व्यक्ति के लिये शिक्षा

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शिक्षा व्यक्ति के लिये होती है इस कथन में तो कोई आश्चर्य नहीं है । वर्तमान में हम शिक्षा के जिस अर्थ से परिचित हैं वह है विद्यालय में जाकर जो पढ़ा जाता है वह ।परन्तु शिक्षा का यह अर्थ बहुत सीमित है । धार्मिक परम्परा में एक व्यक्ति के लिये शिक्षा के बारे में जो समझा गया है उसके प्रमुख आयाम इस प्रकार हैं[1]:

शिक्षा आजीवन चलती है

वर्तमान व्यवस्था की तरह शिक्षा को केवल विद्यालय के साथ और केवल जीवन के प्रारंभिक वर्षों के साथ नहीं जोड़ा गया । शिक्षा का जीवन के साथ वैसा संबंध जोड़ा भी नहीं जा सकता है । कारण यह है की व्यक्ति का इस जन्म का जीवन आरम्भ होता है तब से शिक्षा उसके साथ जुड़ जाती है । सीखना शब्द संपूर्ण जीवन के साथ हर पहलू में जुड़ा है । गर्भाधान से ही व्यक्ति सीखना आरम्भ करता है । पुराणों में हम इसके अनेक उदाहरण देखते हैं । अभिमन्यु, अष्टावक्र आदि ने गर्भावस्था में ही अनेक बातें सीख ली थीं । केवल पुराणों के ही नहीं तो अर्वाचीन काल के, और केवल भारत में ही नहीं तो विश्व के अन्य देशों में भी ऐसे उदाहरण प्राप्त होते हैं । व्यक्ति अपनी मातृभाषा गर्भावस्था में ही सीखना प्रारम्भ कर देता है । पूर्व जन्म के और आनुवांशिक संस्कारों के रूप में व्यक्ति इस जन्म में जो साथ लेकर आता है उसमें गर्भावस्‍था से ही वह जोड़ना आरम्भ कर देता है । जन्म के बाद पहले ही दिन से उसकी शिक्षा प्रारम्भ हो जाती है । वह रोना, लेटना, दूध पीना सीखता ही है । वह रेंगना, घुटने चलना, खड़ा होना, हँसना, रोना, खाना, चलना, बोलना सीखता ही है। लोगोंं को पहचानना, उनका अनुकरण करना, सुनी हुई भाषा बोलना सीखता है । असंख्य बातें ऐसी हैं जो वह घर में, मातापिता के और अन्य जनों के साथ रहते रहते सीखता है । सीखते सीखते ही वह बड़ा होता है । जैसे जैसे बड़ा होता है वह अनेक प्रकार के काम करना सीखता है। अनेक वस्तुओं का उपयोग करना सीखता है । लोगोंं के साथ व्यवहार करना सीखता है, विचार करना, अपने अभिप्राय बनाना, अपने विचार व्यक्त करना,कल्पनायें करना सीखता है । अनेक खेल, अनेक हुनर, अनेक खूबियाँ, अनेक युक्तियाँ सीखता है । बड़ा होता है तो जीवन को समझता जाता है । प्रेरणा ग्रहण करता है और विवेक सीखता है । कर्तव्य समझता है, कर्तव्य निभाता भी है। बड़ा होता है तो पैसा कमाना सीखता है । अपने परिवार को चलाना सीखता है । अपने जीवन का अर्थ क्या है इसका विचार करता है । अपने मातापिता से, संबंधियों से, मित्रों से, साधुसंतों से वह अनेक बातें सीखता है । अपने अन्तःकारण से भी सीखता है । जप करके, ध्यान करके, दर्शन करके, तीर्थयात्रा करके वह अनेक बातें सीखता है। अनुभव से सिखता है । संक्षेप में एक दिन भी बिना सीखे खाली नहीं जाता । जीवन उसे सिखाता है, जगत उसे सिखाता है, अंतरात्मा उसे सिखाती है ।

अपने जीवन के अंतिम दिन तक वह सीखता ही है । मृत्यु के साथ इस जन्म का जीवन जब पूर्ण होता है तब अनेक बातें वह अगले जन्म के लिए साथ ले जाता है। इस प्रकार शिक्षा उसके साथ आजीवन जुड़ी हुई रहती है । जो सीखता है और बढ़ता है वही मनुष्य है । इस शिक्षा के लिए उसे विद्यालय जाना, गृहकार्य करना, प्रमाणपत्र प्राप्त करना अनिवार्य नहीं है। यह भी आवश्यक नहीं की उसे लिखना और पढ़ना आता ही हो । भारत में अक्षर लेखन और पुस्तक पठन को आज के जितना महत्व कभी नहीं दिया गया । अनेक यशस्वी उद्योगपति बिना अक्षरज्ञान के हुए हैं। अनेक उत्कृष्ट कारीगर और कलाकार बिना अक्षरज्ञान के हुए हैं। अनेक सन्त महात्मा बिना अक्षरज्ञान के हुए हैं । अर्थार्जन, कला, तत्वज्ञान और साक्षात्कार के लिए अक्षरज्ञान कभी भी अनिवार्य नहीं रहा । इतिहास प्रमाण है कि शिक्षा के संबंध में इस धारणा के चलते भारत अत्यन्त शिक्षित राष्ट्र रहा है क्योंकि ज्ञानविज्ञान के प्रत्येक क्षेत्र में भारत ने अनेक सिद्धियाँ हासिल की हैं। ऐसी शिक्षा के कारण ही भारत ने जीवन को समृद्ध और सार्थक बनाया है।

शिक्षा ज्ञानार्जन के लिए होती है

मनुष्य इस सृष्टि के असंख्य पदार्थों में एक है । सृष्टि के असंख्य जीवधारियों में एक है । यह सत्य होने पर भी मनुष्य अपने जैसा एक ही है । सृष्टि के अन्य सभी असंख्य प्राणी, वनस्पति, पंचमहाभूत एक ओर तथा मनुष्य दूसरी ओर ऐसी सृष्टि की रचना है। इसका कारण यह है कि केवल मनुष्य में ही मन, बुद्धि, अहंकार, चित्त का बना हुआ अंत:करण सक्रिय है। अन्य कोई भी मनुष्य की तरह विचार, कल्पना, रागद्वेष, ईर्ष्या, मद, अहंकार, उपकार, दया आदि नहीं कर सकता । मनुष्य के अलावा अन्य कोई भी कार्यकारण भाव समझ नहीं सकता। मनुष्य की तरह अन्य कोई भी भक्ति, पूजा, प्रार्थना, उपासना आदि नहीं कर सकता । मनुष्य को ही स्वयं के बारे में, जगत के बारे में और स्वयं और जगत जिसमें से बने और जिसने बनाए उस तत्व के बारे में जानने की इच्छा होती है। मनुष्य ही काव्य की रचना कर सकता है, मनुष्य ही नये नये आविष्कार कर सकता है। ये सब ज्ञानार्जन के भिन्न भिन्न स्वरूप हैं । ज्ञान प्राप्त करने की उसकी सहज इच्छा होती है । ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा को जिज्ञासा कहते हैं। इस सृष्टि में एक मात्र मनुष्य को ही जिज्ञासा प्राप्त हुई है।

अपनी जिज्ञासा को सन्तुष्ट करने के लिए मनुष्य जो भी करता है वह सब शिक्षा है। शिक्षा का प्रयोजन ही ज्ञान प्राप्त करना है।

ज्ञान क्या है ? श्रुति अर्थात् हमारे मूल शास्त्रग्रंथ कहते हैं कि परमात्मा स्वयं ज्ञानस्वरूप है । परमात्मा क्या है, कौन है, कैसा है इसकी परम अनुभूति ज्ञान है । सृष्टि में परमात्मा अनेक रूप धारण करके रहता है। अत: ज्ञान भी अनेक स्वरूप धारण करके रहता है । कहीं वह जानकारी है, कहीं ज्ञानेन्द्रियों के संवेदन है, कहीं कर्मेन्द्रियों की क्रिया है, कहीं विचार है, कहीं कल्पना है, कहीं विवेक है, कहीं संस्कार है , कहीं अनुभूति है। इन सभी स्वरूपों में ज्ञान प्राप्त करना मनुष्य की सहज प्रवृत्ति होती है। शिक्षा ज्ञान प्राप्त करने के लिए है।

शिक्षा, जैसे पूर्व में बताया है, ज्ञान प्राप्त करने हेतु की गई व्यवस्था है, प्रयास है, प्रक्रिया है। वर्तमान में हम शिक्षा का प्रयोजन अर्थार्जन ही मान लेते हैं । यह सर्वथा अनुचित तो नहीं है परन्तु शिक्षा का यह सीमित प्रयोजन है । व्यवहार में शिक्षा यश और प्रतिष्ठा के लिए भी है, विजय प्राप्त करने के लिए भी है, सुख प्राप्त करने के लिए भी है, अर्थ प्राप्त करने के लिए भी है । परन्तु शिक्षा का परम प्रयोजन ज्ञान प्राप्त करना है ।

इस अर्थ में ही विष्णु पुराण में प्रह्लाद कहते हैं[2]:

सा विद्या या विमुक्तये ॥१-१९-४१॥

अर्थात विद्या वही है जो मुक्ति के लिए है ।

तात्पर्य यह है कि परम प्रयोजन में शेष सब समाविष्ट हो जाते हैं।

शिक्षा पदार्थ नहीं है

शिक्षा को आज भौतिक पदार्थ की तरह क्रयविक्रय का पदार्थ माना जाता है और उसका बाजारीकरण हुआ है, इसीलिए यह मुद्दा बताने की आवश्यकता होती है । शिक्षा का उपभोग भौतिक पदार्थ की तरह ज्ञानेन्ट्रियों से नहीं किया जाता । वह अन्न की तरह शरीर को पोषण नहीं देती, वह वस्त्र की तरह शरीर का रक्षण नहीं करती और अपने रंगो और आकारों के कारण आँखों और मन को सुख नहीं देती । वह कामनापूर्ति का आनंद भी नहीं देती। वह धन का संग्रह करते हैं उस प्रकार संग्रह में रखने लायक भी नहीं है । वह सुविधाओं के कारण सुलभ नहीं होती । वह किसीकी प्रशंसा करके प्राप्त नहीं की जाती । वह धनी माता पिता के घर में जन्म लेने के कारण सुलभ नहीं होती । वह किसी से छीनी नहीं जाती । वह छिपाकर रखी नहीं जाती । उसे तो बुद्धि, मन और हृदय से अर्जित करनी होती है । वह स्वप्रयास से ही प्राप्त होती है । वह साधना का विषय है, वह साधनों से प्राप्त नहीं होती । तात्पर्य यह है कि वह अपने अन्दर होती है, अपने साथ होती है, अपने ही प्रयासों से अपने में से ही प्रकट होती है । अतः शिक्षा का स्वरूप भौतिक नहीं है । उसका क्रय विक्रय नहीं हो सकता । उसका बाजार नहीं हो सकता | यहाँ शिक्षा ज्ञान के पर्याय के रूप में बताई गई है । अतः शिक्षा के तन्त्र में धन, मान, प्रतिष्ठा, सत्ता, सुविधा, भय, दण्ड आदि का कोई स्थान नहीं है । वह स्वेच्छा, स्वतन्त्रता और स्वपुरुषार्थ से ही प्राप्त होती है ।

मनुष्य को मनुष्य बनाने के लिए शिक्षा होती है

मनुष्य अन्य असंख्य प्राणियों की तरह एक प्राणी है । अपनी प्राकृत अवस्था में वह अन्य प्राणियों की तरह ही खातापीता है, सोताजागता है, प्राणरक्षा के लिए प्रयास करता है और अपने ही जैसे अन्य मनुष्य को जन्म देता है । अन्य सजीवों की तरह ही वह जन्मता है, वृद्धि करता है, उसका क्षय होता है और अन्त में मर जाता है । प्राणियों से अधिक उसे मन प्राप्त है । मन भी अपनी प्राकृत अवस्था में वासनापूर्ति में ही लगता है, अपनी वासनापूर्ति के लिए ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्ट्रियों को घोड़ों की तरह काम में लगाता है । मन को यदि वश में नहीं किया तो वह मनुष्य को प्राकृत अवस्था में भी नहीं रहने देता, वह विकृति की ओर घसीटकर ले जाता है । मनुष्य की यदि यह स्थिति रही तो वह तो पशुओं से भी निम्न स्तर का हो जाएगा। मनुष्य से यह अपेक्षित नहीं है क्योंकि वह विकास की अनन्त संभावनाओं को लेकर जन्मा है । उसे प्राकृत नहीं रहना है, उसे विकृति की ओर तो कदापि नहीं जाना है। उसे प्राकृत अवस्था से आगे बढ़कर, ऊपर उठकर संस्कृत बनना है। प्राकृत अवस्था से ऊपर उठकर संस्कृत बनना ही विकास है । मनुष्य को अपना विकास करना है। यही उसके जीवन का प्रयोजन है । इसी को मनुष्य बनना कहते हैं । शिक्षा मनुष्य के विकास के लिए है।

शिक्षा मनुष्य को अन्यों के साथ समायोजन सिखाने के लिए है

मनुष्य इस सृष्टि में अकेला नहीं रहता है । वह भले ही सर्वश्रेष्ठ हो, भले ही अपने जैसा एक ही हो, भले ही अनेक विशिष्टताओं से युक्त हो,उसे रहना अन्यों के साथ ही है। इस सृष्टि में असंख्य मनुष्य हैं जो उसकी ही तरह मन, बुद्धि आदि अन्तः:करण लिए हुए हैं और उनके चलते अनेक भिन्न-भिन्न प्रवृत्तियों के हैं । मनुष्यों की भिन्न भिन्न प्रवृत्तियों के कारण उनमें मैत्री भी होती है और दुश्मनी भी। सृष्टि में वनस्पति है, प्राणी हैं और पंचमहाभूत भी हैं । मनुष्य को इन सबके साथ रहना है । मनुष्य सबसे श्रेष्ठ तो है परन्तु अपनी हर छोटी-मोटी आवश्यकता की पूर्ति अन्यों की सहायता के बिना नहीं कर सकता । भूमि से उसकी अन्न, वस्त्र, पानी, आवास आदि आवश्यकताओं की पूर्ति होती है । सर्व प्रकार की वनस्पति भूमि के कारण ही संभव है। प्राणी उसकी सहायता करते हैं। मनुष्य को अन्य मनुष्यों की सहायता भी चाहिए । अपनी सभी आवश्यकताओं की पूर्ति वह अपने आप ही नहीं कर सकता। उसे स्नेह, प्रेम, मैत्री भी चाहिए । अकेला रहकर वह पागल हो जाएगा । इसका अर्थ यह हुआ कि उसे सबके साथ रहना आना भी चाहिए। सबके साथ समायोजन करना सरल नहीं है। वह एक साधना है । सबके साथ रहने के लिए ही अनेक शास्त्र निर्मित हुए हैं, अनेक प्रकार के व्यवहार सिखाये गए हैं, अनेक प्रकार की साधनायें बताई गई हैं।

शिक्षा मनुष्य को अन्य सबके साथ समायोजन सिखाती है। इस प्रकार शिक्षा का मनुष्य के जीवन में विशिष्ट स्थान है। जिस प्रकार मनुष्य श्वास लेता है उसी प्रकार मनुष्य सीखता भी है। वह चाहे तो भी जिस प्रकार श्वास लेना बन्द नहीं कर सकता उसी प्रकार सीखना भी बन्द नहीं कर सकता।

इस शिक्षा का मनुष्य ने अपने चिन्तन मनन, निधिध्यासन से एक बहुत ही उत्कृष्ट शास्त्र बनाया है । वही शिक्षाशास्त्र है । इसीका हम किंचित विस्तार से यहाँ विचार कर रहे हैं।

आजीवन चलने वाली शिक्षा

मनुष्य गर्भाधान के समय अपने पूर्वजन्मों के संचित कर्म लेकर इस जन्म में आता है और उसकी शिक्षा आरम्भ होती है। गर्भ के रूप में आने से पहले ही गर्भाधान संस्कार किए जाते हैं जो उसकी शिक्षा का प्रारम्भ है । इस जन्म के उसके प्रथम शिक्षक उसके मातापिता ही हैं जो अपने कुल में आने के लिये उसका आवाहन और स्वागत करते हैं। उसके अध्ययन के लिये आवास बनाते हैं । पिता की चौदह और माता की पाँच पीढ़ियों के संस्कार उसे अनुवंश के नाते प्राप्त हो जाते हैं । गर्भाधान के समय भी माता और पिता से उसे सम्पूर्ण जीवन का पाथेय प्राप्त हो जाता है जिसके बल पर वह अपनी भविष्य की यात्रा करता है। उसकी प्रथम पाठशाला घर है और उसकी प्रथम कक्षा माता की कोख में है । माता के गर्भाशय में गर्भ के रूप में रहते हुए वह माता के माध्यम से शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक क्षमातायें प्राप्त करता है, माता की ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से ही बाहर की दुनिया के अन्यान्य विषयों के अनुभव ग्रहण करता है।

आयुर्वेद के अनुसार गर्भावस्‍था में मातृज, पितृज, रसज, सत्वज, सात्म्यज, आत्मज ऐसे छः भावों से उसका पिण्ड बनता है जो केवल शरीर नहीं होता अपितु उसका पूरा व्यक्तित्व होता है, उसका चरित्र होता है। जन्म का समय माता से स्वतंत्र अपने बल पर जीवन की यात्रा आरम्भ करने का है । गर्भोपनिषद्‌ कहता है[citation needed]

कि जब जीव माता के गर्भाशय में होता है तब वहाँ की स्थिति से परेशान होता हुआ सदैव विचार करता है कि यदि मैं इस कारागार से मुक्त होता हूँ तो जीवन में और कुछ नहीं करूँगा, केवल नारायण का नाम ही जपूँगा जिससे मेरी मुक्ति हो, परन्तु जैसे ही वह गर्भाशय से बाहर आना आरम्भ करता है माया का आवरण विस्मृति बनकर उसे लपेट लेता है और वह अपना संकल्प भूल जाता है और संसार में आसक्त हो जाता है।

अथ जन्तु: ख्रीयोनिशतं योनिट्वारि संप्राप्तो, यन्त्रेणापीद्यमानो महता दुःखेन जातमात्रस्तु

वैष्णवेन वायुना संस्पृश्यते तदा न स्मरति, जन्ममरणं न च कर्म शुभाशुभम्‌ ।।४।॥।

अर्थात्‌ वह योनिट्टवार को प्राप्त होकर योनिरूप यन्त्र में दबाया जाकर बड़े कष्ट से जन्म ग्रहण करता है । बाहर निकलते ही वैष्णवी वायु (माया) के स्पर्श से वह अपने पिछले जन्म और मृत्युओं को भूल जाता है और शुभाशुभ कर्म भी उसके सामने से हट जाते हैं ॥

इस जन्म की पूरी शिक्षायात्रा अपने भूले हुए संकल्प को याद करने के लिये है। जन्म के समय शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध, आसपास के लोगोंं के मनोभावों से जिस प्रकार उसका स्वागत होता है वैसे संस्कार उसके चित्त पर होते हैं । संस्कारों के रूप में होने वाले यह संस्कार बहुत प्रभावी शिक्षा है जो जीवनभर नींव बनकर, चरित्र का अभिन्न अंग बनकर उसके साथ रहती है। जन्म के बाद के प्रथम पाँच वर्ष में मुख्य रूप में संस्कारों के माध्यम से शिक्षा होती है । जीवन का घनिष्ठततम अनुभव वह ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों के माध्यम से प्राप्त करता है परन्तु ग्रहण करने वाला तो चित्त ही होता है। इस समय मातापिता का लालनपालन उसके चरित्र को आकार देता है । आहारविहार और बड़ों के अनुकरण से वह आकार लेता है। आनन्द उसका केंद्रवर्ती भाव होता है। पाँच वर्ष की आयु तक उसकी शिशु अवस्था होती है जिसमें उसकी शिक्षा संस्कारों के रूप में होती है।

आगे बढ़कर बालअवस्था में मुख्य रूप से वह क्रिया आधारित और अनुभव आधारित शिक्षा ग्रहण करता है। इस आयु में उसका प्रेरणा पक्ष भी प्रबल होता है। अब उसके सीखने के दो स्थान हैं। एक है घर और दूसरा है विद्यालय।

घर में उसे मन की शिक्षा प्राप्त होती है। वह नियमपालन, आज्ञापालन, संयम, अनुशासन, परिश्रम करना आदि की शिक्षा प्राप्त करता है। विद्यालय में वह अनेक प्रकार के कौशल, जानकारी प्रेरणा ग्रहण करता है। उसकी आदतें बनती हैं, उसके स्वभाव का गठन होता है। खेल, कहानी, भ्रमण, प्रयोग, परिश्रम आदि उसके सीखने के माध्यम होते हैं। उसका मन बहुत सक्रिय होता है परन्तु विचार से भावना पक्ष ही अधिक प्रबल होता है। बारह वर्ष की आयु तक उसके चरित्र का गठन ठीक ठीक हो जाता है । आगे किशोर अवस्था में वह विचार करता है। निरीक्षण और परीक्षण करना सीखता है। अपने अभिमत बनाता है । अपने आसपास के जगत का मूल्यांकन करता है। बड़ों से सीखने लायक बातें सीखता है। अब वह स्वतंत्र होने की राह पर होता है। बड़ा नहीं हुआ है परन्तु बनने की अनुभूति करता है। सोलह वर्ष का होते होते वह स्वतंत्र बुद्धि का हो जाता है। अब तक इंद्रियों, मन और बुद्धि का जितना भी विकास हुआ है उसके आधार पर अब वह जीवन का और जगत का अध्ययन स्वत: आरम्भ करता है। वह बुद्धि से स्वतंत्र है। अब उसे व्यवहार में भी स्वतंत्र होना है। अब उसकी आगे गृहस्थाश्रम चलाने की तैयारी आरम्भ होती है। वह अब बुद्धि से सीखता है, अहंकार के कारण अस्मिता जागृत होती है। कर्ताभाव जुड़ता है। अहंकार विधायक रहा तो दायित्वबोध भी जागृत होता है।

गृहस्थाश्रम चलाने के लिये दो प्रकार की तैयारी उसे करनी है। एक है अर्थार्जन की और दूसरी है विवाह की। एक के लिये उसे व्यवसाय निश्चित करना है और सीखना है। दूसरे के लिये उसे गृहस्थी कैसे चलती है यह सीखना है। एक विद्यालय में सीखा जाता है, दूसरा घर में । एक शिक्षकों से सीखना है, दूसरा मातापिता से । लगभग दस वर्ष यह तैयारी चलती है। फिर उसका विवाह होता है और दोनों बातें अर्थात्‌ गृहस्थी और अधथर्जिन आरम्भ होते हैं ।

अब उसे विद्यालय में जाकर नहीं सीखना है। अब उसके सीखने के दो केंद्र हैं। एक है घर और दूसरा है समाज। अब वह अपने बड़ों से नई पीढ़ी को कैसे शिक्षा देना यह सीखता है। अपने कुल की रीत, समाज में कैसे रहना, यश और प्रतिष्ठा कैसे प्राप्त करना, अपने सामाजिक कर्तव्य कैसे निभाना आदि सीखता है । साथ ही अपने बालकों को शिक्षा भी देता है। अर्थार्जन का स्थान भी बहुत कुछ सीखने का केंद्र है। वह अभ्यास से अपने व्यवसाय में माहिर होता जाता है, अनुभवी होता जाता है । सामाजिक कर्तव्य भी निभाता है। अपने मित्रों से सीखता है, अनुभवों से सीखता है । गलतियाँ करके भी सीखता है।

धीरे धीरे वह आयु में बढ़ता जाता है। अपने बच्चोंं की शिक्षा और भावी गृहस्थों की शिक्षा पूर्ण होते ही अपनी सांसारिक ज़िम्मेदारी पूर्ण करता है । संतानों के विवाह सम्पन्न होते ही वह वानप्रस्थी होने की तैयारी करता है। संसार के सभी दायित्व पूर्ण कर वह वानप्रस्थी बनता है । अब वह अपने बारे में चिंतन करता है, जीवन का मूल्यांकन करता है। अपने मन को अनासक्त बनाने का अभ्यास करता है । छोटों को मार्गदर्शन करता है । अधिकार छोड़ने की तैयारी करता है । उसकी बुद्धि परिपक्क और तटस्थ होती जाती है। अब वह सत्संग और उपदेश श्रवण से शिक्षा ग्रहण करता है। जीवन के अन्तिम पड़ाव में यदि विरक्त हुआ तो संन्यासी बनता है, नहीं तो घर में ही वानप्रस्थ जीवन जीता है। अपने पुत्रों को सहायता करता है । अपने मन को पूर्ण रूप से शान्त बनाता है । आगामी जन्म का चिंतन भी करता है । अपने इस जन्म का हिसाब कर भावी जन्म के लिये क्या साथ ले जाएगा इसका विचार करता है और एक दिन उसका इस जन्म का जीवन पूर्ण होता है।

जीवन के हर पड़ाव पर वह भिन्न भिन्न रूप से सीखता ही जाता है । कभी उसकी गति मन्द होती है, कभी तेज, कभी वह बहुत अच्छा सीखता है कभी साधारण, कभी वह सीखने लायक बातें सीखता है कभी न सीखने लायक, कभी वह सीखाने के रूप में भी सीखता है कभी केवल सीखता है। उसके सीखने के तरीके बहुत भिन्न भिन्न होते हैं । उसे सिखाने वाले भी तरह तरह के होते हैं ।

कैसे भी हो वह सीखता अवश्य है। जीवन शिक्षा का यह समग्र स्वरूप है । विद्यालय की बारह पंद्रह वर्षों की शिक्षा इसका एक छोटा अंश है। वह भी महत्वपूर्ण अवश्य है परन्तु आज केवल विद्यालयीन शिक्षा का विचार करने से काम बनने वाला नहीं है । अत: आजीवन शिक्षा का विचार, वह भी समग्रता में, करना होगा।

व्यक्ति की सर्व क्षमताओं का विकास करने वाली शिक्षा

स्वामी विवेकानन्द कहते हैं कि शिक्षा मनुष्य की अंतर्निहित पूर्णता का प्रकटीकरण है । इसका तात्विक अर्थ क्या है ? इसका अर्थ यह है कि मनुष्य अपने आपमें पूर्ण है। अब जीवित हाडचाम का मनुष्य तो पूर्ण नहीं हो सकता। कोई भी मनुष्य सत्त्व, रज, तम इन त्रिगुणों से युक्त ही होता है। कोई भी मनुष्य अच्छे बुरे, इष्ट, अनिष्ट का ट्रंटर ही होता है। केवल अच्छा या केवल बुरा तो होता नहीं। केवल सत्त्वगुणी, केवल रजोगुणी या केवल तमोगुणी होता नहीं । शत प्रतिशत सज्जन या शत प्रतिशत दुर्जन होता नहीं। जब तक ये तीनों गुण होते हैं और जब तक अच्छे बुरे का द्वंद्व होता है तब तक मनुष्य पूर्ण नहीं होता है ।

इस स्थिति में मनुष्य की अंतर्निहित पूर्णता से तात्पर्य यह है कि मनुष्य मूल रूप में आत्मतत्व ही है । केवल आत्मतत्व के स्वरूप में ही वह पूर्ण होता है । मनुष्य का जीवन लक्ष्य अपने आप को आत्मतत्व के रूप में जानने का है । यह जानने के लिये शिक्षा होती है ।

अपने आपको आत्मतत्व के रूप में जानने की यह यात्रा जन्मजन्मांतर में चलती है। मनुष्य हर जन्म में इस यात्रा में आगे बढ़ता जाता है । मनुष्य इस जन्म में उस पूर्णता के अंश स्वरूप कुछ क्षमतायें लेकर आता है । शिक्षा इन क्षमताओं का प्रकटीकरण करती है । यही अंतर्निहित क्षमताओं का विकास है। मनुष्य की इस जन्म की अंतर्निहित क्षमताओं को उसकी विकास की संभावना कहा जाता है । अर्थात्‌ इस जन्म में कितना विकास होगा इसका आधार उसकी अंतर्निहित क्षमतायें कितनी हैं उसके ऊपर निर्भर होता है। मनुष्य की क्षमतायें कितनी हैं यह जानने से पूर्व मनुष्य का स्वरूप क्या है यह जानना आवश्यक है । मनुष्य की क्षमताओं के आयाम कौन से हैं यह जानना आवश्यक है । इस संदर्भ में धार्मिक शास्त्रों में विभिन्न प्रकार से मनुष्य का जो वर्णन किया गया है उसके सार रूप में कहें तो मनुष्य का व्यक्तित्व पाँचआयामी है । ये पाँच आयाम इस प्रकार हैं:

  • शरीर
  • प्राण
  • मन
  • बुद्धि और
  • चित्त ।
  1. ये पाँच उसका व्यक्त स्वरूप दर्शाते हैं । इस व्यक्त स्वरूप के पीछे उसका एक अव्यक्त स्वरूप है । वह अव्यक्त स्वरूप है आत्मा ।
  2. यह अव्यक्त स्वरूप ही उसका सत्य स्वरूप है, मूल स्वरूप है ।
  3. शास्त्र कहते हैं कि अव्यक्त स्वरूप ही व्यक्त हुआ है। अतः व्यक्त और अव्यक्त ऐसे दो भेद नहीं हैं। अव्यक्त आत्मा ही शरीर, प्राण आदि में व्यक्त हुआ है । व्यक्त स्वरूप के मूल अव्यक्त स्वरूप की अनुभूति करना और उस अनुभूति के आधार पर इस जगत में व्यवहार करना यह ज्ञान है । सर्व शिक्षा का लक्ष्य इस ज्ञान को प्राप्त करना है । इस ज्ञान को ब्रह्मज्ञान कहते हैं । ज्ञान का अर्थ ही ब्रह्मज्ञान है। ब्रह्मज्ञान आत्मस्वरूप है। जिस प्रकार आत्मा शरीर, प्राण, मन, बुद्धि, चित्त आदि के रूप में व्यक्त हुई है, उस प्रकार ब्रह्मज्ञान विभिन्न स्तरों पर जानकारी, विचार, भावना, विवेक आदि के रूप में प्रकट होता है । ज्ञान प्रकट होता है इसका अर्थ है ज्ञान प्राप्त होता है । अर्थात्‌ जगत का सर्व ज्ञान भी आत्मज्ञान अथवा ब्रह्मज्ञान का ही स्वरूप है ।
  4. धार्मिक जीवनदृष्टि का और धार्मिक शिक्षा का यह मूल सिद्धांत है । इसे ठीक से जानना धार्मिक शिक्षा के स्वरूप को जानने के लिये समुचित प्रस्थान है । अब हम मनुष्य के अव्यक्त और व्यक्त रूप को जानने का प्रयास करेंगे ।

आत्मतत्व

आत्मा की संकल्पना धार्मिक विचारविश्व की खास संकल्पना है। यह मूल आधार है। इसके आधार पर जो रचना, व्यवस्था या व्यवहार किया जाता है वही रचना, व्यवस्था या व्यवहार आध्यात्मिक कहा जाता है। भारत में ऐसा ही किया जाता है इसलिये भारत की विश्व में पहचान आध्यात्मिक देश की है। यह आत्मतत्व न केवल मनुष्य का अपितु सृष्टि में जो जो भी इन्द्रियगम्य, मनोगम्य, बुद्धिगम्य या चित्तगम्य है उसका मूल रूप है। आँख, कान, नाक, त्वचा और जीभ हमारी ज्ञानेंद्रियाँ हैं । हाथ, पैर, वाक, पायु और उपस्थ हमारी कर्मेन्द्रियाँ हैं। ज्ञानेन्द्रियों से हम बाहरी जगत को संवेदनाओं के रूप में ग्रहण करते हैं अर्थात बाहरी जगत का अनुभव करते हैं। कर्मेन्द्रियों से हम क्रिया करते हैं। क्रिया करके हम बहुत सारी बातें जानते हैं और जानना प्रकट भी करते हैं । इंद्रियों से जो जो जाना जाता है वह इन्द्रियगम्य है। उदाहरण के लिये सृष्टि में विविध प्रकार के रंग हैं, विभिन्न प्रकार के स्वादिष्ट पदार्थ हैं, विविध प्रकार की ध्वनियाँ हैं । उनका ज्ञान हमें क्रमश: आँख, जीभ और कान से ही हो सकता है । बोलना और गाना वाक से ही हो सकता है। यह सब इन्द्रियगम्य ज्ञान है। पदार्थों, व्यक्तियों घटनाओं आदि के प्रति हमारा जो रुचि अरुचि, हर्ष शोक आदि का भाव बनता है वह मनोगम्य है। पदार्थों में साम्य और भेद, कार्यकारण संबंध आदि का ज्ञान बुद्धिगम्य है । यह मैं करता हूँ, इसका फल मैं भुगत रहा हूँ इस बात का ज्ञान अहंकार को होता है। यह अहंकारगम्य ज्ञान है। इंद्रियों, मन, अहंकार , बुद्धि आदि के द्वारा हम विविध स्तरों पर जो ज्ञान प्राप्त करते हैं वह सब आत्मज्ञान का ही स्वरूप है क्योंकि आत्मा स्वयं इनके रूप में व्यक्त हुआ है।

शास्त्र कहता है कि इंद्रिय, मन, बुद्धि आदि ज्ञान प्राप्त करने वाले करण, जिनका ज्ञान प्राप्त करते हैं वे सारे पदार्थ, जो प्राप्त होता है वह अनुभव, सब मूल रूप में आत्मा ही है । इस त्रिपुटी को अर्थात्‌ ज्ञाता, जय और ज्ञान तीनों को आत्मतत्व ही कहा गया है । आत्मतत्व अपने अव्यक्त रूप में अजर अर्थात्‌ जो कभी वृद्ध नहीं होता, अक्षर अर्थात्‌ जिसका कभी क्षरण नहीं होता, अचिंत्य अर्थात्‌ जिसका चिंतन नहीं किया जा सकता, अविनाशी अर्थात्‌ जिसका कभी विनाश नहीं होता, अनादि अर्थात्‌ जिसका कोई प्रारम्भ नहीं है, अनंत अर्थात्‌ जिसका कोई अन्त नहीं है ऐसा एकमेवाद्धितीय है। वह अदृश्य, अस्पर्श्य, अश्राव्य है। वह अपरिवर्तनशील है। वह निर्गुण है। वह निराकार है। परन्तु सारे गुण,सारे आकार, सारे इंद्रिय, मन, बुद्धि आदि तथा वृक्ष वनस्पति प्राणी आदि सब उसमें समाये हुए हैं । इसलिये उसका वर्णन वह है भी और नहीं भी इस प्रकार किया जाता है।

इस आत्मतत्व ने ही इस सृष्टि का रूप धारण किया है। इसलिये इस सृष्टि को परमात्मा का विश्वरूप कहते हैं । आत्मा और परमात्मा में क्या अंतर है ? परमात्मा ने व्यक्त होने के लिये आत्मा का रूप धारण किया । परमात्मा का यह रूप शबल ब्रह्म के नाम से भी जाना जाता है । शबल ब्रह्म अर्थात्‌ आत्मा ने प्रकृति के साथ मिलकर इस सृष्टि का रूप धारण किया । प्रकृति जड़़ है, शबल ब्रह्म चेतन है और परमात्मा जड़़ और चेतन दोनों है । परमात्मा में जड़़ और चेतन ऐसा भेद नहीं है, द्वंद्व नहीं है ।

चेतन और जड़़ का मिलन होता है उसमें से सृष्टि का सृजन होता है । चेतन और जड़़ के इस मिलन को चिज्जड़़ ग्रंथि अर्थात्‌ चेतन और जड़़ की गाँठ कहते हैं । यह गाँठ सृष्टि में सर्वत्र होती है । इसका अर्थ यह है कि सृष्टि के सारे पदार्थ चेतन और जड़़ दोनों हैं । परमात्मा निर्द्वंद्व है परन्तु सृष्टि द्वंद्वात्मक है।

मनुष्य अपने मूल स्वरूप में परमात्मास्वरूप है यही आध्यात्मिक विचार है । मनुष्य की तरह सृष्टि के सारे पदार्थ भी मूल रूप में परमात्मतत्व हैं यह आध्यात्मिक विचार है। इसे जानना शिक्षा का लक्ष्य है ।

सृष्टि

सृष्टि परमात्मा का विश्वरूप है यह पूर्व में ही कहा गया है । इस सृष्टि में जितने भी पदार्थ हैं वे सारे पंचमहाभूत और त्रिगुण के बने हुए हैं । पृथ्वी, जल, तेज अथवा असि, वायु और आकाश ये पंचमहाभूत हैं । सत्त्व, रज और तम ये तीन गुण हैं । इन आठों के संयोजन से ही सृष्टि के असंख्य पदार्थ बने हैं ।

मनुष्य

इस सृष्टि के सारे पदार्थों के मोटे तौर पर जो विभाग होते हैं वे हैं

  1. पंचमहाभूत
  2. वनस्पति
  3. प्राणी और
  4. मनुष्य

पंचमहाभूत अनेक प्रकार के हैं, वनस्पति अनेक प्रकार की है, प्राणी अनेक प्रकार के हैं परन्तु मनुष्य अपने वर्ग में एक ही है। अन्य सभी वर्गों से वह विशिष्ट है। सृष्टि के चार वर्गों के भी यदि दो वर्ग बनाये जाए तो एक वर्ग में मनुष्य है और दूसरे में शेष तीनों हैं। यही मनुष्य की विशेषता है।

अब हम मनुष्य का विचार कुछ विस्तार से करेंगे। पाँच महाभूत और तीन गुण के आधार पर उसके व्यक्तित्व के पाँच आयाम होते हैं । ये पाँच आयाम, जैसे पूर्व में बताया शरीर, प्राण, मन, बुद्धि और चित्त हैं । अर्थात्‌ मनुष्य में आत्मतत्व इन पाँच आयामों में व्यक्त हुआ है। उपनिषद्‌ की शास्त्रीय परिभाषा में इसे निम्नानुसार बताया है:

  1. अन्नरसमय आत्मा अर्थात्‌ शरीर
  2. प्राणमय आत्मा अर्थात्‌ प्राण
  3. मनोमय आत्मा अर्थात्‌ मन
  4. विज्ञानमय आत्मा अर्थात्‌ बुद्धि और
  5. आनन्दमय आत्मा अर्थात्‌ चित्त

यह पंचविध आत्मा अथवा पंचात्मा है । इसके लिये अधिक प्रचलित संज्ञा पंचकोश है। उपनिषद पंचबिध आत्मा कहती है परन्तु भगवान शंकराचार्य इसे पंचकोश कहते हैं । यह भारत में प्राचीन काल से प्रचलित प्रवृत्ति मार्ग और निवृत्तिमार्ग की धारा का अन्तर है । दोनों में तत्वत: कोई अन्तर नहीं है परन्तु इस ग्रंथ में हमने पंचात्मा संज्ञा को स्वीकार किया है ।

अन्नरसमय आत्मा अर्थात्‌ शरीर

मनुष्य का दिखाई देने वाला हिस्सा शरीर ही है। विभिन्न प्रकार के रूपरंग से ही एक मनुष्य दूसरे मनुष्य से अलग होता है । यह शरीर अन्न से बना है इसलिये उसे अन्नरसमय आत्मा कहते हैं । अन्न से रस बनता है इसलिये अन्न और रस एक साथ बोला जाता है ।

यह शरीर आंतरिक और बाह्य दो भागों में बँटा है। हम शरीर को जानते हैं इसलिये उसका अधिक वर्णन करने की आवश्यकता नहीं है । जो जानने की आवश्यकता है वह यह है कि शरीर यंत्रशक्ति है । वह कार्य करने के लिये बना है। जिस प्रकार यंत्र काम करने में कुशल होना चाहिए, काम करने में उसकी गति होनी चाहिए, काम करने में वह निपुण होना चाहिए उसी प्रकार शरीर भी काम करने में निपुण, कुशल और तेज गति वाला बनाना चाहिए । जिस प्रकार यंत्र की मरम्मत की जाती है, उसे साफ रखा जाता है, उसे आराम भी दिया जाता है, उसे आवश्यक रूप में पोषण दिया जाता है, आवश्यक रूप में उसका रक्षण किया जाता है उसी प्रकार शरीर का भी रक्षण, पोषण, स्वच्छता, मरम्मत, आराम आदि का प्रबन्ध किया जाना चाहिए। इस दृष्टि से शरीर बलवान, कुशल, स्वस्थ, सहनशील और सुयोग्य आकार प्रकार वाला होना चाहिए । उसे ऐसा बनाना यह शिक्षा का लक्ष्य है।

मनुष्य के व्यक्तित्व के जितने भी अन्य आयाम हैं वे सारे मनुष्य के शरीर का ही आश्रय लेकर रहते हैं। इसलिये शरीर की रक्षा करना मनुष्य का कर्तव्य है । उचित आहार विहार से शरीर स्वस्थ रहता है। उचित व्यायाम और आराम से शरीर बलवान बनता है। काम करने के उचित अभ्यास से शरीर कुशल बनता है और निरंतर अभ्यास करने से शरीर सभी काम करने में निपुण बनता है। यंत्र के साथ करते हैं ऐसा व्यवहार शरीर के साथ करना चाहिए |

प्राणमय आत्मा

मनुष्य को जीवित कहा जाता है, प्राण के कारण । प्राण ही आयु है । शरीर यंत्र है तो प्राण ऊर्जा है । सृष्टि की सारी ऊर्जा का स्रोत प्राण है । वह अन्नरसमय पुरुष का आश्रय करके ही रहता है और उसके आकार का ही होता है । शरीर में सर्वत्र प्राण का संचार रहता है । श्वास के माध्यम से वह विश्वप्राण से जुड़ता है । जब तक प्राण शरीर में रहता है तब तक मनुष्य जीवित रहता है, जब प्राण शरीर को छोड़कर चला जाता है तब मनुष्य मृत होता है ।

प्राण का पोषण होने से वह बलवान होता है । शरीर का बल प्राण पर निर्भर करता है । प्राण का आहार से पोषण होता है और उसका बल शरीर में दिखता है । प्राण क्षीण होने से व्यक्ति बीमार होता है, प्राण बलवान होने से शरीर निरामय होता है। प्राण बलवान होने से उत्साह, महत्वाकांक्षा, विजिगिषु मनोवृत्ति आदि प्राप्त होते हैं ।

आहार, निद्रा, भय और मैथुन ये चार प्राण की वृत्तियाँ हैं। इनमें से आहार और निद्रा शरीर से और भय तथा मैथुन मन से संबंध जोड़ती हैं। शरीर यंत्रशक्ति है तो प्राण कार्यशाक्ति है। उसे जीवनी शक्ति भी कहा जाता है ।

प्राण के कारण शरीर अपने में से अपने जैसा ही दूसरा शरीर बनाता है और एक शरीर जीर्ण हो जाने के बाद नया शरीर धारण करता है। मनुष्य प्राणमय है इसलिये वह प्राणी है।

उचित श्वासप्रश्चास, प्राणायाम, उचित आहार और निद्रा प्राण को बलवान, एकाग्र और संतुलित बनाते हैं। प्राण जितना बलवान और संतुलित है उतनी ही मनुष्य की कार्यशक्ति अच्छी होती है, जितना क्षीण है उतना ही वह उदास, थकामांदा, निर्त्साही होता है, वह सदा नकारात्मक बातें करता है।

शरीर में प्राण नाड़ियों के माध्यम से संचार करता है इसलिये नाड़ीशुद्धि होना अत्यन्त आवश्यक है। प्राणयुक्त शरीर ही मनुष्य का कोई भी प्रयोजन सिद्ध कर सकता है । इस दृष्टि से प्राणमय आत्मा के विकास हेतु शिक्षा में समुचित प्रयास होने चाहिए |

मनोमय आत्मा

यह मनुष्य का मन है । मन के कारण ही मनुष्य सृष्टि के अन्य सारे पदार्थों से अलग पहचान बनाता है । सृष्टि के सारे निर्जीव पदार्थ अन्नमय हैं, मनुष्य का शरीर भी अन्नसरसमय है । यह उसका निर्जीव पदार्थों से साम्य है । वनस्पति और प्राणीसृष्टि अन्नमय के साथ साथ प्राणमय भी है । मनुष्य भी प्राणमय है । यह उसका वनस्पति और प्राणीसृष्टि से साम्य है। परन्तु मनोमय से आगे केवल मनुष्य ही है। अत: अब वह अन्य सभी पदार्थों से अलग और विशिष्ट है।

मन के कारण से ही मनुष्य को मनुष्य संज्ञा प्राप्त हुई है । अर्थात्‌ मन सक्रिय है इसलिये वह मनुष्य है । मनुष्य के मन के कारण ही संसार की सारी विचित्रतायें निर्माण हुई हैं । मन द्वंद्वात्मक है। वह सदा संकल्प विकल्प करता रहता है। वह रजोगुणी है इसलिये नित्य क्रियाशील रहता है । काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर आदि मनुष्य के षडरिपु मन का आश्रय लेकर रहते हैं। मन उत्तेजनाग्रस्त रहता है। उसकी उत्तेजना द्वंद्वों में ही प्रकट होती है अर्थात्‌ वह हर्ष और शोक से, राग और द्वेष से, मान और अपमान से, आशा और निराशा से उत्तेजित होता है और अशान्त रहता है। वह रजोगुणी होने के कारण से सदा चंचल रहता है और निरन्तर निर्बाध रूप से, अकल्प्य गति से भागता रहता है। हमारा सबका अनुभव है कि मन को चाहे जहाँ जाने में एक क्षण का भी समय नहीं लगता। मन अत्यन्त जिद्दी है, बलवान है, दृढ़ है, उसे वश में रखना बहुत कठिन है।

मन इच्छाओं का पुंज है। उसे सदा कुछ न कुछ चाहिए होता है। उसे कितना चाहिए उसका कोई हिसाब नहीं होता है । उसे कभी भी सन्तुष्ट नहीं किया जा सकता है ।उसे क्या चाहिए और क्या नहीं इसका कोई कारण नहीं होता। उसे क्या अच्छा लगेगा और क्या नहीं इसका भी कोई कारण नहीं होता । मन संकल्प विकल्प करता रहता है। वह विचार करता रहता है। उसके विचारों का कोई निश्चित स्वरूप नहीं होता है।

मन ज्ञानेन्द्रियों और कर्मन्द्रियों का स्वामी है। वह अपनी इच्छाओं के अनुसार इनसे क्रियायें करवाता रहता है। मन शरीर और प्राण से अधिक सूक्ष्म है। वह शरीर का आश्रय करके रहता है और शरीर में सर्वत्र व्याप्त होता है। वह अधिक सूक्ष्म है इसलिये अधिक प्रभावी है। अपनी इच्छाओं को पूरा करने के लिये वह शरीर और प्राण की भी परवाह नहीं करता। उदाहरण के लिये शरीर के लिये हानिकारक हो ऐसा पदार्थ भी उसे अच्छा लगता है इसलिये खाता है । वह खाता भी है और पछताता भी है । पछताने के बाद फिर से नहीं खाता ऐसा भी नहीं होता है।

मन को ही सुख और दुःख का अनुभव होता है। सुख देने बाले पदार्थों में वह आसक्त हो जाता है । उनसे वियोग होने पर दुःखी होता है । मनुष्य अपने मन के कारण जो चाहे प्राप्त कर सकता है। ऐसे मन को वश में करना, संयम में रखना मनुष्य की शिक्षा का अत्यन्त महत्वपूर्ण आयाम है । वास्तव में सारी शिक्षा में यह सबसे बड़ा हिस्सा होना चाहिए। ऐसे शक्तिशाली मन को एकाग्र, शान्त और अनासक्त बनाना, सदुणी और संस्कारवान बनाना शिक्षा का महत कार्य है।

शरीर यंत्रशक्ति है, प्राण कार्यशाक्ति है तो मन विचारशक्ति, भावनाशक्ति और इच्छाशक्ति है। जीवन में जहाँ जहाँ भी इच्छा है, विचार है या भावना है वहाँ वहाँ मन है । मन की शिक्षा का अर्थ है अच्छे बनने की शिक्षा। सारी नैतिक शिक्षा या मूल्यशिक्षा या धर्मशिक्षा मन की शिक्षा है । मन को एकाग्र बनाने से बुद्धि का काम सरल हो जाता है। जब तक मन एकाग्र नहीं होता, किसी भी प्रकार का अध्ययन नहीं हो सकता । जब तक मन शान्त नहीं होता किसी भी प्रकार का अध्ययन टिक नहीं सकता । जब तक मन अनासक्त नहीं होता निष्पक्ष विचार संभव ही नहीं है। अतः: मन की शिक्षा सारी शिक्षा का केंद्रवर्ती कार्य है।

विज्ञानमय आत्मा

विज्ञानमय आत्मा, मनोमय से भी अधिक सूक्ष्म अर्थात्‌ प्रभावी है। वह भी शरीर का आश्रय लेकर रहता है और शरीर के आकार का ही है । प्राण, मन, बुद्धि आदि शरीर के समान ठोस नहीं हैं, अदृश्य हैं और अलग से जगह नहीं घेरते।

बुद्धि मन से सर्वथा विपरीत स्वभाव वाली है। मन संकल्प विकल्पात्मक है तो बुद्धि संकल्पात्मक है। मन इच्छा करता है और बिना तर्क का होता है। बुद्धि विवेक करती है और पदार्थ के यथार्थ स्वरूप को ग्रहण करती है। वह साम्यभेद परख कर, तुलना कर, संश्लेषण विश्लेषण कर, निरीक्षण परीक्षण कर सही स्वरूप को जानने का प्रयास करती है। इसलिये बुद्धि जानती है, समझती है, धारण करती है। वह निश्चित होती है।

तेजस्वी बुद्धि, कुशाग्र बुद्धि, विशाल बुद्धि होना यह उसका विकास है। ऐसी बुद्धि के कारण मनुष्य ज्ञान ग्रहण कर सकता है। बुद्धि को ज्ञान ग्रहण करने में ज्ञानेंद्रियाँ कर्मेन्द्रियाँ और मन सहायक होते हैं। इंद्रियों से बुद्धि निरीक्षण और परीक्षण करती है। मन उसका सहायक भी है और बड़ा अवरोधक भी है। एकाग्र, शान्त और अनासक्त मन उसका बहुत बड़ा सहायक है जबकि चंचल, आसक्त और उत्तेजित मन बहुत बड़ा अवरोधक। इसलिये मन को ठीक करने के बाद ही बुद्धि अपना काम कर सकती है।

बुद्धि का ही एक हिस्सा अहंकार है। वैसे कहीं कहीं इसे चित्त का हिस्सा भी बताया जाता है परन्तु उसका व्यवहार देखते हुए वह बुद्धि का जोड़ीदार लगता है । अहंकार किसी भी क्रिया का कर्ता है और उसके फल का भोक्ता है। कर्ता के बिना कोई क्रिया कभी भी होती ही नहीं है यह तो हम जानते ही हैं। इसलिये बुद्धि विवेक करती है और अहंकार निर्णय करता है। अपने सारे साधनों का प्रयोग कर बुद्धि कोई भी बात करणीय है कि अकरणीय, सही है कि गलत, उचित है कि अनुचित इसका विवेक करती है और अहंकार सही या गलत, उचित या अनुचित करने का या नहीं करने का निर्णय करता है।

बुद्धि जानती है, समझती है, ज्ञान को धारण करती है और विवेक करती है। जो भी सामने आता है वह जल्दी और सही समझ जाना तेजस्वी बुद्धि है । जटिल से जटिल बातें भी स्पष्टतापूर्वक समझ जाना कुशाग्र बुद्धि है। बहुत व्यापक और अमूर्त बातों का भी एकसाथ आकलन होना विशाल बुद्धि है । ऐसे तीनों गुणों वाली बुद्धि तात्विक विवेक भी करती है और व्यावहारिक भी। जगत में व्यवहार करने के लिए तात्विक और व्यावहारिक दोनों प्रकार का विवेक आवश्यक होता है।

जब तक ऐसी बुद्धि नहीं है तब तक अध्ययन संभव ही नहीं है। व्यावहारिक जगत में बुद्धि अध्ययन का सर्वश्रेष्ठ करण है। परन्तु तात्विक दृष्टि से बुद्धि से भी आगे चित्त और स्वयं आत्मा हैं। इन दोनों का विचार अब करेंगे।

आनन्दमय आत्मा

यह चित्त है । चित्त बड़ी अद्भुत चीज है । वह एक अत्यन्त पारदर्शक पर्दे जैसा है । चित्त बुद्धि से भी सूक्ष्म है । वह संस्कारों का अधिष्ठान है । संस्कार वह नहीं है जो हम मन के स्तर पर सद्गुण और सदभाव के रूप में जानते हैं ।

संस्कार चित्त पर पड़ने वाली छाप है । क्रिया, संवेदन, विचार, इच्छा, विवेक, निर्णय आदि सब संस्कार में रूपांतरित होकर चित्त में जमा होते हैं । संस्कार से स्मृति बनती है । संस्कार से हमारे कर्मफल बनते हैं । कर्मों के फल भुगतने ही होते हैं । जब तक कर्म के फल भुगत नहीं लेते तब तक वे संस्कारों के रूप में चित्त में रहते हैं। एक के बाद एक संस्कारों की परतें बनती रहती है । जो सबसे ऊपर रहती है वह हमें शीघ्र स्मरण में रहती है । नई परत बनने से पुरानी परत दब जाती है और हम उसे भूल जाते हैं । जिस अनुभव की परत जितनी गहरी या तीव्र होती है उतनी ही उसकी स्मृति अधिक तेज और अधिक दीर्घकाल तक रहती है। दबी हुई स्मृति अनुकूल निमित्त मिलते ही ऊपर आ जाती है और हम कहते हैं कि भूली हुई बात याद आ गई ।

कोई भी घटना, कोई भी व्यक्ति, कोई भी पदार्थ निमित्त का काम कर सकता है। आनन्द, सौन्दर्य,स्वतंत्रता, सहजता, सृजन, अभय चित्त के विषय हैं । ये बुद्धि से परे हैं यह तो हम सहज समझ सकते हैं। उदाहरण के लिये काव्य या चित्र जैसी कलाकृति का सृजन बुद्धि का क्षेत्र नहीं है, वह चित्त का क्षेत्र है । यह अनुभूति के लगभग निकट जाता है यद्यपि यह अनुभूति नहीं है। चित्त के संस्कारों पर जब आत्मा का प्रकाश पड़ता है तब ज्ञान प्रकट होता है। यह ब्रह्मज्ञान है। जब तक यह ज्ञान नहीं होता तबतक व्यवहार के जगत का बुद्धिनिष्ठ ज्ञान ही व्यवहार का चालक रहता है।

संस्कार विचार

संस्कार को तीन प्रकार से समझ सकते हैं ।

  1. मनोवैज्ञानिक परिभाषा के रूप में
  2. सामाजिक सांस्कृतिक संदर्भ में
  3. पारंपरिक कर्मकांड के रुप में

चित्त पर होने वाले संस्कार तीन प्रकार के होते हैं:

  1. कर्मजसंस्कार
  2. भावज संस्कार और
  3. ज्ञानज संस्कार। अर्थात्‌ क्रिया के परिणाम स्वरुप, भावना के परिणाम स्वरुप और समझ के परिणाम स्वरूप बनने वाले संस्कार ।

संस्कारों के वर्गीकरण का एक दूसरा भी पहलू है । इसके अनुसार संस्कार चार प्रकार के होते हैं:

  1. पूर्वजन्म के संस्कार
  2. आनुवंशिक संस्कार
  3. संस्कृति के संस्कार और
  4. वातावरण के संस्कार

पूर्वजन्म के संस्कार

संस्कार सूक्ष्म शरीर में रहते हैं । मृत्यु के बाद स्थूल शरीर छूट जाता है, किन्तु सूक्ष्म शरीर दूसरे जन्म में भी जीव के साथ ही रहता है । अतः संस्कार भी एक जन्म से दूसरे जन्म में सूक्ष्म शरीर के साथ ही जाते हैं । संस्कार कर्मफल निःशेष भोगने पर लुप्त हो जाते हैं परन्तु कर्मफल भोगते समय ही नये संस्कार बनते रहते हैं । इस प्रकार संस्कार परंपरा तो बनी ही रहती है । संस्कार अनुरूप निमित्त मिलते ही प्रकट होते रहते हैं । केवल निर्विकल्प समाधि से ही इन संस्कारों का पूर्ण लोप होता है ।एक बार बने हुए संस्कार बदल नहीं सकते ।

आनुवंशिक संस्कार

सूक्ष्म शरीर जब जन्म धारण करता है तब माता और पिता के रज और वीर्य के माध्यम से संस्कार प्राप्त होते हैं । माता और पिता के रज और वीर्य के माध्यम से मातापिता के संपूर्ण चरित्र के साथ साथ पिता की चौदह पीढ़ियों और माता की पाँच पीढ़ियों के पूर्वजों के संस्कार जीव को प्राप्त होते हैं, अर्थात्‌ संस्कार उसके सूक्ष्म शरीर के अंग बनते हैं। इसे कुल के संस्कार भी कहते हैं। ये संस्कार भी सूक्ष्म शरीर के साथ सदा रहते हैं और मृत्यु तक उनमें परिवर्तन नहीं आता अथवा नष्ट भी नहीं होते । पूर्वजन्म के संस्कार की भाँति केवल निर्विकल्प समधि के द्वारा ही उनका लोप होता है।

संस्कृति के संस्कार

जीव जिस जाति में पैदा होता है उस जाति का स्वभाव, उसकी संस्कृति के संस्कार उसे जन्मजात प्राप्त होते हैं। उसका स्वभाव, उसकी आकृति, उसके वर्तन की पद्धति, उसका दृष्टिकोण आदि उसे संस्काररूप में मिलते हैं।

भिन्न भिन्न संस्कृतियों के लोग भिन्नभिन्न स्वभाव के, भिन्न भिन्न आकृति के होते हैं इसका कारण संस्कृति के संस्कार अथवा जातिगत संस्कार भेद का ही है । ये संस्कार भी आजन्म रहते हैं। केवल समाधि से ही उनका लोप होता है।

वातावरण के संस्कार

जन्म के बाद व्यक्ति जिस वातावरण में, जिस संगत में, जिस परिस्थिति में रहता है वैसे संस्कार उस पर होते हैं । वह यदि अच्छे लोगोंं की संगत में रहे, स्वच्छ और पवित्र वातावरण में रहे, उसको सभी का प्रेमपूर्ण व्यवहार मिले तो वेह दिव्य गुण संपन्न व्यक्ति बनता है । और उसके विपरीत वातावरण में बिलकुल विरोधी प्रकार का मनुष्य बनता है ।

वातावरण के संस्कार बहुत ही ऊपरी होते हैं और वातावरण बदलने पर उन संस्कारों का स्वरुप भी बदलता है। इन चार प्रकार के संस्कारों में पूर्वजन्म के संस्कार सबसे बलवान होते हैं, दूसरे क्रम पर आनुवंशिक, तीसरे क्रम पर संस्कृति के और चतुर्थ क्रम पर वातावरण के संस्कार प्रभावी होते हैं ।

संस्कारों का सामाजिक सांस्कृतिक संदर्भ

इस संदर्भ में संस्कार की परिभाषा इस प्रकार की गई है-

दोषापनयनं गुणान्तराधानं संस्कार: ।

किसी भी पदार्थ में, और इसी प्रकार किसी भी व्यक्ति में दोषों का अपनयन करना अर्थात्‌ दोषों को दूर करना, सुधार करना, उसके गुण बदलना और गुर्णों का आधान

करना यह संस्कार करना है।

इसमें तीन बातें समाहित हैं ।

  1. दोष हों तो उनको दूर करना और पदार्थों का शुद्धीकरण करना |
  2. गुणों में परिवर्तन करना अर्थात्‌ अवांछित स्वरुप बदलकर उसे वांछनीय बनाना |
  3. नहीं हैं ऐसे गुण जोड़ना।

यह प्रक्रिया पदार्थ को लागू करके सरलता पूर्वक समझ सकेंगे।

  • गुवार, लोभिया आदि का गुण वायु करने का है । उसे अजवाइन से संस्कारित करने से वायु के दोष दूर होते हैं और सब्जी गुणकारी बनती है । पानी को उबालने से उसका भारीपन दूर होकर हलका बनता है। यह हुआ दोषापनयन।
  • तिल को पीस कर निकाला हुआ तेल कफ और वायु का नाश करता है, जब कि गुड और तिल मिलाकर बनने वाली चीक्की कफवर्धक बनती है । एक ही पदार्थ के गुण
  • प्रक्रिया के कारण बदल जाते हैं। यह हुआ गुणान्तर।
  • शक्कर, दूध, चावल आदि शरदपूर्णिमा की चांदनी में रखने से चन्द्रप्रकाश का पित्तशामक और शीतलता का गुण उसमें संक्रान्त होने से इस पदार्थ के पित्तशमन के गुण में वृद्धि होती है, यह हुआ गुणों का आधान।

व्यक्तियों के साथ जोड़कर उदाहरण देखें तो इस प्रकार समझ सकते हैं -

  • वीर पुरुषों और वीरांगनाओं की कथा सुनने के कारण व्यक्ति में से दीनता और कायरतारुपी दोष दूर होते हैं । यह हुआ दोषापनयन |
  • स्वयं अतिशय अपकार करे तो भी सामने वाला व्यक्ति वैर लेने के स्थान पर उपकार ही करता है तो व्यक्ति के द्वेष का रुपांतर स्नेह में होता है । इसे कहते हैं गुणान्तर।
  • विद्यारंभ संस्कार करने से बालक में विद्याप्रीति का गुण पैदा होता है। यह हुआ गुण का आधान।

इस प्रकार व्यक्ति को उत्तम बनाने के लिए जो कुछ भी किया जाता है उसे संस्कार कहते हैं । संस्कार दो प्रकार के होते हैं। सुसंस्कार और कुसंस्कार । परंतु व्यवहार में सुसंस्कार को ही संस्कार कहा जाता है । संस्कारी व्यक्ति अर्थात्‌ सद्गुणी व्यक्ति और असंस्कारी व्यक्ति अर्थात्‌ दुर्गुणी व्यक्ति इस प्रकार की सामान्य पहचान बन जाती है ।

दोषों को दूर करने के लिए, दोषों को गुणों में परिवर्तित करने के लिए और गुण पैदा करने के लिए जो भी कुछ किया जाता है उसे संस्कार कहते हैं । व्यक्ति में इस प्रकार के परिवर्तन करने से समाज की स्थिति भी अच्छी बनती है । अच्छा समाज ही श्रेष्ठ समाज माना जाता है ।

समाज को श्रेष्ठ बनाने के लिए धर्मवेत्ता विद्वान भिन्न भिन्न प्रकार के शास्त्रों की रचना करते हैं और सभी के लिए श्रेष्ठ जीवन की एक चर्या अर्थात्‌ आचारपद्धति निश्चित करते हैं । इस आचारपद्धति की बालकों को पद्धतिपूर्वक शिक्षा दी जाती है । मात्र बालकों के लिये ही नहीं तो छोटे बडे सबके लिये दोषापनयन, गुणान्तर और गुणाधान की कोई न कोई व्यवस्था समाज में होती ही है । कथा, वार्ता, साहित्य, सत्संग, उपदेश, कृपा, अनुकंपा, सहायता, सहयोग, सहानुभूति, रक्षण, पोषण, शिक्षण, दूंड, न्याय आदि अनेक प्रकार से मनुष्य को संस्कारी बनाने की व्यवस्था अच्छा और श्रेष्ठ समाज करता है ।

उदाहरणार्थ, ..,

  • घर के सभी सदस्य प्रातः जल्दी ही जगते हों तो बालकों को भी जल्दी उठने की प्रेरणा अपने आप मिलती है।
  • घर के किशोर वय के पुत्र को सूर्यनमस्कार करने की वृत्ति न होती हो अथवा ठीक तरह से करना न आता हो तो पिता स्वयं उसे करके दिखायें और इस प्रकार सिखायें और साथ में रहकर आग्रहपूर्वक सूर्यनमस्कार करवायें यह शिक्षा और प्रच्छन्न दंड का प्रकार हुआ |
  • घर में स्वच्छता, पवित्रता, शांति आदि का वातावरण हो तो आगरंतुक को भी यह सब करने की इच्छा होती है अथवा न करने में संकोच होता है ।
  • राम की भाँति व्यवहार करना, रावण की तरह नहीं ऐसा रामकथा का उपदेश भी संस्कार करने की पद्धति है ।
  • दूसरे पक्ष में टी.वी. में दिखने वाले नट और नटी की तरह वर्तन करना, घर्‌ के बुजुर्ग करते हैं अथवा कहते हैं उस प्रकार से नहीं, यह भी संस्कार ही है ।
  • 'अरे ! चुप हो जाओ ! वरना कुत्ता आकर ले जाएगा इस प्रकार छोटे बालक को भय बताने वाले पिता भी संस्कार ही दे रहे हैं ।

संस्कार प्राकृत मनुष्य को सुसंस्कृत बनाने की व्यवस्था है ।

पारंपरिक कर्मकांड के रूप में संस्कार

जिस प्रकार अभी बताया, प्राकृत मनुष्य को सुसंस्कृत बनाने की व्यवस्था ही संस्कार है । युगों से भारत में ऐसी व्यवस्था बहुत सोचसमझ कर की गई है और आग्रहपूर्वक उसका पालन भी होता आया है और करवाया भी गया है । यह हेतूपूर्ण और समझदारी पूर्वक की व्यवस्था और उसका आचरण परिपक्क होते होते कुछ बातें अत्यंत दूढ और निश्चित बन गयी हैं । मनुष्यजीवन के आनुवंशिक और संस्कृतिगत संस्कारों को दृढ़ करने के लिए अलग अलग समय में आवश्यक ऐसी बातों को कर्तव्यपालन के स्वरुप में प्रचलित और दृढ़ बना दिया जाता है । इन बातों को भी संस्कार का नाम दिया गया है ।

ऐसे संस्कारों की संख्या अन्यान्य ग्रंथों में कहीं ४० तो कहीं २८, कहीं २६ तो कहीं २० ऐसी प्राप्त होती है । उनमें १६ संस्कार सर्वमान्य माने गये हैं ।

ये सोलह संस्कार इस प्रकार हैं:

  1. गर्भाधान
  2. पुंसवन
  3. सीमन्तोन्नयन
  4. जातकर्म
  5. कर्णवेध
  6. नामकरण
  7. चूडाकर्म
  8. अन्नप्राशन
  9. निष्क्रमण
  10. उपनयन
  11. केशान्त
  12. समावर्तन
  13. विवाह
  14. वानप्रस्थ
  15. संन्यास
  16. अंत्येष्टि

इन संस्कारों की विधि, सामग्री, मंत्र, वय, प्रक्रिया आदि सभी विशेषरुप से निश्चित किया गया है । उसके महत्त्व का आग्रहपूर्वक प्रतिपादन किया गया है और युगों से उसका पालन और आचरण होने से उसका प्रभाव भी अतिशय बढ़ गया है।

संस्कारों की सूचि देखने से ध्यान में आता है कि जीव इस जन्म में प्रवेश करता है तब से उसकी मृत्यु हो जाती है तब तक का समय संस्कारबद्ध किया गया है अर्थात् मनुष्य को संस्कारमय बनाया गया है। इन संस्कारों के परिणाम से मात्र व्यक्ति का ही नहीं, समग्र समाज का चरित्र बनता है, विकसित होता है । समाज सुशिक्षित बनता है।

References

  1. धार्मिक शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला १) - अध्याय ११, प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे
  2. तत्कर्म यन्न बन्धाय सा विद्या या विमुक्तये। आयासायापरं कर्म विद्यऽन्या शिल्पनैपुणम्॥१-१९-४१॥ श्रीविष्णुपुराणे प्रथमस्कन्धे एकोनविंशोऽध्यायः