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https://dharmawiki.org/index.php?title=Vanaparva_Adhyaya_10_(%E0%A4%B5%E0%A4%A8%E0%A4%AA%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A4%A3%E0%A4%BF_%E0%A4%85%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%83_%E0%A5%A7%E0%A5%A6_)&diff=121419
Vanaparva Adhyaya 10 (वनपर्वणि अध्यायः १० )
2019-11-30T05:49:28Z
<p>ShraddhaV: </p>
<hr />
<div>धृतराष्ट्र उवाच<br />
<br />
एवमेतन्महाप्राज्ञ यथा वदसि नो मुने।<br />
अहं चैव विजानामि सर्वे चेमे नराधिपाः॥ 3-10-1<br />
भवांश्च मन्यते साधु यत्कुरूणां महोदयम्।<br />
तदेव विदुरोऽप्याह भीष्मो द्रोणश्च मां मुने॥ 3-10-2<br />
यदि त्वहमनुग्राह्यः कौरव्येषु दया यदि।<br />
अन्वशाधि दुरात्मानं पुत्रं दुर्योधनं मम॥ 3-10-3<br />
[[:Category:Dhrtarashtra seeks advice|Dhrtarashtra seeks advice]]<br />
<br />
व्यास उवाच<br />
<br />
अयमायाति वै राजन्मैत्रेयो भगवानृषिः।<br />
अन्विष्य पाण्डवान्भ्रातॄनिहैत्यस्मद्दिदृक्षया॥ 3-10-4<br />
एष दुर्योधनं पुत्रं तव राजन्महानृषिः।<br />
अनुशास्ता यथान्यायं शमायास्य कुलस्य च॥ 3-10-5<br />
ब्रूयाद्यदेष कौरव्य तत्कार्यमविशङ्कया।<br />
अक्रियायां तु कार्यस्य पुत्रं ते शप्स्यते रुषा॥ 3-10-6<br />
[[:Category:Sage Maitreya|Sage Maitreya]]<br />
<br />
वैशम्पायन उवाच<br />
<br />
एवमुक्त्वा ययौ व्यासो मैत्रेयः प्रत्यदृश्यत।<br />
पूजया प्रतिजग्राह सपुत्रस्तं नराधिपः॥ 3-10-7<br />
अर्घ्याद्याभिः क्रियाभिर्वै विश्रान्तं मुनिसत्तमम्।<br />
प्रश्रयेणाब्रवीद्राजा धृतराष्ट्रोऽम्बिकासुतः॥ 3-10-8<br />
सुखेनागमनं कच्चिद्भगवन्कुरुजाङ्गलान्।<br />
कच्चित्कुशलिनो वीरा भ्रातरः पञ्च पाण्डवाः॥ 3-10-9<br />
समये स्थातुमिच्छन्ति कच्चिच्च भरतर्षभाः।<br />
कच्चित्कुरूणां सौभ्रात्रमव्युच्छिन्नं भविष्यति॥ 3-10-10<br />
[[:Category:आतिथ्यम्|आतिथ्यम्]] [[:Category:Hospitality|Hospitality]]<br />
<br />
मैत्रेय उवाच<br />
<br />
तीर्थयात्रामनुक्रामन्प्राप्तोऽस्मि कुरुजाङ्गलान्।<br />
यदृच्छया धर्मराजं दृष्टवान्काम्यके वने॥ 3-10-11<br />
तं जटाजिनसंवीतं तपोवननिवासिनम्।<br />
समाजग्मुर्महात्मानं द्रष्टुं मुनिगणाः प्रभो॥ 3-10-12<br />
[[:Category:Pandavas in exile|Pandavas in exile]]<br />
<br />
तत्राश्रौषं महाराज पुत्राणां तव विभ्रमम्।<br />
अनयं द्यूतरूपेण महाभयमुपस्थितम्॥ 3-10-13<br />
[[:Category:Kaurvas|Kaurvas]]<br />
<br />
ततोऽहं त्वामनुप्राप्तः कौरवाणामवेक्षया।<br />
सदा ह्यभ्यधिकः स्नेहः प्रीतिश्च त्वयि मे प्रभो॥ 3-10-14<br />
नैतदौपयिकं राजंस्त्वयि भीष्मे च जीवति।<br />
दन्योन्येन ते पुत्रा विरुध्यन्ते कथञ्चन॥ 3-10-15<br />
मेढीभूतः स्वयं राजन्निग्रहे प्रग्रहे भवान्।<br />
किमर्थमनयं घोरमुत्पद्यन्तमुपेक्षसे॥ 3-10-16<br />
दस्यूनामिव यद्वृत्तं सभायां कुरुनन्दन।<br />
तेन न भ्राजसे राजंस्तापसानां समागमे॥ 3-10-17<br />
<br />
<br />
वैशम्पायन उवाच<br />
<br />
ततो व्यावृत्य राजानं दुर्योधनममर्षणम्।<br />
उवाच श्लक्ष्णया वाचा मैत्रेयो भगवानृषिः॥ 3-10-18<br />
मैत्रेय उवाच<br />
दुर्योधन महाबाहो निबोध वदतां वर।<br />
वचनं मे महाभाग ब्रुवतो यद्धितं तव॥ 3-10-19<br />
मा द्रुहः पाण्डवान्राजन्कुरुष्व प्रियमात्मनः।<br />
पाण्डवानां कुरूणां च लोकस्य च नरर्षभ॥ 3-10-20<br />
[[:Category:Sage Maitreya advices Duryodhana|Sage Maitreya advices Duryodhana]]<br />
<br />
ते हि सर्वे नरव्याघ्राः शूरा विक्रान्तयोधिनः।<br />
सर्वे नागायुतप्राणा वज्रसंहनना दृढाः॥ 3-10-21<br />
<br />
सत्यव्रतधराः सर्वे सर्वे पुरुषमानिनः।<br />
हन्तारो देवशत्रूणां रक्षसां कामरूपिणाम्॥ 3-10-22<br />
[[:Category:Pandavas|Pandavas]]<br />
<br />
हिडिम्बबकमुख्यानां किर्मीरस्य च रक्षसः।<br />
इतः प्रद्रवतां रात्रौ यः स तेषां महात्मनाम्॥ 3-10-23<br />
आवृत्य मार्गं रौद्रात्मा तस्थौ गिरिरिवाचलः।<br />
तं भीमः समरश्लाघी बलेन बलिनां वरः॥ 3-10-24<br />
जघान पशुमारेण व्याघ्रः क्षुद्रमृगं यथा।<br />
पश्य दिग्विजये राजन्यथा भीमेन पातितः॥ 3-10-25<br />
जरासन्धो महेष्वासो नागायुतबलो युधि।<br />
सम्बन्धी वासुदेवश्च श्यालाः सर्वे च पार्षताः॥ 3-10-26<br />
[[:Category:Bheema|Bheema]] [[:Category:Draupadi's sons|Draupadi's sons]]<br />
<br />
कस्तान्युधि समासीत जरामरणवान्नरः।<br />
तस्य ते शम एवास्तु पाण्डवैर्भरतर्षभ।<br />
[[:Category:Pandavas|Pandavas]]<br />
<br />
कुरु मे वचनं राजन्मा मन्युवशमन्वगाः॥ 3-10-27<br />
<br />
वैशम्पायन उवाच<br />
<br />
एवं तु ब्रुवतस्तस्य मैत्रेयस्य विशाम्पते।<br />
ऊरुं गजकराकारं करेणाभिजघान सः॥ 3-10-28<br />
दुर्योधनः स्मितं कृत्वा चरणेनोल्लिखन्महीम्।<br />
न किञ्चिदुक्त्वा दुर्मेधास्तस्थौ किञ्चिदवाङ्मुखः॥ 3-10-29<br />
तमशुश्रूषमाणं तु विलिखन्तं वसुन्धराम्।<br />
दृष्ट्वा दुर्योधनं राजन्मैत्रेयं कोप आविशत्॥ 3-10-30<br />
स कोपवशमापन्नो मैत्रेयो मुनिसत्तमः।<br />
विधिना सम्प्रणुदितः शापायास्य मनो दधे॥ 3-10-31<br />
ततः स वार्युपस्पृश्य कोपसंरक्तलोचनः।<br />
मैत्रेयो धार्तराष्ट्रं तमशपद्दुष्टचेतसम्॥ 3-10-32<br />
[[:Category:Duryodhana offends Sage Maitreya|Duryodhana offends Sage Maitreya]] <br />
<br />
यस्मात्त्वं मामनादृत्य नेमां वाचं चिकीर्षसि।<br />
तस्मादस्याभिमानस्य सद्यः फलमवाप्नुहि॥ 3-10-33<br />
<br />
त्वदभिद्रोहसंयुक्तं युद्धमुत्पत्स्यते महत्।<br />
तत्र भीमो गदाघातैस्तवोरुं भेत्स्यते बली॥ 3-10-34<br />
<br />
इत्येवमुक्ते वचने धृतराष्ट्रो महीपतिः।<br />
प्रसादयामास मुनिं नैतदेवं भवेदिति॥ 3-10-35<br />
<br />
मैत्रेय उवाच<br />
<br />
शमं यास्यति चेत्पुत्रस्तव राजन्यदा तदा।<br />
शापो न भविता तात विपरीते भविष्यति॥ 3-10-36<br />
[[:Category:Sage Maitreya curses Duryodhana|Sage Maitreya curses Duryodhana]] <br />
<br />
वैशम्पायन उवाच<br />
<br />
विलक्षयंस्तु राजेन्द्रो दुर्योधनपिता तदा।<br />
मैत्रेयं प्राह किर्मीरः कथं भीमेन पातितः॥ 3-10-37<br />
मैत्रेय उवाच<br />
नाहं वक्ष्यामि ते भूयो न ते शुश्रूषते सुतः।<br />
एष ते विदुरः सर्वमाख्यास्यति गते मयि॥ 3-10-38<br />
वैशम्पायन उवाच<br />
इत्येवमुक्त्वा मैत्रेयः प्रातिष्ठत यथाऽऽगतम्।<br />
किर्मीरवधसंविग्नो बहिर्दुर्योधनो ययौ॥ 3-10-39<br />
[[:Category:Death of Kirmira|Death of Kirmira]] <br />
<br />
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि अरण्यपर्वणि मैत्रेयशापे दशमोऽध्यायः॥ 10 ॥</div>
ShraddhaV
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Vanaparva Adhyaya 10 (वनपर्वणि अध्यायः १० )
2019-11-30T05:47:52Z
<p>ShraddhaV: Added tags</p>
<hr />
<div>धृतराष्ट्र उवाच<br />
<br />
एवमेतन्महाप्राज्ञ यथा वदसि नो मुने।<br />
अहं चैव विजानामि सर्वे चेमे नराधिपाः॥ 3-10-1<br />
भवांश्च मन्यते साधु यत्कुरूणां महोदयम्।<br />
तदेव विदुरोऽप्याह भीष्मो द्रोणश्च मां मुने॥ 3-10-2<br />
यदि त्वहमनुग्राह्यः कौरव्येषु दया यदि।<br />
अन्वशाधि दुरात्मानं पुत्रं दुर्योधनं मम॥ 3-10-3<br />
[[:Category:Dhrtarashtra seeks advice|Dhrtarashtra seeks advice]]<br />
<br />
व्यास उवाच<br />
<br />
अयमायाति वै राजन्मैत्रेयो भगवानृषिः।<br />
अन्विष्य पाण्डवान्भ्रातॄनिहैत्यस्मद्दिदृक्षया॥ 3-10-4<br />
एष दुर्योधनं पुत्रं तव राजन्महानृषिः।<br />
अनुशास्ता यथान्यायं शमायास्य कुलस्य च॥ 3-10-5<br />
ब्रूयाद्यदेष कौरव्य तत्कार्यमविशङ्कया।<br />
अक्रियायां तु कार्यस्य पुत्रं ते शप्स्यते रुषा॥ 3-10-6<br />
[[:Category:Sage Maitreya|Sage Maitreya]]<br />
<br />
वैशम्पायन उवाच<br />
<br />
एवमुक्त्वा ययौ व्यासो मैत्रेयः प्रत्यदृश्यत।<br />
पूजया प्रतिजग्राह सपुत्रस्तं नराधिपः॥ 3-10-7<br />
अर्घ्याद्याभिः क्रियाभिर्वै विश्रान्तं मुनिसत्तमम्।<br />
प्रश्रयेणाब्रवीद्राजा धृतराष्ट्रोऽम्बिकासुतः॥ 3-10-8<br />
सुखेनागमनं कच्चिद्भगवन्कुरुजाङ्गलान्।<br />
कच्चित्कुशलिनो वीरा भ्रातरः पञ्च पाण्डवाः॥ 3-10-9<br />
समये स्थातुमिच्छन्ति कच्चिच्च भरतर्षभाः।<br />
कच्चित्कुरूणां सौभ्रात्रमव्युच्छिन्नं भविष्यति॥ 3-10-10<br />
[[:Category:आतिथ्यम्|आतिथ्यम्]] [[:Category:Hospitality|Hospitality]]<br />
<br />
मैत्रेय उवाच<br />
<br />
तीर्थयात्रामनुक्रामन्प्राप्तोऽस्मि कुरुजाङ्गलान्।<br />
यदृच्छया धर्मराजं दृष्टवान्काम्यके वने॥ 3-10-11<br />
तं जटाजिनसंवीतं तपोवननिवासिनम्।<br />
समाजग्मुर्महात्मानं द्रष्टुं मुनिगणाः प्रभो॥ 3-10-12<br />
[[:Category:Pandavas in exile|Pandavas in exile]]<br />
<br />
तत्राश्रौषं महाराज पुत्राणां तव विभ्रमम्।<br />
अनयं द्यूतरूपेण महाभयमुपस्थितम्॥ 3-10-13<br />
[[:Category:Kaurvas|Kaurvas]]<br />
<br />
ततोऽहं त्वामनुप्राप्तः कौरवाणामवेक्षया।<br />
सदा ह्यभ्यधिकः स्नेहः प्रीतिश्च त्वयि मे प्रभो॥ 3-10-14<br />
नैतदौपयिकं राजंस्त्वयि भीष्मे च जीवति।<br />
दन्योन्येन ते पुत्रा विरुध्यन्ते कथञ्चन॥ 3-10-15<br />
मेढीभूतः स्वयं राजन्निग्रहे प्रग्रहे भवान्।<br />
किमर्थमनयं घोरमुत्पद्यन्तमुपेक्षसे॥ 3-10-16<br />
दस्यूनामिव यद्वृत्तं सभायां कुरुनन्दन।<br />
तेन न भ्राजसे राजंस्तापसानां समागमे॥ 3-10-17<br />
<br />
<br />
वैशम्पायन उवाच<br />
<br />
ततो व्यावृत्य राजानं दुर्योधनममर्षणम्।<br />
उवाच श्लक्ष्णया वाचा मैत्रेयो भगवानृषिः॥ 3-10-18<br />
मैत्रेय उवाच<br />
दुर्योधन महाबाहो निबोध वदतां वर।<br />
वचनं मे महाभाग ब्रुवतो यद्धितं तव॥ 3-10-19<br />
मा द्रुहः पाण्डवान्राजन्कुरुष्व प्रियमात्मनः।<br />
पाण्डवानां कुरूणां च लोकस्य च नरर्षभ॥ 3-10-20<br />
[[:Category:Sage Maitreya advices Duryodhana|Sage Maitreya advices Duryodhana]]<br />
<br />
ते हि सर्वे नरव्याघ्राः शूरा विक्रान्तयोधिनः।<br />
सर्वे नागायुतप्राणा वज्रसंहनना दृढाः॥ 3-10-21<br />
<br />
सत्यव्रतधराः सर्वे सर्वे पुरुषमानिनः।<br />
हन्तारो देवशत्रूणां रक्षसां कामरूपिणाम्॥ 3-10-22<br />
[[:Category:Pandavas|Pandavas]]<br />
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हिडिम्बबकमुख्यानां किर्मीरस्य च रक्षसः।<br />
इतः प्रद्रवतां रात्रौ यः स तेषां महात्मनाम्॥ 3-10-23<br />
आवृत्य मार्गं रौद्रात्मा तस्थौ गिरिरिवाचलः।<br />
तं भीमः समरश्लाघी बलेन बलिनां वरः॥ 3-10-24<br />
जघान पशुमारेण व्याघ्रः क्षुद्रमृगं यथा।<br />
पश्य दिग्विजये राजन्यथा भीमेन पातितः॥ 3-10-25<br />
जरासन्धो महेष्वासो नागायुतबलो युधि।<br />
सम्बन्धी वासुदेवश्च श्यालाः सर्वे च पार्षताः॥ 3-10-26<br />
[[:Category:Bheema|Bheema]] [[:Category:Draupadi's sons|Draupadi's sons]]<br />
<br />
कस्तान्युधि समासीत जरामरणवान्नरः।<br />
तस्य ते शम एवास्तु पाण्डवैर्भरतर्षभ।<br />
[[:Category:Pandavas|Pandavas]]<br />
<br />
कुरु मे वचनं राजन्मा मन्युवशमन्वगाः॥ 3-10-27<br />
<br />
वैशम्पायन उवाच<br />
<br />
एवं तु ब्रुवतस्तस्य मैत्रेयस्य विशाम्पते।<br />
ऊरुं गजकराकारं करेणाभिजघान सः॥ 3-10-28<br />
दुर्योधनः स्मितं कृत्वा चरणेनोल्लिखन्महीम्।<br />
न किञ्चिदुक्त्वा दुर्मेधास्तस्थौ किञ्चिदवाङ्मुखः॥ 3-10-29<br />
तमशुश्रूषमाणं तु विलिखन्तं वसुन्धराम्।<br />
दृष्ट्वा दुर्योधनं राजन्मैत्रेयं कोप आविशत्॥ 3-10-30<br />
स कोपवशमापन्नो मैत्रेयो मुनिसत्तमः।<br />
विधिना सम्प्रणुदितः शापायास्य मनो दधे॥ 3-10-31<br />
ततः स वार्युपस्पृश्य कोपसंरक्तलोचनः।<br />
मैत्रेयो धार्तराष्ट्रं तमशपद्दुष्टचेतसम्॥ 3-10-32<br />
[[:Category:Duryodhana offends Sage Maitreya|Duryodhana offends Sage Maitreya]] <br />
<br />
यस्मात्त्वं मामनादृत्य नेमां वाचं चिकीर्षसि।<br />
तस्मादस्याभिमानस्य सद्यः फलमवाप्नुहि॥ 3-10-33<br />
<br />
त्वदभिद्रोहसंयुक्तं युद्धमुत्पत्स्यते महत्।<br />
तत्र भीमो गदाघातैस्तवोरुं भेत्स्यते बली॥ 3-10-34<br />
<br />
इत्येवमुक्ते वचने धृतराष्ट्रो महीपतिः।<br />
प्रसादयामास मुनिं नैतदेवं भवेदिति॥ 3-10-35<br />
<br />
मैत्रेय उवाच<br />
<br />
शमं यास्यति चेत्पुत्रस्तव राजन्यदा तदा।<br />
शापो न भविता तात विपरीते भविष्यति॥ 3-10-36<br />
[[:Category:Sage Maitreya curses Duryodhana|Sage Maitreya curses Duryodhana]] <br />
<br />
वैशम्पायन उवाच<br />
<br />
विलक्षयंस्तु राजेन्द्रो दुर्योधनपिता तदा।<br />
मैत्रेयं प्राह किर्मीरः कथं भीमेन पातितः॥ 3-10-37<br />
मैत्रेय उवाच<br />
नाहं वक्ष्यामि ते भूयो न ते शुश्रूषते सुतः।<br />
एष ते विदुरः सर्वमाख्यास्यति गते मयि॥ 3-10-38<br />
वैशम्पायन उवाच<br />
इत्येवमुक्त्वा मैत्रेयः प्रातिष्ठत यथाऽऽगतम्।<br />
किर्मीरवधसंविग्नो बहिर्दुर्योधनो ययौ॥ 3-10-39<br />
[[:Category:Death of Kirmira|Death of Kirmira]] <br />
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इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि अरण्यपर्वणि मैत्रेयशापे दशमोऽध्यायः॥ 10 ॥</div>
ShraddhaV
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Vanaparva Adhyaya 10 (वनपर्वणि अध्यायः १० )
2019-08-22T14:59:09Z
<p>ShraddhaV: Added verses in vanaparva chapter 10</p>
<hr />
<div>धृतराष्ट्र उवाच<br />
<br />
एवमेतन्महाप्राज्ञ यथा वदसि नो मुने।<br />
<br />
अहं चैव विजानामि सर्वे चेमे नराधिपाः॥ 3-10-1<br />
<br />
भवांश्च मन्यते साधु यत्कुरूणां महोदयम्।<br />
<br />
तदेव विदुरोऽप्याह भीष्मो द्रोणश्च मां मुने॥ 3-10-2<br />
<br />
यदि त्वहमनुग्राह्यः कौरव्येषु दया यदि।<br />
<br />
अन्वशाधि दुरात्मानं पुत्रं दुर्योधनं मम॥ 3-10-3<br />
<br />
व्यास उवाच<br />
<br />
अयमायाति वै राजन्मैत्रेयो भगवानृषिः।<br />
<br />
अन्विष्य पाण्डवान्भ्रातॄनिहैत्यस्मद्दिदृक्षया॥ 3-10-4<br />
<br />
एष दुर्योधनं पुत्रं तव राजन्महानृषिः।<br />
<br />
अनुशास्ता यथान्यायं शमायास्य कुलस्य च॥ 3-10-5<br />
<br />
ब्रूयाद्यदेष कौरव्य तत्कार्यमविशङ्कया।<br />
<br />
अक्रियायां तु कार्यस्य पुत्रं ते शप्स्यते रुषा॥ 3-10-6<br />
<br />
वैशम्पायन उवाच<br />
<br />
एवमुक्त्वा ययौ व्यासो मैत्रेयः प्रत्यदृश्यत।<br />
<br />
पूजया प्रतिजग्राह सपुत्रस्तं नराधिपः॥ 3-10-7<br />
<br />
अर्घ्याद्याभिः क्रियाभिर्वै विश्रान्तं मुनिसत्तमम्।<br />
<br />
प्रश्रयेणाब्रवीद्राजा धृतराष्ट्रोऽम्बिकासुतः॥ 3-10-8<br />
<br />
सुखेनागमनं कच्चिद्भगवन्कुरुजाङ्गलान्।<br />
<br />
कच्चित्कुशलिनो वीरा भ्रातरः पञ्च पाण्डवाः॥ 3-10-9<br />
<br />
समये स्थातुमिच्छन्ति कच्चिच्च भरतर्षभाः।<br />
<br />
कच्चित्कुरूणां सौभ्रात्रमव्युच्छिन्नं भविष्यति॥ 3-10-10<br />
<br />
मैत्रेय उवाच<br />
<br />
तीर्थयात्रामनुक्रामन्प्राप्तोऽस्मि कुरुजाङ्गलान्।<br />
<br />
यदृच्छया धर्मराजं दृष्टवान्काम्यके वने॥ 3-10-11<br />
<br />
तं जटाजिनसंवीतं तपोवननिवासिनम्।<br />
<br />
समाजग्मुर्महात्मानं द्रष्टुं मुनिगणाः प्रभो॥ 3-10-12<br />
<br />
तत्राश्रौषं महाराज पुत्राणां तव विभ्रमम्।<br />
<br />
अनयं द्यूतरूपेण महाभयमुपस्थितम्॥ 3-10-13<br />
<br />
ततोऽहं त्वामनुप्राप्तः कौरवाणामवेक्षया।<br />
<br />
सदा ह्यभ्यधिकः स्नेहः प्रीतिश्च त्वयि मे प्रभो॥ 3-10-14<br />
<br />
नैतदौपयिकं राजंस्त्वयि भीष्मे च जीवति।<br />
<br />
यदन्योन्येन ते पुत्रा विरुध्यन्ते कथञ्चन॥ 3-10-15<br />
<br />
मेढीभूतः स्वयं राजन्निग्रहे प्रग्रहे भवान्।<br />
<br />
किमर्थमनयं घोरमुत्पद्यन्तमुपेक्षसे॥ 3-10-16<br />
<br />
दस्यूनामिव यद्वृत्तं सभायां कुरुनन्दन।<br />
<br />
तेन न भ्राजसे राजंस्तापसानां समागमे॥ 3-10-17<br />
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वैशम्पायन उवाच<br />
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ततो व्यावृत्य राजानं दुर्योधनममर्षणम्।<br />
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उवाच श्लक्ष्णया वाचा मैत्रेयो भगवानृषिः॥ 3-10-18<br />
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मैत्रेय उवाच<br />
<br />
दुर्योधन महाबाहो निबोध वदतां वर।<br />
<br />
वचनं मे महाभाग ब्रुवतो यद्धितं तव॥ 3-10-19<br />
<br />
मा द्रुहः पाण्डवान्राजन्कुरुष्व प्रियमात्मनः।<br />
<br />
पाण्डवानां कुरूणां च लोकस्य च नरर्षभ॥ 3-10-20<br />
<br />
ते हि सर्वे नरव्याघ्राः शूरा विक्रान्तयोधिनः।<br />
<br />
सर्वे नागायुतप्राणा वज्रसंहनना दृढाः॥ 3-10-21<br />
<br />
सत्यव्रतधराः सर्वे सर्वे पुरुषमानिनः।<br />
<br />
हन्तारो देवशत्रूणां रक्षसां कामरूपिणाम्॥ 3-10-22<br />
<br />
हिडिम्बबकमुख्यानां किर्मीरस्य च रक्षसः।<br />
<br />
इतः प्रद्रवतां रात्रौ यः स तेषां महात्मनाम्॥ 3-10-23<br />
<br />
आवृत्य मार्गं रौद्रात्मा तस्थौ गिरिरिवाचलः।<br />
<br />
तं भीमः समरश्लाघी बलेन बलिनां वरः॥ 3-10-24<br />
<br />
जघान पशुमारेण व्याघ्रः क्षुद्रमृगं यथा।<br />
<br />
पश्य दिग्विजये राजन्यथा भीमेन पातितः॥ 3-10-25<br />
<br />
जरासन्धो महेष्वासो नागायुतबलो युधि।<br />
<br />
सम्बन्धी वासुदेवश्च श्यालाः सर्वे च पार्षताः॥ 3-10-26<br />
<br />
कस्तान्युधि समासीत जरामरणवान्नरः।<br />
<br />
तस्य ते शम एवास्तु पाण्डवैर्भरतर्षभ।<br />
<br />
कुरु मे वचनं राजन्मा मन्युवशमन्वगाः॥ 3-10-27<br />
<br />
वैशम्पायन उवाच<br />
<br />
एवं तु ब्रुवतस्तस्य मैत्रेयस्य विशाम्पते।<br />
<br />
ऊरुं गजकराकारं करेणाभिजघान सः॥ 3-10-28<br />
<br />
दुर्योधनः स्मितं कृत्वा चरणेनोल्लिखन्महीम्।<br />
<br />
न किञ्चिदुक्त्वा दुर्मेधास्तस्थौ किञ्चिदवाङ्मुखः॥ 3-10-29<br />
<br />
तमशुश्रूषमाणं तु विलिखन्तं वसुन्धराम्।<br />
<br />
दृष्ट्वा दुर्योधनं राजन्मैत्रेयं कोप आविशत्॥ 3-10-30<br />
<br />
स कोपवशमापन्नो मैत्रेयो मुनिसत्तमः।<br />
<br />
विधिना सम्प्रणुदितः शापायास्य मनो दधे॥ 3-10-31<br />
<br />
ततः स वार्युपस्पृश्य कोपसंरक्तलोचनः।<br />
<br />
मैत्रेयो धार्तराष्ट्रं तमशपद्दुष्टचेतसम्॥ 3-10-32<br />
<br />
यस्मात्त्वं मामनादृत्य नेमां वाचं चिकीर्षसि।<br />
<br />
तस्मादस्याभिमानस्य सद्यः फलमवाप्नुहि॥ 3-10-33<br />
<br />
त्वदभिद्रोहसंयुक्तं युद्धमुत्पत्स्यते महत्।<br />
<br />
तत्र भीमो गदाघातैस्तवोरुं भेत्स्यते बली॥ 3-10-34<br />
<br />
इत्येवमुक्ते वचने धृतराष्ट्रो महीपतिः।<br />
<br />
प्रसादयामास मुनिं नैतदेवं भवेदिति॥ 3-10-35<br />
<br />
मैत्रेय उवाच<br />
<br />
शमं यास्यति चेत्पुत्रस्तव राजन्यदा तदा।<br />
<br />
शापो न भविता तात विपरीते भविष्यति॥ 3-10-36<br />
<br />
वैशम्पायन उवाच<br />
<br />
विलक्षयंस्तु राजेन्द्रो दुर्योधनपिता तदा।<br />
<br />
मैत्रेयं प्राह किर्मीरः कथं भीमेन पातितः॥ 3-10-37<br />
<br />
मैत्रेय उवाच<br />
<br />
नाहं वक्ष्यामि ते भूयो न ते शुश्रूषते सुतः।<br />
<br />
एष ते विदुरः सर्वमाख्यास्यति गते मयि॥ 3-10-38<br />
<br />
वैशम्पायन उवाच<br />
<br />
इत्येवमुक्त्वा मैत्रेयः प्रातिष्ठत यथाऽऽगतम्।<br />
<br />
किर्मीरवधसंविग्नो बहिर्दुर्योधनो ययौ॥ 3-10-39<br />
<br />
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि अरण्यपर्वणि मैत्रेयशापे दशमोऽध्यायः॥ 10 ॥</div>
ShraddhaV
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Vanaparva Adhyaya 9 (वनपर्वणि अध्यायः ९)
2019-08-22T14:55:19Z
<p>ShraddhaV: Added tags. last shloka to be tagged</p>
<hr />
<div>धृतराष्ट्र उवाच<br />
<br />
भगवन्नाहमप्येतद्रोचये द्यूतसम्भवम्।<br />
मन्ये तद्विधिनाऽऽकृष्य कारितोऽस्मीति वै मुने॥ 3-9-1<br />
नैतद्रोचयते भीष्मो न द्रोणो विदुरो न च।<br />
गान्धारी नेच्छति द्यूतं तत्र मोहात्प्रवर्तितम्॥ 3-9-2<br />
[[:Category:Gambling|''Gambling'']] [[:Category:द्युत् क्रिडा|''द्युत् क्रिडा'']]<br />
<br />
परित्यक्तुं न शक्नोमि दुर्योधनमचेतनम्।<br />
पुत्रस्नेहेन भगवञ्जानन्नपि प्रियव्रत॥ 3-9-3<br />
[[:Category:Duryodhana|''Duryodhana'']] [[:Category:पुत्र स्नेह|''पुत्र स्नेह'']]<br />
<br />
व्यास उवाच<br />
<br />
वैचित्रवीर्य नृपते सत्यमाह यथा भवान्।<br />
दृढं विद्मः परं पुत्रं परं पुत्रान्न विद्यते॥ 3-9-4<br />
इन्द्रोऽप्यश्रुनिपातेन सुरभ्या प्रतिबोधितः।<br />
अन्यैः समृद्धैरप्यर्थैर्न सुतान्मन्यते परम्॥ 3-9-5<br />
[[:Category:पुत्र स्नेह|''पुत्र स्नेह'']]<br />
<br />
अत्र ते कीर्तयिष्यामि महदाख्यानमुत्तमम्।<br />
सुरभ्याश्चैव संवादमिन्द्रस्य च विशाम्पते॥ 3-9-6<br />
त्रिविष्टपगता राजन्सुरभी प्रारुदत्किल।<br />
गवां माता पुरा तात तामिन्द्रोऽन्वकृपायत॥ 3-9-7<br />
<br />
इन्द्र उवाच<br />
किमिदं रोदिषि शुभे कच्चित्क्षेमं दिवौकसाम्।<br />
मानुषेष्वथ नगे[वा गो]षु नैतदल्पं भविष्यति॥ 3-9-8<br />
<br />
सुरभिरुवाच<br />
विनिपातो न वः कश्चिद्दृश्यते त्रिदशाधिप।<br />
अहं तु पुत्रं शोचामि तेन रोदिमि कौशिक॥ 3-9-9<br />
पश्यैनं कर्षकं क्षुद्रं दुर्बलं मम पुत्रकम्।<br />
प्रतोदेनाभिनिघ्नन्तं लाङ्गलेन च पीडितम्॥ 3-9-10<br />
निषीदमानं सोत्कण्ठं वध्यमानं सुराधिप।<br />
कृपाविष्टास्मि देवेन्द्र मनश्चोद्विजते मम।<br />
एकस्तत्र बलोपेतो धुरमुद्वहतेऽधिकाम्॥ 3-9-11<br />
अपरोऽप्यबलप्राणः कृशो धमनिसंततः।<br />
कृच्छ्रादुद्वहते भारं तं वै शोचामि वासव॥ 3-9-12<br />
वध्यमानः प्रतोदेन तुद्यमानः पुनः पुनः।<br />
नैव शक्नोति तं भारमुद्वोढुं पश्य वासव॥ 3-9-13<br />
ततोऽहं तस्य शोकार्ता विरौमि भृशदुःखिता।<br />
अश्रूण्यावर्तयन्ती च नेत्राभ्यां करुणायती॥ 3-9-14<br />
<br />
शक्र उवाच<br />
तव पुत्रसहस्रेषु पीड्यमानेषु शोभने।<br />
किं कृपायितवत्यत्र पुत्र एकत्र हन्यति॥ 3-9-15<br />
<br />
सुरभिरुवाच<br />
यदि पुत्रसहस्राणि सर्वत्र समतैव मे।<br />
दीनस्य तु सतः शक्र पुत्रस्याभ्यधिका कृपा॥ 3-9-16<br />
[[:Category:इंद्र सुरभि संवाद|''इंद्र सुरभि संवाद'']] [[:Category:पुत्र प्रेम |''पुत्र प्रेम '']]<br />
<br />
<br />
व्यास उवाच<br />
<br />
तदिन्द्रः सुरभीवाक्यं निशम्य भृशविस्मितः।<br />
जीवितेनापि कौरव्य मेनेऽभ्यधिकमात्मजम्॥ 3-9-17<br />
प्रववर्ष च तत्रैव सहसा तोयमुल्बणम्।<br />
कर्षकस्याचरन्विघ्नं भगवान्पाकशासनः॥ 3-9-18<br />
तद्यथा सुरभिः प्राह समवेतास्तु ते तथा।<br />
सुतेषु राजन्सर्वेषु हीनेष्वभ्यधिका कृपा॥ 3-9-19<br />
यादृशो मे सुतः पाण्डुस्तादृशो मेऽसि पुत्रक।<br />
विदुरश्च महाप्राज्ञः स्नेहादेतद्ब्रवीम्यहम्॥ 3-9-20<br />
[[:Category:पुत्र प्रेम |''पुत्र प्रेम '']]<br />
<br />
चिराय तव पुत्राणां शतमेकश्च भारत।<br />
पाण्डोः पञ्चैव लक्ष्यन्ते तेऽपि मन्दाः सुदुःखिताः॥ 3-9-21<br />
कथं जीवेयुरत्यन्तं कथं वर्धेयुरित्यपि।<br />
इति दीनेषु पार्थेषु मनो मे परितप्यते॥ 3-9-22<br />
[[:Category:Pandavas |''Pandavas '']] <br />
<br />
यदि पार्थिव कौरव्याञ्जीवमानानिहेच्छसि।<br />
<br />
दुर्योधनस्तव सुतः शमं गच्छतु पाण्डवैः॥ 3-9-23<br />
<br />
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि अरण्यपर्वणि सुरभ्युपाख्याने नवमोऽध्यायः॥ 9 ॥</div>
ShraddhaV
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Vanaparva Adhyaya 9 (वनपर्वणि अध्यायः ९)
2019-08-13T02:34:48Z
<p>ShraddhaV: Added shlokas to vanaparva adhyaya 9</p>
<hr />
<div>धृतराष्ट्र उवाच<br />
<br />
भगवन्नाहमप्येतद्रोचये द्यूतसम्भवम्।<br />
<br />
मन्ये तद्विधिनाऽऽकृष्य कारितोऽस्मीति वै मुने॥ 3-9-1<br />
<br />
नैतद्रोचयते भीष्मो न द्रोणो विदुरो न च।<br />
<br />
गान्धारी नेच्छति द्यूतं तत्र मोहात्प्रवर्तितम्॥ 3-9-2<br />
<br />
परित्यक्तुं न शक्नोमि दुर्योधनमचेतनम्।<br />
<br />
पुत्रस्नेहेन भगवञ्जानन्नपि प्रियव्रत॥ 3-9-3<br />
<br />
व्यास उवाच<br />
<br />
वैचित्रवीर्य नृपते सत्यमाह यथा भवान्।<br />
<br />
दृढं विद्मः परं पुत्रं परं पुत्रान्न विद्यते॥ 3-9-4<br />
<br />
इन्द्रोऽप्यश्रुनिपातेन सुरभ्या प्रतिबोधितः।<br />
<br />
अन्यैः समृद्धैरप्यर्थैर्न सुतान्मन्यते परम्॥ 3-9-5<br />
<br />
अत्र ते कीर्तयिष्यामि महदाख्यानमुत्तमम्।<br />
<br />
सुरभ्याश्चैव संवादमिन्द्रस्य च विशाम्पते॥ 3-9-6<br />
<br />
त्रिविष्टपगता राजन्सुरभी प्रारुदत्किल।<br />
<br />
गवां माता पुरा तात तामिन्द्रोऽन्वकृपायत॥ 3-9-7<br />
<br />
इन्द्र उवाच<br />
<br />
किमिदं रोदिषि शुभे कच्चित्क्षेमं दिवौकसाम्।<br />
<br />
मानुषेष्वथ नगे[वा गो]षु नैतदल्पं भविष्यति॥ 3-9-8<br />
<br />
सुरभिरुवाच<br />
<br />
विनिपातो न वः कश्चिद्दृश्यते त्रिदशाधिप।<br />
<br />
अहं तु पुत्रं शोचामि तेन रोदिमि कौशिक॥ 3-9-9<br />
<br />
पश्यैनं कर्षकं क्षुद्रं दुर्बलं मम पुत्रकम्।<br />
<br />
प्रतोदेनाभिनिघ्नन्तं लाङ्गलेन च पीडितम्॥ 3-9-10<br />
<br />
निषीदमानं सोत्कण्ठं वध्यमानं सुराधिप।<br />
<br />
कृपाविष्टास्मि देवेन्द्र मनश्चोद्विजते मम।<br />
<br />
एकस्तत्र बलोपेतो धुरमुद्वहतेऽधिकाम्॥ 3-9-11<br />
<br />
अपरोऽप्यबलप्राणः कृशो धमनिसंततः।<br />
<br />
कृच्छ्रादुद्वहते भारं तं वै शोचामि वासव॥ 3-9-12<br />
<br />
वध्यमानः प्रतोदेन तुद्यमानः पुनः पुनः।<br />
<br />
नैव शक्नोति तं भारमुद्वोढुं पश्य वासव॥ 3-9-13<br />
<br />
ततोऽहं तस्य शोकार्ता विरौमि भृशदुःखिता।<br />
<br />
अश्रूण्यावर्तयन्ती च नेत्राभ्यां करुणायती॥ 3-9-14<br />
<br />
शक्र उवाच<br />
<br />
तव पुत्रसहस्रेषु पीड्यमानेषु शोभने।<br />
<br />
किं कृपायितवत्यत्र पुत्र एकत्र हन्यति॥ 3-9-15<br />
<br />
सुरभिरुवाच<br />
<br />
यदि पुत्रसहस्राणि सर्वत्र समतैव मे।<br />
<br />
दीनस्य तु सतः शक्र पुत्रस्याभ्यधिका कृपा॥ 3-9-16<br />
<br />
व्यास उवाच<br />
<br />
तदिन्द्रः सुरभीवाक्यं निशम्य भृशविस्मितः।<br />
<br />
जीवितेनापि कौरव्य मेनेऽभ्यधिकमात्मजम्॥ 3-9-17<br />
<br />
प्रववर्ष च तत्रैव सहसा तोयमुल्बणम्।<br />
<br />
कर्षकस्याचरन्विघ्नं भगवान्पाकशासनः॥ 3-9-18<br />
<br />
तद्यथा सुरभिः प्राह समवेतास्तु ते तथा।<br />
<br />
सुतेषु राजन्सर्वेषु हीनेष्वभ्यधिका कृपा॥ 3-9-19<br />
<br />
यादृशो मे सुतः पाण्डुस्तादृशो मेऽसि पुत्रक।<br />
<br />
विदुरश्च महाप्राज्ञः स्नेहादेतद्ब्रवीम्यहम्॥ 3-9-20<br />
<br />
चिराय तव पुत्राणां शतमेकश्च भारत।<br />
<br />
पाण्डोः पञ्चैव लक्ष्यन्ते तेऽपि मन्दाः सुदुःखिताः॥ 3-9-21<br />
<br />
कथं जीवेयुरत्यन्तं कथं वर्धेयुरित्यपि।<br />
<br />
इति दीनेषु पार्थेषु मनो मे परितप्यते॥ 3-9-22<br />
<br />
यदि पार्थिव कौरव्याञ्जीवमानानिहेच्छसि।<br />
<br />
दुर्योधनस्तव सुतः शमं गच्छतु पाण्डवैः॥ 3-9-23<br />
<br />
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि अरण्यपर्वणि सुरभ्युपाख्याने नवमोऽध्यायः॥ 9 ॥</div>
ShraddhaV
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Vanaparva Adhyaya 8 (वनपर्वणि अध्यायः ८)
2019-08-13T02:32:39Z
<p>ShraddhaV: Added tags</p>
<hr />
<div>व्यास उवाच<br />
<br />
धृतराष्ट्र महाप्राज्ञ निबोध वचनं मम।<br />
वक्ष्यामि त्वां कौरवाणां सर्वेषां हितमुत्तमम्॥ 3-8-1<br />
न मे प्रियं महाबाहो यद्गताः पाण्डवा वनम्।<br />
निकृत्या निकृताश्चैव दुर्योधनपुरोगमैः॥ 3-8-2<br />
ते स्मरन्तः परिक्लेशान्वर्षे पूर्णे त्रयोदशे।<br />
विमोक्ष्यन्ति विषं क्रुद्धाः कौरवेयेषु भारत॥ 3-8-3<br />
[[:Category:Maharishi Veda Vyasa advises Dhrtarashatra|''Maharishi Veda Vyasa advises Dhrtarashatra'']]<br />
<br />
तदयं किं नु पापात्मा तव पुत्र सुमन्दधीः।<br />
पाण्डवान्नित्यसंक्रुद्धो राज्यहेतोर्जिघांसति॥ 3-8-4<br />
वार्यतां साध्वयं मूढः शमं गच्छतु ते सुतः।<br />
वनस्थांस्तानयं हन्तुमिच्छन्प्राणान्विमोक्ष्यति॥ 3-8-5<br />
[[:Category:Duryodhana|''Duryodhana'']]<br />
<br />
यथा हि विदुरः प्राज्ञो यथा भीष्मो यथा वयम्। <br />
यथा कृपश्च द्रोणश्च तथा साधुर्भवानपि॥ 3-8-6<br />
[[:Category:Saintly people|''Saintly people'']]<br />
<br />
विग्रहो हि महाप्राज्ञ स्वजनेन विगर्हितः।<br />
अधर्म्यमयशस्यं च मा राजन्प्रतिपद्यताम्॥ 3-8-7<br />
समीक्षा यादृशी ह्यस्य पाण्डवान्प्रति भारत।<br />
उपेक्ष्यमाणा सा राजन्महान्तमनयं स्पृशेत्॥ 3-8-8<br />
[[:Category:Conflict|''Conflict'']]<br />
<br />
अथवायं सुमन्दात्मा वनं गच्छतु ते सुतः।<br />
पाण्डवैः सहितो राजन्नेह एवासहायवान्॥ 3-8-9<br />
ततः संसर्गजः स्नेहः पुत्रस्य तव पाण्डवैः।<br />
यदि स्यात्कृतकार्योऽद्य भवेस्त्वं मनुजेश्वर॥ 3-8-10<br />
[[:Category:Association|''Association'']]<br />
<br />
अथवा जायमानस्य यच्छीलमनुजायते।<br />
श्रूयते तन्महाराज नामृतस्यापसर्पति॥ 3-8-11<br />
कथं वा मन्यते भीष्मो द्रोणोऽथ विदुरोऽपि वा।<br />
भवान्वात्र क्षमं कार्यं पुरा वोऽर्थोऽभिवर्धते॥ 3-8-12<br />
[[:Category:Svabhava at birth|''Svabhava at birth'']]<br />
<br />
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि अरण्यपर्वणि व्यासवाक्ये अष्टमोऽध्यायः॥ 8 ॥</div>
ShraddhaV
https://dharmawiki.org/index.php?title=Vanaparva_Adhyaya_8_(%E0%A4%B5%E0%A4%A8%E0%A4%AA%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A4%A3%E0%A4%BF_%E0%A4%85%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%83_%E0%A5%AE)&diff=120225
Vanaparva Adhyaya 8 (वनपर्वणि अध्यायः ८)
2019-08-13T01:56:09Z
<p>ShraddhaV: Added shlokas of vanaparva adhyaya 8</p>
<hr />
<div>वधृतराष्ट्र महाप्राज्ञ निबोध वचनं मम।<br />
<br />
वक्ष्यामि त्वां कौरवाणां सर्वेषां हितमुत्तमम्॥ 3-8-1<br />
<br />
न मे प्रियं महाबाहो यद्गताः पाण्डवा वनम्।<br />
<br />
निकृत्या निकृताश्चैव दुर्योधनपुरोगमैः॥ 3-8-2<br />
<br />
ते स्मरन्तः परिक्लेशान्वर्षे पूर्णे त्रयोदशे।<br />
<br />
विमोक्ष्यन्ति विषं क्रुद्धाः कौरवेयेषु भारत॥ 3-8-3<br />
<br />
तदयं किं नु पापात्मा तव पुत्र सुमन्दधीः।<br />
<br />
पाण्डवान्नित्यसंक्रुद्धो राज्यहेतोर्जिघांसति॥ 3-8-4<br />
<br />
वार्यतां साध्वयं मूढः शमं गच्छतु ते सुतः।<br />
<br />
वनस्थांस्तानयं हन्तुमिच्छन्प्राणान्विमोक्ष्यति॥ 3-8-5<br />
<br />
यथा हि विदुरः प्राज्ञो यथा भीष्मो यथा वयम्।<br />
<br />
यथा कृपश्च द्रोणश्च तथा साधुर्भवानपि॥ 3-8-6<br />
<br />
विग्रहो हि महाप्राज्ञ स्वजनेन विगर्हितः।<br />
<br />
अधर्म्यमयशस्यं च मा राजन्प्रतिपद्यताम्॥ 3-8-7<br />
<br />
समीक्षा यादृशी ह्यस्य पाण्डवान्प्रति भारत।<br />
<br />
उपेक्ष्यमाणा सा राजन्महान्तमनयं स्पृशेत्॥ 3-8-8<br />
<br />
अथवायं सुमन्दात्मा वनं गच्छतु ते सुतः।<br />
<br />
पाण्डवैः सहितो राजन्नेह एवासहायवान्॥ 3-8-9<br />
<br />
ततः संसर्गजः स्नेहः पुत्रस्य तव पाण्डवैः।<br />
<br />
यदि स्यात्कृतकार्योऽद्य भवेस्त्वं मनुजेश्वर॥ 3-8-10<br />
<br />
अथवा जायमानस्य यच्छीलमनुजायते।<br />
<br />
श्रूयते तन्महाराज नामृतस्यापसर्पति॥ 3-8-11<br />
<br />
कथं वा मन्यते भीष्मो द्रोणोऽथ विदुरोऽपि वा।<br />
<br />
भवान्वात्र क्षमं कार्यं पुरा वोऽर्थोऽभिवर्धते॥ 3-8-12<br />
<br />
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि अरण्यपर्वणि व्यासवाक्ये अष्टमोऽध्यायः॥ 8 ॥</div>
ShraddhaV
https://dharmawiki.org/index.php?title=Vanaparva_Adhyaya_7_(%E0%A4%B5%E0%A4%A8%E0%A4%AA%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A4%A3%E0%A4%BF_%E0%A4%85%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%83_%E0%A5%AD)&diff=120224
Vanaparva Adhyaya 7 (वनपर्वणि अध्यायः ७)
2019-08-13T01:42:21Z
<p>ShraddhaV: </p>
<hr />
<div>वैशम्पायन उवाच<br />
<br />
श्रुत्वा च विदुरं प्राप्तं राज्ञा च परिसान्त्वितम्।<br />
धृतराष्ट्रात्मजो राजा पर्यतप्यत दुर्मतिः॥ 3-7-1<br />
स सौबलेयमानाय्य कर्णदुःशासनौ तथा।<br />
अब्रवीद्वचनं राजा प्रविश्याबुद्धिजं तमः॥ 3-7-2<br />
एष प्रत्यागतो मन्त्री धृतराष्ट्रस्य धीमतः।<br />
विदुरः पाण्डुपुत्राणां सुहृद्विद्वान्हिते रतः॥ 3-7-3<br />
यावदस्य पुनर्बुद्धिं विदुरो नापकर्षति।<br />
पाण्डवानयने तावन्मन्त्रयध्वं हितं मम॥ 3-7-4<br />
अथ पश्याम्यहं पार्थान्प्राप्तानिह कथञ्चन।<br />
पुनः शोषं गमिष्यामि निरम्बुर्निरवग्रहः॥ 3-7-5<br />
विषमुद्बन्धनं चैव शस्त्रमग्निप्रवेशनम्।<br />
करिष्ये न हि तानृद्धान्पुनर्द्रष्टुमिहोत्सहे॥ 3-7-6<br />
[[:Category:Duryodhana's hatred for Pandavas|''Duryodhana's hatred for Pandavas'']]<br />
<br />
शकुनिरुवाच<br />
<br />
किं बालिशमतिं राजन्नास्थितोऽसि विशाम्पते।<br />
गतास्ते समयं कृत्वा नैतदेवं भविष्यति॥ 3-7-7<br />
सत्यवाक्यस्थिताः सर्वे पाण्डवा भरतर्षभ।<br />
पितुस्ते वचनं तात न ग्रहीष्यन्ति कर्हिचित्॥ 3-7-8<br />
[[:Category:प्रतिज्ञा|''प्रतिज्ञा'']]<br />
<br />
अथवा ते ग्रहीष्यन्ति पुनरेष्यन्ति वा पुरम्।<br />
निरस्य समयं सर्वे पणोऽस्माकं भविष्यति॥ 3-7-9<br />
सर्वे भवामो मध्यस्था राज्ञश्छन्दानुवर्तिनः।<br />
छिद्रं बहु प्रपश्यन्तः पाण्डवानां सुसंवृताः॥ 3-7-10<br />
[[:Category:Vidura's advice to Duryodhana|''Vidura's advice to Duryodhana'']]<br />
<br />
दुःशासन उवाच<br />
<br />
एवमेतन्महाप्राज्ञ यथा वदसि मातुल।<br />
नित्यं हि मे कथयतस्तव बुद्धिर्विरोचते॥ 3-7-11<br />
[[:Category:Vidura's advice to Duryodhana|''Vidura's advice to Duryodhana'']]<br />
<br />
कर्ण उवाच<br />
<br />
काममीक्षामहे सर्वे दुर्योधन तवेप्सितम्।<br />
ऐकमत्यं हि नो राजन्सर्वेषामेव लक्षये॥ 3-7-12<br />
नागमिष्यन्ति ते धीरा अकृत्वा कालसंविदम्।<br />
आगमिष्यन्ति चेन्मोहात्पुनर्द्यूतेन ताञ्जय॥ 3-7-13<br />
[[:Category:Karna's advice to Duryodhana|''Karna's advice to Duryodhana'']]<br />
<br />
वैशम्पायन उवाच<br />
<br />
एवमुक्तस्तु कर्णेन राजा दुर्योधनस्तदा।<br />
नातिहृष्टमनाः क्षिप्रमभवत्स पराङ्मुखः॥ 3-7-14<br />
उपलभ्य ततः कर्णो विवृत्य नयने शुभे।<br />
रोषाद्दुःशासनं चैव सौबलं च तमेव च॥ 3-7-15<br />
उवाच परमक्रुद्ध उद्यम्यात्मानमात्मना।<br />
अथो मम मतं यत्तु तन्निबोधत भूमिपाः॥ 3-7-16<br />
प्रियं सर्वे करिष्यामो राज्ञः किङ्करपाणयः।<br />
न चास्य शक्नुमः स्थातुं प्रिये सर्वे ह्यतन्द्रिताः॥ 3-7-17<br />
वयं तु शस्त्राण्यादाय रथानास्थाय दंशिताः।<br />
गच्छामः सहिता हन्तुं पाण्डवान्वनगोचरान्॥ 3-7-18<br />
तेषु सर्वेषु शान्तेषु गतेष्वविदितां गतिम्।<br />
निर्विवादा भविष्यन्ति धार्तराष्ट्रास्तथा वयम्॥ 3-7-19<br />
यावदेव परिद्यूना यावच्छोकपरायणाः।<br />
यावन्मित्रविहीनाश्च तावच्छक्या मतं मम॥ 3-7-20<br />
तस्य तद्वचनं श्रुत्वा पूजयन्तः पुनः पुनः।<br />
बाढमित्येव ते सर्वे प्रत्यूचुः सूतजं तदा॥ 3-7-21<br />
[[:Category:Karna's advice to Duryodhana|''Karna's advice to Duryodhana'']]<br />
<br />
एवमुक्त्वा सुसंरब्धा रथैः सर्वे पृथक्पृथक्।<br />
निर्ययुः पाण्डवान्हन्तुं सहिताः कृतनिश्चयाः॥ 3-7-22<br />
तान्प्रस्थितान्परिज्ञाय कृष्णद्वैपायनः प्रभुः।<br />
आजगाम विशुद्धात्मा दृष्ट्वा दिव्येन चक्षुषा॥ 3-7-23<br />
प्रतिषिध्याथ तान्सर्वान्भगवाँल्लोकपूजितः।<br />
प्रज्ञाचक्षुषमासीनमुवाचाभ्येत्य सत्वरम्॥ 3-7-24<br />
[[:Category:Maharishi Veda Vyasa|''Maharishi Veda Vyasa'']]<br />
<br />
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि अरण्यपर्वणि व्यासागमने सप्तमोऽध्यायः॥ 7 ॥</div>
ShraddhaV
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Vanaparva Adhyaya 7 (वनपर्वणि अध्यायः ७)
2019-08-13T01:41:49Z
<p>ShraddhaV: Added tags</p>
<hr />
<div>वैशम्पायन उवाच<br />
<br />
श्रुत्वा च विदुरं प्राप्तं राज्ञा च परिसान्त्वितम्।<br />
धृतराष्ट्रात्मजो राजा पर्यतप्यत दुर्मतिः॥ 3-7-1<br />
स सौबलेयमानाय्य कर्णदुःशासनौ तथा।<br />
अब्रवीद्वचनं राजा प्रविश्याबुद्धिजं तमः॥ 3-7-2<br />
एष प्रत्यागतो मन्त्री धृतराष्ट्रस्य धीमतः।<br />
विदुरः पाण्डुपुत्राणां सुहृद्विद्वान्हिते रतः॥ 3-7-3<br />
यावदस्य पुनर्बुद्धिं विदुरो नापकर्षति।<br />
पाण्डवानयने तावन्मन्त्रयध्वं हितं मम॥ 3-7-4<br />
अथ पश्याम्यहं पार्थान्प्राप्तानिह कथञ्चन।<br />
पुनः शोषं गमिष्यामि निरम्बुर्निरवग्रहः॥ 3-7-5<br />
विषमुद्बन्धनं चैव शस्त्रमग्निप्रवेशनम्।<br />
करिष्ये न हि तानृद्धान्पुनर्द्रष्टुमिहोत्सहे॥ 3-7-6<br />
[[:Category:Duryodhana's hatred for Pandavas|''Duryodhana's hatred for Pandavas'']]<br />
<br />
शकुनिरुवाच<br />
<br />
किं बालिशमतिं राजन्नास्थितोऽसि विशाम्पते।<br />
गतास्ते समयं कृत्वा नैतदेवं भविष्यति॥ 3-7-7<br />
सत्यवाक्यस्थिताः सर्वे पाण्डवा भरतर्षभ।<br />
पितुस्ते वचनं तात न ग्रहीष्यन्ति कर्हिचित्॥ 3-7-8<br />
[[:Category:प्रतिज्ञा|''प्रतिज्ञा'']]<br />
<br />
<br />
अथवा ते ग्रहीष्यन्ति पुनरेष्यन्ति वा पुरम्।<br />
निरस्य समयं सर्वे पणोऽस्माकं भविष्यति॥ 3-7-9<br />
सर्वे भवामो मध्यस्था राज्ञश्छन्दानुवर्तिनः।<br />
छिद्रं बहु प्रपश्यन्तः पाण्डवानां सुसंवृताः॥ 3-7-10<br />
[[:Category:Vidura's advice to Duryodhana|''Vidura's advice to Duryodhana'']]<br />
<br />
दुःशासन उवाच<br />
<br />
एवमेतन्महाप्राज्ञ यथा वदसि मातुल।<br />
नित्यं हि मे कथयतस्तव बुद्धिर्विरोचते॥ 3-7-11<br />
[[:Category:Vidura's advice to Duryodhana|''Vidura's advice to Duryodhana'']]<br />
<br />
कर्ण उवाच<br />
<br />
काममीक्षामहे सर्वे दुर्योधन तवेप्सितम्।<br />
ऐकमत्यं हि नो राजन्सर्वेषामेव लक्षये॥ 3-7-12<br />
नागमिष्यन्ति ते धीरा अकृत्वा कालसंविदम्।<br />
आगमिष्यन्ति चेन्मोहात्पुनर्द्यूतेन ताञ्जय॥ 3-7-13<br />
[[:Category:Karna's advice to Duryodhana|''Karna's advice to Duryodhana'']]<br />
<br />
वैशम्पायन उवाच<br />
<br />
एवमुक्तस्तु कर्णेन राजा दुर्योधनस्तदा।<br />
नातिहृष्टमनाः क्षिप्रमभवत्स पराङ्मुखः॥ 3-7-14<br />
उपलभ्य ततः कर्णो विवृत्य नयने शुभे।<br />
रोषाद्दुःशासनं चैव सौबलं च तमेव च॥ 3-7-15<br />
उवाच परमक्रुद्ध उद्यम्यात्मानमात्मना।<br />
अथो मम मतं यत्तु तन्निबोधत भूमिपाः॥ 3-7-16<br />
प्रियं सर्वे करिष्यामो राज्ञः किङ्करपाणयः।<br />
न चास्य शक्नुमः स्थातुं प्रिये सर्वे ह्यतन्द्रिताः॥ 3-7-17<br />
वयं तु शस्त्राण्यादाय रथानास्थाय दंशिताः।<br />
गच्छामः सहिता हन्तुं पाण्डवान्वनगोचरान्॥ 3-7-18<br />
तेषु सर्वेषु शान्तेषु गतेष्वविदितां गतिम्।<br />
निर्विवादा भविष्यन्ति धार्तराष्ट्रास्तथा वयम्॥ 3-7-19<br />
यावदेव परिद्यूना यावच्छोकपरायणाः।<br />
यावन्मित्रविहीनाश्च तावच्छक्या मतं मम॥ 3-7-20<br />
तस्य तद्वचनं श्रुत्वा पूजयन्तः पुनः पुनः।<br />
बाढमित्येव ते सर्वे प्रत्यूचुः सूतजं तदा॥ 3-7-21<br />
[[:Category:Karna's advice to Duryodhana|''Karna's advice to Duryodhana'']]<br />
<br />
एवमुक्त्वा सुसंरब्धा रथैः सर्वे पृथक्पृथक्।<br />
निर्ययुः पाण्डवान्हन्तुं सहिताः कृतनिश्चयाः॥ 3-7-22<br />
तान्प्रस्थितान्परिज्ञाय कृष्णद्वैपायनः प्रभुः।<br />
आजगाम विशुद्धात्मा दृष्ट्वा दिव्येन चक्षुषा॥ 3-7-23<br />
प्रतिषिध्याथ तान्सर्वान्भगवाँल्लोकपूजितः।<br />
प्रज्ञाचक्षुषमासीनमुवाचाभ्येत्य सत्वरम्॥ 3-7-24<br />
[[:Category:Maharishi Veda Vyasa|''Maharishi Veda Vyasa'']]<br />
<br />
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि अरण्यपर्वणि व्यासागमने सप्तमोऽध्यायः॥ 7 ॥</div>
ShraddhaV
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Vanaparva Adhyaya 7 (वनपर्वणि अध्यायः ७)
2019-08-04T03:23:23Z
<p>ShraddhaV: Added tags</p>
<hr />
<div>वैशम्पायन उवाच<br />
<br />
श्रुत्वा च विदुरं प्राप्तं राज्ञा च परिसान्त्वितम्।<br />
धृतराष्ट्रात्मजो राजा पर्यतप्यत दुर्मतिः॥ 3-7-1<br />
स सौबलेयमानाय्य कर्णदुःशासनौ तथा।<br />
अब्रवीद्वचनं राजा प्रविश्याबुद्धिजं तमः॥ 3-7-2<br />
एष प्रत्यागतो मन्त्री धृतराष्ट्रस्य धीमतः।<br />
विदुरः पाण्डुपुत्राणां सुहृद्विद्वान्हिते रतः॥ 3-7-3<br />
यावदस्य पुनर्बुद्धिं विदुरो नापकर्षति।<br />
पाण्डवानयने तावन्मन्त्रयध्वं हितं मम॥ 3-7-4<br />
अथ पश्याम्यहं पार्थान्प्राप्तानिह कथञ्चन।<br />
पुनः शोषं गमिष्यामि निरम्बुर्निरवग्रहः॥ 3-7-5<br />
विषमुद्बन्धनं चैव शस्त्रमग्निप्रवेशनम्।<br />
करिष्ये न हि तानृद्धान्पुनर्द्रष्टुमिहोत्सहे॥ 3-7-6<br />
[[:Category:Duryodhana's hatred for Pandavas|''Duryodhana's hatred for Pandavas'']]<br />
<br />
शकुनिरुवाच<br />
<br />
किं बालिशमतिं राजन्नास्थितोऽसि विशाम्पते।<br />
गतास्ते समयं कृत्वा नैतदेवं भविष्यति॥ 3-7-7<br />
सत्यवाक्यस्थिताः सर्वे पाण्डवा भरतर्षभ।<br />
पितुस्ते वचनं तात न ग्रहीष्यन्ति कर्हिचित्॥ 3-7-8<br />
[[:Category:प्रतिज्ञा|''प्रतिज्ञा'']]<br />
<br />
<br />
अथवा ते ग्रहीष्यन्ति पुनरेष्यन्ति वा पुरम्।<br />
निरस्य समयं सर्वे पणोऽस्माकं भविष्यति॥ 3-7-9<br />
सर्वे भवामो मध्यस्था राज्ञश्छन्दानुवर्तिनः।<br />
छिद्रं बहु प्रपश्यन्तः पाण्डवानां सुसंवृताः॥ 3-7-10<br />
<br />
दुःशासन उवाच<br />
<br />
एवमेतन्महाप्राज्ञ यथा वदसि मातुल।<br />
नित्यं हि मे कथयतस्तव बुद्धिर्विरोचते॥ 3-7-11<br />
<br />
कर्ण उवाच<br />
<br />
काममीक्षामहे सर्वे दुर्योधन तवेप्सितम्।<br />
<br />
ऐकमत्यं हि नो राजन्सर्वेषामेव लक्षये॥ 3-7-12<br />
<br />
नागमिष्यन्ति ते धीरा अकृत्वा कालसंविदम्।<br />
<br />
आगमिष्यन्ति चेन्मोहात्पुनर्द्यूतेन ताञ्जय॥ 3-7-13<br />
<br />
वैशम्पायन उवाच<br />
<br />
एवमुक्तस्तु कर्णेन राजा दुर्योधनस्तदा।<br />
<br />
नातिहृष्टमनाः क्षिप्रमभवत्स पराङ्मुखः॥ 3-7-14<br />
<br />
उपलभ्य ततः कर्णो विवृत्य नयने शुभे।<br />
<br />
रोषाद्दुःशासनं चैव सौबलं च तमेव च॥ 3-7-15<br />
<br />
उवाच परमक्रुद्ध उद्यम्यात्मानमात्मना।<br />
<br />
अथो मम मतं यत्तु तन्निबोधत भूमिपाः॥ 3-7-16<br />
<br />
प्रियं सर्वे करिष्यामो राज्ञः किङ्करपाणयः।<br />
<br />
न चास्य शक्नुमः स्थातुं प्रिये सर्वे ह्यतन्द्रिताः॥ 3-7-17<br />
<br />
वयं तु शस्त्राण्यादाय रथानास्थाय दंशिताः।<br />
<br />
गच्छामः सहिता हन्तुं पाण्डवान्वनगोचरान्॥ 3-7-18<br />
<br />
तेषु सर्वेषु शान्तेषु गतेष्वविदितां गतिम्।<br />
<br />
निर्विवादा भविष्यन्ति धार्तराष्ट्रास्तथा वयम्॥ 3-7-19<br />
<br />
यावदेव परिद्यूना यावच्छोकपरायणाः।<br />
<br />
यावन्मित्रविहीनाश्च तावच्छक्या मतं मम॥ 3-7-20<br />
<br />
तस्य तद्वचनं श्रुत्वा पूजयन्तः पुनः पुनः।<br />
<br />
बाढमित्येव ते सर्वे प्रत्यूचुः सूतजं तदा॥ 3-7-21<br />
<br />
@एतत्कृत्यतमं राज्ञः कौरवस्य महात्मनः॥@<br />
<br />
एवमुक्त्वा सुसंरब्धा रथैः सर्वे पृथक्पृथक्।<br />
<br />
निर्ययुः पाण्डवान्हन्तुं सहिताः कृतनिश्चयाः॥ 3-7-22<br />
<br />
तान्प्रस्थितान्परिज्ञाय कृष्णद्वैपायनः प्रभुः।<br />
<br />
आजगाम विशुद्धात्मा दृष्ट्वा दिव्येन चक्षुषा॥ 3-7-23<br />
<br />
प्रतिषिध्याथ तान्सर्वान्भगवाँल्लोकपूजितः।<br />
<br />
प्रज्ञाचक्षुषमासीनमुवाचाभ्येत्य सत्वरम्॥ 3-7-24<br />
<br />
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि अरण्यपर्वणि व्यासागमने सप्तमोऽध्यायः॥ 7 ॥</div>
ShraddhaV
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Vanaparva Adhyaya 7 (वनपर्वणि अध्यायः ७)
2019-08-03T14:19:47Z
<p>ShraddhaV: Added vanaparva adhyaya 7 shlokas</p>
<hr />
<div>वैशम्पायन उवाच<br />
<br />
श्रुत्वा च विदुरं प्राप्तं राज्ञा च परिसान्त्वितम्।<br />
<br />
धृतराष्ट्रात्मजो राजा पर्यतप्यत दुर्मतिः॥ 3-7-1<br />
<br />
स सौबलेयमानाय्य कर्णदुःशासनौ तथा।<br />
<br />
अब्रवीद्वचनं राजा प्रविश्याबुद्धिजं तमः॥ 3-7-2<br />
<br />
एष प्रत्यागतो मन्त्री धृतराष्ट्रस्य धीमतः।<br />
<br />
विदुरः पाण्डुपुत्राणां सुहृद्विद्वान्हिते रतः॥ 3-7-3<br />
<br />
यावदस्य पुनर्बुद्धिं विदुरो नापकर्षति।<br />
<br />
पाण्डवानयने तावन्मन्त्रयध्वं हितं मम॥ 3-7-4<br />
<br />
अथ पश्याम्यहं पार्थान्प्राप्तानिह कथञ्चन।<br />
<br />
पुनः शोषं गमिष्यामि निरम्बुर्निरवग्रहः॥ 3-7-5<br />
<br />
विषमुद्बन्धनं चैव शस्त्रमग्निप्रवेशनम्।<br />
<br />
करिष्ये न हि तानृद्धान्पुनर्द्रष्टुमिहोत्सहे॥ 3-7-6<br />
<br />
शकुनिरुवाच<br />
<br />
किं बालिशमतिं राजन्नास्थितोऽसि विशाम्पते।<br />
<br />
गतास्ते समयं कृत्वा नैतदेवं भविष्यति॥ 3-7-7<br />
<br />
सत्यवाक्यस्थिताः सर्वे पाण्डवा भरतर्षभ।<br />
<br />
पितुस्ते वचनं तात न ग्रहीष्यन्ति कर्हिचित्॥ 3-7-8<br />
<br />
अथवा ते ग्रहीष्यन्ति पुनरेष्यन्ति वा पुरम्।<br />
<br />
निरस्य समयं सर्वे पणोऽस्माकं भविष्यति॥ 3-7-9<br />
<br />
सर्वे भवामो मध्यस्था राज्ञश्छन्दानुवर्तिनः।<br />
<br />
छिद्रं बहु प्रपश्यन्तः पाण्डवानां सुसंवृताः॥ 3-7-10<br />
<br />
दुःशासन उवाच<br />
<br />
एवमेतन्महाप्राज्ञ यथा वदसि मातुल।<br />
<br />
नित्यं हि मे कथयतस्तव बुद्धिर्विरोचते॥ 3-7-11<br />
<br />
@तथा तद्भविता राजन्नान्यथा तद्भविष्यति॥@<br />
<br />
कर्ण उवाच<br />
<br />
काममीक्षामहे सर्वे दुर्योधन तवेप्सितम्।<br />
<br />
ऐकमत्यं हि नो राजन्सर्वेषामेव लक्षये॥ 3-7-12<br />
<br />
नागमिष्यन्ति ते धीरा अकृत्वा कालसंविदम्।<br />
<br />
आगमिष्यन्ति चेन्मोहात्पुनर्द्यूतेन ताञ्जय॥ 3-7-13<br />
<br />
वैशम्पायन उवाच<br />
<br />
एवमुक्तस्तु कर्णेन राजा दुर्योधनस्तदा।<br />
<br />
नातिहृष्टमनाः क्षिप्रमभवत्स पराङ्मुखः॥ 3-7-14<br />
<br />
उपलभ्य ततः कर्णो विवृत्य नयने शुभे।<br />
<br />
रोषाद्दुःशासनं चैव सौबलं च तमेव च॥ 3-7-15<br />
<br />
उवाच परमक्रुद्ध उद्यम्यात्मानमात्मना।<br />
<br />
अथो मम मतं यत्तु तन्निबोधत भूमिपाः॥ 3-7-16<br />
<br />
प्रियं सर्वे करिष्यामो राज्ञः किङ्करपाणयः।<br />
<br />
न चास्य शक्नुमः स्थातुं प्रिये सर्वे ह्यतन्द्रिताः॥ 3-7-17<br />
<br />
वयं तु शस्त्राण्यादाय रथानास्थाय दंशिताः।<br />
<br />
गच्छामः सहिता हन्तुं पाण्डवान्वनगोचरान्॥ 3-7-18<br />
<br />
तेषु सर्वेषु शान्तेषु गतेष्वविदितां गतिम्।<br />
<br />
निर्विवादा भविष्यन्ति धार्तराष्ट्रास्तथा वयम्॥ 3-7-19<br />
<br />
यावदेव परिद्यूना यावच्छोकपरायणाः।<br />
<br />
यावन्मित्रविहीनाश्च तावच्छक्या मतं मम॥ 3-7-20<br />
<br />
तस्य तद्वचनं श्रुत्वा पूजयन्तः पुनः पुनः।<br />
<br />
बाढमित्येव ते सर्वे प्रत्यूचुः सूतजं तदा॥ 3-7-21<br />
<br />
@एतत्कृत्यतमं राज्ञः कौरवस्य महात्मनः॥@<br />
<br />
एवमुक्त्वा सुसंरब्धा रथैः सर्वे पृथक्पृथक्।<br />
<br />
निर्ययुः पाण्डवान्हन्तुं सहिताः कृतनिश्चयाः॥ 3-7-22<br />
<br />
तान्प्रस्थितान्परिज्ञाय कृष्णद्वैपायनः प्रभुः।<br />
<br />
आजगाम विशुद्धात्मा दृष्ट्वा दिव्येन चक्षुषा॥ 3-7-23<br />
<br />
प्रतिषिध्याथ तान्सर्वान्भगवाँल्लोकपूजितः।<br />
<br />
प्रज्ञाचक्षुषमासीनमुवाचाभ्येत्य सत्वरम्॥ 3-7-24<br />
<br />
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि अरण्यपर्वणि व्यासागमने सप्तमोऽध्यायः॥ 7 ॥</div>
ShraddhaV
https://dharmawiki.org/index.php?title=Vanaparva_Adhyaya_6_(%E0%A4%B5%E0%A4%A8%E0%A4%AA%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A4%A3%E0%A4%BF_%E0%A4%85%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%83_%E0%A5%AC)&diff=120155
Vanaparva Adhyaya 6 (वनपर्वणि अध्यायः ६)
2019-08-03T13:09:26Z
<p>ShraddhaV: Added tags to shlokas</p>
<hr />
<div> गते तु विदुरे राजन्नाश्रमं पाण्डवान्प्रति।<br />
धृतराष्ट्रो महाप्राज्ञः पर्यतप्यत भारत॥ 3-6-1<br />
विदुरस्य प्रभावं च सन्धिविग्रहकारितम्।<br />
विवृद्धिं च परां मत्वा पाण्डवानां भविष्यति॥ 3-6-2<br />
स सभाद्वारमागम्य विदुरस्मारमोहितः।<br />
समक्षं पार्थिवेन्द्राणां पपाताविष्टचेतनः॥ 3-6-3<br />
स तु लब्ध्वा पुनः संज्ञां समुत्थाय महीतलात्।<br />
समीपोपस्थितं राजा सञ्जयं वाक्यमब्रवीत्॥ 3-6-4<br />
भ्राता मम सुहृच्चैव साक्षाद्धर्म इवापरः।<br />
तस्य स्मृत्याद्य सुभृशं हृदयं दीर्यतीव मे॥ 3-6-5<br />
तमानयस्व धर्मज्ञं मम भ्रातरमाशु वै।<br />
इति ब्रुवन्स नृपतिः कृपणं पर्यदेवयत्॥ 3-6-6<br />
पश्चात्तापाभिसन्तप्तो विदुरस्मारमोहितः।<br />
भ्रातृस्नेहादिदं राजा सञ्जयं वाक्यमब्रवीत्॥ 3-6-7<br />
गच्छ सञ्जय जानीहि भ्रातरं विदुरं मम।<br />
यदि जीवति रोषेण मया पापेन निर्धुतः॥ 3-6-8<br />
न हि तेन मम भ्रात्रा सुसूक्ष्ममपि किञ्चन।<br />
व्यलीकं कृतपूर्वं वै प्राज्ञेनामितबुद्धिना॥ 3-6-9<br />
स व्यलीकं परं प्राप्तो मत्तः परमबुद्धिमान्।<br />
त्यक्ष्यामि जीवितं प्राज्ञ तं गच्छानय सञ्जय॥ 3-6-10<br />
[[:Category:Dhrtarashtra and Vidura|''Dhrtarashtra and Vidura'']] <br />
<br />
तस्य तद्वचनं श्रुत्वा राज्ञस्तमनुमान्य च।<br />
सञ्जयो बाढमित्युक्त्वा प्राद्रवत्काम्यकं प्रति॥ 3-6-11<br />
सोऽचिरेण समासाद्य तद्वनं यत्र पाण्डवाः।<br />
रौरवाजिनसंवीतं ददर्शाथ युधिष्ठिरम्॥ 3-6-12<br />
विदुरेण सहासीनं ब्राह्मणैश्च सहस्रशः।<br />
भ्रातृभिश्चाभिसंगुप्तं देवैरिव पुरन्दरम्॥ 3-6-13<br />
युधिष्ठिरमुपागम्य पूजयामास सञ्जयः।<br />
भीमार्जुनयमाश्चापि तद्युक्तं प्रतिपेदिरे॥ 3-6-14<br />
राज्ञा पृष्टः स कुशलं सुखासीनश्च सञ्जयः।<br />
शशंसागमने हेतुमिदं चैवाब्रवीद्वचः॥ 3-6-15<br />
[[:Category:Sanjaya goes to Kamyavana|''Sanjaya goes to Kamyavana'']]<br />
<br />
सञ्जय उवाच<br />
<br />
राजा स्मरति ते क्षत्तर्धृतराष्ट्रोऽम्बिकासुतः।<br />
तं पश्य गत्वा त्वं क्षिप्रं सञ्जीवय च पार्थिवम्॥ 3-6-16<br />
सोऽनुमान्य नरश्रेष्ठान्पाण्डवान्कुरुनन्दनान्।<br />
नियोगाद्राजसिंहस्य गन्तुमर्हसि सत्तम॥ 3-6-17<br />
[[:Category:Vidura|''Vidura'']]<br />
<br />
वैशम्पायन उवाच<br />
<br />
एवमुक्तस्तु विदुरो धीमान्स्वजनवत्सलः[वल्लभः]।<br />
युधिष्ठिरस्यानुमते पुनरायाद्गजाह्वयम्॥ 3-6-18<br />
तमब्रवीन्महातेजा धृतराष्ट्रोऽम्बिकासुतः।<br />
दिष्ट्या प्राप्तोऽसि धर्मज्ञ दिष्ट्या स्मरसि मेऽनघ॥ 3-6-19<br />
अद्य रात्रौ दिवा चाहं त्वत्कृते भरतर्षभ।<br />
प्रजागरे प्रपश्यामि विचित्रं देहमात्मनः॥ 3-6-20<br />
सोऽङ्कमानीय विदुरं मूर्धन्याघ्राय चैव ह।<br />
क्षम्यतामिति चोवाच यदुक्तोऽसि मयानघ॥ 3-6-21<br />
[[:Category:Dhrtarashtra and Vidura|''Dhrtarashtra and Vidura'']] <br />
<br />
विदुर उवाच<br />
<br />
क्षान्तमेव मया राजन्गुरुर्मे परमो भवान्।<br />
एषोऽहमागतः शीघ्रं त्वद्दर्शनपरायणः॥ 3-6-22<br />
भवन्ति हि नरव्याघ्र पुरुषा धर्मचेतसः।<br />
दीनाभिपातिनो राजन्नात्र कार्या विचारणा॥ 3-6-23<br />
पाण्डोः सुता यादृशा मे तादृशास्तव भारत।<br />
दीना इतीव मे बुद्धिरभिपन्नाद्य तान्प्रति॥ 3-6-24<br />
[[:Category:Dhrtarashtra and Vidura|''Dhrtarashtra and Vidura'']] <br />
<br />
वैशम्पायन उवाच<br />
<br />
अन्योन्यमनुनीयैवं भ्रातरौ द्वौ महाद्युती।<br />
विदुरो धृतराष्ट्रश्च लेभाते परमां मुदम्॥ 3-6-25<br />
[[:Category:Dhrtarashtra and Vidura|''Dhrtarashtra and Vidura'']] <br />
<br />
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि अरण्यपर्वणि विदुरप्रत्यागमने षष्ठोऽध्यायः॥ 6 ॥</div>
ShraddhaV
https://dharmawiki.org/index.php?title=Vanaparva_Adhyaya_6_(%E0%A4%B5%E0%A4%A8%E0%A4%AA%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A4%A3%E0%A4%BF_%E0%A4%85%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%83_%E0%A5%AC)&diff=120154
Vanaparva Adhyaya 6 (वनपर्वणि अध्यायः ६)
2019-08-03T12:42:01Z
<p>ShraddhaV: </p>
<hr />
<div> गते तु विदुरे राजन्नाश्रमं पाण्डवान्प्रति।<br />
धृतराष्ट्रो महाप्राज्ञः पर्यतप्यत भारत॥ 3-6-1<br />
विदुरस्य प्रभावं च सन्धिविग्रहकारितम्।<br />
विवृद्धिं च परां मत्वा पाण्डवानां भविष्यति॥ 3-6-2<br />
स सभाद्वारमागम्य विदुरस्मारमोहितः।<br />
समक्षं पार्थिवेन्द्राणां पपाताविष्टचेतनः॥ 3-6-3<br />
स तु लब्ध्वा पुनः संज्ञां समुत्थाय महीतलात्।<br />
समीपोपस्थितं राजा सञ्जयं वाक्यमब्रवीत्॥ 3-6-4<br />
भ्राता मम सुहृच्चैव साक्षाद्धर्म इवापरः।<br />
तस्य स्मृत्याद्य सुभृशं हृदयं दीर्यतीव मे॥ 3-6-5<br />
तमानयस्व धर्मज्ञं मम भ्रातरमाशु वै।<br />
इति ब्रुवन्स नृपतिः कृपणं पर्यदेवयत्॥ 3-6-6<br />
पश्चात्तापाभिसन्तप्तो विदुरस्मारमोहितः।<br />
भ्रातृस्नेहादिदं राजा सञ्जयं वाक्यमब्रवीत्॥ 3-6-7<br />
गच्छ सञ्जय जानीहि भ्रातरं विदुरं मम।<br />
यदि जीवति रोषेण मया पापेन निर्धुतः॥ 3-6-8<br />
न हि तेन मम भ्रात्रा सुसूक्ष्ममपि किञ्चन।<br />
व्यलीकं कृतपूर्वं वै प्राज्ञेनामितबुद्धिना॥ 3-6-9<br />
स व्यलीकं परं प्राप्तो मत्तः परमबुद्धिमान्।<br />
त्यक्ष्यामि जीवितं प्राज्ञ तं गच्छानय सञ्जय॥ 3-6-10<br />
[[:Category:Dhrtarashtra and Vidura|''Dhrtarashtra and Vidura'']] <br />
<br />
तस्य तद्वचनं श्रुत्वा राज्ञस्तमनुमान्य च।<br />
<br />
सञ्जयो बाढमित्युक्त्वा प्राद्रवत्काम्यकं प्रति॥ 3-6-11<br />
<br />
सोऽचिरेण समासाद्य तद्वनं यत्र पाण्डवाः।<br />
<br />
रौरवाजिनसंवीतं ददर्शाथ युधिष्ठिरम्॥ 3-6-12<br />
<br />
विदुरेण सहासीनं ब्राह्मणैश्च सहस्रशः।<br />
<br />
भ्रातृभिश्चाभिसंगुप्तं देवैरिव पुरन्दरम्॥ 3-6-13<br />
<br />
युधिष्ठिरमुपागम्य पूजयामास सञ्जयः।<br />
<br />
भीमार्जुनयमाश्चापि तद्युक्तं प्रतिपेदिरे॥ 3-6-14<br />
<br />
राज्ञा पृष्टः स कुशलं सुखासीनश्च सञ्जयः।<br />
<br />
शशंसागमने हेतुमिदं चैवाब्रवीद्वचः॥ 3-6-15<br />
<br />
सञ्जय उवाच<br />
<br />
राजा स्मरति ते क्षत्तर्धृतराष्ट्रोऽम्बिकासुतः।<br />
<br />
तं पश्य गत्वा त्वं क्षिप्रं सञ्जीवय च पार्थिवम्॥ 3-6-16<br />
<br />
सोऽनुमान्य नरश्रेष्ठान्पाण्डवान्कुरुनन्दनान्।<br />
<br />
नियोगाद्राजसिंहस्य गन्तुमर्हसि सत्तम॥ 3-6-17<br />
<br />
वैशम्पायन उवाच<br />
<br />
एवमुक्तस्तु विदुरो धीमान्स्वजनवत्सलः[वल्लभः]।<br />
<br />
युधिष्ठिरस्यानुमते पुनरायाद्गजाह्वयम्॥ 3-6-18<br />
<br />
@सोऽभिगत्वा तदा वेश्म राज्ञस्तमभिवाद्य च।<br />
<br />
उपातिष्ठन्महात्मानं राजानं प्रत्यवर्तत॥@<br />
<br />
तमब्रवीन्महातेजा धृतराष्ट्रोऽम्बिकासुतः।<br />
<br />
दिष्ट्या प्राप्तोऽसि धर्मज्ञ दिष्ट्या स्मरसि मेऽनघ॥ 3-6-19<br />
<br />
अद्य रात्रौ दिवा चाहं त्वत्कृते भरतर्षभ।<br />
<br />
प्रजागरे प्रपश्यामि विचित्रं देहमात्मनः॥ 3-6-20<br />
<br />
@चिन्तयाऽहं परिल्लिष्टसः त्वद्गतेनान्तरात्मना॥@<br />
<br />
सोऽङ्कमानीय विदुरं मूर्धन्याघ्राय चैव ह।<br />
<br />
क्षम्यतामिति चोवाच यदुक्तोऽसि मयानघ॥ 3-6-21<br />
<br />
विदुर उवाच<br />
<br />
क्षान्तमेव मया राजन्गुरुर्मे परमो भवान्।<br />
<br />
एषोऽहमागतः शीघ्रं त्वद्दर्शनपरायणः॥ 3-6-22<br />
<br />
भवन्ति हि नरव्याघ्र पुरुषा धर्मचेतसः।<br />
<br />
दीनाभिपातिनो राजन्नात्र कार्या विचारणा॥ 3-6-23<br />
<br />
पाण्डोः सुता यादृशा मे तादृशास्तव भारत।<br />
<br />
दीना इतीव मे बुद्धिरभिपन्नाद्य तान्प्रति॥ 3-6-24<br />
<br />
वैशम्पायन उवाच<br />
<br />
अन्योन्यमनुनीयैवं भ्रातरौ द्वौ महाद्युती।<br />
<br />
विदुरो धृतराष्ट्रश्च लेभाते परमां मुदम्॥ 3-6-25<br />
<br />
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि अरण्यपर्वणि विदुरप्रत्यागमने षष्ठोऽध्यायः॥ 6 ॥</div>
ShraddhaV
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Vanaparva Adhyaya 6 (वनपर्वणि अध्यायः ६)
2019-07-27T04:00:22Z
<p>ShraddhaV: Created vanaparva aranyaparva adhyay 6 page. Added verses in the chapter</p>
<hr />
<div>गते तु विदुरे राजन्नाश्रमं पाण्डवान्प्रति।<br />
<br />
धृतराष्ट्रो महाप्राज्ञः पर्यतप्यत भारत॥ 3-6-1<br />
<br />
विदुरस्य प्रभावं च सन्धिविग्रहकारितम्।<br />
<br />
विवृद्धिं च परां मत्वा पाण्डवानां भविष्यति॥ 3-6-2<br />
<br />
स सभाद्वारमागम्य विदुरस्मारमोहितः।<br />
<br />
समक्षं पार्थिवेन्द्राणां पपाताविष्टचेतनः॥ 3-6-3<br />
<br />
स तु लब्ध्वा पुनः संज्ञां समुत्थाय महीतलात्।<br />
<br />
समीपोपस्थितं राजा सञ्जयं वाक्यमब्रवीत्॥ 3-6-4<br />
<br />
भ्राता मम सुहृच्चैव साक्षाद्धर्म इवापरः।<br />
<br />
तस्य स्मृत्याद्य सुभृशं हृदयं दीर्यतीव मे॥ 3-6-5<br />
<br />
तमानयस्व धर्मज्ञं मम भ्रातरमाशु वै।<br />
<br />
इति ब्रुवन्स नृपतिः कृपणं पर्यदेवयत्॥ 3-6-6<br />
<br />
पश्चात्तापाभिसन्तप्तो विदुरस्मारमोहितः।<br />
<br />
भ्रातृस्नेहादिदं राजा सञ्जयं वाक्यमब्रवीत्॥ 3-6-7<br />
<br />
गच्छ सञ्जय जानीहि भ्रातरं विदुरं मम।<br />
<br />
यदि जीवति रोषेण मया पापेन निर्धुतः॥ 3-6-8<br />
<br />
न हि तेन मम भ्रात्रा सुसूक्ष्ममपि किञ्चन।<br />
<br />
व्यलीकं कृतपूर्वं वै प्राज्ञेनामितबुद्धिना॥ 3-6-9<br />
<br />
स व्यलीकं परं प्राप्तो मत्तः परमबुद्धिमान्।<br />
<br />
त्यक्ष्यामि जीवितं प्राज्ञ तं गच्छानय सञ्जय॥ 3-6-10<br />
<br />
तस्य तद्वचनं श्रुत्वा राज्ञस्तमनुमान्य च।<br />
<br />
सञ्जयो बाढमित्युक्त्वा प्राद्रवत्काम्यकं प्रति॥ 3-6-11<br />
<br />
सोऽचिरेण समासाद्य तद्वनं यत्र पाण्डवाः।<br />
<br />
रौरवाजिनसंवीतं ददर्शाथ युधिष्ठिरम्॥ 3-6-12<br />
<br />
विदुरेण सहासीनं ब्राह्मणैश्च सहस्रशः।<br />
<br />
भ्रातृभिश्चाभिसंगुप्तं देवैरिव पुरन्दरम्॥ 3-6-13<br />
<br />
युधिष्ठिरमुपागम्य पूजयामास सञ्जयः।<br />
<br />
भीमार्जुनयमाश्चापि तद्युक्तं प्रतिपेदिरे॥ 3-6-14<br />
<br />
राज्ञा पृष्टः स कुशलं सुखासीनश्च सञ्जयः।<br />
<br />
शशंसागमने हेतुमिदं चैवाब्रवीद्वचः॥ 3-6-15<br />
<br />
सञ्जय उवाच<br />
<br />
राजा स्मरति ते क्षत्तर्धृतराष्ट्रोऽम्बिकासुतः।<br />
<br />
तं पश्य गत्वा त्वं क्षिप्रं सञ्जीवय च पार्थिवम्॥ 3-6-16<br />
<br />
सोऽनुमान्य नरश्रेष्ठान्पाण्डवान्कुरुनन्दनान्।<br />
<br />
नियोगाद्राजसिंहस्य गन्तुमर्हसि सत्तम॥ 3-6-17<br />
<br />
वैशम्पायन उवाच<br />
<br />
एवमुक्तस्तु विदुरो धीमान्स्वजनवत्सलः[वल्लभः]।<br />
<br />
युधिष्ठिरस्यानुमते पुनरायाद्गजाह्वयम्॥ 3-6-18<br />
<br />
@सोऽभिगत्वा तदा वेश्म राज्ञस्तमभिवाद्य च।<br />
<br />
उपातिष्ठन्महात्मानं राजानं प्रत्यवर्तत॥@<br />
<br />
तमब्रवीन्महातेजा धृतराष्ट्रोऽम्बिकासुतः।<br />
<br />
दिष्ट्या प्राप्तोऽसि धर्मज्ञ दिष्ट्या स्मरसि मेऽनघ॥ 3-6-19<br />
<br />
अद्य रात्रौ दिवा चाहं त्वत्कृते भरतर्षभ।<br />
<br />
प्रजागरे प्रपश्यामि विचित्रं देहमात्मनः॥ 3-6-20<br />
<br />
@चिन्तयाऽहं परिल्लिष्टसः त्वद्गतेनान्तरात्मना॥@<br />
<br />
सोऽङ्कमानीय विदुरं मूर्धन्याघ्राय चैव ह।<br />
<br />
क्षम्यतामिति चोवाच यदुक्तोऽसि मयानघ॥ 3-6-21<br />
<br />
विदुर उवाच<br />
<br />
क्षान्तमेव मया राजन्गुरुर्मे परमो भवान्।<br />
<br />
एषोऽहमागतः शीघ्रं त्वद्दर्शनपरायणः॥ 3-6-22<br />
<br />
भवन्ति हि नरव्याघ्र पुरुषा धर्मचेतसः।<br />
<br />
दीनाभिपातिनो राजन्नात्र कार्या विचारणा॥ 3-6-23<br />
<br />
पाण्डोः सुता यादृशा मे तादृशास्तव भारत।<br />
<br />
दीना इतीव मे बुद्धिरभिपन्नाद्य तान्प्रति॥ 3-6-24<br />
<br />
वैशम्पायन उवाच<br />
<br />
अन्योन्यमनुनीयैवं भ्रातरौ द्वौ महाद्युती।<br />
<br />
विदुरो धृतराष्ट्रश्च लेभाते परमां मुदम्॥ 3-6-25<br />
<br />
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि अरण्यपर्वणि विदुरप्रत्यागमने षष्ठोऽध्यायः॥ 6 ॥</div>
ShraddhaV
https://dharmawiki.org/index.php?title=Vanaparva_Adhyaya_5_(%E0%A4%B5%E0%A4%A8%E0%A4%AA%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A4%A3%E0%A4%BF_%E0%A4%85%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%83_%E0%A5%AB)&diff=119986
Vanaparva Adhyaya 5 (वनपर्वणि अध्यायः ५)
2019-07-22T02:28:11Z
<p>ShraddhaV: Added tag words to chapter 5 shlokas</p>
<hr />
<div>वैशम्पायन उवाच<br />
<br />
पाण्डवास्तु वने वासमुद्दिश्य भरतर्षभाः।<br />
प्रययुः जाह्नवीकूलात्कुरुक्षेत्रं सहानुगाः॥ 3-5-1<br />
सरस्वतीदृषद्वत्यौ यमुनां च निषेव्य ते।<br />
ययुर्वनेनैव वनं सततं पश्चिमां दिशम्॥ 3-5-2<br />
[[:Category:Pandava's exile|''Pandava's exile'']] [[:Category:वनवास|''वनवास'']]<br />
<br />
ततः सरस्वतीकूले समेषु मरुधन्वसु।<br />
काम्यकं नाम ददृशुर्वनं मुनिजनप्रियम्॥ 3-5-3<br />
तत्र ते न्यवसन्वीरा वने बहुमृगद्विजे।<br />
अन्वास्यमाना मुनिभिः सान्त्व्यमानाश्च भारत॥ 3-5-4<br />
[[:Category:Kamyavan|''Kamyavan'']] [[:Category:काम्यवन|''काम्यवन'']]<br />
<br />
विदुरस्त्वथ पाण्डूनां सदा दर्शनलालसः।<br />
जगामैकरथेनैव काम्यकं वनमृद्धिमत्॥ 3-5-5<br />
ततो गत्वा विदुरः काम्यकं तच्छीघ्रैरश्वैर्वाहिना स्यन्दनेन।<br />
ददर्शासीनं धर्मात्मानं विविक्ते सार्धं द्रौपद्या भातृभिर्ब्राह्मणैश्च॥ 3-5-6<br />
ततोऽपश्यद्विदुरं तूर्णमारादभ्यायान्तं सत्यसन्धः स राजा।<br />
अथाब्रवीद्भ्रातरं भीमसेनं किं नु क्षत्ता वक्ष्यति नः समेत्य॥ 3-5-7<br />
[[:Category:Vidura meets Pandavas|''Vidura meets Pandavas'']] [[:Category:विदुर पांडव मिलन |''विदुर पांडव मिलन '']]<br />
<br />
कच्चिन्नायं वचनात्सौबलस्य समाह्वाता देवनायोपयातः।<br />
<br />
कच्चित्क्षुद्रः शकुनिर्नायुधानि जेष्यत्यस्मान्पुनरेवाक्षवत्याम्॥ 3-5-8<br />
<br />
समाहूतः केनचिदाद्रवेति नाहं शक्तो भीमसेनापयातुम्।<br />
<br />
गाण्डीवे च संशयिते कथं नु राज्यप्राप्तिः संशयिता भवेन्नः॥ 3-5-9<br />
<br />
वैशम्पायन उवाच<br />
<br />
तत उत्थाय विदुरं पाण्डवेयाः प्रत्यगृह्णन्नृपते सर्व एव।<br />
तैः सत्कृतः स च तानाजमीढो यथोचितं पाण्डुपुत्रान्समेयात्॥ 3-5-10<br />
समाश्वस्तं विदुरं ते नरर्षभास्ततोऽपृच्छन्नागमनाय हेतुम्।<br />
स चापि तेभ्यो विस्तरतः शशंस यथावृत्तो धृतराष्ट्रोऽम्बिकेयः॥ 3-5-11<br />
[[:Category:Vidura Pandava conversation|''Vidura Pandava conversation'']]<br />
<br />
विदुर उवाच<br />
<br />
अवोचन्मां धृतराष्ट्रोऽनुगुप्तमजातशत्रो परिगृह्याभिपूज्य।<br />
एवं गते समतामभ्युपेत्य पथ्यं तेषां मम चैव ब्रवीहि॥ 3-5-12<br />
मयाप्युक्तं यत्क्षेमं कौरवाणां हितं पथ्यं धृतराष्ट्रस्य चैव।<br />
तद्वै तस्मै न रुचामभ्युपैति ततश्चाहं क्षेममन्यन्न मन्ये॥ 3-5-13<br />
[[:Category:Vidura Pandava conversation|''Vidura Pandava conversation'']]<br />
<br />
परं श्रेयः पाण्डवेया मयोक्तं न मे तच्च श्रुतवानाम्बिकेयः।<br />
यथाऽऽतुरस्येव हि पथ्यमन्नं न रोचते स्मास्य तदुच्यमानम्॥ 3-5-14<br />
[[:Category:Vidura Pandava conversation|''Vidura Pandava conversation'']] [[:Category:Accepting advice|''Accepting advice'']]<br />
<br />
<br />
न श्रेयसे नीयतेऽजातशत्रो स्त्री श्रोत्रियस्येव गृहे प्रदुष्टा।<br />
ध्रुवं न रोचेद्भरतर्षभस्य पतिः कुमार्या इव षष्टिवर्षः॥ 3-5-15<br />
[[:Category:Vidura Pandava conversation|''Vidura Pandava conversation'']] [[:Category:Accepting advice|''Accepting advice'']]<br />
<br />
ध्रुवं विनाशो नृप कौरवाणां न वै श्रेयो धृतराष्ट्रः परैति।<br />
यथा च पर्णे पुष्करस्यावसिक्तं जलं न तिष्ठेत्पथ्यमुक्तं तथास्मिन्॥ 3-5-16<br />
[[:Category:Vidura Pandava conversation|''Vidura Pandava conversation'']] [[:Category:Accepting advice|''Accepting advice'']]<br />
<br />
ततः क्रुद्धो धृतराष्ट्रोऽब्रवीन्मां यस्मिन्श्रद्धा भारत तत्र याहि।<br />
नाहं भूयः कामये त्वां सहायं महीमिमां पालयितुं पुरं वा॥ 3-5-17<br />
[[:Category:Vidura Pandava conversation|''Vidura Pandava conversation'']] [[:Category:Dhrtarashtra|''Dhrtarashtra'']]<br />
<br />
सोऽहं त्यक्तो धृतराष्ट्रेण राज्ञा प्रशासितुं त्वामुपयातो नरेन्द्र।<br />
तद्वै सर्वं यन्मयोक्तं सभायां तद्धार्यतां यत्प्रवक्ष्यामि भूयः॥ 3-5-18<br />
[[:Category:Vidura Pandava conversation|''Vidura Pandava conversation'']] [[:Category:Qualities of a king|''Qualities of a king'']]<br />
<br />
क्लेशैस्तीव्रैर्युज्यमानः सपत्नैः क्षमां कुर्वन्कालमुपासते यः।<br />
संवर्धयन्स्तोकमिवाग्निमात्मवान्स वै भुङ्क्ते पृथिवीमेक एव॥ 3-5-19<br />
[[:Category:Vidura Pandava conversation|''Vidura Pandava conversation'']] [[:Category:Qualities of a king|''Qualities of a king'']]<br />
<br />
यस्याविभक्तं वसु राजन्सहायैस्तस्य दुःखेऽप्यंशभाजः सहायाः।<br />
सहायानामेष सङ्ग्रहणेऽध्युपायः सहायाप्तौ पृथिवीप्राप्तिमाहुः॥ 3-5-20<br />
[[:Category:Vidura Pandava conversation|''Vidura Pandava conversation'']] [[:Category:Qualities of a king|''Qualities of a king'']]<br />
<br />
सत्यं श्रेष्ठं पाण्डव विप्रलापं तुल्यं चान्नं सह भोज्यं सहायैः।<br />
आत्मा चैषामग्रतो न स्म पूज्य एवंवृत्तिवर्धते भूमिपालः॥ 3-5-21<br />
[[:Category:Vidura Pandava conversation|''Vidura Pandava conversation'']] [[:Category:Qualities of a king|''Qualities of a king'']]<br />
<br />
युधिष्ठिर उवाच<br />
<br />
एवं करिष्यामि यथा ब्रवीषि परां बुद्धिमुपगम्याप्रमत्तः।<br />
यच्चाप्यन्यद्देशकालोपपन्नं तद्वै वाच्यं तत्करिष्यामि कृत्स्नम्॥ 3-5-22<br />
[[:Category:Vidura Pandava conversation|''Vidura Pandava conversation'']]<br />
<br />
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि अरण्यपर्वणि विदुरनिर्वासे पञ्चमोऽध्यायः॥ 5 ॥</div>
ShraddhaV
https://dharmawiki.org/index.php?title=Vanaparva_Adhyaya_4_(%E0%A4%B5%E0%A4%A8%E0%A4%AA%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A4%A3%E0%A4%BF_%E0%A4%85%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%83_%E0%A5%AA)&diff=119985
Vanaparva Adhyaya 4 (वनपर्वणि अध्यायः ४)
2019-07-22T02:03:44Z
<p>ShraddhaV: Corrected spellings as per phonetics</p>
<hr />
<div>वैशम्पायन उवाच<br />
<br />
वनं प्रविष्टेष्वथ पाण्डवेषु प्रज्ञाचक्षुस्तप्यमानोऽम्बिकेयः।<br />
<br />
धर्मात्मानं विदुरमगाधबुद्धिं सुखासीनो वाक्यमुवाच राजा॥ 3-4-1<br />
<br />
धृतराष्ट्र उवाच<br />
<br />
प्रज्ञा च ते भार्गवस्येव शुद्धा धर्म च त्वं परमं वेत्थ सूक्ष्मम्।<br />
समश्च त्वं सम्मतः कौरवाणां पथ्यं चैषां मम चैव ब्रवीहि॥ 3-4-2<br />
[[:Category:Vidura|''Vidura'']]<br />
<br />
एवं गते विदुर यदद्य कार्यं पौराश्च मे कथमस्मान्भजेरन्।<br />
ते चाप्यस्मान्नोद्धरेयुः समूलांस्तत्त्वं ब्रूयाः साधुकार्याणि वेत्सि॥ 3-4-3<br />
[[:Category:Dharma|''Dharma'']]<br />
<br />
न कामये तांश्च विनश्यमानान्॥<br />
<br />
सौबलेनैव पापेन दुर्योधनहितैषिणा।<br />
<br />
क्रूरमाचरितं क्षत्तर्न मे प्रियमनुष्ठितम्॥<br />
<br />
तथैवाङ्गीकृते तव तद्भवान्वक्तुमर्हति।<br />
<br />
उत्तरं प्राप्तकालं च किमन्यन्मन्यते क्षमम्॥<br />
<br />
नास्ति धर्मे सहायत्वमिति मे दीर्यते मनः।<br />
<br />
यत्र पाण्डुसुतास्सर्वे क्लिश्यन्ति वनमागताः॥<br />
<br />
विदुर उवाच<br />
<br />
त्रिवर्गोऽयं धर्ममूलो नरेन्द्र राज्यं चेदं धर्ममूलं वदन्ति।<br />
धर्मे राजन्वर्तमानः स्वशक्त्या पुत्रान्सर्वान्पाहि पाण्डोः सुतांश्च॥ 3-4-4<br />
<br />
स वै धर्मो विप्रलब्धः सभायां पापात्मभिः सौबलेयप्रधानैः।<br />
आहूय कुन्तीसुतमक्षवत्यां पराजैषीत्सत्यसन्धं सुतस्ते॥ 3-4-5<br />
<br />
एतस्य ते दुष्प्रणीतस्य राजञ्छेषस्याहं परिपश्याम्युपायम्।<br />
यथा पुत्रस्तव कौरव्य पापान्मुक्तो लोके प्रतितिष्ठेत साधु॥ 3-4-6<br />
<br />
तद्वै सर्वं पाण्डुपुत्रा लभन्तां यत्तद्राजन्नभिसृष्टं त्वयाऽऽसीत्।<br />
एष धर्मः परमो यत्स्वकेन राजा तुष्येन्न परस्वेषु गृध्येत्॥ 3-4-7<br />
<br />
यशो न नश्येज्ज्ञातिभेदश्च न स्याद्धर्मो न स्यान्नैव चैवं कृते त्वाम्।<br />
एतत्कार्यं तव सर्वप्रधानं तेषां तुष्टिः शकुनेश्चावमानः॥ 3-4-8<br />
<br />
एवं शेषं यदि पुत्रेषु ते स्यादेतद्राजंस्त्वरमाणः कुरुष्व।<br />
तथैतदेवं न करोषि राजन्ध्रुवं कुरूणां भविता विनाशः॥ 3-4-9<br />
<br />
न हि क्रुद्धो भीमसेनोऽर्जुनो वा शेषं कुर्याच्छात्रवाणामनीके।<br />
येषां योद्धा सव्यसाची कृतास्त्रो धनुर्येषां गाण्डिवं लोकसारम्॥ 3-4-10<br />
येषां भीमो बाहुशाली च योद्धा तेषां लोके किं नु न प्राप्यमस्ति।<br />
उक्तं पूर्वं जातमात्रे सुते ते मया यत्ते हितमासीत्तदानीम्॥ 3-4-11<br />
पुत्रं त्यजेममहितं कुलस्य हितं परं न च तत्त्वं चकर्थ।<br />
इदं च राजन्हितमुक्तं न चेत्त्वमेवं कर्ता परितप्तासि पश्चात्॥ 3-4-12<br />
यद्येतदेवमनुमन्ता सुतस्ते सम्प्रीयमाणः पाण्डवैरेकराज्यम्।<br />
तापो न ते भविता प्रीतियोगान्न चेन्निगृह्णीष्व सुतं सुखाय॥ 3-4-13<br />
दुर्योधनं त्वहितं वै निगृह्य पाण्डोः पुत्रं प्रकुरुष्वाधिपत्ये।<br />
अजातशत्रुर्हि विमुक्तरागो धर्मेणेमां पृथिवीं शास्तु राजन्॥ 3-4-14<br />
ततो राजन्पार्थिवाः सर्व एव वैश्या इवास्मानुपतिष्ठन्तु सद्यः।<br />
दुर्योधनः शकुनिः सूतपुत्रः प्रीत्या राजन्पाण्डुपुत्रान्भजन्तु॥ 3-4-15<br />
दुःशासनो याचतु भीमसेनं सभामध्ये द्रुपदस्यात्मजां च।<br />
युधिष्ठिरं त्वं परिसान्त्वयस्व राज्ये चैनं स्थापयस्वाभिपूज्य॥ 3-4-16<br />
त्वया पृष्टः किमहमन्यद्वदेयमेतत्कृत्वा कृतकृत्योऽसि राजन्॥ 3-4-16<br />
[[:Category:Duryodhana|''Duryodhana'']]<br />
<br />
धृतराष्ट्र उवाच<br />
<br />
एतद्वाक्यं विदुर यत्ते सभायामिह प्रोक्तं पाण्डवान्प्राप्य मां च।<br />
हितं तेषामहितं मामकानामेतत्सर्वं मम नावैति चेतः॥ 3-4-17<br />
इदं त्विदानीं गत एव निश्चितं तेषामर्थे पाण्डवानां यदात्थ।<br />
तेनाद्य मन्ये नासि हितो ममेति कथं हि पुत्रं पाण्डवार्थे त्यजेयम्॥ 3-4-18<br />
असंशयं तेऽपि ममैव पुत्रा दुर्योधनस्तु मम देहात्प्रसूतः।<br />
स्वं वै देहं परहेतोस्त्यजेति को तु ब्रूयात्समतामन्ववेक्ष्य॥ 3-4-19<br />
स मां जिह्मं विदुर सर्वं ब्रवीषि मानं च तेऽहमधिकं धारयामि।<br />
यथेच्छकं गच्छ वा तिष्ठ वा त्वं सुसान्त्व्यमानाप्यसती स्त्री जहाति॥ 3-4-20<br />
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<br />
वैशम्पायन उवाच<br />
<br />
एतावदुक्त्वा धृतराष्ट्रोऽन्वपद्यदन्तर्वेश्म सहसोत्थाय राजन्।<br />
नेदमस्तीत्यथ विदुरो भाषमाणः सम्प्राद्रवद्यत्र पार्था बभूवुः॥ 3-4-21<br />
[[:Category:Dhrtarashtra|''Dhrtarashtra]] [[:Category:Vidura|''Vidura'']] <br />
<br />
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि अरण्यपर्वणि विदुरवाक्यप्रत्याख्याने चतुर्थोऽध्यायः॥ 4 ॥</div>
ShraddhaV
https://dharmawiki.org/index.php?title=Vanaparva_Adhyaya_4_(%E0%A4%B5%E0%A4%A8%E0%A4%AA%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A4%A3%E0%A4%BF_%E0%A4%85%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%83_%E0%A5%AA)&diff=119883
Vanaparva Adhyaya 4 (वनपर्वणि अध्यायः ४)
2019-07-18T11:48:29Z
<p>ShraddhaV: </p>
<hr />
<div>वैशम्पायन उवाच<br />
<br />
वनं प्रविष्टेष्वथ पाण्डवेषु प्रज्ञाचक्षुस्तप्यमानोऽम्बिकेयः।<br />
<br />
धर्मात्मानं विदुरमगाधबुद्धिं सुखासीनो वाक्यमुवाच राजा॥ 3-4-1<br />
<br />
धृतराष्ट्र उवाच<br />
<br />
प्रज्ञा च ते भार्गवस्येव शुद्धा धर्म च त्वं परमं वेत्थ सूक्ष्मम्।<br />
समश्च त्वं सम्मतः कौरवाणां पथ्यं चैषां मम चैव ब्रवीहि॥ 3-4-2<br />
[[:Category:Vidur|''Vidur'']]<br />
<br />
एवं गते विदुर यदद्य कार्यं पौराश्च मे कथमस्मान्भजेरन्।<br />
ते चाप्यस्मान्नोद्धरेयुः समूलांस्तत्त्वं ब्रूयाः साधुकार्याणि वेत्सि॥ 3-4-3<br />
[[:Category:Dharma|''Dharma'']]<br />
<br />
न कामये तांश्च विनश्यमानान्॥<br />
<br />
सौबलेनैव पापेन दुर्योधनहितैषिणा।<br />
<br />
क्रूरमाचरितं क्षत्तर्न मे प्रियमनुष्ठितम्॥<br />
<br />
तथैवाङ्गीकृते तव तद्भवान्वक्तुमर्हति।<br />
<br />
उत्तरं प्राप्तकालं च किमन्यन्मन्यते क्षमम्॥<br />
<br />
नास्ति धर्मे सहायत्वमिति मे दीर्यते मनः।<br />
<br />
यत्र पाण्डुसुतास्सर्वे क्लिश्यन्ति वनमागताः॥<br />
<br />
विदुर उवाच<br />
<br />
त्रिवर्गोऽयं धर्ममूलो नरेन्द्र राज्यं चेदं धर्ममूलं वदन्ति।<br />
धर्मे राजन्वर्तमानः स्वशक्त्या पुत्रान्सर्वान्पाहि पाण्डोः सुतांश्च॥ 3-4-4<br />
<br />
स वै धर्मो विप्रलब्धः सभायां पापात्मभिः सौबलेयप्रधानैः।<br />
आहूय कुन्तीसुतमक्षवत्यां पराजैषीत्सत्यसन्धं सुतस्ते॥ 3-4-5<br />
<br />
एतस्य ते दुष्प्रणीतस्य राजञ्छेषस्याहं परिपश्याम्युपायम्।<br />
यथा पुत्रस्तव कौरव्य पापान्मुक्तो लोके प्रतितिष्ठेत साधु॥ 3-4-6<br />
<br />
तद्वै सर्वं पाण्डुपुत्रा लभन्तां यत्तद्राजन्नभिसृष्टं त्वयाऽऽसीत्।<br />
एष धर्मः परमो यत्स्वकेन राजा तुष्येन्न परस्वेषु गृध्येत्॥ 3-4-7<br />
<br />
यशो न नश्येज्ज्ञातिभेदश्च न स्याद्धर्मो न स्यान्नैव चैवं कृते त्वाम्।<br />
एतत्कार्यं तव सर्वप्रधानं तेषां तुष्टिः शकुनेश्चावमानः॥ 3-4-8<br />
<br />
एवं शेषं यदि पुत्रेषु ते स्यादेतद्राजंस्त्वरमाणः कुरुष्व।<br />
तथैतदेवं न करोषि राजन्ध्रुवं कुरूणां भविता विनाशः॥ 3-4-9<br />
<br />
न हि क्रुद्धो भीमसेनोऽर्जुनो वा शेषं कुर्याच्छात्रवाणामनीके।<br />
येषां योद्धा सव्यसाची कृतास्त्रो धनुर्येषां गाण्डिवं लोकसारम्॥ 3-4-10<br />
येषां भीमो बाहुशाली च योद्धा तेषां लोके किं नु न प्राप्यमस्ति।<br />
उक्तं पूर्वं जातमात्रे सुते ते मया यत्ते हितमासीत्तदानीम्॥ 3-4-11<br />
पुत्रं त्यजेममहितं कुलस्य हितं परं न च तत्त्वं चकर्थ।<br />
इदं च राजन्हितमुक्तं न चेत्त्वमेवं कर्ता परितप्तासि पश्चात्॥ 3-4-12<br />
यद्येतदेवमनुमन्ता सुतस्ते सम्प्रीयमाणः पाण्डवैरेकराज्यम्।<br />
तापो न ते भविता प्रीतियोगान्न चेन्निगृह्णीष्व सुतं सुखाय॥ 3-4-13<br />
दुर्योधनं त्वहितं वै निगृह्य पाण्डोः पुत्रं प्रकुरुष्वाधिपत्ये।<br />
अजातशत्रुर्हि विमुक्तरागो धर्मेणेमां पृथिवीं शास्तु राजन्॥ 3-4-14<br />
ततो राजन्पार्थिवाः सर्व एव वैश्या इवास्मानुपतिष्ठन्तु सद्यः।<br />
दुर्योधनः शकुनिः सूतपुत्रः प्रीत्या राजन्पाण्डुपुत्रान्भजन्तु॥ 3-4-15<br />
दुःशासनो याचतु भीमसेनं सभामध्ये द्रुपदस्यात्मजां च।<br />
युधिष्ठिरं त्वं परिसान्त्वयस्व राज्ये चैनं स्थापयस्वाभिपूज्य॥ 3-4-16<br />
त्वया पृष्टः किमहमन्यद्वदेयमेतत्कृत्वा कृतकृत्योऽसि राजन्॥ 3-4-16<br />
[[:Category:Duryodhan|''Duryodhan'']]<br />
<br />
धृतराष्ट्र उवाच<br />
<br />
एतद्वाक्यं विदुर यत्ते सभायामिह प्रोक्तं पाण्डवान्प्राप्य मां च।<br />
हितं तेषामहितं मामकानामेतत्सर्वं मम नावैति चेतः॥ 3-4-17<br />
इदं त्विदानीं गत एव निश्चितं तेषामर्थे पाण्डवानां यदात्थ।<br />
तेनाद्य मन्ये नासि हितो ममेति कथं हि पुत्रं पाण्डवार्थे त्यजेयम्॥ 3-4-18<br />
असंशयं तेऽपि ममैव पुत्रा दुर्योधनस्तु मम देहात्प्रसूतः।<br />
स्वं वै देहं परहेतोस्त्यजेति को तु ब्रूयात्समतामन्ववेक्ष्य॥ 3-4-19<br />
स मां जिह्मं विदुर सर्वं ब्रवीषि मानं च तेऽहमधिकं धारयामि।<br />
यथेच्छकं गच्छ वा तिष्ठ वा त्वं सुसान्त्व्यमानाप्यसती स्त्री जहाति॥ 3-4-20<br />
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<br />
वैशम्पायन उवाच<br />
<br />
एतावदुक्त्वा धृतराष्ट्रोऽन्वपद्यदन्तर्वेश्म सहसोत्थाय राजन्।<br />
नेदमस्तीत्यथ विदुरो भाषमाणः सम्प्राद्रवद्यत्र पार्था बभूवुः॥ 3-4-21<br />
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<br />
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि अरण्यपर्वणि विदुरवाक्यप्रत्याख्याने चतुर्थोऽध्यायः॥ 4 ॥</div>
ShraddhaV
https://dharmawiki.org/index.php?title=User:ShraddhaV&diff=119870
User:ShraddhaV
2019-07-17T14:47:59Z
<p>ShraddhaV: </p>
<hr />
<div>वैशम्पायन उवाच<br />
पाण्डवास्तु वने वासमुद्दिश्य भरतर्षभाः।<br />
प्रययुः जाह्नवीकूलात्कुरुक्षेत्रं सहानुगाः॥ 3-5-1<br />
<br />
सरस्वतीदृषद्वत्यौ यमुनां च निषेव्य ते।<br />
ययुर्वनेनैव वनं सततं पश्चिमां दिशम्॥ 3-5-2<br />
<br />
ततः सरस्वतीकूले समेषु मरुधन्वसु।<br />
काम्यकं नाम ददृशुर्वनं मुनिजनप्रियम्॥ 3-5-3<br />
<br />
तत्र ते न्यवसन्वीरा वने बहुमृगद्विजे।<br />
अन्वास्यमाना मुनिभिः सान्त्व्यमानाश्च भारत॥ 3-5-4<br />
<br />
विदुरस्त्वथ पाण्डूनां सदा दर्शनलालसः।<br />
जगामैकरथेनैव काम्यकं वनमृद्धिमत्॥ 3-5-5<br />
<br />
ततो गत्वा विदुरः काम्यकं तच्छीघ्रैरश्वैर्वाहिना स्यन्दनेन।<br />
ददर्शासीनं धर्मात्मानं विविक्ते सार्धं द्रौपद्या भातृभिर्ब्राह्मणैश्च॥ 3-5-6<br />
<br />
ततोऽपश्यद्विदुरं तूर्णमारादभ्यायान्तं सत्यसन्धः स राजा।<br />
अथाब्रवीद्भ्रातरं भीमसेनं किं नु क्षत्ता वक्ष्यति नः समेत्य॥ 3-5-7<br />
<br />
कच्चिन्नायं वचनात्सौबलस्य समाह्वाता देवनायोपयातः।<br />
कच्चित्क्षुद्रः शकुनिर्नायुधानि जेष्यत्यस्मान्पुनरेवाक्षवत्याम्॥ 3-5-8<br />
<br />
समाहूतः केनचिदाद्रवेति नाहं शक्तो भीमसेनापयातुम्।<br />
गाण्डीवे च संशयिते कथं नु राज्यप्राप्तिः संशयिता भवेन्नः॥ 3-5-9<br />
<br />
वैशम्पायन उवाच<br />
तत उत्थाय विदुरं पाण्डवेयाः प्रत्यगृह्णन्नृपते सर्व एव।<br />
<br />
तैः सत्कृतः स च तानाजमीढो यथोचितं पाण्डुपुत्रान्समेयात्॥ 3-5-10<br />
समाश्वस्तं विदुरं ते नरर्षभास्ततोऽपृच्छन्नागमनाय हेतुम्।<br />
<br />
स चापि तेभ्यो विस्तरतः शशंस यथावृत्तो धृतराष्ट्रोऽम्बिकेयः॥ 3-5-11<br />
विदुर उवाच<br />
<br />
अवोचन्मां धृतराष्ट्रोऽनुगुप्तमजातशत्रो परिगृह्याभिपूज्य।<br />
एवं गते समतामभ्युपेत्य पथ्यं तेषां मम चैव ब्रवीहि॥ 3-5-12<br />
<br />
मयाप्युक्तं यत्क्षेमं कौरवाणां हितं पथ्यं धृतराष्ट्रस्य चैव।<br />
तद्वै तस्मै न रुचामभ्युपैति ततश्चाहं क्षेममन्यन्न मन्ये॥ 3-5-13<br />
<br />
परं श्रेयः पाण्डवेया मयोक्तं न मे तच्च श्रुतवानाम्बिकेयः।<br />
यथाऽऽतुरस्येव हि पथ्यमन्नं न रोचते स्मास्य तदुच्यमानम्॥ 3-5-14<br />
<br />
न श्रेयसे नीयतेऽजातशत्रो स्त्री श्रोत्रियस्येव गृहे प्रदुष्टा।<br />
ध्रुवं न रोचेद्भरतर्षभस्य पतिः कुमार्या इव षष्टिवर्षः॥ 3-5-15<br />
<br />
ध्रुवं विनाशो नृप कौरवाणां न वै श्रेयो धृतराष्ट्रः परैति।<br />
यथा च पर्णे पुष्करस्यावसिक्तं जलं न तिष्ठेत्पथ्यमुक्तं तथास्मिन्॥ 3-5-16<br />
<br />
ततः क्रुद्धो धृतराष्ट्रोऽब्रवीन्मां यस्मिन्श्रद्धा भारत तत्र याहि।<br />
नाहं भूयः कामये त्वां सहायं महीमिमां पालयितुं पुरं वा॥ 3-5-17<br />
<br />
सोऽहं त्यक्तो धृतराष्ट्रेण राज्ञा प्रशासितुं त्वामुपयातो नरेन्द्र।<br />
तद्वै सर्वं यन्मयोक्तं सभायां तद्धार्यतां यत्प्रवक्ष्यामि भूयः॥ 3-5-18<br />
<br />
क्लेशैस्तीव्रैर्युज्यमानः सपत्नैः क्षमां कुर्वन्कालमुपासते यः।<br />
संवर्धयन्स्तोकमिवाग्निमात्मवान्स वै भुङ्क्ते पृथिवीमेक एव॥ 3-5-19<br />
<br />
यस्याविभक्तं वसु राजन्सहायैस्तस्य दुःखेऽप्यंशभाजः सहायाः।<br />
सहायानामेष सङ्ग्रहणेऽध्युपायः सहायाप्तौ पृथिवीप्राप्तिमाहुः॥ 3-5-20<br />
<br />
सत्यं श्रेष्ठं पाण्डव विप्रलापं तुल्यं चान्नं सह भोज्यं सहायैः।<br />
आत्मा चैषामग्रतो न स्म पूज्य एवंवृत्तिवर्धते भूमिपालः॥ 3-5-21<br />
<br />
युधिष्ठिर उवाच<br />
<br />
एवं करिष्यामि यथा ब्रवीषि परां बुद्धिमुपगम्याप्रमत्तः।<br />
यच्चाप्यन्यद्देशकालोपपन्नं तद्वै वाच्यं तत्करिष्यामि कृत्स्नम्॥ 3-5-22<br />
<br />
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि अरण्यपर्वणि विदुरनिर्वासे पञ्चमोऽध्यायः॥ 5 ॥</div>
ShraddhaV
https://dharmawiki.org/index.php?title=User:ShraddhaV&diff=119869
User:ShraddhaV
2019-07-17T14:46:46Z
<p>ShraddhaV: Added shlokas of chp 5</p>
<hr />
<div>वैशम्पायन उवाच<br />
पाण्डवास्तु वने वासमुद्दिश्य भरतर्षभाः।<br />
प्रययुः जाह्नवीकूलात्कुरुक्षेत्रं सहानुगाः॥ 3-5-1<br />
सरस्वतीदृषद्वत्यौ यमुनां च निषेव्य ते।<br />
ययुर्वनेनैव वनं सततं पश्चिमां दिशम्॥ 3-5-2<br />
ततः सरस्वतीकूले समेषु मरुधन्वसु।<br />
काम्यकं नाम ददृशुर्वनं मुनिजनप्रियम्॥ 3-5-3<br />
तत्र ते न्यवसन्वीरा वने बहुमृगद्विजे।<br />
अन्वास्यमाना मुनिभिः सान्त्व्यमानाश्च भारत॥ 3-5-4<br />
विदुरस्त्वथ पाण्डूनां सदा दर्शनलालसः।<br />
जगामैकरथेनैव काम्यकं वनमृद्धिमत्॥ 3-5-5<br />
ततो गत्वा विदुरः काम्यकं तच्छीघ्रैरश्वैर्वाहिना स्यन्दनेन।<br />
ददर्शासीनं धर्मात्मानं विविक्ते सार्धं द्रौपद्या भातृभिर्ब्राह्मणैश्च॥ 3-5-6<br />
ततोऽपश्यद्विदुरं तूर्णमारादभ्यायान्तं सत्यसन्धः स राजा।<br />
अथाब्रवीद्भ्रातरं भीमसेनं किं नु क्षत्ता वक्ष्यति नः समेत्य॥ 3-5-7<br />
कच्चिन्नायं वचनात्सौबलस्य समाह्वाता देवनायोपयातः।<br />
कच्चित्क्षुद्रः शकुनिर्नायुधानि जेष्यत्यस्मान्पुनरेवाक्षवत्याम्॥ 3-5-8<br />
समाहूतः केनचिदाद्रवेति नाहं शक्तो भीमसेनापयातुम्।<br />
गाण्डीवे च संशयिते कथं नु राज्यप्राप्तिः संशयिता भवेन्नः॥ 3-5-9<br />
वैशम्पायन उवाच<br />
तत उत्थाय विदुरं पाण्डवेयाः प्रत्यगृह्णन्नृपते सर्व एव।<br />
तैः सत्कृतः स च तानाजमीढो यथोचितं पाण्डुपुत्रान्समेयात्॥ 3-5-10<br />
समाश्वस्तं विदुरं ते नरर्षभास्ततोऽपृच्छन्नागमनाय हेतुम्।<br />
स चापि तेभ्यो विस्तरतः शशंस यथावृत्तो धृतराष्ट्रोऽम्बिकेयः॥ 3-5-11<br />
विदुर उवाच<br />
अवोचन्मां धृतराष्ट्रोऽनुगुप्तमजातशत्रो परिगृह्याभिपूज्य।<br />
एवं गते समतामभ्युपेत्य पथ्यं तेषां मम चैव ब्रवीहि॥ 3-5-12<br />
मयाप्युक्तं यत्क्षेमं कौरवाणां हितं पथ्यं धृतराष्ट्रस्य चैव।<br />
तद्वै तस्मै न रुचामभ्युपैति ततश्चाहं क्षेममन्यन्न मन्ये॥ 3-5-13<br />
परं श्रेयः पाण्डवेया मयोक्तं न मे तच्च श्रुतवानाम्बिकेयः।<br />
यथाऽऽतुरस्येव हि पथ्यमन्नं न रोचते स्मास्य तदुच्यमानम्॥ 3-5-14<br />
न श्रेयसे नीयतेऽजातशत्रो स्त्री श्रोत्रियस्येव गृहे प्रदुष्टा।<br />
ध्रुवं न रोचेद्भरतर्षभस्य पतिः कुमार्या इव षष्टिवर्षः॥ 3-5-15<br />
ध्रुवं विनाशो नृप कौरवाणां न वै श्रेयो धृतराष्ट्रः परैति।<br />
यथा च पर्णे पुष्करस्यावसिक्तं जलं न तिष्ठेत्पथ्यमुक्तं तथास्मिन्॥ 3-5-16<br />
ततः क्रुद्धो धृतराष्ट्रोऽब्रवीन्मां यस्मिन्श्रद्धा भारत तत्र याहि।<br />
नाहं भूयः कामये त्वां सहायं महीमिमां पालयितुं पुरं वा॥ 3-5-17<br />
सोऽहं त्यक्तो धृतराष्ट्रेण राज्ञा प्रशासितुं त्वामुपयातो नरेन्द्र।<br />
तद्वै सर्वं यन्मयोक्तं सभायां तद्धार्यतां यत्प्रवक्ष्यामि भूयः॥ 3-5-18<br />
क्लेशैस्तीव्रैर्युज्यमानः सपत्नैः क्षमां कुर्वन्कालमुपासते यः।<br />
संवर्धयन्स्तोकमिवाग्निमात्मवान्स वै भुङ्क्ते पृथिवीमेक एव॥ 3-5-19<br />
यस्याविभक्तं वसु राजन्सहायैस्तस्य दुःखेऽप्यंशभाजः सहायाः।<br />
सहायानामेष सङ्ग्रहणेऽध्युपायः सहायाप्तौ पृथिवीप्राप्तिमाहुः॥ 3-5-20<br />
सत्यं श्रेष्ठं पाण्डव विप्रलापं तुल्यं चान्नं सह भोज्यं सहायैः।<br />
आत्मा चैषामग्रतो न स्म पूज्य एवंवृत्तिवर्धते भूमिपालः॥ 3-5-21<br />
युधिष्ठिर उवाच<br />
एवं करिष्यामि यथा ब्रवीषि परां बुद्धिमुपगम्याप्रमत्तः।<br />
यच्चाप्यन्यद्देशकालोपपन्नं तद्वै वाच्यं तत्करिष्यामि कृत्स्नम्॥ 3-5-22<br />
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि अरण्यपर्वणि विदुरनिर्वासे पञ्चमोऽध्यायः॥ 5 ॥</div>
ShraddhaV
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Vanaparva Adhyaya 5 (वनपर्वणि अध्यायः ५)
2019-07-17T03:35:52Z
<p>ShraddhaV: Added chp 5 shlokas of vanaparva</p>
<hr />
<div>वैशम्पायन उवाच<br />
<br />
पाण्डवास्तु वने वासमुद्दिश्य भरतर्षभाः।<br />
<br />
प्रययुः जाह्नवीकूलात्कुरुक्षेत्रं सहानुगाः॥ 3-5-1<br />
<br />
सरस्वतीदृषद्वत्यौ यमुनां च निषेव्य ते।<br />
<br />
ययुर्वनेनैव वनं सततं पश्चिमां दिशम्॥ 3-5-2<br />
<br />
ततः सरस्वतीकूले समेषु मरुधन्वसु।<br />
<br />
काम्यकं नाम ददृशुर्वनं मुनिजनप्रियम्॥ 3-5-3<br />
<br />
तत्र ते न्यवसन्वीरा वने बहुमृगद्विजे।<br />
<br />
अन्वास्यमाना मुनिभिः सान्त्व्यमानाश्च भारत॥ 3-5-4<br />
<br />
विदुरस्त्वथ पाण्डूनां सदा दर्शनलालसः।<br />
<br />
जगामैकरथेनैव काम्यकं वनमृद्धिमत्॥ 3-5-5<br />
<br />
ततो गत्वा विदुरः काम्यकं तच्छीघ्रैरश्वैर्वाहिना स्यन्दनेन।<br />
<br />
ददर्शासीनं धर्मात्मानं विविक्ते सार्धं द्रौपद्या भातृभिर्ब्राह्मणैश्च॥ 3-5-6<br />
<br />
ततोऽपश्यद्विदुरं तूर्णमारादभ्यायान्तं सत्यसन्धः स राजा।<br />
<br />
अथाब्रवीद्भ्रातरं भीमसेनं किं नु क्षत्ता वक्ष्यति नः समेत्य॥ 3-5-7<br />
<br />
कच्चिन्नायं वचनात्सौबलस्य समाह्वाता देवनायोपयातः।<br />
<br />
कच्चित्क्षुद्रः शकुनिर्नायुधानि जेष्यत्यस्मान्पुनरेवाक्षवत्याम्॥ 3-5-8<br />
<br />
समाहूतः केनचिदाद्रवेति नाहं शक्तो भीमसेनापयातुम्।<br />
<br />
गाण्डीवे च संशयिते कथं नु राज्यप्राप्तिः संशयिता भवेन्नः॥ 3-5-9<br />
<br />
वैशम्पायन उवाच<br />
<br />
तत उत्थाय विदुरं पाण्डवेयाः प्रत्यगृह्णन्नृपते सर्व एव।<br />
<br />
तैः सत्कृतः स च तानाजमीढो यथोचितं पाण्डुपुत्रान्समेयात्॥ 3-5-10<br />
<br />
समाश्वस्तं विदुरं ते नरर्षभास्ततोऽपृच्छन्नागमनाय हेतुम्।<br />
<br />
स चापि तेभ्यो विस्तरतः शशंस यथावृत्तो धृतराष्ट्रोऽम्बिकेयः॥ 3-5-11<br />
<br />
विदुर उवाच<br />
<br />
अवोचन्मां धृतराष्ट्रोऽनुगुप्तमजातशत्रो परिगृह्याभिपूज्य।<br />
<br />
एवं गते समतामभ्युपेत्य पथ्यं तेषां मम चैव ब्रवीहि॥ 3-5-12<br />
<br />
मयाप्युक्तं यत्क्षेमं कौरवाणां हितं पथ्यं धृतराष्ट्रस्य चैव।<br />
<br />
तद्वै तस्मै न रुचामभ्युपैति ततश्चाहं क्षेममन्यन्न मन्ये॥ 3-5-13<br />
<br />
परं श्रेयः पाण्डवेया मयोक्तं न मे तच्च श्रुतवानाम्बिकेयः।<br />
<br />
यथाऽऽतुरस्येव हि पथ्यमन्नं न रोचते स्मास्य तदुच्यमानम्॥ 3-5-14<br />
<br />
न श्रेयसे नीयतेऽजातशत्रो स्त्री श्रोत्रियस्येव गृहे प्रदुष्टा।<br />
<br />
ध्रुवं न रोचेद्भरतर्षभस्य पतिः कुमार्या इव षष्टिवर्षः॥ 3-5-15<br />
<br />
ध्रुवं विनाशो नृप कौरवाणां न वै श्रेयो धृतराष्ट्रः परैति।<br />
<br />
यथा च पर्णे पुष्करस्यावसिक्तं जलं न तिष्ठेत्पथ्यमुक्तं तथास्मिन्॥ 3-5-16<br />
<br />
ततः क्रुद्धो धृतराष्ट्रोऽब्रवीन्मां यस्मिन्श्रद्धा भारत तत्र याहि।<br />
<br />
नाहं भूयः कामये त्वां सहायं महीमिमां पालयितुं पुरं वा॥ 3-5-17<br />
<br />
सोऽहं त्यक्तो धृतराष्ट्रेण राज्ञा प्रशासितुं त्वामुपयातो नरेन्द्र।<br />
<br />
तद्वै सर्वं यन्मयोक्तं सभायां तद्धार्यतां यत्प्रवक्ष्यामि भूयः॥ 3-5-18<br />
<br />
क्लेशैस्तीव्रैर्युज्यमानः सपत्नैः क्षमां कुर्वन्कालमुपासते यः।<br />
<br />
संवर्धयन्स्तोकमिवाग्निमात्मवान्स वै भुङ्क्ते पृथिवीमेक एव॥ 3-5-19<br />
<br />
यस्याविभक्तं वसु राजन्सहायैस्तस्य दुःखेऽप्यंशभाजः सहायाः।<br />
<br />
सहायानामेष सङ्ग्रहणेऽध्युपायः सहायाप्तौ पृथिवीप्राप्तिमाहुः॥ 3-5-20<br />
<br />
सत्यं श्रेष्ठं पाण्डव विप्रलापं तुल्यं चान्नं सह भोज्यं सहायैः।<br />
<br />
आत्मा चैषामग्रतो न स्म पूज्य एवंवृत्तिवर्धते भूमिपालः॥ 3-5-21<br />
<br />
युधिष्ठिर उवाच<br />
<br />
एवं करिष्यामि यथा ब्रवीषि परां बुद्धिमुपगम्याप्रमत्तः।<br />
<br />
यच्चाप्यन्यद्देशकालोपपन्नं तद्वै वाच्यं तत्करिष्यामि कृत्स्नम्॥ 3-5-22<br />
<br />
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि अरण्यपर्वणि विदुरनिर्वासे पञ्चमोऽध्यायः॥ 5 ॥</div>
ShraddhaV
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Vanaparva Adhyaya 4 (वनपर्वणि अध्यायः ४)
2019-07-17T03:17:52Z
<p>ShraddhaV: </p>
<hr />
<div>वैशम्पायन उवाच<br />
<br />
वनं प्रविष्टेष्वथ पाण्डवेषु प्रज्ञाचक्षुस्तप्यमानोऽम्बिकेयः।<br />
धर्मात्मानं विदुरमगाधबुद्धिं सुखासीनो वाक्यमुवाच राजा॥ 3-4-1<br />
<br />
धृतराष्ट्र उवाच<br />
<br />
प्रज्ञा च ते भार्गवस्येव शुद्धा धर्म च त्वं परमं वेत्थ सूक्ष्मम्।<br />
समश्च त्वं सम्मतः कौरवाणां पथ्यं चैषां मम चैव ब्रवीहि॥ 3-4-2<br />
[[:Category:Vidur|''Vidur'']]<br />
<br />
एवं गते विदुर यदद्य कार्यं पौराश्च मे कथमस्मान्भजेरन्।<br />
ते चाप्यस्मान्नोद्धरेयुः समूलांस्तत्त्वं ब्रूयाः साधुकार्याणि वेत्सि॥ 3-4-3<br />
[[:Category:Dharma|''Dharma'']]<br />
<br />
न कामये तांश्च विनश्यमानान्॥<br />
सौबलेनैव पापेन दुर्योधनहितैषिणा।<br />
<br />
क्रूरमाचरितं क्षत्तर्न मे प्रियमनुष्ठितम्॥<br />
तथैवाङ्गीकृते तव तद्भवान्वक्तुमर्हति।<br />
<br />
उत्तरं प्राप्तकालं च किमन्यन्मन्यते क्षमम्॥<br />
नास्ति धर्मे सहायत्वमिति मे दीर्यते मनः।<br />
<br />
यत्र पाण्डुसुतास्सर्वे क्लिश्यन्ति वनमागताः॥<br />
<br />
<br />
विदुर उवाच<br />
<br />
त्रिवर्गोऽयं धर्ममूलो नरेन्द्र राज्यं चेदं धर्ममूलं वदन्ति।<br />
धर्मे राजन्वर्तमानः स्वशक्त्या पुत्रान्सर्वान्पाहि पाण्डोः सुतांश्च॥ 3-4-4<br />
<br />
स वै धर्मो विप्रलब्धः सभायां पापात्मभिः सौबलेयप्रधानैः।<br />
आहूय कुन्तीसुतमक्षवत्यां पराजैषीत्सत्यसन्धं सुतस्ते॥ 3-4-5<br />
<br />
एतस्य ते दुष्प्रणीतस्य राजञ्छेषस्याहं परिपश्याम्युपायम्।<br />
यथा पुत्रस्तव कौरव्य पापान्मुक्तो लोके प्रतितिष्ठेत साधु॥ 3-4-6<br />
<br />
तद्वै सर्वं पाण्डुपुत्रा लभन्तां यत्तद्राजन्नभिसृष्टं त्वयाऽऽसीत्।<br />
एष धर्मः परमो यत्स्वकेन राजा तुष्येन्न परस्वेषु गृध्येत्॥ 3-4-7<br />
<br />
यशो न नश्येज्ज्ञातिभेदश्च न स्याद्धर्मो न स्यान्नैव चैवं कृते त्वाम्।<br />
एतत्कार्यं तव सर्वप्रधानं तेषां तुष्टिः शकुनेश्चावमानः॥ 3-4-8<br />
<br />
एवं शेषं यदि पुत्रेषु ते स्यादेतद्राजंस्त्वरमाणः कुरुष्व।<br />
तथैतदेवं न करोषि राजन्ध्रुवं कुरूणां भविता विनाशः॥ 3-4-9<br />
<br />
न हि क्रुद्धो भीमसेनोऽर्जुनो वा शेषं कुर्याच्छात्रवाणामनीके।<br />
येषां योद्धा सव्यसाची कृतास्त्रो धनुर्येषां गाण्डिवं लोकसारम्॥ 3-4-10<br />
येषां भीमो बाहुशाली च योद्धा तेषां लोके किं नु न प्राप्यमस्ति।<br />
उक्तं पूर्वं जातमात्रे सुते ते मया यत्ते हितमासीत्तदानीम्॥ 3-4-11<br />
पुत्रं त्यजेममहितं कुलस्य हितं परं न च तत्त्वं चकर्थ।<br />
इदं च राजन्हितमुक्तं न चेत्त्वमेवं कर्ता परितप्तासि पश्चात्॥ 3-4-12<br />
यद्येतदेवमनुमन्ता सुतस्ते सम्प्रीयमाणः पाण्डवैरेकराज्यम्।<br />
तापो न ते भविता प्रीतियोगान्न चेन्निगृह्णीष्व सुतं सुखाय॥ 3-4-13<br />
दुर्योधनं त्वहितं वै निगृह्य पाण्डोः पुत्रं प्रकुरुष्वाधिपत्ये।<br />
अजातशत्रुर्हि विमुक्तरागो धर्मेणेमां पृथिवीं शास्तु राजन्॥ 3-4-14<br />
ततो राजन्पार्थिवाः सर्व एव वैश्या इवास्मानुपतिष्ठन्तु सद्यः।<br />
दुर्योधनः शकुनिः सूतपुत्रः प्रीत्या राजन्पाण्डुपुत्रान्भजन्तु॥ 3-4-15<br />
दुःशासनो याचतु भीमसेनं सभामध्ये द्रुपदस्यात्मजां च।<br />
युधिष्ठिरं त्वं परिसान्त्वयस्व राज्ये चैनं स्थापयस्वाभिपूज्य॥ 3-4-16<br />
त्वया पृष्टः किमहमन्यद्वदेयमेतत्कृत्वा कृतकृत्योऽसि राजन्॥ 3-4-16<br />
[[:Category:Duryodhan|''Duryodhan'']]<br />
<br />
धृतराष्ट्र उवाच<br />
<br />
एतद्वाक्यं विदुर यत्ते सभायामिह प्रोक्तं पाण्डवान्प्राप्य मां च।<br />
हितं तेषामहितं मामकानामेतत्सर्वं मम नावैति चेतः॥ 3-4-17<br />
इदं त्विदानीं गत एव निश्चितं तेषामर्थे पाण्डवानां यदात्थ।<br />
तेनाद्य मन्ये नासि हितो ममेति कथं हि पुत्रं पाण्डवार्थे त्यजेयम्॥ 3-4-18<br />
असंशयं तेऽपि ममैव पुत्रा दुर्योधनस्तु मम देहात्प्रसूतः।<br />
स्वं वै देहं परहेतोस्त्यजेति को तु ब्रूयात्समतामन्ववेक्ष्य॥ 3-4-19<br />
स मां जिह्मं विदुर सर्वं ब्रवीषि मानं च तेऽहमधिकं धारयामि।<br />
यथेच्छकं गच्छ वा तिष्ठ वा त्वं सुसान्त्व्यमानाप्यसती स्त्री जहाति॥ 3-4-20<br />
[[:Category:Dhristrashtra's attachment to Duryodhan|''Dhristrashtra's attachment to Duryodhan'']] [[:Category:आसक्ती|''आसक्ती'']] <br />
<br />
<br />
वैशम्पायन उवाच<br />
<br />
एतावदुक्त्वा धृतराष्ट्रोऽन्वपद्यदन्तर्वेश्म सहसोत्थाय राजन्।<br />
नेदमस्तीत्यथ विदुरो भाषमाणः सम्प्राद्रवद्यत्र पार्था बभूवुः॥ 3-4-21<br />
[[:Category:Dhristrashtra|''Dhristrashtra]] [[:Category:Vidur|''Vidur'']] <br />
<br />
<br />
<br />
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि अरण्यपर्वणि विदुरवाक्यप्रत्याख्याने चतुर्थोऽध्यायः॥ 4 ॥</div>
ShraddhaV
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Vanaparva Adhyaya 4 (वनपर्वणि अध्यायः ४)
2019-07-17T03:06:15Z
<p>ShraddhaV: Added tags for this chapter.</p>
<hr />
<div>वैशम्पायन उवाच<br />
<br />
वनं प्रविष्टेष्वथ पाण्डवेषु प्रज्ञाचक्षुस्तप्यमानोऽम्बिकेयः।<br />
धर्मात्मानं विदुरमगाधबुद्धिं सुखासीनो वाक्यमुवाच राजा॥ 3-4-1<br />
<br />
धृतराष्ट्र उवाच<br />
<br />
प्रज्ञा च ते भार्गवस्येव शुद्धा धर्म च त्वं परमं वेत्थ सूक्ष्मम्।<br />
समश्च त्वं सम्मतः कौरवाणां पथ्यं चैषां मम चैव ब्रवीहि॥ 3-4-2<br />
[[:Category:Vidur|''Vidur'']]<br />
<br />
एवं गते विदुर यदद्य कार्यं पौराश्च मे कथमस्मान्भजेरन्।<br />
ते चाप्यस्मान्नोद्धरेयुः समूलांस्तत्त्वं ब्रूयाः साधुकार्याणि वेत्सि॥ 3-4-3<br />
[[:Category:Dharma|''Dharma'']]<br />
<br />
विदुर उवाच<br />
<br />
त्रिवर्गोऽयं धर्ममूलो नरेन्द्र राज्यं चेदं धर्ममूलं वदन्ति।<br />
धर्मे राजन्वर्तमानः स्वशक्त्या पुत्रान्सर्वान्पाहि पाण्डोः सुतांश्च॥ 3-4-4<br />
<br />
स वै धर्मो विप्रलब्धः सभायां पापात्मभिः सौबलेयप्रधानैः।<br />
आहूय कुन्तीसुतमक्षवत्यां पराजैषीत्सत्यसन्धं सुतस्ते॥ 3-4-5<br />
<br />
एतस्य ते दुष्प्रणीतस्य राजञ्छेषस्याहं परिपश्याम्युपायम्।<br />
यथा पुत्रस्तव कौरव्य पापान्मुक्तो लोके प्रतितिष्ठेत साधु॥ 3-4-6<br />
<br />
तद्वै सर्वं पाण्डुपुत्रा लभन्तां यत्तद्राजन्नभिसृष्टं त्वयाऽऽसीत्।<br />
एष धर्मः परमो यत्स्वकेन राजा तुष्येन्न परस्वेषु गृध्येत्॥ 3-4-7<br />
<br />
यशो न नश्येज्ज्ञातिभेदश्च न स्याद्धर्मो न स्यान्नैव चैवं कृते त्वाम्।<br />
एतत्कार्यं तव सर्वप्रधानं तेषां तुष्टिः शकुनेश्चावमानः॥ 3-4-8<br />
<br />
एवं शेषं यदि पुत्रेषु ते स्यादेतद्राजंस्त्वरमाणः कुरुष्व।<br />
तथैतदेवं न करोषि राजन्ध्रुवं कुरूणां भविता विनाशः॥ 3-4-9<br />
<br />
न हि क्रुद्धो भीमसेनोऽर्जुनो वा शेषं कुर्याच्छात्रवाणामनीके।<br />
येषां योद्धा सव्यसाची कृतास्त्रो धनुर्येषां गाण्डिवं लोकसारम्॥ 3-4-10<br />
येषां भीमो बाहुशाली च योद्धा तेषां लोके किं नु न प्राप्यमस्ति।<br />
उक्तं पूर्वं जातमात्रे सुते ते मया यत्ते हितमासीत्तदानीम्॥ 3-4-11<br />
पुत्रं त्यजेममहितं कुलस्य हितं परं न च तत्त्वं चकर्थ।<br />
इदं च राजन्हितमुक्तं न चेत्त्वमेवं कर्ता परितप्तासि पश्चात्॥ 3-4-12<br />
यद्येतदेवमनुमन्ता सुतस्ते सम्प्रीयमाणः पाण्डवैरेकराज्यम्।<br />
तापो न ते भविता प्रीतियोगान्न चेन्निगृह्णीष्व सुतं सुखाय॥ 3-4-13<br />
दुर्योधनं त्वहितं वै निगृह्य पाण्डोः पुत्रं प्रकुरुष्वाधिपत्ये।<br />
अजातशत्रुर्हि विमुक्तरागो धर्मेणेमां पृथिवीं शास्तु राजन्॥ 3-4-14<br />
ततो राजन्पार्थिवाः सर्व एव वैश्या इवास्मानुपतिष्ठन्तु सद्यः।<br />
दुर्योधनः शकुनिः सूतपुत्रः प्रीत्या राजन्पाण्डुपुत्रान्भजन्तु॥ 3-4-15<br />
दुःशासनो याचतु भीमसेनं सभामध्ये द्रुपदस्यात्मजां च।<br />
युधिष्ठिरं त्वं परिसान्त्वयस्व राज्ये चैनं स्थापयस्वाभिपूज्य॥ 3-4-16<br />
त्वया पृष्टः किमहमन्यद्वदेयमेतत्कृत्वा कृतकृत्योऽसि राजन्॥ 3-4-16<br />
[[:Category:Duryodhan|''Duryodhan'']]<br />
<br />
धृतराष्ट्र उवाच<br />
<br />
एतद्वाक्यं विदुर यत्ते सभायामिह प्रोक्तं पाण्डवान्प्राप्य मां च।<br />
हितं तेषामहितं मामकानामेतत्सर्वं मम नावैति चेतः॥ 3-4-17<br />
इदं त्विदानीं गत एव निश्चितं तेषामर्थे पाण्डवानां यदात्थ।<br />
तेनाद्य मन्ये नासि हितो ममेति कथं हि पुत्रं पाण्डवार्थे त्यजेयम्॥ 3-4-18<br />
असंशयं तेऽपि ममैव पुत्रा दुर्योधनस्तु मम देहात्प्रसूतः।<br />
स्वं वै देहं परहेतोस्त्यजेति को तु ब्रूयात्समतामन्ववेक्ष्य॥ 3-4-19<br />
स मां जिह्मं विदुर सर्वं ब्रवीषि मानं च तेऽहमधिकं धारयामि।<br />
यथेच्छकं गच्छ वा तिष्ठ वा त्वं सुसान्त्व्यमानाप्यसती स्त्री जहाति॥ 3-4-20<br />
[[:Category:Dhristrashtra's attachment to Duryodhan|''Dhristrashtra's attachment to Duryodhan'']] [[:Category:आसक्ती|''आसक्ती'']] <br />
<br />
<br />
वैशम्पायन उवाच<br />
<br />
एतावदुक्त्वा धृतराष्ट्रोऽन्वपद्यदन्तर्वेश्म सहसोत्थाय राजन्।<br />
नेदमस्तीत्यथ विदुरो भाषमाणः सम्प्राद्रवद्यत्र पार्था बभूवुः॥ 3-4-21<br />
[[:Category:Dhristrashtra|''Dhristrashtra]] [[:Category:Vidur|''Vidur'']] <br />
<br />
<br />
<br />
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि अरण्यपर्वणि विदुरवाक्यप्रत्याख्याने चतुर्थोऽध्यायः॥ 4 ॥</div>
ShraddhaV
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Vanaparva Adhyaya 4 (वनपर्वणि अध्यायः ४)
2019-07-17T02:36:18Z
<p>ShraddhaV: Added tags till 10th shloka</p>
<hr />
<div>वैशम्पायन उवाच<br />
<br />
वनं प्रविष्टेष्वथ पाण्डवेषु प्रज्ञाचक्षुस्तप्यमानोऽम्बिकेयः।<br />
धर्मात्मानं विदुरमगाधबुद्धिं सुखासीनो वाक्यमुवाच राजा॥ 3-4-1<br />
<br />
धृतराष्ट्र उवाच<br />
<br />
प्रज्ञा च ते भार्गवस्येव शुद्धा धर्म च त्वं परमं वेत्थ सूक्ष्मम्।<br />
समश्च त्वं सम्मतः कौरवाणां पथ्यं चैषां मम चैव ब्रवीहि॥ 3-4-2<br />
[[:Category:Vidur|''Vidur'']]<br />
<br />
एवं गते विदुर यदद्य कार्यं पौराश्च मे कथमस्मान्भजेरन्।<br />
ते चाप्यस्मान्नोद्धरेयुः समूलांस्तत्त्वं ब्रूयाः साधुकार्याणि वेत्सि॥ 3-4-3<br />
[[:Category:Dharma|''Dharma'']]<br />
<br />
विदुर उवाच<br />
<br />
त्रिवर्गोऽयं धर्ममूलो नरेन्द्र राज्यं चेदं धर्ममूलं वदन्ति।<br />
धर्मे राजन्वर्तमानः स्वशक्त्या पुत्रान्सर्वान्पाहि पाण्डोः सुतांश्च॥ 3-4-4<br />
स वै धर्मो विप्रलब्धः सभायां पापात्मभिः सौबलेयप्रधानैः।<br />
आहूय कुन्तीसुतमक्षवत्यां पराजैषीत्सत्यसन्धं सुतस्ते॥ 3-4-5<br />
एतस्य ते दुष्प्रणीतस्य राजञ्छेषस्याहं परिपश्याम्युपायम्।<br />
यथा पुत्रस्तव कौरव्य पापान्मुक्तो लोके प्रतितिष्ठेत साधु॥ 3-4-6<br />
तद्वै सर्वं पाण्डुपुत्रा लभन्तां यत्तद्राजन्नभिसृष्टं त्वयाऽऽसीत्।<br />
एष धर्मः परमो यत्स्वकेन राजा तुष्येन्न परस्वेषु गृध्येत्॥ 3-4-7<br />
यशो न नश्येज्ज्ञातिभेदश्च न स्याद्धर्मो न स्यान्नैव चैवं कृते त्वाम्।<br />
एतत्कार्यं तव सर्वप्रधानं तेषां तुष्टिः शकुनेश्चावमानः॥ 3-4-8<br />
एवं शेषं यदि पुत्रेषु ते स्यादेतद्राजंस्त्वरमाणः कुरुष्व।<br />
तथैतदेवं न करोषि राजन्ध्रुवं कुरूणां भविता विनाशः॥ 3-4-9<br />
न हि क्रुद्धो भीमसेनोऽर्जुनो वा शेषं कुर्याच्छात्रवाणामनीके।<br />
येषां योद्धा सव्यसाची कृतास्त्रो धनुर्येषां गाण्डिवं लोकसारम्॥ 3-4-10<br />
[[:Category:Duryodhan|''Duryodhan'']]<br />
<br />
येषां भीमो बाहुशाली च योद्धा तेषां लोके किं नु न प्राप्यमस्ति।<br />
उक्तं पूर्वं जातमात्रे सुते ते मया यत्ते हितमासीत्तदानीम्॥ 3-4-11<br />
<br />
पुत्रं त्यजेममहितं कुलस्य हितं परं न च तत्त्वं चकर्थ।<br />
<br />
इदं च राजन्हितमुक्तं न चेत्त्वमेवं कर्ता परितप्तासि पश्चात्॥ 3-4-12<br />
<br />
यद्येतदेवमनुमन्ता सुतस्ते सम्प्रीयमाणः पाण्डवैरेकराज्यम्।<br />
<br />
तापो न ते भविता प्रीतियोगान्न चेन्निगृह्णीष्व सुतं सुखाय॥ 3-4-13<br />
<br />
दुर्योधनं त्वहितं वै निगृह्य पाण्डोः पुत्रं प्रकुरुष्वाधिपत्ये।<br />
<br />
अजातशत्रुर्हि विमुक्तरागो धर्मेणेमां पृथिवीं शास्तु राजन्॥ 3-4-14<br />
<br />
ततो राजन्पार्थिवाः सर्व एव वैश्या इवास्मानुपतिष्ठन्तु सद्यः।<br />
<br />
दुर्योधनः शकुनिः सूतपुत्रः प्रीत्या राजन्पाण्डुपुत्रान्भजन्तु॥ 3-4-15<br />
<br />
दुःशासनो याचतु भीमसेनं सभामध्ये द्रुपदस्यात्मजां च।<br />
<br />
युधिष्ठिरं त्वं परिसान्त्वयस्व राज्ये चैनं स्थापयस्वाभिपूज्य॥ 3-4-16<br />
<br />
त्वया पृष्टः किमहमन्यद्वदेयमेतत्कृत्वा कृतकृत्योऽसि राजन्॥ 3-4-16<br />
<br />
धृतराष्ट्र उवाच<br />
<br />
एतद्वाक्यं विदुर यत्ते सभायामिह प्रोक्तं पाण्डवान्प्राप्य मां च।<br />
<br />
हितं तेषामहितं मामकानामेतत्सर्वं मम नावैति चेतः॥ 3-4-17<br />
<br />
इदं त्विदानीं गत एव निश्चितं तेषामर्थे पाण्डवानां यदात्थ।<br />
<br />
तेनाद्य मन्ये नासि हितो ममेति कथं हि पुत्रं पाण्डवार्थे त्यजेयम्॥ 3-4-18<br />
<br />
असंशयं तेऽपि ममैव पुत्रा दुर्योधनस्तु मम देहात्प्रसूतः।<br />
<br />
स्वं वै देहं परहेतोस्त्यजेति को तु ब्रूयात्समतामन्ववेक्ष्य॥ 3-4-19<br />
<br />
स मां जिह्मं विदुर सर्वं ब्रवीषि मानं च तेऽहमधिकं धारयामि।<br />
<br />
यथेच्छकं गच्छ वा तिष्ठ वा त्वं सुसान्त्व्यमानाप्यसती स्त्री जहाति॥ 3-4-20<br />
<br />
वैशम्पायन उवाच<br />
<br />
एतावदुक्त्वा धृतराष्ट्रोऽन्वपद्यदन्तर्वेश्म सहसोत्थाय राजन्।<br />
<br />
नेदमस्तीत्यथ विदुरो भाषमाणः सम्प्राद्रवद्यत्र पार्था बभूवुः॥ 3-4-21<br />
<br />
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि अरण्यपर्वणि विदुरवाक्यप्रत्याख्याने चतुर्थोऽध्यायः॥ 4 ॥</div>
ShraddhaV
https://dharmawiki.org/index.php?title=Vanaparva_Adhyaya_4_(%E0%A4%B5%E0%A4%A8%E0%A4%AA%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A4%A3%E0%A4%BF_%E0%A4%85%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%83_%E0%A5%AA)&diff=119831
Vanaparva Adhyaya 4 (वनपर्वणि अध्यायः ४)
2019-07-11T11:52:06Z
<p>ShraddhaV: sample tag</p>
<hr />
<div>वैशम्पायन उवाच<br />
<br />
वनं प्रविष्टेष्वथ पाण्डवेषु प्रज्ञाचक्षुस्तप्यमानोऽम्बिकेयः।<br />
धर्मात्मानं विदुरमगाधबुद्धिं सुखासीनो वाक्यमुवाच राजा॥ 3-4-1<br />
[[:Category:Ugrashrava|''Ugrashrava'']]<br />
<br />
धृतराष्ट्र उवाच<br />
<br />
प्रज्ञा च ते भार्गवस्येव शुद्धा धर्म च त्वं परमं वेत्थ सूक्ष्मम्।<br />
<br />
समश्च त्वं सम्मतः कौरवाणां पथ्यं चैषां मम चैव ब्रवीहि॥ 3-4-2<br />
<br />
एवं गते विदुर यदद्य कार्यं पौराश्च मे कथमस्मान्भजेरन्।<br />
<br />
ते चाप्यस्मान्नोद्धरेयुः समूलांस्तत्त्वं ब्रूयाः साधुकार्याणि वेत्सि॥ 3-4-3<br />
<br />
न कामये तांश्च विनश्यमानान्॥<br />
<br />
सौबलेनैव पापेन दुर्योधनहितैषिणा।<br />
<br />
क्रूरमाचरितं क्षत्तर्न मे प्रियमनुष्ठितम्॥<br />
<br />
तथैवाङ्गीकृते तव तद्भवान्वक्तुमर्हति।<br />
<br />
उत्तरं प्राप्तकालं च किमन्यन्मन्यते क्षमम्॥<br />
<br />
नास्ति धर्मे सहायत्वमिति मे दीर्यते मनः।<br />
<br />
यत्र पाण्डुसुतास्सर्वे क्लिश्यन्ति वनमागताः॥<br />
<br />
विदुर उवाच<br />
<br />
त्रिवर्गोऽयं धर्ममूलो नरेन्द्र राज्यं चेदं धर्ममूलं वदन्ति।<br />
<br />
धर्मे राजन्वर्तमानः स्वशक्त्या पुत्रान्सर्वान्पाहि पाण्डोः सुतांश्च॥ 3-4-4<br />
<br />
स वै धर्मो विप्रलब्धः सभायां पापात्मभिः सौबलेयप्रधानैः।<br />
<br />
आहूय कुन्तीसुतमक्षवत्यां पराजैषीत्सत्यसन्धं सुतस्ते॥ 3-4-5<br />
<br />
एतस्य ते दुष्प्रणीतस्य राजञ्छेषस्याहं परिपश्याम्युपायम्।<br />
<br />
यथा पुत्रस्तव कौरव्य पापान्मुक्तो लोके प्रतितिष्ठेत साधु॥ 3-4-6<br />
<br />
तद्वै सर्वं पाण्डुपुत्रा लभन्तां यत्तद्राजन्नभिसृष्टं त्वयाऽऽसीत्।<br />
<br />
एष धर्मः परमो यत्स्वकेन राजा तुष्येन्न परस्वेषु गृध्येत्॥ 3-4-7<br />
<br />
यशो न नश्येज्ज्ञातिभेदश्च न स्याद्धर्मो न स्यान्नैव चैवं कृते त्वाम्।<br />
<br />
एतत्कार्यं तव सर्वप्रधानं तेषां तुष्टिः शकुनेश्चावमानः॥ 3-4-8<br />
<br />
एवं शेषं यदि पुत्रेषु ते स्यादेतद्राजंस्त्वरमाणः कुरुष्व।<br />
<br />
तथैतदेवं न करोषि राजन्ध्रुवं कुरूणां भविता विनाशः॥ 3-4-9<br />
<br />
न हि क्रुद्धो भीमसेनोऽर्जुनो वा शेषं कुर्याच्छात्रवाणामनीके।<br />
<br />
येषां योद्धा सव्यसाची कृतास्त्रो धनुर्येषां गाण्डिवं लोकसारम्॥ 3-4-10<br />
<br />
येषां भीमो बाहुशाली च योद्धा तेषां लोके किं नु न प्राप्यमस्ति।<br />
<br />
उक्तं पूर्वं जातमात्रे सुते ते मया यत्ते हितमासीत्तदानीम्॥ 3-4-11<br />
<br />
पुत्रं त्यजेममहितं कुलस्य हितं परं न च तत्त्वं चकर्थ।<br />
<br />
इदं च राजन्हितमुक्तं न चेत्त्वमेवं कर्ता परितप्तासि पश्चात्॥ 3-4-12<br />
<br />
यद्येतदेवमनुमन्ता सुतस्ते सम्प्रीयमाणः पाण्डवैरेकराज्यम्।<br />
<br />
तापो न ते भविता प्रीतियोगान्न चेन्निगृह्णीष्व सुतं सुखाय॥ 3-4-13<br />
<br />
दुर्योधनं त्वहितं वै निगृह्य पाण्डोः पुत्रं प्रकुरुष्वाधिपत्ये।<br />
<br />
अजातशत्रुर्हि विमुक्तरागो धर्मेणेमां पृथिवीं शास्तु राजन्॥ 3-4-14<br />
<br />
ततो राजन्पार्थिवाः सर्व एव वैश्या इवास्मानुपतिष्ठन्तु सद्यः।<br />
<br />
दुर्योधनः शकुनिः सूतपुत्रः प्रीत्या राजन्पाण्डुपुत्रान्भजन्तु॥ 3-4-15<br />
<br />
दुःशासनो याचतु भीमसेनं सभामध्ये द्रुपदस्यात्मजां च।<br />
<br />
युधिष्ठिरं त्वं परिसान्त्वयस्व राज्ये चैनं स्थापयस्वाभिपूज्य॥ 3-4-16<br />
<br />
त्वया पृष्टः किमहमन्यद्वदेयमेतत्कृत्वा कृतकृत्योऽसि राजन्॥ 3-4-16<br />
<br />
धृतराष्ट्र उवाच<br />
<br />
एतद्वाक्यं विदुर यत्ते सभायामिह प्रोक्तं पाण्डवान्प्राप्य मां च।<br />
<br />
हितं तेषामहितं मामकानामेतत्सर्वं मम नावैति चेतः॥ 3-4-17<br />
<br />
इदं त्विदानीं गत एव निश्चितं तेषामर्थे पाण्डवानां यदात्थ।<br />
<br />
तेनाद्य मन्ये नासि हितो ममेति कथं हि पुत्रं पाण्डवार्थे त्यजेयम्॥ 3-4-18<br />
<br />
असंशयं तेऽपि ममैव पुत्रा दुर्योधनस्तु मम देहात्प्रसूतः।<br />
<br />
स्वं वै देहं परहेतोस्त्यजेति को तु ब्रूयात्समतामन्ववेक्ष्य॥ 3-4-19<br />
<br />
स मां जिह्मं विदुर सर्वं ब्रवीषि मानं च तेऽहमधिकं धारयामि।<br />
<br />
यथेच्छकं गच्छ वा तिष्ठ वा त्वं सुसान्त्व्यमानाप्यसती स्त्री जहाति॥ 3-4-20<br />
<br />
वैशम्पायन उवाच<br />
<br />
एतावदुक्त्वा धृतराष्ट्रोऽन्वपद्यदन्तर्वेश्म सहसोत्थाय राजन्।<br />
<br />
नेदमस्तीत्यथ विदुरो भाषमाणः सम्प्राद्रवद्यत्र पार्था बभूवुः॥ 3-4-21<br />
<br />
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि अरण्यपर्वणि विदुरवाक्यप्रत्याख्याने चतुर्थोऽध्यायः॥ 4 ॥</div>
ShraddhaV
https://dharmawiki.org/index.php?title=Vanaparva_Adhyaya_4_(%E0%A4%B5%E0%A4%A8%E0%A4%AA%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A4%A3%E0%A4%BF_%E0%A4%85%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%83_%E0%A5%AA)&diff=119830
Vanaparva Adhyaya 4 (वनपर्वणि अध्यायः ४)
2019-07-11T11:46:11Z
<p>ShraddhaV: slokas</p>
<hr />
<div>वैशम्पायन उवाच<br />
<br />
वनं प्रविष्टेष्वथ पाण्डवेषु प्रज्ञाचक्षुस्तप्यमानोऽम्बिकेयः।<br />
<br />
धर्मात्मानं विदुरमगाधबुद्धिं सुखासीनो वाक्यमुवाच राजा॥ 3-4-1<br />
<br />
धृतराष्ट्र उवाच<br />
<br />
प्रज्ञा च ते भार्गवस्येव शुद्धा धर्म च त्वं परमं वेत्थ सूक्ष्मम्।<br />
<br />
समश्च त्वं सम्मतः कौरवाणां पथ्यं चैषां मम चैव ब्रवीहि॥ 3-4-2<br />
<br />
एवं गते विदुर यदद्य कार्यं पौराश्च मे कथमस्मान्भजेरन्।<br />
<br />
ते चाप्यस्मान्नोद्धरेयुः समूलांस्तत्त्वं ब्रूयाः साधुकार्याणि वेत्सि॥ 3-4-3<br />
<br />
न कामये तांश्च विनश्यमानान्॥<br />
<br />
सौबलेनैव पापेन दुर्योधनहितैषिणा।<br />
<br />
क्रूरमाचरितं क्षत्तर्न मे प्रियमनुष्ठितम्॥<br />
<br />
तथैवाङ्गीकृते तव तद्भवान्वक्तुमर्हति।<br />
<br />
उत्तरं प्राप्तकालं च किमन्यन्मन्यते क्षमम्॥<br />
<br />
नास्ति धर्मे सहायत्वमिति मे दीर्यते मनः।<br />
<br />
यत्र पाण्डुसुतास्सर्वे क्लिश्यन्ति वनमागताः॥<br />
<br />
विदुर उवाच<br />
<br />
त्रिवर्गोऽयं धर्ममूलो नरेन्द्र राज्यं चेदं धर्ममूलं वदन्ति।<br />
<br />
धर्मे राजन्वर्तमानः स्वशक्त्या पुत्रान्सर्वान्पाहि पाण्डोः सुतांश्च॥ 3-4-4<br />
<br />
स वै धर्मो विप्रलब्धः सभायां पापात्मभिः सौबलेयप्रधानैः।<br />
<br />
आहूय कुन्तीसुतमक्षवत्यां पराजैषीत्सत्यसन्धं सुतस्ते॥ 3-4-5<br />
<br />
एतस्य ते दुष्प्रणीतस्य राजञ्छेषस्याहं परिपश्याम्युपायम्।<br />
<br />
यथा पुत्रस्तव कौरव्य पापान्मुक्तो लोके प्रतितिष्ठेत साधु॥ 3-4-6<br />
<br />
तद्वै सर्वं पाण्डुपुत्रा लभन्तां यत्तद्राजन्नभिसृष्टं त्वयाऽऽसीत्।<br />
<br />
एष धर्मः परमो यत्स्वकेन राजा तुष्येन्न परस्वेषु गृध्येत्॥ 3-4-7<br />
<br />
यशो न नश्येज्ज्ञातिभेदश्च न स्याद्धर्मो न स्यान्नैव चैवं कृते त्वाम्।<br />
<br />
एतत्कार्यं तव सर्वप्रधानं तेषां तुष्टिः शकुनेश्चावमानः॥ 3-4-8<br />
<br />
एवं शेषं यदि पुत्रेषु ते स्यादेतद्राजंस्त्वरमाणः कुरुष्व।<br />
<br />
तथैतदेवं न करोषि राजन्ध्रुवं कुरूणां भविता विनाशः॥ 3-4-9<br />
<br />
न हि क्रुद्धो भीमसेनोऽर्जुनो वा शेषं कुर्याच्छात्रवाणामनीके।<br />
<br />
येषां योद्धा सव्यसाची कृतास्त्रो धनुर्येषां गाण्डिवं लोकसारम्॥ 3-4-10<br />
<br />
येषां भीमो बाहुशाली च योद्धा तेषां लोके किं नु न प्राप्यमस्ति।<br />
<br />
उक्तं पूर्वं जातमात्रे सुते ते मया यत्ते हितमासीत्तदानीम्॥ 3-4-11<br />
<br />
पुत्रं त्यजेममहितं कुलस्य हितं परं न च तत्त्वं चकर्थ।<br />
<br />
इदं च राजन्हितमुक्तं न चेत्त्वमेवं कर्ता परितप्तासि पश्चात्॥ 3-4-12<br />
<br />
यद्येतदेवमनुमन्ता सुतस्ते सम्प्रीयमाणः पाण्डवैरेकराज्यम्।<br />
<br />
तापो न ते भविता प्रीतियोगान्न चेन्निगृह्णीष्व सुतं सुखाय॥ 3-4-13<br />
<br />
दुर्योधनं त्वहितं वै निगृह्य पाण्डोः पुत्रं प्रकुरुष्वाधिपत्ये।<br />
<br />
अजातशत्रुर्हि विमुक्तरागो धर्मेणेमां पृथिवीं शास्तु राजन्॥ 3-4-14<br />
<br />
ततो राजन्पार्थिवाः सर्व एव वैश्या इवास्मानुपतिष्ठन्तु सद्यः।<br />
<br />
दुर्योधनः शकुनिः सूतपुत्रः प्रीत्या राजन्पाण्डुपुत्रान्भजन्तु॥ 3-4-15<br />
<br />
दुःशासनो याचतु भीमसेनं सभामध्ये द्रुपदस्यात्मजां च।<br />
<br />
युधिष्ठिरं त्वं परिसान्त्वयस्व राज्ये चैनं स्थापयस्वाभिपूज्य॥ 3-4-16<br />
<br />
त्वया पृष्टः किमहमन्यद्वदेयमेतत्कृत्वा कृतकृत्योऽसि राजन्॥ 3-4-16<br />
<br />
धृतराष्ट्र उवाच<br />
<br />
एतद्वाक्यं विदुर यत्ते सभायामिह प्रोक्तं पाण्डवान्प्राप्य मां च।<br />
<br />
हितं तेषामहितं मामकानामेतत्सर्वं मम नावैति चेतः॥ 3-4-17<br />
<br />
इदं त्विदानीं गत एव निश्चितं तेषामर्थे पाण्डवानां यदात्थ।<br />
<br />
तेनाद्य मन्ये नासि हितो ममेति कथं हि पुत्रं पाण्डवार्थे त्यजेयम्॥ 3-4-18<br />
<br />
असंशयं तेऽपि ममैव पुत्रा दुर्योधनस्तु मम देहात्प्रसूतः।<br />
<br />
स्वं वै देहं परहेतोस्त्यजेति को तु ब्रूयात्समतामन्ववेक्ष्य॥ 3-4-19<br />
<br />
स मां जिह्मं विदुर सर्वं ब्रवीषि मानं च तेऽहमधिकं धारयामि।<br />
<br />
यथेच्छकं गच्छ वा तिष्ठ वा त्वं सुसान्त्व्यमानाप्यसती स्त्री जहाति॥ 3-4-20<br />
<br />
वैशम्पायन उवाच<br />
<br />
एतावदुक्त्वा धृतराष्ट्रोऽन्वपद्यदन्तर्वेश्म सहसोत्थाय राजन्।<br />
<br />
नेदमस्तीत्यथ विदुरो भाषमाणः सम्प्राद्रवद्यत्र पार्था बभूवुः॥ 3-4-21<br />
<br />
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि अरण्यपर्वणि विदुरवाक्यप्रत्याख्याने चतुर्थोऽध्यायः॥ 4 ॥</div>
ShraddhaV
https://dharmawiki.org/index.php?title=Vanaparva_Adhyaya_3_(%E0%A4%B5%E0%A4%A8%E0%A4%AA%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A4%A3%E0%A4%BF_%E0%A4%85%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%83_%E0%A5%A9)&diff=119812
Vanaparva Adhyaya 3 (वनपर्वणि अध्यायः ३)
2019-07-10T12:30:13Z
<p>ShraddhaV: </p>
<hr />
<div> वैशम्पायन उवाच<br />
शौनकेनैवमुक्तस्तु कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः।<br />
पुरोहितमुपागम्य भ्रातृमध्येऽब्रवीदिदम्॥ 3-3-1<br />
प्रस्थितं मानुयान्तीमे ब्राह्मणा वेदपारगाः।<br />
न चास्मि पोषणे शक्तो बहुदुःखसमन्वितः॥ 3-3-2<br />
परित्यक्तुं न शक्तोऽस्मि दानशक्तिश्च नास्ति मे।<br />
कथमत्र मया कार्यं तद्ब्रूहि भगवन्मम॥ 3-3-3<br />
[[:Category:Service|''Service'']] [[:Category:सेवा|''सेवा'']]<br />
<br />
वैशम्पायन उवाच<br />
मुहूर्तमिव स ध्यात्वा धर्मेणान्विष्य तां गतिम्।<br />
युधिष्ठिरमुवाचेदं धौम्यो धर्मभृतां वरः॥ 3-3-4<br />
[[:Category:Dhaumya Rishi|''Dhaumya Rishi'']] [[:Category:धौम्य ऋषि|''धौम्य ऋषि'']]<br />
<br />
धौम्य उवाच<br />
पुरा सृष्टानि भूतानि पीड्यन्ते क्षुधया भृशम्।<br />
ततोऽनुकम्पया तेषां सविता स्वपिता यथा॥ 3-3-5<br />
गत्वोत्तरायणं तेजो रसानुद्धृत्य रश्मिभिः।<br />
दक्षिणायनमावृत्तो महीं निविशते रविः॥ 3-3-6<br />
[[:Category:Sun God|''Sun God'']] [[:Category:सूर्य देव|''सूर्य देव'']] [[:Category:अन्न|''अन्न'']]<br />
<br />
क्षेत्रभूते ततस्तस्मिन्नोषधीरोषधीपतिः।<br />
दिवस्तेजः समुद्धृत्य जनयामास वारिणा॥ 3-3-7<br />
निषिक्तश्चन्द्रतेजोभिः स्वयोनौ निर्गते रविः।<br />
ओषध्यः षड्रसा मेध्यास्तदन्नं प्राणिनां भुवि॥ 3-3-8<br />
[[:Category:Sun God|''Sun God'']] [[:Category:सूर्य देव|''सूर्य देव'']] [[:Category:अन्न|''अन्न'']] [[:Category:Moon God|''Moon God'']] [[:Category:चंद्रमा|''चंद्रमा'']] [[:Category:चंद्र देव|''चंद्र देव'']]<br />
<br />
एवं भानुमयं ह्यन्नं भूतानां प्राणधारणम्।<br />
पितैष सर्वभूतानां तस्मात्तं शरणं व्रज॥ 3-3-9<br />
[[:Category:Sun God|''Sun God'']] [[:Category:सूर्य देव|''सूर्य देव'']] [[:Category:अन्न|''अन्न'']]<br />
<br />
राजानो हि महात्मानो योनिकर्मविशोधिताः।<br />
उद्धरन्ति प्रजाः सर्वास्तप आस्थाय पुष्कलम्॥ 3-3-10<br />
भीमेन कार्तवीर्येण वैन्येन नहुषेण च।<br />
तपोयोगसमाधिस्थैरुद्धता ह्यापदः प्रजाः॥ 3-3-11<br />
तथा त्वमपि धर्मात्मन्कर्मणा च विशोधितः।<br />
तप आस्थाय धर्मेण द्विजातीन्भर भारत॥ 3-3-12<br />
[[:Category:Penance|''Penance'']] [[:Category:tapasya|''tapasya'']]<br />
<br />
जनमेजय उवाच<br />
कथं कुरूणामृषभः स तु राजा युधिष्ठिरः।<br />
विप्रार्थमाराधितवान्सूर्यमद्भुतदर्शनम्॥ 3-3-13<br />
वैशम्पायन उवाच<br />
शृणुष्वावहितो राजञ्शुचिर्भूत्वा समाहितः।<br />
क्षणं च कुरु राजेन्द्र सम्प्रवक्ष्याम्यशेषतः॥ 3-3-14<br />
धौम्येन तु यथा पूर्वं पार्थाय सुमहात्मने।<br />
नामाष्टशतमाख्यातं तच्छृणुष्व महामते॥ 3-3-15<br />
[[:Category:Sun God|''Sun God'']] [[:Category:सूर्य देव|''सूर्य देव'']]<br />
<br />
धौम्य उवाच<br />
सूर्योऽर्यमा भगस्त्वष्टा पूषार्कः सविता रविः।<br />
गभस्तिमानजः कालो मृत्युर्धाता प्रभाकरः॥ 3-3-16<br />
पृथिव्यापश्च तेजश्च खं वायुश्च परायणम्।<br />
सोमो बृहस्पतिः शुक्रो बुधोऽङ्गारक एव च॥ 3-3-17<br />
इन्द्रो विवस्वान्दीप्तांशुः शुचिः शौरिः शनैश्चरः।<br />
ब्रह्मा विष्णुश्च रुद्रश्च स्कन्दो वै वरुणो यमः॥ 3-3-18<br />
वैद्युतो जाठरश्चाग्निरैन्धनस्तेजसां पतिः।<br />
धर्मध्वजो वेदकर्ता वेदाङ्गो वेदवाहनः॥ 3-3-19<br />
कृतं त्रेता द्वापरश्च कलिः सर्वमलाश्रयः।<br />
कला काष्ठा मुहूर्ताश्च क्षपा यामस्तथा क्षणः॥ 3-3-20<br />
संवत्सरकरोऽश्वत्थः कालचक्रो विभावसुः।<br />
पुरुषः शाश्वतो योगी व्यक्ताव्यक्तः सनातनः॥ 3-3-21<br />
कालाध्यक्षः प्रजाध्यक्षो विश्वकर्मा तमोनुदः।<br />
वरुणः सागरोंऽशुश्च जीमूतो जीवनोऽरिहा॥ 3-3-22<br />
भूताश्रयो भूतपतिः सर्वलोकनमस्कृतः।<br />
स्रष्टा संवर्तको वह्निः सर्वस्यादिरलोलुपः॥ 3-3-23<br />
अनन्तः कपिलो भानुः कामदः सर्वतोमुखः।<br />
जयो विशालो वरदः सर्वधातुनिषेचिता॥ 3-3-24<br />
मनःसुपर्णो भूतादिः शीघ्रगः प्राणधारकः।<br />
धन्वन्तरिर्धूमकेतुरादिदेवोऽदितेः सुतः॥ 3-3-25<br />
द्वादशात्मारविन्दाक्षः पिता माता पितामहः।<br />
स्वर्गद्वारं प्रजाद्वारं मोक्षद्वारं त्रिविष्टपम्॥ 3-3-26<br />
देहकर्ता प्रशान्तात्मा विश्वात्मा विश्वतोमुखः।<br />
चराचरात्मा सूक्ष्मात्मा मैत्रेयः करुणान्वितः॥ 3-3-27<br />
एतद्वै कीर्तनीयस्य सूर्यस्यामिततेजसः।<br />
नामाष्टशतकं चेदं प्रोक्तमेतत्स्वयंभुवा॥ 3-3-28<br />
[[:Category:108 names of Sun God|''108 names of Sun God'']] [[:Category:सूर्य देव|''सूर्य देव'']] [[:Category:१०८|''१०८'']]<br />
<br />
सुरगणपितृयक्षसेवितं ह्यसुरनिशाचरसिद्धवन्दितम्।<br />
वरकनकहुताशनप्रभं प्रणिपतितोऽस्मि हिताय भास्करम्॥ 3-3-29<br />
सूर्योदये यः सुसमाहितः पठेत्स पुत्रदारान्धनरत्नसञ्चयान्।<br />
लभेत जातिस्मरतां नरः सदा धृतिं च मेधां च स विन्दते पुमान्॥ 3-3-30<br />
इमं स्तवं देववरस्य यो नरः प्रकीर्तयेच्छुचिसुमनाः समाहितः।<br />
विमुच्यते शोकदवाग्निसागराल्लभेत कामान्मनसा यथेप्सितान्॥ 3-3-31<br />
[[:Category:Worship of Sun God|''Worship of Sun God'']] [[:Category:सूर्य देव आराधना|''सूर्य देव आराधना'']]<br />
<br />
वैशम्पायन उवाच<br />
एवमुक्तस्तु धौम्येन तत्कालसदृशं वचः।<br />
विप्रत्यागसमाधिस्थः संयतात्मा दृढव्रतः॥ 3-3-32<br />
धर्मराजो विशुद्धात्मा तप आतिष्ठदुत्तमम्।<br />
पुष्पोपहारैर्बलिभिरर्चयित्वा दिवाकरम्॥ 3-3-33<br />
सोऽवगाह्य जलं राजा देवस्याभिमुखोऽभवत्।<br />
योगमास्थाय धर्मात्मा वायुभक्षो जितेन्द्रियः॥ 3-3-34<br />
गाङ्गेयं वार्युपस्पृश्य प्राणायामेन तस्थिवान्।<br />
शुचिः प्रयतवाग्भूत्वा स्तोत्रमारब्धवांस्ततः॥ 3-3-35<br />
[[:Category:Worship|''Worship'']] [[:Category:पुजा|''पुजा'']]<br />
<br />
युधिष्ठिर उवाच<br />
त्वं भानो जगतश्चक्षुस्त्वमात्मा सर्वदेहिनाम्।<br />
त्वं योनिः सर्वभूतानां त्वमाचारः क्रियावताम्॥ 3-3-36<br />
त्वं गतिः सर्वसांख्यानां योगिनां त्वं परायणम्।<br />
अनावृतार्गलद्वारं त्वं गतिस्त्वं मुमुक्षताम्॥ 3-3-37<br />
त्वया संधार्यते लोकस्त्वया लोकः प्रकाश्यते।<br />
त्वया पवित्रीक्रियते निर्व्याजं पाल्यते त्वया॥ 3-3-38<br />
त्वामुपस्थाय काले तु ब्राह्मणा वेदपारगाः।<br />
स्वशाखाविहितैर्मन्त्रैरर्चन्त्यृषिगणार्चितम्॥ 3-3-39<br />
तव दिव्यं रथं यान्तमनुयान्ति वरार्थिनः।<br />
सिद्धचारणगन्धर्वा यक्षगुह्यकपन्नगाः॥ 3-3-40<br />
त्रयस्त्रिंशच्च वै देवास्तथा वैमानिका गणाः।<br />
सोपेन्द्राः समहेन्द्राश्च त्वामिष्ट्वा सिद्धिमागताः॥ 3-3-41<br />
उपयान्त्यर्चयित्वा तु त्वां वै प्राप्तमनोरथाः।<br />
दिव्यमन्दारमालाभिस्तूर्णं विद्याधरोत्तमाः॥ 3-3-42<br />
गुह्याः पितृगणाः सप्त ये दिव्या ये च मानुषाः।<br />
ते पूजयित्वा त्वामेव गच्छन्त्याशु प्रधानताम्॥ 3-3-43<br />
वसवो मरुतो रुद्रा ये च साध्या मरीचिपाः।<br />
वालखिल्यादयः सिद्धाः श्रेष्ठत्वं प्राणिनां गताः॥ 3-3-44<br />
सब्रह्मकेषु लोकेषु सप्तस्वप्यखिलेषु च।<br />
न तद्भूतमहं मन्ये यदर्कादतिरिच्यते॥ 3-3-45<br />
सन्ति चान्यानि सत्त्वानि वीर्यवन्ति महान्ति च।<br />
न तु तेषां तथा दीप्तिः प्रभावो वा यथा तव॥ 3-3-46<br />
ज्योतींषि त्वयि सर्वाणि त्वं सर्वज्योतिषां पतिः।<br />
त्वयि सत्यं च सत्त्वं च सर्वे भावाश्च सात्त्विकाः॥ 3-3-47<br />
त्वत्तेजसा कृतं चक्रं सुनाभं विश्वकर्मणा।<br />
देवारीणां मदो येन नाशितः शार्ङ्गधन्वना॥ 3-3-48<br />
त्वमादायांशुभिस्तेजो निदाघे सर्वदेहिनाम्।<br />
सर्वौषधिरसानां च पुनर्वर्षासु मुञ्चसि॥ 3-3-49<br />
तपन्त्यन्ये दहन्त्यन्ये गर्जन्त्यन्ये तथा घनाः।<br />
विद्योतन्ते प्रवर्षन्ति तव प्रावृषि रश्मयः॥ 3-3-50<br />
न तथा सुखयत्यग्निर्न प्रावारा न कम्बलाः।<br />
शीतवातार्दितं लोकं यथा तव मरीचयः॥ 3-3-51<br />
त्रयोदशद्वीपवतीं गोभिर्भासयसे महीम्।<br />
त्रयाणामपि लोकानां हितायैकः प्रवर्तसे॥ 3-3-52<br />
तव यद्युदयो न स्यादन्धं जगदिदं भवेत्।<br />
न च धर्मार्थकामेषु प्रवर्तेरन्मनीषिणः॥ 3-3-53<br />
आधानपशुबन्धेष्टिमन्त्रयज्ञतपःक्रियाः।<br />
त्वत्प्रसादादवाप्यन्ते ब्रह्मक्षत्रविशां गणैः॥ 3-3-54<br />
यदहर्ब्रह्मणः प्रोक्तं सहस्रयुगसम्मितम्।<br />
तस्य त्वमादिरन्तश्च कालज्ञैः परिकीर्तितः॥ 3-3-55<br />
मनूनां मनुपुत्राणां जगतोऽमानवस्य च।<br />
मन्वन्तराणां सर्वेषामीश्वराणां त्वमीश्वरः॥ 3-3-56<br />
संहारकाले सम्प्राप्ते तव क्रोधविनिःसृतः।<br />
संवर्तकाग्निस्त्रैलोक्यं भस्मीकृत्यावतिष्ठते॥ 3-3-57<br />
त्वद्दीधितिसमुत्पन्ना नानावर्णा महाघनाः।<br />
सैरावताः साशनयः कुर्वन्त्याभूतसम्प्लवम्॥ 3-3-58<br />
कृत्वा द्वादशधाऽऽत्मानं द्वादशादित्यतां गतः।<br />
संहृत्यैकार्णवं सर्वं त्वं शोषयसि रश्मिभिः॥ 3-3-59<br />
त्वामिन्द्रमाहुस्त्वं रुद्रस्त्वं विष्णुस्त्वं प्रजापतिः।<br />
त्वमग्निस्त्वं मनः सूक्ष्मं प्रभुस्त्वं ब्रह्म शाश्वतम्॥ 3-3-60<br />
त्वं हंसः सविता भानुरंशुमाली वृषाकपिः।<br />
विवस्वान्मिहिरः पूषा मित्रो धर्मस्तथैव च॥ 3-3-61<br />
सहस्ररश्मिरादित्यस्तपनस्त्वं गवाम्पतिः।<br />
मार्तण्डोऽर्को रविः सूर्यः शरण्यो दिनकृत्तथा॥ 3-3-62<br />
दिवाकरः सप्तसप्तिर्धामकेशी विरोचनः।<br />
आशुगामी तमोघ्नश्च हरिताश्वश्च कीर्त्यसे॥ 3-3-63<br />
सप्तम्यामथवा षष्ठ्यां भक्त्या पूजां करोति यः।<br />
अनिर्विण्णोऽनहङ्कारी तं लक्ष्मीर्भजते नरम्॥ 3-3-64<br />
न तेषामापदः सन्ति नाधयो व्याधयस्तथा।<br />
ये तवानन्यमनसः कुर्वन्त्यर्चनवन्दनम्॥ 3-3-65<br />
सर्वरोगैर्विरहिताः सर्वपापविवर्जिताः।<br />
त्वद्भावभक्ताः सुखिनो भवन्ति चिरजीविनः॥ 3-3-66<br />
त्वं ममाप्यन्नकामस्य सर्वातिथ्यं चिकीर्षतः।<br />
अन्नमन्नपते दातुमभितः श्रद्धयार्हसि॥ 3-3-67<br />
ये च तेऽनुचराः सर्वे पादोपान्तं समाश्रिताः।<br />
माठरारुणदण्डाद्यास्तांस्तान्वन्देऽशनिक्षुभान्॥ 3-3-68<br />
क्षुभया सहिता मैत्री याश्चान्या भूतमातरः।<br />
ताश्च सर्वा नमस्यामि पान्तु मां शरणागतम्॥ 3-3-69<br />
वैशम्पायन उवाच<br />
एवं स्तुतो महाराज भास्करो लोकभावनः।<br />
ततो दिवाकरः प्रीतो दर्शयामास पाण्डवम्।<br />
दीप्यमानः स्ववपुषा ज्वलन्निव हुताशनः॥ 3-3-70<br />
[[:Category:Sun God|''Sun God'']] [[:Category:सूर्य देव|''सूर्य देव'']]<br />
<br />
विवस्वानुवाच<br />
यत्तेऽभिलषितं किञ्चित्तत्त्वं सर्वमवाप्स्यसि।<br />
अहमन्नं प्रदास्यामि सप्त पञ्च च ते समाः॥ 3-3-71<br />
फलमूलामिषं शाकं संस्कृतं यन्महानसे।<br />
गृह्णीष्व पिठरं ताम्रं मया दत्त नराधिप।<br />
यावद्वर्त्स्यति पाञ्चाली पात्रेणानेन सुव्रत॥ 3-3-72<br />
फलमूलामिषं शाकं संस्कृतं यन्महानसे।<br />
चतुर्विधं तदन्नाद्यमक्षय्यं ते भविष्यति।<br />
धनं च विविधं तुभ्यमित्युक्त्वान्तरधीयत॥<br />
इतश्चतुर्दशे वर्षे भूयो राज्यमवाप्स्यसि॥ 3-3-73<br />
[[:Category:Pandavas get Akshaypatra|''Pandavas get Akshaypatra'']] [[:Category:अक्षयपात्र|''अक्षयपात्र'']]<br />
<br />
वैशम्पायन उवाच<br />
एवमुक्त्वा तु भगवांस्तत्रैवान्तरधीयत॥ 3-3-74<br />
इमं स्तवं प्रयतमनाः समाधिना पठेदिहान्योऽपि वरं समर्थयन्।<br />
तत्तस्य दद्याच्च रविर्मनीषितं तदाप्नुयाद्यद्यपि तत्सुदुर्लभम्॥ 3-3-74<br />
यश्चेदं धारयेन्नित्यं शृणुयाद्वाप्यभीक्ष्णशः।<br />
पुत्रार्थी लभते पुत्रं धनार्थी लभते धनम्॥ 3-3-75<br />
विद्यार्थी लभते विद्यां पुरुषोऽप्यथवा स्त्रियः।<br />
उभे सन्ध्ये पठेन्नित्यं नारी वा पुरुषो यदि॥ 3-3-76<br />
आपदं प्राप्य मुच्येत बद्धो मुच्येत बन्धनात्।<br />
एतद्ब्रह्मा ददौ पूर्वं शक्राय सुमहात्मने॥ 3-3-77<br />
शक्राच्च नारदः प्राप्तो धौम्यस्तु तदनन्तरम्।<br />
धौम्याद्युधिष्ठिरः प्राप्य सर्वान्कामानवाप्तवान्॥ 3-3-78<br />
सङ्ग्रामे च जयेन्नित्यं विपुलं चाप्नुयाद्वसु।<br />
मुच्यते सर्वपापेभ्यः सूर्यलोकं स गच्छति॥ 3-3-79<br />
[[:Category:Benefits of worshiping Sun God|''Benefits of worshiping Sun God'']]<br />
<br />
वैशम्पायन उवाच<br />
लब्ध्वा वरं तु कौन्तेयो जलादुत्तीर्य धर्मवित्।<br />
जग्राह पादौ धौम्यस्य भ्रातॄंश्च परिषस्वजे॥ 3-3-80<br />
द्रौपद्या सह सङ्गम्य वन्द्यमानस्तया प्रभुः।<br />
महानसे तदानीं तु साधयामास पाण्डवः॥ 3-3-81<br />
संस्कृतं प्रसवं याति स्वल्पमन्नं चतुर्विधम्।<br />
अक्षय्यं वर्धते चान्नं तेन भोजयते द्विजान्॥ 3-3-82<br />
भुक्तवत्सु च विप्रेषु भोजयित्वानुजानपि।<br />
शेषं विघससंज्ञं तु पश्चाद्भुङ्क्ते युधिष्ठिरः॥ 3-3-83<br />
युधिष्ठिरं भोजयित्वा शेषमश्नाति पार्षती।<br />
द्रौपद्यां भुज्यमानायां तदन्नं क्षयमेति च।<br />
एवं दिवाकरात्प्राप्य दिवाकरसमप्रभः॥ 3-3-84<br />
कामान्मनोऽभिलषितान्ब्राह्मणेभ्योऽददात्प्रभुः।<br />
पुरोहितपुरोगाश्च तिथिनक्षत्रपर्वसु।<br />
यज्ञियार्थाः प्रवर्तन्ते विधिमन्त्रप्रमाणतः॥ 3-3-85<br />
[[:Category:Serving Brahmanas|''Serving Brahmanas'']] [[:Category:Akshaypatra|''Akshaypatra'']] [[:Category:अक्षयपात्र|''अक्षयपात्र'']]<br />
<br />
ततः कृतस्वस्त्ययना धौम्येन सह पाण्डवाः।<br />
द्विजसङ्घैः परिवृताः प्रययुः काम्यकं वनम्॥ 3-3-86<br />
[[:Category:Kamyavan|''Kamyavan'']] [[:Category:काम्यवन|''काम्यवन'']]<br />
<br />
जनमेजयः पुष्पोपहारबलिभिर्बहुशश्च यथाविधि।<br />
<br />
सर्वात्मभूतं सम्पूज्य यतप्राणो जितेन्द्रियः॥<br />
<br />
स्तवेन केन विप्रर्षे स तु राजा युधिष्ठिरः।<br />
<br />
विप्रार्थमाराधितवान्सूर्यमद्भुतविक्रमम्॥<br />
<br />
मयि स्नेहोऽस्ति चेद्ब्रह्मन्यदनुग्रहभागहम्।<br />
<br />
भगवान्नास्ति चेद्गुह्यं तच्च मे ब्रूहि साम्प्रतम्॥<br />
<br />
वैशम्पायनः शृणुष्वावहितो राजन्शुचिर्भूत्वा समाहितः।<br />
<br />
क्षणं च कुरु राजेन्द्र गुह्यं वक्ष्यामि ते हितम्॥<br />
<br />
धौम्येन तु यथाप्रोक्तं पार्थाय सुमहात्मने।<br />
<br />
नाम्नामष्टशतं पुण्यं तच्छृणुष्व महामते॥<br />
<br />
सूर्योऽर्यमा भगस्त्वष्टा पूषाऽर्कस्सविता रविः।<br />
<br />
गभस्तिमानजः कालो मृत्युर्धाता प्रभाकरः॥<br />
<br />
पृथिव्यापश्च तेजश्च खं वायुश्च परायणम्।<br />
<br />
सोमो बृहस्पतिश्शुक्रो बुधोऽङ्गारक एव च॥<br />
<br />
इन्द्रो विवस्वान्दीप्तांशुश्शुचिश्शौरिश्शनैश्चरः।<br />
<br />
ब्रह्मा विष्णुश्च रुद्रश्च स्कन्दो वैश्रवणो यमः॥<br />
<br />
वैद्युतो जाठरश्चाग्निः ऐन्धनस्तेजसां पतिः।<br />
<br />
धर्मध्वजो वेदकर्ता वेदाङ्गो वेदवाहनः॥<br />
<br />
कृतं त्रेता द्वापरश्च कलिस्सर्वामराश्रयः।<br />
<br />
कला काष्ठा मुहूर्ताश्च पक्षा मासा ऋतुस्तथा॥<br />
<br />
संवत्सरकरोऽश्वत्थः कालचक्रो विभावसुः।<br />
<br />
पुरुषश्शाश्वतो योगी व्यक्ताव्यक्तस्सनातनः॥<br />
<br />
लोकाध्यक्षस्सुराध्यक्षो विश्वकर्मा तमोनुदः।<br />
<br />
वरुणस्सागरोंशुश्च जीमूतो जीवनोऽरिहा॥<br />
<br />
भूताश्रयो भूतपतिस्सर्वभूतनिषेवितः।<br />
<br />
मणिस्सुवर्णो भूतादिः कामदस्सर्वतोमुखः॥<br />
<br />
जयो विशालो वरदश्शीघ्रगः प्राणधारणः।<br />
<br />
धन्वन्तरिर्धूमकेतुः आदिदेवोऽदितेस्सुतः॥<br />
<br />
द्वादशात्माऽरविन्दाक्षः पिता माता पितामहः।<br />
<br />
स्वर्गद्वारं प्रजाद्वारं मोक्षद्वारं त्रिविष्टपम्॥<br />
<br />
देवकर्ता प्रशान्तात्मा विश्वात्मा विश्वतोमुखः।<br />
<br />
चराचरात्मा सूक्ष्मात्मा मैत्रेण वपुषाऽन्वितः॥<br />
<br />
एतद्वै कीर्तनीयस्य सूर्यस्यैव महात्मनः।<br />
<br />
नाम्नामष्टशतं पुण्यं शक्रेणोक्तं महात्मना॥<br />
<br />
शक्राच्च नारदः प्राप्तो धौम्यश्च तदनन्तरम्।<br />
<br />
धौम्याद्युधिष्ठिरः प्राप्य सर्वान्कामानवाप्तवान्॥<br />
<br />
सुरपितृगणयक्षसेवितं निशिचरसिद्धगणैश्च वन्दितम्।<br />
<br />
वरकनकहुताशनप्रभं त्वमपि मनस्यभिधेहि भास्करम्॥<br />
<br />
सूर्योदये यस्सुसमाहितः पठेत्स पुत्रलाभं धनरत्नसञ्चयान्।<br />
<br />
लभेत जातिस्मरतां सदा नरे धृतिं च मेधां च स विन्दते वराम्॥<br />
<br />
इमं स्तवं देववरस्य कीर्तयेच्छृणोति वा यस्सुमनास्समाहितः।<br />
<br />
स मुच्यते शोकदवाग्निसागराल्लभेत कामान्मनसा यथेप्सितान्॥<br />
<br />
इति श्रीमिहाभारते वनपर्वणि अरण्यपर्वणि काम्यकवनप्रवेशे तृतीयोऽध्यायः॥ 3 ॥</div>
ShraddhaV
https://dharmawiki.org/index.php?title=Vanaparva_Adhyaya_2_(%E0%A4%B5%E0%A4%A8%E0%A4%AA%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A4%A3%E0%A4%BF_%E0%A4%85%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%83_%E0%A5%A8)&diff=119811
Vanaparva Adhyaya 2 (वनपर्वणि अध्यायः २)
2019-07-10T12:28:48Z
<p>ShraddhaV: </p>
<hr />
<div> वैशम्पायन उवाच<br />
प्रभातायां तु शर्वर्यां तेषामक्लिष्टकर्मणाम्।<br />
वनं यियासतां विप्रास्तस्थुर्भिक्षाभुजोऽग्रतः॥ 3-2-1<br />
तानुवाच ततो राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः।<br />
वयं हि हृतसर्वस्वा हृतराज्या हृतश्रियः॥ 3-2-2<br />
फलमूलाशनाहारा वनं गच्छाम दुःखिताः।<br />
वनं च दोषबहुलं बहुव्यालसरीसृपम्॥ 3-2-3<br />
परिक्लेशश्च वो मन्ये ध्रुवं तत्र भविष्यति।<br />
ब्राह्मणानां परिक्लेशो दैवतान्यपि सादयेत्।<br />
किं पुनर्मामितो विप्रा निवर्तध्वं यथेष्टतः॥ 3-2-4<br />
ब्राह्मणा ऊचुः<br />
गतिर्या भवतां राजंस्तां वयं गन्तुमुद्यताः।<br />
नार्हस्यस्मान्परित्यक्तुं भक्तान्सद्धर्मदर्शिनः॥ 3-2-5<br />
अनुकम्पां हि भक्तेषु देवता ह्यपि कुर्वते।<br />
विशेषतो ब्राह्मणेषु सदाचारावलम्बिषु॥ 3-2-6<br />
[[:Category:Yudhishtir - brahmans conversation|''Yudhishtir - brahmans conversation'']] [[:Category:युधिष्टीर ब्राह्मण संवाद|''युधिष्टीर ब्राह्मण संवाद'']]<br />
<br />
युधिष्ठिर उवाच<br />
ममापि परमा भक्तिर्ब्राह्मणेषु सदा द्विजाः।<br />
सहायविपरिभ्रंशस्त्वयं सादयतीव माम्॥ 3-2-7<br />
आहरेयुरिमे येऽपि फलमूलमृगांस्तथा[मधूनि च]।<br />
त इमे शोकजैर्दुःखैर्भ्रातरो मे विमोहिताः॥ 3-2-8<br />
द्रौपद्या विप्रकर्षेण राज्यापहरणेन च।<br />
दुःखार्दितानिमान्क्लेशैर्नाहं योक्तुमिहोत्सहे॥ 3-2-9<br />
[[:Category:Yudhishtir - brahmans conversation|''Yudhishtir - brahmans conversation'']] [[:Category:युधिष्टीर ब्राह्मण संवाद|''युधिष्टीर ब्राह्मण संवाद'']] [[:Category:Sadness|''Sadness'']] [[:Category:दु:ख|''दु:ख'']] [[:Category:शोक|''शोक'']]<br />
<br />
ब्राह्मणा ऊचुः<br />
अस्मत्पोषणजा चिन्ता मा भूत्ते हृदि पार्थिव।<br />
स्वयमाहृत्य चान्नानि चोपयोक्षा[त्वानुयास्या]महे वयम्॥ 3-2-10<br />
अनुध्यानेन जप्येन विधास्यामः शिवं तव।<br />
कथाभिश्चाभिरम्याभिः सह रंस्यामहे वयम्॥ 3-2-11<br />
युधिष्ठिर उवाच<br />
एवमेतन्न सन्देहो रमेऽहं सततं द्विजैः।<br />
मा[न्यू]नभावात्तु पश्यामि प्रत्यादेशमिवात्मनः॥ 3-2-12<br />
कथं द्रक्ष्यामि वः सर्वान्स्वयमाहृतभोजनान्।<br />
मद्भक्त्या क्लिश्यतोऽनर्हान्धिक्पापान्धृतराष्ट्रजान्॥ 3-2-13<br />
[[:Category:Yudhishtir - brahmans conversation|''Yudhishtir - brahmans conversation'']] [[:Category:युधिष्टीर ब्राह्मण संवाद|''युधिष्टीर ब्राह्मण संवाद'']]<br />
<br />
वैशम्पायन उवाच<br />
<br />
इत्युक्त्वा स नृपः शोचन्निषसाद महीतले।<br />
<br />
तमध्यात्मरतो विद्वान्शौनको नाम वै द्विजः।<br />
<br />
योगे सांख्ये च कुशलो राजानमिदमब्रवीत्॥ 3-2-14<br />
<br />
शोकस्थानसहस्राणि भयस्थानशतानि च।<br />
दिवसे दिवसे मूढमाविशन्ति न पण्डितम्॥ 3-2-15<br />
न हि ज्ञानविरुद्धेषु बहुदोषेषु कर्मसु।<br />
श्रेयोघातिषु सज्जन्ते बुद्धिमन्तो भवद्विधाः॥ 3-2-16<br />
अष्टाङ्गां बुद्धिमाहुर्यां सर्वाश्रेयोऽभिघातिनीम्।<br />
श्रुतिस्मृतिसमायुक्तां राजन्सा त्वय्यवस्थिता॥ 3-2-17<br />
अर्थकृच्छ्रेषु दुर्गेषु व्यापत्सु स्वजनस्य च।<br />
शारीरमानसैर्दुःखैर्न सीदन्ति भवद्विधाः॥ 3-2-18<br />
[[:Category:Description of a knowledgeable person|''Description of a knowledgeable person'']] [[:Category:ज्ञानी जनस्य वर्णनं|''ज्ञानी जनस्य वर्णनं'']]<br />
<br />
श्रूयतां चाभिधास्यामि जनकेन यथा पुरा।<br />
<br />
आत्मव्यवस्थानकरा गीताः श्लोका महात्मना॥ 3-2-19<br />
<br />
मनोदेहसमुत्थाभ्यां दुःखाभ्यामर्दितं जगत्।<br />
तयोर्व्याससमासाभ्यां शमोपायमिमं शृणु॥ 3-2-20<br />
व्याधेरनिष्टसंस्पर्शाच्छ्रमादिष्टविवर्जनात्।<br />
दुःखं चतुर्भिः शारीरं कारणैः सम्प्रवर्तते॥ 3-2-21<br />
तदा तत्प्रतिकाराच्च सततं चाविचिन्तनात्।<br />
आधिव्याधिप्रशमनं क्रियायोगद्वयेन तु॥ 3-2-22<br />
मतिमन्तो ह्यतो वैद्याः शमं प्रागेव कुर्वते।<br />
मानसस्य प्रियाख्यानैः सम्भोगोपनयैर्नृणाम्॥ 3-2-23<br />
[[:Category:solution to overcome sadness|''solution to overcome sadness'']]<br />
<br />
मानसेन हि दुःखेन शरीरमुपतप्यते।<br />
अयःपिण्डेन तप्तेन कुम्भसंस्थमिवोदकम्॥ 3-2-24<br />
मानसं शमयेत्तस्माज्ज्ञानेनाग्निमिवाम्बुना।<br />
प्रशान्ते मानसे ह्यस्य शारीरमुपशाम्यति॥ 3-2-25<br />
[[:Category:solution to overcome sadness|''solution to overcome sadness'']] [[:Category:connection between physical and mental health|''connection between physical and mental health'']]<br />
<br />
मनसो दुःखमूलं तु स्नेह इत्युपलभ्यते।<br />
स्नेहात्तु सज्जते जन्तुर्दुःखयोगमुपैति च॥ 3-2-26<br />
स्नेहमूलानि दुःखानि स्नेहजानि भयानि च।<br />
शोकहर्षौ तथाऽऽयासः सर्वं स्नेहात्प्रवर्तते॥ 3-2-27<br />
स्नेहाद्भावोऽनुरागश्च प्रजज्ञे विषये तथा।<br />
अश्रेयस्कावुभावेतौ पूर्वस्तत्र गुरुः स्मृतः॥ 3-2-28<br />
कोटराग्निर्यथाशेषं समूलं पादपं दहेत्।<br />
धर्मार्थौ तु तथाल्पोऽपि रागदोषो विनाशयेत्॥ 3-2-29<br />
[[:Category:solution to overcome sadness|''solution to overcome sadness'']] [[:Category:attachment|''attachment'']] [[:Category:आसक्ती|''आसक्ती'']]<br />
<br />
विप्रयोगे न तु त्यागी दोषदर्शी समागमे।<br />
विरागं भजते जन्तुर्निर्वैरो निरवग्रहः॥ 3-2-30<br />
[[:Category:detachment|''detachment'']] [[:Category:त्याग|''त्याग'']]<br />
<br />
तस्मात्स्नेहं न लिप्सेत मित्रेभ्यो धनसञ्चयात्।<br />
स्वशरीरसमुत्थं च ज्ञानेन विनिवर्तयेत्॥ 3-2-31<br />
ज्ञानान्वितेषु युक्तेषु शास्त्रज्ञेषु कृतात्मसु।<br />
न तेषु सज्जते स्नेहः पद्मपत्रेष्विवोदकम्॥ 3-2-32<br />
[[:Category:attachment|''attachment'']] [[:Category:आसक्ती|''आसक्ती'']]<br />
<br />
रागाभिभूतः पुरुषः कामेन परिकृष्यते।<br />
इच्छा सञ्जायते तस्य ततस्तृष्णा विवर्धते॥ 3-2-33<br />
तृष्णा हि सर्वपापिष्ठा नित्योद्वेगकरी स्मृता।<br />
अधर्मबहुला चैव घोरा पापानुबन्धिनी॥ 3-2-34<br />
या दुस्त्यजा दुर्मतिभिर्या न जीर्यति जीर्यतः।<br />
योऽसौ प्राणान्तिको रोगस्तां तृष्णां त्यजतः सुखम्॥ 3-2-35<br />
अनाद्यन्ता तु सा तृष्णा अन्तर्देहगता नृणाम्।<br />
विनाशयति भूतानि अयोनिज इवानलः॥ 3-2-36<br />
यथैधः स्वसमुत्थेन वह्निना नाशमृच्छति।<br />
तथाकृतात्मा लोभेन सहजेन विनश्यति॥ 3-2-37<br />
[[:Category:anarthas|''anarthas'']] [[:Category:अनर्थ|''अनर्थ'']]<br />
<br />
राजतः सलिलादग्नेश्चोरतः स्वजनादपि।<br />
भयमर्थवतां नित्यं मृत्योः प्राणभृतामिव॥ 3-2-38<br />
यथा ह्यामिषमाकाशे पक्षिभिः श्वापदैर्भुवि।<br />
भक्ष्यते सलिले मत्स्यैस्तथा सर्वत्र वित्तवान्॥ 3-2-39<br />
[[:Category:anarthas|''anarthas'']] [[:Category:अनर्थ|''अनर्थ'']] [[:Category:Disadvantages of being wealthy|''Disadvantages of being wealthy'']] [[:Category:धन दोष|''धन दोष'']]<br />
<br />
अर्थ एव हि केषाञ्चिदनर्थं भजते नृणाम्।<br />
अर्थश्रेयसि चासक्तो च श्रेयो विन्दते नरः॥ 3-2-40<br />
तस्मादर्थागमाः सर्वे मनोमोहविवर्धनाः।<br />
कार्पण्यं दर्पमानौ च भयमुद्वेग एव च॥ 3-2-41<br />
अर्थजानि विदुः प्राज्ञा दुःखान्येतानि देहिनाम्।<br />
अर्थस्योत्पादने चैव पालने च तथा क्षये॥ 3-2-42<br />
सहन्ति च महद्दुःखं घ्नन्ति चैवार्थकारणात्।<br />
अर्था दुःखं परित्यक्तुं पालिताश्चैव शत्रवः॥ 3-2-43<br />
दुःखेन चाधिगम्यन्ते तस्मान्नाशं न चिन्तयेत्।<br />
असन्तोषपरा मूढाः सन्तोषं यान्ति पण्डिताः॥ 3-2-44<br />
अन्तो नास्ति पिपासायाः सन्तोषः परमं सुखम्।<br />
तस्मात्सन्तोषमेवेह परं पश्यन्ति पण्डिताः॥ 3-2-45<br />
अनित्यं यौवनं रूपं जीवितं रत्नसंचयः।<br />
ऐश्वर्यं प्रियसंवासो गृध्येत्तत्र न पण्डितः॥ 3-2-46<br />
त्यजेत सञ्चयांस्तस्मात्तज्जान्क्लेशान्सहेत च।<br />
न हि सञ्चयवान्कश्चिद्दृश्यते निरुपद्रवः।<br />
अतश्च धार्मिकैः पुंभिरनीहार्थः प्रशस्यते॥ 3-2-47<br />
धर्मार्थं यस्य वित्तेहा वरं तस्य निरीहता।<br />
प्रक्षालनाद्धि पङ्कस्य श्रेयो न स्पर्शनं नृणाम्॥ 3-2-48<br />
युधिष्ठिरैवं सर्वेषु न स्पृहां कर्तुमर्हसि।<br />
धर्मेण यदि ते कार्यं विमुक्तेच्छो भवार्थतः॥ 3-2-49<br />
[[:Category:Disadvantages of being wealthy|''Disadvantages of being wealthy'']] [[:Category:धन दोष|''धन दोष'']]<br />
<br />
युधिष्ठिर उवाच<br />
नार्थोपभोगलिप्सार्थमियमर्थेप्सुता मम।<br />
भरणार्थं तु विप्राणां ब्रह्मन्काङ्क्षे न लोभतः॥ 3-2-50<br />
कथं ह्यस्मद्विधो ब्रह्मन्वर्तमानो गृहाश्रमे।<br />
भरणं पालनं चापि न कुर्यादनुयायिनाम्॥ 3-2-51<br />
संविभागो हि भूतानां सर्वेषामेव दृश्यते।<br />
तथैवापचमानेभ्यः प्रदेयं गृहमेधिना॥ 3-2-52<br />
तृणानि भूमिरुदकं वाक्चतुर्थी च सूनृता।<br />
सतामेतानि गेहेषु नोच्छिद्यन्ते कदाचन॥ 3-2-53<br />
देयमार्तस्य शयनं स्थितश्रान्तस्य चासनम्।<br />
तृषितस्य च पानीयं क्षुधितस्य च भोजनम्॥ 3-2-54<br />
चक्षुर्दद्यान्मनो दद्याद्वाचं दद्यात्सुभाषिताम्।<br />
उत्थाय चासनं दद्यादेष धर्मः सनातनः।<br />
रत्युत्थायाभिगमनं कुर्यान्न्यायेन चार्चनम्॥ 3-2-55<br />
[[:Category:Duties of a householder|''Duties of a householder'']] [[:Category:गृहस्थ धर्म|''गृहस्थ धर्म'']] [[:Category:Sanatan dharma|''Sanatan dharma'']] [[:Category:सनातन धर्म|''सनातन धर्म'']]<br />
<br />
अग्निहोत्रमनड्वांश्च ज्ञातयोऽतिथिबान्धवाः।<br />
पुत्रा दाराश्च भृत्याश्च निर्दहेयुरपूजिताः॥ 3-2-56<br />
आत्मार्थं पाचयेन्नान्नं न वृथा घातयेत्पशून्।<br />
न च तत्स्वयमश्नीयाद्विधिवद्यन्न निर्वपेत्॥ 3-2-57<br />
श्वभ्यश्च श्वपचेभ्यश्च वयोभ्यश्चावपेद्भुवि।<br />
वैश्वदेवं हि नामैतत्सायं प्रातश्च दीयते॥ 3-2-58<br />
विघसाशी भवेत्तस्मान्नित्यं चामृतभोजनः।<br />
विघसो भुक्तशेषं तु यज्ञशेषं तथामृतम्॥ 3-2-59<br />
चक्षुर्दद्यान्मनो दद्याद्वाचं दद्याच्च सूनृताम्।<br />
अनुव्रजेदुपासीत स यज्ञः पञ्चदक्षिणः॥ 3-2-60<br />
यो दद्यादपरिक्लिष्टमन्नमध्वनि वर्तते।<br />
श्रान्तायादृष्टपूर्वाय तस्य पुण्यफलं महत्॥ 3-2-61<br />
एवं यो वर्तते वृत्तिं वर्तमानो गृहाश्रमे।<br />
तस्य धर्मं परं प्राहुः कथं वा विप्र मन्यसे॥ 3-2-62<br />
[[:Category:Duties of a householder|''Duties of a householder'']] [[:Category:गृहस्थ धर्म|''गृहस्थ धर्म'']]<br />
<br />
शौनक उवाच<br />
अहो बत महत्कष्टं विपरीतमिदं जगत्।<br />
येनापत्रपते साधुरसाधुस्तेन तुष्यति॥ 3-2-63<br />
शिश्नोदरकृतेऽप्राज्ञः करोति विघसं बहु।<br />
मोहरागवशाक्रान्त इन्द्रियार्थवशानुगः॥ 3-2-64<br />
ह्रियते बुध्यमानोऽपि नरो हारिभिरिन्द्रियैः।<br />
विमूढसंज्ञो दुष्टाश्वैरुद्भान्तैरिव सारथिः॥ 3-2-65<br />
षडिन्द्रियाणि विषयं समागच्छन्ति वै यदा।<br />
तदा प्रादुर्भवत्येषां पूर्वसङ्कल्पजं मनः॥ 3-2-66<br />
मनो यस्येन्द्रियस्येह विषयान्याति सेवितुम्।<br />
तस्यौत्सुक्यं सम्भवति प्रवृत्तिश्चोपजायते॥ 3-2-67<br />
ततः सङ्कल्पबीजेन कामेन विषयेषुभिः।<br />
विद्धः पतति लोभाग्नौ ज्योतिर्लोभात्पतङ्गवत्॥ 3-2-68<br />
ततो विहारैराहारैर्मोहितश्च यथेप्सया।<br />
महामोहे सुखे मग्नो नात्मानमवबुध्यते॥ 3-2-69<br />
एवं पतति संसारे तासु तास्विह योनिषु।<br />
अविद्याकर्मतृष्णाभिर्भ्राम्यमाणोऽथ चक्रवत्॥ 3-2-70<br />
ब्रह्मादिषु तृणान्तेषु भूतेषु परिवर्तते।<br />
जले भुवि तथाऽऽकाशे जायमानः पुनः पुनः॥ 3-2-71<br />
[[:Category:consequences of sense gratification|''consequences of sense gratification'']] [[:Category:इंद्रिय तृप्ति|''इंद्रिय तृप्ति'']] [[:Category:अविवेकी पुरुषोकी गती|''अविवेकी पुरुषोकी गती'']]<br />
<br />
अबुधानां गतिस्त्वेषा बुधानामपि मे शृणु।<br />
ये धर्मे श्रेयसि रता विमोक्षरतयो जनाः॥ 3-2-72<br />
तदिदं वेदवचनं कुरु कर्म त्यजेति च।<br />
तस्माद्धर्मानिमान्सर्वान्नाभिमानात्समाचरेत्॥ 3-2-73<br />
इज्याध्ययनदानानि तपः सत्यं क्षमा दमः।<br />
अलोभ इति मार्गोऽयं धर्मस्याष्टविधः स्मृतः॥ 3-2-74<br />
अत्र पूर्वश्चतुर्वर्गः पितृयाणपथे स्थितः।<br />
कर्तव्यमिति यत्कार्यं नाभिमानात्समाचरेत्॥ 3-2-75<br />
उत्तरो देवयानस्तु सद्भिराचरितः सदा।<br />
अष्टाङ्गेनैव मार्गेण विशुद्धात्मा समाचरेत्॥ 3-2-76<br />
सम्यक्सङ्कल्पसम्बन्धात्सम्यक्चेन्द्रियनिग्रहात्।<br />
सम्यग्व्रतविशेषाच्च सम्यक्च गुरुसेवनात्॥ 3-2-77<br />
सम्यगाहारयोगाच्च सम्यक्चाध्ययनागमात्।<br />
सम्यक्कर्मोपसन्न्यासात्सम्यक्चित्तनिरोधनात्॥ 3-2-78<br />
एवं कर्माणि कुर्वन्ति संसारविजिगीषवः।<br />
रागद्वेषविनिर्मुक्ता ऐश्वर्यं देवता गताः॥ 3-2-79<br />
रुद्राः साध्यास्तथाऽऽदित्या वसवोऽथ तथाश्विनौ।<br />
योगैश्वर्येण संयुक्ता धारयन्ति प्रजा इमाः॥ 3-2-80<br />
[[:Category:Righteousness|''Righteousness'']] [[:Category:धर्म|''धर्म'']] [[:Category:विवेकी पुरुषोकी गती|''विवेकी पुरुषोकी गती'']]<br />
<br />
तथा त्वमपि कौन्तेय शममास्थाय पुष्कलम्।<br />
तपसा सिद्धिमन्विच्छ योगसिद्धिं च भारत॥ 3-2-81<br />
[[:Category:Penance|''Penance'']] [[:Category:तपस्या|''तपस्या'']] [[:Category:Righteousness|''Righteousness'']] [[:Category:धर्म|''धर्म'']] [[:Category:विवेकी पुरुषोकी गती|''विवेकी पुरुषोकी गती'']]<br />
<br />
पितृमातृमयी सिद्धिः प्राप्ता कर्ममयी च ते।<br />
तपसा सिद्धिमन्विच्छ द्विजानां भरणाय वै॥ 3-2-82<br />
सिद्धा हि यद्यदिच्छन्ति कुर्वते तदनुग्रहात्।<br />
तस्मात्तपः समास्थाय कुरुष्वात्ममनोरथम्॥ 3-2-83<br />
[[:Category:Penance|''Penance'']] [[:Category:तपस्या|''तपस्या'']]<br />
<br />
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि अरण्यपर्वणि पाण्डवानां प्रव्रजने द्वितीयोऽध्यायः॥ 2 ॥</div>
ShraddhaV
https://dharmawiki.org/index.php?title=Vanaparva_Adhyaya_3_(%E0%A4%B5%E0%A4%A8%E0%A4%AA%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A4%A3%E0%A4%BF_%E0%A4%85%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%83_%E0%A5%A9)&diff=119810
Vanaparva Adhyaya 3 (वनपर्वणि अध्यायः ३)
2019-07-10T12:24:04Z
<p>ShraddhaV: </p>
<hr />
<div> वैशम्पायन उवाच<br />
शौनकेनैवमुक्तस्तु कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः।<br />
पुरोहितमुपागम्य भ्रातृमध्येऽब्रवीदिदम्॥ 3-3-1<br />
प्रस्थितं मानुयान्तीमे ब्राह्मणा वेदपारगाः।<br />
न चास्मि पोषणे शक्तो बहुदुःखसमन्वितः॥ 3-3-2<br />
परित्यक्तुं न शक्तोऽस्मि दानशक्तिश्च नास्ति मे।<br />
कथमत्र मया कार्यं तद्ब्रूहि भगवन्मम॥ 3-3-3<br />
[[:Category:Service|''Service'']] [[:Category:सेवा|''सेवा'']]<br />
<br />
वैशम्पायन उवाच<br />
मुहूर्तमिव स ध्यात्वा धर्मेणान्विष्य तां गतिम्।<br />
युधिष्ठिरमुवाचेदं धौम्यो धर्मभृतां वरः॥ 3-3-4<br />
[[:Category:Dhaumya Rishi|''Dhaumya Rishi'']] [[:Category:धौम्य ऋषि|''धौम्य ऋषि'']]<br />
<br />
धौम्य उवाच<br />
पुरा सृष्टानि भूतानि पीड्यन्ते क्षुधया भृशम्।<br />
ततोऽनुकम्पया तेषां सविता स्वपिता यथा॥ 3-3-5<br />
गत्वोत्तरायणं तेजो रसानुद्धृत्य रश्मिभिः।<br />
दक्षिणायनमावृत्तो महीं निविशते रविः॥ 3-3-6<br />
[[:Category:Sun God|''Sun God'']] [[:Category:सूर्य देव|''सूर्य देव'']] [[:Category:अन्न|''अन्न'']]<br />
<br />
क्षेत्रभूते ततस्तस्मिन्नोषधीरोषधीपतिः।<br />
दिवस्तेजः समुद्धृत्य जनयामास वारिणा॥ 3-3-7<br />
निषिक्तश्चन्द्रतेजोभिः स्वयोनौ निर्गते रविः।<br />
ओषध्यः षड्रसा मेध्यास्तदन्नं प्राणिनां भुवि॥ 3-3-8<br />
[[:Category:Sun God|''Sun God'']] [[:Category:सूर्य देव|''सूर्य देव'']] [[:Category:अन्न|''अन्न'']] [[:Category:Moon God|''Moon God'']] [[:Category:चंद्रमा|''चंद्रमा'']] [[:Category:चंद्र देव|''चंद्र देव'']]<br />
<br />
एवं भानुमयं ह्यन्नं भूतानां प्राणधारणम्।<br />
पितैष सर्वभूतानां तस्मात्तं शरणं व्रज॥ 3-3-9<br />
[[:Category:Sun God|''Sun God'']] [[:Category:सूर्य देव|''सूर्य देव'']] [[:Category:अन्न|''अन्न'']]<br />
<br />
राजानो हि महात्मानो योनिकर्मविशोधिताः।<br />
उद्धरन्ति प्रजाः सर्वास्तप आस्थाय पुष्कलम्॥ 3-3-10<br />
भीमेन कार्तवीर्येण वैन्येन नहुषेण च।<br />
तपोयोगसमाधिस्थैरुद्धता ह्यापदः प्रजाः॥ 3-3-11<br />
तथा त्वमपि धर्मात्मन्कर्मणा च विशोधितः।<br />
तप आस्थाय धर्मेण द्विजातीन्भर भारत॥ 3-3-12<br />
[[:Category:Penance|''Penance'']] [[:Category:tapasya|''tapasya'']]<br />
<br />
जनमेजय उवाच<br />
कथं कुरूणामृषभः स तु राजा युधिष्ठिरः।<br />
विप्रार्थमाराधितवान्सूर्यमद्भुतदर्शनम्॥ 3-3-13<br />
वैशम्पायन उवाच<br />
शृणुष्वावहितो राजञ्शुचिर्भूत्वा समाहितः।<br />
क्षणं च कुरु राजेन्द्र सम्प्रवक्ष्याम्यशेषतः॥ 3-3-14<br />
धौम्येन तु यथा पूर्वं पार्थाय सुमहात्मने।<br />
नामाष्टशतमाख्यातं तच्छृणुष्व महामते॥ 3-3-15<br />
[[:Category:Sun God|''Sun God'']] [[:Category:सूर्य देव|''सूर्य देव'']]<br />
<br />
धौम्य उवाच<br />
सूर्योऽर्यमा भगस्त्वष्टा पूषार्कः सविता रविः।<br />
गभस्तिमानजः कालो मृत्युर्धाता प्रभाकरः॥ 3-3-16<br />
पृथिव्यापश्च तेजश्च खं वायुश्च परायणम्।<br />
सोमो बृहस्पतिः शुक्रो बुधोऽङ्गारक एव च॥ 3-3-17<br />
इन्द्रो विवस्वान्दीप्तांशुः शुचिः शौरिः शनैश्चरः।<br />
ब्रह्मा विष्णुश्च रुद्रश्च स्कन्दो वै वरुणो यमः॥ 3-3-18<br />
वैद्युतो जाठरश्चाग्निरैन्धनस्तेजसां पतिः।<br />
धर्मध्वजो वेदकर्ता वेदाङ्गो वेदवाहनः॥ 3-3-19<br />
कृतं त्रेता द्वापरश्च कलिः सर्वमलाश्रयः।<br />
कला काष्ठा मुहूर्ताश्च क्षपा यामस्तथा क्षणः॥ 3-3-20<br />
संवत्सरकरोऽश्वत्थः कालचक्रो विभावसुः।<br />
पुरुषः शाश्वतो योगी व्यक्ताव्यक्तः सनातनः॥ 3-3-21<br />
कालाध्यक्षः प्रजाध्यक्षो विश्वकर्मा तमोनुदः।<br />
वरुणः सागरोंऽशुश्च जीमूतो जीवनोऽरिहा॥ 3-3-22<br />
भूताश्रयो भूतपतिः सर्वलोकनमस्कृतः।<br />
स्रष्टा संवर्तको वह्निः सर्वस्यादिरलोलुपः॥ 3-3-23<br />
अनन्तः कपिलो भानुः कामदः सर्वतोमुखः।<br />
जयो विशालो वरदः सर्वधातुनिषेचिता॥ 3-3-24<br />
मनःसुपर्णो भूतादिः शीघ्रगः प्राणधारकः।<br />
धन्वन्तरिर्धूमकेतुरादिदेवोऽदितेः सुतः॥ 3-3-25<br />
द्वादशात्मारविन्दाक्षः पिता माता पितामहः।<br />
स्वर्गद्वारं प्रजाद्वारं मोक्षद्वारं त्रिविष्टपम्॥ 3-3-26<br />
देहकर्ता प्रशान्तात्मा विश्वात्मा विश्वतोमुखः।<br />
चराचरात्मा सूक्ष्मात्मा मैत्रेयः करुणान्वितः॥ 3-3-27<br />
एतद्वै कीर्तनीयस्य सूर्यस्यामिततेजसः।<br />
नामाष्टशतकं चेदं प्रोक्तमेतत्स्वयंभुवा॥ 3-3-28<br />
[[:Category:108 names of Sun God|''108 names of Sun God'']] [[:Category:सूर्य देव|''सूर्य देव'']] [[:Category:१०८|''१०८'']]<br />
<br />
सुरगणपितृयक्षसेवितं ह्यसुरनिशाचरसिद्धवन्दितम्।<br />
वरकनकहुताशनप्रभं प्रणिपतितोऽस्मि हिताय भास्करम्॥ 3-3-29<br />
सूर्योदये यः सुसमाहितः पठेत्स पुत्रदारान्धनरत्नसञ्चयान्।<br />
लभेत जातिस्मरतां नरः सदा धृतिं च मेधां च स विन्दते पुमान्॥ 3-3-30<br />
इमं स्तवं देववरस्य यो नरः प्रकीर्तयेच्छुचिसुमनाः समाहितः।<br />
विमुच्यते शोकदवाग्निसागराल्लभेत कामान्मनसा यथेप्सितान्॥ 3-3-31<br />
[[:Category:Worship of Sun God|''Worship of Sun God'']] [[:Category:सूर्य देव आराधना|''सूर्य देव आराधना'']]<br />
<br />
वैशम्पायन उवाच<br />
एवमुक्तस्तु धौम्येन तत्कालसदृशं वचः।<br />
विप्रत्यागसमाधिस्थः संयतात्मा दृढव्रतः॥ 3-3-32<br />
धर्मराजो विशुद्धात्मा तप आतिष्ठदुत्तमम्।<br />
पुष्पोपहारैर्बलिभिरर्चयित्वा दिवाकरम्॥ 3-3-33<br />
सोऽवगाह्य जलं राजा देवस्याभिमुखोऽभवत्।<br />
योगमास्थाय धर्मात्मा वायुभक्षो जितेन्द्रियः॥ 3-3-34<br />
गाङ्गेयं वार्युपस्पृश्य प्राणायामेन तस्थिवान्।<br />
शुचिः प्रयतवाग्भूत्वा स्तोत्रमारब्धवांस्ततः॥ 3-3-35<br />
[[:Category:Worship|''Worship'']] [[:Category:पुजा|''पुजा'']]<br />
<br />
युधिष्ठिर उवाच<br />
त्वं भानो जगतश्चक्षुस्त्वमात्मा सर्वदेहिनाम्।<br />
त्वं योनिः सर्वभूतानां त्वमाचारः क्रियावताम्॥ 3-3-36<br />
त्वं गतिः सर्वसांख्यानां योगिनां त्वं परायणम्।<br />
अनावृतार्गलद्वारं त्वं गतिस्त्वं मुमुक्षताम्॥ 3-3-37<br />
त्वया संधार्यते लोकस्त्वया लोकः प्रकाश्यते।<br />
त्वया पवित्रीक्रियते निर्व्याजं पाल्यते त्वया॥ 3-3-38<br />
त्वामुपस्थाय काले तु ब्राह्मणा वेदपारगाः।<br />
स्वशाखाविहितैर्मन्त्रैरर्चन्त्यृषिगणार्चितम्॥ 3-3-39<br />
तव दिव्यं रथं यान्तमनुयान्ति वरार्थिनः।<br />
सिद्धचारणगन्धर्वा यक्षगुह्यकपन्नगाः॥ 3-3-40<br />
त्रयस्त्रिंशच्च वै देवास्तथा वैमानिका गणाः।<br />
सोपेन्द्राः समहेन्द्राश्च त्वामिष्ट्वा सिद्धिमागताः॥ 3-3-41<br />
उपयान्त्यर्चयित्वा तु त्वां वै प्राप्तमनोरथाः।<br />
दिव्यमन्दारमालाभिस्तूर्णं विद्याधरोत्तमाः॥ 3-3-42<br />
गुह्याः पितृगणाः सप्त ये दिव्या ये च मानुषाः।<br />
ते पूजयित्वा त्वामेव गच्छन्त्याशु प्रधानताम्॥ 3-3-43<br />
वसवो मरुतो रुद्रा ये च साध्या मरीचिपाः।<br />
वालखिल्यादयः सिद्धाः श्रेष्ठत्वं प्राणिनां गताः॥ 3-3-44<br />
सब्रह्मकेषु लोकेषु सप्तस्वप्यखिलेषु च।<br />
न तद्भूतमहं मन्ये यदर्कादतिरिच्यते॥ 3-3-45<br />
सन्ति चान्यानि सत्त्वानि वीर्यवन्ति महान्ति च।<br />
न तु तेषां तथा दीप्तिः प्रभावो वा यथा तव॥ 3-3-46<br />
ज्योतींषि त्वयि सर्वाणि त्वं सर्वज्योतिषां पतिः।<br />
त्वयि सत्यं च सत्त्वं च सर्वे भावाश्च सात्त्विकाः॥ 3-3-47<br />
त्वत्तेजसा कृतं चक्रं सुनाभं विश्वकर्मणा।<br />
देवारीणां मदो येन नाशितः शार्ङ्गधन्वना॥ 3-3-48<br />
त्वमादायांशुभिस्तेजो निदाघे सर्वदेहिनाम्।<br />
सर्वौषधिरसानां च पुनर्वर्षासु मुञ्चसि॥ 3-3-49<br />
तपन्त्यन्ये दहन्त्यन्ये गर्जन्त्यन्ये तथा घनाः।<br />
विद्योतन्ते प्रवर्षन्ति तव प्रावृषि रश्मयः॥ 3-3-50<br />
न तथा सुखयत्यग्निर्न प्रावारा न कम्बलाः।<br />
शीतवातार्दितं लोकं यथा तव मरीचयः॥ 3-3-51<br />
त्रयोदशद्वीपवतीं गोभिर्भासयसे महीम्।<br />
त्रयाणामपि लोकानां हितायैकः प्रवर्तसे॥ 3-3-52<br />
तव यद्युदयो न स्यादन्धं जगदिदं भवेत्।<br />
न च धर्मार्थकामेषु प्रवर्तेरन्मनीषिणः॥ 3-3-53<br />
आधानपशुबन्धेष्टिमन्त्रयज्ञतपःक्रियाः।<br />
त्वत्प्रसादादवाप्यन्ते ब्रह्मक्षत्रविशां गणैः॥ 3-3-54<br />
यदहर्ब्रह्मणः प्रोक्तं सहस्रयुगसम्मितम्।<br />
तस्य त्वमादिरन्तश्च कालज्ञैः परिकीर्तितः॥ 3-3-55<br />
मनूनां मनुपुत्राणां जगतोऽमानवस्य च।<br />
मन्वन्तराणां सर्वेषामीश्वराणां त्वमीश्वरः॥ 3-3-56<br />
संहारकाले सम्प्राप्ते तव क्रोधविनिःसृतः।<br />
संवर्तकाग्निस्त्रैलोक्यं भस्मीकृत्यावतिष्ठते॥ 3-3-57<br />
त्वद्दीधितिसमुत्पन्ना नानावर्णा महाघनाः।<br />
सैरावताः साशनयः कुर्वन्त्याभूतसम्प्लवम्॥ 3-3-58<br />
कृत्वा द्वादशधाऽऽत्मानं द्वादशादित्यतां गतः।<br />
संहृत्यैकार्णवं सर्वं त्वं शोषयसि रश्मिभिः॥ 3-3-59<br />
त्वामिन्द्रमाहुस्त्वं रुद्रस्त्वं विष्णुस्त्वं प्रजापतिः।<br />
त्वमग्निस्त्वं मनः सूक्ष्मं प्रभुस्त्वं ब्रह्म शाश्वतम्॥ 3-3-60<br />
त्वं हंसः सविता भानुरंशुमाली वृषाकपिः।<br />
विवस्वान्मिहिरः पूषा मित्रो धर्मस्तथैव च॥ 3-3-61<br />
सहस्ररश्मिरादित्यस्तपनस्त्वं गवाम्पतिः।<br />
मार्तण्डोऽर्को रविः सूर्यः शरण्यो दिनकृत्तथा॥ 3-3-62<br />
दिवाकरः सप्तसप्तिर्धामकेशी विरोचनः।<br />
आशुगामी तमोघ्नश्च हरिताश्वश्च कीर्त्यसे॥ 3-3-63<br />
सप्तम्यामथवा षष्ठ्यां भक्त्या पूजां करोति यः।<br />
अनिर्विण्णोऽनहङ्कारी तं लक्ष्मीर्भजते नरम्॥ 3-3-64<br />
न तेषामापदः सन्ति नाधयो व्याधयस्तथा।<br />
ये तवानन्यमनसः कुर्वन्त्यर्चनवन्दनम्॥ 3-3-65<br />
सर्वरोगैर्विरहिताः सर्वपापविवर्जिताः।<br />
त्वद्भावभक्ताः सुखिनो भवन्ति चिरजीविनः॥ 3-3-66<br />
त्वं ममाप्यन्नकामस्य सर्वातिथ्यं चिकीर्षतः।<br />
अन्नमन्नपते दातुमभितः श्रद्धयार्हसि॥ 3-3-67<br />
ये च तेऽनुचराः सर्वे पादोपान्तं समाश्रिताः।<br />
माठरारुणदण्डाद्यास्तांस्तान्वन्देऽशनिक्षुभान्॥ 3-3-68<br />
क्षुभया सहिता मैत्री याश्चान्या भूतमातरः।<br />
ताश्च सर्वा नमस्यामि पान्तु मां शरणागतम्॥ 3-3-69<br />
वैशम्पायन उवाच<br />
एवं स्तुतो महाराज भास्करो लोकभावनः।<br />
ततो दिवाकरः प्रीतो दर्शयामास पाण्डवम्।<br />
दीप्यमानः स्ववपुषा ज्वलन्निव हुताशनः॥ 3-3-70<br />
[[:Category:Sun God|''Sun God'']] [[:Category:सूर्य देव|''सूर्य देव'']]<br />
<br />
विवस्वानुवाच<br />
यत्तेऽभिलषितं किञ्चित्तत्त्वं सर्वमवाप्स्यसि।<br />
अहमन्नं प्रदास्यामि सप्त पञ्च च ते समाः॥ 3-3-71<br />
फलमूलामिषं शाकं संस्कृतं यन्महानसे।<br />
गृह्णीष्व पिठरं ताम्रं मया दत्त नराधिप।<br />
यावद्वर्त्स्यति पाञ्चाली पात्रेणानेन सुव्रत॥ 3-3-72<br />
फलमूलामिषं शाकं संस्कृतं यन्महानसे।<br />
चतुर्विधं तदन्नाद्यमक्षय्यं ते भविष्यति।<br />
धनं च विविधं तुभ्यमित्युक्त्वान्तरधीयत॥<br />
इतश्चतुर्दशे वर्षे भूयो राज्यमवाप्स्यसि॥ 3-3-73<br />
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<br />
वैशम्पायन उवाच<br />
एवमुक्त्वा तु भगवांस्तत्रैवान्तरधीयत॥ 3-3-74<br />
इमं स्तवं प्रयतमनाः समाधिना पठेदिहान्योऽपि वरं समर्थयन्।<br />
तत्तस्य दद्याच्च रविर्मनीषितं तदाप्नुयाद्यद्यपि तत्सुदुर्लभम्॥ 3-3-74<br />
यश्चेदं धारयेन्नित्यं शृणुयाद्वाप्यभीक्ष्णशः।<br />
पुत्रार्थी लभते पुत्रं धनार्थी लभते धनम्॥ 3-3-75<br />
विद्यार्थी लभते विद्यां पुरुषोऽप्यथवा स्त्रियः।<br />
उभे सन्ध्ये पठेन्नित्यं नारी वा पुरुषो यदि॥ 3-3-76<br />
आपदं प्राप्य मुच्येत बद्धो मुच्येत बन्धनात्।<br />
एतद्ब्रह्मा ददौ पूर्वं शक्राय सुमहात्मने॥ 3-3-77<br />
शक्राच्च नारदः प्राप्तो धौम्यस्तु तदनन्तरम्।<br />
धौम्याद्युधिष्ठिरः प्राप्य सर्वान्कामानवाप्तवान्॥ 3-3-78<br />
सङ्ग्रामे च जयेन्नित्यं विपुलं चाप्नुयाद्वसु।<br />
मुच्यते सर्वपापेभ्यः सूर्यलोकं स गच्छति॥ 3-3-79<br />
[[:Category:Benefits of worshiping Sun God|''Benefits of worshiping Sun God'']]<br />
<br />
वैशम्पायन उवाच<br />
लब्ध्वा वरं तु कौन्तेयो जलादुत्तीर्य धर्मवित्।<br />
जग्राह पादौ धौम्यस्य भ्रातॄंश्च परिषस्वजे॥ 3-3-80<br />
द्रौपद्या सह सङ्गम्य वन्द्यमानस्तया प्रभुः।<br />
महानसे तदानीं तु साधयामास पाण्डवः॥ 3-3-81<br />
संस्कृतं प्रसवं याति स्वल्पमन्नं चतुर्विधम्।<br />
अक्षय्यं वर्धते चान्नं तेन भोजयते द्विजान्॥ 3-3-82<br />
भुक्तवत्सु च विप्रेषु भोजयित्वानुजानपि।<br />
शेषं विघससंज्ञं तु पश्चाद्भुङ्क्ते युधिष्ठिरः॥ 3-3-83<br />
युधिष्ठिरं भोजयित्वा शेषमश्नाति पार्षती।<br />
द्रौपद्यां भुज्यमानायां तदन्नं क्षयमेति च।<br />
एवं दिवाकरात्प्राप्य दिवाकरसमप्रभः॥ 3-3-84<br />
कामान्मनोऽभिलषितान्ब्राह्मणेभ्योऽददात्प्रभुः।<br />
पुरोहितपुरोगाश्च तिथिनक्षत्रपर्वसु।<br />
यज्ञियार्थाः प्रवर्तन्ते विधिमन्त्रप्रमाणतः॥ 3-3-85<br />
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<br />
ततः कृतस्वस्त्ययना धौम्येन सह पाण्डवाः।<br />
द्विजसङ्घैः परिवृताः प्रययुः काम्यकं वनम्॥ 3-3-86<br />
[[:Category:Kamyavan|''Kamyavan'']] [[:Category:काम्यवन|''काम्यवन'']]<br />
<br />
जनमेजयः पुष्पोपहारबलिभिर्बहुशश्च यथाविधि।<br />
<br />
सर्वात्मभूतं सम्पूज्य यतप्राणो जितेन्द्रियः॥<br />
<br />
स्तवेन केन विप्रर्षे स तु राजा युधिष्ठिरः।<br />
<br />
विप्रार्थमाराधितवान्सूर्यमद्भुतविक्रमम्॥<br />
<br />
मयि स्नेहोऽस्ति चेद्ब्रह्मन्यदनुग्रहभागहम्।<br />
<br />
भगवान्नास्ति चेद्गुह्यं तच्च मे ब्रूहि साम्प्रतम्॥<br />
<br />
वैशम्पायनः शृणुष्वावहितो राजन्शुचिर्भूत्वा समाहितः।<br />
<br />
क्षणं च कुरु राजेन्द्र गुह्यं वक्ष्यामि ते हितम्॥<br />
<br />
धौम्येन तु यथाप्रोक्तं पार्थाय सुमहात्मने।<br />
<br />
नाम्नामष्टशतं पुण्यं तच्छृणुष्व महामते॥<br />
<br />
सूर्योऽर्यमा भगस्त्वष्टा पूषाऽर्कस्सविता रविः।<br />
<br />
गभस्तिमानजः कालो मृत्युर्धाता प्रभाकरः॥<br />
<br />
पृथिव्यापश्च तेजश्च खं वायुश्च परायणम्।<br />
<br />
सोमो बृहस्पतिश्शुक्रो बुधोऽङ्गारक एव च॥<br />
<br />
इन्द्रो विवस्वान्दीप्तांशुश्शुचिश्शौरिश्शनैश्चरः।<br />
<br />
ब्रह्मा विष्णुश्च रुद्रश्च स्कन्दो वैश्रवणो यमः॥<br />
<br />
वैद्युतो जाठरश्चाग्निः ऐन्धनस्तेजसां पतिः।<br />
<br />
धर्मध्वजो वेदकर्ता वेदाङ्गो वेदवाहनः॥<br />
<br />
कृतं त्रेता द्वापरश्च कलिस्सर्वामराश्रयः।<br />
<br />
कला काष्ठा मुहूर्ताश्च पक्षा मासा ऋतुस्तथा॥<br />
<br />
संवत्सरकरोऽश्वत्थः कालचक्रो विभावसुः।<br />
<br />
पुरुषश्शाश्वतो योगी व्यक्ताव्यक्तस्सनातनः॥<br />
<br />
लोकाध्यक्षस्सुराध्यक्षो विश्वकर्मा तमोनुदः।<br />
<br />
वरुणस्सागरोंशुश्च जीमूतो जीवनोऽरिहा॥<br />
<br />
भूताश्रयो भूतपतिस्सर्वभूतनिषेवितः।<br />
<br />
मणिस्सुवर्णो भूतादिः कामदस्सर्वतोमुखः॥<br />
<br />
जयो विशालो वरदश्शीघ्रगः प्राणधारणः।<br />
<br />
धन्वन्तरिर्धूमकेतुः आदिदेवोऽदितेस्सुतः॥<br />
<br />
द्वादशात्माऽरविन्दाक्षः पिता माता पितामहः।<br />
<br />
स्वर्गद्वारं प्रजाद्वारं मोक्षद्वारं त्रिविष्टपम्॥<br />
<br />
देवकर्ता प्रशान्तात्मा विश्वात्मा विश्वतोमुखः।<br />
<br />
चराचरात्मा सूक्ष्मात्मा मैत्रेण वपुषाऽन्वितः॥<br />
<br />
एतद्वै कीर्तनीयस्य सूर्यस्यैव महात्मनः।<br />
<br />
नाम्नामष्टशतं पुण्यं शक्रेणोक्तं महात्मना॥<br />
<br />
शक्राच्च नारदः प्राप्तो धौम्यश्च तदनन्तरम्।<br />
<br />
धौम्याद्युधिष्ठिरः प्राप्य सर्वान्कामानवाप्तवान्॥<br />
<br />
सुरपितृगणयक्षसेवितं निशिचरसिद्धगणैश्च वन्दितम्।<br />
<br />
वरकनकहुताशनप्रभं त्वमपि मनस्यभिधेहि भास्करम्॥<br />
<br />
सूर्योदये यस्सुसमाहितः पठेत्स पुत्रलाभं धनरत्नसञ्चयान्।<br />
<br />
लभेत जातिस्मरतां सदा नरे धृतिं च मेधां च स विन्दते वराम्॥<br />
<br />
इमं स्तवं देववरस्य कीर्तयेच्छृणोति वा यस्सुमनास्समाहितः।<br />
<br />
स मुच्यते शोकदवाग्निसागराल्लभेत कामान्मनसा यथेप्सितान्॥<br />
<br />
इति श्रीमिहाभारते वनपर्वणि अरण्यपर्वणि काम्यकवनप्रवेशे तृतीयोऽध्यायः॥ 3 ॥</div>
ShraddhaV
https://dharmawiki.org/index.php?title=Vanaparva_Adhyaya_2_(%E0%A4%B5%E0%A4%A8%E0%A4%AA%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A4%A3%E0%A4%BF_%E0%A4%85%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%83_%E0%A5%A8)&diff=119809
Vanaparva Adhyaya 2 (वनपर्वणि अध्यायः २)
2019-07-10T12:19:55Z
<p>ShraddhaV: </p>
<hr />
<div> वैशम्पायन उवाच<br />
प्रभातायां तु शर्वर्यां तेषामक्लिष्टकर्मणाम्।<br />
वनं यियासतां विप्रास्तस्थुर्भिक्षाभुजोऽग्रतः॥ 3-2-1<br />
तानुवाच ततो राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः।<br />
वयं हि हृतसर्वस्वा हृतराज्या हृतश्रियः॥ 3-2-2<br />
फलमूलाशनाहारा वनं गच्छाम दुःखिताः।<br />
वनं च दोषबहुलं बहुव्यालसरीसृपम्॥ 3-2-3<br />
परिक्लेशश्च वो मन्ये ध्रुवं तत्र भविष्यति।<br />
ब्राह्मणानां परिक्लेशो दैवतान्यपि सादयेत्।<br />
किं पुनर्मामितो विप्रा निवर्तध्वं यथेष्टतः॥ 3-2-4<br />
ब्राह्मणा ऊचुः<br />
गतिर्या भवतां राजंस्तां वयं गन्तुमुद्यताः।<br />
नार्हस्यस्मान्परित्यक्तुं भक्तान्सद्धर्मदर्शिनः॥ 3-2-5<br />
अनुकम्पां हि भक्तेषु देवता ह्यपि कुर्वते।<br />
विशेषतो ब्राह्मणेषु सदाचारावलम्बिषु॥ 3-2-6<br />
[[:Category:Yudhishtir - brahmans conversation|''Yudhishtir - brahmans conversation'']] [[:Category:युधिष्टीर ब्राह्मण संवाद|''युधिष्टीर ब्राह्मण संवाद'']]<br />
<br />
युधिष्ठिर उवाच<br />
ममापि परमा भक्तिर्ब्राह्मणेषु सदा द्विजाः।<br />
सहायविपरिभ्रंशस्त्वयं सादयतीव माम्॥ 3-2-7<br />
आहरेयुरिमे येऽपि फलमूलमृगांस्तथा[मधूनि च]।<br />
त इमे शोकजैर्दुःखैर्भ्रातरो मे विमोहिताः॥ 3-2-8<br />
द्रौपद्या विप्रकर्षेण राज्यापहरणेन च।<br />
दुःखार्दितानिमान्क्लेशैर्नाहं योक्तुमिहोत्सहे॥ 3-2-9<br />
[[:Category:Yudhishtir - brahmans conversation|''Yudhishtir - brahmans conversation'']] [[:Category:युधिष्टीर ब्राह्मण संवाद|''युधिष्टीर ब्राह्मण संवाद'']] [[:Category:Sadness|''Sadness'']] [[:Category:दु:ख|''दु:ख'']] [[:Category:शोक|''शोक'']]<br />
<br />
ब्राह्मणा ऊचुः<br />
अस्मत्पोषणजा चिन्ता मा भूत्ते हृदि पार्थिव।<br />
स्वयमाहृत्य चान्नानि चोपयोक्षा[त्वानुयास्या]महे वयम्॥ 3-2-10<br />
अनुध्यानेन जप्येन विधास्यामः शिवं तव।<br />
कथाभिश्चाभिरम्याभिः सह रंस्यामहे वयम्॥ 3-2-11<br />
युधिष्ठिर उवाच<br />
एवमेतन्न सन्देहो रमेऽहं सततं द्विजैः।<br />
मा[न्यू]नभावात्तु पश्यामि प्रत्यादेशमिवात्मनः॥ 3-2-12<br />
कथं द्रक्ष्यामि वः सर्वान्स्वयमाहृतभोजनान्।<br />
मद्भक्त्या क्लिश्यतोऽनर्हान्धिक्पापान्धृतराष्ट्रजान्॥ 3-2-13<br />
[[:Category:Yudhishtir - brahmans conversation|''Yudhishtir - brahmans conversation'']] [[:Category:युधिष्टीर ब्राह्मण संवाद|''युधिष्टीर ब्राह्मण संवाद'']]<br />
<br />
वैशम्पायन उवाच<br />
<br />
इत्युक्त्वा स नृपः शोचन्निषसाद महीतले।<br />
<br />
तमध्यात्मरतो विद्वान्शौनको नाम वै द्विजः।<br />
<br />
योगे सांख्ये च कुशलो राजानमिदमब्रवीत्॥ 3-2-14<br />
<br />
शोकस्थानसहस्राणि भयस्थानशतानि च।<br />
दिवसे दिवसे मूढमाविशन्ति न पण्डितम्॥ 3-2-15<br />
न हि ज्ञानविरुद्धेषु बहुदोषेषु कर्मसु।<br />
श्रेयोघातिषु सज्जन्ते बुद्धिमन्तो भवद्विधाः॥ 3-2-16<br />
अष्टाङ्गां बुद्धिमाहुर्यां सर्वाश्रेयोऽभिघातिनीम्।<br />
श्रुतिस्मृतिसमायुक्तां राजन्सा त्वय्यवस्थिता॥ 3-2-17<br />
अर्थकृच्छ्रेषु दुर्गेषु व्यापत्सु स्वजनस्य च।<br />
शारीरमानसैर्दुःखैर्न सीदन्ति भवद्विधाः॥ 3-2-18<br />
[[:Category:Description of a knowledgeable person|''Description of a knowledgeable person'']] [[:Category:ज्ञानी जनस्य वर्णनं|''ज्ञानी जनस्य वर्णनं'']]<br />
<br />
श्रूयतां चाभिधास्यामि जनकेन यथा पुरा।<br />
<br />
आत्मव्यवस्थानकरा गीताः श्लोका महात्मना॥ 3-2-19<br />
<br />
मनोदेहसमुत्थाभ्यां दुःखाभ्यामर्दितं जगत्।<br />
तयोर्व्याससमासाभ्यां शमोपायमिमं शृणु॥ 3-2-20<br />
व्याधेरनिष्टसंस्पर्शाच्छ्रमादिष्टविवर्जनात्।<br />
दुःखं चतुर्भिः शारीरं कारणैः सम्प्रवर्तते॥ 3-2-21<br />
तदा तत्प्रतिकाराच्च सततं चाविचिन्तनात्।<br />
आधिव्याधिप्रशमनं क्रियायोगद्वयेन तु॥ 3-2-22<br />
मतिमन्तो ह्यतो वैद्याः शमं प्रागेव कुर्वते।<br />
मानसस्य प्रियाख्यानैः सम्भोगोपनयैर्नृणाम्॥ 3-2-23<br />
[[:Category:solution to overcome sadness|''solution to overcome sadness'']]<br />
<br />
मानसेन हि दुःखेन शरीरमुपतप्यते।<br />
अयःपिण्डेन तप्तेन कुम्भसंस्थमिवोदकम्॥ 3-2-24<br />
मानसं शमयेत्तस्माज्ज्ञानेनाग्निमिवाम्बुना।<br />
प्रशान्ते मानसे ह्यस्य शारीरमुपशाम्यति॥ 3-2-25<br />
[[:Category:solution to overcome sadness|''solution to overcome sadness'']] [[:Category:connection between physical and mental health|''connection between physical and mental health'']]<br />
<br />
मनसो दुःखमूलं तु स्नेह इत्युपलभ्यते।<br />
स्नेहात्तु सज्जते जन्तुर्दुःखयोगमुपैति च॥ 3-2-26<br />
स्नेहमूलानि दुःखानि स्नेहजानि भयानि च।<br />
शोकहर्षौ तथाऽऽयासः सर्वं स्नेहात्प्रवर्तते॥ 3-2-27<br />
स्नेहाद्भावोऽनुरागश्च प्रजज्ञे विषये तथा।<br />
अश्रेयस्कावुभावेतौ पूर्वस्तत्र गुरुः स्मृतः॥ 3-2-28<br />
कोटराग्निर्यथाशेषं समूलं पादपं दहेत्।<br />
धर्मार्थौ तु तथाल्पोऽपि रागदोषो विनाशयेत्॥ 3-2-29<br />
[[:Category:solution to overcome sadness|''solution to overcome sadness'']] [[:Category:attachment|''attachment'']] [[:Category:आसक्ती|''आसक्ती'']]<br />
<br />
विप्रयोगे न तु त्यागी दोषदर्शी समागमे।<br />
विरागं भजते जन्तुर्निर्वैरो निरवग्रहः॥ 3-2-30<br />
[[:Category:detachment|''detachment'']] [[:Category:त्याग|''त्याग'']]<br />
<br />
तस्मात्स्नेहं न लिप्सेत मित्रेभ्यो धनसञ्चयात्।<br />
स्वशरीरसमुत्थं च ज्ञानेन विनिवर्तयेत्॥ 3-2-31<br />
ज्ञानान्वितेषु युक्तेषु शास्त्रज्ञेषु कृतात्मसु।<br />
न तेषु सज्जते स्नेहः पद्मपत्रेष्विवोदकम्॥ 3-2-32<br />
[[:Category:attachment|''attachment'']] [[:Category:आसक्ती|''आसक्ती'']]<br />
<br />
रागाभिभूतः पुरुषः कामेन परिकृष्यते।<br />
इच्छा सञ्जायते तस्य ततस्तृष्णा विवर्धते॥ 3-2-33<br />
तृष्णा हि सर्वपापिष्ठा नित्योद्वेगकरी स्मृता।<br />
अधर्मबहुला चैव घोरा पापानुबन्धिनी॥ 3-2-34<br />
या दुस्त्यजा दुर्मतिभिर्या न जीर्यति जीर्यतः।<br />
योऽसौ प्राणान्तिको रोगस्तां तृष्णां त्यजतः सुखम्॥ 3-2-35<br />
अनाद्यन्ता तु सा तृष्णा अन्तर्देहगता नृणाम्।<br />
विनाशयति भूतानि अयोनिज इवानलः॥ 3-2-36<br />
यथैधः स्वसमुत्थेन वह्निना नाशमृच्छति।<br />
तथाकृतात्मा लोभेन सहजेन विनश्यति॥ 3-2-37<br />
[[:Category:anarthas|''anarthas'']] [[:Category:अनर्थ|''अनर्थ'']]<br />
<br />
राजतः सलिलादग्नेश्चोरतः स्वजनादपि।<br />
भयमर्थवतां नित्यं मृत्योः प्राणभृतामिव॥ 3-2-38<br />
यथा ह्यामिषमाकाशे पक्षिभिः श्वापदैर्भुवि।<br />
भक्ष्यते सलिले मत्स्यैस्तथा सर्वत्र वित्तवान्॥ 3-2-39<br />
[[:Category:anarthas|''anarthas'']] [[:Category:अनर्थ|''अनर्थ'']] [:Category:Disadvantages of being wealthy|''Disadvantages of being wealthy'']] [[:Category:धन दोष|''धन दोष'']]<br />
<br />
अर्थ एव हि केषाञ्चिदनर्थं भजते नृणाम्।<br />
अर्थश्रेयसि चासक्तो च श्रेयो विन्दते नरः॥ 3-2-40<br />
तस्मादर्थागमाः सर्वे मनोमोहविवर्धनाः।<br />
कार्पण्यं दर्पमानौ च भयमुद्वेग एव च॥ 3-2-41<br />
अर्थजानि विदुः प्राज्ञा दुःखान्येतानि देहिनाम्।<br />
अर्थस्योत्पादने चैव पालने च तथा क्षये॥ 3-2-42<br />
सहन्ति च महद्दुःखं घ्नन्ति चैवार्थकारणात्।<br />
अर्था दुःखं परित्यक्तुं पालिताश्चैव शत्रवः॥ 3-2-43<br />
दुःखेन चाधिगम्यन्ते तस्मान्नाशं न चिन्तयेत्।<br />
असन्तोषपरा मूढाः सन्तोषं यान्ति पण्डिताः॥ 3-2-44<br />
अन्तो नास्ति पिपासायाः सन्तोषः परमं सुखम्।<br />
तस्मात्सन्तोषमेवेह परं पश्यन्ति पण्डिताः॥ 3-2-45<br />
अनित्यं यौवनं रूपं जीवितं रत्नसंचयः।<br />
ऐश्वर्यं प्रियसंवासो गृध्येत्तत्र न पण्डितः॥ 3-2-46<br />
त्यजेत सञ्चयांस्तस्मात्तज्जान्क्लेशान्सहेत च।<br />
न हि सञ्चयवान्कश्चिद्दृश्यते निरुपद्रवः।<br />
अतश्च धार्मिकैः पुंभिरनीहार्थः प्रशस्यते॥ 3-2-47<br />
धर्मार्थं यस्य वित्तेहा वरं तस्य निरीहता।<br />
प्रक्षालनाद्धि पङ्कस्य श्रेयो न स्पर्शनं नृणाम्॥ 3-2-48<br />
युधिष्ठिरैवं सर्वेषु न स्पृहां कर्तुमर्हसि।<br />
धर्मेण यदि ते कार्यं विमुक्तेच्छो भवार्थतः॥ 3-2-49<br />
[[:Category:Disadvantages of being wealthy|''Disadvantages of being wealthy'']] [[:Category:धन दोष|''धन दोष'']]<br />
<br />
युधिष्ठिर उवाच<br />
नार्थोपभोगलिप्सार्थमियमर्थेप्सुता मम।<br />
भरणार्थं तु विप्राणां ब्रह्मन्काङ्क्षे न लोभतः॥ 3-2-50<br />
कथं ह्यस्मद्विधो ब्रह्मन्वर्तमानो गृहाश्रमे।<br />
भरणं पालनं चापि न कुर्यादनुयायिनाम्॥ 3-2-51<br />
संविभागो हि भूतानां सर्वेषामेव दृश्यते।<br />
तथैवापचमानेभ्यः प्रदेयं गृहमेधिना॥ 3-2-52<br />
तृणानि भूमिरुदकं वाक्चतुर्थी च सूनृता।<br />
सतामेतानि गेहेषु नोच्छिद्यन्ते कदाचन॥ 3-2-53<br />
देयमार्तस्य शयनं स्थितश्रान्तस्य चासनम्।<br />
तृषितस्य च पानीयं क्षुधितस्य च भोजनम्॥ 3-2-54<br />
चक्षुर्दद्यान्मनो दद्याद्वाचं दद्यात्सुभाषिताम्।<br />
<br />
उत्थाय चासनं दद्यादेष धर्मः सनातनः।<br />
रत्युत्थायाभिगमनं कुर्यान्न्यायेन चार्चनम्॥ 3-2-55<br />
[[:Category:Duties of a householder|''Duties of a householder'']] [[:Category:गृहस्थ धर्म|''गृहस्थ धर्म'']] [[:Category:Sanatan dharma|''Sanatan dharma'']] [[:Category:सनातन धर्म|''सनातन धर्म'']]<br />
<br />
अग्निहोत्रमनड्वांश्च ज्ञातयोऽतिथिबान्धवाः।<br />
पुत्रा दाराश्च भृत्याश्च निर्दहेयुरपूजिताः॥ 3-2-56<br />
आत्मार्थं पाचयेन्नान्नं न वृथा घातयेत्पशून्।<br />
न च तत्स्वयमश्नीयाद्विधिवद्यन्न निर्वपेत्॥ 3-2-57<br />
श्वभ्यश्च श्वपचेभ्यश्च वयोभ्यश्चावपेद्भुवि।<br />
वैश्वदेवं हि नामैतत्सायं प्रातश्च दीयते॥ 3-2-58<br />
विघसाशी भवेत्तस्मान्नित्यं चामृतभोजनः।<br />
विघसो भुक्तशेषं तु यज्ञशेषं तथामृतम्॥ 3-2-59<br />
चक्षुर्दद्यान्मनो दद्याद्वाचं दद्याच्च सूनृताम्।<br />
अनुव्रजेदुपासीत स यज्ञः पञ्चदक्षिणः॥ 3-2-60<br />
यो दद्यादपरिक्लिष्टमन्नमध्वनि वर्तते।<br />
श्रान्तायादृष्टपूर्वाय तस्य पुण्यफलं महत्॥ 3-2-61<br />
एवं यो वर्तते वृत्तिं वर्तमानो गृहाश्रमे।<br />
तस्य धर्मं परं प्राहुः कथं वा विप्र मन्यसे॥ 3-2-62<br />
[[:Category:Duties of a householder|''Duties of a householder'']] [[:Category:गृहस्थ धर्म|''गृहस्थ धर्म'']]<br />
<br />
शौनक उवाच<br />
अहो बत महत्कष्टं विपरीतमिदं जगत्।<br />
येनापत्रपते साधुरसाधुस्तेन तुष्यति॥ 3-2-63<br />
शिश्नोदरकृतेऽप्राज्ञः करोति विघसं बहु।<br />
मोहरागवशाक्रान्त इन्द्रियार्थवशानुगः॥ 3-2-64<br />
ह्रियते बुध्यमानोऽपि नरो हारिभिरिन्द्रियैः।<br />
विमूढसंज्ञो दुष्टाश्वैरुद्भान्तैरिव सारथिः॥ 3-2-65<br />
षडिन्द्रियाणि विषयं समागच्छन्ति वै यदा।<br />
तदा प्रादुर्भवत्येषां पूर्वसङ्कल्पजं मनः॥ 3-2-66<br />
मनो यस्येन्द्रियस्येह विषयान्याति सेवितुम्।<br />
तस्यौत्सुक्यं सम्भवति प्रवृत्तिश्चोपजायते॥ 3-2-67<br />
ततः सङ्कल्पबीजेन कामेन विषयेषुभिः।<br />
विद्धः पतति लोभाग्नौ ज्योतिर्लोभात्पतङ्गवत्॥ 3-2-68<br />
ततो विहारैराहारैर्मोहितश्च यथेप्सया।<br />
महामोहे सुखे मग्नो नात्मानमवबुध्यते॥ 3-2-69<br />
एवं पतति संसारे तासु तास्विह योनिषु।<br />
अविद्याकर्मतृष्णाभिर्भ्राम्यमाणोऽथ चक्रवत्॥ 3-2-70<br />
ब्रह्मादिषु तृणान्तेषु भूतेषु परिवर्तते।<br />
जले भुवि तथाऽऽकाशे जायमानः पुनः पुनः॥ 3-2-71<br />
[[:Category:consequences of sense gratification|''consequences of sense gratification'']] [[:Category:इंद्रिय तृप्ति|''इंद्रिय तृप्ति'']] [[:Category:अविवेकी पुरुषोकी गती|''अविवेकी पुरुषोकी गती'']]<br />
<br />
अबुधानां गतिस्त्वेषा बुधानामपि मे शृणु।<br />
ये धर्मे श्रेयसि रता विमोक्षरतयो जनाः॥ 3-2-72<br />
तदिदं वेदवचनं कुरु कर्म त्यजेति च।<br />
तस्माद्धर्मानिमान्सर्वान्नाभिमानात्समाचरेत्॥ 3-2-73<br />
इज्याध्ययनदानानि तपः सत्यं क्षमा दमः।<br />
अलोभ इति मार्गोऽयं धर्मस्याष्टविधः स्मृतः॥ 3-2-74<br />
अत्र पूर्वश्चतुर्वर्गः पितृयाणपथे स्थितः।<br />
कर्तव्यमिति यत्कार्यं नाभिमानात्समाचरेत्॥ 3-2-75<br />
उत्तरो देवयानस्तु सद्भिराचरितः सदा।<br />
अष्टाङ्गेनैव मार्गेण विशुद्धात्मा समाचरेत्॥ 3-2-76<br />
सम्यक्सङ्कल्पसम्बन्धात्सम्यक्चेन्द्रियनिग्रहात्।<br />
सम्यग्व्रतविशेषाच्च सम्यक्च गुरुसेवनात्॥ 3-2-77<br />
सम्यगाहारयोगाच्च सम्यक्चाध्ययनागमात्।<br />
सम्यक्कर्मोपसन्न्यासात्सम्यक्चित्तनिरोधनात्॥ 3-2-78<br />
एवं कर्माणि कुर्वन्ति संसारविजिगीषवः।<br />
रागद्वेषविनिर्मुक्ता ऐश्वर्यं देवता गताः॥ 3-2-79<br />
रुद्राः साध्यास्तथाऽऽदित्या वसवोऽथ तथाश्विनौ।<br />
योगैश्वर्येण संयुक्ता धारयन्ति प्रजा इमाः॥ 3-2-80<br />
[[:Category:Righteousness|''Righteousness'']] [[:Category:धर्म|''धर्म'']] [[:Category:विवेकी पुरुषोकी गती|''विवेकी पुरुषोकी गती'']]<br />
<br />
तथा त्वमपि कौन्तेय शममास्थाय पुष्कलम्।<br />
तपसा सिद्धिमन्विच्छ योगसिद्धिं च भारत॥ 3-2-81<br />
[[:Category:Penance|''Penance'']] [[:Category:तपस्या|''तपस्या'']] [[:Category:Righteousness|''Righteousness'']] [[:Category:धर्म|''धर्म'']] [[:Category:विवेकी पुरुषोकी गती|''विवेकी पुरुषोकी गती'']]<br />
<br />
पितृमातृमयी सिद्धिः प्राप्ता कर्ममयी च ते।<br />
तपसा सिद्धिमन्विच्छ द्विजानां भरणाय वै॥ 3-2-82<br />
सिद्धा हि यद्यदिच्छन्ति कुर्वते तदनुग्रहात्।<br />
तस्मात्तपः समास्थाय कुरुष्वात्ममनोरथम्॥ 3-2-83<br />
[[:Category:Penance|''Penance'']] [[:Category:तपस्या|''तपस्या'']]<br />
<br />
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि अरण्यपर्वणि पाण्डवानां प्रव्रजने द्वितीयोऽध्यायः॥ 2 ॥</div>
ShraddhaV
https://dharmawiki.org/index.php?title=Vanaparva_Adhyaya_2_(%E0%A4%B5%E0%A4%A8%E0%A4%AA%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A4%A3%E0%A4%BF_%E0%A4%85%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%83_%E0%A5%A8)&diff=119808
Vanaparva Adhyaya 2 (वनपर्वणि अध्यायः २)
2019-07-10T12:09:29Z
<p>ShraddhaV: </p>
<hr />
<div> वैशम्पायन उवाच<br />
प्रभातायां तु शर्वर्यां तेषामक्लिष्टकर्मणाम्।<br />
वनं यियासतां विप्रास्तस्थुर्भिक्षाभुजोऽग्रतः॥ 3-2-1<br />
तानुवाच ततो राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः।<br />
वयं हि हृतसर्वस्वा हृतराज्या हृतश्रियः॥ 3-2-2<br />
फलमूलाशनाहारा वनं गच्छाम दुःखिताः।<br />
वनं च दोषबहुलं बहुव्यालसरीसृपम्॥ 3-2-3<br />
परिक्लेशश्च वो मन्ये ध्रुवं तत्र भविष्यति।<br />
ब्राह्मणानां परिक्लेशो दैवतान्यपि सादयेत्।<br />
किं पुनर्मामितो विप्रा निवर्तध्वं यथेष्टतः॥ 3-2-4<br />
ब्राह्मणा ऊचुः<br />
गतिर्या भवतां राजंस्तां वयं गन्तुमुद्यताः।<br />
नार्हस्यस्मान्परित्यक्तुं भक्तान्सद्धर्मदर्शिनः॥ 3-2-5<br />
अनुकम्पां हि भक्तेषु देवता ह्यपि कुर्वते।<br />
विशेषतो ब्राह्मणेषु सदाचारावलम्बिषु॥ 3-2-6<br />
[[:Category:Yudhishtir - brahmans conversation|''Yudhishtir - brahmans conversation'']] [[:Category:युधिष्टीर ब्राह्मण संवाद|''युधिष्टीर ब्राह्मण संवाद'']]<br />
<br />
युधिष्ठिर उवाच<br />
ममापि परमा भक्तिर्ब्राह्मणेषु सदा द्विजाः।<br />
सहायविपरिभ्रंशस्त्वयं सादयतीव माम्॥ 3-2-7<br />
आहरेयुरिमे येऽपि फलमूलमृगांस्तथा[मधूनि च]।<br />
त इमे शोकजैर्दुःखैर्भ्रातरो मे विमोहिताः॥ 3-2-8<br />
द्रौपद्या विप्रकर्षेण राज्यापहरणेन च।<br />
दुःखार्दितानिमान्क्लेशैर्नाहं योक्तुमिहोत्सहे॥ 3-2-9<br />
[[:Category:Yudhishtir - brahmans conversation|''Yudhishtir - brahmans conversation'']] [[:Category:युधिष्टीर ब्राह्मण संवाद|''युधिष्टीर ब्राह्मण संवाद'']] [[:Category:Sadness|''Sadness'']] [[:Category:दु:ख|''दु:ख'']] [[:Category:शोक|''शोक'']]<br />
<br />
ब्राह्मणा ऊचुः<br />
अस्मत्पोषणजा चिन्ता मा भूत्ते हृदि पार्थिव।<br />
स्वयमाहृत्य चान्नानि चोपयोक्षा[त्वानुयास्या]महे वयम्॥ 3-2-10<br />
अनुध्यानेन जप्येन विधास्यामः शिवं तव।<br />
कथाभिश्चाभिरम्याभिः सह रंस्यामहे वयम्॥ 3-2-11<br />
युधिष्ठिर उवाच<br />
एवमेतन्न सन्देहो रमेऽहं सततं द्विजैः।<br />
मा[न्यू]नभावात्तु पश्यामि प्रत्यादेशमिवात्मनः॥ 3-2-12<br />
कथं द्रक्ष्यामि वः सर्वान्स्वयमाहृतभोजनान्।<br />
मद्भक्त्या क्लिश्यतोऽनर्हान्धिक्पापान्धृतराष्ट्रजान्॥ 3-2-13<br />
[[:Category:Yudhishtir - brahmans conversation|''Yudhishtir - brahmans conversation'']] [[:Category:युधिष्टीर ब्राह्मण संवाद|''युधिष्टीर ब्राह्मण संवाद'']]<br />
<br />
वैशम्पायन उवाच<br />
<br />
इत्युक्त्वा स नृपः शोचन्निषसाद महीतले।<br />
<br />
तमध्यात्मरतो विद्वान्शौनको नाम वै द्विजः।<br />
<br />
योगे सांख्ये च कुशलो राजानमिदमब्रवीत्॥ 3-2-14<br />
<br />
शोकस्थानसहस्राणि भयस्थानशतानि च।<br />
दिवसे दिवसे मूढमाविशन्ति न पण्डितम्॥ 3-2-15<br />
न हि ज्ञानविरुद्धेषु बहुदोषेषु कर्मसु।<br />
श्रेयोघातिषु सज्जन्ते बुद्धिमन्तो भवद्विधाः॥ 3-2-16<br />
अष्टाङ्गां बुद्धिमाहुर्यां सर्वाश्रेयोऽभिघातिनीम्।<br />
श्रुतिस्मृतिसमायुक्तां राजन्सा त्वय्यवस्थिता॥ 3-2-17<br />
अर्थकृच्छ्रेषु दुर्गेषु व्यापत्सु स्वजनस्य च।<br />
शारीरमानसैर्दुःखैर्न सीदन्ति भवद्विधाः॥ 3-2-18<br />
[[:Category:Description of a knowledgeable person|''Description of a knowledgeable person'']] [[:Category:ज्ञानी जनस्य वर्णनं|''ज्ञानी जनस्य वर्णनं'']]<br />
<br />
श्रूयतां चाभिधास्यामि जनकेन यथा पुरा।<br />
<br />
आत्मव्यवस्थानकरा गीताः श्लोका महात्मना॥ 3-2-19<br />
<br />
मनोदेहसमुत्थाभ्यां दुःखाभ्यामर्दितं जगत्।<br />
तयोर्व्याससमासाभ्यां शमोपायमिमं शृणु॥ 3-2-20<br />
व्याधेरनिष्टसंस्पर्शाच्छ्रमादिष्टविवर्जनात्।<br />
दुःखं चतुर्भिः शारीरं कारणैः सम्प्रवर्तते॥ 3-2-21<br />
तदा तत्प्रतिकाराच्च सततं चाविचिन्तनात्।<br />
आधिव्याधिप्रशमनं क्रियायोगद्वयेन तु॥ 3-2-22<br />
मतिमन्तो ह्यतो वैद्याः शमं प्रागेव कुर्वते।<br />
मानसस्य प्रियाख्यानैः सम्भोगोपनयैर्नृणाम्॥ 3-2-23<br />
[[:Category:solution to overcome sadness|''solution to overcome sadness'']]<br />
<br />
मानसेन हि दुःखेन शरीरमुपतप्यते।<br />
अयःपिण्डेन तप्तेन कुम्भसंस्थमिवोदकम्॥ 3-2-24<br />
मानसं शमयेत्तस्माज्ज्ञानेनाग्निमिवाम्बुना।<br />
प्रशान्ते मानसे ह्यस्य शारीरमुपशाम्यति॥ 3-2-25<br />
[[:Category:connection between physical and mental health|''connection between physical and mental health'']]<br />
<br />
मनसो दुःखमूलं तु स्नेह इत्युपलभ्यते।<br />
स्नेहात्तु सज्जते जन्तुर्दुःखयोगमुपैति च॥ 3-2-26<br />
स्नेहमूलानि दुःखानि स्नेहजानि भयानि च।<br />
शोकहर्षौ तथाऽऽयासः सर्वं स्नेहात्प्रवर्तते॥ 3-2-27<br />
स्नेहाद्भावोऽनुरागश्च प्रजज्ञे विषये तथा।<br />
अश्रेयस्कावुभावेतौ पूर्वस्तत्र गुरुः स्मृतः॥ 3-2-28<br />
कोटराग्निर्यथाशेषं समूलं पादपं दहेत्।<br />
धर्मार्थौ तु तथाल्पोऽपि रागदोषो विनाशयेत्॥ 3-2-29<br />
[[:Category:attachment|''attachment'']] [[:Category:आसक्ती|''आसक्ती'']]<br />
<br />
विप्रयोगे न तु त्यागी दोषदर्शी समागमे।<br />
विरागं भजते जन्तुर्निर्वैरो निरवग्रहः॥ 3-2-30<br />
[[:Category:detachment|''detachment'']] [[:Category:त्याग|''त्याग'']]<br />
<br />
तस्मात्स्नेहं न लिप्सेत मित्रेभ्यो धनसञ्चयात्।<br />
स्वशरीरसमुत्थं च ज्ञानेन विनिवर्तयेत्॥ 3-2-31<br />
ज्ञानान्वितेषु युक्तेषु शास्त्रज्ञेषु कृतात्मसु।<br />
न तेषु सज्जते स्नेहः पद्मपत्रेष्विवोदकम्॥ 3-2-32<br />
[[:Category:attachment|''attachment'']] [[:Category:आसक्ती|''आसक्ती'']]<br />
<br />
रागाभिभूतः पुरुषः कामेन परिकृष्यते।<br />
इच्छा सञ्जायते तस्य ततस्तृष्णा विवर्धते॥ 3-2-33<br />
तृष्णा हि सर्वपापिष्ठा नित्योद्वेगकरी स्मृता।<br />
अधर्मबहुला चैव घोरा पापानुबन्धिनी॥ 3-2-34<br />
या दुस्त्यजा दुर्मतिभिर्या न जीर्यति जीर्यतः।<br />
योऽसौ प्राणान्तिको रोगस्तां तृष्णां त्यजतः सुखम्॥ 3-2-35<br />
अनाद्यन्ता तु सा तृष्णा अन्तर्देहगता नृणाम्।<br />
विनाशयति भूतानि अयोनिज इवानलः॥ 3-2-36<br />
यथैधः स्वसमुत्थेन वह्निना नाशमृच्छति।<br />
तथाकृतात्मा लोभेन सहजेन विनश्यति॥ 3-2-37<br />
[[:Category:anarthas|''anarthas'']] [[:Category:अनर्थ|''अनर्थ'']]<br />
<br />
राजतः सलिलादग्नेश्चोरतः स्वजनादपि।<br />
भयमर्थवतां नित्यं मृत्योः प्राणभृतामिव॥ 3-2-38<br />
यथा ह्यामिषमाकाशे पक्षिभिः श्वापदैर्भुवि।<br />
भक्ष्यते सलिले मत्स्यैस्तथा सर्वत्र वित्तवान्॥ 3-2-39<br />
अर्थ एव हि केषाञ्चिदनर्थं भजते नृणाम्।<br />
अर्थश्रेयसि चासक्तो च श्रेयो विन्दते नरः॥ 3-2-40<br />
तस्मादर्थागमाः सर्वे मनोमोहविवर्धनाः।<br />
कार्पण्यं दर्पमानौ च भयमुद्वेग एव च॥ 3-2-41<br />
अर्थजानि विदुः प्राज्ञा दुःखान्येतानि देहिनाम्।<br />
अर्थस्योत्पादने चैव पालने च तथा क्षये॥ 3-2-42<br />
सहन्ति च महद्दुःखं घ्नन्ति चैवार्थकारणात्।<br />
अर्था दुःखं परित्यक्तुं पालिताश्चैव शत्रवः॥ 3-2-43<br />
दुःखेन चाधिगम्यन्ते तस्मान्नाशं न चिन्तयेत्।<br />
असन्तोषपरा मूढाः सन्तोषं यान्ति पण्डिताः॥ 3-2-44<br />
अन्तो नास्ति पिपासायाः सन्तोषः परमं सुखम्।<br />
तस्मात्सन्तोषमेवेह परं पश्यन्ति पण्डिताः॥ 3-2-45<br />
अनित्यं यौवनं रूपं जीवितं रत्नसंचयः।<br />
ऐश्वर्यं प्रियसंवासो गृध्येत्तत्र न पण्डितः॥ 3-2-46<br />
त्यजेत सञ्चयांस्तस्मात्तज्जान्क्लेशान्सहेत च।<br />
न हि सञ्चयवान्कश्चिद्दृश्यते निरुपद्रवः।<br />
अतश्च धार्मिकैः पुंभिरनीहार्थः प्रशस्यते॥ 3-2-47<br />
धर्मार्थं यस्य वित्तेहा वरं तस्य निरीहता।<br />
प्रक्षालनाद्धि पङ्कस्य श्रेयो न स्पर्शनं नृणाम्॥ 3-2-48<br />
युधिष्ठिरैवं सर्वेषु न स्पृहां कर्तुमर्हसि।<br />
धर्मेण यदि ते कार्यं विमुक्तेच्छो भवार्थतः॥ 3-2-49<br />
[[:Category:Disadvantages of being wealthy|''Disadvantages of being wealthy'']] [[:Category:धन दोष|''धन दोष'']]<br />
<br />
युधिष्ठिर उवाच<br />
नार्थोपभोगलिप्सार्थमियमर्थेप्सुता मम।<br />
भरणार्थं तु विप्राणां ब्रह्मन्काङ्क्षे न लोभतः॥ 3-2-50<br />
कथं ह्यस्मद्विधो ब्रह्मन्वर्तमानो गृहाश्रमे।<br />
भरणं पालनं चापि न कुर्यादनुयायिनाम्॥ 3-2-51<br />
संविभागो हि भूतानां सर्वेषामेव दृश्यते।<br />
तथैवापचमानेभ्यः प्रदेयं गृहमेधिना॥ 3-2-52<br />
तृणानि भूमिरुदकं वाक्चतुर्थी च सूनृता।<br />
सतामेतानि गेहेषु नोच्छिद्यन्ते कदाचन॥ 3-2-53<br />
देयमार्तस्य शयनं स्थितश्रान्तस्य चासनम्।<br />
तृषितस्य च पानीयं क्षुधितस्य च भोजनम्॥ 3-2-54<br />
चक्षुर्दद्यान्मनो दद्याद्वाचं दद्यात्सुभाषिताम्।<br />
उत्थाय चासनं दद्यादेष धर्मः सनातनः।<br />
रत्युत्थायाभिगमनं कुर्यान्न्यायेन चार्चनम्॥ 3-2-55<br />
[[:Category:Sanatan dharma|''Sanatan dharma'']] [[:Category:सनातन धर्म|''सनातन धर्म'']]<br />
अग्निहोत्रमनड्वांश्च ज्ञातयोऽतिथिबान्धवाः।<br />
पुत्रा दाराश्च भृत्याश्च निर्दहेयुरपूजिताः॥ 3-2-56<br />
आत्मार्थं पाचयेन्नान्नं न वृथा घातयेत्पशून्।<br />
न च तत्स्वयमश्नीयाद्विधिवद्यन्न निर्वपेत्॥ 3-2-57<br />
श्वभ्यश्च श्वपचेभ्यश्च वयोभ्यश्चावपेद्भुवि।<br />
वैश्वदेवं हि नामैतत्सायं प्रातश्च दीयते॥ 3-2-58<br />
विघसाशी भवेत्तस्मान्नित्यं चामृतभोजनः।<br />
विघसो भुक्तशेषं तु यज्ञशेषं तथामृतम्॥ 3-2-59<br />
चक्षुर्दद्यान्मनो दद्याद्वाचं दद्याच्च सूनृताम्।<br />
अनुव्रजेदुपासीत स यज्ञः पञ्चदक्षिणः॥ 3-2-60<br />
यो दद्यादपरिक्लिष्टमन्नमध्वनि वर्तते।<br />
श्रान्तायादृष्टपूर्वाय तस्य पुण्यफलं महत्॥ 3-2-61<br />
एवं यो वर्तते वृत्तिं वर्तमानो गृहाश्रमे।<br />
तस्य धर्मं परं प्राहुः कथं वा विप्र मन्यसे॥ 3-2-62<br />
[[:Category:Duties of a householder|''Duties of a householder'']] [[:Category:गृहस्थ धर्म|''गृहस्थ धर्म'']]<br />
<br />
शौनक उवाच<br />
अहो बत महत्कष्टं विपरीतमिदं जगत्।<br />
येनापत्रपते साधुरसाधुस्तेन तुष्यति॥ 3-2-63<br />
शिश्नोदरकृतेऽप्राज्ञः करोति विघसं बहु।<br />
मोहरागवशाक्रान्त इन्द्रियार्थवशानुगः॥ 3-2-64<br />
ह्रियते बुध्यमानोऽपि नरो हारिभिरिन्द्रियैः।<br />
विमूढसंज्ञो दुष्टाश्वैरुद्भान्तैरिव सारथिः॥ 3-2-65<br />
षडिन्द्रियाणि विषयं समागच्छन्ति वै यदा।<br />
तदा प्रादुर्भवत्येषां पूर्वसङ्कल्पजं मनः॥ 3-2-66<br />
मनो यस्येन्द्रियस्येह विषयान्याति सेवितुम्।<br />
तस्यौत्सुक्यं सम्भवति प्रवृत्तिश्चोपजायते॥ 3-2-67<br />
ततः सङ्कल्पबीजेन कामेन विषयेषुभिः।<br />
विद्धः पतति लोभाग्नौ ज्योतिर्लोभात्पतङ्गवत्॥ 3-2-68<br />
ततो विहारैराहारैर्मोहितश्च यथेप्सया।<br />
महामोहे सुखे मग्नो नात्मानमवबुध्यते॥ 3-2-69<br />
एवं पतति संसारे तासु तास्विह योनिषु।<br />
अविद्याकर्मतृष्णाभिर्भ्राम्यमाणोऽथ चक्रवत्॥ 3-2-70<br />
ब्रह्मादिषु तृणान्तेषु भूतेषु परिवर्तते।<br />
जले भुवि तथाऽऽकाशे जायमानः पुनः पुनः॥ 3-2-71<br />
[[:Category:consequences of sense gratification|''consequences of sense gratification'']] [[:Category:इंद्रिय तृप्ति|''इंद्रिय तृप्ति'']] [[:Category:अविवेकी पुरुषोकी गती|''अविवेकी पुरुषोकी गती'']]<br />
<br />
अबुधानां गतिस्त्वेषा बुधानामपि मे शृणु।<br />
ये धर्मे श्रेयसि रता विमोक्षरतयो जनाः॥ 3-2-72<br />
तदिदं वेदवचनं कुरु कर्म त्यजेति च।<br />
तस्माद्धर्मानिमान्सर्वान्नाभिमानात्समाचरेत्॥ 3-2-73<br />
इज्याध्ययनदानानि तपः सत्यं क्षमा दमः।<br />
अलोभ इति मार्गोऽयं धर्मस्याष्टविधः स्मृतः॥ 3-2-74<br />
अत्र पूर्वश्चतुर्वर्गः पितृयाणपथे स्थितः।<br />
कर्तव्यमिति यत्कार्यं नाभिमानात्समाचरेत्॥ 3-2-75<br />
उत्तरो देवयानस्तु सद्भिराचरितः सदा।<br />
अष्टाङ्गेनैव मार्गेण विशुद्धात्मा समाचरेत्॥ 3-2-76<br />
सम्यक्सङ्कल्पसम्बन्धात्सम्यक्चेन्द्रियनिग्रहात्।<br />
सम्यग्व्रतविशेषाच्च सम्यक्च गुरुसेवनात्॥ 3-2-77<br />
सम्यगाहारयोगाच्च सम्यक्चाध्ययनागमात्।<br />
सम्यक्कर्मोपसन्न्यासात्सम्यक्चित्तनिरोधनात्॥ 3-2-78<br />
एवं कर्माणि कुर्वन्ति संसारविजिगीषवः।<br />
रागद्वेषविनिर्मुक्ता ऐश्वर्यं देवता गताः॥ 3-2-79<br />
रुद्राः साध्यास्तथाऽऽदित्या वसवोऽथ तथाश्विनौ।<br />
योगैश्वर्येण संयुक्ता धारयन्ति प्रजा इमाः॥ 3-2-80<br />
[[:Category:Righteousness|''Righteousness'']] [[:Category:धर्म|''धर्म'']] [[:Category:विवेकी पुरुषोकी गती|''विवेकी पुरुषोकी गती'']]<br />
<br />
तथा त्वमपि कौन्तेय शममास्थाय पुष्कलम्।<br />
तपसा सिद्धिमन्विच्छ योगसिद्धिं च भारत॥ 3-2-81<br />
पितृमातृमयी सिद्धिः प्राप्ता कर्ममयी च ते।<br />
तपसा सिद्धिमन्विच्छ द्विजानां भरणाय वै॥ 3-2-82<br />
सिद्धा हि यद्यदिच्छन्ति कुर्वते तदनुग्रहात्।<br />
तस्मात्तपः समास्थाय कुरुष्वात्ममनोरथम्॥ 3-2-83<br />
[[:Category:Penance|''Penance'']] [[:Category:तपस्या|''तपस्या'']]<br />
<br />
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि अरण्यपर्वणि पाण्डवानां प्रव्रजने द्वितीयोऽध्यायः॥ 2 ॥</div>
ShraddhaV
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Vanaparva Adhyaya 2 (वनपर्वणि अध्यायः २)
2019-07-10T12:01:39Z
<p>ShraddhaV: tagging</p>
<hr />
<div> वैशम्पायन उवाच<br />
प्रभातायां तु शर्वर्यां तेषामक्लिष्टकर्मणाम्।<br />
वनं यियासतां विप्रास्तस्थुर्भिक्षाभुजोऽग्रतः॥ 3-2-1<br />
तानुवाच ततो राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः।<br />
वयं हि हृतसर्वस्वा हृतराज्या हृतश्रियः॥ 3-2-2<br />
फलमूलाशनाहारा वनं गच्छाम दुःखिताः।<br />
वनं च दोषबहुलं बहुव्यालसरीसृपम्॥ 3-2-3<br />
परिक्लेशश्च वो मन्ये ध्रुवं तत्र भविष्यति।<br />
ब्राह्मणानां परिक्लेशो दैवतान्यपि सादयेत्।<br />
किं पुनर्मामितो विप्रा निवर्तध्वं यथेष्टतः॥ 3-2-4<br />
ब्राह्मणा ऊचुः<br />
गतिर्या भवतां राजंस्तां वयं गन्तुमुद्यताः।<br />
नार्हस्यस्मान्परित्यक्तुं भक्तान्सद्धर्मदर्शिनः॥ 3-2-5<br />
अनुकम्पां हि भक्तेषु देवता ह्यपि कुर्वते।<br />
विशेषतो ब्राह्मणेषु सदाचारावलम्बिषु॥ 3-2-6<br />
युधिष्ठिर उवाच<br />
ममापि परमा भक्तिर्ब्राह्मणेषु सदा द्विजाः।<br />
सहायविपरिभ्रंशस्त्वयं सादयतीव माम्॥ 3-2-7<br />
आहरेयुरिमे येऽपि फलमूलमृगांस्तथा[मधूनि च]।<br />
त इमे शोकजैर्दुःखैर्भ्रातरो मे विमोहिताः॥ 3-2-8<br />
द्रौपद्या विप्रकर्षेण राज्यापहरणेन च।<br />
दुःखार्दितानिमान्क्लेशैर्नाहं योक्तुमिहोत्सहे॥ 3-2-9<br />
[[:Category:Sadness|''Sadness'']] [[:Category:दु:ख|''दु:ख'']] [[:Category:शोक|''शोक'']]<br />
ब्राह्मणा ऊचुः<br />
अस्मत्पोषणजा चिन्ता मा भूत्ते हृदि पार्थिव।<br />
स्वयमाहृत्य चान्नानि चोपयोक्षा[त्वानुयास्या]महे वयम्॥ 3-2-10<br />
अनुध्यानेन जप्येन विधास्यामः शिवं तव।<br />
कथाभिश्चाभिरम्याभिः सह रंस्यामहे वयम्॥ 3-2-11<br />
युधिष्ठिर उवाच<br />
एवमेतन्न सन्देहो रमेऽहं सततं द्विजैः।<br />
मा[न्यू]नभावात्तु पश्यामि प्रत्यादेशमिवात्मनः॥ 3-2-12<br />
कथं द्रक्ष्यामि वः सर्वान्स्वयमाहृतभोजनान्।<br />
मद्भक्त्या क्लिश्यतोऽनर्हान्धिक्पापान्धृतराष्ट्रजान्॥ 3-2-13<br />
[[:Category:Yudhishtir - brahmans conversation|''Yudhishtir - brahmans conversation'']] [[:Category:युधिष्टीर ब्राह्मण संवाद|''युधिष्टीर ब्राह्मण संवाद'']]<br />
<br />
वैशम्पायन उवाच<br />
<br />
इत्युक्त्वा स नृपः शोचन्निषसाद महीतले।<br />
<br />
तमध्यात्मरतो विद्वान्शौनको नाम वै द्विजः।<br />
<br />
योगे सांख्ये च कुशलो राजानमिदमब्रवीत्॥ 3-2-14<br />
<br />
शोकस्थानसहस्राणि भयस्थानशतानि च।<br />
दिवसे दिवसे मूढमाविशन्ति न पण्डितम्॥ 3-2-15<br />
न हि ज्ञानविरुद्धेषु बहुदोषेषु कर्मसु।<br />
श्रेयोघातिषु सज्जन्ते बुद्धिमन्तो भवद्विधाः॥ 3-2-16<br />
अष्टाङ्गां बुद्धिमाहुर्यां सर्वाश्रेयोऽभिघातिनीम्।<br />
श्रुतिस्मृतिसमायुक्तां राजन्सा त्वय्यवस्थिता॥ 3-2-17<br />
अर्थकृच्छ्रेषु दुर्गेषु व्यापत्सु स्वजनस्य च।<br />
शारीरमानसैर्दुःखैर्न सीदन्ति भवद्विधाः॥ 3-2-18<br />
[[:Category:Description of a knowledgeable person|''Description of a knowledgeable person'']] [[:Category:ज्ञानी जनस्य वर्णनं|''ज्ञानी जनस्य वर्णनं'']]<br />
<br />
श्रूयतां चाभिधास्यामि जनकेन यथा पुरा।<br />
<br />
आत्मव्यवस्थानकरा गीताः श्लोका महात्मना॥ 3-2-19<br />
<br />
मनोदेहसमुत्थाभ्यां दुःखाभ्यामर्दितं जगत्।<br />
तयोर्व्याससमासाभ्यां शमोपायमिमं शृणु॥ 3-2-20<br />
व्याधेरनिष्टसंस्पर्शाच्छ्रमादिष्टविवर्जनात्।<br />
दुःखं चतुर्भिः शारीरं कारणैः सम्प्रवर्तते॥ 3-2-21<br />
तदा तत्प्रतिकाराच्च सततं चाविचिन्तनात्।<br />
आधिव्याधिप्रशमनं क्रियायोगद्वयेन तु॥ 3-2-22<br />
मतिमन्तो ह्यतो वैद्याः शमं प्रागेव कुर्वते।<br />
मानसस्य प्रियाख्यानैः सम्भोगोपनयैर्नृणाम्॥ 3-2-23<br />
[[:Category:solution to overcome sadness|''solution to overcome sadness'']]<br />
<br />
मानसेन हि दुःखेन शरीरमुपतप्यते।<br />
अयःपिण्डेन तप्तेन कुम्भसंस्थमिवोदकम्॥ 3-2-24<br />
मानसं शमयेत्तस्माज्ज्ञानेनाग्निमिवाम्बुना।<br />
प्रशान्ते मानसे ह्यस्य शारीरमुपशाम्यति॥ 3-2-25<br />
[[:Category:connection between physical and mental health|''connection between physical and mental health'']]<br />
<br />
मनसो दुःखमूलं तु स्नेह इत्युपलभ्यते।<br />
स्नेहात्तु सज्जते जन्तुर्दुःखयोगमुपैति च॥ 3-2-26<br />
स्नेहमूलानि दुःखानि स्नेहजानि भयानि च।<br />
शोकहर्षौ तथाऽऽयासः सर्वं स्नेहात्प्रवर्तते॥ 3-2-27<br />
स्नेहाद्भावोऽनुरागश्च प्रजज्ञे विषये तथा।<br />
अश्रेयस्कावुभावेतौ पूर्वस्तत्र गुरुः स्मृतः॥ 3-2-28<br />
कोटराग्निर्यथाशेषं समूलं पादपं दहेत्।<br />
धर्मार्थौ तु तथाल्पोऽपि रागदोषो विनाशयेत्॥ 3-2-29<br />
[[:Category:attachment|''attachment'']] [[:Category:आसक्ती|''आसक्ती'']]<br />
<br />
विप्रयोगे न तु त्यागी दोषदर्शी समागमे।<br />
विरागं भजते जन्तुर्निर्वैरो निरवग्रहः॥ 3-2-30<br />
[[:Category:detachment|''detachment'']] [[:Category:त्याग|''त्याग'']]<br />
<br />
तस्मात्स्नेहं न लिप्सेत मित्रेभ्यो धनसञ्चयात्।<br />
स्वशरीरसमुत्थं च ज्ञानेन विनिवर्तयेत्॥ 3-2-31<br />
ज्ञानान्वितेषु युक्तेषु शास्त्रज्ञेषु कृतात्मसु।<br />
न तेषु सज्जते स्नेहः पद्मपत्रेष्विवोदकम्॥ 3-2-32<br />
[[:Category:attachment|''attachment'']] [[:Category:आसक्ती|''आसक्ती'']]<br />
<br />
रागाभिभूतः पुरुषः कामेन परिकृष्यते।<br />
इच्छा सञ्जायते तस्य ततस्तृष्णा विवर्धते॥ 3-2-33<br />
तृष्णा हि सर्वपापिष्ठा नित्योद्वेगकरी स्मृता।<br />
अधर्मबहुला चैव घोरा पापानुबन्धिनी॥ 3-2-34<br />
या दुस्त्यजा दुर्मतिभिर्या न जीर्यति जीर्यतः।<br />
योऽसौ प्राणान्तिको रोगस्तां तृष्णां त्यजतः सुखम्॥ 3-2-35<br />
अनाद्यन्ता तु सा तृष्णा अन्तर्देहगता नृणाम्।<br />
विनाशयति भूतानि अयोनिज इवानलः॥ 3-2-36<br />
यथैधः स्वसमुत्थेन वह्निना नाशमृच्छति।<br />
तथाकृतात्मा लोभेन सहजेन विनश्यति॥ 3-2-37<br />
[[:Category:anarthas|''anarthas'']] [[:Category:अनर्थ|''अनर्थ'']]<br />
<br />
राजतः सलिलादग्नेश्चोरतः स्वजनादपि।<br />
भयमर्थवतां नित्यं मृत्योः प्राणभृतामिव॥ 3-2-38<br />
यथा ह्यामिषमाकाशे पक्षिभिः श्वापदैर्भुवि।<br />
भक्ष्यते सलिले मत्स्यैस्तथा सर्वत्र वित्तवान्॥ 3-2-39<br />
अर्थ एव हि केषाञ्चिदनर्थं भजते नृणाम्।<br />
अर्थश्रेयसि चासक्तो च श्रेयो विन्दते नरः॥ 3-2-40<br />
तस्मादर्थागमाः सर्वे मनोमोहविवर्धनाः।<br />
कार्पण्यं दर्पमानौ च भयमुद्वेग एव च॥ 3-2-41<br />
अर्थजानि विदुः प्राज्ञा दुःखान्येतानि देहिनाम्।<br />
अर्थस्योत्पादने चैव पालने च तथा क्षये॥ 3-2-42<br />
सहन्ति च महद्दुःखं घ्नन्ति चैवार्थकारणात्।<br />
अर्था दुःखं परित्यक्तुं पालिताश्चैव शत्रवः॥ 3-2-43<br />
दुःखेन चाधिगम्यन्ते तस्मान्नाशं न चिन्तयेत्।<br />
असन्तोषपरा मूढाः सन्तोषं यान्ति पण्डिताः॥ 3-2-44<br />
अन्तो नास्ति पिपासायाः सन्तोषः परमं सुखम्।<br />
तस्मात्सन्तोषमेवेह परं पश्यन्ति पण्डिताः॥ 3-2-45<br />
अनित्यं यौवनं रूपं जीवितं रत्नसंचयः।<br />
ऐश्वर्यं प्रियसंवासो गृध्येत्तत्र न पण्डितः॥ 3-2-46<br />
त्यजेत सञ्चयांस्तस्मात्तज्जान्क्लेशान्सहेत च।<br />
न हि सञ्चयवान्कश्चिद्दृश्यते निरुपद्रवः।<br />
अतश्च धार्मिकैः पुंभिरनीहार्थः प्रशस्यते॥ 3-2-47<br />
धर्मार्थं यस्य वित्तेहा वरं तस्य निरीहता।<br />
प्रक्षालनाद्धि पङ्कस्य श्रेयो न स्पर्शनं नृणाम्॥ 3-2-48<br />
युधिष्ठिरैवं सर्वेषु न स्पृहां कर्तुमर्हसि।<br />
धर्मेण यदि ते कार्यं विमुक्तेच्छो भवार्थतः॥ 3-2-49<br />
[[:Category:Disadvantages of being wealthy|''Disadvantages of being wealthy'']] [[:Category:धन दोष|''धन दोष'']]<br />
<br />
युधिष्ठिर उवाच<br />
नार्थोपभोगलिप्सार्थमियमर्थेप्सुता मम।<br />
भरणार्थं तु विप्राणां ब्रह्मन्काङ्क्षे न लोभतः॥ 3-2-50<br />
कथं ह्यस्मद्विधो ब्रह्मन्वर्तमानो गृहाश्रमे।<br />
भरणं पालनं चापि न कुर्यादनुयायिनाम्॥ 3-2-51<br />
संविभागो हि भूतानां सर्वेषामेव दृश्यते।<br />
तथैवापचमानेभ्यः प्रदेयं गृहमेधिना॥ 3-2-52<br />
तृणानि भूमिरुदकं वाक्चतुर्थी च सूनृता।<br />
सतामेतानि गेहेषु नोच्छिद्यन्ते कदाचन॥ 3-2-53<br />
देयमार्तस्य शयनं स्थितश्रान्तस्य चासनम्।<br />
तृषितस्य च पानीयं क्षुधितस्य च भोजनम्॥ 3-2-54<br />
चक्षुर्दद्यान्मनो दद्याद्वाचं दद्यात्सुभाषिताम्।<br />
उत्थाय चासनं दद्यादेष धर्मः सनातनः।<br />
रत्युत्थायाभिगमनं कुर्यान्न्यायेन चार्चनम्॥ 3-2-55<br />
[[:Category:Sanatan dharma|''Sanatan dharma'']] [[:Category:सनातन धर्म|''सनातन धर्म'']]<br />
अग्निहोत्रमनड्वांश्च ज्ञातयोऽतिथिबान्धवाः।<br />
पुत्रा दाराश्च भृत्याश्च निर्दहेयुरपूजिताः॥ 3-2-56<br />
आत्मार्थं पाचयेन्नान्नं न वृथा घातयेत्पशून्।<br />
न च तत्स्वयमश्नीयाद्विधिवद्यन्न निर्वपेत्॥ 3-2-57<br />
श्वभ्यश्च श्वपचेभ्यश्च वयोभ्यश्चावपेद्भुवि।<br />
वैश्वदेवं हि नामैतत्सायं प्रातश्च दीयते॥ 3-2-58<br />
विघसाशी भवेत्तस्मान्नित्यं चामृतभोजनः।<br />
विघसो भुक्तशेषं तु यज्ञशेषं तथामृतम्॥ 3-2-59<br />
चक्षुर्दद्यान्मनो दद्याद्वाचं दद्याच्च सूनृताम्।<br />
अनुव्रजेदुपासीत स यज्ञः पञ्चदक्षिणः॥ 3-2-60<br />
यो दद्यादपरिक्लिष्टमन्नमध्वनि वर्तते।<br />
श्रान्तायादृष्टपूर्वाय तस्य पुण्यफलं महत्॥ 3-2-61<br />
एवं यो वर्तते वृत्तिं वर्तमानो गृहाश्रमे।<br />
तस्य धर्मं परं प्राहुः कथं वा विप्र मन्यसे॥ 3-2-62<br />
[[:Category:Duties of a householder|''Duties of a householder'']] [[:Category:गृहस्थ धर्म|''गृहस्थ धर्म'']]<br />
<br />
शौनक उवाच<br />
अहो बत महत्कष्टं विपरीतमिदं जगत्।<br />
येनापत्रपते साधुरसाधुस्तेन तुष्यति॥ 3-2-63<br />
शिश्नोदरकृतेऽप्राज्ञः करोति विघसं बहु।<br />
मोहरागवशाक्रान्त इन्द्रियार्थवशानुगः॥ 3-2-64<br />
ह्रियते बुध्यमानोऽपि नरो हारिभिरिन्द्रियैः।<br />
विमूढसंज्ञो दुष्टाश्वैरुद्भान्तैरिव सारथिः॥ 3-2-65<br />
षडिन्द्रियाणि विषयं समागच्छन्ति वै यदा।<br />
तदा प्रादुर्भवत्येषां पूर्वसङ्कल्पजं मनः॥ 3-2-66<br />
मनो यस्येन्द्रियस्येह विषयान्याति सेवितुम्।<br />
तस्यौत्सुक्यं सम्भवति प्रवृत्तिश्चोपजायते॥ 3-2-67<br />
ततः सङ्कल्पबीजेन कामेन विषयेषुभिः।<br />
विद्धः पतति लोभाग्नौ ज्योतिर्लोभात्पतङ्गवत्॥ 3-2-68<br />
ततो विहारैराहारैर्मोहितश्च यथेप्सया।<br />
महामोहे सुखे मग्नो नात्मानमवबुध्यते॥ 3-2-69<br />
एवं पतति संसारे तासु तास्विह योनिषु।<br />
अविद्याकर्मतृष्णाभिर्भ्राम्यमाणोऽथ चक्रवत्॥ 3-2-70<br />
ब्रह्मादिषु तृणान्तेषु भूतेषु परिवर्तते।<br />
जले भुवि तथाऽऽकाशे जायमानः पुनः पुनः॥ 3-2-71<br />
[[:Category:consequences of sense gratification|''consequences of sense gratification'']] [[:Category:इंद्रिय तृप्ति|''इंद्रिय तृप्ति'']] [[:Category:अविवेकी पुरुषोकी गती|''अविवेकी पुरुषोकी गती'']]<br />
<br />
अबुधानां गतिस्त्वेषा बुधानामपि मे शृणु।<br />
ये धर्मे श्रेयसि रता विमोक्षरतयो जनाः॥ 3-2-72<br />
तदिदं वेदवचनं कुरु कर्म त्यजेति च।<br />
तस्माद्धर्मानिमान्सर्वान्नाभिमानात्समाचरेत्॥ 3-2-73<br />
इज्याध्ययनदानानि तपः सत्यं क्षमा दमः।<br />
अलोभ इति मार्गोऽयं धर्मस्याष्टविधः स्मृतः॥ 3-2-74<br />
अत्र पूर्वश्चतुर्वर्गः पितृयाणपथे स्थितः।<br />
कर्तव्यमिति यत्कार्यं नाभिमानात्समाचरेत्॥ 3-2-75<br />
उत्तरो देवयानस्तु सद्भिराचरितः सदा।<br />
अष्टाङ्गेनैव मार्गेण विशुद्धात्मा समाचरेत्॥ 3-2-76<br />
सम्यक्सङ्कल्पसम्बन्धात्सम्यक्चेन्द्रियनिग्रहात्।<br />
सम्यग्व्रतविशेषाच्च सम्यक्च गुरुसेवनात्॥ 3-2-77<br />
सम्यगाहारयोगाच्च सम्यक्चाध्ययनागमात्।<br />
सम्यक्कर्मोपसन्न्यासात्सम्यक्चित्तनिरोधनात्॥ 3-2-78<br />
एवं कर्माणि कुर्वन्ति संसारविजिगीषवः।<br />
रागद्वेषविनिर्मुक्ता ऐश्वर्यं देवता गताः॥ 3-2-79<br />
रुद्राः साध्यास्तथाऽऽदित्या वसवोऽथ तथाश्विनौ।<br />
योगैश्वर्येण संयुक्ता धारयन्ति प्रजा इमाः॥ 3-2-80<br />
[[:Category:Righteousness|''Righteousness'']] [[:Category:धर्म|''धर्म'']] [[:Category:विवेकी पुरुषोकी गती|''विवेकी पुरुषोकी गती'']]<br />
<br />
तथा त्वमपि कौन्तेय शममास्थाय पुष्कलम्।<br />
तपसा सिद्धिमन्विच्छ योगसिद्धिं च भारत॥ 3-2-81<br />
पितृमातृमयी सिद्धिः प्राप्ता कर्ममयी च ते।<br />
तपसा सिद्धिमन्विच्छ द्विजानां भरणाय वै॥ 3-2-82<br />
सिद्धा हि यद्यदिच्छन्ति कुर्वते तदनुग्रहात्।<br />
तस्मात्तपः समास्थाय कुरुष्वात्ममनोरथम्॥ 3-2-83<br />
[[:Category:Penance|''Penance'']] [[:Category:तपस्या|''तपस्या'']]<br />
<br />
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि अरण्यपर्वणि पाण्डवानां प्रव्रजने द्वितीयोऽध्यायः॥ 2 ॥</div>
ShraddhaV
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Vanaparva Adhyaya 3 (वनपर्वणि अध्यायः ३)
2019-07-10T11:27:51Z
<p>ShraddhaV: </p>
<hr />
<div> वैशम्पायन उवाच<br />
शौनकेनैवमुक्तस्तु कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः।<br />
पुरोहितमुपागम्य भ्रातृमध्येऽब्रवीदिदम्॥ 3-3-1<br />
प्रस्थितं मानुयान्तीमे ब्राह्मणा वेदपारगाः।<br />
न चास्मि पोषणे शक्तो बहुदुःखसमन्वितः॥ 3-3-2<br />
परित्यक्तुं न शक्तोऽस्मि दानशक्तिश्च नास्ति मे।<br />
कथमत्र मया कार्यं तद्ब्रूहि भगवन्मम॥ 3-3-3<br />
[[:Category:Service|''Service'']] [[:Category:सेवा|''सेवा'']]<br />
<br />
वैशम्पायन उवाच<br />
मुहूर्तमिव स ध्यात्वा धर्मेणान्विष्य तां गतिम्।<br />
युधिष्ठिरमुवाचेदं धौम्यो धर्मभृतां वरः॥ 3-3-4<br />
[[:Category:Dhaumya Rishi|''Dhaumya Rishi'']] [[:Category:धौम्य ऋषि|''धौम्य ऋषि'']]<br />
<br />
धौम्य उवाच<br />
<br />
पुरा सृष्टानि भूतानि पीड्यन्ते क्षुधया भृशम्।<br />
<br />
ततोऽनुकम्पया तेषां सविता स्वपिता यथा॥ 3-3-5<br />
<br />
गत्वोत्तरायणं तेजो रसानुद्धृत्य रश्मिभिः।<br />
<br />
दक्षिणायनमावृत्तो महीं निविशते रविः॥ 3-3-6<br />
<br />
क्षेत्रभूते ततस्तस्मिन्नोषधीरोषधीपतिः।<br />
दिवस्तेजः समुद्धृत्य जनयामास वारिणा॥ 3-3-7<br />
निषिक्तश्चन्द्रतेजोभिः स्वयोनौ निर्गते रविः।<br />
ओषध्यः षड्रसा मेध्यास्तदन्नं प्राणिनां भुवि॥ 3-3-8<br />
[[:Category:Moon God|''Moon God'']] [[:Category:चंद्रमा|''चंद्रमा'']] [[:Category:चंद्र देव|''चंद्र देव'']]<br />
<br />
एवं भानुमयं ह्यन्नं भूतानां प्राणधारणम्।<br />
<br />
पितैष सर्वभूतानां तस्मात्तं शरणं व्रज॥ 3-3-9<br />
<br />
राजानो हि महात्मानो योनिकर्मविशोधिताः।<br />
उद्धरन्ति प्रजाः सर्वास्तप आस्थाय पुष्कलम्॥ 3-3-10<br />
भीमेन कार्तवीर्येण वैन्येन नहुषेण च।<br />
तपोयोगसमाधिस्थैरुद्धता ह्यापदः प्रजाः॥ 3-3-11<br />
तथा त्वमपि धर्मात्मन्कर्मणा च विशोधितः।<br />
तप आस्थाय धर्मेण द्विजातीन्भर भारत॥ 3-3-12<br />
[[:Category:Penance|''Penance'']] [[:Category:tapasya|''tapasya'']]<br />
<br />
जनमेजय उवाच<br />
कथं कुरूणामृषभः स तु राजा युधिष्ठिरः।<br />
विप्रार्थमाराधितवान्सूर्यमद्भुतदर्शनम्॥ 3-3-13<br />
वैशम्पायन उवाच<br />
शृणुष्वावहितो राजञ्शुचिर्भूत्वा समाहितः।<br />
क्षणं च कुरु राजेन्द्र सम्प्रवक्ष्याम्यशेषतः॥ 3-3-14<br />
धौम्येन तु यथा पूर्वं पार्थाय सुमहात्मने।<br />
नामाष्टशतमाख्यातं तच्छृणुष्व महामते॥ 3-3-15<br />
[[:Category:Sun God|''Sun God'']] [[:Category:सूर्य देव|''सूर्य देव'']]<br />
<br />
धौम्य उवाच<br />
सूर्योऽर्यमा भगस्त्वष्टा पूषार्कः सविता रविः।<br />
गभस्तिमानजः कालो मृत्युर्धाता प्रभाकरः॥ 3-3-16<br />
पृथिव्यापश्च तेजश्च खं वायुश्च परायणम्।<br />
सोमो बृहस्पतिः शुक्रो बुधोऽङ्गारक एव च॥ 3-3-17<br />
इन्द्रो विवस्वान्दीप्तांशुः शुचिः शौरिः शनैश्चरः।<br />
ब्रह्मा विष्णुश्च रुद्रश्च स्कन्दो वै वरुणो यमः॥ 3-3-18<br />
वैद्युतो जाठरश्चाग्निरैन्धनस्तेजसां पतिः।<br />
धर्मध्वजो वेदकर्ता वेदाङ्गो वेदवाहनः॥ 3-3-19<br />
कृतं त्रेता द्वापरश्च कलिः सर्वमलाश्रयः।<br />
कला काष्ठा मुहूर्ताश्च क्षपा यामस्तथा क्षणः॥ 3-3-20<br />
संवत्सरकरोऽश्वत्थः कालचक्रो विभावसुः।<br />
पुरुषः शाश्वतो योगी व्यक्ताव्यक्तः सनातनः॥ 3-3-21<br />
कालाध्यक्षः प्रजाध्यक्षो विश्वकर्मा तमोनुदः।<br />
वरुणः सागरोंऽशुश्च जीमूतो जीवनोऽरिहा॥ 3-3-22<br />
भूताश्रयो भूतपतिः सर्वलोकनमस्कृतः।<br />
स्रष्टा संवर्तको वह्निः सर्वस्यादिरलोलुपः॥ 3-3-23<br />
अनन्तः कपिलो भानुः कामदः सर्वतोमुखः।<br />
जयो विशालो वरदः सर्वधातुनिषेचिता॥ 3-3-24<br />
मनःसुपर्णो भूतादिः शीघ्रगः प्राणधारकः।<br />
धन्वन्तरिर्धूमकेतुरादिदेवोऽदितेः सुतः॥ 3-3-25<br />
द्वादशात्मारविन्दाक्षः पिता माता पितामहः।<br />
स्वर्गद्वारं प्रजाद्वारं मोक्षद्वारं त्रिविष्टपम्॥ 3-3-26<br />
देहकर्ता प्रशान्तात्मा विश्वात्मा विश्वतोमुखः।<br />
चराचरात्मा सूक्ष्मात्मा मैत्रेयः करुणान्वितः॥ 3-3-27<br />
एतद्वै कीर्तनीयस्य सूर्यस्यामिततेजसः।<br />
नामाष्टशतकं चेदं प्रोक्तमेतत्स्वयंभुवा॥ 3-3-28<br />
[[:Category:108 names of Sun God|''108 names of Sun God'']] [[:Category:सूर्य देव|''सूर्य देव'']] [[:Category:१०८|''१०८'']]<br />
<br />
सुरगणपितृयक्षसेवितं ह्यसुरनिशाचरसिद्धवन्दितम्।<br />
वरकनकहुताशनप्रभं प्रणिपतितोऽस्मि हिताय भास्करम्॥ 3-3-29<br />
सूर्योदये यः सुसमाहितः पठेत्स पुत्रदारान्धनरत्नसञ्चयान्।<br />
लभेत जातिस्मरतां नरः सदा धृतिं च मेधां च स विन्दते पुमान्॥ 3-3-30<br />
इमं स्तवं देववरस्य यो नरः प्रकीर्तयेच्छुचिसुमनाः समाहितः।<br />
विमुच्यते शोकदवाग्निसागराल्लभेत कामान्मनसा यथेप्सितान्॥ 3-3-31<br />
[[:Category:Worship of Sun God|''Worship of Sun God'']] [[:Category:सूर्य देव आराधना|''सूर्य देव आराधना'']]<br />
<br />
वैशम्पायन उवाच<br />
एवमुक्तस्तु धौम्येन तत्कालसदृशं वचः।<br />
विप्रत्यागसमाधिस्थः संयतात्मा दृढव्रतः॥ 3-3-32<br />
धर्मराजो विशुद्धात्मा तप आतिष्ठदुत्तमम्।<br />
पुष्पोपहारैर्बलिभिरर्चयित्वा दिवाकरम्॥ 3-3-33<br />
सोऽवगाह्य जलं राजा देवस्याभिमुखोऽभवत्।<br />
योगमास्थाय धर्मात्मा वायुभक्षो जितेन्द्रियः॥ 3-3-34<br />
गाङ्गेयं वार्युपस्पृश्य प्राणायामेन तस्थिवान्।<br />
शुचिः प्रयतवाग्भूत्वा स्तोत्रमारब्धवांस्ततः॥ 3-3-35<br />
[[:Category:Worship|''Worship'']] [[:Category:पुजा|''पुजा'']]<br />
<br />
युधिष्ठिर उवाच<br />
त्वं भानो जगतश्चक्षुस्त्वमात्मा सर्वदेहिनाम्।<br />
त्वं योनिः सर्वभूतानां त्वमाचारः क्रियावताम्॥ 3-3-36<br />
त्वं गतिः सर्वसांख्यानां योगिनां त्वं परायणम्।<br />
अनावृतार्गलद्वारं त्वं गतिस्त्वं मुमुक्षताम्॥ 3-3-37<br />
त्वया संधार्यते लोकस्त्वया लोकः प्रकाश्यते।<br />
त्वया पवित्रीक्रियते निर्व्याजं पाल्यते त्वया॥ 3-3-38<br />
त्वामुपस्थाय काले तु ब्राह्मणा वेदपारगाः।<br />
स्वशाखाविहितैर्मन्त्रैरर्चन्त्यृषिगणार्चितम्॥ 3-3-39<br />
तव दिव्यं रथं यान्तमनुयान्ति वरार्थिनः।<br />
सिद्धचारणगन्धर्वा यक्षगुह्यकपन्नगाः॥ 3-3-40<br />
त्रयस्त्रिंशच्च वै देवास्तथा वैमानिका गणाः।<br />
सोपेन्द्राः समहेन्द्राश्च त्वामिष्ट्वा सिद्धिमागताः॥ 3-3-41<br />
उपयान्त्यर्चयित्वा तु त्वां वै प्राप्तमनोरथाः।<br />
दिव्यमन्दारमालाभिस्तूर्णं विद्याधरोत्तमाः॥ 3-3-42<br />
गुह्याः पितृगणाः सप्त ये दिव्या ये च मानुषाः।<br />
ते पूजयित्वा त्वामेव गच्छन्त्याशु प्रधानताम्॥ 3-3-43<br />
वसवो मरुतो रुद्रा ये च साध्या मरीचिपाः।<br />
वालखिल्यादयः सिद्धाः श्रेष्ठत्वं प्राणिनां गताः॥ 3-3-44<br />
सब्रह्मकेषु लोकेषु सप्तस्वप्यखिलेषु च।<br />
न तद्भूतमहं मन्ये यदर्कादतिरिच्यते॥ 3-3-45<br />
सन्ति चान्यानि सत्त्वानि वीर्यवन्ति महान्ति च।<br />
न तु तेषां तथा दीप्तिः प्रभावो वा यथा तव॥ 3-3-46<br />
ज्योतींषि त्वयि सर्वाणि त्वं सर्वज्योतिषां पतिः।<br />
त्वयि सत्यं च सत्त्वं च सर्वे भावाश्च सात्त्विकाः॥ 3-3-47<br />
त्वत्तेजसा कृतं चक्रं सुनाभं विश्वकर्मणा।<br />
देवारीणां मदो येन नाशितः शार्ङ्गधन्वना॥ 3-3-48<br />
त्वमादायांशुभिस्तेजो निदाघे सर्वदेहिनाम्।<br />
सर्वौषधिरसानां च पुनर्वर्षासु मुञ्चसि॥ 3-3-49<br />
तपन्त्यन्ये दहन्त्यन्ये गर्जन्त्यन्ये तथा घनाः।<br />
विद्योतन्ते प्रवर्षन्ति तव प्रावृषि रश्मयः॥ 3-3-50<br />
न तथा सुखयत्यग्निर्न प्रावारा न कम्बलाः।<br />
शीतवातार्दितं लोकं यथा तव मरीचयः॥ 3-3-51<br />
त्रयोदशद्वीपवतीं गोभिर्भासयसे महीम्।<br />
त्रयाणामपि लोकानां हितायैकः प्रवर्तसे॥ 3-3-52<br />
तव यद्युदयो न स्यादन्धं जगदिदं भवेत्।<br />
न च धर्मार्थकामेषु प्रवर्तेरन्मनीषिणः॥ 3-3-53<br />
आधानपशुबन्धेष्टिमन्त्रयज्ञतपःक्रियाः।<br />
त्वत्प्रसादादवाप्यन्ते ब्रह्मक्षत्रविशां गणैः॥ 3-3-54<br />
यदहर्ब्रह्मणः प्रोक्तं सहस्रयुगसम्मितम्।<br />
तस्य त्वमादिरन्तश्च कालज्ञैः परिकीर्तितः॥ 3-3-55<br />
मनूनां मनुपुत्राणां जगतोऽमानवस्य च।<br />
मन्वन्तराणां सर्वेषामीश्वराणां त्वमीश्वरः॥ 3-3-56<br />
संहारकाले सम्प्राप्ते तव क्रोधविनिःसृतः।<br />
संवर्तकाग्निस्त्रैलोक्यं भस्मीकृत्यावतिष्ठते॥ 3-3-57<br />
त्वद्दीधितिसमुत्पन्ना नानावर्णा महाघनाः।<br />
सैरावताः साशनयः कुर्वन्त्याभूतसम्प्लवम्॥ 3-3-58<br />
कृत्वा द्वादशधाऽऽत्मानं द्वादशादित्यतां गतः।<br />
संहृत्यैकार्णवं सर्वं त्वं शोषयसि रश्मिभिः॥ 3-3-59<br />
त्वामिन्द्रमाहुस्त्वं रुद्रस्त्वं विष्णुस्त्वं प्रजापतिः।<br />
त्वमग्निस्त्वं मनः सूक्ष्मं प्रभुस्त्वं ब्रह्म शाश्वतम्॥ 3-3-60<br />
त्वं हंसः सविता भानुरंशुमाली वृषाकपिः।<br />
विवस्वान्मिहिरः पूषा मित्रो धर्मस्तथैव च॥ 3-3-61<br />
सहस्ररश्मिरादित्यस्तपनस्त्वं गवाम्पतिः।<br />
मार्तण्डोऽर्को रविः सूर्यः शरण्यो दिनकृत्तथा॥ 3-3-62<br />
दिवाकरः सप्तसप्तिर्धामकेशी विरोचनः।<br />
आशुगामी तमोघ्नश्च हरिताश्वश्च कीर्त्यसे॥ 3-3-63<br />
सप्तम्यामथवा षष्ठ्यां भक्त्या पूजां करोति यः।<br />
अनिर्विण्णोऽनहङ्कारी तं लक्ष्मीर्भजते नरम्॥ 3-3-64<br />
न तेषामापदः सन्ति नाधयो व्याधयस्तथा।<br />
ये तवानन्यमनसः कुर्वन्त्यर्चनवन्दनम्॥ 3-3-65<br />
सर्वरोगैर्विरहिताः सर्वपापविवर्जिताः।<br />
त्वद्भावभक्ताः सुखिनो भवन्ति चिरजीविनः॥ 3-3-66<br />
त्वं ममाप्यन्नकामस्य सर्वातिथ्यं चिकीर्षतः।<br />
अन्नमन्नपते दातुमभितः श्रद्धयार्हसि॥ 3-3-67<br />
ये च तेऽनुचराः सर्वे पादोपान्तं समाश्रिताः।<br />
माठरारुणदण्डाद्यास्तांस्तान्वन्देऽशनिक्षुभान्॥ 3-3-68<br />
क्षुभया सहिता मैत्री याश्चान्या भूतमातरः।<br />
ताश्च सर्वा नमस्यामि पान्तु मां शरणागतम्॥ 3-3-69<br />
वैशम्पायन उवाच<br />
एवं स्तुतो महाराज भास्करो लोकभावनः।<br />
ततो दिवाकरः प्रीतो दर्शयामास पाण्डवम्।<br />
दीप्यमानः स्ववपुषा ज्वलन्निव हुताशनः॥ 3-3-70<br />
[[:Category:Sun God|''Sun God'']] [[:Category:सूर्य देव|''सूर्य देव'']]<br />
<br />
विवस्वानुवाच<br />
यत्तेऽभिलषितं किञ्चित्तत्त्वं सर्वमवाप्स्यसि।<br />
अहमन्नं प्रदास्यामि सप्त पञ्च च ते समाः॥ 3-3-71<br />
फलमूलामिषं शाकं संस्कृतं यन्महानसे।<br />
गृह्णीष्व पिठरं ताम्रं मया दत्त नराधिप।<br />
यावद्वर्त्स्यति पाञ्चाली पात्रेणानेन सुव्रत॥ 3-3-72<br />
फलमूलामिषं शाकं संस्कृतं यन्महानसे।<br />
चतुर्विधं तदन्नाद्यमक्षय्यं ते भविष्यति।<br />
धनं च विविधं तुभ्यमित्युक्त्वान्तरधीयत॥<br />
इतश्चतुर्दशे वर्षे भूयो राज्यमवाप्स्यसि॥ 3-3-73<br />
[[:Category:Pandavas get Akshaypatra|''Pandavas get Akshaypatra'']] [[:Category:अक्षयपात्र|''अक्षयपात्र'']]<br />
<br />
वैशम्पायन उवाच<br />
एवमुक्त्वा तु भगवांस्तत्रैवान्तरधीयत॥ 3-3-74<br />
इमं स्तवं प्रयतमनाः समाधिना पठेदिहान्योऽपि वरं समर्थयन्।<br />
तत्तस्य दद्याच्च रविर्मनीषितं तदाप्नुयाद्यद्यपि तत्सुदुर्लभम्॥ 3-3-74<br />
यश्चेदं धारयेन्नित्यं शृणुयाद्वाप्यभीक्ष्णशः।<br />
पुत्रार्थी लभते पुत्रं धनार्थी लभते धनम्॥ 3-3-75<br />
विद्यार्थी लभते विद्यां पुरुषोऽप्यथवा स्त्रियः।<br />
उभे सन्ध्ये पठेन्नित्यं नारी वा पुरुषो यदि॥ 3-3-76<br />
आपदं प्राप्य मुच्येत बद्धो मुच्येत बन्धनात्।<br />
एतद्ब्रह्मा ददौ पूर्वं शक्राय सुमहात्मने॥ 3-3-77<br />
शक्राच्च नारदः प्राप्तो धौम्यस्तु तदनन्तरम्।<br />
धौम्याद्युधिष्ठिरः प्राप्य सर्वान्कामानवाप्तवान्॥ 3-3-78<br />
सङ्ग्रामे च जयेन्नित्यं विपुलं चाप्नुयाद्वसु।<br />
मुच्यते सर्वपापेभ्यः सूर्यलोकं स गच्छति॥ 3-3-79<br />
[[:Category:Benefits of worshiping Sun God|''Benefits of worshiping Sun God'']]<br />
<br />
वैशम्पायन उवाच<br />
लब्ध्वा वरं तु कौन्तेयो जलादुत्तीर्य धर्मवित्।<br />
जग्राह पादौ धौम्यस्य भ्रातॄंश्च परिषस्वजे॥ 3-3-80<br />
द्रौपद्या सह सङ्गम्य वन्द्यमानस्तया प्रभुः।<br />
महानसे तदानीं तु साधयामास पाण्डवः॥ 3-3-81<br />
संस्कृतं प्रसवं याति स्वल्पमन्नं चतुर्विधम्।<br />
अक्षय्यं वर्धते चान्नं तेन भोजयते द्विजान्॥ 3-3-82<br />
भुक्तवत्सु च विप्रेषु भोजयित्वानुजानपि।<br />
शेषं विघससंज्ञं तु पश्चाद्भुङ्क्ते युधिष्ठिरः॥ 3-3-83<br />
युधिष्ठिरं भोजयित्वा शेषमश्नाति पार्षती।<br />
द्रौपद्यां भुज्यमानायां तदन्नं क्षयमेति च।<br />
एवं दिवाकरात्प्राप्य दिवाकरसमप्रभः॥ 3-3-84<br />
कामान्मनोऽभिलषितान्ब्राह्मणेभ्योऽददात्प्रभुः।<br />
पुरोहितपुरोगाश्च तिथिनक्षत्रपर्वसु।<br />
यज्ञियार्थाः प्रवर्तन्ते विधिमन्त्रप्रमाणतः॥ 3-3-85<br />
[[:Category:Serving Brahmanas|''Serving Brahmanas'']] [[:Category:Akshaypatra|''Akshaypatra'']] [[:Category:अक्षयपात्र|''अक्षयपात्र'']]<br />
<br />
ततः कृतस्वस्त्ययना धौम्येन सह पाण्डवाः।<br />
द्विजसङ्घैः परिवृताः प्रययुः काम्यकं वनम्॥ 3-3-86<br />
[[:Category:Kamyavan|''Kamyavan'']] [[:Category:काम्यवन|''काम्यवन'']]<br />
<br />
जनमेजयः पुष्पोपहारबलिभिर्बहुशश्च यथाविधि।<br />
<br />
सर्वात्मभूतं सम्पूज्य यतप्राणो जितेन्द्रियः॥<br />
<br />
स्तवेन केन विप्रर्षे स तु राजा युधिष्ठिरः।<br />
<br />
विप्रार्थमाराधितवान्सूर्यमद्भुतविक्रमम्॥<br />
<br />
मयि स्नेहोऽस्ति चेद्ब्रह्मन्यदनुग्रहभागहम्।<br />
<br />
भगवान्नास्ति चेद्गुह्यं तच्च मे ब्रूहि साम्प्रतम्॥<br />
<br />
वैशम्पायनः शृणुष्वावहितो राजन्शुचिर्भूत्वा समाहितः।<br />
<br />
क्षणं च कुरु राजेन्द्र गुह्यं वक्ष्यामि ते हितम्॥<br />
<br />
धौम्येन तु यथाप्रोक्तं पार्थाय सुमहात्मने।<br />
<br />
नाम्नामष्टशतं पुण्यं तच्छृणुष्व महामते॥<br />
<br />
सूर्योऽर्यमा भगस्त्वष्टा पूषाऽर्कस्सविता रविः।<br />
<br />
गभस्तिमानजः कालो मृत्युर्धाता प्रभाकरः॥<br />
<br />
पृथिव्यापश्च तेजश्च खं वायुश्च परायणम्।<br />
<br />
सोमो बृहस्पतिश्शुक्रो बुधोऽङ्गारक एव च॥<br />
<br />
इन्द्रो विवस्वान्दीप्तांशुश्शुचिश्शौरिश्शनैश्चरः।<br />
<br />
ब्रह्मा विष्णुश्च रुद्रश्च स्कन्दो वैश्रवणो यमः॥<br />
<br />
वैद्युतो जाठरश्चाग्निः ऐन्धनस्तेजसां पतिः।<br />
<br />
धर्मध्वजो वेदकर्ता वेदाङ्गो वेदवाहनः॥<br />
<br />
कृतं त्रेता द्वापरश्च कलिस्सर्वामराश्रयः।<br />
<br />
कला काष्ठा मुहूर्ताश्च पक्षा मासा ऋतुस्तथा॥<br />
<br />
संवत्सरकरोऽश्वत्थः कालचक्रो विभावसुः।<br />
<br />
पुरुषश्शाश्वतो योगी व्यक्ताव्यक्तस्सनातनः॥<br />
<br />
लोकाध्यक्षस्सुराध्यक्षो विश्वकर्मा तमोनुदः।<br />
<br />
वरुणस्सागरोंशुश्च जीमूतो जीवनोऽरिहा॥<br />
<br />
भूताश्रयो भूतपतिस्सर्वभूतनिषेवितः।<br />
<br />
मणिस्सुवर्णो भूतादिः कामदस्सर्वतोमुखः॥<br />
<br />
जयो विशालो वरदश्शीघ्रगः प्राणधारणः।<br />
<br />
धन्वन्तरिर्धूमकेतुः आदिदेवोऽदितेस्सुतः॥<br />
<br />
द्वादशात्माऽरविन्दाक्षः पिता माता पितामहः।<br />
<br />
स्वर्गद्वारं प्रजाद्वारं मोक्षद्वारं त्रिविष्टपम्॥<br />
<br />
देवकर्ता प्रशान्तात्मा विश्वात्मा विश्वतोमुखः।<br />
<br />
चराचरात्मा सूक्ष्मात्मा मैत्रेण वपुषाऽन्वितः॥<br />
<br />
एतद्वै कीर्तनीयस्य सूर्यस्यैव महात्मनः।<br />
<br />
नाम्नामष्टशतं पुण्यं शक्रेणोक्तं महात्मना॥<br />
<br />
शक्राच्च नारदः प्राप्तो धौम्यश्च तदनन्तरम्।<br />
<br />
धौम्याद्युधिष्ठिरः प्राप्य सर्वान्कामानवाप्तवान्॥<br />
<br />
सुरपितृगणयक्षसेवितं निशिचरसिद्धगणैश्च वन्दितम्।<br />
<br />
वरकनकहुताशनप्रभं त्वमपि मनस्यभिधेहि भास्करम्॥<br />
<br />
सूर्योदये यस्सुसमाहितः पठेत्स पुत्रलाभं धनरत्नसञ्चयान्।<br />
<br />
लभेत जातिस्मरतां सदा नरे धृतिं च मेधां च स विन्दते वराम्॥<br />
<br />
इमं स्तवं देववरस्य कीर्तयेच्छृणोति वा यस्सुमनास्समाहितः।<br />
<br />
स मुच्यते शोकदवाग्निसागराल्लभेत कामान्मनसा यथेप्सितान्॥<br />
<br />
इति श्रीमिहाभारते वनपर्वणि अरण्यपर्वणि काम्यकवनप्रवेशे तृतीयोऽध्यायः॥ 3 ॥</div>
ShraddhaV
https://dharmawiki.org/index.php?title=Vanaparva_Adhyaya_3_(%E0%A4%B5%E0%A4%A8%E0%A4%AA%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A4%A3%E0%A4%BF_%E0%A4%85%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%83_%E0%A5%A9)&diff=119798
Vanaparva Adhyaya 3 (वनपर्वणि अध्यायः ३)
2019-07-10T11:25:11Z
<p>ShraddhaV: tagging 10-80</p>
<hr />
<div>वैशम्पायन उवाच<br />
<br />
शौनकेनैवमुक्तस्तु कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः।<br />
<br />
पुरोहितमुपागम्य भ्रातृमध्येऽब्रवीदिदम्॥ 3-3-1<br />
<br />
प्रस्थितं मानुयान्तीमे ब्राह्मणा वेदपारगाः।<br />
<br />
न चास्मि पोषणे शक्तो बहुदुःखसमन्वितः॥ 3-3-2<br />
<br />
परित्यक्तुं न शक्तोऽस्मि दानशक्तिश्च नास्ति मे।<br />
<br />
कथमत्र मया कार्यं तद्ब्रूहि भगवन्मम॥ 3-3-3<br />
<br />
वैशम्पायन उवाच<br />
<br />
मुहूर्तमिव स ध्यात्वा धर्मेणान्विष्य तां गतिम्।<br />
<br />
युधिष्ठिरमुवाचेदं धौम्यो धर्मभृतां वरः॥ 3-3-4<br />
<br />
धौम्य उवाच<br />
<br />
पुरा सृष्टानि भूतानि पीड्यन्ते क्षुधया भृशम्।<br />
<br />
ततोऽनुकम्पया तेषां सविता स्वपिता यथा॥ 3-3-5<br />
<br />
गत्वोत्तरायणं तेजो रसानुद्धृत्य रश्मिभिः।<br />
<br />
दक्षिणायनमावृत्तो महीं निविशते रविः॥ 3-3-6<br />
<br />
क्षेत्रभूते ततस्तस्मिन्नोषधीरोषधीपतिः।<br />
दिवस्तेजः समुद्धृत्य जनयामास वारिणा॥ 3-3-7<br />
निषिक्तश्चन्द्रतेजोभिः स्वयोनौ निर्गते रविः।<br />
ओषध्यः षड्रसा मेध्यास्तदन्नं प्राणिनां भुवि॥ 3-3-8<br />
[[:Category:Moon God|''Moon God'']] [[:Category:चंद्रमा|''चंद्रमा'']] [[:Category:चंद्र देव|''चंद्र देव'']]<br />
<br />
एवं भानुमयं ह्यन्नं भूतानां प्राणधारणम्।<br />
<br />
पितैष सर्वभूतानां तस्मात्तं शरणं व्रज॥ 3-3-9<br />
<br />
राजानो हि महात्मानो योनिकर्मविशोधिताः।<br />
उद्धरन्ति प्रजाः सर्वास्तप आस्थाय पुष्कलम्॥ 3-3-10<br />
भीमेन कार्तवीर्येण वैन्येन नहुषेण च।<br />
तपोयोगसमाधिस्थैरुद्धता ह्यापदः प्रजाः॥ 3-3-11<br />
तथा त्वमपि धर्मात्मन्कर्मणा च विशोधितः।<br />
तप आस्थाय धर्मेण द्विजातीन्भर भारत॥ 3-3-12<br />
[[:Category:Penance|''Penance'']] [[:Category:tapasya|''tapasya'']]<br />
<br />
जनमेजय उवाच<br />
कथं कुरूणामृषभः स तु राजा युधिष्ठिरः।<br />
विप्रार्थमाराधितवान्सूर्यमद्भुतदर्शनम्॥ 3-3-13<br />
वैशम्पायन उवाच<br />
शृणुष्वावहितो राजञ्शुचिर्भूत्वा समाहितः।<br />
क्षणं च कुरु राजेन्द्र सम्प्रवक्ष्याम्यशेषतः॥ 3-3-14<br />
धौम्येन तु यथा पूर्वं पार्थाय सुमहात्मने।<br />
नामाष्टशतमाख्यातं तच्छृणुष्व महामते॥ 3-3-15<br />
[[:Category:Sun God|''Sun God'']] [[:Category:सूर्य देव|''सूर्य देव'']]<br />
<br />
धौम्य उवाच<br />
सूर्योऽर्यमा भगस्त्वष्टा पूषार्कः सविता रविः।<br />
गभस्तिमानजः कालो मृत्युर्धाता प्रभाकरः॥ 3-3-16<br />
पृथिव्यापश्च तेजश्च खं वायुश्च परायणम्।<br />
सोमो बृहस्पतिः शुक्रो बुधोऽङ्गारक एव च॥ 3-3-17<br />
इन्द्रो विवस्वान्दीप्तांशुः शुचिः शौरिः शनैश्चरः।<br />
ब्रह्मा विष्णुश्च रुद्रश्च स्कन्दो वै वरुणो यमः॥ 3-3-18<br />
वैद्युतो जाठरश्चाग्निरैन्धनस्तेजसां पतिः।<br />
धर्मध्वजो वेदकर्ता वेदाङ्गो वेदवाहनः॥ 3-3-19<br />
कृतं त्रेता द्वापरश्च कलिः सर्वमलाश्रयः।<br />
कला काष्ठा मुहूर्ताश्च क्षपा यामस्तथा क्षणः॥ 3-3-20<br />
संवत्सरकरोऽश्वत्थः कालचक्रो विभावसुः।<br />
पुरुषः शाश्वतो योगी व्यक्ताव्यक्तः सनातनः॥ 3-3-21<br />
कालाध्यक्षः प्रजाध्यक्षो विश्वकर्मा तमोनुदः।<br />
वरुणः सागरोंऽशुश्च जीमूतो जीवनोऽरिहा॥ 3-3-22<br />
भूताश्रयो भूतपतिः सर्वलोकनमस्कृतः।<br />
स्रष्टा संवर्तको वह्निः सर्वस्यादिरलोलुपः॥ 3-3-23<br />
अनन्तः कपिलो भानुः कामदः सर्वतोमुखः।<br />
जयो विशालो वरदः सर्वधातुनिषेचिता॥ 3-3-24<br />
मनःसुपर्णो भूतादिः शीघ्रगः प्राणधारकः।<br />
धन्वन्तरिर्धूमकेतुरादिदेवोऽदितेः सुतः॥ 3-3-25<br />
द्वादशात्मारविन्दाक्षः पिता माता पितामहः।<br />
स्वर्गद्वारं प्रजाद्वारं मोक्षद्वारं त्रिविष्टपम्॥ 3-3-26<br />
देहकर्ता प्रशान्तात्मा विश्वात्मा विश्वतोमुखः।<br />
चराचरात्मा सूक्ष्मात्मा मैत्रेयः करुणान्वितः॥ 3-3-27<br />
एतद्वै कीर्तनीयस्य सूर्यस्यामिततेजसः।<br />
नामाष्टशतकं चेदं प्रोक्तमेतत्स्वयंभुवा॥ 3-3-28<br />
[[:Category:108 names of Sun God|''108 names of Sun God'']] [[:Category:सूर्य देव|''सूर्य देव'']] [[:Category:१०८|''१०८'']]<br />
<br />
सुरगणपितृयक्षसेवितं ह्यसुरनिशाचरसिद्धवन्दितम्।<br />
वरकनकहुताशनप्रभं प्रणिपतितोऽस्मि हिताय भास्करम्॥ 3-3-29<br />
सूर्योदये यः सुसमाहितः पठेत्स पुत्रदारान्धनरत्नसञ्चयान्।<br />
लभेत जातिस्मरतां नरः सदा धृतिं च मेधां च स विन्दते पुमान्॥ 3-3-30<br />
इमं स्तवं देववरस्य यो नरः प्रकीर्तयेच्छुचिसुमनाः समाहितः।<br />
विमुच्यते शोकदवाग्निसागराल्लभेत कामान्मनसा यथेप्सितान्॥ 3-3-31<br />
[[:Category:Worship of Sun God|''Worship of Sun God'']] [[:Category:सूर्य देव आराधना|''सूर्य देव आराधना'']]<br />
<br />
वैशम्पायन उवाच<br />
एवमुक्तस्तु धौम्येन तत्कालसदृशं वचः।<br />
विप्रत्यागसमाधिस्थः संयतात्मा दृढव्रतः॥ 3-3-32<br />
धर्मराजो विशुद्धात्मा तप आतिष्ठदुत्तमम्।<br />
पुष्पोपहारैर्बलिभिरर्चयित्वा दिवाकरम्॥ 3-3-33<br />
सोऽवगाह्य जलं राजा देवस्याभिमुखोऽभवत्।<br />
योगमास्थाय धर्मात्मा वायुभक्षो जितेन्द्रियः॥ 3-3-34<br />
गाङ्गेयं वार्युपस्पृश्य प्राणायामेन तस्थिवान्।<br />
शुचिः प्रयतवाग्भूत्वा स्तोत्रमारब्धवांस्ततः॥ 3-3-35<br />
[[:Category:Worship|''Worship'']] [[:Category:पुजा|''पुजा'']]<br />
<br />
युधिष्ठिर उवाच<br />
त्वं भानो जगतश्चक्षुस्त्वमात्मा सर्वदेहिनाम्।<br />
त्वं योनिः सर्वभूतानां त्वमाचारः क्रियावताम्॥ 3-3-36<br />
त्वं गतिः सर्वसांख्यानां योगिनां त्वं परायणम्।<br />
अनावृतार्गलद्वारं त्वं गतिस्त्वं मुमुक्षताम्॥ 3-3-37<br />
त्वया संधार्यते लोकस्त्वया लोकः प्रकाश्यते।<br />
त्वया पवित्रीक्रियते निर्व्याजं पाल्यते त्वया॥ 3-3-38<br />
त्वामुपस्थाय काले तु ब्राह्मणा वेदपारगाः।<br />
स्वशाखाविहितैर्मन्त्रैरर्चन्त्यृषिगणार्चितम्॥ 3-3-39<br />
तव दिव्यं रथं यान्तमनुयान्ति वरार्थिनः।<br />
सिद्धचारणगन्धर्वा यक्षगुह्यकपन्नगाः॥ 3-3-40<br />
त्रयस्त्रिंशच्च वै देवास्तथा वैमानिका गणाः।<br />
सोपेन्द्राः समहेन्द्राश्च त्वामिष्ट्वा सिद्धिमागताः॥ 3-3-41<br />
उपयान्त्यर्चयित्वा तु त्वां वै प्राप्तमनोरथाः।<br />
दिव्यमन्दारमालाभिस्तूर्णं विद्याधरोत्तमाः॥ 3-3-42<br />
गुह्याः पितृगणाः सप्त ये दिव्या ये च मानुषाः।<br />
ते पूजयित्वा त्वामेव गच्छन्त्याशु प्रधानताम्॥ 3-3-43<br />
वसवो मरुतो रुद्रा ये च साध्या मरीचिपाः।<br />
वालखिल्यादयः सिद्धाः श्रेष्ठत्वं प्राणिनां गताः॥ 3-3-44<br />
सब्रह्मकेषु लोकेषु सप्तस्वप्यखिलेषु च।<br />
न तद्भूतमहं मन्ये यदर्कादतिरिच्यते॥ 3-3-45<br />
सन्ति चान्यानि सत्त्वानि वीर्यवन्ति महान्ति च।<br />
न तु तेषां तथा दीप्तिः प्रभावो वा यथा तव॥ 3-3-46<br />
ज्योतींषि त्वयि सर्वाणि त्वं सर्वज्योतिषां पतिः।<br />
त्वयि सत्यं च सत्त्वं च सर्वे भावाश्च सात्त्विकाः॥ 3-3-47<br />
त्वत्तेजसा कृतं चक्रं सुनाभं विश्वकर्मणा।<br />
देवारीणां मदो येन नाशितः शार्ङ्गधन्वना॥ 3-3-48<br />
त्वमादायांशुभिस्तेजो निदाघे सर्वदेहिनाम्।<br />
सर्वौषधिरसानां च पुनर्वर्षासु मुञ्चसि॥ 3-3-49<br />
तपन्त्यन्ये दहन्त्यन्ये गर्जन्त्यन्ये तथा घनाः।<br />
विद्योतन्ते प्रवर्षन्ति तव प्रावृषि रश्मयः॥ 3-3-50<br />
न तथा सुखयत्यग्निर्न प्रावारा न कम्बलाः।<br />
शीतवातार्दितं लोकं यथा तव मरीचयः॥ 3-3-51<br />
त्रयोदशद्वीपवतीं गोभिर्भासयसे महीम्।<br />
त्रयाणामपि लोकानां हितायैकः प्रवर्तसे॥ 3-3-52<br />
तव यद्युदयो न स्यादन्धं जगदिदं भवेत्।<br />
न च धर्मार्थकामेषु प्रवर्तेरन्मनीषिणः॥ 3-3-53<br />
आधानपशुबन्धेष्टिमन्त्रयज्ञतपःक्रियाः।<br />
त्वत्प्रसादादवाप्यन्ते ब्रह्मक्षत्रविशां गणैः॥ 3-3-54<br />
यदहर्ब्रह्मणः प्रोक्तं सहस्रयुगसम्मितम्।<br />
तस्य त्वमादिरन्तश्च कालज्ञैः परिकीर्तितः॥ 3-3-55<br />
मनूनां मनुपुत्राणां जगतोऽमानवस्य च।<br />
मन्वन्तराणां सर्वेषामीश्वराणां त्वमीश्वरः॥ 3-3-56<br />
संहारकाले सम्प्राप्ते तव क्रोधविनिःसृतः।<br />
संवर्तकाग्निस्त्रैलोक्यं भस्मीकृत्यावतिष्ठते॥ 3-3-57<br />
त्वद्दीधितिसमुत्पन्ना नानावर्णा महाघनाः।<br />
सैरावताः साशनयः कुर्वन्त्याभूतसम्प्लवम्॥ 3-3-58<br />
कृत्वा द्वादशधाऽऽत्मानं द्वादशादित्यतां गतः।<br />
संहृत्यैकार्णवं सर्वं त्वं शोषयसि रश्मिभिः॥ 3-3-59<br />
त्वामिन्द्रमाहुस्त्वं रुद्रस्त्वं विष्णुस्त्वं प्रजापतिः।<br />
त्वमग्निस्त्वं मनः सूक्ष्मं प्रभुस्त्वं ब्रह्म शाश्वतम्॥ 3-3-60<br />
त्वं हंसः सविता भानुरंशुमाली वृषाकपिः।<br />
विवस्वान्मिहिरः पूषा मित्रो धर्मस्तथैव च॥ 3-3-61<br />
सहस्ररश्मिरादित्यस्तपनस्त्वं गवाम्पतिः।<br />
मार्तण्डोऽर्को रविः सूर्यः शरण्यो दिनकृत्तथा॥ 3-3-62<br />
दिवाकरः सप्तसप्तिर्धामकेशी विरोचनः।<br />
आशुगामी तमोघ्नश्च हरिताश्वश्च कीर्त्यसे॥ 3-3-63<br />
सप्तम्यामथवा षष्ठ्यां भक्त्या पूजां करोति यः।<br />
अनिर्विण्णोऽनहङ्कारी तं लक्ष्मीर्भजते नरम्॥ 3-3-64<br />
न तेषामापदः सन्ति नाधयो व्याधयस्तथा।<br />
ये तवानन्यमनसः कुर्वन्त्यर्चनवन्दनम्॥ 3-3-65<br />
सर्वरोगैर्विरहिताः सर्वपापविवर्जिताः।<br />
त्वद्भावभक्ताः सुखिनो भवन्ति चिरजीविनः॥ 3-3-66<br />
त्वं ममाप्यन्नकामस्य सर्वातिथ्यं चिकीर्षतः।<br />
अन्नमन्नपते दातुमभितः श्रद्धयार्हसि॥ 3-3-67<br />
ये च तेऽनुचराः सर्वे पादोपान्तं समाश्रिताः।<br />
माठरारुणदण्डाद्यास्तांस्तान्वन्देऽशनिक्षुभान्॥ 3-3-68<br />
क्षुभया सहिता मैत्री याश्चान्या भूतमातरः।<br />
ताश्च सर्वा नमस्यामि पान्तु मां शरणागतम्॥ 3-3-69<br />
वैशम्पायन उवाच<br />
एवं स्तुतो महाराज भास्करो लोकभावनः।<br />
ततो दिवाकरः प्रीतो दर्शयामास पाण्डवम्।<br />
दीप्यमानः स्ववपुषा ज्वलन्निव हुताशनः॥ 3-3-70<br />
[[:Category:Sun God|''Sun God'']] [[:Category:सूर्य देव|''सूर्य देव'']]<br />
<br />
विवस्वानुवाच<br />
यत्तेऽभिलषितं किञ्चित्तत्त्वं सर्वमवाप्स्यसि।<br />
अहमन्नं प्रदास्यामि सप्त पञ्च च ते समाः॥ 3-3-71<br />
फलमूलामिषं शाकं संस्कृतं यन्महानसे।<br />
गृह्णीष्व पिठरं ताम्रं मया दत्त नराधिप।<br />
यावद्वर्त्स्यति पाञ्चाली पात्रेणानेन सुव्रत॥ 3-3-72<br />
फलमूलामिषं शाकं संस्कृतं यन्महानसे।<br />
चतुर्विधं तदन्नाद्यमक्षय्यं ते भविष्यति।<br />
धनं च विविधं तुभ्यमित्युक्त्वान्तरधीयत॥<br />
इतश्चतुर्दशे वर्षे भूयो राज्यमवाप्स्यसि॥ 3-3-73<br />
[[:Category:Pandavas get Akshaypatra|''Pandavas get Akshaypatra'']] [[:Category:अक्षयपात्र|''अक्षयपात्र'']]<br />
<br />
वैशम्पायन उवाच<br />
एवमुक्त्वा तु भगवांस्तत्रैवान्तरधीयत॥ 3-3-74<br />
इमं स्तवं प्रयतमनाः समाधिना पठेदिहान्योऽपि वरं समर्थयन्।<br />
तत्तस्य दद्याच्च रविर्मनीषितं तदाप्नुयाद्यद्यपि तत्सुदुर्लभम्॥ 3-3-74<br />
यश्चेदं धारयेन्नित्यं शृणुयाद्वाप्यभीक्ष्णशः।<br />
पुत्रार्थी लभते पुत्रं धनार्थी लभते धनम्॥ 3-3-75<br />
विद्यार्थी लभते विद्यां पुरुषोऽप्यथवा स्त्रियः।<br />
उभे सन्ध्ये पठेन्नित्यं नारी वा पुरुषो यदि॥ 3-3-76<br />
आपदं प्राप्य मुच्येत बद्धो मुच्येत बन्धनात्।<br />
एतद्ब्रह्मा ददौ पूर्वं शक्राय सुमहात्मने॥ 3-3-77<br />
शक्राच्च नारदः प्राप्तो धौम्यस्तु तदनन्तरम्।<br />
धौम्याद्युधिष्ठिरः प्राप्य सर्वान्कामानवाप्तवान्॥ 3-3-78<br />
सङ्ग्रामे च जयेन्नित्यं विपुलं चाप्नुयाद्वसु।<br />
मुच्यते सर्वपापेभ्यः सूर्यलोकं स गच्छति॥ 3-3-79<br />
[[:Category:Benefits of worshiping Sun God|''Benefits of worshiping Sun God'']]<br />
<br />
वैशम्पायन उवाच<br />
लब्ध्वा वरं तु कौन्तेयो जलादुत्तीर्य धर्मवित्।<br />
जग्राह पादौ धौम्यस्य भ्रातॄंश्च परिषस्वजे॥ 3-3-80<br />
द्रौपद्या सह सङ्गम्य वन्द्यमानस्तया प्रभुः।<br />
महानसे तदानीं तु साधयामास पाण्डवः॥ 3-3-81<br />
संस्कृतं प्रसवं याति स्वल्पमन्नं चतुर्विधम्।<br />
अक्षय्यं वर्धते चान्नं तेन भोजयते द्विजान्॥ 3-3-82<br />
भुक्तवत्सु च विप्रेषु भोजयित्वानुजानपि।<br />
शेषं विघससंज्ञं तु पश्चाद्भुङ्क्ते युधिष्ठिरः॥ 3-3-83<br />
युधिष्ठिरं भोजयित्वा शेषमश्नाति पार्षती।<br />
द्रौपद्यां भुज्यमानायां तदन्नं क्षयमेति च।<br />
एवं दिवाकरात्प्राप्य दिवाकरसमप्रभः॥ 3-3-84<br />
कामान्मनोऽभिलषितान्ब्राह्मणेभ्योऽददात्प्रभुः।<br />
पुरोहितपुरोगाश्च तिथिनक्षत्रपर्वसु।<br />
यज्ञियार्थाः प्रवर्तन्ते विधिमन्त्रप्रमाणतः॥ 3-3-85<br />
[[:Category:Serving Brahmanas|''Serving Brahmanas'']] [[:Category:Akshaypatra|''Akshaypatra'']] [[:Category:अक्षयपात्र|''अक्षयपात्र'']]<br />
<br />
ततः कृतस्वस्त्ययना धौम्येन सह पाण्डवाः।<br />
द्विजसङ्घैः परिवृताः प्रययुः काम्यकं वनम्॥ 3-3-86<br />
[[:Category:Kamyavan|''Kamyavan'']] [[:Category:काम्यवन|''काम्यवन'']]<br />
<br />
जनमेजयः पुष्पोपहारबलिभिर्बहुशश्च यथाविधि।<br />
<br />
सर्वात्मभूतं सम्पूज्य यतप्राणो जितेन्द्रियः॥<br />
<br />
स्तवेन केन विप्रर्षे स तु राजा युधिष्ठिरः।<br />
<br />
विप्रार्थमाराधितवान्सूर्यमद्भुतविक्रमम्॥<br />
<br />
मयि स्नेहोऽस्ति चेद्ब्रह्मन्यदनुग्रहभागहम्।<br />
<br />
भगवान्नास्ति चेद्गुह्यं तच्च मे ब्रूहि साम्प्रतम्॥<br />
<br />
वैशम्पायनः शृणुष्वावहितो राजन्शुचिर्भूत्वा समाहितः।<br />
<br />
क्षणं च कुरु राजेन्द्र गुह्यं वक्ष्यामि ते हितम्॥<br />
<br />
धौम्येन तु यथाप्रोक्तं पार्थाय सुमहात्मने।<br />
<br />
नाम्नामष्टशतं पुण्यं तच्छृणुष्व महामते॥<br />
<br />
सूर्योऽर्यमा भगस्त्वष्टा पूषाऽर्कस्सविता रविः।<br />
<br />
गभस्तिमानजः कालो मृत्युर्धाता प्रभाकरः॥<br />
<br />
पृथिव्यापश्च तेजश्च खं वायुश्च परायणम्।<br />
<br />
सोमो बृहस्पतिश्शुक्रो बुधोऽङ्गारक एव च॥<br />
<br />
इन्द्रो विवस्वान्दीप्तांशुश्शुचिश्शौरिश्शनैश्चरः।<br />
<br />
ब्रह्मा विष्णुश्च रुद्रश्च स्कन्दो वैश्रवणो यमः॥<br />
<br />
वैद्युतो जाठरश्चाग्निः ऐन्धनस्तेजसां पतिः।<br />
<br />
धर्मध्वजो वेदकर्ता वेदाङ्गो वेदवाहनः॥<br />
<br />
कृतं त्रेता द्वापरश्च कलिस्सर्वामराश्रयः।<br />
<br />
कला काष्ठा मुहूर्ताश्च पक्षा मासा ऋतुस्तथा॥<br />
<br />
संवत्सरकरोऽश्वत्थः कालचक्रो विभावसुः।<br />
<br />
पुरुषश्शाश्वतो योगी व्यक्ताव्यक्तस्सनातनः॥<br />
<br />
लोकाध्यक्षस्सुराध्यक्षो विश्वकर्मा तमोनुदः।<br />
<br />
वरुणस्सागरोंशुश्च जीमूतो जीवनोऽरिहा॥<br />
<br />
भूताश्रयो भूतपतिस्सर्वभूतनिषेवितः।<br />
<br />
मणिस्सुवर्णो भूतादिः कामदस्सर्वतोमुखः॥<br />
<br />
जयो विशालो वरदश्शीघ्रगः प्राणधारणः।<br />
<br />
धन्वन्तरिर्धूमकेतुः आदिदेवोऽदितेस्सुतः॥<br />
<br />
द्वादशात्माऽरविन्दाक्षः पिता माता पितामहः।<br />
<br />
स्वर्गद्वारं प्रजाद्वारं मोक्षद्वारं त्रिविष्टपम्॥<br />
<br />
देवकर्ता प्रशान्तात्मा विश्वात्मा विश्वतोमुखः।<br />
<br />
चराचरात्मा सूक्ष्मात्मा मैत्रेण वपुषाऽन्वितः॥<br />
<br />
एतद्वै कीर्तनीयस्य सूर्यस्यैव महात्मनः।<br />
<br />
नाम्नामष्टशतं पुण्यं शक्रेणोक्तं महात्मना॥<br />
<br />
शक्राच्च नारदः प्राप्तो धौम्यश्च तदनन्तरम्।<br />
<br />
धौम्याद्युधिष्ठिरः प्राप्य सर्वान्कामानवाप्तवान्॥<br />
<br />
सुरपितृगणयक्षसेवितं निशिचरसिद्धगणैश्च वन्दितम्।<br />
<br />
वरकनकहुताशनप्रभं त्वमपि मनस्यभिधेहि भास्करम्॥<br />
<br />
सूर्योदये यस्सुसमाहितः पठेत्स पुत्रलाभं धनरत्नसञ्चयान्।<br />
<br />
लभेत जातिस्मरतां सदा नरे धृतिं च मेधां च स विन्दते वराम्॥<br />
<br />
इमं स्तवं देववरस्य कीर्तयेच्छृणोति वा यस्सुमनास्समाहितः।<br />
<br />
स मुच्यते शोकदवाग्निसागराल्लभेत कामान्मनसा यथेप्सितान्॥<br />
<br />
इति श्रीमिहाभारते वनपर्वणि अरण्यपर्वणि काम्यकवनप्रवेशे तृतीयोऽध्यायः॥ 3 ॥</div>
ShraddhaV
https://dharmawiki.org/index.php?title=Vanaparva_Adhyaya_3_(%E0%A4%B5%E0%A4%A8%E0%A4%AA%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A4%A3%E0%A4%BF_%E0%A4%85%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%83_%E0%A5%A9)&diff=119796
Vanaparva Adhyaya 3 (वनपर्वणि अध्यायः ३)
2019-07-10T10:57:44Z
<p>ShraddhaV: tagging+80</p>
<hr />
<div>वैशम्पायन उवाच<br />
<br />
शौनकेनैवमुक्तस्तु कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः।<br />
<br />
पुरोहितमुपागम्य भ्रातृमध्येऽब्रवीदिदम्॥ 3-3-1<br />
<br />
प्रस्थितं मानुयान्तीमे ब्राह्मणा वेदपारगाः।<br />
<br />
न चास्मि पोषणे शक्तो बहुदुःखसमन्वितः॥ 3-3-2<br />
<br />
परित्यक्तुं न शक्तोऽस्मि दानशक्तिश्च नास्ति मे।<br />
<br />
कथमत्र मया कार्यं तद्ब्रूहि भगवन्मम॥ 3-3-3<br />
<br />
वैशम्पायन उवाच<br />
<br />
मुहूर्तमिव स ध्यात्वा धर्मेणान्विष्य तां गतिम्।<br />
<br />
युधिष्ठिरमुवाचेदं धौम्यो धर्मभृतां वरः॥ 3-3-4<br />
<br />
धौम्य उवाच<br />
<br />
पुरा सृष्टानि भूतानि पीड्यन्ते क्षुधया भृशम्।<br />
<br />
ततोऽनुकम्पया तेषां सविता स्वपिता यथा॥ 3-3-5<br />
<br />
गत्वोत्तरायणं तेजो रसानुद्धृत्य रश्मिभिः।<br />
<br />
दक्षिणायनमावृत्तो महीं निविशते रविः॥ 3-3-6<br />
<br />
क्षेत्रभूते ततस्तस्मिन्नोषधीरोषधीपतिः।<br />
<br />
दिवस्तेजः समुद्धृत्य जनयामास वारिणा॥ 3-3-7<br />
<br />
निषिक्तश्चन्द्रतेजोभिः स्वयोनौ निर्गते रविः।<br />
<br />
ओषध्यः षड्रसा मेध्यास्तदन्नं प्राणिनां भुवि॥ 3-3-8<br />
<br />
एवं भानुमयं ह्यन्नं भूतानां प्राणधारणम्।<br />
<br />
पितैष सर्वभूतानां तस्मात्तं शरणं व्रज॥ 3-3-9<br />
<br />
राजानो हि महात्मानो योनिकर्मविशोधिताः।<br />
<br />
उद्धरन्ति प्रजाः सर्वास्तप आस्थाय पुष्कलम्॥ 3-3-10<br />
<br />
भीमेन कार्तवीर्येण वैन्येन नहुषेण च।<br />
<br />
तपोयोगसमाधिस्थैरुद्धता ह्यापदः प्रजाः॥ 3-3-11<br />
<br />
तथा त्वमपि धर्मात्मन्कर्मणा च विशोधितः।<br />
<br />
तप आस्थाय धर्मेण द्विजातीन्भर भारत॥ 3-3-12<br />
<br />
जनमेजय उवाच<br />
<br />
कथं कुरूणामृषभः स तु राजा युधिष्ठिरः।<br />
<br />
विप्रार्थमाराधितवान्सूर्यमद्भुतदर्शनम्॥ 3-3-13<br />
<br />
वैशम्पायन उवाच<br />
<br />
शृणुष्वावहितो राजञ्शुचिर्भूत्वा समाहितः।<br />
<br />
क्षणं च कुरु राजेन्द्र सम्प्रवक्ष्याम्यशेषतः॥ 3-3-14<br />
<br />
धौम्येन तु यथा पूर्वं पार्थाय सुमहात्मने।<br />
<br />
नामाष्टशतमाख्यातं तच्छृणुष्व महामते॥ 3-3-15<br />
<br />
धौम्य उवाच<br />
<br />
सूर्योऽर्यमा भगस्त्वष्टा पूषार्कः सविता रविः।<br />
<br />
गभस्तिमानजः कालो मृत्युर्धाता प्रभाकरः॥ 3-3-16<br />
<br />
पृथिव्यापश्च तेजश्च खं वायुश्च परायणम्।<br />
<br />
सोमो बृहस्पतिः शुक्रो बुधोऽङ्गारक एव च॥ 3-3-17<br />
<br />
इन्द्रो विवस्वान्दीप्तांशुः शुचिः शौरिः शनैश्चरः।<br />
<br />
ब्रह्मा विष्णुश्च रुद्रश्च स्कन्दो वै वरुणो यमः॥ 3-3-18<br />
<br />
वैद्युतो जाठरश्चाग्निरैन्धनस्तेजसां पतिः।<br />
<br />
धर्मध्वजो वेदकर्ता वेदाङ्गो वेदवाहनः॥ 3-3-19<br />
<br />
कृतं त्रेता द्वापरश्च कलिः सर्वमलाश्रयः।<br />
<br />
कला काष्ठा मुहूर्ताश्च क्षपा यामस्तथा क्षणः॥ 3-3-20<br />
<br />
संवत्सरकरोऽश्वत्थः कालचक्रो विभावसुः।<br />
<br />
पुरुषः शाश्वतो योगी व्यक्ताव्यक्तः सनातनः॥ 3-3-21<br />
<br />
कालाध्यक्षः प्रजाध्यक्षो विश्वकर्मा तमोनुदः।<br />
<br />
वरुणः सागरोंऽशुश्च जीमूतो जीवनोऽरिहा॥ 3-3-22<br />
<br />
भूताश्रयो भूतपतिः सर्वलोकनमस्कृतः।<br />
<br />
स्रष्टा संवर्तको वह्निः सर्वस्यादिरलोलुपः॥ 3-3-23<br />
<br />
अनन्तः कपिलो भानुः कामदः सर्वतोमुखः।<br />
<br />
जयो विशालो वरदः सर्वधातुनिषेचिता॥ 3-3-24<br />
<br />
मनःसुपर्णो भूतादिः शीघ्रगः प्राणधारकः।<br />
<br />
धन्वन्तरिर्धूमकेतुरादिदेवोऽदितेः सुतः॥ 3-3-25<br />
<br />
द्वादशात्मारविन्दाक्षः पिता माता पितामहः।<br />
<br />
स्वर्गद्वारं प्रजाद्वारं मोक्षद्वारं त्रिविष्टपम्॥ 3-3-26<br />
<br />
देहकर्ता प्रशान्तात्मा विश्वात्मा विश्वतोमुखः।<br />
<br />
चराचरात्मा सूक्ष्मात्मा मैत्रेयः करुणान्वितः॥ 3-3-27<br />
<br />
एतद्वै कीर्तनीयस्य सूर्यस्यामिततेजसः।<br />
<br />
नामाष्टशतकं चेदं प्रोक्तमेतत्स्वयंभुवा॥ 3-3-28<br />
<br />
सुरगणपितृयक्षसेवितं ह्यसुरनिशाचरसिद्धवन्दितम्।<br />
<br />
वरकनकहुताशनप्रभं प्रणिपतितोऽस्मि हिताय भास्करम्॥ 3-3-29<br />
<br />
सूर्योदये यः सुसमाहितः पठेत्स पुत्रदारान्धनरत्नसञ्चयान्।<br />
<br />
लभेत जातिस्मरतां नरः सदा धृतिं च मेधां च स विन्दते पुमान्॥ 3-3-30<br />
<br />
इमं स्तवं देववरस्य यो नरः प्रकीर्तयेच्छुचिसुमनाः समाहितः।<br />
<br />
विमुच्यते शोकदवाग्निसागराल्लभेत कामान्मनसा यथेप्सितान्॥ 3-3-31<br />
<br />
वैशम्पायन उवाच<br />
<br />
एवमुक्तस्तु धौम्येन तत्कालसदृशं वचः।<br />
<br />
विप्रत्यागसमाधिस्थः संयतात्मा दृढव्रतः॥ 3-3-32<br />
<br />
धर्मराजो विशुद्धात्मा तप आतिष्ठदुत्तमम्।<br />
<br />
पुष्पोपहारैर्बलिभिरर्चयित्वा दिवाकरम्॥ 3-3-33<br />
<br />
सोऽवगाह्य जलं राजा देवस्याभिमुखोऽभवत्।<br />
<br />
योगमास्थाय धर्मात्मा वायुभक्षो जितेन्द्रियः॥ 3-3-34<br />
<br />
गाङ्गेयं वार्युपस्पृश्य प्राणायामेन तस्थिवान्।<br />
<br />
शुचिः प्रयतवाग्भूत्वा स्तोत्रमारब्धवांस्ततः॥ 3-3-35<br />
<br />
युधिष्ठिर उवाच<br />
<br />
त्वं भानो जगतश्चक्षुस्त्वमात्मा सर्वदेहिनाम्।<br />
<br />
त्वं योनिः सर्वभूतानां त्वमाचारः क्रियावताम्॥ 3-3-36<br />
<br />
त्वं गतिः सर्वसांख्यानां योगिनां त्वं परायणम्।<br />
<br />
अनावृतार्गलद्वारं त्वं गतिस्त्वं मुमुक्षताम्॥ 3-3-37<br />
<br />
त्वया संधार्यते लोकस्त्वया लोकः प्रकाश्यते।<br />
<br />
त्वया पवित्रीक्रियते निर्व्याजं पाल्यते त्वया॥ 3-3-38<br />
<br />
त्वामुपस्थाय काले तु ब्राह्मणा वेदपारगाः।<br />
<br />
स्वशाखाविहितैर्मन्त्रैरर्चन्त्यृषिगणार्चितम्॥ 3-3-39<br />
<br />
तव दिव्यं रथं यान्तमनुयान्ति वरार्थिनः।<br />
<br />
सिद्धचारणगन्धर्वा यक्षगुह्यकपन्नगाः॥ 3-3-40<br />
<br />
त्रयस्त्रिंशच्च वै देवास्तथा वैमानिका गणाः।<br />
<br />
सोपेन्द्राः समहेन्द्राश्च त्वामिष्ट्वा सिद्धिमागताः॥ 3-3-41<br />
<br />
उपयान्त्यर्चयित्वा तु त्वां वै प्राप्तमनोरथाः।<br />
<br />
दिव्यमन्दारमालाभिस्तूर्णं विद्याधरोत्तमाः॥ 3-3-42<br />
<br />
गुह्याः पितृगणाः सप्त ये दिव्या ये च मानुषाः।<br />
<br />
ते पूजयित्वा त्वामेव गच्छन्त्याशु प्रधानताम्॥ 3-3-43<br />
<br />
वसवो मरुतो रुद्रा ये च साध्या मरीचिपाः।<br />
<br />
वालखिल्यादयः सिद्धाः श्रेष्ठत्वं प्राणिनां गताः॥ 3-3-44<br />
<br />
सब्रह्मकेषु लोकेषु सप्तस्वप्यखिलेषु च।<br />
<br />
न तद्भूतमहं मन्ये यदर्कादतिरिच्यते॥ 3-3-45<br />
<br />
सन्ति चान्यानि सत्त्वानि वीर्यवन्ति महान्ति च।<br />
<br />
न तु तेषां तथा दीप्तिः प्रभावो वा यथा तव॥ 3-3-46<br />
<br />
ज्योतींषि त्वयि सर्वाणि त्वं सर्वज्योतिषां पतिः।<br />
<br />
त्वयि सत्यं च सत्त्वं च सर्वे भावाश्च सात्त्विकाः॥ 3-3-47<br />
<br />
त्वत्तेजसा कृतं चक्रं सुनाभं विश्वकर्मणा।<br />
<br />
देवारीणां मदो येन नाशितः शार्ङ्गधन्वना॥ 3-3-48<br />
<br />
त्वमादायांशुभिस्तेजो निदाघे सर्वदेहिनाम्।<br />
<br />
सर्वौषधिरसानां च पुनर्वर्षासु मुञ्चसि॥ 3-3-49<br />
<br />
तपन्त्यन्ये दहन्त्यन्ये गर्जन्त्यन्ये तथा घनाः।<br />
<br />
विद्योतन्ते प्रवर्षन्ति तव प्रावृषि रश्मयः॥ 3-3-50<br />
<br />
न तथा सुखयत्यग्निर्न प्रावारा न कम्बलाः।<br />
<br />
शीतवातार्दितं लोकं यथा तव मरीचयः॥ 3-3-51<br />
<br />
त्रयोदशद्वीपवतीं गोभिर्भासयसे महीम्।<br />
<br />
त्रयाणामपि लोकानां हितायैकः प्रवर्तसे॥ 3-3-52<br />
<br />
तव यद्युदयो न स्यादन्धं जगदिदं भवेत्।<br />
<br />
न च धर्मार्थकामेषु प्रवर्तेरन्मनीषिणः॥ 3-3-53<br />
<br />
आधानपशुबन्धेष्टिमन्त्रयज्ञतपःक्रियाः।<br />
<br />
त्वत्प्रसादादवाप्यन्ते ब्रह्मक्षत्रविशां गणैः॥ 3-3-54<br />
<br />
यदहर्ब्रह्मणः प्रोक्तं सहस्रयुगसम्मितम्।<br />
<br />
तस्य त्वमादिरन्तश्च कालज्ञैः परिकीर्तितः॥ 3-3-55<br />
<br />
मनूनां मनुपुत्राणां जगतोऽमानवस्य च।<br />
<br />
मन्वन्तराणां सर्वेषामीश्वराणां त्वमीश्वरः॥ 3-3-56<br />
<br />
संहारकाले सम्प्राप्ते तव क्रोधविनिःसृतः।<br />
<br />
संवर्तकाग्निस्त्रैलोक्यं भस्मीकृत्यावतिष्ठते॥ 3-3-57<br />
<br />
त्वद्दीधितिसमुत्पन्ना नानावर्णा महाघनाः।<br />
<br />
सैरावताः साशनयः कुर्वन्त्याभूतसम्प्लवम्॥ 3-3-58<br />
<br />
कृत्वा द्वादशधाऽऽत्मानं द्वादशादित्यतां गतः।<br />
<br />
संहृत्यैकार्णवं सर्वं त्वं शोषयसि रश्मिभिः॥ 3-3-59<br />
<br />
त्वामिन्द्रमाहुस्त्वं रुद्रस्त्वं विष्णुस्त्वं प्रजापतिः।<br />
<br />
त्वमग्निस्त्वं मनः सूक्ष्मं प्रभुस्त्वं ब्रह्म शाश्वतम्॥ 3-3-60<br />
<br />
त्वं हंसः सविता भानुरंशुमाली वृषाकपिः।<br />
<br />
विवस्वान्मिहिरः पूषा मित्रो धर्मस्तथैव च॥ 3-3-61<br />
<br />
सहस्ररश्मिरादित्यस्तपनस्त्वं गवाम्पतिः।<br />
<br />
मार्तण्डोऽर्को रविः सूर्यः शरण्यो दिनकृत्तथा॥ 3-3-62<br />
<br />
दिवाकरः सप्तसप्तिर्धामकेशी विरोचनः।<br />
<br />
आशुगामी तमोघ्नश्च हरिताश्वश्च कीर्त्यसे॥ 3-3-63<br />
<br />
सप्तम्यामथवा षष्ठ्यां भक्त्या पूजां करोति यः।<br />
<br />
अनिर्विण्णोऽनहङ्कारी तं लक्ष्मीर्भजते नरम्॥ 3-3-64<br />
<br />
न तेषामापदः सन्ति नाधयो व्याधयस्तथा।<br />
<br />
ये तवानन्यमनसः कुर्वन्त्यर्चनवन्दनम्॥ 3-3-65<br />
<br />
सर्वरोगैर्विरहिताः सर्वपापविवर्जिताः।<br />
<br />
त्वद्भावभक्ताः सुखिनो भवन्ति चिरजीविनः॥ 3-3-66<br />
<br />
त्वं ममाप्यन्नकामस्य सर्वातिथ्यं चिकीर्षतः।<br />
<br />
अन्नमन्नपते दातुमभितः श्रद्धयार्हसि॥ 3-3-67<br />
<br />
ये च तेऽनुचराः सर्वे पादोपान्तं समाश्रिताः।<br />
<br />
माठरारुणदण्डाद्यास्तांस्तान्वन्देऽशनिक्षुभान्॥ 3-3-68<br />
<br />
क्षुभया सहिता मैत्री याश्चान्या भूतमातरः।<br />
<br />
ताश्च सर्वा नमस्यामि पान्तु मां शरणागतम्॥ 3-3-69<br />
<br />
वैशम्पायन उवाच<br />
<br />
एवं स्तुतो महाराज भास्करो लोकभावनः।<br />
<br />
ततो दिवाकरः प्रीतो दर्शयामास पाण्डवम्।<br />
<br />
दीप्यमानः स्ववपुषा ज्वलन्निव हुताशनः॥ 3-3-70<br />
<br />
विवस्वानुवाच<br />
<br />
यत्तेऽभिलषितं किञ्चित्तत्त्वं सर्वमवाप्स्यसि।<br />
<br />
अहमन्नं प्रदास्यामि सप्त पञ्च च ते समाः॥ 3-3-71<br />
<br />
फलमूलामिषं शाकं संस्कृतं यन्महानसे।<br />
<br />
गृह्णीष्व पिठरं ताम्रं मया दत्त नराधिप।<br />
<br />
यावद्वर्त्स्यति पाञ्चाली पात्रेणानेन सुव्रत॥ 3-3-72<br />
<br />
फलमूलामिषं शाकं संस्कृतं यन्महानसे।<br />
<br />
चतुर्विधं तदन्नाद्यमक्षय्यं ते भविष्यति।<br />
<br />
धनं च विविधं तुभ्यमित्युक्त्वान्तरधीयत॥<br />
<br />
इतश्चतुर्दशे वर्षे भूयो राज्यमवाप्स्यसि॥ 3-3-73<br />
<br />
वैशम्पायन उवाच<br />
<br />
एवमुक्त्वा तु भगवांस्तत्रैवान्तरधीयत॥ 3-3-74<br />
<br />
इमं स्तवं प्रयतमनाः समाधिना पठेदिहान्योऽपि वरं समर्थयन्।<br />
<br />
तत्तस्य दद्याच्च रविर्मनीषितं तदाप्नुयाद्यद्यपि तत्सुदुर्लभम्॥ 3-3-74<br />
<br />
यश्चेदं धारयेन्नित्यं शृणुयाद्वाप्यभीक्ष्णशः।<br />
<br />
पुत्रार्थी लभते पुत्रं धनार्थी लभते धनम्॥ 3-3-75<br />
<br />
विद्यार्थी लभते विद्यां पुरुषोऽप्यथवा स्त्रियः।<br />
<br />
उभे सन्ध्ये पठेन्नित्यं नारी वा पुरुषो यदि॥ 3-3-76<br />
<br />
आपदं प्राप्य मुच्येत बद्धो मुच्येत बन्धनात्।<br />
<br />
एतद्ब्रह्मा ददौ पूर्वं शक्राय सुमहात्मने॥ 3-3-77<br />
<br />
शक्राच्च नारदः प्राप्तो धौम्यस्तु तदनन्तरम्।<br />
<br />
धौम्याद्युधिष्ठिरः प्राप्य सर्वान्कामानवाप्तवान्॥ 3-3-78<br />
<br />
सङ्ग्रामे च जयेन्नित्यं विपुलं चाप्नुयाद्वसु।<br />
<br />
मुच्यते सर्वपापेभ्यः सूर्यलोकं स गच्छति॥ 3-3-79<br />
<br />
वैशम्पायन उवाच<br />
<br />
लब्ध्वा वरं तु कौन्तेयो जलादुत्तीर्य धर्मवित्।<br />
जग्राह पादौ धौम्यस्य भ्रातॄंश्च परिषस्वजे॥ 3-3-80<br />
द्रौपद्या सह सङ्गम्य वन्द्यमानस्तया प्रभुः।<br />
महानसे तदानीं तु साधयामास पाण्डवः॥ 3-3-81<br />
संस्कृतं प्रसवं याति स्वल्पमन्नं चतुर्विधम्।<br />
अक्षय्यं वर्धते चान्नं तेन भोजयते द्विजान्॥ 3-3-82<br />
भुक्तवत्सु च विप्रेषु भोजयित्वानुजानपि।<br />
शेषं विघससंज्ञं तु पश्चाद्भुङ्क्ते युधिष्ठिरः॥ 3-3-83<br />
युधिष्ठिरं भोजयित्वा शेषमश्नाति पार्षती।<br />
द्रौपद्यां भुज्यमानायां तदन्नं क्षयमेति च।<br />
एवं दिवाकरात्प्राप्य दिवाकरसमप्रभः॥ 3-3-84<br />
कामान्मनोऽभिलषितान्ब्राह्मणेभ्योऽददात्प्रभुः।<br />
पुरोहितपुरोगाश्च तिथिनक्षत्रपर्वसु।<br />
यज्ञियार्थाः प्रवर्तन्ते विधिमन्त्रप्रमाणतः॥ 3-3-85<br />
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<br />
ततः कृतस्वस्त्ययना धौम्येन सह पाण्डवाः।<br />
द्विजसङ्घैः परिवृताः प्रययुः काम्यकं वनम्॥ 3-3-86<br />
[[:Category:Kamyavan|''Kamyavan'']] [[:Category:काम्यवन|''काम्यवन'']]<br />
<br />
जनमेजयः पुष्पोपहारबलिभिर्बहुशश्च यथाविधि।<br />
<br />
सर्वात्मभूतं सम्पूज्य यतप्राणो जितेन्द्रियः॥<br />
<br />
स्तवेन केन विप्रर्षे स तु राजा युधिष्ठिरः।<br />
<br />
विप्रार्थमाराधितवान्सूर्यमद्भुतविक्रमम्॥<br />
<br />
मयि स्नेहोऽस्ति चेद्ब्रह्मन्यदनुग्रहभागहम्।<br />
<br />
भगवान्नास्ति चेद्गुह्यं तच्च मे ब्रूहि साम्प्रतम्॥<br />
<br />
वैशम्पायनः शृणुष्वावहितो राजन्शुचिर्भूत्वा समाहितः।<br />
<br />
क्षणं च कुरु राजेन्द्र गुह्यं वक्ष्यामि ते हितम्॥<br />
<br />
धौम्येन तु यथाप्रोक्तं पार्थाय सुमहात्मने।<br />
<br />
नाम्नामष्टशतं पुण्यं तच्छृणुष्व महामते॥<br />
<br />
सूर्योऽर्यमा भगस्त्वष्टा पूषाऽर्कस्सविता रविः।<br />
<br />
गभस्तिमानजः कालो मृत्युर्धाता प्रभाकरः॥<br />
<br />
पृथिव्यापश्च तेजश्च खं वायुश्च परायणम्।<br />
<br />
सोमो बृहस्पतिश्शुक्रो बुधोऽङ्गारक एव च॥<br />
<br />
इन्द्रो विवस्वान्दीप्तांशुश्शुचिश्शौरिश्शनैश्चरः।<br />
<br />
ब्रह्मा विष्णुश्च रुद्रश्च स्कन्दो वैश्रवणो यमः॥<br />
<br />
वैद्युतो जाठरश्चाग्निः ऐन्धनस्तेजसां पतिः।<br />
<br />
धर्मध्वजो वेदकर्ता वेदाङ्गो वेदवाहनः॥<br />
<br />
कृतं त्रेता द्वापरश्च कलिस्सर्वामराश्रयः।<br />
<br />
कला काष्ठा मुहूर्ताश्च पक्षा मासा ऋतुस्तथा॥<br />
<br />
संवत्सरकरोऽश्वत्थः कालचक्रो विभावसुः।<br />
<br />
पुरुषश्शाश्वतो योगी व्यक्ताव्यक्तस्सनातनः॥<br />
<br />
लोकाध्यक्षस्सुराध्यक्षो विश्वकर्मा तमोनुदः।<br />
<br />
वरुणस्सागरोंशुश्च जीमूतो जीवनोऽरिहा॥<br />
<br />
भूताश्रयो भूतपतिस्सर्वभूतनिषेवितः।<br />
<br />
मणिस्सुवर्णो भूतादिः कामदस्सर्वतोमुखः॥<br />
<br />
जयो विशालो वरदश्शीघ्रगः प्राणधारणः।<br />
<br />
धन्वन्तरिर्धूमकेतुः आदिदेवोऽदितेस्सुतः॥<br />
<br />
द्वादशात्माऽरविन्दाक्षः पिता माता पितामहः।<br />
<br />
स्वर्गद्वारं प्रजाद्वारं मोक्षद्वारं त्रिविष्टपम्॥<br />
<br />
देवकर्ता प्रशान्तात्मा विश्वात्मा विश्वतोमुखः।<br />
<br />
चराचरात्मा सूक्ष्मात्मा मैत्रेण वपुषाऽन्वितः॥<br />
<br />
एतद्वै कीर्तनीयस्य सूर्यस्यैव महात्मनः।<br />
<br />
नाम्नामष्टशतं पुण्यं शक्रेणोक्तं महात्मना॥<br />
<br />
शक्राच्च नारदः प्राप्तो धौम्यश्च तदनन्तरम्।<br />
<br />
धौम्याद्युधिष्ठिरः प्राप्य सर्वान्कामानवाप्तवान्॥<br />
<br />
सुरपितृगणयक्षसेवितं निशिचरसिद्धगणैश्च वन्दितम्।<br />
<br />
वरकनकहुताशनप्रभं त्वमपि मनस्यभिधेहि भास्करम्॥<br />
<br />
सूर्योदये यस्सुसमाहितः पठेत्स पुत्रलाभं धनरत्नसञ्चयान्।<br />
<br />
लभेत जातिस्मरतां सदा नरे धृतिं च मेधां च स विन्दते वराम्॥<br />
<br />
इमं स्तवं देववरस्य कीर्तयेच्छृणोति वा यस्सुमनास्समाहितः।<br />
<br />
स मुच्यते शोकदवाग्निसागराल्लभेत कामान्मनसा यथेप्सितान्॥<br />
<br />
इति श्रीमिहाभारते वनपर्वणि अरण्यपर्वणि काम्यकवनप्रवेशे तृतीयोऽध्यायः॥ 3 ॥</div>
ShraddhaV
https://dharmawiki.org/index.php?title=Vanaparva_Adhyaya_3_(%E0%A4%B5%E0%A4%A8%E0%A4%AA%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A4%A3%E0%A4%BF_%E0%A4%85%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%83_%E0%A5%A9)&diff=119794
Vanaparva Adhyaya 3 (वनपर्वणि अध्यायः ३)
2019-07-10T10:41:16Z
<p>ShraddhaV: slokas added</p>
<hr />
<div>वैशम्पायन उवाच<br />
<br />
शौनकेनैवमुक्तस्तु कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः।<br />
<br />
पुरोहितमुपागम्य भ्रातृमध्येऽब्रवीदिदम्॥ 3-3-1<br />
<br />
प्रस्थितं मानुयान्तीमे ब्राह्मणा वेदपारगाः।<br />
<br />
न चास्मि पोषणे शक्तो बहुदुःखसमन्वितः॥ 3-3-2<br />
<br />
परित्यक्तुं न शक्तोऽस्मि दानशक्तिश्च नास्ति मे।<br />
<br />
कथमत्र मया कार्यं तद्ब्रूहि भगवन्मम॥ 3-3-3<br />
<br />
वैशम्पायन उवाच<br />
<br />
मुहूर्तमिव स ध्यात्वा धर्मेणान्विष्य तां गतिम्।<br />
<br />
युधिष्ठिरमुवाचेदं धौम्यो धर्मभृतां वरः॥ 3-3-4<br />
<br />
धौम्य उवाच<br />
<br />
पुरा सृष्टानि भूतानि पीड्यन्ते क्षुधया भृशम्।<br />
<br />
ततोऽनुकम्पया तेषां सविता स्वपिता यथा॥ 3-3-5<br />
<br />
गत्वोत्तरायणं तेजो रसानुद्धृत्य रश्मिभिः।<br />
<br />
दक्षिणायनमावृत्तो महीं निविशते रविः॥ 3-3-6<br />
<br />
क्षेत्रभूते ततस्तस्मिन्नोषधीरोषधीपतिः।<br />
<br />
दिवस्तेजः समुद्धृत्य जनयामास वारिणा॥ 3-3-7<br />
<br />
निषिक्तश्चन्द्रतेजोभिः स्वयोनौ निर्गते रविः।<br />
<br />
ओषध्यः षड्रसा मेध्यास्तदन्नं प्राणिनां भुवि॥ 3-3-8<br />
<br />
एवं भानुमयं ह्यन्नं भूतानां प्राणधारणम्।<br />
<br />
पितैष सर्वभूतानां तस्मात्तं शरणं व्रज॥ 3-3-9<br />
<br />
राजानो हि महात्मानो योनिकर्मविशोधिताः।<br />
<br />
उद्धरन्ति प्रजाः सर्वास्तप आस्थाय पुष्कलम्॥ 3-3-10<br />
<br />
भीमेन कार्तवीर्येण वैन्येन नहुषेण च।<br />
<br />
तपोयोगसमाधिस्थैरुद्धता ह्यापदः प्रजाः॥ 3-3-11<br />
<br />
तथा त्वमपि धर्मात्मन्कर्मणा च विशोधितः।<br />
<br />
तप आस्थाय धर्मेण द्विजातीन्भर भारत॥ 3-3-12<br />
<br />
जनमेजय उवाच<br />
<br />
कथं कुरूणामृषभः स तु राजा युधिष्ठिरः।<br />
<br />
विप्रार्थमाराधितवान्सूर्यमद्भुतदर्शनम्॥ 3-3-13<br />
<br />
वैशम्पायन उवाच<br />
<br />
शृणुष्वावहितो राजञ्शुचिर्भूत्वा समाहितः।<br />
<br />
क्षणं च कुरु राजेन्द्र सम्प्रवक्ष्याम्यशेषतः॥ 3-3-14<br />
<br />
धौम्येन तु यथा पूर्वं पार्थाय सुमहात्मने।<br />
<br />
नामाष्टशतमाख्यातं तच्छृणुष्व महामते॥ 3-3-15<br />
<br />
धौम्य उवाच<br />
<br />
सूर्योऽर्यमा भगस्त्वष्टा पूषार्कः सविता रविः।<br />
<br />
गभस्तिमानजः कालो मृत्युर्धाता प्रभाकरः॥ 3-3-16<br />
<br />
पृथिव्यापश्च तेजश्च खं वायुश्च परायणम्।<br />
<br />
सोमो बृहस्पतिः शुक्रो बुधोऽङ्गारक एव च॥ 3-3-17<br />
<br />
इन्द्रो विवस्वान्दीप्तांशुः शुचिः शौरिः शनैश्चरः।<br />
<br />
ब्रह्मा विष्णुश्च रुद्रश्च स्कन्दो वै वरुणो यमः॥ 3-3-18<br />
<br />
वैद्युतो जाठरश्चाग्निरैन्धनस्तेजसां पतिः।<br />
<br />
धर्मध्वजो वेदकर्ता वेदाङ्गो वेदवाहनः॥ 3-3-19<br />
<br />
कृतं त्रेता द्वापरश्च कलिः सर्वमलाश्रयः।<br />
<br />
कला काष्ठा मुहूर्ताश्च क्षपा यामस्तथा क्षणः॥ 3-3-20<br />
<br />
संवत्सरकरोऽश्वत्थः कालचक्रो विभावसुः।<br />
<br />
पुरुषः शाश्वतो योगी व्यक्ताव्यक्तः सनातनः॥ 3-3-21<br />
<br />
कालाध्यक्षः प्रजाध्यक्षो विश्वकर्मा तमोनुदः।<br />
<br />
वरुणः सागरोंऽशुश्च जीमूतो जीवनोऽरिहा॥ 3-3-22<br />
<br />
भूताश्रयो भूतपतिः सर्वलोकनमस्कृतः।<br />
<br />
स्रष्टा संवर्तको वह्निः सर्वस्यादिरलोलुपः॥ 3-3-23<br />
<br />
अनन्तः कपिलो भानुः कामदः सर्वतोमुखः।<br />
<br />
जयो विशालो वरदः सर्वधातुनिषेचिता॥ 3-3-24<br />
<br />
मनःसुपर्णो भूतादिः शीघ्रगः प्राणधारकः।<br />
<br />
धन्वन्तरिर्धूमकेतुरादिदेवोऽदितेः सुतः॥ 3-3-25<br />
<br />
द्वादशात्मारविन्दाक्षः पिता माता पितामहः।<br />
<br />
स्वर्गद्वारं प्रजाद्वारं मोक्षद्वारं त्रिविष्टपम्॥ 3-3-26<br />
<br />
देहकर्ता प्रशान्तात्मा विश्वात्मा विश्वतोमुखः।<br />
<br />
चराचरात्मा सूक्ष्मात्मा मैत्रेयः करुणान्वितः॥ 3-3-27<br />
<br />
एतद्वै कीर्तनीयस्य सूर्यस्यामिततेजसः।<br />
<br />
नामाष्टशतकं चेदं प्रोक्तमेतत्स्वयंभुवा॥ 3-3-28<br />
<br />
सुरगणपितृयक्षसेवितं ह्यसुरनिशाचरसिद्धवन्दितम्।<br />
<br />
वरकनकहुताशनप्रभं प्रणिपतितोऽस्मि हिताय भास्करम्॥ 3-3-29<br />
<br />
सूर्योदये यः सुसमाहितः पठेत्स पुत्रदारान्धनरत्नसञ्चयान्।<br />
<br />
लभेत जातिस्मरतां नरः सदा धृतिं च मेधां च स विन्दते पुमान्॥ 3-3-30<br />
<br />
इमं स्तवं देववरस्य यो नरः प्रकीर्तयेच्छुचिसुमनाः समाहितः।<br />
<br />
विमुच्यते शोकदवाग्निसागराल्लभेत कामान्मनसा यथेप्सितान्॥ 3-3-31<br />
<br />
वैशम्पायन उवाच<br />
<br />
एवमुक्तस्तु धौम्येन तत्कालसदृशं वचः।<br />
<br />
विप्रत्यागसमाधिस्थः संयतात्मा दृढव्रतः॥ 3-3-32<br />
<br />
धर्मराजो विशुद्धात्मा तप आतिष्ठदुत्तमम्।<br />
<br />
पुष्पोपहारैर्बलिभिरर्चयित्वा दिवाकरम्॥ 3-3-33<br />
<br />
सोऽवगाह्य जलं राजा देवस्याभिमुखोऽभवत्।<br />
<br />
योगमास्थाय धर्मात्मा वायुभक्षो जितेन्द्रियः॥ 3-3-34<br />
<br />
गाङ्गेयं वार्युपस्पृश्य प्राणायामेन तस्थिवान्।<br />
<br />
शुचिः प्रयतवाग्भूत्वा स्तोत्रमारब्धवांस्ततः॥ 3-3-35<br />
<br />
युधिष्ठिर उवाच<br />
<br />
त्वं भानो जगतश्चक्षुस्त्वमात्मा सर्वदेहिनाम्।<br />
<br />
त्वं योनिः सर्वभूतानां त्वमाचारः क्रियावताम्॥ 3-3-36<br />
<br />
त्वं गतिः सर्वसांख्यानां योगिनां त्वं परायणम्।<br />
<br />
अनावृतार्गलद्वारं त्वं गतिस्त्वं मुमुक्षताम्॥ 3-3-37<br />
<br />
त्वया संधार्यते लोकस्त्वया लोकः प्रकाश्यते।<br />
<br />
त्वया पवित्रीक्रियते निर्व्याजं पाल्यते त्वया॥ 3-3-38<br />
<br />
त्वामुपस्थाय काले तु ब्राह्मणा वेदपारगाः।<br />
<br />
स्वशाखाविहितैर्मन्त्रैरर्चन्त्यृषिगणार्चितम्॥ 3-3-39<br />
<br />
तव दिव्यं रथं यान्तमनुयान्ति वरार्थिनः।<br />
<br />
सिद्धचारणगन्धर्वा यक्षगुह्यकपन्नगाः॥ 3-3-40<br />
<br />
त्रयस्त्रिंशच्च वै देवास्तथा वैमानिका गणाः।<br />
<br />
सोपेन्द्राः समहेन्द्राश्च त्वामिष्ट्वा सिद्धिमागताः॥ 3-3-41<br />
<br />
उपयान्त्यर्चयित्वा तु त्वां वै प्राप्तमनोरथाः।<br />
<br />
दिव्यमन्दारमालाभिस्तूर्णं विद्याधरोत्तमाः॥ 3-3-42<br />
<br />
गुह्याः पितृगणाः सप्त ये दिव्या ये च मानुषाः।<br />
<br />
ते पूजयित्वा त्वामेव गच्छन्त्याशु प्रधानताम्॥ 3-3-43<br />
<br />
वसवो मरुतो रुद्रा ये च साध्या मरीचिपाः।<br />
<br />
वालखिल्यादयः सिद्धाः श्रेष्ठत्वं प्राणिनां गताः॥ 3-3-44<br />
<br />
सब्रह्मकेषु लोकेषु सप्तस्वप्यखिलेषु च।<br />
<br />
न तद्भूतमहं मन्ये यदर्कादतिरिच्यते॥ 3-3-45<br />
<br />
सन्ति चान्यानि सत्त्वानि वीर्यवन्ति महान्ति च।<br />
<br />
न तु तेषां तथा दीप्तिः प्रभावो वा यथा तव॥ 3-3-46<br />
<br />
ज्योतींषि त्वयि सर्वाणि त्वं सर्वज्योतिषां पतिः।<br />
<br />
त्वयि सत्यं च सत्त्वं च सर्वे भावाश्च सात्त्विकाः॥ 3-3-47<br />
<br />
त्वत्तेजसा कृतं चक्रं सुनाभं विश्वकर्मणा।<br />
<br />
देवारीणां मदो येन नाशितः शार्ङ्गधन्वना॥ 3-3-48<br />
<br />
त्वमादायांशुभिस्तेजो निदाघे सर्वदेहिनाम्।<br />
<br />
सर्वौषधिरसानां च पुनर्वर्षासु मुञ्चसि॥ 3-3-49<br />
<br />
तपन्त्यन्ये दहन्त्यन्ये गर्जन्त्यन्ये तथा घनाः।<br />
<br />
विद्योतन्ते प्रवर्षन्ति तव प्रावृषि रश्मयः॥ 3-3-50<br />
<br />
न तथा सुखयत्यग्निर्न प्रावारा न कम्बलाः।<br />
<br />
शीतवातार्दितं लोकं यथा तव मरीचयः॥ 3-3-51<br />
<br />
त्रयोदशद्वीपवतीं गोभिर्भासयसे महीम्।<br />
<br />
त्रयाणामपि लोकानां हितायैकः प्रवर्तसे॥ 3-3-52<br />
<br />
तव यद्युदयो न स्यादन्धं जगदिदं भवेत्।<br />
<br />
न च धर्मार्थकामेषु प्रवर्तेरन्मनीषिणः॥ 3-3-53<br />
<br />
आधानपशुबन्धेष्टिमन्त्रयज्ञतपःक्रियाः।<br />
<br />
त्वत्प्रसादादवाप्यन्ते ब्रह्मक्षत्रविशां गणैः॥ 3-3-54<br />
<br />
यदहर्ब्रह्मणः प्रोक्तं सहस्रयुगसम्मितम्।<br />
<br />
तस्य त्वमादिरन्तश्च कालज्ञैः परिकीर्तितः॥ 3-3-55<br />
<br />
मनूनां मनुपुत्राणां जगतोऽमानवस्य च।<br />
<br />
मन्वन्तराणां सर्वेषामीश्वराणां त्वमीश्वरः॥ 3-3-56<br />
<br />
संहारकाले सम्प्राप्ते तव क्रोधविनिःसृतः।<br />
<br />
संवर्तकाग्निस्त्रैलोक्यं भस्मीकृत्यावतिष्ठते॥ 3-3-57<br />
<br />
त्वद्दीधितिसमुत्पन्ना नानावर्णा महाघनाः।<br />
<br />
सैरावताः साशनयः कुर्वन्त्याभूतसम्प्लवम्॥ 3-3-58<br />
<br />
कृत्वा द्वादशधाऽऽत्मानं द्वादशादित्यतां गतः।<br />
<br />
संहृत्यैकार्णवं सर्वं त्वं शोषयसि रश्मिभिः॥ 3-3-59<br />
<br />
त्वामिन्द्रमाहुस्त्वं रुद्रस्त्वं विष्णुस्त्वं प्रजापतिः।<br />
<br />
त्वमग्निस्त्वं मनः सूक्ष्मं प्रभुस्त्वं ब्रह्म शाश्वतम्॥ 3-3-60<br />
<br />
त्वं हंसः सविता भानुरंशुमाली वृषाकपिः।<br />
<br />
विवस्वान्मिहिरः पूषा मित्रो धर्मस्तथैव च॥ 3-3-61<br />
<br />
सहस्ररश्मिरादित्यस्तपनस्त्वं गवाम्पतिः।<br />
<br />
मार्तण्डोऽर्को रविः सूर्यः शरण्यो दिनकृत्तथा॥ 3-3-62<br />
<br />
दिवाकरः सप्तसप्तिर्धामकेशी विरोचनः।<br />
<br />
आशुगामी तमोघ्नश्च हरिताश्वश्च कीर्त्यसे॥ 3-3-63<br />
<br />
सप्तम्यामथवा षष्ठ्यां भक्त्या पूजां करोति यः।<br />
<br />
अनिर्विण्णोऽनहङ्कारी तं लक्ष्मीर्भजते नरम्॥ 3-3-64<br />
<br />
न तेषामापदः सन्ति नाधयो व्याधयस्तथा।<br />
<br />
ये तवानन्यमनसः कुर्वन्त्यर्चनवन्दनम्॥ 3-3-65<br />
<br />
सर्वरोगैर्विरहिताः सर्वपापविवर्जिताः।<br />
<br />
त्वद्भावभक्ताः सुखिनो भवन्ति चिरजीविनः॥ 3-3-66<br />
<br />
त्वं ममाप्यन्नकामस्य सर्वातिथ्यं चिकीर्षतः।<br />
<br />
अन्नमन्नपते दातुमभितः श्रद्धयार्हसि॥ 3-3-67<br />
<br />
ये च तेऽनुचराः सर्वे पादोपान्तं समाश्रिताः।<br />
<br />
माठरारुणदण्डाद्यास्तांस्तान्वन्देऽशनिक्षुभान्॥ 3-3-68<br />
<br />
क्षुभया सहिता मैत्री याश्चान्या भूतमातरः।<br />
<br />
ताश्च सर्वा नमस्यामि पान्तु मां शरणागतम्॥ 3-3-69<br />
<br />
वैशम्पायन उवाच<br />
<br />
एवं स्तुतो महाराज भास्करो लोकभावनः।<br />
<br />
ततो दिवाकरः प्रीतो दर्शयामास पाण्डवम्।<br />
<br />
दीप्यमानः स्ववपुषा ज्वलन्निव हुताशनः॥ 3-3-70<br />
<br />
विवस्वानुवाच<br />
<br />
यत्तेऽभिलषितं किञ्चित्तत्त्वं सर्वमवाप्स्यसि।<br />
<br />
अहमन्नं प्रदास्यामि सप्त पञ्च च ते समाः॥ 3-3-71<br />
<br />
फलमूलामिषं शाकं संस्कृतं यन्महानसे।<br />
<br />
गृह्णीष्व पिठरं ताम्रं मया दत्त नराधिप।<br />
<br />
यावद्वर्त्स्यति पाञ्चाली पात्रेणानेन सुव्रत॥ 3-3-72<br />
<br />
फलमूलामिषं शाकं संस्कृतं यन्महानसे।<br />
<br />
चतुर्विधं तदन्नाद्यमक्षय्यं ते भविष्यति।<br />
<br />
धनं च विविधं तुभ्यमित्युक्त्वान्तरधीयत॥<br />
<br />
इतश्चतुर्दशे वर्षे भूयो राज्यमवाप्स्यसि॥ 3-3-73<br />
<br />
वैशम्पायन उवाच<br />
<br />
एवमुक्त्वा तु भगवांस्तत्रैवान्तरधीयत॥ 3-3-74<br />
<br />
इमं स्तवं प्रयतमनाः समाधिना पठेदिहान्योऽपि वरं समर्थयन्।<br />
<br />
तत्तस्य दद्याच्च रविर्मनीषितं तदाप्नुयाद्यद्यपि तत्सुदुर्लभम्॥ 3-3-74<br />
<br />
यश्चेदं धारयेन्नित्यं शृणुयाद्वाप्यभीक्ष्णशः।<br />
<br />
पुत्रार्थी लभते पुत्रं धनार्थी लभते धनम्॥ 3-3-75<br />
<br />
विद्यार्थी लभते विद्यां पुरुषोऽप्यथवा स्त्रियः।<br />
<br />
उभे सन्ध्ये पठेन्नित्यं नारी वा पुरुषो यदि॥ 3-3-76<br />
<br />
आपदं प्राप्य मुच्येत बद्धो मुच्येत बन्धनात्।<br />
<br />
एतद्ब्रह्मा ददौ पूर्वं शक्राय सुमहात्मने॥ 3-3-77<br />
<br />
शक्राच्च नारदः प्राप्तो धौम्यस्तु तदनन्तरम्।<br />
<br />
धौम्याद्युधिष्ठिरः प्राप्य सर्वान्कामानवाप्तवान्॥ 3-3-78<br />
<br />
सङ्ग्रामे च जयेन्नित्यं विपुलं चाप्नुयाद्वसु।<br />
<br />
मुच्यते सर्वपापेभ्यः सूर्यलोकं स गच्छति॥ 3-3-79<br />
<br />
वैशम्पायन उवाच<br />
<br />
लब्ध्वा वरं तु कौन्तेयो जलादुत्तीर्य धर्मवित्।<br />
<br />
जग्राह पादौ धौम्यस्य भ्रातॄंश्च परिषस्वजे॥ 3-3-80<br />
<br />
द्रौपद्या सह सङ्गम्य वन्द्यमानस्तया प्रभुः।<br />
<br />
महानसे तदानीं तु साधयामास पाण्डवः॥ 3-3-81<br />
<br />
संस्कृतं प्रसवं याति स्वल्पमन्नं चतुर्विधम्।<br />
<br />
अक्षय्यं वर्धते चान्नं तेन भोजयते द्विजान्॥ 3-3-82<br />
<br />
भुक्तवत्सु च विप्रेषु भोजयित्वानुजानपि।<br />
<br />
शेषं विघससंज्ञं तु पश्चाद्भुङ्क्ते युधिष्ठिरः॥ 3-3-83<br />
<br />
युधिष्ठिरं भोजयित्वा शेषमश्नाति पार्षती।<br />
<br />
द्रौपद्यां भुज्यमानायां तदन्नं क्षयमेति च।<br />
<br />
एवं दिवाकरात्प्राप्य दिवाकरसमप्रभः॥ 3-3-84<br />
<br />
कामान्मनोऽभिलषितान्ब्राह्मणेभ्योऽददात्प्रभुः।<br />
<br />
पुरोहितपुरोगाश्च तिथिनक्षत्रपर्वसु।<br />
<br />
यज्ञियार्थाः प्रवर्तन्ते विधिमन्त्रप्रमाणतः॥ 3-3-85<br />
<br />
ततः कृतस्वस्त्ययना धौम्येन सह पाण्डवाः।<br />
<br />
द्विजसङ्घैः परिवृताः प्रययुः काम्यकं वनम्॥ 3-3-86<br />
<br />
जनमेजयः पुष्पोपहारबलिभिर्बहुशश्च यथाविधि।<br />
<br />
सर्वात्मभूतं सम्पूज्य यतप्राणो जितेन्द्रियः॥<br />
<br />
स्तवेन केन विप्रर्षे स तु राजा युधिष्ठिरः।<br />
<br />
विप्रार्थमाराधितवान्सूर्यमद्भुतविक्रमम्॥<br />
<br />
मयि स्नेहोऽस्ति चेद्ब्रह्मन्यदनुग्रहभागहम्।<br />
<br />
भगवान्नास्ति चेद्गुह्यं तच्च मे ब्रूहि साम्प्रतम्॥<br />
<br />
वैशम्पायनः शृणुष्वावहितो राजन्शुचिर्भूत्वा समाहितः।<br />
<br />
क्षणं च कुरु राजेन्द्र गुह्यं वक्ष्यामि ते हितम्॥<br />
<br />
धौम्येन तु यथाप्रोक्तं पार्थाय सुमहात्मने।<br />
<br />
नाम्नामष्टशतं पुण्यं तच्छृणुष्व महामते॥<br />
<br />
सूर्योऽर्यमा भगस्त्वष्टा पूषाऽर्कस्सविता रविः।<br />
<br />
गभस्तिमानजः कालो मृत्युर्धाता प्रभाकरः॥<br />
<br />
पृथिव्यापश्च तेजश्च खं वायुश्च परायणम्।<br />
<br />
सोमो बृहस्पतिश्शुक्रो बुधोऽङ्गारक एव च॥<br />
<br />
इन्द्रो विवस्वान्दीप्तांशुश्शुचिश्शौरिश्शनैश्चरः।<br />
<br />
ब्रह्मा विष्णुश्च रुद्रश्च स्कन्दो वैश्रवणो यमः॥<br />
<br />
वैद्युतो जाठरश्चाग्निः ऐन्धनस्तेजसां पतिः।<br />
<br />
धर्मध्वजो वेदकर्ता वेदाङ्गो वेदवाहनः॥<br />
<br />
कृतं त्रेता द्वापरश्च कलिस्सर्वामराश्रयः।<br />
<br />
कला काष्ठा मुहूर्ताश्च पक्षा मासा ऋतुस्तथा॥<br />
<br />
संवत्सरकरोऽश्वत्थः कालचक्रो विभावसुः।<br />
<br />
पुरुषश्शाश्वतो योगी व्यक्ताव्यक्तस्सनातनः॥<br />
<br />
लोकाध्यक्षस्सुराध्यक्षो विश्वकर्मा तमोनुदः।<br />
<br />
वरुणस्सागरोंशुश्च जीमूतो जीवनोऽरिहा॥<br />
<br />
भूताश्रयो भूतपतिस्सर्वभूतनिषेवितः।<br />
<br />
मणिस्सुवर्णो भूतादिः कामदस्सर्वतोमुखः॥<br />
<br />
जयो विशालो वरदश्शीघ्रगः प्राणधारणः।<br />
<br />
धन्वन्तरिर्धूमकेतुः आदिदेवोऽदितेस्सुतः॥<br />
<br />
द्वादशात्माऽरविन्दाक्षः पिता माता पितामहः।<br />
<br />
स्वर्गद्वारं प्रजाद्वारं मोक्षद्वारं त्रिविष्टपम्॥<br />
<br />
देवकर्ता प्रशान्तात्मा विश्वात्मा विश्वतोमुखः।<br />
<br />
चराचरात्मा सूक्ष्मात्मा मैत्रेण वपुषाऽन्वितः॥<br />
<br />
एतद्वै कीर्तनीयस्य सूर्यस्यैव महात्मनः।<br />
<br />
नाम्नामष्टशतं पुण्यं शक्रेणोक्तं महात्मना॥<br />
<br />
शक्राच्च नारदः प्राप्तो धौम्यश्च तदनन्तरम्।<br />
<br />
धौम्याद्युधिष्ठिरः प्राप्य सर्वान्कामानवाप्तवान्॥<br />
<br />
सुरपितृगणयक्षसेवितं निशिचरसिद्धगणैश्च वन्दितम्।<br />
<br />
वरकनकहुताशनप्रभं त्वमपि मनस्यभिधेहि भास्करम्॥<br />
<br />
सूर्योदये यस्सुसमाहितः पठेत्स पुत्रलाभं धनरत्नसञ्चयान्।<br />
<br />
लभेत जातिस्मरतां सदा नरे धृतिं च मेधां च स विन्दते वराम्॥<br />
<br />
इमं स्तवं देववरस्य कीर्तयेच्छृणोति वा यस्सुमनास्समाहितः।<br />
<br />
स मुच्यते शोकदवाग्निसागराल्लभेत कामान्मनसा यथेप्सितान्॥<br />
<br />
इति श्रीमिहाभारते वनपर्वणि अरण्यपर्वणि काम्यकवनप्रवेशे तृतीयोऽध्यायः॥ 3 ॥</div>
ShraddhaV
https://dharmawiki.org/index.php?title=Vanaparva_Adhyaya_1_(%E0%A4%B5%E0%A4%A8%E0%A4%AA%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A4%A3%E0%A4%BF_%E0%A4%85%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%83_%E0%A5%A7)&diff=119793
Vanaparva Adhyaya 1 (वनपर्वणि अध्यायः १)
2019-07-10T10:37:27Z
<p>ShraddhaV: </p>
<hr />
<div>जनमेजय उवाच<br />
<br />
एवं द्यूतजिताः पार्थाः कोपिताश्च दुरात्मभिः।<br />
धार्तराष्ट्रैः सहामात्यैर्निकृत्या द्विजसत्तम॥ 3-1-1<br />
श्राविताः परुषा वाचः सृजद्भिर्वैरमुत्तमम्।<br />
किमकुर्वत कौरव्या मम पूर्वपितामहाः॥ 3-1-2<br />
कथं चैश्वर्यविभ्रष्टाः सहसा दुःखमेयुषः।<br />
वने विजह्रिरे पार्थाः शक्रप्रतिमतेजसः॥ 3-1-3<br />
के वै तानन्ववर्तन्त प्राप्तान्व्यसनमुत्तमम्।<br />
किमाचाराः किमाहाराः क्व च वासो महात्मनाम्॥ 3-1-4<br />
कथं च द्वादश समा वने तेषां महामुने।<br />
व्यतीयुर्ब्राह्मणश्रेष्ठ शूराणामरिघातिनाम्॥ 3-1-5<br />
[[:Category:Pandavas leave for exile|''Pandavas leave for exile'']]<br />
<br />
कथं च राजपुत्री सा प्रवरा सर्वयोषिताम्।<br />
पतिव्रता महाभागा सततं सत्यवादिनी॥ 3-1-6<br />
वनवासमदुःखार्हा दारुणं प्रत्यपद्यत।<br />
एतदाचक्ष्व मे सर्वं विस्तरेण तपोधन॥ 3-1-7<br />
[[:Category:Pandavas leave for exile|''Pandavas leave for exile'']] [[:Category:Qualities of Draupadi|''Qualities of Draupadi'']] [[:Category:द्रौपदी|''द्रौपदी'']]<br />
<br />
श्रोतुमिच्छामि चरितं भूरिद्रविणतेजसाम्।<br />
कथ्यमानं त्वया विप्र परं कौतूहलं हि मे॥ 3-1-8<br />
वैशम्पायन उवाच<br />
एवं द्यूतजिताः पार्थाः कोपिताश्च दुरात्मभिः।<br />
धार्तराष्ट्रैः सहामात्यैर्निर्ययुर्गजसाह्वयात्॥ 3-1-9<br />
वर्धमानपुरद्वारादभिनिष्क्रम्य पाण्डवाः।<br />
उदङ्मुखाः शस्त्रभृतः प्रययुः सह कृष्णया॥ 3-1-10<br />
इन्द्रसेनादयश्चैव भृत्याः परि चतुर्दश।<br />
रथैरनुययुः शीघ्रैः स्त्रिय आदाय सर्वशः॥ 3-1-11<br />
गतानेतान्विदित्वा तु पौराः शोकाभिपीडिताः।<br />
गर्हयन्तोऽसकृद्भीष्मविदुरद्रोणगौतमान्॥ 3-1-12<br />
[[:Category:Pandavas leave for exile|''Pandavas leave for exile'']]<br />
<br />
ऊचुर्विगतसंत्रासाः समागम्य परस्परम्।<br />
पौरा ऊचुः।<br />
नेदमस्ति कुलं सर्वं न वयं न च नो गृहाः॥ 3-1-13<br />
यत्र दुर्योधनः पापः सौबलयेन[लेनाभि]पालितः।<br />
कर्णदुःशासनाभ्यां च राज्यमेतच्चिकीर्षति॥ 3-1-14<br />
न तत्कुलं न चाचारो न धर्मोऽर्थः कुतः सुखम्।<br />
यत्र पापसहायोऽयं पापो राज्यं चिकीर्षति॥ 3-1-15<br />
दुर्योधनो गुरुद्वेषी त्यक्ताचारसुहृज्जनः।<br />
अर्थलुब्धोऽभिमानी च नीचः प्रकृतिनिर्घृणः॥ 3-1-16<br />
नेयमस्ति मही कृत्स्ना यत्र दुर्योधनो नृपः।<br />
साधु गच्छामहे सर्वे यत्र गच्छन्ति पाण्डवाः॥ 3-1-17<br />
[[:Category:दुर्योधन|''दुर्योधन'']]<br />
<br />
सानुक्रोशा महात्मानो विजितेन्द्रियशत्रवः।<br />
ह्रीमन्तः कीर्तिमन्तश्च धर्माचारपरायणाः॥ 3-1-18<br />
[[:Category:पांडव|''पांडव'']]<br />
<br />
वैशम्पायन उवाच<br />
<br />
एवमुक्त्वानुजग्मुस्ते पाण्डवांस्तान्समेत्य च।<br />
<br />
ऊचुः प्राञ्जलयः सर्वे कौन्तेयान्माद्रिनन्दनान्॥ 3-1-19<br />
<br />
क्व गमिष्यथ भद्रं वस्त्यक्त्वास्मान्दुःखभागिनः।<br />
<br />
वयमप्यनुयास्यामो यत्र यूयं गमिष्यथ॥ 3-1-20<br />
<br />
अधर्मेण जिताञ्छ्रुत्वा युष्मांस्त्यक्तघृणैः परैः।<br />
<br />
उद्विग्नाः स्मो भृशं सर्वे नास्मान्हातुमिहार्हथ॥ 3-1-21<br />
<br />
भक्तानुरक्तान्सुहृदः सदा प्रियहिते रतान्।<br />
<br />
कुराजाधिष्ठिते राज्ये न विनश्येम सर्वशः॥ 3-1-22<br />
<br />
श्रूयन्तां चाभिधास्यामो गुणदोषान्नरर्षभाः।<br />
शुभाशुभाधिवासेन संसर्गः कुरुते यथा॥ 3-1-23<br />
अपोवस्त्रं तिलान्[वस्त्रमापस्तिलान्] भूमिं गन्धो वासयते यथा।<br />
पुष्पाणामधिवासेन तथा संसर्गजा गुणाः॥ 3-1-24<br />
मोहजालस्य योनिर्हि मूढैरेव समागमः।<br />
अहन्यहनि धर्मस्य योनिः साधुसमागमः॥ 3-1-25<br />
तस्मात्प्राज्ञैश्च वृद्धैश्च सुस्वभावैस्तपस्विभिः।<br />
सद्भिश्च सह संसर्गः कार्यः शमपरायणैः॥ 3-1-26<br />
येषां त्रीण्यवदातानि विद्या योनिश्च कर्म च।<br />
ते सेव्यास्तैः समास्या हि शास्त्रेभ्योऽपि गरीयसी॥ 3-1-27<br />
निरारम्भा ह्यपि वयं पुण्यशीलेषु साधुषु।<br />
पुण्यमेवाप्नुयामेह पापं पापोपसेवनात्॥ 3-1-28<br />
असतां दर्शनात्स्पर्शात्संजल्पाच्च सहासनात्।<br />
धर्माचाराः प्रहीयन्ते सिद्ध्यन्ति च न मानवाः॥ 3-1-29<br />
बुद्धिश्च हीयते पुंसां नीचैः सह समागमात्।<br />
मध्यमैर्मध्यतां याति श्रेष्ठतां याति चोत्तमैः॥ 3-1-30<br />
अनीचैर्नाप्यविषयैर्नाधर्मिष्ठैर्विशेषतः।<br />
ये गुणाः कीर्तिता लोके धर्मकामार्थसम्भवाः।<br />
लोकाचारेषु सम्भूता वेदोक्ताः शिष्टसम्मताः॥ 3-1-31<br />
ते युष्मासु समस्ताश्च व्यस्ताश्चैवेह सद्गुणाः।<br />
इच्छामो गुणवन्मध्ये वस्तुं श्रेयोऽभिकाङ्क्षिणः॥ 3-1-32<br />
[[:Category:association|''association'']]<br />
<br />
युधिष्ठिर उवाच<br />
<br />
धन्या वयं यदस्माकं स्नेहकारुण्ययन्त्रिताः।<br />
असतोऽपि गुणानाहुर्ब्राह्मणप्रमुखाः प्रजाः॥ 3-1-33<br />
तदहं भ्रातृसहितः सर्वान्विज्ञापयामि वः।<br />
नान्यथा तद्धि कर्तव्यमस्मत्स्नेहानुकम्पया॥ 3-1-34<br />
भीष्मः पितामहो राजा विदुरो जननी च मे।<br />
सुहृज्जनश्च प्रायो मे नगरे नागसाह्वये॥ 3-1-35<br />
ते त्वस्मद्धितकामार्थं पालनीयाः प्रयत्नतः।<br />
युष्माभिः सहिताः सर्वे शोकसन्तापविह्वलाः॥ 3-1-36<br />
निवर्ततागता दूरं समागमनशापिताः।<br />
स्वजने न्यासभूते मे कार्या स्नेहान्विता मतिः॥ 3-1-37<br />
एतद्धि मम कार्याणां परमं हृदि संस्थितम्।<br />
कृता तेन तु तुष्टिर्मे सत्कारश्च भविष्यति॥ 3-1-38<br />
[[:Category:Duty|''Duty'']] [[:Category:Responsibility|''Responsibility'']]<br />
<br />
वैशम्पायन उवाच<br />
<br />
तथानुमन्त्रितास्तेन धर्मराजेन ताः प्रजाः।<br />
चक्रुरार्तस्वरं घोरं हा राजन्निति संहताः॥ 3-1-39<br />
गुणान्पार्थस्य संस्मृत्य दुःखार्ताः परमातुराः।<br />
अकामाः सन्न्यवर्तन्त समागम्याथ पाण्डवान्॥ 3-1-40<br />
निवृत्तेषु तु पौरेषु रथानास्थाय पाण्डवाः।<br />
आजग्मुर्जाह्नवीतीरे प्रमाण आख्यं महावटम्॥ 3-1-41<br />
ते तं दिवसशेषेण वटं गत्वा तु पाण्डवाः।<br />
ऊषुस्तां रजनीं वीराः संस्पृश्य सलिलं शुचि॥ 3-1-42<br />
उदकेनैव तां रात्रिमूषुस्ते दुःखकर्षिताः।<br />
अनुजग्मुश्च तत्रैतान्स्नेहात्केचिद्द्विजातयः॥ 3-1-43<br />
साग्नयोऽनग्नयश्चैव सशिष्यगणबान्धवाः।<br />
स तैः परिवृतो राजा शुशुभे ब्रह्मवादिभिः॥ 3-1-44<br />
तेषां प्रादुष्कृताग्नीनां मुहूर्ते रम्यदारुणे।<br />
ब्रह्मघोषपुरस्कारः संजल्पः समजायत॥ 3-1-45<br />
राजानं तु कुरुश्रेष्ठं ते हंसमधुरस्वराः।<br />
आश्वासयन्तो विप्राग्र्याः क्षपां सर्वां व्यनोदयन्॥ 3-1-46<br />
[[:Category:वनवास|''वनवास'']]<br />
<br />
राजा तु भ्रातृभिस्सार्धं तथा सर्वैस्सुहृद्गणैः।<br />
<br />
अशेत तां निशां राजन्दुःखशोकसमाहितः॥<br />
<br />
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि अरण्यपर्वणि पौरप्रत्यागमने प्रथमोऽध्यायः॥ 1 ॥</div>
ShraddhaV
https://dharmawiki.org/index.php?title=Vanaparva_Adhyaya_2_(%E0%A4%B5%E0%A4%A8%E0%A4%AA%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A4%A3%E0%A4%BF_%E0%A4%85%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%83_%E0%A5%A8)&diff=119792
Vanaparva Adhyaya 2 (वनपर्वणि अध्यायः २)
2019-07-10T10:36:07Z
<p>ShraddhaV: slokas added</p>
<hr />
<div>वैशम्पायन उवाच<br />
<br />
प्रभातायां तु शर्वर्यां तेषामक्लिष्टकर्मणाम्।<br />
<br />
वनं यियासतां विप्रास्तस्थुर्भिक्षाभुजोऽग्रतः॥ 3-2-1<br />
<br />
तानुवाच ततो राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः।<br />
<br />
वयं हि हृतसर्वस्वा हृतराज्या हृतश्रियः॥ 3-2-2<br />
<br />
फलमूलाशनाहारा वनं गच्छाम दुःखिताः।<br />
<br />
वनं च दोषबहुलं बहुव्यालसरीसृपम्॥ 3-2-3<br />
<br />
परिक्लेशश्च वो मन्ये ध्रुवं तत्र भविष्यति।<br />
<br />
ब्राह्मणानां परिक्लेशो दैवतान्यपि सादयेत्।<br />
<br />
किं पुनर्मामितो विप्रा निवर्तध्वं यथेष्टतः॥ 3-2-4<br />
<br />
ब्राह्मणा ऊचुः<br />
<br />
गतिर्या भवतां राजंस्तां वयं गन्तुमुद्यताः।<br />
<br />
नार्हस्यस्मान्परित्यक्तुं भक्तान्सद्धर्मदर्शिनः॥ 3-2-5<br />
<br />
अनुकम्पां हि भक्तेषु देवता ह्यपि कुर्वते।<br />
<br />
विशेषतो ब्राह्मणेषु सदाचारावलम्बिषु॥ 3-2-6<br />
<br />
युधिष्ठिर उवाच<br />
<br />
ममापि परमा भक्तिर्ब्राह्मणेषु सदा द्विजाः।<br />
<br />
सहायविपरिभ्रंशस्त्वयं सादयतीव माम्॥ 3-2-7<br />
<br />
आहरेयुरिमे येऽपि फलमूलमृगांस्तथा[मधूनि च]।<br />
<br />
त इमे शोकजैर्दुःखैर्भ्रातरो मे विमोहिताः॥ 3-2-8<br />
<br />
द्रौपद्या विप्रकर्षेण राज्यापहरणेन च।<br />
<br />
दुःखार्दितानिमान्क्लेशैर्नाहं योक्तुमिहोत्सहे॥ 3-2-9<br />
<br />
ब्राह्मणा ऊचुः<br />
<br />
अस्मत्पोषणजा चिन्ता मा भूत्ते हृदि पार्थिव।<br />
<br />
स्वयमाहृत्य चान्नानि चोपयोक्षा[त्वानुयास्या]महे वयम्॥ 3-2-10<br />
<br />
अनुध्यानेन जप्येन विधास्यामः शिवं तव।<br />
<br />
कथाभिश्चाभिरम्याभिः सह रंस्यामहे वयम्॥ 3-2-11<br />
<br />
युधिष्ठिर उवाच<br />
<br />
एवमेतन्न सन्देहो रमेऽहं सततं द्विजैः।<br />
<br />
मा[न्यू]नभावात्तु पश्यामि प्रत्यादेशमिवात्मनः॥ 3-2-12<br />
<br />
कथं द्रक्ष्यामि वः सर्वान्स्वयमाहृतभोजनान्।<br />
<br />
मद्भक्त्या क्लिश्यतोऽनर्हान्धिक्पापान्धृतराष्ट्रजान्॥ 3-2-13<br />
<br />
वैशम्पायन उवाच<br />
<br />
इत्युक्त्वा स नृपः शोचन्निषसाद महीतले।<br />
<br />
तमध्यात्मरतो विद्वान्शौनको नाम वै द्विजः।<br />
<br />
योगे सांख्ये च कुशलो राजानमिदमब्रवीत्॥ 3-2-14<br />
<br />
शोकस्थानसहस्राणि भयस्थानशतानि च।<br />
<br />
दिवसे दिवसे मूढमाविशन्ति न पण्डितम्॥ 3-2-15<br />
<br />
न हि ज्ञानविरुद्धेषु बहुदोषेषु कर्मसु।<br />
<br />
श्रेयोघातिषु सज्जन्ते बुद्धिमन्तो भवद्विधाः॥ 3-2-16<br />
<br />
अष्टाङ्गां बुद्धिमाहुर्यां सर्वाश्रेयोऽभिघातिनीम्।<br />
<br />
श्रुतिस्मृतिसमायुक्तां राजन्सा त्वय्यवस्थिता॥ 3-2-17<br />
<br />
अर्थकृच्छ्रेषु दुर्गेषु व्यापत्सु स्वजनस्य च।<br />
<br />
शारीरमानसैर्दुःखैर्न सीदन्ति भवद्विधाः॥ 3-2-18<br />
<br />
श्रूयतां चाभिधास्यामि जनकेन यथा पुरा।<br />
<br />
आत्मव्यवस्थानकरा गीताः श्लोका महात्मना॥ 3-2-19<br />
<br />
मनोदेहसमुत्थाभ्यां दुःखाभ्यामर्दितं जगत्।<br />
<br />
तयोर्व्याससमासाभ्यां शमोपायमिमं शृणु॥ 3-2-20<br />
<br />
व्याधेरनिष्टसंस्पर्शाच्छ्रमादिष्टविवर्जनात्।<br />
<br />
दुःखं चतुर्भिः शारीरं कारणैः सम्प्रवर्तते॥ 3-2-21<br />
<br />
तदा तत्प्रतिकाराच्च सततं चाविचिन्तनात्।<br />
<br />
आधिव्याधिप्रशमनं क्रियायोगद्वयेन तु॥ 3-2-22<br />
<br />
मतिमन्तो ह्यतो वैद्याः शमं प्रागेव कुर्वते।<br />
<br />
मानसस्य प्रियाख्यानैः सम्भोगोपनयैर्नृणाम्॥ 3-2-23<br />
<br />
मानसेन हि दुःखेन शरीरमुपतप्यते।<br />
<br />
अयःपिण्डेन तप्तेन कुम्भसंस्थमिवोदकम्॥ 3-2-24<br />
<br />
मानसं शमयेत्तस्माज्ज्ञानेनाग्निमिवाम्बुना।<br />
<br />
प्रशान्ते मानसे ह्यस्य शारीरमुपशाम्यति॥ 3-2-25<br />
<br />
मनसो दुःखमूलं तु स्नेह इत्युपलभ्यते।<br />
<br />
स्नेहात्तु सज्जते जन्तुर्दुःखयोगमुपैति च॥ 3-2-26<br />
<br />
स्नेहमूलानि दुःखानि स्नेहजानि भयानि च।<br />
<br />
शोकहर्षौ तथाऽऽयासः सर्वं स्नेहात्प्रवर्तते॥ 3-2-27<br />
<br />
स्नेहाद्भावोऽनुरागश्च प्रजज्ञे विषये तथा।<br />
<br />
अश्रेयस्कावुभावेतौ पूर्वस्तत्र गुरुः स्मृतः॥ 3-2-28<br />
<br />
कोटराग्निर्यथाशेषं समूलं पादपं दहेत्।<br />
<br />
धर्मार्थौ तु तथाल्पोऽपि रागदोषो विनाशयेत्॥ 3-2-29<br />
<br />
विप्रयोगे न तु त्यागी दोषदर्शी समागमे।<br />
<br />
विरागं भजते जन्तुर्निर्वैरो निरवग्रहः॥ 3-2-30<br />
<br />
तस्मात्स्नेहं न लिप्सेत मित्रेभ्यो धनसञ्चयात्।<br />
<br />
स्वशरीरसमुत्थं च ज्ञानेन विनिवर्तयेत्॥ 3-2-31<br />
<br />
ज्ञानान्वितेषु युक्तेषु शास्त्रज्ञेषु कृतात्मसु।<br />
<br />
न तेषु सज्जते स्नेहः पद्मपत्रेष्विवोदकम्॥ 3-2-32<br />
<br />
रागाभिभूतः पुरुषः कामेन परिकृष्यते।<br />
<br />
इच्छा सञ्जायते तस्य ततस्तृष्णा विवर्धते॥ 3-2-33<br />
<br />
तृष्णा हि सर्वपापिष्ठा नित्योद्वेगकरी स्मृता।<br />
<br />
अधर्मबहुला चैव घोरा पापानुबन्धिनी॥ 3-2-34<br />
<br />
या दुस्त्यजा दुर्मतिभिर्या न जीर्यति जीर्यतः।<br />
<br />
योऽसौ प्राणान्तिको रोगस्तां तृष्णां त्यजतः सुखम्॥ 3-2-35<br />
<br />
अनाद्यन्ता तु सा तृष्णा अन्तर्देहगता नृणाम्।<br />
<br />
विनाशयति भूतानि अयोनिज इवानलः॥ 3-2-36<br />
<br />
यथैधः स्वसमुत्थेन वह्निना नाशमृच्छति।<br />
<br />
तथाकृतात्मा लोभेन सहजेन विनश्यति॥ 3-2-37<br />
<br />
राजतः सलिलादग्नेश्चोरतः स्वजनादपि।<br />
<br />
भयमर्थवतां नित्यं मृत्योः प्राणभृतामिव॥ 3-2-38<br />
<br />
यथा ह्यामिषमाकाशे पक्षिभिः श्वापदैर्भुवि।<br />
<br />
भक्ष्यते सलिले मत्स्यैस्तथा सर्वत्र वित्तवान्॥ 3-2-39<br />
<br />
अर्थ एव हि केषाञ्चिदनर्थं भजते नृणाम्।<br />
<br />
अर्थश्रेयसि चासक्तो च श्रेयो विन्दते नरः॥ 3-2-40<br />
<br />
तस्मादर्थागमाः सर्वे मनोमोहविवर्धनाः।<br />
<br />
कार्पण्यं दर्पमानौ च भयमुद्वेग एव च॥ 3-2-41<br />
<br />
अर्थजानि विदुः प्राज्ञा दुःखान्येतानि देहिनाम्।<br />
<br />
अर्थस्योत्पादने चैव पालने च तथा क्षये॥ 3-2-42<br />
<br />
सहन्ति च महद्दुःखं घ्नन्ति चैवार्थकारणात्।<br />
<br />
अर्था दुःखं परित्यक्तुं पालिताश्चैव शत्रवः॥ 3-2-43<br />
<br />
दुःखेन चाधिगम्यन्ते तस्मान्नाशं न चिन्तयेत्।<br />
<br />
असन्तोषपरा मूढाः सन्तोषं यान्ति पण्डिताः॥ 3-2-44<br />
<br />
अन्तो नास्ति पिपासायाः सन्तोषः परमं सुखम्।<br />
<br />
तस्मात्सन्तोषमेवेह परं पश्यन्ति पण्डिताः॥ 3-2-45<br />
<br />
अनित्यं यौवनं रूपं जीवितं रत्नसंचयः।<br />
<br />
ऐश्वर्यं प्रियसंवासो गृध्येत्तत्र न पण्डितः॥ 3-2-46<br />
<br />
त्यजेत सञ्चयांस्तस्मात्तज्जान्क्लेशान्सहेत च।<br />
<br />
न हि सञ्चयवान्कश्चिद्दृश्यते निरुपद्रवः।<br />
<br />
अतश्च धार्मिकैः पुंभिरनीहार्थः प्रशस्यते॥ 3-2-47<br />
<br />
धर्मार्थं यस्य वित्तेहा वरं तस्य निरीहता।<br />
<br />
प्रक्षालनाद्धि पङ्कस्य श्रेयो न स्पर्शनं नृणाम्॥ 3-2-48<br />
<br />
युधिष्ठिरैवं सर्वेषु न स्पृहां कर्तुमर्हसि।<br />
<br />
धर्मेण यदि ते कार्यं विमुक्तेच्छो भवार्थतः॥ 3-2-49<br />
<br />
युधिष्ठिर उवाच<br />
<br />
नार्थोपभोगलिप्सार्थमियमर्थेप्सुता मम।<br />
<br />
भरणार्थं तु विप्राणां ब्रह्मन्काङ्क्षे न लोभतः॥ 3-2-50<br />
<br />
कथं ह्यस्मद्विधो ब्रह्मन्वर्तमानो गृहाश्रमे।<br />
<br />
भरणं पालनं चापि न कुर्यादनुयायिनाम्॥ 3-2-51<br />
<br />
संविभागो हि भूतानां सर्वेषामेव दृश्यते।<br />
<br />
तथैवापचमानेभ्यः प्रदेयं गृहमेधिना॥ 3-2-52<br />
<br />
तृणानि भूमिरुदकं वाक्चतुर्थी च सूनृता।<br />
<br />
सतामेतानि गेहेषु नोच्छिद्यन्ते कदाचन॥ 3-2-53<br />
<br />
देयमार्तस्य शयनं स्थितश्रान्तस्य चासनम्।<br />
<br />
तृषितस्य च पानीयं क्षुधितस्य च भोजनम्॥ 3-2-54<br />
<br />
चक्षुर्दद्यान्मनो दद्याद्वाचं दद्यात्सुभाषिताम्।<br />
<br />
उत्थाय चासनं दद्यादेष धर्मः सनातनः।<br />
<br />
प्रत्युत्थायाभिगमनं कुर्यान्न्यायेन चार्चनम्॥ 3-2-55<br />
<br />
अग्निहोत्रमनड्वांश्च ज्ञातयोऽतिथिबान्धवाः।<br />
<br />
पुत्रा दाराश्च भृत्याश्च निर्दहेयुरपूजिताः॥ 3-2-56<br />
<br />
आत्मार्थं पाचयेन्नान्नं न वृथा घातयेत्पशून्।<br />
<br />
न च तत्स्वयमश्नीयाद्विधिवद्यन्न निर्वपेत्॥ 3-2-57<br />
<br />
श्वभ्यश्च श्वपचेभ्यश्च वयोभ्यश्चावपेद्भुवि।<br />
<br />
वैश्वदेवं हि नामैतत्सायं प्रातश्च दीयते॥ 3-2-58<br />
<br />
विघसाशी भवेत्तस्मान्नित्यं चामृतभोजनः।<br />
<br />
विघसो भुक्तशेषं तु यज्ञशेषं तथामृतम्॥ 3-2-59<br />
<br />
चक्षुर्दद्यान्मनो दद्याद्वाचं दद्याच्च सूनृताम्।<br />
<br />
अनुव्रजेदुपासीत स यज्ञः पञ्चदक्षिणः॥ 3-2-60<br />
<br />
यो दद्यादपरिक्लिष्टमन्नमध्वनि वर्तते।<br />
<br />
श्रान्तायादृष्टपूर्वाय तस्य पुण्यफलं महत्॥ 3-2-61<br />
<br />
एवं यो वर्तते वृत्तिं वर्तमानो गृहाश्रमे।<br />
<br />
तस्य धर्मं परं प्राहुः कथं वा विप्र मन्यसे॥ 3-2-62<br />
<br />
शौनक उवाच<br />
<br />
अहो बत महत्कष्टं विपरीतमिदं जगत्।<br />
<br />
येनापत्रपते साधुरसाधुस्तेन तुष्यति॥ 3-2-63<br />
<br />
शिश्नोदरकृतेऽप्राज्ञः करोति विघसं बहु।<br />
<br />
मोहरागवशाक्रान्त इन्द्रियार्थवशानुगः॥ 3-2-64<br />
<br />
ह्रियते बुध्यमानोऽपि नरो हारिभिरिन्द्रियैः।<br />
<br />
विमूढसंज्ञो दुष्टाश्वैरुद्भान्तैरिव सारथिः॥ 3-2-65<br />
<br />
षडिन्द्रियाणि विषयं समागच्छन्ति वै यदा।<br />
<br />
तदा प्रादुर्भवत्येषां पूर्वसङ्कल्पजं मनः॥ 3-2-66<br />
<br />
मनो यस्येन्द्रियस्येह विषयान्याति सेवितुम्।<br />
<br />
तस्यौत्सुक्यं सम्भवति प्रवृत्तिश्चोपजायते॥ 3-2-67<br />
<br />
ततः सङ्कल्पबीजेन कामेन विषयेषुभिः।<br />
<br />
विद्धः पतति लोभाग्नौ ज्योतिर्लोभात्पतङ्गवत्॥ 3-2-68<br />
<br />
ततो विहारैराहारैर्मोहितश्च यथेप्सया।<br />
<br />
महामोहे सुखे मग्नो नात्मानमवबुध्यते॥ 3-2-69<br />
<br />
एवं पतति संसारे तासु तास्विह योनिषु।<br />
<br />
अविद्याकर्मतृष्णाभिर्भ्राम्यमाणोऽथ चक्रवत्॥ 3-2-70<br />
<br />
ब्रह्मादिषु तृणान्तेषु भूतेषु परिवर्तते।<br />
<br />
जले भुवि तथाऽऽकाशे जायमानः पुनः पुनः॥ 3-2-71<br />
<br />
अबुधानां गतिस्त्वेषा बुधानामपि मे शृणु।<br />
<br />
ये धर्मे श्रेयसि रता विमोक्षरतयो जनाः॥ 3-2-72<br />
<br />
तदिदं वेदवचनं कुरु कर्म त्यजेति च।<br />
<br />
तस्माद्धर्मानिमान्सर्वान्नाभिमानात्समाचरेत्॥ 3-2-73<br />
<br />
इज्याध्ययनदानानि तपः सत्यं क्षमा दमः।<br />
<br />
अलोभ इति मार्गोऽयं धर्मस्याष्टविधः स्मृतः॥ 3-2-74<br />
<br />
अत्र पूर्वश्चतुर्वर्गः पितृयाणपथे स्थितः।<br />
<br />
कर्तव्यमिति यत्कार्यं नाभिमानात्समाचरेत्॥ 3-2-75<br />
<br />
उत्तरो देवयानस्तु सद्भिराचरितः सदा।<br />
<br />
अष्टाङ्गेनैव मार्गेण विशुद्धात्मा समाचरेत्॥ 3-2-76<br />
<br />
सम्यक्सङ्कल्पसम्बन्धात्सम्यक्चेन्द्रियनिग्रहात्।<br />
<br />
सम्यग्व्रतविशेषाच्च सम्यक्च गुरुसेवनात्॥ 3-2-77<br />
<br />
सम्यगाहारयोगाच्च सम्यक्चाध्ययनागमात्।<br />
<br />
सम्यक्कर्मोपसन्न्यासात्सम्यक्चित्तनिरोधनात्॥ 3-2-78<br />
<br />
एवं कर्माणि कुर्वन्ति संसारविजिगीषवः।<br />
<br />
रागद्वेषविनिर्मुक्ता ऐश्वर्यं देवता गताः॥ 3-2-79<br />
<br />
रुद्राः साध्यास्तथाऽऽदित्या वसवोऽथ तथाश्विनौ।<br />
<br />
योगैश्वर्येण संयुक्ता धारयन्ति प्रजा इमाः॥ 3-2-80<br />
<br />
तथा त्वमपि कौन्तेय शममास्थाय पुष्कलम्।<br />
<br />
तपसा सिद्धिमन्विच्छ योगसिद्धिं च भारत॥ 3-2-81<br />
<br />
पितृमातृमयी सिद्धिः प्राप्ता कर्ममयी च ते।<br />
<br />
तपसा सिद्धिमन्विच्छ द्विजानां भरणाय वै॥ 3-2-82<br />
<br />
सिद्धा हि यद्यदिच्छन्ति कुर्वते तदनुग्रहात्।<br />
<br />
तस्मात्तपः समास्थाय कुरुष्वात्ममनोरथम्॥ 3-2-83<br />
<br />
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि अरण्यपर्वणि पाण्डवानां प्रव्रजने द्वितीयोऽध्यायः॥ 2 ॥</div>
ShraddhaV
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Vanaparva Adhyaya 1 (वनपर्वणि अध्यायः १)
2019-07-09T06:40:45Z
<p>ShraddhaV: Adding tags</p>
<hr />
<div>जनमेजय उवाच<br />
<br />
एवं द्यूतजिताः पार्थाः कोपिताश्च दुरात्मभिः।<br />
धार्तराष्ट्रैः सहामात्यैर्निकृत्या द्विजसत्तम॥ 3-1-1<br />
श्राविताः परुषा वाचः सृजद्भिर्वैरमुत्तमम्।<br />
किमकुर्वत कौरव्या मम पूर्वपितामहाः॥ 3-1-2<br />
कथं चैश्वर्यविभ्रष्टाः सहसा दुःखमेयुषः।<br />
वने विजह्रिरे पार्थाः शक्रप्रतिमतेजसः॥ 3-1-3<br />
के वै तानन्ववर्तन्त प्राप्तान्व्यसनमुत्तमम्।<br />
किमाचाराः किमाहाराः क्व च वासो महात्मनाम्॥ 3-1-4<br />
कथं च द्वादश समा वने तेषां महामुने।<br />
व्यतीयुर्ब्राह्मणश्रेष्ठ शूराणामरिघातिनाम्॥ 3-1-5<br />
[[:Category:Pandavas leave for exile|''Pandavas leave for exile'']]<br />
<br />
कथं च राजपुत्री सा प्रवरा सर्वयोषिताम्।<br />
पतिव्रता महाभागा सततं सत्यवादिनी॥ 3-1-6<br />
वनवासमदुःखार्हा दारुणं प्रत्यपद्यत।<br />
एतदाचक्ष्व मे सर्वं विस्तरेण तपोधन॥ 3-1-7<br />
[[:Category:Pandavas leave for exile|''Pandavas leave for exile'']] [[:Category:Qualities of Draupadi|''Qualities of Draupadi'']] [[:Category:द्रौपदी|''द्रौपदी'']]<br />
<br />
श्रोतुमिच्छामि चरितं भूरिद्रविणतेजसाम्।<br />
कथ्यमानं त्वया विप्र परं कौतूहलं हि मे॥ 3-1-8<br />
वैशम्पायन उवाच<br />
एवं द्यूतजिताः पार्थाः कोपिताश्च दुरात्मभिः।<br />
धार्तराष्ट्रैः सहामात्यैर्निर्ययुर्गजसाह्वयात्॥ 3-1-9<br />
वर्धमानपुरद्वारादभिनिष्क्रम्य पाण्डवाः।<br />
उदङ्मुखाः शस्त्रभृतः प्रययुः सह कृष्णया॥ 3-1-10<br />
इन्द्रसेनादयश्चैव भृत्याः परि चतुर्दश।<br />
रथैरनुययुः शीघ्रैः स्त्रिय आदाय सर्वशः॥ 3-1-11<br />
गतानेतान्विदित्वा तु पौराः शोकाभिपीडिताः।<br />
गर्हयन्तोऽसकृद्भीष्मविदुरद्रोणगौतमान्॥ 3-1-12<br />
[[:Category:Pandavas leave for exile|''Pandavas leave for exile'']]<br />
<br />
ऊचुर्विगतसंत्रासाः समागम्य परस्परम्।<br />
पौरा ऊचुः।<br />
नेदमस्ति कुलं सर्वं न वयं न च नो गृहाः॥ 3-1-13<br />
यत्र दुर्योधनः पापः सौबलयेन[लेनाभि]पालितः।<br />
कर्णदुःशासनाभ्यां च राज्यमेतच्चिकीर्षति॥ 3-1-14<br />
न तत्कुलं न चाचारो न धर्मोऽर्थः कुतः सुखम्।<br />
यत्र पापसहायोऽयं पापो राज्यं चिकीर्षति॥ 3-1-15<br />
दुर्योधनो गुरुद्वेषी त्यक्ताचारसुहृज्जनः।<br />
अर्थलुब्धोऽभिमानी च नीचः प्रकृतिनिर्घृणः॥ 3-1-16<br />
नेयमस्ति मही कृत्स्ना यत्र दुर्योधनो नृपः।<br />
साधु गच्छामहे सर्वे यत्र गच्छन्ति पाण्डवाः॥ 3-1-17<br />
[[:Category:दुर्योधन|''दुर्योधन'']]<br />
<br />
सानुक्रोशा महात्मानो विजितेन्द्रियशत्रवः।<br />
ह्रीमन्तः कीर्तिमन्तश्च धर्माचारपरायणाः॥ 3-1-18<br />
[[:Category:पांडव|''पांडव'']]<br />
<br />
वैशम्पायन उवाच<br />
<br />
एवमुक्त्वानुजग्मुस्ते पाण्डवांस्तान्समेत्य च।<br />
<br />
ऊचुः प्राञ्जलयः सर्वे कौन्तेयान्माद्रिनन्दनान्॥ 3-1-19<br />
<br />
क्व गमिष्यथ भद्रं वस्त्यक्त्वास्मान्दुःखभागिनः।<br />
<br />
वयमप्यनुयास्यामो यत्र यूयं गमिष्यथ॥ 3-1-20<br />
<br />
अधर्मेण जिताञ्छ्रुत्वा युष्मांस्त्यक्तघृणैः परैः।<br />
<br />
उद्विग्नाः स्मो भृशं सर्वे नास्मान्हातुमिहार्हथ॥ 3-1-21<br />
<br />
भक्तानुरक्तान्सुहृदः सदा प्रियहिते रतान्।<br />
<br />
कुराजाधिष्ठिते राज्ये न विनश्येम सर्वशः॥ 3-1-22<br />
<br />
श्रूयन्तां चाभिधास्यामो गुणदोषान्नरर्षभाः।<br />
शुभाशुभाधिवासेन संसर्गः कुरुते यथा॥ 3-1-23<br />
अपोवस्त्रं तिलान्[वस्त्रमापस्तिलान्] भूमिं गन्धो वासयते यथा।<br />
पुष्पाणामधिवासेन तथा संसर्गजा गुणाः॥ 3-1-24<br />
मोहजालस्य योनिर्हि मूढैरेव समागमः।<br />
अहन्यहनि धर्मस्य योनिः साधुसमागमः॥ 3-1-25<br />
तस्मात्प्राज्ञैश्च वृद्धैश्च सुस्वभावैस्तपस्विभिः।<br />
सद्भिश्च सह संसर्गः कार्यः शमपरायणैः॥ 3-1-26<br />
येषां त्रीण्यवदातानि विद्या योनिश्च कर्म च।<br />
ते सेव्यास्तैः समास्या हि शास्त्रेभ्योऽपि गरीयसी॥ 3-1-27<br />
निरारम्भा ह्यपि वयं पुण्यशीलेषु साधुषु।<br />
पुण्यमेवाप्नुयामेह पापं पापोपसेवनात्॥ 3-1-28<br />
असतां दर्शनात्स्पर्शात्संजल्पाच्च सहासनात्।<br />
धर्माचाराः प्रहीयन्ते सिद्ध्यन्ति च न मानवाः॥ 3-1-29<br />
बुद्धिश्च हीयते पुंसां नीचैः सह समागमात्।<br />
मध्यमैर्मध्यतां याति श्रेष्ठतां याति चोत्तमैः॥ 3-1-30<br />
अनीचैर्नाप्यविषयैर्नाधर्मिष्ठैर्विशेषतः।<br />
ये गुणाः कीर्तिता लोके धर्मकामार्थसम्भवाः।<br />
लोकाचारेषु सम्भूता वेदोक्ताः शिष्टसम्मताः॥ 3-1-31<br />
ते युष्मासु समस्ताश्च व्यस्ताश्चैवेह सद्गुणाः।<br />
इच्छामो गुणवन्मध्ये वस्तुं श्रेयोऽभिकाङ्क्षिणः॥ 3-1-32<br />
[[:Category:association|''association'']]<br />
<br />
युधिष्ठिर उवाच<br />
<br />
धन्या वयं यदस्माकं स्नेहकारुण्ययन्त्रिताः।<br />
असतोऽपि गुणानाहुर्ब्राह्मणप्रमुखाः प्रजाः॥ 3-1-33<br />
तदहं भ्रातृसहितः सर्वान्विज्ञापयामि वः।<br />
नान्यथा तद्धि कर्तव्यमस्मत्स्नेहानुकम्पया॥ 3-1-34<br />
भीष्मः पितामहो राजा विदुरो जननी च मे।<br />
सुहृज्जनश्च प्रायो मे नगरे नागसाह्वये॥ 3-1-35<br />
ते त्वस्मद्धितकामार्थं पालनीयाः प्रयत्नतः।<br />
युष्माभिः सहिताः सर्वे शोकसन्तापविह्वलाः॥ 3-1-36<br />
निवर्ततागता दूरं समागमनशापिताः।<br />
स्वजने न्यासभूते मे कार्या स्नेहान्विता मतिः॥ 3-1-37<br />
एतद्धि मम कार्याणां परमं हृदि संस्थितम्।<br />
कृता तेन तु तुष्टिर्मे सत्कारश्च भविष्यति॥ 3-1-38<br />
[[:Category:Duty|''Duty'']] [[:Category:Responsibility|''Responsibility'']]<br />
<br />
वैशम्पायन उवाच<br />
<br />
तथानुमन्त्रितास्तेन धर्मराजेन ताः प्रजाः।<br />
चक्रुरार्तस्वरं घोरं हा राजन्निति संहताः॥ 3-1-39<br />
गुणान्पार्थस्य संस्मृत्य दुःखार्ताः परमातुराः।<br />
अकामाः सन्न्यवर्तन्त समागम्याथ पाण्डवान्॥ 3-1-40<br />
निवृत्तेषु तु पौरेषु रथानास्थाय पाण्डवाः।<br />
आजग्मुर्जाह्नवीतीरे प्रमाण आख्यं महावटम्॥ 3-1-41<br />
ते तं दिवसशेषेण वटं गत्वा तु पाण्डवाः।<br />
ऊषुस्तां रजनीं वीराः संस्पृश्य सलिलं शुचि॥ 3-1-42<br />
उदकेनैव तां रात्रिमूषुस्ते दुःखकर्षिताः।<br />
अनुजग्मुश्च तत्रैतान्स्नेहात्केचिद्द्विजातयः॥ 3-1-43<br />
साग्नयोऽनग्नयश्चैव सशिष्यगणबान्धवाः।<br />
स तैः परिवृतो राजा शुशुभे ब्रह्मवादिभिः॥ 3-1-44<br />
तेषां प्रादुष्कृताग्नीनां मुहूर्ते रम्यदारुणे।<br />
ब्रह्मघोषपुरस्कारः संजल्पः समजायत॥ 3-1-45<br />
राजानं तु कुरुश्रेष्ठं ते हंसमधुरस्वराः।<br />
आश्वासयन्तो विप्राग्र्याः क्षपां सर्वां व्यनोदयन्॥ 3-1-46<br />
[[:Category:वनवास|''वनवास'']]<br />
<br />
@राजा तु भ्रातृभिस्सार्धं तथा सर्वैस्सुहृद्गणैः।<br />
<br />
अशेत तां निशां राजन्दुःखशोकसमाहितः॥@<br />
<br />
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि अरण्यपर्वणि पौरप्रत्यागमने प्रथमोऽध्यायः॥ 1 ॥</div>
ShraddhaV
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Vanaparva Adhyaya 1 (वनपर्वणि अध्यायः १)
2019-07-08T12:53:26Z
<p>ShraddhaV: </p>
<hr />
<div>जनमेजय उवाच<br />
<br />
एवं द्यूतजिताः पार्थाः कोपिताश्च दुरात्मभिः।<br />
<br />
धार्तराष्ट्रैः सहामात्यैर्निकृत्या द्विजसत्तम॥ 3-1-1<br />
<br />
श्राविताः परुषा वाचः सृजद्भिर्वैरमुत्तमम्।<br />
<br />
किमकुर्वत कौरव्या मम पूर्वपितामहाः॥ 3-1-2<br />
<br />
कथं चैश्वर्यविभ्रष्टाः सहसा दुःखमेयुषः।<br />
<br />
वने विजह्रिरे पार्थाः शक्रप्रतिमतेजसः॥ 3-1-3<br />
<br />
के वै तानन्ववर्तन्त प्राप्तान्व्यसनमुत्तमम्।<br />
<br />
किमाचाराः किमाहाराः क्व च वासो महात्मनाम्॥ 3-1-4<br />
<br />
कथं च द्वादश समा वने तेषां महामुने।<br />
<br />
व्यतीयुर्ब्राह्मणश्रेष्ठ शूराणामरिघातिनाम्॥ 3-1-5<br />
<br />
कथं च राजपुत्री सा प्रवरा सर्वयोषिताम्।<br />
<br />
पतिव्रता महाभागा सततं सत्यवादिनी॥ 3-1-6<br />
<br />
वनवासमदुःखार्हा दारुणं प्रत्यपद्यत।<br />
<br />
एतदाचक्ष्व मे सर्वं विस्तरेण तपोधन॥ 3-1-7<br />
<br />
श्रोतुमिच्छामि चरितं भूरिद्रविणतेजसाम्।<br />
<br />
कथ्यमानं त्वया विप्र परं कौतूहलं हि मे॥ 3-1-8<br />
<br />
वैशम्पायन उवाच<br />
<br />
एवं द्यूतजिताः पार्थाः कोपिताश्च दुरात्मभिः।<br />
<br />
धार्तराष्ट्रैः सहामात्यैर्निर्ययुर्गजसाह्वयात्॥ 3-1-9<br />
<br />
वर्धमानपुरद्वारादभिनिष्क्रम्य पाण्डवाः।<br />
<br />
उदङ्मुखाः शस्त्रभृतः प्रययुः सह कृष्णया॥ 3-1-10<br />
<br />
इन्द्रसेनादयश्चैव भृत्याः परि चतुर्दश।<br />
<br />
रथैरनुययुः शीघ्रैः स्त्रिय आदाय सर्वशः॥ 3-1-11<br />
<br />
गतानेतान्विदित्वा तु पौराः शोकाभिपीडिताः।<br />
<br />
गर्हयन्तोऽसकृद्भीष्मविदुरद्रोणगौतमान्॥ 3-1-12<br />
<br />
ऊचुर्विगतसंत्रासाः समागम्य परस्परम्।<br />
<br />
पौरा ऊचुः।<br />
<br />
नेदमस्ति कुलं सर्वं न वयं न च नो गृहाः॥ 3-1-13<br />
<br />
यत्र दुर्योधनः पापः सौबलयेन[लेनाभि]पालितः।<br />
<br />
कर्णदुःशासनाभ्यां च राज्यमेतच्चिकीर्षति॥ 3-1-14<br />
<br />
न तत्कुलं न चाचारो न धर्मोऽर्थः कुतः सुखम्।<br />
<br />
यत्र पापसहायोऽयं पापो राज्यं चिकीर्षति॥ 3-1-15<br />
<br />
दुर्योधनो गुरुद्वेषी त्यक्ताचारसुहृज्जनः।<br />
<br />
अर्थलुब्धोऽभिमानी च नीचः प्रकृतिनिर्घृणः॥ 3-1-16<br />
<br />
नेयमस्ति मही कृत्स्ना यत्र दुर्योधनो नृपः।<br />
<br />
साधु गच्छामहे सर्वे यत्र गच्छन्ति पाण्डवाः॥ 3-1-17<br />
<br />
सानुक्रोशा महात्मानो विजितेन्द्रियशत्रवः।<br />
<br />
ह्रीमन्तः कीर्तिमन्तश्च धर्माचारपरायणाः॥ 3-1-18<br />
<br />
वैशम्पायन उवाच<br />
<br />
एवमुक्त्वानुजग्मुस्ते पाण्डवांस्तान्समेत्य च।<br />
<br />
ऊचुः प्राञ्जलयः सर्वे कौन्तेयान्माद्रिनन्दनान्॥ 3-1-19<br />
<br />
क्व गमिष्यथ भद्रं वस्त्यक्त्वास्मान्दुःखभागिनः।<br />
<br />
वयमप्यनुयास्यामो यत्र यूयं गमिष्यथ॥ 3-1-20<br />
<br />
अधर्मेण जिताञ्छ्रुत्वा युष्मांस्त्यक्तघृणैः परैः।<br />
<br />
उद्विग्नाः स्मो भृशं सर्वे नास्मान्हातुमिहार्हथ॥ 3-1-21<br />
<br />
भक्तानुरक्तान्सुहृदः सदा प्रियहिते रतान्।<br />
<br />
कुराजाधिष्ठिते राज्ये न विनश्येम सर्वशः॥ 3-1-22<br />
<br />
श्रूयन्तां चाभिधास्यामो गुणदोषान्नरर्षभाः।<br />
<br />
शुभाशुभाधिवासेन संसर्गः कुरुते यथा॥ 3-1-23<br />
<br />
अपोवस्त्रं तिलान्[वस्त्रमापस्तिलान्] भूमिं गन्धो वासयते यथा।<br />
<br />
पुष्पाणामधिवासेन तथा संसर्गजा गुणाः॥ 3-1-24<br />
<br />
मोहजालस्य योनिर्हि मूढैरेव समागमः।<br />
<br />
अहन्यहनि धर्मस्य योनिः साधुसमागमः॥ 3-1-25<br />
<br />
तस्मात्प्राज्ञैश्च वृद्धैश्च सुस्वभावैस्तपस्विभिः।<br />
<br />
सद्भिश्च सह संसर्गः कार्यः शमपरायणैः॥ 3-1-26<br />
<br />
येषां त्रीण्यवदातानि विद्या योनिश्च कर्म च।<br />
<br />
ते सेव्यास्तैः समास्या हि शास्त्रेभ्योऽपि गरीयसी॥ 3-1-27<br />
<br />
निरारम्भा ह्यपि वयं पुण्यशीलेषु साधुषु।<br />
<br />
पुण्यमेवाप्नुयामेह पापं पापोपसेवनात्॥ 3-1-28<br />
<br />
असतां दर्शनात्स्पर्शात्संजल्पाच्च सहासनात्।<br />
<br />
धर्माचाराः प्रहीयन्ते सिद्ध्यन्ति च न मानवाः॥ 3-1-29<br />
<br />
बुद्धिश्च हीयते पुंसां नीचैः सह समागमात्।<br />
<br />
मध्यमैर्मध्यतां याति श्रेष्ठतां याति चोत्तमैः॥ 3-1-30<br />
<br />
अनीचैर्नाप्यविषयैर्नाधर्मिष्ठैर्विशेषतः।<br />
<br />
ये गुणाः कीर्तिता लोके धर्मकामार्थसम्भवाः।<br />
<br />
लोकाचारेषु सम्भूता वेदोक्ताः शिष्टसम्मताः॥ 3-1-31<br />
<br />
ते युष्मासु समस्ताश्च व्यस्ताश्चैवेह सद्गुणाः।<br />
<br />
इच्छामो गुणवन्मध्ये वस्तुं श्रेयोऽभिकाङ्क्षिणः॥ 3-1-32<br />
<br />
युधिष्ठिर उवाच<br />
<br />
धन्या वयं यदस्माकं स्नेहकारुण्ययन्त्रिताः।<br />
<br />
असतोऽपि गुणानाहुर्ब्राह्मणप्रमुखाः प्रजाः॥ 3-1-33<br />
<br />
तदहं भ्रातृसहितः सर्वान्विज्ञापयामि वः।<br />
<br />
नान्यथा तद्धि कर्तव्यमस्मत्स्नेहानुकम्पया॥ 3-1-34<br />
<br />
भीष्मः पितामहो राजा विदुरो जननी च मे।<br />
<br />
सुहृज्जनश्च प्रायो मे नगरे नागसाह्वये॥ 3-1-35<br />
<br />
ते त्वस्मद्धितकामार्थं पालनीयाः प्रयत्नतः।<br />
<br />
युष्माभिः सहिताः सर्वे शोकसन्तापविह्वलाः॥ 3-1-36<br />
<br />
निवर्ततागता दूरं समागमनशापिताः।<br />
<br />
स्वजने न्यासभूते मे कार्या स्नेहान्विता मतिः॥ 3-1-37<br />
<br />
एतद्धि मम कार्याणां परमं हृदि संस्थितम्।<br />
<br />
कृता तेन तु तुष्टिर्मे सत्कारश्च भविष्यति॥ 3-1-38<br />
<br />
वैशम्पायन उवाच<br />
<br />
तथानुमन्त्रितास्तेन धर्मराजेन ताः प्रजाः।<br />
<br />
चक्रुरार्तस्वरं घोरं हा राजन्निति संहताः॥ 3-1-39<br />
<br />
गुणान्पार्थस्य संस्मृत्य दुःखार्ताः परमातुराः।<br />
<br />
अकामाः सन्न्यवर्तन्त समागम्याथ पाण्डवान्॥ 3-1-40<br />
<br />
निवृत्तेषु तु पौरेषु रथानास्थाय पाण्डवाः।<br />
<br />
आजग्मुर्जाह्नवीतीरे प्रमाण आख्यं महावटम्॥ 3-1-41<br />
<br />
ते तं दिवसशेषेण वटं गत्वा तु पाण्डवाः।<br />
<br />
ऊषुस्तां रजनीं वीराः संस्पृश्य सलिलं शुचि॥ 3-1-42<br />
<br />
उदकेनैव तां रात्रिमूषुस्ते दुःखकर्षिताः।<br />
<br />
अनुजग्मुश्च तत्रैतान्स्नेहात्केचिद्द्विजातयः॥ 3-1-43<br />
<br />
साग्नयोऽनग्नयश्चैव सशिष्यगणबान्धवाः।<br />
<br />
स तैः परिवृतो राजा शुशुभे ब्रह्मवादिभिः॥ 3-1-44<br />
<br />
तेषां प्रादुष्कृताग्नीनां मुहूर्ते रम्यदारुणे।<br />
<br />
ब्रह्मघोषपुरस्कारः संजल्पः समजायत॥ 3-1-45<br />
<br />
राजानं तु कुरुश्रेष्ठं ते हंसमधुरस्वराः।<br />
<br />
आश्वासयन्तो विप्राग्र्याः क्षपां सर्वां व्यनोदयन्॥ 3-1-46<br />
<br />
@राजा तु भ्रातृभिस्सार्धं तथा सर्वैस्सुहृद्गणैः।<br />
<br />
अशेत तां निशां राजन्दुःखशोकसमाहितः॥@<br />
<br />
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि अरण्यपर्वणि पौरप्रत्यागमने प्रथमोऽध्यायः॥ 1 ॥</div>
ShraddhaV
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Vanaparva Adhyaya 1 (वनपर्वणि अध्यायः १)
2019-07-08T12:50:16Z
<p>ShraddhaV: slokas added</p>
<hr />
<div>जनमेजय उवाच<br />
एवं द्यूतजिताः पार्थाः कोपिताश्च दुरात्मभिः।<br />
धार्तराष्ट्रैः सहामात्यैर्निकृत्या द्विजसत्तम॥ 3-1-1<br />
श्राविताः परुषा वाचः सृजद्भिर्वैरमुत्तमम्।<br />
किमकुर्वत कौरव्या मम पूर्वपितामहाः॥ 3-1-2<br />
कथं चैश्वर्यविभ्रष्टाः सहसा दुःखमेयुषः।<br />
वने विजह्रिरे पार्थाः शक्रप्रतिमतेजसः॥ 3-1-3<br />
के वै तानन्ववर्तन्त प्राप्तान्व्यसनमुत्तमम्।<br />
किमाचाराः किमाहाराः क्व च वासो महात्मनाम्॥ 3-1-4<br />
कथं च द्वादश समा वने तेषां महामुने।<br />
व्यतीयुर्ब्राह्मणश्रेष्ठ शूराणामरिघातिनाम्॥ 3-1-5<br />
कथं च राजपुत्री सा प्रवरा सर्वयोषिताम्।<br />
पतिव्रता महाभागा सततं सत्यवादिनी॥ 3-1-6<br />
वनवासमदुःखार्हा दारुणं प्रत्यपद्यत।<br />
एतदाचक्ष्व मे सर्वं विस्तरेण तपोधन॥ 3-1-7<br />
श्रोतुमिच्छामि चरितं भूरिद्रविणतेजसाम्।<br />
कथ्यमानं त्वया विप्र परं कौतूहलं हि मे॥ 3-1-8<br />
वैशम्पायन उवाच<br />
एवं द्यूतजिताः पार्थाः कोपिताश्च दुरात्मभिः।<br />
धार्तराष्ट्रैः सहामात्यैर्निर्ययुर्गजसाह्वयात्॥ 3-1-9<br />
वर्धमानपुरद्वारादभिनिष्क्रम्य पाण्डवाः।<br />
उदङ्मुखाः शस्त्रभृतः प्रययुः सह कृष्णया॥ 3-1-10<br />
इन्द्रसेनादयश्चैव भृत्याः परि चतुर्दश।<br />
रथैरनुययुः शीघ्रैः स्त्रिय आदाय सर्वशः॥ 3-1-11<br />
गतानेतान्विदित्वा तु पौराः शोकाभिपीडिताः।<br />
गर्हयन्तोऽसकृद्भीष्मविदुरद्रोणगौतमान्॥ 3-1-12<br />
ऊचुर्विगतसंत्रासाः समागम्य परस्परम्।<br />
पौरा ऊचुः।<br />
नेदमस्ति कुलं सर्वं न वयं न च नो गृहाः॥ 3-1-13<br />
यत्र दुर्योधनः पापः सौबलयेन[लेनाभि]पालितः।<br />
कर्णदुःशासनाभ्यां च राज्यमेतच्चिकीर्षति॥ 3-1-14<br />
न तत्कुलं न चाचारो न धर्मोऽर्थः कुतः सुखम्।<br />
यत्र पापसहायोऽयं पापो राज्यं चिकीर्षति॥ 3-1-15<br />
दुर्योधनो गुरुद्वेषी त्यक्ताचारसुहृज्जनः।<br />
अर्थलुब्धोऽभिमानी च नीचः प्रकृतिनिर्घृणः॥ 3-1-16<br />
नेयमस्ति मही कृत्स्ना यत्र दुर्योधनो नृपः।<br />
साधु गच्छामहे सर्वे यत्र गच्छन्ति पाण्डवाः॥ 3-1-17<br />
सानुक्रोशा महात्मानो विजितेन्द्रियशत्रवः।<br />
ह्रीमन्तः कीर्तिमन्तश्च धर्माचारपरायणाः॥ 3-1-18<br />
वैशम्पायन उवाच<br />
एवमुक्त्वानुजग्मुस्ते पाण्डवांस्तान्समेत्य च।<br />
ऊचुः प्राञ्जलयः सर्वे कौन्तेयान्माद्रिनन्दनान्॥ 3-1-19<br />
क्व गमिष्यथ भद्रं वस्त्यक्त्वास्मान्दुःखभागिनः।<br />
वयमप्यनुयास्यामो यत्र यूयं गमिष्यथ॥ 3-1-20<br />
अधर्मेण जिताञ्छ्रुत्वा युष्मांस्त्यक्तघृणैः परैः।<br />
उद्विग्नाः स्मो भृशं सर्वे नास्मान्हातुमिहार्हथ॥ 3-1-21<br />
भक्तानुरक्तान्सुहृदः सदा प्रियहिते रतान्।<br />
कुराजाधिष्ठिते राज्ये न विनश्येम सर्वशः॥ 3-1-22<br />
श्रूयन्तां चाभिधास्यामो गुणदोषान्नरर्षभाः।<br />
शुभाशुभाधिवासेन संसर्गः कुरुते यथा॥ 3-1-23<br />
अपोवस्त्रं तिलान्[वस्त्रमापस्तिलान्] भूमिं गन्धो वासयते यथा।<br />
पुष्पाणामधिवासेन तथा संसर्गजा गुणाः॥ 3-1-24<br />
मोहजालस्य योनिर्हि मूढैरेव समागमः।<br />
अहन्यहनि धर्मस्य योनिः साधुसमागमः॥ 3-1-25<br />
तस्मात्प्राज्ञैश्च वृद्धैश्च सुस्वभावैस्तपस्विभिः।<br />
सद्भिश्च सह संसर्गः कार्यः शमपरायणैः॥ 3-1-26<br />
येषां त्रीण्यवदातानि विद्या योनिश्च कर्म च।<br />
ते सेव्यास्तैः समास्या हि शास्त्रेभ्योऽपि गरीयसी॥ 3-1-27<br />
निरारम्भा ह्यपि वयं पुण्यशीलेषु साधुषु।<br />
पुण्यमेवाप्नुयामेह पापं पापोपसेवनात्॥ 3-1-28<br />
असतां दर्शनात्स्पर्शात्संजल्पाच्च सहासनात्।<br />
धर्माचाराः प्रहीयन्ते सिद्ध्यन्ति च न मानवाः॥ 3-1-29<br />
बुद्धिश्च हीयते पुंसां नीचैः सह समागमात्।<br />
मध्यमैर्मध्यतां याति श्रेष्ठतां याति चोत्तमैः॥ 3-1-30<br />
अनीचैर्नाप्यविषयैर्नाधर्मिष्ठैर्विशेषतः।<br />
ये गुणाः कीर्तिता लोके धर्मकामार्थसम्भवाः।<br />
लोकाचारेषु सम्भूता वेदोक्ताः शिष्टसम्मताः॥ 3-1-31<br />
ते युष्मासु समस्ताश्च व्यस्ताश्चैवेह सद्गुणाः।<br />
इच्छामो गुणवन्मध्ये वस्तुं श्रेयोऽभिकाङ्क्षिणः॥ 3-1-32<br />
युधिष्ठिर उवाच<br />
धन्या वयं यदस्माकं स्नेहकारुण्ययन्त्रिताः।<br />
असतोऽपि गुणानाहुर्ब्राह्मणप्रमुखाः प्रजाः॥ 3-1-33<br />
तदहं भ्रातृसहितः सर्वान्विज्ञापयामि वः।<br />
नान्यथा तद्धि कर्तव्यमस्मत्स्नेहानुकम्पया॥ 3-1-34<br />
भीष्मः पितामहो राजा विदुरो जननी च मे।<br />
सुहृज्जनश्च प्रायो मे नगरे नागसाह्वये॥ 3-1-35<br />
ते त्वस्मद्धितकामार्थं पालनीयाः प्रयत्नतः।<br />
युष्माभिः सहिताः सर्वे शोकसन्तापविह्वलाः॥ 3-1-36<br />
निवर्ततागता दूरं समागमनशापिताः।<br />
स्वजने न्यासभूते मे कार्या स्नेहान्विता मतिः॥ 3-1-37<br />
एतद्धि मम कार्याणां परमं हृदि संस्थितम्।<br />
कृता तेन तु तुष्टिर्मे सत्कारश्च भविष्यति॥ 3-1-38<br />
वैशम्पायन उवाच<br />
तथानुमन्त्रितास्तेन धर्मराजेन ताः प्रजाः।<br />
चक्रुरार्तस्वरं घोरं हा राजन्निति संहताः॥ 3-1-39<br />
गुणान्पार्थस्य संस्मृत्य दुःखार्ताः परमातुराः।<br />
अकामाः सन्न्यवर्तन्त समागम्याथ पाण्डवान्॥ 3-1-40<br />
निवृत्तेषु तु पौरेषु रथानास्थाय पाण्डवाः।<br />
आजग्मुर्जाह्नवीतीरे प्रमाण आख्यं महावटम्॥ 3-1-41<br />
ते तं दिवसशेषेण वटं गत्वा तु पाण्डवाः।<br />
ऊषुस्तां रजनीं वीराः संस्पृश्य सलिलं शुचि॥ 3-1-42<br />
उदकेनैव तां रात्रिमूषुस्ते दुःखकर्षिताः।<br />
अनुजग्मुश्च तत्रैतान्स्नेहात्केचिद्द्विजातयः॥ 3-1-43<br />
साग्नयोऽनग्नयश्चैव सशिष्यगणबान्धवाः।<br />
स तैः परिवृतो राजा शुशुभे ब्रह्मवादिभिः॥ 3-1-44<br />
तेषां प्रादुष्कृताग्नीनां मुहूर्ते रम्यदारुणे।<br />
ब्रह्मघोषपुरस्कारः संजल्पः समजायत॥ 3-1-45<br />
राजानं तु कुरुश्रेष्ठं ते हंसमधुरस्वराः।<br />
आश्वासयन्तो विप्राग्र्याः क्षपां सर्वां व्यनोदयन्॥ 3-1-46<br />
@राजा तु भ्रातृभिस्सार्धं तथा सर्वैस्सुहृद्गणैः।<br />
अशेत तां निशां राजन्दुःखशोकसमाहितः॥@<br />
इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि अरण्यपर्वणि पौरप्रत्यागमने प्रथमोऽध्यायः॥ 1 ॥</div>
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