अध्ययन करते समय के अवरोध और उन्हें दूर करने के उपाय

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अध्यापक कितना भी अच्छा हो, अध्ययन करने की कितनी ही सुविधायें और साधन उपलब्ध हों, तो भी अध्ययन करने वाला यदि सक्षम नहीं है तो अध्ययन ठीक से नहीं होता है[1]। अध्ययन सदा अध्ययन करने वाले पर ही निर्भर करता है । इसलिये अध्ययन करने वाले की क्षमता बढ़ाना यह भी शिक्षा का एक अहम्‌ मुद्दा है। अध्ययन करने के लिये कौन कौन से अवरोध आते हैं इसकी गणना प्रथम करनी चाहिये ताकि उनको दूर करने की हम कुछ व्यवस्था कर सकें । सब से पहला अवरोध शारीरिक स्तर का होता है। यदि शरीर स्वस्थ नहीं है, यदि शरीर दुर्बल है, तो अध्ययन करने में मन भी नहीं लगता है । अधिकांशतः हम देखते हैं कि छात्रों के बैठते समय पैर दर्द कर रहे हैं, कमर दर्द कर रही है, कन्धा दर्द कर रहा है, पीठ दर्द कर रही है । इसलिये उनका ध्यान उनके दर्द की तरफ ही जाता है, अध्ययन के विषय की ओर नहीं जाता। यह सब दर्द होने का कारण उनकी दुर्बलता ही होती है। चलने की, बैठने की, खड़े रहने की, सोने की ठीक स्थिति का अभ्यास नहीं होने के कारण से यह दर्द उत्पन्न होता है। कभी पेट में दर्द होता है, कभी सरदर्द करता है, कभी जम्हाइयाँ आती हैं । इन सब का कारण यह है कि उनकी निद्रा पूरी नहीं हुई है । उनका पाचन ठीक नहीं हुआ है। शरीर में अस्वास्थ्य के कारण से कई अवरोध निर्माण होते हैं।

शारीरिक स्तर के अवरोध

यह तो शारीरिक स्तर के अवरोध हैं। कभी वे एक स्थान पर लम्बे समय तक बैठ नहीं सकते, पैर हिलाते रहते हैं, हाथ हिलाते रहते हैं। लिखते समय उनकी उँगलियाँ दर्द करने लगती हैं। ये सारे शारीरिक और प्राणिक स्तर के अवरोध हैं । इन अवरोधों को दूर करने के लिये सब से पहले उनके प्राण का पोषण हो सके इस प्रकार के आहार की आवश्यकता है । यदि न पचने वाले आहार, शरीर को पोषण नहीं देनेवाला आहार, दिया जाये तो शरीर दुर्बल ही रहता है। शरीर में मेद बढ़ता है और शरीर दर्द करने लगता है । इसलिये अध्ययन करने वाले छात्र की आहार योजना बहुत ही महत्त्वपूर्ण विषय है। उनकी निद्रा पूरी नहीं होने के भी कई कारण हैं । सब से पहला कारण है रात को देर से सोना और सुबह देर से उठना। रात को देर से सोने का भी कारण टीवी और घर के अन्य सब लोग जाग रहे हैं यही होता है । विज्ञान कहता है कि रात को जितना जल्दी सो जायें उतना ही शरीर स्वास्थ्य के लिये और मनः स्वास्थ्य के लिये अच्छा है । साथ ही यदि रात को सोते समय लिया हुआ अन्न पचा नहीं है तो निद्रा अच्छी नहीं होती।

रात को देर से भोजन करने की आदत या घर की व्यवस्था भी निद्रा में बाधा निर्माण करती है और निद्रा में बाधा निर्माण होने के कारण से अध्ययन में भी अवरोध निर्माण होते हैं । इसलिये पहला नियम तो सोने से पहले लिया हुआ आहार पच जाये इस प्रकार से भोजन का समय निश्चित करना है। रात को सोते समय कई ऐसी आदतें होती हैं जिनके कारण से अच्छी निद्रा में बाधा निर्माण होती है । उदाहरण के लिये पीठ के बल सोना, पेट के बल सोना, मुँह खुला रख कर श्वास लेना, मुँह ढक कर सोना, एक पैर के उपर दूसरा पैर चढा कर सोना, गंदे कपड़े पहन कर सोना, गरम कपड़े पहन कर सोना, पोलिस्टर के कपड़े पहन कर सोना, हाथ पैर धोये बिना सोना, सोने के कमरे की सारी खिड़कियाँ बन्द करके सोना, सीधे पँखे के नीचे सोना, ये सारी बातें अच्छी निद्रा में बाधा ही निर्माण करती है । इसलिये अध्ययन करने वाले छात्रों को सबसे पहले सोने की अच्छी और सही आदतें सिखाना है। ये आदतें उसके शरीर में शरीर का एक हिस्सा बन जानी चाहिये।

रात को सोते समय अच्छे विचार करते हुए, अच्छी कहानी सुनते हुए, या अच्छे विचार का चिन्तन करते हुए सोने से निद्रा अच्छी आती है । टी.वी. में कैसे भी उत्तेजक दृश्य देखते देखते सोने से नींद खराब होती है, मन भी खराब होता है। यदि रात को ठीक समय पर सो जायें तो सुबह जल्दी उठना उनके लिये अपने आप सम्भव होता है। नींद पूरी होने के बाद ही जागना यह शरीर का स्वाभाविक धर्म है। परन्तु व्यवस्था भी हमने ऐसी ही करनी चाहिये कि सुबह पाँच बजे के आसपास उठना छात्रों के लिये स्वाभाविक हो। सुबह उठने के बाद यदि पेट साफ नहीं हुआ तो भी अस्वस्थता बनी रहती है इसलिये पेट साफ होने की ओर भी ध्यान चाहिये। दाँत साफ करना, गला साफ करना, श्वसन मार्ग साफ करना, यह भी बहुत आवश्यक है। बैठने की, चलने की, खड़े रहने की सही स्थिति सिखाना यह भी अध्ययन करने की पूर्व शर्ते हैं।

शरीर को स्वस्थ रखने के लिये शरीर की मालिश करना, अच्छी तरह से स्नान करना, और व्यायाम करना यह बहुत आवश्यक है। व्यायाम के कारण से यदि एक बार पसीना निकल जाता है, सायंकाल खेलने के माध्यम से भी पसीना निकल जाता है तो शरीर के और मन के मैल निकल जाते हैं और शरीर स्फूर्तिदायक, स्वस्थ और प्रसन्न बन जाता है। इसके बाद मालिश और स्नान भी शरीर के पोषण के लिये बहुत आवश्यक है। उसके साथ साथ सात्त्विक आहार भी शरीर और मन दोनों के लिये उपकारक हैं । इस प्रकार आहार विहार का अर्थात्‌ आहार, निद्रा इन दोनों का तथा व्यायाम खेल आदि सारी बातों का पहले ध्यान रखने से और सही आदतें डालने से, अध्ययन करने के लिये शरीर स्वस्थ रहता है और अनुकूलता निर्माण करता है। ऐसा छात्र अध्ययन करने में एकाग्रता भी साध सकता है।

प्राणिक स्तर के अवरोध

यह पहला अवरोध दूर होने के बाद आगे प्राणिक स्तर पर जो अवरोध आते हैं वे ये हैं । ठीक से श्वसन नहीं होना । हम देखते हैं कि कई बच्चे बोर होते है । अध्ययन करना उन्हें अच्छा नहीं लगता । पढ़ते पढ़ते, सुनते सुनते जम्हाइयाँ आती हैं और शरीर थकान का अनुभव करता है। ये सब प्राण की कमी के लक्षण हैं । इसका मुख्य कारण उनकी श्वसन प्रक्रिया ठीक नहीं होती यही है। इसलिये उन्हें ठीक से श्वासोच्छवास करना सिखाना चाहिये । ठीक से श्वासोच्छवास करने के लिये बैठने की सही स्थिति आवश्यक होती है । छाती, गला और पेट न दबे इस प्रकार से बैठना, श्वसन मार्ग साफ होना और आस पास में स्वच्छ वायु होना यह अच्छे श्वसन के लिये आवश्यक बातें हैं । इसलिये जहाँ अध्ययन करने बैठना है वहाँ आस पास का स्थान स्वच्छ होना चाहिये, हवा भी स्वच्छ होनी चाहिये ताकि श्वास में शुद्ध हवा ही आए । छात्र को दीर्घ श्वसन सिखाना चाहिये । फेफड़े यदि श्वास से पूरे भरते नहीं है तो फेफड़ों में आया हुआ अशुद्ध रक्त पूर्ण रूप से शुद्ध नहीं होता है और ऐसा ही अशुद्ध रक्त शरीर में बहने के कारण से शरीर थकान का अनुभव करता है । साथ ही पढ़ने में भी उसका मन नहीं लगता, उसे सदा बोरडम ही लगता है। उसे सदा उदासी ही आती है, अतः अध्ययन सम्भव नहीं होता । इसलिये प्राणमय स्तर के अवरोध दूर करना आवश्यक हैं।

मन के स्तर के अवरोध

तीसरा और सब से बड़ा अवरोध मन के स्तर का है। छात्रों का मन एकाग्र नहीं होना यह आम बात है । कक्षा में पढ़ने के लिये बैठें तो हैं, अध्यापक कुछ बोल रहा है अथवा छात्रों को पढ़ने के लिये दिया है, सामने पुस्तक भी खुली पड़ी है, चर्म चक्षु तो पुस्तक में लिखा हुआ देख रहे हैं, शारीरिक कान अध्यापक क्या कह रहे हैं वह सुन रहे हैं परन्तु मन के कान कहीं और हैं और कोई दूसरी बात न रहे हैं । दूसरी सुनी हुई बात का स्मरण हो रहा हैं । मन की आँखें और ही कुछ देख रही हैं और उस देखे हुए दृश्य का आनन्द ले रही हैं । इसका ध्यान ही कक्षा कक्ष में क्या हो रहा है इसकी ओर नहीं है । ऐसे छात्र अध्ययन का पहला चरण भी पार नहीं कर पाते हैं । वे ग्रहणशील नहीं होते हैं अर्थात्‌ जो भी अध्ययन हो रहा है वह उनके अन्दर जाता ही नहीं है । ज्ञानेन्द्रियाँ उन्हें ग्रहण ही नहीं करती है तो ज्ञान के स्तर तक पहुँचने की कोई सम्भावना ही नहीं है । इसलिये जो हो रहा है वहीं पर मन को एकाग्र करना आवश्यक होता है। छात्र कभी एकाध शब्द सुनते हैं और फिर शेष ध्यान उनका और कहीं चला जाता है। ऐसा बार बार एकाग्रता का भंग होना वर्तमान कक्षा कक्ष में बहुत ही प्रचलन में है, बहुत ही सामान्य बात है । दूसरा मन के स्तर का अवरोध है, समझ में नहीं आना । यह वैसे बुद्धि, तेजस्वी नहीं होने का लक्षण है परन्तु अवरोध तो मन के स्तर का है । क्योंकि मन कहीं और लगा हुआ है । मन की रूचि अध्ययन में नहीं बन रही है । मन तनाव ग्रस्त है । मन उत्तेजना ग्रस्त है, शान्त नहीं है इसलिये वह ग्रहण नहीं कर पाता है । और जो ग्रहण किया है उसकी धारणा नहीं कर पाता है । ग्रहण नहीं करने के कारण से जो कुछ भी अध्ययन करता है वह आधा अधूरा होता है । उत्तेजना के कारण से जो भी ग्रहण करता है वह खण्ड खण्ड में करता है और उसकी समझ आधी अधूरी और बहुत ही मिश्रित स्वरूप की बनती है । इसलिये मन का शान्त होना बहुत ही आवश्यक है । उदाहरण के लिये एक पात्र में यदि २०० ग्राम दूध समाता है तो फिर उसमें कितना भी अधिक दूध डालो, वह तो केवल २०० ग्राम ही ग्रहण करेगा बाकी सारा दूध बह जायेगा । कक्षा कक्षों की भी यही स्थिति होती है। अध्यापक पढ़ाते ही जाते हैं पढ़ाते ही जाते हैं परन्तु छात्रों की ग्रहणशीलता कम होने के कारण से वह सब निर्रर्थक हो जाता है । छात्रों का पात्र तो छोटा का छोटा ही रह जाता है । इसलिये इस अवरोध को पार करने के लिये मन को शान्त रखना बहुत आवश्यक है । मन को शान्त रखने के उपाय की ओर हम बाद में ध्यान देंगे परन्तु मन के स्तर के जो अवरोध हैं उनको पार किये बिना ज्ञान सम्पादन होना तो असम्भव है ।

मन के साथ साथ ही बुद्धि भी जुड़ी हुई है । बुद्धि तेजस्वी नहीं होने का कारण भी मन की चंचलता ही है और मन के विकार ही हैं । बुद्धि को अभ्यास नहीं होने के कारण से वह ठीक से ग्रहण नहीं कर पाती, ठीक से समझ नहीं पाती । हम यह तो बहुत सुनते हैं कि अध्यापक तो बहुत अच्छा पढ़ाते हैं परन्तु छात्रों को समझ में ही नहीं आता । इसका बहुत बड़ा कारण कहीं अध्ययन और अध्यापन की अनुचित पद्धति भी है । उदाहरण के लिये भाषा तो सुन कर, बोलकर पढ़ कर, लिख कर, सीखा जाने वाला विषय है परन्तु ये चार तो भाषा के केवल कौशल हैं । आगे रस ग्रहण करना, मर्म समझना, सार ग्रहण करना आदि बुद्धि के स्तर की बातें हैं। अब हम यदि सुनना, बोलना, पढ़ना और लिखना इतने में ही भाषा को सीमित रखेंगे तो आगे व्याकरण, साहित्य, काव्य आदि बातें तो समझ में नहीं आयेंगी । तत्त्व चिन्तन भी समझ में नहीं आयेगा, इसलिये बुद्धि से सीखी जाने वाली बातें बुद्धि से ही सीखी जाती हैं। अभ्यास से सीखी जाने वाली बातें अभ्यास से सीखी जाती हैं । ऐसा एक सूत्र अध्ययन अध्यापन करते समय हमें ध्यान में रखने की बहुत आवश्यकता है । इसी प्रकार से बुद्धि के क्षेत्र के अवरोधों का एक कारण विभिन्न विषय सिखाने की एक समान पद्धति है । उदाहरण के लिये भूगोल कभी भी पुस्तकों से पढ़ाया नहीं जा सकता । विज्ञान कभी भी पुस्तकों से नहीं पढ़ाया जाता । गणित भाषा के कौशलों से सीखा नहीं जाता । इतिहास तत्त्व चिन्तन से सीखा नहीं जाता । विज्ञान प्रयोगशाला में सीखा जाता है । गणित कृति से ही सिखा जाता है । इतिहास कहानी सुनकर सीखा जाता है । भूगोल मैदान में जा कर सीखा जाता है । वाणिज्य बाजार में जाकर, दुकान में जाकर सीखा जाता है । इस प्रकार विभिन्न विषय सीखने की अलग अलग पद्धतियाँ होती हैं । यदि हम सभी विषयों को पुस्तकों के माध्यम से ही सीखने का आग्रह रखते हैं, अध्यापक के भाषण के माध्यम से ही सीखने का आग्रह रखते हैं, कक्षाकक्ष में बैठकर एक निश्चित समय की अवधि के दौरान ही सीखने का आग्रह रखते हैं तो ये कभी भी सीखे नहीं जाते । सीखने का केवल आभास ही निर्माण होता है। विभिन्न विषयों के लिये विभिन्न पद्धतियाँ अपनाने से ही अध्ययन अच्छा होता है। ऐसी पद्धतियाँ नहीं अपनाई जायेगी तो बुद्धि का विकास भी नहीं होता और बुद्धि के जितने भी साधन हैं उन साधनों का उपयोग भी करना नहीं आता । बुद्धि के साधन हैं तर्क और अनुमान । बुद्धि के साधन हैं निरीक्षण और परीक्षण । बुद्धि के साधन हैं संश्लेषण और विश्लेषण । बुद्धि के साधन हैं कार्यकारण भाव समझना । इन सारे साधनों का प्रयोग करके उनका ठीक से अभ्यास किया जाय तो बुद्धि का विकास होता है और बुद्धि के विकास से ही सारी बातें सीखी जाती हैं । अध्ययन अच्छा होता है। अध्ययन वैसे खास बुद्धि का ही क्षेत्र है परन्तु शरीर और मन उसमें या तो साधक या तो बाधक हो सकते हैं। शरीर और मन को ठीक किये बिना बुद्धि अध्ययन करने का काम कर ही नहीं सकती।

बुद्धि को साधना

बुद्धि को साधने के साथ ही उसके सारे साधन तराशे बिना, उनको सक्षम किये बिना अध्ययन हो नहीं सकता । इसलिये शरीर, मन और बुद्धि तीनों को पहले ठीक करने चाहिये । ये ठीक करने के उपाय कौन से हैं ? और एक बात, मन एकाग्र भी हो जाये, मन में रुचि भी निर्माण हो जाये, मन शान्त भी हो जाये, तो भी मन यदि सद्गुणी नहीं है और शरीर के माध्यम से सदाचारी नहीं हैं तो भी बुद्धि अच्छी नहीं होती। फिर लिखी हुई बातों का विनियोग गलत ढंग से होता है । इसलिये मन को शान्त बनाने के साथ साथ सद्गुणी बनाना बहुत आवश्यक है। यह सब कैसे किया जाये ? तो यह सब करने के लिये पहले ही बताया है कि आहार विहार तो ठीक होना ही चाहिये । दिनचर्या ठीक होनी चाहिये । दिनचर्या का विज्ञान कहता है कि शरीर, मन और बुद्धि के विभिन्न कार्य करने के लिये दिन के चौबीस घन्टे के विभिन्न प्रहर निश्चित किये हुये हैं। उस समय वातावरण भी ठीक होता हैं और मानस भी उसी के अनुकूल होता है। मनस्थिति पर, ( 1 ) शरीर स्थिति पर उसका प्रभाव पड़ता है। उदाहरण के लिये, ब्राह्ममुहूर्त के दो प्रहर अथवा चार घटिका, चिन्तन, मनन, कण्ठस्थिकरण आदि के लिये सर्वाधिक उपयुक्त समय है । प्रातः काल ६ बजे से दस बजे तक का समय अध्ययन के लिये सर्वाधिक अनुकूल है । सायं काल के ६ बजे से दस बजे का समय भी अध्ययन करने के लिये सर्वाधिक अनुकूल है । उस समय इस अध्ययन में मनन, चिन्तन, कण्ठस्थिकरण, ध्यान, साधना, जप, नामस्मरण आदि सभी का समावेश होता है। उसी प्रकार सायं काल में इन सभी के साथ साथ कथा श्रवण का भी समावेश होता है । इसलिये हम नियोजन करते समय इस समय का भी ध्यान रखें । उदाहरण के लिये भोजन के बाद का दो प्रहर का समय अर्थात् चार घटिका का समय शरीर, मन और बुद्धि के परिश्रम के लिये सर्वथा प्रतिकूल समय है। इसलिये भोजन के बाद शारीरिक और बौद्धिक श्रम बिल्कुल ही नहीं करना चाहिये । करने से दोनों और से नुकसान होता है । पहला पाचन भी ठीक नहीं होता दूसरा शरीर भी थक जाता है और तीसरा विषय ग्रहण भी नहीं हो सकता माने बुद्धि ग्रहणशील भी नहीं रहती। अतः पाचन भी ठीक नहीं होता और अध्ययन भी ठीक नहीं होता । ऐसे दोनों और से नुकसान होता है।

जिस प्रकार अध्ययन का समय निश्चित है उसी प्रकार भोजन और निद्रा का भी समय निश्चित होता है। भोजन पचाने के लिये जठराग्नि प्रदिप्त होने की आवश्यकता होती है। जैसे जैसे सूर्य प्रखर होता जाता है वैसे वैसे जठराग्नि भी प्रदीप्त होती जाती है, क्योंकि ब्रह्माण्ड और पीण्ड दोनों का एक दूसरे के साथ सीधा सम्बन्ध है, सम सम्बन्ध है। इसलिये दोपहर का भोजन मध्याहन के पूर्व ही ले लेना चाहिये । सायंकाल का भोजन सूर्यास्त से पहले हो जाना चाहिये । यह शरीर स्वास्थ्य के लिये अत्यन्त आवश्यक है। इसलिये भोजन की योजना भी अध्ययन का समय और भोजन का समय ध्यान में रखते हुए विचार पूर्वक होनी चाहिये । आजकल हम देखते हैं कि भोजन के समय में मध्याह्न और सायंकाल अत्यन्त प्रतिकूल हैं इसलिये शरीर स्वास्थ्य और मन स्वास्थ्य भी बहुत ही बिगड़ा रहता है और अध्ययन ठीक से होना असम्भव हो जाता है । नींद का विज्ञान यह कहता है कि रात को बारह बजे से पहले की एक घन्टे की निद्रा बारह बजे के बाद दो घन्टे की निद्रा के बराबर होती है । इसलिये रात्रि में जल्दी सोने की आदत बनानी ही चाहिये | रात को जल्दी सोने से नींद भी अच्छी आती है नींद की गुणवत्ता अच्छी रहती है और कम निद्रा से अधिक आराम मिलता है। इसके साथ ही आहार और निद्रा का तालमेल अत्यन्त आवश्यक हैं । छात्रों को चाहे वे छोटी आयु के हों या बड़ी आयु के हों व्यायामशाला में जाकर अथवा मैदान में जाकर पूर्ण मनोयोग से, आनन्द से खेलना चाहिये । ये खेल बुद्धि के खेल नहीं है । ये खेल कैरम या बुद्धि बल अथवा शतरंज अथवा विडयोगेम्स आदि नहीं है । ये खेल शारीरिक हैं अर्थात्‌ जिसमें दौड़ना, भागना, खींचना, पकड़ना, चिल्लाना मिट्टी में लोटपोट होना यह सब होता है । ऐसे खेलों की छोटे बड़े सभी को बहुत आवश्यकता है । बड़े छात्रों को तो व्यायामशाला में जाकर प्रातःकाल और सायंकाल सूर्यनमस्कार, दण्डबैठक, मलखम्भ, कुश्ती आदि सारे खेल अनिवार्य रूप से खेलना ही चाहिये । खेल में समय व्यतीत करना यह बर्बाद करना नहीं है । खेल शरीर और प्राण को तो पुष्टि देने वाले होते हैं साथ में मन को साफ करने वाले और बुद्धि को तेजस्वी बनाने वाले भी होते हैं । इसलिये जो लोग खेलने का समय काट कर अध्ययन का समय बढ़ाते हैं वे भी सर्वतोमुखी हानि ही करते हैं । छात्र की भी हानि करते हैं अध्यापक की भी हानि करते हैं और शिक्षा की भी हानि करते हैं क्योंकि ज्ञान तब अनाश्रित हो जाता है । कहाँ जाकर वह आश्रय करे, न अध्ययन करनेवाला उसके लिये ठीक आश्रय है, न अध्यापन करनेवाला भी उसका ठीक आश्रय है । इसलिये ज्ञान को अनाश्रित बना देने से समाज का ही बहुत भारी नुकसान होता है । इसलिये आज आवश्यक है कि समाज में व्यायामशालाओं की प्रतिष्ठा हो, मैदानों की प्रतिष्ठा हो, खेलों की प्रतिष्ठा हो । और उससे जो बड़ा सुडौल और सौष्ठतवपूर्ण स्वस्थ और बलवान शरीर बनता है, स्वच्छ मन बनता है, उत्साहपूर्ण प्राण बनते हैं और तेजस्वी और कुशाग्र बुद्धि बनती है उसकी प्रतिष्ठा हो ।

मन को शान्त व एकाग्र बनाना

यह तो शारीरिक मानसिक दृष्टि से जो बाधायें होती हैं, अवरोध निर्माण होते हैं उनके उपाय हैं । साथ ही छोटे छोटे और उपाय भले ही छोटे हों परन्तु महत्त्वपूर्ण उपाय हैं। ये उपाय हैं मन के क्षेत्र के । मन को एकाग्र बनाने के लिये पहले उसे शान्त बनाने की आवश्यकता होती है । मन को शान्त बनाने के लिये जिस प्रकार शरीर के लिये आहार विहार का ध्यान रखना चाहिये उसी प्रकार से मन के लिये भी आहार विहार का ध्यान रखना आवश्यक है । सात्विक आहार और प्रेम से बनाया हुआ आहार मन को शान्त बनाता है, प्रेमपूर्ण भी बनाता है । इसलिये अन्न की शुद्धि, अन्न की पवित्रता मन के लिये अत्यन्त आवश्यक है। छात्रों के लिये इसी कारण से बाहर का खाना वर्जित हो जाना चाहिये, वर्जित कर देना चाहिये, क्योंकि सारी समस्याओं की जड़़ तो वहीं पर है । घर का बनाया हुआ भोजन करना यह छात्रों के लिये नियम बन जाना चाहिये और इस नियम का कड़ाई से पालन भी होना चाहिये ।

छात्र सूती वस्त्र पहने यह भी स्वास्थ की दृष्टि से अत्यन्त आवश्यक है । छात्रों को श्रम करना चाहिये । श्रम करने में लज्जा का नहीं परन्तु गौरव का भाव होना चाहिये । यह श्रम मन को साफ करता है, मन को अच्छा बनाता है । साथ में उसके व्यावहारिक लाभ तो हैं ही, समय बचता है, पैसा बचता है, किसी को नौकर नहीं बनाना होता और काम के प्रति, श्रम के प्रति हेय भाव निर्माण नहीं होने से, अन्ततोगत्वा व्यक्तिगत जीवन में और सामाजिक जीवन में समृद्धि भी पनपती है, इसलिये श्रम की प्रतिष्ठा करना यह विद्यालय का, घर का, समाज का बहुत बड़ा दायित्व है । जब तक काम नहीं करते तब तक अध्ययन ठीक से नहीं होता । यह बात बार बार अनेक प्रकार से समझाने की आवश्यकता है । इसलिये छात्रों को श्रम करना चाहिये यह नियम बनता है । श्रम घर के, विद्यालय के कामों के माध्यम से होता है । इसलिये विद्यालय के और घर के सारे काम करने में कुशलता प्राप्त करना यह तो शिक्षा का भी प्रमुख और शास्त्रीय अध्ययन करने के लिये बुद्धि ग्रहणशील और तेजस्वी बनाने के लिये एक पात्रता निर्माण करने का भी माध्यम है । मन शान्त करने के लिये और मन स्वच्छ बनाने के लिये सत्संग और सेवा बहुत आवश्यक है । सेवा छात्र की आयु के अनुसार अनेक प्रकार की होती है। आजकल हमने सर्विस सेक्टर या नौकरी का क्षेत्र उसको सेवा कहना आरम्भ किया है । यह सेवा शब्द का अत्यन्त ही गलत प्रयोग है । किसी दूसरे का काम, किसी दूसरे के लिये कष्ट सहन करना और अपने लिये कुछ भी अपेक्षा नहीं करना और ऐसा करने में आनन्द का अनुभव करना सेवा है । और किसी भी प्रकार के बदले की अपेक्षा रखना यह सेवा नहीं है । इसलिये सेवा भाव है और सेवा भाव से किया हुआ काम सेवाकार्य है । ऐसा सेवाकार्य करना छात्रों के लिये अनिवार्य बनाना चाहिये । सेवा की वृत्ति है, सेवा की भावना है और सेवा की कृति है । इन तीनों का समावेश छात्रों को अध्ययनहेतु पात्रता निर्माण करने में सहायक बनता है । इसलिये छात्रों को सेवा तो करनी ही चाहिये।

फिर वह विद्यालय की सेवा हो, गुरु की सेवा हो, वृक्ष वनस्पति की सेवा हो, प्राणी की सेवा हो, देव सेवा हो, किसी भी रूप में सेवा हो लेकिन सेवा, दिनचर्या का अभिन्न अंग बनना आवश्यक है । इसके बाद ऊँकार का उच्चारण, जप करना, स्तोत्र पाठ करना, मन्त्रों का उच्चारण करना यह सब मन को एकाग्र बनाने के लिये आवश्यक है । मन की शुद्धि के लिये भी आवश्यक है । इसी से मन अध्ययन के लिये अनुकूल बनता है । तनाव दूर करने के लिये भी जप आवश्यक है। साथ ही अध्यापकों के या माता पिता के व्यवहार में ऐसा कुछ भी न हो जिस से छात्रों के मन में भय निर्माण हो, या तनाव निर्माण हो । भय और तनाव यह दोनों अध्ययन की शान्ति का नाश करते हैं । इसलिये भय और तनाव नहीं उत्पन्न करना यह दोनों का दायित्व बनता है । उत्तेजना पैदा करने वाले दृश्यों को देखने से या ऐसी बातें करने से भी मन अशान्त हो जाता है । इसलिये विद्यालय का वातावरण पवित्र रखना चाहिये ।

बुद्धि के अवरोध दूर करने के उपाय

अब बुद्धि के क्षेत्र में अवरोध दूर करने के उपाय पर चर्चा करते हैं। सब से पहले छोटी आयु में कण्ठस्थीकरण की ओर ध्यान देना चाहिये । छोटी आयु में स्मृति तेज होती है, सक्रीय होती है और कण्ठस्थीकरण सहज लगने वाला कार्य होता है इसलिये बहुत सारी बातों का कण्ठस्थीकरण हो जाये ऐसा ही शिक्षाक्रम बनाना चाहिये। पहाड़ो का कण्ठस्थीकरण, सूत्र, नियम आदि का कण्ठस्थीकरण, मन्त्रों का कण्ठस्थिकरण, भगवदू गीता के अध्यायों का, स्तोत्रों का कण्ठस्थिकरण आगे चल कर विषय समझने में और विषय का प्रतिपादन करने में बहुत ही सहायता करते हैं ।

पहाड़े केल्कुलेटर का काम करते हैं और स्तोत्र, मन्त्र, सूत्र आदि सब विज्ञान और गणित के क्षेत्र में तथा तत्त्वज्ञान के क्षेत्र में बुद्धि से प्रतिपादन करने के क्षेत्र में नित्य उपस्थित ऐसे सन्दर्भों का काम करते हैं । इसलिये कण्ठस्थीकरण बहुत कर चाहिये । साथ ही सभी बातों का निरीक्षण करने का अभ्यास करना चाहिये । निरीक्षण करने से ध्यान भी एकाग्र होता है, मन भी एकाग्र होता है, रुचि भी बढ़ती है और समझ भी बढ़ती है । अनेक बातें अपने आप ध्यान में आती हैं । इसलिये निरीक्षण करना और परीक्षण करना यह नित्य अभ्यास के विषय बनने चाहिये । किशोर आयु में किसी भी सिद्धान्त का साधक बाधक विचारप्रवृत्ति का विकास करना चाहिये । किसी भी कृति के, किसी भी घटना के दोनों पक्ष क्या हैं इसका कार्य कारण भाव समझना बहुत आवश्यक है । छात्रों की विचार प्रक्रिया को प्रेरणा देकर उनका विकास करना यह अध्ययन का तरीका होता है । यदि ऐसा नहीं किया तो छात्र रटने पर उतारु हो जाते हैं और रटी हुई बातें समझ में नहीं आती । वे परीक्षा का प्रयोजन समाप्त होते ही भूल जाते हैं। ये व्यक्तित्व का अंग नहीं बनती । इसलिये विचार की प्रक्रिया को चलने देना बहुत आवश्यक है । साधक बाधक चर्चा करना बहुत आवश्यक है । कार्य कारण भाव समझना बहुत आवश्यक है । चिंतन करना बहुत आवश्यक है । अपने अभिप्राय बनाना इसका भी बहुत अभ्यास होना चाहिये । इसी से बुद्धि की स्वतंत्रता का विकास होता है । साथ में दायित्व बोध भी निर्मित होता है।

किशोर अवस्था में समाज सेवा में प्रवृत्ति होना बहुत आवश्यक है । इस प्रकार समाज सेवा में प्रवृत्ति होने से अध्ययन को एक प्रयोजन प्राप्त होता है, सन्दर्भ प्राप्त होता है। किशोर और तरूण अवस्था में प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा और ध्यान ये सीखने के महत्त्वपूर्ण विषय बनते हैं । ध्यान केवल एकाग्रता के लिये नहीं परन्तु ध्यान अन्तर्मुख होने में भी बहुत सहायक बनता है । एकाग्रता से भी अन्तर्मुख होना अधिक आवश्यक है । अन्तर्मुख होने से बाहर के अध्ययन के साथ साथ अन्दर का और स्वयं का अध्ययन करने की प्रवृत्ति का भी विकास होता है । बाहर और अन्दर दोनों की ओर अध्ययन की दिशा बननी चाहिये । अन्दर का अध्ययन करने से एक प्रकार का विकास होता है । बाहर का अध्ययन करने से दूसरे प्रकार का विकास होता है । दोनों और सम्यक विकास होते होते यह ध्यान में आता है कि बाहर और अन्दर अलग नहीं है दोनों एक ही है । यह अनुभूति की शिक्षा है । पग पग पर अनुभूति की शिक्षा का प्रवर्तन करना, उसकी योजना करना, यह भी अध्ययन का विकास करने के लिये, अध्ययन की क्षमता का विकास करने के लिये बहुत आवश्यक है । यदि ऐसा नहीं हुआ तो अध्ययन यान्त्रिक बन जाता है । इस प्रकार अध्ययन के लिये यान्त्रिकता भी बहुत बड़ी बाधा है । यह तो छात्र के स्वयं के आन्तरिक अवरोध हैं जो छात्र के लिये विभिन्न प्रकार के उपायों की योजना करने से दूर होते हैं परन्तु अध्ययन के अवरोध बाहर भी होते हैं। कक्षा कक्ष का वातावरण, अध्ययन का समय, अध्ययन के विषय, अध्ययन के पाठ्यक्रम, अध्ययन की पद्धतियाँ, उपकरणों का उपयोग, परीक्षा की पद्धति, ये सारे के सारे अध्ययन के अवरोध ही हैं।

ये अध्यापक की ओर से अथवा पाठ्यक्रम और पाठ्यपुस्तकें बनानेवाले की ओर से निर्माण होते हैं । परीक्षा पद्धति का निर्माण करने वाले भी रचना करनेवाले भी अध्ययन की प्रवृत्ति को कुंठित करने का काम करते हैं । इसलिये अध्ययन में छात्र के स्वयं के व्यक्तित्व के या छात्र के स्वयं के आंतरिक गुणों के अवरोध और दूसरे बाह्य परिस्थिति के अवरोध ऐसे दोनों प्रकार के अवरोध दूर करने से ही अध्ययन स्वाभाविक बनता है, सहज बनता है और तेजस्वी बनता है । हमें ध्यान रखना चाहिये कि छात्र अध्ययन के लिये ही जन्मा है। हर छात्र अध्ययन कर सकता है । जो कर सकता है वह उसे करने नहीं देना, उसके लिये अनुकूलता ही निर्माण नहीं करना यह बहुत बड़ा अपराध है, बहुत बड़ा दोष है । ऐसे दोष शिक्षा के क्षेत्र से दूर करना । कक्षा कक्ष के क्षेत्र से दूर करना । विद्यालय परिसर से दूर करना । घर से दूर करना । यह एक बहुत बड़ा विचारणीय क्षेत्र है। हम अध्ययन की प्रवृत्ति को बहुत सीमित कर देते हैं । उसको पुस्तकों के अन्दर कक्षा कक्ष के अंदर, पाठ्यक्रम के अंदर और परीक्षा के अंदर सीमित कर देते हैं । अध्ययन के व्यापक क्षेत्र को सीमित कर देना ठीक नहीं है । अध्ययन के जीवन्त क्षेत्र को कृत्रिम और यांत्रिक बना देना ये भी ठीक नहीं है । अध्ययन के क्षेत्र को अस्वाभाविक बना देना ये भी ठीक नहीं है। हम सब मिलकर यदि छात्र के अध्ययन के अवरोध दूर कर दें तो अध्ययन तेजस्वी बन जाता है और तेजस्वी अध्ययन से छात्र का जीवन तो अच्छा होता ही होता है, समाज को और राष्ट्र को भी उसका बहुत लाभ होता है । यह सब करना हमारे लिये असंभव नहीं है । कदाचित थोड़ा कठिन लग सकता है । परन्तु थोड़ा विचार करने पर कठिन भी नहीं है ऐसी प्रतीति होगी । इसलिये हमें इन अवरोधों पर विचार करना चाहिये ।

References

  1. धार्मिक शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला १)-अध्याय १५, प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे