद्यार्थी विनय छोडकर उद्दण्ड बन जाते हैं। वास्तव में पढने के लिये पात्रता प्राप्त करना और जब तक वह पात्रता प्राप्त नहीं करता तब तक उसे नहीं पढाना विद्यार्थी और शिक्षक का धर्म है। शिक्षक और विद्यार्थी के मध्य अन्य अनेक व्यवस्थायें आ गई हैं इसलिये इस धर्म की भी अवज्ञा होने लगी है । परन्तु शिक्षाक्षेत्र में चिन्ता करने योग्य ये भी बातें हैं और पर्याप्त महत्व रखती हैं यह मानकर कुछ उपाय किये जाने चाहिये।

शिक्षक और मुख्याध्यापक के आपसी व्यवहार में भी शिष्ट आचरण अपेक्षित है ।

विद्यालय मुख्याध्यापक का है और सारे शिक्षक तथा अन्य कर्मचारी उसके सहयोगी हैं यह व्यवस्था है। परन्तु सबको सहयोगी के स्थान पर सहभागी बनाना और मानना मुख्याध्यापक का काम है। मुख्याध्यापक का ज्ञान में, आचार में, निष्ठा में वरिष्ठ होना अपेक्षित है इसलिये शिक्षकों को केवल आज्ञा करने का ही नहीं तो मार्गदर्शन करने का भी अधिकार मुख्याध्यापक का है।

शिक्षक मुख्याध्यापक को क्या सम्बोधन करें ?

सामान्यतः आचार्यजी कहने का ही प्रचलन है। मुख्याध्यापक शिक्षकों को भी आचार्य कहकर ही सम्बोधित करते हैं।

शिक्षकों की बैठक में, सम्पूर्ण विद्यालय के कार्यक्रमों में मुख्याध्यापक का स्थान सबसे ऊपर होता है। उनके आने पर सब वैसा ही व्यवहार करते हैं जैसा शिक्षक के कक्षा में आने पर विद्यार्थी करते हैं। केवल शिक्षकों को मुख्याध्यापक के चरणस्पर्श करना अपेक्षित नहीं है।

अतिथि, अधिकारी, सन्त, महापुरुष विद्यालय में आते हैं तब मुख्याध्यापक ही परिवार के मुखिया के रूप में उनका स्वागत और सम्मान करते हैं।

अभिभावक, संचालक, निरीक्षक विद्यालय के शिक्षकों और मुख्याध्यापक से बड़े नहीं हैं यह उनके हृदय में, मस्तिष्क में और व्यवहार में बिठाना विद्यालय के सभी शिक्षकों का ही काम है । विनय और शिष्टता न छोडते हुए भी दृढतापूर्वक यह बात प्रस्थापित करनी चाहिये।

अभिभावकों के साथ आदर, सम्मान, स्नेह और विनयपूर्वक व्यवहार करते हुए भी यह बात स्पष्ट होनी चाहिये कि वे कोई ग्राहक नहीं है और विद्यालय कोई बाजार नहीं है कि उनकी मर्जी को माना जाय या उनका अविनय भी सहा जाय । उन्हें विद्यालय के अनुकूल बनाना है न कि विद्यालय को उनके अनुकूल।

संचालकों के साथ भी इसी प्रकार आदर, सम्मान और विनयपूर्वक व्यवहार करते हुए भी यह बात प्रस्थापित होनी चाहिये कि यह विद्या का क्षेत्र है, ज्ञान का क्षेत्र है, यहाँ ज्ञान की उपासना होती है और वे ज्ञान के उपासकों की सहायता और सहयोग करने वाले हैं, उनके मालिक नहीं है । ज्ञान की प्रतिष्ठा सत्ता या धन से अधिक होती है ।

सरकार के शिक्षा विभाग के अधिकारियों के मनमस्तिष्क में यह बात स्पष्ट होनी चाहिये कि वे भी शिक्षक की तरह व्यवहार करें, शासकीय कर्मचारी की तरह नहीं । वे शिक्षक ही हैं और उनकी शिक्षक की योग्यता शासकीय कर्मचारी की योग्यता से अधिक है। यदि वे शिक्षक की तरह व्यवहार करते हैं तो समानधर्मी शिक्षक के योग्य आदर सम्मान करेंगे तो उन्हें ही शिक्षकों का सम्मान करना होगा।

सरकार के सचिव, मंत्री आदि जब विद्यालय में आते हैं तब पूरा विद्यालय उनकी सेवा के लिये तत्पर हो जाता है। विश्वविद्यालय के कुलपति भी ऐसा ही करते हैं। मंत्री ही क्यों पार्षद, विधायक या सांसद जैसे जनप्रतिनिधि भी विद्यालय में आते हैं तब उनका व्यवहार ऐसा ही होता है । वास्तव में होना तो उल्टा चाहिये । हमारी परम्परा तो कहती है कि राजा भी यदि गुरुकुल में आता है तो विनीत वेश धारण करके आता है अर्थात् अपने शासक होने के सारे चिह्न गुरुकुल के बाहर ही छोडकर आता है। फिर आज क्या हो गया है ? हम कौन सी परम्परा का अनुसरण कर रहे हैं ?

आज यदि सही परम्परा को, अपनी परम्परा को प्रस्थापित करना है तो शिक्षकों और विद्यार्थियों ने मिलकर जनप्रतिनिधियों को, मन्त्रियों को, सचिवों को अतिथि के रूप में आदर और सम्मान तो अवश्य देना चाहिये । उनका स्वागत भी उचित पद्धति से करना चाहिये, हमारी भाषा भी शिष्ट ही होनी चाहिये परन्तु यह भी स्पष्ट होना चाहिये कि उन सबको मुख्याध्यापक, प्राचार्य या कुलपति का अधिक सम्मान करना चाहिये ।

कहने की आवश्यकता नहीं कि शिक्षक समाज को अपने ज्ञान, तप, आचरण, सेवाभाव, सद्भाव और निष्ठा से ही यह पात्रता और अधिकार प्राप्त होता है केवल व्यवस्था से नहीं । व्यवस्था गुणों का अनुसरण करती है, गुण व्यवस्था का नहीं । बिना गुण के केवल व्यवस्था से प्राप्त अधिकार समय बीतते मजाक और उपेक्षा के योग्य बन जाता है।

समस्या का हल करना मुख्याध्यापक का दायित्व है

विद्यालय में व्यवहार या व्यवस्था के सन्दर्भ में यदि कोई समस्या निर्माण होती है तब उसे अपने बलबूते पर उसे हल करना मुख्याध्यापक का दायित्व है उसमें सहभागी बनना शिक्षकों का।

विद्यार्थियों की उद्दण्डता बिना अभिभावक को बुलाये शिक्षकों द्वारा ही ठीक की जानी चाहिये । अपने विद्यार्थियों की उद्दंडता की जिम्मेदारी अभिभावकों पर नहीं डालनी चाहिये । हाँ, विद्यार्थियों के व्यवहार से यह ध्यान में आये कि अभिभावक भी दोषी है तो उन्हें मार्गदर्शन देने हेतु विद्यालय में बुलाया जा सकता है अथवा औचित्य के अनसार उनके पास भी जाया जा सकता है। परन्त विद्यार्थियों की उद्दण्डता हेतु अभिभावकों को जामीन नहीं बनाना चाहिये । अपने विद्यार्थियों के दोषों की जिम्मेदारी शिक्षकों को लेनी चाहिये ।

अभिभावकों की शिक्षा अलग बात है और विद्यार्थियों के अपराध या दोष के निवारण का हवाला अभिभावकों को सौंपना अलग बात है।

इसी प्रकार से विद्यालय परिसर में पुलीस को बुलाना, न्यायालय में केस दर्ज करना आदि नहीं होना चाहिये । यह मुख्याध्यापक की वरिष्ठता समाप्त कर देता है। विद्यार्थी, शिक्षक, अभिभावक या समाज से अन्य कोई न्यायालय में शिकायत करे ऐसी नौबत नहीं आने देना यह विद्यालय के मुख्याध्यापक और शिक्षकों की गुणवत्ता और व्यवहार दक्षता पर निर्भर करता है । यह बात ठीक है कि विद्यालय स्वयं पुलिस या न्यायालय के सामने नहीं जायेगा परन्तु कोई यदि उन्हें घसीटता है तो उन्हें जाना पड़ेगा । परन्तु स्थितियों का ठीक से आकलन करना शिक्षकों को आना ही चाहिये । शिक्षक बनना आसान नहीं है, विद्याव्रत भी आसान व्रत नहीं है, शिक्षक के नाते सम्मान सस्ते में नहीं मिलता है ।

विद्यालय की गरिमा व पवित्रता की रक्षा

विद्यालयीन शिष्टाचार में विद्यालय संस्था की गरिमा और पवित्रता की रक्षा करने के व्यवहार का भी समावेश होता है । जैसे कि -

विद्यालय परिसर में माँस, मदिरा, तम्बाकु आदि वस्तुओं को लेकर नहीं आना और उनका सेवन नहीं करना । परिसर के बाहर भी उनका सेवन नहीं करना ही अपेक्षित है।

व्यक्तिगत जीवन और विद्यालय व्यवहार का क्या सम्बन्ध है ऐसा तर्क धार्मिक मानसिकता तो नहीं करती । एक शिक्षक सर्वत्र शिक्षक है, एक विद्यार्थी सर्वत्र विद्यार्थी । इस दृष्टि से विद्यालय परिसर में शेअर बाजार, चुनाव, व्यवसाय आदि की मन्त्रणायें भी नहीं होना अपेक्षित है।

विद्यालय परिसर में अशिष्ट वेश धारण करके आना, अशिष्ट भाषा बोलना, झगडा करना भी निषिद्ध होना चाहिये । विद्यालय परिसर में कोलाहल करना, नारेबाजी करना आदि भी नहीं होना चाहिये।

विद्यालय में हडताल, धरना, विरोधप्रदर्शन होना भी विद्यालय को शोभा नहीं देता । ये सब बातें अचानक नहीं हो जातीं । वर्षों तक वातावरण बिगडते बिगडते बात यहाँ तक पहुँचती है। मुख्याध्यापक और शिक्षकों ने ऐसा होने दिया ऐसा ही उसका अर्थ है । विद्यालय को अनिष्ट तत्वों से बचाने का दायित्व तो शिक्षकों का ही है।

शिक्षक जब कहने लगते हैं कि हम क्या कर सकते हैं, तभी सब कुछ दुर्गति की और जाता है ।

विद्यालय संचालन में विद्यार्थियों का सहभाग

विद्यालय क्या है

क्या विद्यालय एक कार्यालय है ? क्या विद्यालय एक कारखाना है ? क्या विद्यालय एक व्यापारी संस्थान है ? क्या विद्यालय एक न्यायालय है ? क्या विद्यालय एक कैदखाना है ? क्या विद्यालय एक दुकान हैं ? वर्तमान विद्यालयों को देखते हैं तब विभिन्न सन्दर्भो में उपरिलिखित संज्ञायें देने को ही मन करता है। कभी लगता है कि विद्यालय एक कार्यालय ही है जहाँ विभिन्न नियमों और कानूनों के तहत प्रवेश, शुल्क, उपस्थिति, अध्यापन, परीक्षा प्रमाणपत्र आदि बातें संचालित होती हैं । कभी लगता है कि वह एक कारखाना है जहाँ जीवन्त मनुष्य नहीं अपितु डॉक्टर, वकील, बाबू, मजदूर आदि उत्पन्न किये जाते हैं। कभी लगता है कि यह एक बडा मॉल हैं जहाँ पैसे के बदले में जो चाहें मिलता है। परिभाषा मान्य नहीं है। हम सहजतापूर्वक मानते हैं कि विद्यालय एक परिवार है और उसका संचालन परिवार की तरह होता है।

विद्यालय एक परिवार है

विद्यालय परिवार के दो ही प्रमुख अंग हैं । एक है शिक्षक और दूसरा है विद्यार्थी । शिक्षाक्षेत्र की वर्तमान व्यवस्था में और दो पक्ष जुड गये हैं। ये हैं सरकार और संचालक । मूल धार्मिक व्यवस्था में नियन्त्रण और संचालन करने की व्यवस्था विद्यालय के अन्तर्गत ही रहती थी, बाहर से किसी प्रकार का नियन्त्रण और नियमन नहीं होता था।

विद्यालय यदि परिवार है तो उसका संचालन भी परिवार की ही रीतिनीति से होता है। परिवार संचालन के सूत्र हैं स्वतन्त्रता, स्वजिम्मेदारी और स्वपुरुषार्थ । परिवार का नियन्त्रण आन्तरिक व्यवस्था से ही होता है, परिवार चलाना परिवार के सभी सदस्यों की सामूहिक जिम्मेदारी है और अपनी क्षमता के अनुसार ही परिवार अपनी व्यवस्थायें चलाता है।

विद्यालय संचालन में भी शिक्षकों की मुख्य जिम्मेदारी होती है और विद्यार्थी उनके सहयोगी होते हैं। आज ऐसी व्यवस्था नहीं दिखाई देती । आज विद्यार्थी केवल लाभार्थी है, वे केवल पढने के लिये आते हैं । पढने हेतु वे शुल्क देते हैं इसलिये पढाई के अतिरिक्त कोई काम करना उन्हें अपना काम नहीं लगता । यदि पढाई के अलावा कुछ भी काम किया तो अभिभावकों को भी आपत्ति होती है ।

परन्तु हमें विद्यालय के धार्मिक स्वरूप का विचार करना है । उसके लिये वर्तमान स्वरूप में यदि परिवर्तन करने की आवश्यकता है तो वह कैसे हो सकता है इसका ही विचार करना चाहिये।

वर्तमान में विद्यालय की आर्थिक व्यवस्था भी शिक्षकों के जिम्मे नहीं होती। वे केवल पढाने के लिये होते हैं । पढाने के लिये उन्हें वेतन मिलता है । विद्यालय की आर्थिक जिम्मेदारी संचालकों की अथवा सरकार की होती है । भवन, साधनसामग्री, फर्नीचर आदि सब उनकी जिम्मेदारी में है और उसका स्वामित्व भी उनका ही है।

विद्यालय में सफाई, मरम्मत आदि करने हेतु सफाई कर्मचारी होते हैं। वह भी शिक्षकों को नहीं करना है। कार्यालयीन काम करने हेतु बाबू होते हैं । शिक्षक, बाबू, सफाई कर्मचारी आदि से काम करवाने की जिम्मेदारी मुख्याध्यापक की होती है।

वर्तमान विद्यालयों की यह एक प्रकार से विशृंखल व्यवस्था है । यह परिवार की व्यवस्था नहीं है।

हम यदि विद्यालय को परिवार मानें तो विद्यालय संचालन की जिम्मेदारी शिक्षकों और विद्यार्थियों की है। मुख्याध्यापक विद्यालय का मुखिया है, शेष सारे सहयोगी । सब मिलकर स्वतन्त्रतापूर्वक विद्यालय चलाते हैं ।

विद्यार्थी क्या कर सकते हैं
  1. स्वच्छता आदि से सम्बन्धित व्यवस्थाओं में सहभाग : सम्पूर्ण विद्यालय की स्वच्छता, व्यवस्था, सुशोभन, मरम्मत आदि सारे काम शिक्षकों के साथ मिलकर विद्यार्थी कर सकते हैं। आयु के अनुसार उन्हें अलग अलग प्रकार के काम दिये जा सकते हैं। ये काम केवल पैसा बचाने के लिये ही नहीं करने हैं । उन्हें शिक्षा का अभिन्न अंग बनाना है। ये क्रियात्मक शिक्षा के ही अंग हैं । योगशास्त्र में दूसरा अंग नियम है । पाँच नियम हैं, उनमें पहला अंग शौच है। शौच का ही अर्थ स्वच्छता है। अर्थात् जहाँ अध्ययन करना है वह स्थान आन्तर्बाह्य स्वच्छ होना चाहिये और अध्ययन करने वालों को ही स्वच्छता का कार्य भी करना चाहिये । ऐसी मानसिकता भी प्रथम निर्माण करनी चाहिये । यह मजदूरी नहीं है, पवित्र कार्य है ऐसी व्यापक समझ विकसित करने की आवश्यकता है।
  2. कार्यालयीन कार्य : विद्यालय के सन्दर्भ में अनेक प्रकार का पत्रव्यवहार करना होता है, अनेक प्रकार की पंजिकायें होती है, अनेक प्रकार की जानकारी संकलित करनी होती है । खरीदी, बैंक, डाक, सरकार आदि अनेकों के साथ व्यवहार करना होता है । कार्यालय के इस काम में भी विद्यार्थी सहभागी हो सकते हैं । खरीदी करने का काम कर सकते हैं । इन सारे कामों को भी शिक्षा का अंग बनाना चाहिये ।
  3. विद्यालय में अनेक प्रकार के कार्यक्रम होते हैं । सभा, सम्मेलन, गोष्ठी, बैठक, कार्यशाला, रंगमंच कार्यक्रम, व्याख्यान, वादविवाद, प्रदर्शनी आदि विविध प्रकार होते हैं । इन कार्यक्रमों के लिये मंच, बैनर, साजसज्जा, बैठक व्यवस्था, चायपान, भोजन आदि अनेक व्यवस्थायें होती है। विद्यार्थियों की आयु और क्षमता के अनुसार इन सभी कामों में सहभाग हो सकता है।
  4. ग्रन्थालय, प्रयोगशाला, कर्मशाला, रसोई, बगीचा आदि की देखभाल करना, वहाँ की व्यवस्था बनाये रखना भी एक बड़ा काम है।
  5. कार्यक्रमों का संचालन करना, पूर्व तैयारी करना, परिचय, प्रस्तावना, स्वागत आदि करना भी विद्यार्थी के लायक काम है। वृत तैयार करके अख़बारों में देना, कार्यक्रम के समय ध्वनिव्यवस्था का संचालन करना, दृश्य और श्राव्य मुद्रण करना, छाया चित्र लेना आदि भी उनका ही काम है । ये सारे तो शिक्षा का अंग हैं ही।
  6. विद्यालय के काम से समाज को परिचित करवाने हेतु प्रचार और प्रसार करना, सामाजिक सार्वजनिक व्यवस्थाओं में सेवा करना, प्राकृतिक आपदाओं में सेवा करना, विद्यालय के अन्यान्य कामों के लिये निधिसंकलन करना, समाज प्रबोधन करना शिक्षक और विद्यार्थी मिलकर कर सकते हैं।
  7. विद्यालय के कार्यकलापों का नियोजन और आयोजन करना, उसके क्रियान्वयन के परिणामों की समीक्षा करना भी साथ मिलकर हो सकता है ।
  8. विद्यालय का शैक्षिक स्तर अच्छा रखना, विद्यालय की प्रतिष्ठा समाज में स्थापित होनी चाहिये, विद्यालय समाज में एक अच्छा विद्यालय माना जाना चाहिये यह भी विद्यार्थी और शिक्षकों की ही आकांक्षा होनी चाहिये । इस दष्टि से अच्छे से अध्यापन और अध्ययन का कार्य चलना चाहिये।
  9. अध्यापन कार्य में विद्यार्थियों का बहुत महत्व पूर्ण योगदान होता है । कंठस्थीकरण का और अभ्यास का कार्य विद्यार्थी स्वयं कर सकते हैं। एक अग्रणी विद्यार्थी इस कार्य में नेतृत्व कर सकता है । मेधावी विद्यार्थी नीचे की कक्षाओं को पढ़ाने का काम भी कर सकते हैं। केवल नीचली कक्षाओं को ही नहीं तो पढाई में कमजोर विद्यार्थियों को पढ़ाने का काम भी मेधावी विद्यार्थी कर सकते हैं। शिक्षकों की सेवा करना भी मेधावी विद्यार्थियों का काम है । ग्रन्थालय से, प्रयोगशाला से आवश्यक सामग्री ले आना और वापस रखना, खेलों के लिये मैदानों का अंकन करना, संगीत, कला आदि की सामग्री सुरक्षित रखना आदि विद्यार्थियों के काम हैं।
  10. विद्यालय में अध्ययन पूर्ण होने के बाद भी विद्यार्थी का विद्यालय के साथ सम्बन्ध बना रहता है। मेधावी विद्यार्थियों को तो विद्यालय में शिक्षक बनकर विद्यालय की ज्ञानपरम्परा का निर्वहण करना चाहिये और उस रूप में शिक्षकों का ऋण चुकाना चाहिये । जो विद्यार्थी शिक्षक नहीं बनते अपितु अन्यान्य व्यवसायों में जाते हैं उन्होंने विद्यालय के निर्वाह की आर्थिक जिम्मेदारी वहन करनी चाहिये। अन्य भी अनेक व्यावहारिक काम होते हैं जिनमें पूर्व विद्यार्थी सहभागी हो सकते हैं । इन विद्यार्थियों के कारण भी समाज में विद्यालय की छवि बनती है। जिस प्रकार अपने घर के साथ व्यक्ति आजीवन जुडा रहता है उसी प्रकार अपने विद्यालय के साथ भी वह आजीवन जुडा रहना चाहिये।
इसे सम्भव बनाने के उपाय

इस प्रकार यहाँ विद्यार्थी और शिक्षक मिलकर विद्यालय का संचालन करें इस विषय में कुछ विवरण दिया गया है । परन्तु ऐसा होना इतना सरल नहीं है । इसे सम्भव बनाने हेतु भी योजना पूर्वक कुछ प्रयास करने होंगे । ये प्रयास कुछ इस प्रकार हो सकते हैं...

  1. इस संकल्पना की स्वीकृति लोकमानस में होना और अभिभावकों की समझ में आना आवश्यक है। आज केवल परीक्षा में अंक लाना ही शिक्षा का उद्देश्य माना जाता है तब शेष सारी बातें निरर्थक लगना स्वाभाविक है। अतः सार्थक शिक्षा की कल्पना लेकर व्यापक समाजप्रबोधन करना होगा । अभिभावकों की स्वीकृति के बिना कोई काम होना असम्भव है। इस दृष्टि से अनेक शिक्षण चिंतकों ने विभिन्न स्वरूपों में लोकमानस से संवाद करने की आवश्यकता होगी। बहुत कुछ लिखा जाना चाहिये और प्रचलित और प्रसारित होना चाहिये।
  2. हाथ से काम करने को आज हेय माना जाने लगा है। विद्यार्थी को घर में भी किसी प्रकार का काम करने का अभ्यास नहीं है। हर मातापिता की आकांक्षा होती है कि उनकी सन्तान पढलिखकर ऐसा व्यवसाय करे जहाँ उसे हाथ से काम न करना पड़े। इस स्थिति में विद्यार्थी को हर काम सिखाना होगा और घर में भी करने के लिये उसे प्रेरित करना होगा। फिर हाथों को काम करना सिखाना होगा यह एक बहुत बड़ा काम है और धैर्यपूर्वक करने की आवश्यकता है ।
  3. विद्यालय की अध्ययन अध्यापन पद्धति, समयविभाजन, परीक्षा पद्धति, व्यवस्थायें आदि सब इस संकल्पना के अनुरूप बदलना होगा । गणवेश भी बदल सकता है। हर विषय को क्रियात्मक पद्धति से ढालना होगा। हर विषय का मूल्यांकन क्रियात्मक बनाना होगा । यही नहीं तो अनेक बातों को परीक्षा से परे रखना होगा। परीक्षा की पद्धति, परीक्षा का महत्व , परीक्षा विषयक मानसिकता में बड़ा बदल करना होगा । पुस्तकों का और लेखन का महत्व कम करना होगा । पढाई को जीवन के साथ जोडना होगा ।
  4. किसी एक विद्यालय में इस प्रकार की शिक्षा होगी तो वह विद्यालय एक प्रयोग के रूप में चल तो जायेगा । प्रयोग के रूप में उसे प्रतिष्ठा भी कदाचित मिलेगी, उसके विषय में कहीं कोई लेख भी लिखा जायेगा परन्तु मुख्य धारा की शिक्षा में कोई परिवर्तन नहीं होगा । प्रयोग तो आज भी बहुत अच्छे हो रहे हैं, अच्छे से अच्छे हो रहे हैं परन्तु आवश्यकता मुख्य धारा की शिक्षा में परिवर्तन होने की है । मुख्य धारा जब धार्मिक होगी तब भारत की शिक्षा धार्मिक होगी और शिक्षा जब धार्मिक होगी तब भारत भी भारत बनेगा। मुख्य धारा की शिक्षा में इस प्रकार का परिवर्तन हो इस दृष्टि से देश के मूर्धन्य शिक्षाविदों ने इस पर चिन्तन करना होगा और बड़े बड़े देशव्यापी सामाजिकसांस्कृतिक-शैक्षिक संगठनों ने इसे अपनाना होगा । जब यह परिवर्तन देशव्यापी बनता है तभी अर्थपूर्ण भी बनता है। एक और शिक्षण चिन्तन, दूसरी और समाज प्रबोधन और तीसरी ओर प्रत्यक्ष कार्य ऐसे तीनों एक साथ होंगे तभी परिवर्तन होने की सम्भावना बनेगी।
  5. विद्यार्थी की अपेक्षा शिक्षकों की मानसिकता अत्यन्त महत्व पूर्ण है। वेतन की अपेक्षा, अध्यापन का अत्यन्त संकुचित अर्थ और दायित्वबोध का अभाव समाज के अन्य घटकों की तरह शिक्षक समुदाय को भी ग्रस रहे हैं। वास्तव में शिक्षकों की भूमिका इसमें केन्द्रवर्ती है। उनका प्रबोधन, प्रशिक्षण और सज्जता बढाने के प्रभावी प्रयास करने होंगे।
  6. यह कार्य त्वरित गति से तो नहीं होगा । धैर्यपूर्वक और निरन्तरतापूर्वक इस कार्य में लगे रहने की आवश्यकता है। धार्मिक शिक्षा की पुनर्प्रतिष्ठा हेतु यह करना अनिवार्य है यह निश्चित है।

विद्यालय और पूर्व छात्र

विद्यालय और पूर्व छात्र का सम्बन्ध

विद्यालय से तात्पर्य है प्राथमिक, माध्यमिक या महाविद्यालय ऐसा कोई भी विद्यालय । छात्र जब तक विद्यालय में पढ़ाई करते हैं तब तक तो उनका विद्यालय के साथ सीधा सम्बन्ध रहता है। अब अध्ययन पूर्ण कर जब घर जाते हैं तब आगे के जीवन में उनका विद्यालय के साथ कैसा सम्बन्ध रहेगा ?

आज तो अध्ययन पूर्ण हुआ अतः छात्र एक बोझ कम हुआ ऐसा मानते हैं । प्राथमिक या माध्यमिक विद्यालय पूर्ण कर जब उच्च शिक्षा में जाते हैं तब अनेक प्रकार के बंधनों से मुक्ति मिली ऐसा भी अनुभव करते हैं। गृहस्थ जीवन में जब विद्यालय को याद करते हैं तब कुछ भावात्मक बातें भी होती हैं । जिन शिक्षकों ने विशेष रूप से प्रशंसा या सहायता की थी उन्हें और जिन्होंने विशेष रूप से दंडित किया था उन्हें याद करते हैं । किस प्रकार शैतानी करते थे या कौन शिक्षक कैसा था इसकी भी चर्चा कभी कभी हो जाती है । अपने विद्यालय का गौरव अनुभव करने के किस्से भी क्वचित होते हैं।

कभी कभी विद्यालय के लिए आर्थिक सहायता की आवश्यकता हुई तो अधिक कमाने वाले छात्रों को विद्यालय याद करता है। कभी पूर्व छात्रों के स्नेहमिलन जैसे कार्यक्रम भी बनते हैं । बहुत कम संख्या में परंतु पूर्व छात्रसंघ भी बनता है । ये छात्र अपनी योजना से ही मिलते हैं और कोई न कोई कार्यक्रम करते हैं ।

ऐसा विविध प्रकार का क्रम रहता हो तो भी एक बात लक्षणीय है कि अध्ययन पूर्ण करने के बाद छात्रों और विद्यालय का व्यवस्थित सम्बन्ध नहीं रहता ।

यह सम्बन्ध रहना चाहिए । कैसे रहेगा ? जरा सोचें । अध्ययन पूर्ण करने के बाद छात्र कायदे से तो विद्यालय नहीं जाते यह सत्य है परन्तु छात्रों का जीवन गढ़ने में विद्यालय की भूमिका अत्यन्त महत्व पूर्ण है। छात्रों की बुद्धि, मानस, कौशल आदि का गठन विद्यालय के अध्ययन के कारण ही हुआ है । विद्यालय में गया है वह छात्र जो नहीं गया उससे सर्वथा भिन्न होगा। यह भिन्नता विद्यालय के कारण ही है। यह समझ में आया और उसका स्मरण रहा तो छात्र विद्यालय के प्रति कृतज्ञ रहेगा । आज ऐसी कृतज्ञता की भावना नहीं दिखाई देती है यह भी सत्य है । इसका कारण यह है कि लोग मानते हैं कि छात्र शुल्क देता है और शुल्क के बदले में शिक्षक पढ़ाते हैं । यह बहुत यांत्रिक और व्यावसायिक व्यवहार हुआ। ऐसे व्यवहार में भी शुल्क के बदले में तो ज्ञान नहीं ही मिला है। यदि शुल्क के बदले में वस्तु की तरह ज्ञान मिलता तो सभी छात्रों को एक जैसा ही मिलता । यदि पैसे से ही ज्ञान दिया जाता तो सभी शिक्षक एक जैसा ही पढ़ाते । वास्तव में पैसे से ज्ञान लिया और दिया नहीं जाता है यह आज के बाजारीकरण के जमाने में भी समझ में आने वाली बात है । तात्पर्य यह है कि विद्यार्थी का पूरा जीवन विद्यालय ने ही बनाया है। कृतज्ञतापूर्वक विद्यालय के साथ पेश आना हर छात्र के लिए सम्भव बनना चाहिए ।

विद्यालय के प्रति कृतज्ञता का भाव जगाना

विद्यालय ने ही इसका विचार करना चाहिए । विद्यार्थियों के साथ का व्यवहार ऐसा ही होना चाहिए कि इनके विद्यालय के साथ आत्मीय सम्बन्ध बने । जिस प्रकार घर के साथ घर के सदस्यों का सम्बन्ध सदा के लिए होता है, कहीं पर भी जाएँ तो भी मिटता नहीं है उसी प्रकार विद्यालय के साथ का सम्बन्ध भी मिटना नहीं चाहिए । जिस प्रकार मातापिता और संतानों का सम्बन्ध आजीवन रहता है उसी प्रकार शिक्षक और विद्यार्थी का सम्बन्ध भी आजीवन रहेगा। कोई कह सकता है कि एक शिक्षक के पास वर्षों तक असंख्य विद्यार्थी पढ़ते हैं। कभी विद्यालय बदल बदल कर अनेक विद्यालयों में पढ़ाया या अनेक नगरों में पढ़ाया या विद्यार्थी ही अनेक नगरों में बसे तो यह सम्बन्ध कैसे रहेगा ? हम आज की स्थिति में ही विचार कर रहे हैं अतः ऐसी बातें मन में आती हैं। यदि हम यह निश्चित करें कि विद्यालय और विद्यार्थियों का सम्बन्ध आजीवन रहना स्वाभाविक बनाना चाहिए तो हम उसके अनुकूल व्यवस्था बनाएँगे।

ये सारी भावात्मक बातें हैं । विद्यालय के प्रति स्नेह होना, शिक्षकों का स्मरण करना, विद्यालय के कार्यक्रमों में सहभागी होना आदि सबकी अपनी अपनी रुचि और स्थिति के अनुसार होता रहता है। परन्तु एक बार का विद्यार्थी सदा का विद्यार्थी इस रूप में विद्यालय के साथ सम्बन्ध बनना अपेक्षित है।

विद्यालय चलाने की जिम्मेदारी साँझी

बहुत बड़े महत्व का विषय यह है कि धार्मिक संकल्पना के अनुसार विद्यालय चलाने की ज़िम्मेदारी शिक्षकों और विद्यार्थियों दोनों की है। जिस प्रकार घर घर के लोग मिलकर चलाते हैं उसी प्रकार विद्यालय विद्यालय के लोग मिलकर चलाएंगे यह स्वाभाविक माना जाना चाहिए । विद्यालय चलाने के शैक्षिक और भौतिक ऐसे दो पक्ष होते हैं । विद्यालय में पढ़ना और पढ़ाना होता है। यह एक आयाम है। पढ़ने पढ़ाने की व्यवस्था के लिए स्थान, भवन, फर्नीचर, शैक्षिक सामग्री आदि की आवश्यकता होती है। अर्थात् विद्यालय चलाने के लिए अर्थव्यवस्था भी करनी होती है। ये दोनों कार्य विद्यालय के पूर्व छात्र करेंगे । कुछ बातें इस प्रकार सोची जा सकती हैं

जो विद्यार्थी अध्ययन में तेजस्वी हैं उन्हें विद्यालय में शिक्षक बनना चाहिए। शिक्षक बनकर पैसे कितने मिलते हैं यह स्वतन्त्र विषय है। हो सकता है कि न भी मिले या कम मिले । जिस प्रकार अच्छा वर या अच्छी वधू पाने के लिए गुण और कर्तृत्व देखे जाते हैं, रूप या पैसा नहीं उसी प्रकार ज्ञानदान का पवित्र और श्रेष्ठ कार्य करने का भाग्य मिलता है तो पैसे नहीं देखे जाते । अतः विद्यालय के लिए शिक्षकों की पीढ़ियाँ विद्यालय ही तैयार करेगा और वर्तमान विद्यार्थी ही भावी शिक्षक होंगे। इस दृष्टि से विद्यालय ने विद्यार्थियों का चयन करना होगा और विद्यार्थी तथा उनके अभिभावकों ने इस बात के लिए अपने आपको प्रस्तुत करना होगा। यह कार्य विद्यालय की आवश्यकता और विद्यार्थियों की क्षमता और सिद्धता के अनुसार होगा।

  • जो विद्यार्थी शिक्षक नहीं बनते हैं वे अपने घर चलाते हैं और विभिन्न व्यवसाय करते हैं। विद्यालय की आर्थिक आवश्यकतायें पूर्ण करने का दायित्व उनका है। विद्यालय को उनसे मांगना न पड़े परन्तु एक व्यवस्था यह बनी हो कि हर पूर्व छात्र को विद्यालय के लिए निश्चित धनराशि नियमित रूप से देना है । यह विद्यालय का शुल्क नहीं है, विद्यार्थियों की गुरुदक्षिणा है । गुरुदक्षिणा केवल एक ही बार देनी होती है ऐसा नहीं है, वह नियमित रूप से भी दी जा सकती है।
  • गुरुदक्षिणा देने का काम विद्यार्थी की आवश्यकता होना चाहिए, विद्यालय की नहीं ।
  • ऐसी व्यवस्था करने के लिए विद्यालय ने प्रथम तो पढ़ाने हेतु शुल्क लेना बन्द करना चाहिए । शुल्कऔर गुरुदक्षिणा दोनों एक साथ नहीं हो सकता।
  • इसका भावात्मक पक्ष दायित्वबोध का है। कृतज्ञ विद्यार्थियों को होना है, विद्यालय को नहीं ।
  • हम विद्यालय को भी परिवार कहते हैं तो उसका व्यावहारिक पक्ष यही होना चाहिए।
  • विद्यालय में प्रशासन हेतु भी एक व्यवस्था होनी होती है। आज इसके लिए संचालक मंडल होता है। नियुक्तियाँ करना, सरकार के साथ पत्रव्यवहार करना, आवश्यक सामग्री की खरीदी करना, भवन आदि बनवाना, धनसंग्रह करना आदि काम प्रबन्ध समिति के होते हैं । ये सारे काम शिक्षकों को । करना चाहिए। शिक्षकों की नियुक्तियाँ करना प्रधानाचार्य का काम है। प्रशासन की ज़िम्मेदारी शिक्षकों की है । इसमें भी विद्यार्थियों की सहभागिता अपेक्षित है।
  • इस व्यवस्था हेतु विद्यालय स्वायत्त होने चाहिए । आज की शेष व्यवस्था वैसी ही रखकर यह व्यवस्था नहीं हो सकती। तथापि संचालक मंडल, शिक्षक, अभिभावक और शासन को साथ मिलकर यह प्रयोग कैसे हो इसका विचार करना चाहिए । एक विद्यालय यदि दस वर्ष की योजना बनाता है तो यह आज भी व्यावहारिक बन सकती है।
  • शिक्षकों को इस बात में अग्रसर होना चाहिए । वे स्वयं विद्यालय आरम्भ करें । प्रथम कुछ वर्ष इसे समाज के सहयोग से चलाएं । प्रारम्भ से गुरुदक्षिणा का विषय नहीं हो सकता । प्रयोग व्यावहारिक बन सके अतः बारह वर्ष की आयु के विद्यार्थियों से आरम्भ करें । ये विद्यार्थी बीस वर्ष के होते होते अर्थार्जन आरम्भ करेंगे, साथ ही चयनित छात्र विद्यालय में अध्यापन आरम्भ करेंगे।
  • किसी भी विचार को मूर्त रूप देने के लिए बौद्धिक और मानसिक तैयारी करनी होती है वह इसमें भी करनी चाहिए । शिक्षा के धार्मिक प्रतिमान के लिए यह करणीय कार्य है इसका बौद्धिक स्वीकार प्रथम चरण है। सम्बन्धित लोगोंं की मानसिकता बनाना दूसरा चरण है। व्यावहारिक पक्ष की योजना बनाना तीसरा चरण है।
  • इस प्रकार करने से विद्यालय परिवार की भी संकल्पना साकार हो सकती है। अनौपचारिक पद्धति से कहीं कहीं पर आज भी यह चलती है, परन्तु इसे एक व्यवस्था में प्रस्थापित करने की आवश्यकता है ।
विद्यालय तंत्र कैसा है ?

वर्तमान व्यवस्था में विद्यालय तंत्र में विद्यार्थी को लाभार्थी माना जाता है और विद्यालय पैसे के बदले में लाभ उपलब्ध कराने वाली संस्था है। जिस प्रकार किसी बड़े डीपार्टमेंटल स्टोर में विभिन्न वस्तुओं को बेचने के केन्द्र बने होते हैं और उन केन्द्रों पर बेचने का काम करने वाले नौकर नियुक्त होते हैं उस प्रकार शिक्षक विद्यालय में कर्मचारी हैं। भारत में विद्यालय का स्वरूप इस प्रकार के बाजार का नहीं है। विद्यालय का स्वरूप परिवार का है। अतः विद्यालय चलाने का काम विद्यालय परिवार का होता है।

विद्यालय परिवार में शिक्षक और विद्यार्थी होते हैं । विद्यालय संचालन में शिक्षक और विद्यार्थी समान रूप से सहभागी होने चाहिए । यद्यपि शिक्षक प्रथम और अधिक जिम्मेदार हैं और विद्यार्थी उनके मार्गदर्शन में काम करते हैं । विद्यार्थी के मातापिता और समाज विद्यालय के सहयोगी हैं ।

विद्यालय में विद्यार्थियों का काम क्या होगा ?
  • विद्यालय की नित्य स्वच्छता करना
  • विद्यालय की खरीदी करना
  • विद्यालय का सामान व्यवस्थित रखना
  • विद्यालय के बेंक, यातायात, डाकघर आदि के कामकाज करना

इन सभी कामों को शिक्षाक्रम के साथ जोड़ना चाहिए । उदाहरण के लिए स्वच्छता का सामान कैसा होना चाहिए, कितना होना चाहिए, उनका प्रयोग कैसे करना चाहिए, कम समय में, कम परिश्रम से, कम वस्तुओं का प्रयोग कर अच्छे से अच्छा काम कैसे करना चाहिए इसकी शिक्षा विभिन्न विषयों की व्यावहारिक शिक्षा ही है। व्यावहारिक आयाम सीखते सीखते सैद्धान्तिक समझ भी स्पष्ट होती है। प्रत्यक्ष काम करते करते सर्व प्रकार की शिक्षा होती है। ये सारी बातें घर और विद्यालय दोनों में सीखी जाती हैं अतः कम समय में और अच्छी तरह सीखना सम्भव होता है।

वर्तमान में ये बातें होती क्यों नहीं हैं ?

एक तो सारी शिक्षा यांत्रिक बन गई है। ऐसा भ्रम निर्माण हुआ है कि शिक्षा पुस्तकें पढ़ना, प्रश्नों के उत्तर लिखना और परीक्षा में उत्तीर्ण होना ही है। ऐसे सीमित अर्थ में सार्थक शिक्षा हो ही नहीं सकती है।

वास्तव में विद्यालय का पाठ्यक्रम भी क्रियात्मक स्वरूप का बनाना चाहिए ताकि विद्यार्थी सैद्धांतिक और व्यावहारिक आयाम साथ साथ सीख सकें।

बड़ी कक्षाओं में तो छात्रों का सहभाग और अधिक क्रियात्मक रहेगा । विद्यालय के लिए धनसंग्रह करना, समाज सम्पर्क करना, सामाजिक उत्सवों और आयोजनों में सहभागी बनना, प्राकृतिक आपदाओं जैसे समय पर उसमें सेवाकार्य करना, विद्यालय में कार्यक्रमों का आयोजन करना आदि अनेक काम विद्यार्थी कर सकते हैं । यह सब सार्थक शिक्षा है, हमने अपने अज्ञानवश इसे अतिरिक्त काम मान लिया है ।

प्रश्न यह होगा कि विद्यालय का समय कम होता है,उतने समय में यह सब करेंगे कैसे । प्रश्न तो सरल है परन्तु यह केवल समय का विषय नहीं है। समय का ही विषय होता तो आवासीय विद्यालयों में शिक्षायोजना इसके अनुकूल बनती । आज भी कई विद्यालय पूरे दिन के चलते हैं, कई आठ घण्टे के चलते हैं परन्तु उन विद्यालयों में व्यवहार के साथ जोड़कर शिक्षा नहीं दी जाती। प्रश्न शिक्षाशास्त्र की समझ का है। शिक्षा को भी तन्त्रज्ञान की शिक्षा की तरह तान्त्रिक बना दिया जाता है और भौतिक पदार्थ ही मानकर उसके विषय में बोला जाता है तब ऐसा होता है । अत: पर्याप्त विमर्श और प्रबोधन की आवश्यकता है।

विद्यालय का रंगमंच कार्यक्रम

रंगमंच कार्यक्रम की आज जो दुर्गति हुई है वह कल्पनातीत है। उसमें अब शैक्षिक पक्ष का विचार लेशमात्र भी नहीं रह गया है।

कुछ बातें इस प्रकार समझने योग्य हैं:

  • रंगमंच कार्यक्रम को अब मनोरंजन का ही विषय माना जाता है, शैक्षिक या सांस्कृतिक नहीं । ऐसा मानने के बाद भी उसमें कला का आविष्कार नहीं दिखाई देता है । अतिशय निम्न स्तर का मनोरंजन ही उसमें होता है। विद्या के धाम में अभिजात कला और श्रेष्ठ कोटी की रसिकता दिखाई देनी चाहिए उसका कहीं दर्शन नहीं होता है।
  • अधिकतर फिल्म ही रंगमंच कार्यक्रमों का आदर्श होता है। फिल्मी गीतों की सीडी के साथ भोंडा नाच करना उसका मुख्य अंग होता है।
  • कई विद्यालय ऐसे होते हैं जहां नाटक, नृत्य,रास, लोककला आदि का प्रदर्शन होता है। वहाँ विद्यार्थियों की कुशलता से भी अधिक व्यावसायिक कलाकारों का निर्देशन ही मुख्य रहता है अर्थात् व्यावसायिक कलाकारों को ठेका दिया जाता है और विद्यालय के छात्रों को सिखाने की व्यवस्था की जाती है। इसका प्रदर्शन किया जाता है ।
  • वास्तव में रंगमंच कार्यक्रम शिक्षाक्रम से स्वतंत्र विषय नहीं है। वह अध्ययन का एक अंग है और उसका नियोजन उसी प्रकार होना चाहिए।
  • रंगमंच कार्यक्रम कक्षाकक्ष की शिक्षा का ही विस्तार है । वह मौखिक और कलात्मक अभिव्यक्ति के लिए अवसर देता है।
  • उदाहरण के लिए विद्यालय में भाषा के विषय में कविता, नाटक या कहानी सीखी जाती है। नाटक केवल पढ़ने के लिए नहीं होता है, वह अभिनय के माध्यम से प्रस्तुत किया जाता है । अत: कक्षाकक्ष में ही उसे प्रस्तुत करना उसे पढ़ने पढ़ाने की उत्तम विधि है। पहले विद्यार्थी नाटक देखें और बाद में प्रस्तुत करें यह क्रम होना चाहिए । ऐसी प्रस्तुति के समय साजसज्जा, प्रसाधन, वेषभूषा आदि का कोई महत्व नहीं है । अभिनय, संवाद बोलने का कौशल, वाणी का प्रभुत्व, आवाज का नियमन, अंगविन्यास, लिखित विषय को वाणी तथा अभिनय में परिवर्तित करने का कौशल आदि शैक्षिक विषय हैं। इनकी ओर ध्यान दिया जाय तभी वह शिक्षाक्रम का अंग बनता है अन्यथा केवल मनोरंजन है। केवल मनोरंजन के लिए विद्यालय में कोई अवकाश नहीं, वह घर में और घर के बाहर भी बहुत है।
  • साजसज्जा, वेषभूषा आदि नहीं होने से प्रेक्षक के रूप में भी कल्पनाशक्ति का विकास होता है। अभिनय देखकर ही चरित्र समझने की क्षमता बढ़ती है। पात्र के साथ तादात्म्य निर्माण होता है । कलाकृति का रसानुभव करना और उससे प्रेरणा प्राप्त करना तभी सम्भव है। हम सुनते हैं कि महात्मा गांधी ने राजा हरिश्चंद्र का नाटक देखा और उससे प्रेरणा प्राप्त कर जीवन में सत्य ही बोलने का व्रत लिया । आज छोटे छोटे बच्चे भी फिल्म में जो देखते हैं वह झूठ है ऐसा समझते हैं । उन्हें नट और नटियाँ दिखती हैं, उनके चरित्र नहीं । वे चरित्रों के नाम नहीं बोलते, नातों के ही नाम बोलते हैं। प्रेरणा लेते हैं तो उनके शृंगार और वेषभूषा तथा केशभूषा की क्योंकि कला अब अभिनय में नहीं अपितु साजसज्जा और शृंगार के ऊपरी सतह पर आ गई है।
  • इस छिछलेपन तथा कला के आभासी स्तर को सही करने का स्थान विद्यालय का कक्षाकक्ष है जहां कला का आस्वाद और कला की प्रस्तुति की सही समझ दी जाती है।
  • कला का क्षेत्र आज बहुत बड़ी मात्रा में अक्रिय मनोरंजन का क्षेत्र बन गया है । लोग संगीत सुनते हैं, स्वयं गाते नहीं, नाटक या नृत्य देखते हैं, स्वयं करते नहीं, खेल भी देखते हैं, खेलते नहीं। बहुत ही अल्प मात्रा में लोग यह सब करते हैं परन्तु संकट यह है कि उनके लिए यह सब कमाई करने के साधन हैं, आनन्द और रसास्वादन के नहीं। अच्छी से अच्छी बातों को बिकाऊ बना देने की क्षुद्र वृत्ति आज चारों अल्प मात्रा में लोग यह सब करते हैं परन्तु संकट यह है कि उनके लिए यह सब कमाई करने के साधन हैं, आनन्द और रसास्वादन के नहीं। अच्छी से अच्छी बातों को बिकाऊ बना देने की क्षुद्र वृत्ति आज चारों ओर दिखाई दे रही है अतः आनन्द कला का नहीं कला से मिलने वाले पैसे का रह गया है। यह सांस्कृतिक अवनति है।
  • आजकल अक्रिय मनोरंजन के प्रचलन के परिणामस्वरूप एक ओर तो निष्क्रियता बढ़ी है, दूसरी ओर जब भी विद्यार्थी नाचते गाते हैं तब उसमें किसी भी प्रकार का सौंदर्य नहीं होता। संगीत, नृत्य या अभिनय का उसमें दर्शन नहीं होता । एक प्रकार का भोंडापन ही दिखाई देता है । या तो उसमें परा कोटी का व्यावसायीकरण होता है। उसमें फिर सब लोग सहभागी नहीं हो सकते। हमारे लोकउत्सवों में छोटे बड़े सबकी, सामान्य से लेकर महाजनों की सहभागिता का बहुत महत्व रहा है। जिस प्रकार सार्वजनिक उत्सवों में लोकसहभागिता का महत्व है उसी प्रकार विद्यालय में शैक्षिक दृष्टि से सभी विद्यार्थियों की सहभागिता का महत्व है । जिस प्रकार भाषा, गणित, विज्ञान, इतिहास सबको आने चाहिए उसी प्रकार गाना, नाचना, खेलना, अभिनय करना भी सबको आना चाहिए । इस दृष्टि से कक्षाकक्ष ही रंगमंच है, प्रार्थनासभा ही विशेष प्रस्तुति के लिए मंच है, भाषाशुद्धि, स्वरशुद्धि, जिसका अभिनय कर रहे हैं उस चरित्र के साथ का तादात्म्य, भाषाकीय अभिव्यक्ति, अंगविन्यास आदि मूल्यांकन के मापदण्ड हैं, शिक्षक ही मूल्यांकन करने वाले और सिखाने वाले भी हैं।
  • महाविद्यालयों के रंगमंच कार्यक्रमों में राष्ट्रीय समस्याओं के सन्दर्भ में प्रबोधन और शिक्षाक्षेत्र के माध्यम से क्या हल हो सकता है उसका विचार भी प्रस्तुत होना चाहिए । उदाहरण के लिए देश की आर्थिक स्थिति का विश्लेषण और उपाय, देश के गौरव का स्मरण और जागरण,सांस्कृतिक श्रेष्ठता के जतन का आग्रह, विश्व में भारत की भूमिका आदि महत्व पूर्ण विषयों का समावेश रंगमंच कार्यक्रमों में होना चाहिए । संक्षेप में रंगमंच कार्यक्रम शिशु से लेकर बड़ी कक्षाओं तक शिक्षाप्रक्रिया का ही नियमित और अंगभूत हिस्सा बनना चाहिए, अलग से कोई विशेष कार्यक्रम नहीं । यह पैसे का और मनोरंजन का विषय नहीं है, क्रियात्मक, भावात्मक, कलात्मक, व्यावहारिक शैक्षिक विषय है।

विद्यालय सामाजिक चेतना का केंद्र

समाज का अर्थ

समाज की अन्यान्य व्यवस्थाओं में विद्यालय का स्थान अत्यन्त विशिष्ट है। इसे ठीक से समझने के लिये प्रथम समाज से हमारा तात्पर्य क्या है यह समझना आवश्यक है।

समाज मनुष्यों का समूह है। परन्तु समूह तो प्राणियों का भी होता है। कई प्राणी कभी भी अकेले नहीं रहते, छोटे बड़े समूह में ही रहते हैं और घूमते हैं। उनके समूह को समाज नहीं कहते । जो मनुष्य प्राणियों की तरह केवल आहार, निद्रा, मैथुन और भय से प्रेरित होकर उन वृत्तियों को सन्तुष्ट करने के लिये ही जीते हैं उनके समूह को भी समाज नहीं कहते । जो मनुष्य संस्कारयुक्त हैं, किसी उदात्त लक्ष्य के लिये जीते हैं, उदार अन्तःकरण से युक्त हैं ऐसे मनुष्यों के समूह को समाज कहते हैं।

उदार अन्तःकरण से युक्त लोगोंं की एक जीवनशैली होती है, एक रीति होती है । इस रीति को संस्कृति कहते हैं। संस्कृति का प्रेरक तत्व धर्म होता है। वर्तमान परिस्थिति में धर्म संज्ञा के सम्बन्ध में हमें बार बार खुलासा करना पडता है। धर्म संज्ञा सम्प्रदाय, पंथ, मत, मजहब, रिलिजन आदि में सीमित नहीं है। वह अत्यन्त व्यापक है। धर्म एक ऐसी व्यवस्था है जो विश्वनियमों से बनी है और सृष्टि को धारण करती है अर्थात् नष्ट नहीं होने देती । धर्म मनुष्य समाज के लिये भी ऐसी ही व्यवस्था देता है जो उसे नष्ट होने से बचाती है। संस्कृति धर्म की ही व्यवहार प्रणाली है।

अर्थात् जो धर्म के अनुसार अपनी जीवन रचना करते हैं ऐसे मनुष्यों का समूह समाज कहा जाता है ।

परिवार भावना मूल आधार है

सामान्य अर्थ में साथ मिलकर रहनेवाला समूह समाज है। साथ रहने की प्रेरणा और प्रकार भिन्न भिन्न होते हैं। एक प्रकार है परिवार के रूप में साथ रहना । स्त्री और पुरुष ऐसा मूल द्वन्द्व जब पतिपत्नी बनकर साथ रहता है तब परिवार बनने का प्रारम्भ होता है। स्त्री और पुरुष अन्य प्राणियों में नर और मादा काम से प्रेरित होकर साथ नहीं रहते । काम का उन्नयन प्रेम में करते हैं और अपने सम्बन्ध को एकात्म सम्बन्ध तक ले जाते हैं । इनको जोडने वाला विवाह-संस्कार होता है। इस परिवार का ही विस्तार मातापिता और सन्तान, भाईबहन आदि में होते होते वसुधैव कुटुम्बकम् तक पहुँचता है । मनुष्य समाज की साथ मिलकर रहने की यह एक व्यवस्था है। यह सर्व व्यवस्थाओं का भावात्मक मूल है अर्थात् अन्य सभी व्यवस्थाओं में परिवार भावना मूल आधाररूप रहती है ।

मनुष्य की अनेक आवश्यकतायें होती हैं । आहार तो सभी प्राणियों की आवश्यकता है, उसी प्रकार से मनुष्य की भी है । परन्तु मनुष्य प्राणी की तरह नहीं जीता । उसे मन, बुद्धि, अहंकार आदि भी मिले हैं। इन सबकी आवश्यकतायें भी होती हैं। अपनी इच्छायें, अपनी जिज्ञासा, अपना कर्ताभाव आदि से प्रेरित होकर मनुष्य अनेक प्रकार की वस्तुयें चाहता है। इन्हें प्राप्त करने का प्रयास करता है। अनेक वस्तुओं का निर्माण करता है। इसमें से विभिन्न वस्तुयें निर्माण करनेवाले, अनेक प्रकार के कार्य करनेवाले समूह निर्माण हुए जिन्हें जाति कहा जाने लगा।

समाज धर्म व संस्कृति से चलता है

मनुष्य का मन बहुत सक्रिय है । रागद्वेष, लोभ, मोह, मद, मत्सर आदि से उद्वेलित होकर वह अनेक प्रकार के उपद्रव करता है। इसमें से अनेक प्रकार की परेशानियाँ निर्माण होती हैं । मनुष्य की बुद्धि में जिज्ञासा है । जिज्ञासा से प्रेरित होकर वह असंख्य बातें जानना चाहता है और जानने के लिये नये नये प्रयोग करता रहता है। अनेक कलाओं का आविष्कार मनुष्य की सृजन करने की इच्छा में से होता हैं। इन सबका एक बहुत बड़ा संसार बनता है। इन मनोव्यापारों और गतिविधियों के नियमन हेतु अनेक प्रकार की व्यवस्थायें बनती हैं। अर्थव्यवस्था, राज्यव्यवस्था, इनके अन्तर्गत न्यायव्यवस्था, दण्डव्यवस्था, उत्पादन, वाणिज्य, विवाह आदि मनुष्यों को नियमन में रखने के लिये ही बनी हैं। इन व्यवस्थाओं के चलते अनेक प्रकार के समूह बनते हैं।

इन सभी व्यवस्थाओं का मूल आधार है धर्म, धर्म के अनुसार जो रीति बनती है वह है संस्कृति । तात्पर्य यह है कि मनुष्य का समाज धर्म और संस्कृति से चलता है ।

संस्कृति सनातन है

संस्कृति का प्रवाह पीढी दर पीढी अखण्ड चलता है । नित्य प्रवाहित होने वाली सभी व्यवस्थाओं में परिवर्तन होते ही रहते हैं। परिवर्तन के कारण ही उसकी सुस्थिति बनी रहती है। जिस प्रकार बहती नदी का पानी कभी भी एक स्थान पर नहीं टिकता, टिकते ही वह नदी नदी नहीं रहती, टिकते ही उसकी शुद्धि की प्रक्रिया भी स्थगित हो जाती है, उस प्रकार संस्कृति का प्रवाह भी पीढ़ी दर पीढ़ी गतिमान रहने के कारण नित्य परिवर्तनशील भी रहता है और नित्य परिवर्तनशील होने के कारण नित्य शुद्ध, नित्य ताजा भी रहता है।

नित्य परिवर्तित होने पर भी वह एक और अखण्ड रहता है । यही संस्कृति की सनातनता है । नित्य परिवर्तन, नित्य शुद्धि, नित्य नूतनता होने पर भी वही का वही रहता है उसीको संस्कृति का प्रवाह कहते हैं ।

शिक्षा संस्कृति का हस्तान्तरण करती है

संस्कृति को एक पीढी से दूसरी पीढी को हस्तान्तरित करते हुए नित्य प्रवाहित रखने का महत्व पूर्ण कार्य शिक्षा करती है । वह घर में मातापिता द्वारा सन्तानों को, विद्यालय में शिक्षक द्वारा विद्यार्थी को और समाज में धर्माचार्यो द्वारा लोगोंं को हस्तान्तरित की जाती है ।

घर में भावात्मक, विद्यालय में ज्ञानात्मक और धर्माचार्य द्वारा प्रबोधनात्मक पद्धति से शिक्षा संस्कृति का हस्तान्तरण करती है। भावात्मक शिक्षा के आधार पर ज्ञानात्मक शिक्षा होती है। विद्यालय में जो ज्ञान प्राप्त किया उसे जीवनभर व्यवहार में प्रकट करना है। उस समय निरन्तर प्रबोधन करने का काम विद्वान धर्माचार्य करते हैं।

इस व्यवस्था में विद्यालय की भूमिका महत्व पूर्ण है । विद्यालय में जो शिक्षा दी जाती है उससे समाज की स्थिति बनती है। विद्यालय में यदि अच्छी शिक्षा मिलती है तो समाज अच्छा बनता है, विद्यालय में अच्छी शिक्षा नहीं मिलती है तो समाज अच्छा नहीं बनता है। समाज ही विद्यालय की शिक्षा का निकष है। अतः शिक्षा विद्यार्थी के माध्यम से सम्पूर्ण समाज को लक्ष्य बनाकर दी जानी चाहिये ।

विद्यालय की भूमिका

समाज को सुसंस्कृत बनाने का और संस्कृति के प्रवाह को निरन्तर प्रवाहित तथा शुद्ध रखने का कार्य विद्यालय कैसे करेगा ?

व्यवस्थाओं को जीवनदृष्टि के अनुरूप बनाने हेतु विभिन्न शास्त्रों की रचना करना और सिखाना विद्यालय का प्रमुख कार्य है। सर्वे भवन्तु सुखिनः यह धार्मिक जीवनदृष्टि है । इस दृष्टि के अनुरूप राज्यव्यवस्था, अर्थव्यवस्था आदि होनी चाहिये। इस दृष्टि से राजशास्त्र, अर्थशास्त्र आदि शास्त्रों की रचना करना विद्यालय का कार्य है । यह सही है कि यह अध्ययन, अनुसन्धान और ग्रन्थों के निर्माण का कार्य है और उच्चशिक्षा के केन्द्रों में होगा । परन्तु होगा तो विद्यालय में ही। इसके अध्यापन के माध्यम से विद्वान, दक्ष और कार्यकुशल लोग तैयार करने का काम भी विद्यालय को ही करना है। मंत्री हो या प्रशासक, सैनिक हो या जासूस, व्यापारी हो या उत्पादक शिक्षक हो या वैज्ञानिक, बाबू हो या मुकादम, ये सारे विद्यालय से ही अपनी अपनी विद्या सीखते हैं। इन सभी क्षेत्रों में यदि गडबड है तो यह विद्यालय की अधूरी या अनुचित शिक्षा का ही परिणाम माना जाना चाहिये । देश के कानून, विभिन्न प्रकार के तन्त्र, यदि ठीक नहीं हैं तो हम मान सकते हैं कि विद्यालय ने सही कानून, सही नीतियाँ, सही तन्त्र बनानेवाले लोग निर्माण नहीं किये हैं।

समाज में हिंसा, चोरी, अनाचार, भ्रष्टाचार, असत्य, धोखाधडी आदि दिखाई देता है तो मानना चाहिये कि देश के विद्यालयों में (तथा परिवार में) सद्गुण और सदाचार की शिक्षा नहीं दी जाती है, शिक्षकों की तथा संचालकों की नीयत ठीक नहीं है, मातापिता गैरजिम्मेदार हैं। विद्यालय को समाज के संस्कारों का भी रक्षक और नियामक होना चाहिये।

सामाजिक रीतियों का शोधन करना

समाज की रीतियों में जब प्रदूषण फैलता है तब उसका शोधन करने का काम भी विद्यालय को करना होता है । विद्यालय की वह क्षमता है, अधिकार है और दायित्व विभिन्न सन्दर्भ और उदाहरणों से इस प्रतिपादन को स्पष्ट करेंगे।

  • होली, नवरात्रि, गणेश चर्थी आदि भारत के देशव्यापी सांस्कृतिक पर्व हैं। इनका आयोजन धार्मिक, सांस्कृतिक पद्धति से होना चाहिये । परन्तु वर्तमान में इसका बाजारीकरण, भौतिकीकरण और फिल्मीकरण हो गया है। ये सात्त्विक आनन्दप्रमोद के, उपासना के, राष्ट्र भावना जगाने के, समाज को संगठित करने के पर्व नहीं रह गये हैं। इन्हें यदि शुद्ध करना है तो कानून, पुलीस, बाजार, प्रशासन की क्षमता नहीं है। विद्यालय को ही अपने विद्यार्थियों की शिक्षा और उनके परिवारों के प्रबोधन के माध्यम से यह कार्य करना होगा। विद्यालय का यह कानूनी नहीं, स्वाभाविक कर्तव्य है।
  • चुनावों में लेनदेन होता है, सांसद उद्योजकों के साथ हाथ मिलाकर प्रजाविरोधी और देशविरोधी काम करते हैं तो विद्यालय के शिक्षकों और विद्यार्थियों को इन्हें ठीक करने का काम करना चाहिये ।
  • परिवारो में जन्मदिन, विवाह, भोजनपद्धति यदि संस्कार हीन अथवा विदेशी हो गई है तो विद्यालय को ही इसे ठीक करना चाहिये।
  • छात्रों की अध्ययन पद्धति को समुचित रखना भी विद्यालय का ही काम है।
  • प्राकृतिक या मानवनिर्मित आपत्तियों में सेवा कार्यों में जुटना, उनके लिये अर्थसंग्रह करना, विभिन्न प्रकार के अभियान चलाना विद्यालय का काम है। उदाहरण के लिये स्वदेशी जागरण अभियान, नवरात्रि सांस्कृतिकीकरण अभियान, सामाजिक समरसता अभियान आदि।
  • वर्तमान में चले गाँव की ओर', भारत का ग्रामीणीकरण, गोरक्षा आन्दोलन, स्वतन्त्र उद्योगकरो, नौकरी छोडो, प्रबोधन कार्यक्रम ‘हाथ कुशल कारीगर' अभियान चलाने की आवश्यकता है।
  • 'धार्मिकों, भारत में रहो, धार्मिक बनो' भी अत्यन्त महत्व पूर्ण विषय है। वैसा ही महत्व पूर्ण विषय ‘परिवार प्रथम पाठशाला' है।
  • शिक्षा के क्षेत्र में ‘पाँच वर्ष से पहले विद्यालय नहीं' का विषय लेकर समाजप्रबोधन करने की आवश्यकता है।

इस प्रकार संस्कृति, धर्म और ज्ञान के क्षेत्र में रक्षण, संवर्धन और शोधन का कार्य कर विद्यालय समाज को सुस्थिति में रखता है।विद्यालय का अर्थ है शिक्षक और विद्यार्थी । शिक्षकों के निर्देशन में शिक्षा और समाज का प्रबोधन दोनों काम साथ साथ चलते हैं । यह सब होता है इसलिये विद्यालयों को ‘सामाजिक चेतना के केन्द्र' कहा जाता है ।

पूरे दिन का विद्यालय

कैसे विचार करना चाहिए

आठ नौ या दस घण्टे के विद्यालय भी कुछ मात्रा में चलते हैं । यद्यपि इनकी संख्या कम ही है। इन विद्यालयों के बारे में कैसे विचार करना चाहिये ?

  1. इन विद्यालयों में दो समय का अल्पाहार, एक समय का भोजन और भोजन के बाद की विश्रान्ति की व्यवस्था होती है। इन बातों को यदि शिक्षा के अंग के रूप में स्वीकार किया जाय तो आहारशास्त्र की ज्ञानात्मक, भावनात्मक और क्रियात्मक शिक्षा बहुत अच्छे से हो सकती है । ज्ञानात्मक शिक्षा से तात्पर्य है, विद्यार्थियों को आहारविषयक शास्त्रीय अर्थात् वैज्ञानिक ज्ञान देना, भावनात्मक शिक्षा से तात्पर्य है विद्यार्थियों को आहारविषयक सांस्कृतिक ज्ञान देना और क्रियात्मक शिक्षा से तात्पर्य है विद्यार्थियों को भोजन बनाने और करने का कौशल सिखाना । आज समाज में आहार के विषय में घोर अज्ञान और विपरीत ज्ञान फैल गया है। विद्यालय में यदि इस प्रकार की शिक्षा दी जाती है तो उनके माध्यम से घरों में भी पहुँच सकती है। समाज के स्वास्थ्य और संस्कार में वृद्धि हो सकती है।
  2. परन्तु जो लोग कमाई करने के लिये ही विद्यालय चलाते हैं उन्हें भोजनादि की व्यवस्था में अधिक कमाई दिखाई देती है और वे खुश होते हैं। ऐसे विद्यालयों में अभिभावक और संचालकों में होटेल और होटेल में खाने के लिये जानेवालों का परस्पर जो व्यवहार होता है वैसा ही व्यवहार होता है। ऐसे विद्यालयों में आहारविषयक शिक्षा नहीं होती।
  3. कई बार अधिक समय तक विद्यालय चलाने के पीछे शैक्षिक विचार होता है। विद्यार्थियों को अच्छी शिक्षा दी जा सके, व्यक्तिगत मार्गदर्शन दिया जा सके यह उद्देश्य होता है। अधिक समय विद्यालय में रखना है तो भोजन आदि की व्यवस्था करनी ही होगी ऐसा विचार कर विद्यालय के संचालक ऐसी व्यवस्था करते हैं । यह केवल सुविधा की दृष्टि से होता है । इसमें शैक्षिक या आर्थिक दृष्टि नहीं होती ।
  4. क्वचित पूरे दिन के विद्यालय में विद्यार्थी अपना भोजन घर से ही लेकर आते हैं, विद्यालय की ओर से व्यवस्था नहीं की जाती । अभिभावकों का पैसा बचता है और विद्यालय झंझट से बचते हैं।
  5. पूरे दिन का विद्यालय अभिभावकों के लिये सुविधाजनक रहता है। विशेष रूप से महानगरों में जहाँ पतिपत्नी दोनों काम के लिये बाहर जाते हैं और बच्चोंं को देखनेवाला घर में और कोई नहीं होता तब इस व्यवस्था में बहुत सुविधा रहती है। यह केवल छोटे बच्चोंं की ही बात नहीं है, किशोर या तरुण आयु के बच्चोंं के लिये भी घर में अकेले रहना इष्ट नहीं लगता । इस दृष्टि से पूरे दिन के विद्यालय आशीर्वादरूप होते हैं। महानगरों या नगरों में जहाँ विद्यालय घर से पर्याप्त दूरी पर होते हैं वहाँ भी यह व्यवस्था बहुत सुविधाजनक होती है।
  6. पूरे दिन के विद्यालय में पढ़ने वाले विद्यार्थियों के लिये अतिरिक्त ट्यूशन या कोचिंग क्लास की आवश्यकता नहीं होती। होनी भी नहीं चाहिये । यदि पूरे दिन का विद्यालय भी शिक्षक, विद्यार्थी या अभिभावकों को अपर्याप्त लगता है तो मानना चाहिये कि कहीं कुछ गडबड है। अतः समय का पूर्ण उपयोग करना चाहिये।
  7. पूरे दिन के विद्यालय में या तो शिक्षकों की संख्या अधिक होती है अथवा उनका वेतन अधिक होता है। अधिकांश शिक्षक अधिक काम और अधिक वेतन चाहते हैं परन्तु वास्तव में अधिक शिक्षक होना शैक्षिक दृष्टि से अधिक उचित है। ऐसा होने से शिक्षक - विद्यार्थी का अनुपात कम हो जाता है, साथ ही शिक्षकों को शारीरिक और मानसिक थकान कम होती है। शिक्षक - विद्यार्थी का अनुपात कम होने से अध्ययन-अध्यापन की गुणवत्ता बढती है । यदि शिक्षक अधिक समय तक काम करते हैं तो उन्हें स्वाध्याय करने के लिये समय नहीं मिलता और शक्ति भी नहीं बचती।।
  8. पूरे दिन के विद्यालयों में सप्ताह में दो दिन का अवकाश होता है तो अधिक सुविधा रहती है। विद्यार्थियों और शिक्षकों में सामाजिकता का विकास हो इस दृष्टि से इस समय का उपयोग किया जाना चाहिये । विद्यार्थियों और शिक्षकों में सामाजिकता का विकास हो इस दृष्टि से शिक्षा भी दी जानी चाहिये । आज ऐसा दिखाई देता है कि पढाई जिनके पीछे लग गई है ऐसे विद्यार्थी सामाजिक व्यवहार में शून्य होते हैं । काम में अति व्यस्त शिक्षक सामाजिक व्यवहार में समय ही नहीं दे पाते । दोनों को यदि सामाजिकता की शिक्षा नहीं दी गई तो अवकाश का समय टीवी या अन्य व्यक्तिगत रुचि के काम या मनोरंजन में ही बीत जाता है । ऐसा न हो इसका ध्यान रखना चाहिये । परन्तु दो दिन का अवकाश है इसलिये विद्यालय का ही काम गृहकार्य के रूप में करने के लिये नहीं देना चाहिये, नहीं तो अन्य किसी भी प्रकार के कामों के लिये समय ही नहीं रहेगा।
  9. पूरे दिन के विद्यालय की व्यवस्था ऐसी तो नहीं होनी चाहिये कि विद्यार्थियों को बाद में खेलने का समय ही न रहे । या तो विद्यालय में खेलने की व्यवस्था हो या खेलने का ही गृहकार्य दिया जाय । घर में खेलने की व्यवस्था होना आवश्यक है। यदि घर में ऐसी व्यवस्था नहीं है तो विद्यालय में खेलना चाहिये ।
  10. पूरे दिन के विद्यालय में बस्ता विद्यालय में ही रखकर जाने की व्यवस्था होना स्वाभाविक है। इससे विद्यार्थियों को बस्ते का बोझ उठाना नहीं पडता ।
  11. दस वर्ष की आयु तक पूरे दिन का विद्यालय होने की कोई आवश्यकता नहीं । पन्द्रह वर्ष के बाद भी ऐसी आवश्यकता नहीं। यह ग्यारह से पन्द्रह ऐसे पाँच वर्षों के लिये ही सबसे अधिक लाभदायी व्यवस्था हो सकती है । इस दौरान विद्यार्थी यदि साइकिल लेकर ही विद्यालय जाते हैं तो हर दृष्टि से अच्छा रहेगा।
  12. पूरे दिन के विद्यालय में समयसारिणी और पाठन पद्धति में विशेष प्रयोग करने की सुविधा रहती है । इसका पूरा लाभ उठाना चाहिये । क्रियात्मक पद्धति से अध्ययन करने के अवसर विद्यार्थियों को मिलने चाहिये । ग्रन्थालय, विज्ञान प्रयोगशाला और उद्योगशाला में क्रियात्मक अध्ययन करने के अवसर मिलने चाहिये ।
  13. पूरे दिन के विद्यालय में जीवन व्यवहार की शिक्षा देने की व्यवस्था भी हो सकती है। परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि विद्यार्थियों को पढाई के बोझ से ही लाद दिया जाय । वास्तव में पूरे दिन के विद्यालय में सामान्य विद्यालय से दो घण्टे ही अधिक मिलते हैं । अतः अनेक प्रकार की और अत्यधिक अपेक्षयें नहीं करनी चाहिये । वैसे तो विद्यालय और घर दोनों स्थानों पर जो पढाई होती है वह इस व्यवस्था में एक ही स्थान पर होती है इतना ही अन्तर मानना चाहिये । केवल यहाँ सब कुछ शिक्षकों के मार्गदर्शन में होता है यह विशेष है ।
  14. पूरे दिन के विद्यालय का समय प्रातःकाल सात बजे से आरम्भ होता है तो उत्तम। इससे विद्यार्थियों को प्रातः काल जल्दी उठने का अभ्यास सहज ही होता है। सायंकाल खेलने के बाद यदि छ: बजे वापस जाना है तो वह भी सही होगा। अभिभावकों और शिक्षकों की सहमति से समय का निर्धारण होना आवश्यक है।
  15. आवासीय विद्यालय से अधिक व्यापक रूप में, अधिक संख्या में पूरे दिन के विद्यालय का प्रयोग हो सकता है। आवासी विद्यालय जैसी अधिक व्यवस्थायें नहीं करनी पडतीं यह एक सुविधा है और विद्यार्थी विद्यालय में अधिक समय तक रहने पर भी अपने परिवार में ही रह सकते हैं ।

इस दृष्टि से पूरे दिन के विद्यालयों का शैक्षिक दृष्टि से अधिक प्रचलन हो यह हितकारी है ।

आवासीय विद्यालय

अनेक प्रकार के विद्यालयों में एक प्रकार आवासीय विद्यालयों का होता है। यह ऐसा विद्यालय है जहाँ विद्यार्थी चौबीस घण्टे और पूरा वर्ष रहता है। उसकी शिक्षा और निवास, भोजन आदि की व्यवस्था एक ही स्थान पर होती है। ऐसे आवासीय विद्यालयों के सम्बन्ध में अनेक आयामों में विचार करने की आवश्यकता है।

प्रयोजन

विद्यार्थी को आवासीय विद्यालय में जाने की आवश्यकता क्यों होती है ?

  1. प्राचीन गुरुकुलों में विद्यार्थी गुरु के घर में रहकर ही विद्या ग्रहण करता था। उसके लिये गुरुगृहवास शिक्षा प्राप्त करने का एक अनिवार्य अंग था । यह बात ठीक है कि जहाँ वह रहता था वहाँ गुरुकुल का होना सम्भव न हो इसलिये उसे अपना घर छोडकर गुरु के घर जाना पड़े । परन्तु यह बात गौण थी । गुरु के साथ पूर्ण समय पूर्ण रूप से रहना अनिवार्य था ।
  2. चालीस पचास वर्ष पूर्व भारत के छोटे छोटे गाँवों में विद्यालय, विशेष रूप से माध्यमिक विद्यालय नहीं होते थे। नगरों में ऐसे विद्यालय होते थे । महाविद्यालय तो बड़े नगरों में या महानगरों में होते थे। आज भी उच्च शिक्षा के अनेक विशिष्ट संस्थान विद्यार्थी जहाँ रहता है उससे पर्याप्त दूरी पर ही होते हैं। इस स्थिति में विद्यार्थी को आवासीय विद्यालय में रहना पडता है।
  3. अनेक ऐसे किस्से हैं जिनमें विद्यार्थी बहुत अधिक शरारती, उद्दण्ड है या घर में उसे देखने वाला, टोकने वाला कोई नहीं है तब उसे आवासीय विद्यालय में भेजा जाता है। उसके लिये आवासीय विद्यालय सुधार गृह जैसा है।
  4. अतिधनाढ्य, अतिउच्चशिक्षित, अतिसत्ताधीशों के बच्चोंं को देश के अत्याधुनिक, अतिसमृद्ध आवासी विद्यालयों में भेजा जाता है । ये प्रतिष्ठा के दर्शक हैं और विशेष छाप लिये हुए हैं।
  5. अनाथ, गरीब, दलित, पिछड़ी जातियों के, वनवासी बच्चोंं के लिये सरकार की ओर से निःशुल्क आवासी विद्यालय चलाये जाते हैं जिन्हें आश्रमशाला कहा जाता है।
  6. आध्यात्मिक केन्द्रों में, मठों में, वेदाध्ययन केन्द्रों में जो विद्यालय चलते हैं वे आवासीय ही होते हैं । कई शिक्षक प्रशिक्षण विद्यालय भी अनिवार्य रूप से आवासीय होते हैं।
स्वरूप

विभिन्न प्रयोजनों से चलने वाले आवासीय विद्यालयों के स्वरूप भी भिन्न भिन्न होते हैं ।

  1. एक प्रकार ऐसा होता है जहाँ विद्यालय और आवास एक दूसरे से भिन्न व्यवस्था में चलते हैं। एक ही संस्था दोनों को चलाती है परन्तु विद्यालय मुख्याध्यापक या प्रधानाचार्य के द्वारा और छात्रावास गृहपति के द्वारा संचालित होता है । एक विद्यालय में पढने वाले एक ही छात्रावास में रहते हैं।
  2. कहीं विद्यालय और छात्रावास भिन्न-भिन्न स्थानों पर भिन्न-भिन्न व्यवस्थाओं में होते हैं । विद्यालय केवल विद्यालय होता है, छात्रावास केवल छात्रावास होता है। दोनों का एकदूसरे के साथ कोई सम्बन्ध नहीं होता है । एक छात्रावास में भिन्न भिन्न विद्यालयों के माध्यमिक, महाविद्यालय, विश्वविद्यालय आदि सभी स्तरों के विद्यार्थी रहते हैं । एक ही विद्यालय में पढने वाले विद्यार्थी भिन्न भिन्न छात्रावासों में रहते हैं।
  3. विद्यालय और छात्रावास एक ही व्यक्ति के नियन्त्रण में चलते हैं और वह व्यक्ति होता है मुख्याध्यापक अथवा प्रधानाचार्य । इसमें एक ही विद्यालय, एक ही छात्रावास और शत प्रतिशत विद्यार्थी छात्रावास में रहने वाले होते हैं । ये २४ घण्टे के विद्यालय होते हैं और सही अर्थ में आवासीय विद्यालय कहे जायेंगे।

सही अर्थ में आवासीय विद्यालय की अधिक चर्चा करना उपयुक्त रहेगा।

आवासीय विद्यालय - आज वे कैसे चलते हैं ?

ये विद्यालय वास्तव में हमें प्राचीन गुरुकुलों का स्मरण करवाने वाले हैं, जहाँ पूर्ण समय विद्यार्थी अपने अध्यापकों के साथ रहते हैं। परन्तु गुरुकुल की सही संकल्पना ज्ञात न होने के कारण से आज वे उनसे भिन्न रूप में चलते हैं।

  1. इन विद्यालयों की दिनचर्या बहुत आदर्श मानी जाय ऐसी होती है। प्रातः जल्दी जगना, प्रातःप्रार्थना, योगाभ्यास, व्यायाम आदि करना, अल्पाहार और गृहपाठ करना, ग्यारह बजे विद्यालय जाना, मध्य में भोजन की छुट्टी होना, पुनः विद्यालय जाना, सायंकाल मैदान में खेलना, सायंप्रार्थना करना, भोजन करना, स्वाध्याय या गृहपाठ करना और सो जाना यही दिनक्रम रहता है। रविवार को छुट्टी रहती है । उस दिन की दिनचर्या कुछ विशेष रहती है। अन्य विद्यालयों की तरह ही परीक्षायें और अवकाश रहते हैं जब विद्यार्थी घर जाते हैं । परन्तु इन विद्यालयों में धार्मिक पद्धति से शिक्षा की अनेक सम्भावनायें हैं जिनका ज्ञान होने से उनको वास्तविक रूप दिया जा सकता है।
  2. ये चौबीस घण्टे के विद्यालय हैं। अर्थात् चौबीस घण्टे का जीवन ही शिक्षा का विषय है, वही पाठ्यक्रम है । इस बात को ध्यान में रखकर नियोजन किया जा सकता है। प्रातःकाल जगने से रात्रि को सोने तक की सारी बातें क्रियात्मक, भावात्मक और ज्ञानात्मक पद्धति से सिखाई जा सकती हैं।
  3. इन विद्यालयों की दिनचर्या प्रकृति के नियमानुसार बनाई जा सकती है । उदाहरण के लिये सोने, जागने, भोजन करने, खेलने, पढने और विश्रान्ति का समय वैज्ञानिक पद्धति से निश्चित कर सकते हैं । दोपहर में भोजन का समय मध्याह्न से पूर्व, सायंकाल सूर्यास्त से पूर्व, जगने का समय ब्राह्ममुहूर्त, अध्ययन का समय प्रातःकाल और सायंकाल आदि कर सकते हैं।
  4. चौबीस घण्टों में व्यक्तिगत और सामुदायिक जो भी काम होते हैं वे सब सहभागिता से किये जा सकते हैं । यदि कोई विद्यार्थी दस वर्ष आवासीय विद्यालय में रहता है तो स्वच्छता से लेकर भोजन बनाने तक के सारे काम करने में निपुणता प्राप्त हो सकती है, व्यवहार दक्षता प्राप्त हो सकती है, शास्त्रीय अध्ययन भी अच्छा हो सकता है।
  5. आवासीय विद्यालय में शिक्षकों को विद्यालय का अंग बनकर रहना होता है । वर्तमान में शिक्षकों का सम्बन्ध केवल विषयों के अध्यापन से ही होता है परन्तु इसमें परिवर्तन कर उन्हें विद्यार्थियों के शिक्षक बनना चाहिये । विद्यालय की सम्पूर्ण व्यवस्था में सहभागी बनना चाहिये। सामान्य विद्यालय के शिक्षक और आवासीय विद्यालयों के शिक्षकों में बहुत अन्तर होता है।
  6. आवासीय विद्यालय यदि गुरुकुल के अनुसार चलाये जाय तो आज भी शिक्षा में बहुत बड़े परिवर्तन की अपेक्षा की जा सकती है। वर्तमान में ऐसा होने में व्यवस्था की नहीं अपितु शिक्षकों की कमी है। शिक्षाक्षेत्र में जीवनशिक्षा यह विषय नहीं रहने के कारण शिक्षकों और विद्यार्थियों का जीवन समरस नहीं हो पाता । उदाहरण के लिये परिसर में ही जिनका निवास है ऐसे शिक्षकों की पत्नियों की विद्यालय की दैनन्दिन गतिविधियों में कोई भूमिका नहीं रहती है। अनेक बार शिक्षक भी विद्यालय परिसर में निवास नहीं चाहते हैं क्योंकि अपना जीवन विद्यार्थियों के मध्य खुली किताब जैसा बन जाय यह उन्हें पसन्द नहीं होता । यदि शिक्षक अपने आपको विद्यार्थियों के समान ही विद्यालय का अंग मानें तभी आवासीय विद्यालय गुरुकुल में परिवर्तित हो सकता है । शिक्षकों के लिये भी वह चौबीस घण्टों का विद्यालय बनना चाहिये । शिक्षकों की पत्नियाँ गृहमाता बननी चाहिये।
  7. व्यवस्थाओं के विषय में भी गुरुकुल के समान अलग ही पद्धति से विचार किया जा सकता है। उदाहरण के लिये एक एक शिक्षक के साथ दस-बीस-पचीस विद्यार्थी रहते हों, वे सब भिन्न भिन्न आयु के भी हों और पूरा चौबीस घण्टों का जीवन एक बड़े परिवार की तरह रहते हों ऐसी व्यवस्था बनाई जा सकती है । सारे काम शिक्षक, उनकी पत्नी, विद्यार्थी सब मिलकर करते हों, अध्ययन भी सब कामों में एक काम हो ऐसी व्यवस्था बनाई जा सकती है।
  8. आजकल छात्रावासों में विद्यार्थी केवल पढेंगे, खेलेंगे और अन्य शैक्षिक गतिविधियों में सहभागी बनेंगे परन्तु और कोई काम नहीं करेंगे ऐसी अपेक्षा की जाती है। उनके निवास के कक्ष की स्वच्छता, उनके अपने कपड़ों की धुलाई, बर्तनों की सफाई आदि के लिये नौकर होंगे, भोजन बनाने आदि में सहभागी होना तो बहुत दूर की बात है । इन कामों को हेय मानने की यह प्रवृत्ति बहुत हानिकारक है।
एक समझने लायक उदाहरण

एक उदाहरण समझने लायक है। मजदूरी करना ही जिनका स्वाभाविक जीवनक्रम है ऐसी एक जाति का मुखिया चुनाव जीतकर विधायक बन गया । उसकी जाति में गरीबी और निरक्षरता की मात्रा बहुत अधिक थी। उसे लगा कि अपनी जाति के लडके और लडकियों के लिये शिक्षा का प्रबन्ध करना चाहिये । इसलिये उसने दो छात्रावास बनाये और एक विद्यालय बनाया। एक छात्रावास लडकियों के लिये और दूसरा लडकों के लिये था । वे छात्रावास सारी सुविधाओं से पूर्ण थे । कपड़े धोने के लिये नौकर, सोने के लिये पलंग, भोजन के लिये स्टील के बर्तन और कुर्सी मेज । विद्यार्थियों को केवल अपने निवासकक्ष की स्वच्छता और अपने भोजन के बर्तनों की सफाई करने का ही काम था । भोजन, आवास, शिक्षा सब निःशुल्क था । ये सारे लडके और लडकियाँ ऐसे परिवारों से थे जहाँ एक छोटे कमरे में सात आठ लोग रहते थे, रूखा सूखा भोजन करते थे, कभी दान में मिले किसी के पुराने कपड़े भी पहनते थे और सोने के लिये टाट या दरी ही मिलती थी। छात्रावास के जीवन का वैभव भोगकर एक दो वर्षों में तो सबकी आदतें ऐसी बिगड गई कि वे अब घर जाना नहीं चाहते थे, अपने माँबाप से सम्बन्ध बताने में लज्जा का अनुभव करते थे और छात्रावास में भी वे कहने लगे कि अब कक्ष की और बर्तनों की सफाई के लिये भी नौकर हो तो अच्छा है । उस विधायक को बार बार मन में प्रश्न उठ रहा था कि उसने अच्छा काम किया या बुरा, अपनी जाति के लडके-लडकियों का भला किया या बुरा । वास्तव में वह भला करना चाहता था परन्तु शिक्षा विषयक दृष्टि के अभाव में उसने सबको हानि पहुँचाई ।

यही बात बहुत धनाढ्यों के बच्चे जब आवासीय विद्यालयों में पढ़ते हैं तब वे अधिक उद्दण्ड और वास्तविक जीवन से विमुख बन जाते हैं। ऐसे विद्यालयों का कृत्रिम अनुशासन उन्हें हृदयशून्य बना देता है और वैभव उन्हें मदान्वित बनाता है।

ये विद्यालय गुरुकुलों की तरह सांस्कृतिक उद्देश्यों के लिए चलने चाहिये ।

इन विद्यालयों के अभिभावकों का व्यवहार और मानस बहुत अस्वाभाविक होता है। बच्चे छात्रावास में रहते हैं इसलिये घर के लोगोंं के स्नेह से, घर की सुविधाओं और स्वतन्त्रता से, घर के भोजन से वे वंचित रह जाते हैं ऐसा उन्हें लगता है । इसलिये जब अवकाश में घर आते हैं तब टीवी, होटेल, घूमना फिरना, काम नहीं करना आदि बातों की इतनी अधिकता हो जाती है कि बच्चे भी आवासीय विद्यालय के अनुशासन, भोजन, व्यवस्था आदि को बन्धन मानने लगते हैं और सदैव उससे मुक्ति चाहते हैं । छात्रालय का जीवन मानो उनके लिये मजबूरी बन जाता है। अनुशासन, व्यवस्था आदि का यदि अच्छे मन से स्वीकार नहीं किया जाय तो वे जीवन का अंग नहीं बनतीं । वर्षों तक आवासीय विद्यालय में रहने के बाद भी विद्यार्थियों के चरित्र का गठन नहीं हो पाता क्योंकि अभिभावकों और शिक्षकों की ना समझी और अकुशलता के कारण विद्यार्थी उसका स्वीकार ही नहीं कर पाते । बच्चे उद्दण्ड हैं इसलिये यदि आवासीय विद्यालय में भेज दिये गये हैं तब तो उनके और अधिक उद्दण्ड बनने की सम्भावना ही अधिक होती है क्योंकि शिक्षक यदि गुरुकुल के शिक्षक जैसे नहीं हैं तो विद्यालय का कृत्रिम अनुशासन सुधारगृह का ही अनुभव करवाता है।।

जिन आवासीय विद्यालयों में कुछ छात्र स्थानिक होते हैं और केवल पढाई के लिये ही विद्यालय में आते हैं वहाँ वातावरण, व्यवस्था, मानसिकता बिगड जाने की सम्भावनायें ही अधिक होती हैं। बाहर के वातावरण के दूषण और आन्तरिक व्यवस्था की कृत्रिमता विद्यार्थियों को असहज बना देते हैं।

जिन आवासीय विद्यालयों में कुछ छात्र स्थानिक होते हैं और केवल पढाई के लिये ही विद्यालय में आते हैं वहाँ वातावरण, व्यवस्था, मानसिकता बिगड जाने की सम्भावनायें ही अधिक होती हैं। बाहर के वातावरण के दूषण और आन्तरिक व्यवस्था की कृत्रिमता विद्यार्थियों को असहज बना देते हैं।

आवासीय विद्यालयों में कुछ विद्यार्थियों को दिन में केवल पढाई हेतु खण्ड समय के लिये प्रवेश देने की बाध्यता अधिकतर आर्थिक कारणों से ही बनती है । परन्तु विद्यालय में रहनेवाले विद्यार्थियों पर इसका विपरीत प्रभाव पडता है । इस कारण से ऐसा करना उचित नहीं है । अधिकांश संचालक यह स्थिति समझते हैं परन्तु इस पर नियन्त्रण नहीं प्राप्त कर सकते ।

महाविद्यालयों, विश्वविद्यालयों और शोधसंस्थानों में स्वतन्त्र छात्रालयों में रहनेवाले विद्यार्थी अनेक प्रकार के सांस्कृतिक संकटों से घिर जाते हैं, अनेक सांस्कृतिक संकट निर्माण भी करते हैं जिन्हें वे मुक्तता और सुख मानते हैं। धूम्रपान करने वाली लडकियाँ, युवक युवतियों की मित्रता और पराकाष्ठा की उनकी निकटता, शराब जैसे व्यसन इस प्रकार के छात्रावासों में सहज होता है। इनमें गम्भीर अध्ययन करने वाले विद्यार्थी भी होते ही हैं परन्तु इन दूषणों से बचना अत्यन्त कठिन हो जाता है । इन युवाओं के लिये सारे उत्सव सांस्कृतिक नहीं अपितु मनोरंजन के साधन ही होते हैं ।

आवासीय विद्यालय यदि गुरुकुलों के समान और विशेष सांस्कृतिक उद्देश्य और पद्धति से नहीं चलाये गये तो दो पीढियों में अन्तर निर्माण करने के निमित्त बन जाते हैं । वैसे भी वर्तमान वातावरण में मातापिता और सन्तानों में दूरत्व निर्माण करने वाले अनेक साधन उत्पन्न हो ही गये हैं उनमें यह एक बडा निमित्त जुड़ जाता है। दो पीढियों में समरस सम्बन्ध निर्माण नहीं होने से सांस्कृतिक परम्परा खण्डित होती है । परम्परा खण्डित होना किसी भी समाज के लिये घाटे का ही सौदा होता है । इसलिये समाज हितचिन्तक सदा परम्परा को बनाये रखने हेतु हर सम्भव प्रयास करने का ही परामर्श देते हैं।

आज समाज में धनवान लोगोंं की यह मानसिकता भी बढने लगी है कि अच्छी पढाई हेतु अपनी सन्तानों को बड़े नगरों में या विदेशों में भेजना अच्छा है। ऐसा नहीं है कि ऐसी पढाई हेतु अपने ही स्थान पर कोई महाविद्यालय नहीं है। परन्तु महानगरों, दूर स्थित महानगरों और विदेशों का दोनों पीढियों को आकर्षण है । बड़ों को उसमें प्रतिष्ठा का अनुभव होता है और युवाओं को प्रतिष्ठा के साथ साथ मुक्ति का भी अनुभव होता है । अपनी सन्तानों के भले के लिये ही यह सब कर रहे हैं ऐसा बड़ों का भाव होता है । अनेक बार तो सामान्य आर्थिक स्थिति के मातापिता ऋण लेकर भी अपनी सांतानों के इस प्रकार के अध्ययन की व्यवस्था करते है परन्तु यह शैक्षिक दॄष्टि से भी उचित होता है ऐसा अनुभव तो नहीं आता। सामाजिक सांस्कृतिक दॄष्टि से यह हानिकारक है।

यह सब कर रहे हैं ऐसा बड़ों का भाव होता है । अनेक बार तो सामान्य आर्थिक स्थिति के मातापिता क्रण लेकर भी अपनी संतानों के इस प्रकार के अध्ययन की व्यवस्था करते हैं परन्तु यह शैक्षिक दृष्टि से भी उचित होता है ऐसा अनुभव तो नहीं आता । सामाजिक सांस्कृतिक दृष्टि से यह हानिकारक है ।

सरकारी प्राथमिक विद्यालयों का क्या करें

वर्तमान स्थिति

शिक्षा सरकार के लिये चिन्ता का विषय है । शिक्षा की व्यवस्था करना सरकार ने अपना दायित्व माना है । हमारे संविधान में छः से चौदह वर्ष की आयु तक शिक्षा को अनिवार्य बनाया है । अनिवार्य है इसीलिये निःशुल्क भी करना होता है । सरकार की इच्छा है कि देश के ६ से १४ वर्ष के बच्चोंं को प्राथमिक शिक्षा मिले । इस दृष्टि से छोटे छोटे गाँवों में भी सरकारी प्राथमिक विद्यालय होते हैं ।

इनमें बच्चोंं के प्रवेश हों, उन्हें प्रोत्साहन मिले इस हेतु से प्रवेशोत्सव मनाये जाते हैं । विद्यार्थी मध्य में ही विद्यालय छोड़कर न जाय इसका भी ध्यान रखा जाता है । गरीबों को अपने बच्चोंं को पढ़ाने की सुविधा हो इस दृष्टि से मद्यत्ह्य भोजन योजना चलाई जाती है । बच्चोंं को पुस्तकें, गणवेश, बस्ता आदि भी दिया जाता है । सरकार अनेक प्रयास करती है। सर्व शिक्षा अभियान चलता है। तो भी सरकारी विद्यालयों की हालत अत्यन्त दयनीय और चिन्ताजनक है । आँकडे भी दयनीय स्थिति दर्शाते हैं जबकि वास्तविक स्थिति आँकडों से अधिक दयनीय होती है यह सब जानते हैं ।

सरकारी प्राथमिक विद्यालयों की कोई प्रतिष्ठा नहीं है । प्रजा को इन विद्यालयों पर कोई भरोसा नहीं है । अब ऐसा कहा जाता है कि सरकारी विद्यालयों में अच्छे लोगोंं के बच्चे पढ़ते ही नहीं हैं, झुग्गी झोंपडियों में रहनेवाले, नशा करने वाले, असंस्कारी मातापिता के बच्चे पढते हैं जिनकी संगत में हमारे बच्चें बिगड जायेंगे । परन्तु यह तो परिणाम है । “अच्छे' घर के लोगोंं ने अपने बच्चोंं को भेजना बन्द किया इसलिये अब 'पिछडे' बच्चे रह गये हैं । दो पीढ़ियों पूर्व आज के विद्वान लोग भी सरकारी विद्यालयों में पढ़े हुए ही हैं । धीरे धीरे पढ़ाना बन्द हुआ इसलिये लोगोंं ने अपने बच्चोंं को भेजना बन्द किया । झुग्गी झॉंपडियों में नहीं रहनेवाले सुसंस्कृत और झुग्गी झेंपडियों में रहनेवाले पिछडे यह वर्गीकरण तो बडी भ्रान्ति है परन्तु इस भ्रान्ति को दूर करने की चिन्ता कोई नहीं करता, उल्टे उसका ही लोग फायदा उठाने का प्रयास करते हैं । सरकारी विद्यालयों के शिक्षक सदा शिकायत करते हैं कि हमारे यहाँ बच्चे पढने के लिये आते ही नहीं हैं, केवल खाने के लिये ही आते हैं, अच्छे घर के आते ही नहीं है तो हम किसे पढायें । यह भी सत्य नहीं है परन्तु इस सम्बन्ध में कोई प्रयास नहीं किया जाता ।

अनेक बार लोगोंं द्वारा शिकायतें की जाती हैं, अखबारों में सचित्र समाचार छपते हैं कि गाँवों में विद्यालय के भवन अच्छे नहीं हैं, बैठने की, शौचालयों की सुविधा नहीं है, शिक्षकों की नियुक्ति नहीं हुई है, यदि हुई है तो वे शिक्षक आते नहीं हैं, अपने स्थान पर अन्य किसी नौसीखिये को भेजकर स्वयं दूसरा व्यवसाय करते हैं । इस बात में सचाई होने पर भी इस कारण से शिक्षा नहीं दी जा सकती ऐसा नहीं है । नगरों और महानगरों के प्राथमिक विद्यालयों में अच्छा भवन, अच्छा मैदान, शिक्षक, साधनसामग्री, विद्यार्थी सबकुछ है तो भी शिक्षा की स्थिति तो वैसी ही दयनीय है । इसका क्या कारण है ?

शैक्षिक दृष्टि से सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में पर्याप्त व्यवस्था होती है । कई निजी विद्यालयों में शिक्षक उचित योग्यता वाले नहीं भी होते परन्तु सरकारी विद्यालयों में पर्याप्त योग्यता वाले होते ही हैं । उनके प्रशिक्षण की और निरीक्षण की पर्याप्त व्यवस्था होती है । साधनसामग्री, पुस्तकें आदि का अभाव नहीं होता । सरकारी शिक्षकों का जितना प्रशिक्षण होता है उतना तो अन्यत्र कहीं नहीं होता । वेतनमान भी निजी विद्यालयों की अपेक्षा अच्छा होता है । तो भी शिक्षा अच्छी नहीं होती इसका क्या कारण है ?

यह स्थिति एक बात तो सिद्ध करती है कि नियम, कानून, सुविधा, सामग्री, शिक्षण, प्रशिक्षण, निरीक्षण, दण्ड का प्रावधान, वेतन की बढोतरी, परस्कार, आदि कछ होने पर भी शिक्षा अच्छी ही होगी ऐसा नियम नहीं है । अच्छी नहीं होती इसके कारण तो हमारे सामने ही है। पहला कारण यह है कि शिक्षक यदि पढाना न चाहे तो कोई उसे पढाने के लिये बाध्य नहीं कर सकता । पढाया सा लगता है परन्तु पढाया जाता नहीं है । पढने वाले की इच्छा न हो तो अच्छे से अच्छा शिक्षक भी उसे पढा नहीं सकता यह भी सत्य है, परन्तु प्राथमिक विद्यालय में विद्यार्थी की अनिच्छा का संकट नहीं होता । शिक्षक उसे पढने के लिये प्रेरित कर सकते हैं । अतः इन विद्यालयों में शिक्षा नहीं होती इसका सीधा दायित्व तो शिक्षकों का ही बनता है ।

शिक्षक क्यों नहीं पढ़ाते ?

सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में शिक्षक पढाते क्यों नहीं है इसका भी ठीक से विचार करना चाहिये । यदि निदान ठीक करेंगे तो उपाय भी ठीक कर पायेंगे।

  1. आज के शैक्षिक वातावरण में प्रेरणा का तत्व गायब है। कोई कहे या न कहे, कोई देखे या न देखे, पुरस्कार या प्रशंसा मिले या न मिले, कोई दण्ड दे या न दे अपना कर्तव्य है इसलिये पढाना ही चाहिये ऐसी भावना बनने के लिये वातावरण चाहिये । सामने आदर्श चाहिये, शिक्षा मिली हुई होनी चाहिये, आज ऐसी शिक्षा नहीं है। कर्तव्यपालन करना चाहिये, स्वेच्छा से करना चाहिये, अपने कारण से किसी का अकल्याण नहीं होना चाहिये ऐसी शिक्षा किसी भी स्तर पर, किसी भी प्रकार से नहीं दी जाती । समाज में अपने से बड़े, अपने अधिकारी कर्तव्यपालन कर रहे हैं ऐसा प्रेरणादायक चरित्र कहीं दिखाई नहीं देता, सर्वत्र वातवरण ही अपने लाभ का विचार करने का है। शिक्षाक्षेत्र में प्राथमिक विद्यालय के शिक्षक तो बहुत छोटे हैं । अन्य सरकारी विभागों में भी वातावरण तो ऐसा ही है । शिक्षा के उपर के स्तरों पर भी वातावरण तो ऐसा ही है । सर्वत्र सबका व्यवहार ऐसा है इसलिये इन शिक्षकों का व्यवहार भी ऐसा ही है ।
  2. पढाने न पढाने का मूल्यांकन करने की पद्धति अत्यन्त कृत्रिम है। विद्यार्थी ज्ञानवान और चरित्रवान बनें इसका निकर्ष परीक्षा ही है । परीक्षा भी लिखित होती है। अंक दे सकें इस स्वरूप की होती है । अंक दे देना बहुत सरल है । समाज में या व्यक्तिगत जीवन में अज्ञान और असंस्कार दिखाई दे रहा है यह परीक्षा में उत्तीर्ण या अनुत्तीर्ण होने का निकष नहीं है । इसलिये अंक मिल जाते हैं परन्तु ज्ञान या संस्कार नहीं आता । इस परिणाम हेतु दण्डित या पुरस्कृत करना असम्भव है। इसलिये विद्यालय में पढाना सम्भव ही नहीं होता।
  3. कहीं पर भी सीधी कारवाई होने की व्यवस्था सरकारी तन्त्र में नहीं होती। निरीक्षण करने वाला स्वयं कुछ नहीं कर सकता, केवल रिपोर्ट भेज सकता है । रिपोर्ट पढने वाला और उपर रिपोर्ट भेजता है। रिपोर्ट को सिद्ध करना बहुत कठिन होता है। उसमें फिर राजकीय हस्तक्षेप भी होते हैं । कारवाई करने वाले 'शिक्षक' नहीं होते, प्रशासकीय विभाग के होते हैं । वास्तव में निर्णय लेने या कारवाई करने की दृष्टि से यह शिक्षा का क्षेत्र नहीं है। नीतियाँ निश्चित करनेवाला राजकीय क्षेत्र है, कारवाई करनेवाला प्रशासकीय क्षेत्र है, शिक्षा का क्षेत्र तो उनके अधीन है। राजकीय क्षेत्र वाले चुनावों की और सत्ता की चिन्ता करते हैं, उनके लिये सरकारी विद्यालय अपने हितों के लिये उपयोग में आनेवाला क्षेत्र है। प्रशासनिक अधिकारियों के लिये ये सब कर्मचारी हैं । उनका कार्यक्षेत्र नियम, कानून, कानून की धारा, नियम पालन के या उल्लंघन के शाब्दिक प्रावधान, नियुक्ति वेतन आदि हैं, शिक्षा नहीं । शिक्षा के प्रश्न को शैक्षिक दृष्टि से समझनेवाला, शैक्षिक दृष्टि से हल करनेवाला इस तन्त्र में कोई नहीं है । जब शिक्षा प्रशासन और राजनीति के अधीन हो जाती है तब वह निर्जीव और यांत्रिक हो जाती है। प्राणवान व्यक्ति अपनी अंगभूत ऊर्जा से कार्य करता है, यन्त्र बाहरी ऊर्जा से । प्राणवान व्यक्ति अपने ही बल, इच्छा और प्रेरणा से चलता है। यन्त्र चलाने पर चलता है । सरकारी शिक्षा का तन्त्र भी चलाने पर चलने वाला तन्त्र है । शिक्षा स्वभाव से प्राणवान है, प्रशासन स्वभाव से यान्त्रिक है। चलाने वाला यान्त्रिक हो और चलनेवाला प्राणवान यह अपने आप में बहुत विचित्र व्यवस्था है। ऐसी विचित्र व्यवस्था होने के कारण ही ज्ञान, चरित्र, कर्तृत्व, कुशलता आदि जीवमान तत्व पलायन कर जाते हैं। इस मूल कारण से सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में अच्छी शिक्षा नहीं होती।
  4. सरकारी तन्त्र अ-मानवीय है । यह एक व्यवस्था है । यहाँ व्यक्ति गौण है, नियम ही मुख्य है । इस व्यवस्था में नियम के आधार पर व्यवहार होता है. भावना और विवेक के आधार पर नहीं, कर्तृत्व और चरित्र के आधार पर नहीं । उदाहरण के लिये शिक्षामन्त्री शिक्षक, विद्वान अथवा शिक्षाशास्त्री ही होगा ऐसा नहीं है। यह शिक्षा मनोविज्ञान जाननेवाला होगा यह आवश्यक नहीं है। वह लोगोंं के मतों से चुनकर देश चलानेवाली संसद या धारासभा में पहुँचा हुआ सांसद या विधायक है । यह स्वभाव से और कार्य से, विचार और अनुभव से व्यापारी भी हो सकता है, उद्योजक हो सकता है या मजदूर भी हो सकता है। उसका शिक्षा के साथ ज्ञानोपासक या ज्ञानसेवक जैसा कोई सम्बन्ध नहीं है । प्रशासनिक अधिकारी तन्त्र को चलानेवाला है। वह शिक्षा को, चिकित्सा को, कारखानों को, खानों-खदानों को, विद्युत उत्पादन को, मजदूरों को एक ही पद्धति से चलाता है । उसे सजीव निर्जीव का, अच्छे बुरे का, सज्जन और दुर्जन का कोई भेद नहीं है । वह अन्धे की तरह ‘समदृष्टि' है, कानून अन्धे की लकड़ी है।
  5. इस तन्त्र में विवेक पक्षपात बन जाता है, इसलिये कोई अपनी दृष्टि से, अपनी पद्धति से, अपने विवेक से निर्णय नहीं कर सकता, कारवाई नहीं कर सकता । भले ही उल्टे सीधे, टेढे मेढे रास्ते निकाले जाय तो भी उन्हें नियम कानून के द्वारा न्याय्य ठहराने ही होते हैं । यन्त्र की व्यवस्था में ऐसा होना अनिवार्य है। कोई भी यन्त्र स्वतन्त्र व्यवहार कर ही नहीं । सकता । यदि करने लगता है तो पूरी व्यवस्था चरमरा जाती है। तात्पर्य यह है कि विशाल और व्यापक सरकारी तन्त्र को अ-मानवीय होना ही पड़ता है। सूझबूझ, कल्पनाशक्ति, अन्तर्दष्टि, देशकाल परिस्थिति के अनुसार स्वविवेक आदि इसमें सम्भव ही नहीं होते हैं। शिक्षा का स्वभाव इससे सर्वथा उल्टा है। उसे इन सबकी आवश्यकता होती है। परन्तु शिक्षक के हाथ में अधिकार नहीं है । अधिकार यान्त्रिक व्यवस्था के हैं। ऐसे अ-मानवीय तन्त्र में शिक्षा का विचार, शिक्षा की प्रक्रिया, शिक्षा के निर्णय, योजनायें, नीतियाँ शैक्षिक दृष्टि से, शैक्षिक पद्धति से नहीं लिये जाते हैं, लिये जाना सम्भव भी नहीं है। इसका परिणाम यह होता है कि विद्यालय, शिक्षक और विद्यार्थियों के होते हुए भी शिक्षा नहीं चलती।
  6. इसका अर्थ यह नहीं है कि निजी प्राथमिक विद्यालयों में शिक्षा अच्छी चलती है। वहाँ अच्छी चलती दिखाई देती है इसके कारण वहाँ के शिक्षक नहीं हैं, वहाँ का तन्त्र है। सरकारी प्राथमिक विद्यालय में शिक्षा अच्छी नहीं चलती इसका कारण शिक्षक नहीं है वहाँ का तन्त्र है। सरकारी प्राथमिक विद्यालय में शिक्षा अच्छी नहीं चलती इसका कारण शिक्षक नहीं हैं तन्त्र है । निजी विद्यालयों में अच्छी चलती दिखाई दे रही है इसका कारण भी शिक्षक नहीं है, तन्त्र ही हैं । सरकारी तन्त्र बहुत बडा होने के कारण से और अ-मानवीय होने के कारण से वहाँ शिक्षक से ‘पढवाना' सम्भव नहीं होता । निजी विद्यालयों में तन्त्र छोटा होने के कारण से, मानवीय होने के कारण से शिक्षक से पढवाना' सम्भव होता है । सरकारी तन्त्र में नौकरी देने वाली व्यवस्था है, निजी तन्त्र में मनुष्य है । मनुष्य इच्छा, भावना, विवेक आदि से परिचालित होकर व्यवहार करता है। इसलिये यहाँ शिक्षक को पढाना पडता है । निजी विद्यालयों में शुल्क देनेवाला अभिभावक भी एक महत्व पूर्ण घटक है । अभिभावक और संचालक मिलकर शिक्षक को पढाने के लिये बाध्य कर सकते हैं।
  7. इस कारण से जो शुल्क दे सकते हैं ऐसे अभिभावक सरकारी विद्यालयों में अपनी सन्तानों को भेजना पसन्द नहीं करते । सरकारी विद्यालय तो चलेंगे ही क्योंकि उन्हें चलाना सरकारी बाध्यता है, परन्तु उसमें पढने के लिये कोई जायेगा नहीं । इसस्थिति में लालच देकर पढने के लिये बुलाना पडता है । अब जो आते हैं वे भोजन, कपड़े आदि के आकर्षण से आते हैं, भोजन करके भाग जाते हैं। शिक्षक उनके इतने विमुख है कि वे भगा भी देते हैं ।
उपाय क्या है

परिस्थिति की आलोचना या शिकायत करके तो काम बनने वाला नहीं है। मार्ग क्या है इसका विचार करना होगा।

कुछ इस प्रकार विचार कर सकते हैं
  1. अभिभावकों को अपनी सन्तानों को सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में भेजने हेतु प्रेरित करना यह वर्तमान परिस्थिति में करनेलायक प्रथम उपाय है। सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में जो सुविधा है वह पर्याप्त है, जो शिक्षक हैं वे नीयत से कैसे भी हों शैक्षिक पात्रता की दृष्टि से पर्याप्त हैं । सरकारी विद्यालय में शुल्क नहीं है, वह सस्ता है। घर के पास है इसलिये वाहन का खर्च नहीं है। अन्य तामझाम नहीं हैं। बालक चलकर विद्यालय जा सकते हैं इसलिये समय और श्रम की बचत होती है । अतः इन विद्यालयों में भेजना अधिक अच्छा है । तन्त्र तो शिक्षकों को पढाने हेतु बाध्य नहीं कर सकता परन्तु अभिभावक कर सकते हैं। अभिभावकों के आग्रह का परिणाम तन्त्र पर भी होता है । अतः यह प्रबोधन का विषय बनना चाहिये । प्रश्न केवल यह है कि सरकार की इस मामले में सहायता करने हेतु कोई आयेगा नहीं, आयेगा तो किसी न किसी प्रकार के लाभ की अपेक्षा से आयेगा । सरकार से मिलने वाले लाभ या तो आर्थिक या राजनीतिक होते हैं । यह होते हुए भी सरकारी विद्यालयों में अपनी सन्तानों को पढाना लोगोंं के लिये लाभकारी ही है । समाजसेवी संगठनों को अभिभावक प्रबोधन का कार्य करना चाहिये । शिक्षा महँगी हो गई है उसका भी उपाय हो जायेगा । यह भी आज का विकट प्रश्न बना हुआ है।
  2. प्रबोधन की आवश्यकता सरकार को भी है । सरकारी प्राथमिक शिक्षकों के पास पढाने के अतिरिक्त इतने अधिक काम रहते हैं कि वे पढाने का काम कम कर पाते हैं। उदाहरण के लिये जनगणना, विभिन्न प्रकार के सर्वेक्षण, चुनाव के समय जानकारी पहुँचाने का काम आदि विभिन्न सरकारी योजनाओं का काम प्राथमिक शिक्षकों को करना पडता है। शिक्षक और अभिभावक इससे तंग आ जाते हैं। यदि सरकारी विद्यालय ठीक से चलते हैं तो शिक्षकों को इस प्रकार की व्यस्तता से मुक्त करना होगा । अ-मानवीयतन्त्र सहजता से ऐसा करता नहीं है इसलिये उसके लिये प्रबोधन की अधिक आवश्यकता होगी।
  3. प्रबोधन का कार्य निःस्वार्थ लोग या संस्थायें ही कर सकती हैं। यदि वे भी किसी प्रकार के लाभ की अपेक्षा करेंगे तो राजकीय पक्ष उनका लाभ उठायेंगे । फिर प्रबोधन भी एक व्यवसाय बन जायेगा। सरकार यदि अपनी प्रतिष्ठा बढाने हेतु पैसे का आधार लेती है तो उसका लाभ उठाने वाले तत्व निकल आयेंगे । इसलिये स्वेच्छा से, निरपेक्ष भाव से, समाजसेवा करने वाले लोग ही शिक्षा की तथा समाज की सेवा करने की दृष्टि से अभिभावक और सरकार का प्रबोधन करने का काम करेंगे तो कुछ परिणाम मिलने की सम्भावना है।
  4. कई सेवाभावी संस्थायें सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में भोजन, शैक्षिक सामग्री, कपड़े आदि की सहायता करते हैं । कई संस्थायें यहाँ के विद्यार्थियों के लिये पढाने की और संस्कार देने की अतिरिक्त व्यवस्था करते हैं । यह इसी कारण से करते हैं क्योंकि सब जानते हैं कि इन विद्यालयों में पढाई होती नहीं है। यह अच्छा है, परन्तु इससे भी अच्छा यह है कि सब मिलकर शिक्षकों को पढाने हेतु प्रेरित करें । अभिभावक और अन्य संस्थायें मूल प्रश्न की ओर ध्यान न देकर मध्य में से रास्ता निकालने का प्रयास करते हैं। इससे तो कुल मिलाकर लाभ के स्थान पर हानि ही अधिक होती है ।
  5. एक ओर तो सरकारी प्राथमिक विद्यालयों को प्रबोधन और प्रेरणा के माध्यम से पुष्ट करने का काम करना चाहिये, दूसरी ओर सरकार से मुक्त करने का भी प्रयास होना चाहिये । वास्तव में शिक्षा सरकार की जिम्मेदारी नहीं है, अंग्रेजी शासन के प्रभाव में यह सरकार की बाध्यता बन गई है । सरकारी ढंग से चलने वाला कोई भी काम ऐसे ही चलेगा । इसमें सरकार का दोष नहीं है । लोकतन्त्र में भी ऐसे ही चलेगा । इसमें लोकतन्त्र का भी दोष नहीं है । वास्तव में शिक्षा यदि इस प्रकार चलनी है तो समाज शिक्षित होगा ऐसी अपेक्षा ही नहीं करनी चाहिये । सरकार से मुक्त होने पर ही कुछ किया जा सकता है। सरकार से शिक्षा को मुक्त करने के लिये समाज को इस दायित्व को स्वीकार करना होगा । समाज आज इस मानसिकता में नहीं है। निजी संस्थायें कुछ विद्यालय तो चला लेंगी परन्तु देश की इतनी जनसंख्या के लिये आवश्यक है उतनी संख्या में विद्यालय चलाना उसके बस की बात नहीं। यह भी समाज प्रबोधन का ही बहुत बडा विषय है। शिक्षा की स्वायत्तता की माँग करने वाले लोगोंं और संगठनों को इस विषय में विचार करना होगा।
  6. कुछ इस प्रकार उपाय हो सकते हैं।
    1. सभी शिक्षित मातापिता अपने बच्चोंं को स्वयं पढायेंगे, साथ ही जो स्वयं अपने बच्चोंं को नहीं पढा सकते ऐसे मातापिता को बच्चोंं को भी पढायेंगे ऐसा विचार प्रस्तुत करना चाहिये । भोजन, वस्त्र, औषध आदि की व्यवस्था जिस प्रकार अपनी जिम्मेदारी पर की जाती है उसी प्रकार शिक्षा की भी व्यवस्था की जाय इसमें कुछ अस्वाभाविक नहीं लगना चाहिये ।
    2. दस वर्ष की आयु तक की शिक्षा तो इसी प्रकार से चल सकती है । चलनी भी चाहिये । एक शिक्षक को पाँच विद्यार्थी होना शिक्षा मनोविज्ञान की दृष्टि से भी बहुत अच्छा होगा दस वर्ष की आयु के बाद कुछ सामूहिक शिक्षा की व्यवस्था का विचार करना होगा । हर सोसाइटी अपना अपना विद्यालय भी चलाये ऐसा प्रचलन आरम्भ हो सकता है।। सोसाइटी में जिस प्रकार कॉमन प्लॉट होता है, कम्युनिटी हॉल होता है, कई कॉलनियों में तरणताल और जिम होते हैं उसी प्रकार से विद्यालय भी हो सकता है, होना चाहिये । पन्द्रह वर्ष की आयु तक ऐसा विद्यालय चल सकता है ।
    3. उद्योगगृहों को अपने कर्मचारियों की सन्तानों की शिक्षा की व्यवस्था करने का आग्रह होना चाहिये । ये प्राथमिक विद्यालय ही होंगे । दस वर्ष की आयु तक ऐसी शिक्षा दी जायेगी।
    4. अपने उद्योग के लिये आवश्यक कौशलों की शिक्षा का प्रबन्ध उद्योगगृह ही करे और उसके साथ सामान्य ज्ञान और संस्कारों की शिक्षा का प्रबन्ध भी किया जाय ऐसी व्यवस्था प्रचलित करनी चाहिये ।
    5. मन्दिरों में देश, धर्म, संस्कृति का ज्ञान देने की व्यवस्था अनिवार्यरूप से करनी चाहिये । मन्दिर विभिन्न सम्प्रदायों के हो सकते हैं । उनके साथ ही सामाजिक संगठन सम्प्रदाय-निरपेक्ष शिक्षा देने की व्यवस्था कर सकते हैं, उन्हें करनी भी चाहिये।
    6. किसे किस प्रकार की शिक्षा लेना इसकी बाध्यता नहीं होनी चाहिये । शिक्षित और संस्कारी होना यह कानूनी बाध्यता नहीं होनी चाहिये, सामाजिक और सांस्कृतिक आग्रह होना चाहिये।
    7. रोटरी क्लब जैसी संस्थायें, अनेक धार्मिक सांस्कृतिक संगठन भोजन, वस्त्र आदि का दान करते हैं उसी प्रकार से शिक्षा का दान भी करना चाहिये।
    8. सारी शिक्षा निःशुल्क दी जाय इसका भी आग्रह बढना चाहिये । शिक्षा देना पुण्य का काम है, इसके कोई पैसे लेगा नहीं, पैसे लेना हीनता है ऐसी भावना प्रचलित होनी चाहिये।
    9. शिक्षा पारिवारिक मामला है, साथ ही धर्मक्षेत्र का भी मामला है । देश के धार्मिक और सांस्कृतिक संगठनों को देश की शिक्षा का दायित्व लेना चाहिये । सरकार की सहायता की अपेक्षा नहीं करनी चाहिये, सरकारी दखल भी नहीं होने देनी चाहिये । समाज का भला हो ऐसी भावना से ही यह काम चलना चाहिये।
    10. प्राथमिक विद्यालय चरित्रनिर्माण, सामान्य ज्ञान और कुशलताओं के विकास का क्षेत्र है। चरित्रनिर्माण मातापिता और धर्माचार्य कर सकते हैं । सामान्य ज्ञान शिक्षक दे सकते हैं। कुशलताओं का विकास अर्थार्जन हेतु तथा गृहस्थाश्रम चलाने हेतु आवश्यक है। इसमें से एक भी काम सरकार का नहीं है। मातापिता, धर्माचार्य, शिक्षक और उद्योजक मिलकर इसकी व्यवस्था करें यह अपक्षित है।
    11. शैक्षिक संगठन यदि केन्द्रवर्ती भूमिका निभाते हैं तो यह कार्य सरल होगा। प्राथमिक शिक्षा के तंन्त्र की पुनर्रचना होना अत्यन्त आवश्यक है इस बात से तो सबकी सहमति है । किसी को अग्रेसर होना है । किसी एक व्यक्ति के अग्रसर होने से यह बात बनेगी नहीं । व्यक्ति या व्यक्तिसमूह से या छोटी संस्थाओं से होने वाला यह काम नहीं है। शिक्षक संगठनों ने धुरी बनकर सम्बन्धित घटकों की सहमति बनानी होगी, सहभागिता सुनिश्चित करनी होगी। बलशाली पर्याय तैयार करने के बाद सरकार से भी बात करनी होगी।
    12. कोई कारण नहीं कि सरकार इससे सहमत न हो । सरकार भी इस बाध्यता से मुक्त होना चाहेगी। शैक्षिक संगठनों का दायित्व है कि वे सरकार को इस बोज से मुक्त करें, समाज को उसके दायित्व का बोध करायें, धर्माचार्यों को देश के संस्कारों की चिन्ता करने हेतु निवेदन करें, मातापिता और उद्योगगृहों को कौशल विकास के दायित्व का स्वीकार करने हेतु सिद्ध करें। सरकारी प्राथमिक विद्यालयों की दुर्गति को देखकर यदि इस प्रकार के उपाय करने का मानस बनता है तो अच्छा परिणाम मिल सकता है । शिक्षा की गाड़ी सही पटरी पर चढ सकती है और शिक्षाक्षेत्र की सेवा हो सकती है।

References

  1. धार्मिक शिक्षा के व्यावहारिक आयाम (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला ३): पर्व २: अध्याय ६, प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे