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श्रीमद्भगवद्गीता में चारों वर्णों के 'स्व' भावज कर्म बताये हैं। श्रीमद्भगवद्गीता योग 'शास्त्र' है। इस में प्रस्तुत सूत्र हजारों वर्षों से आज तक प्रासंगिक है और आगे भी रहेंगे। 'स्व' भावज कर्म यानी जिनको करने से करने वाले को बोझ नहीं लगता।   
 
श्रीमद्भगवद्गीता में चारों वर्णों के 'स्व' भावज कर्म बताये हैं। श्रीमद्भगवद्गीता योग 'शास्त्र' है। इस में प्रस्तुत सूत्र हजारों वर्षों से आज तक प्रासंगिक है और आगे भी रहेंगे। 'स्व' भावज कर्म यानी जिनको करने से करने वाले को बोझ नहीं लगता।   
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ब्राह्मण के गुण और कर्मों के लक्षणों का वर्णन है<ref>श्रीमद्भगवद्गीता 18-42</ref> <blockquote>शमो दमस्तप: शाप्रचं क्षान्तिरार्जवमेव च ।</blockquote><blockquote>ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम् ॥ 18-42 ॥</blockquote>अर्थात् शम ( मनपर नियंत्रण), दम (इंद्रियों का दमन), तप (कार्य के लिये कठिनाई का सामना करने की शक्ति), शौच (अंतर्बाह्य पवित्रता/शुचिता - जल और माटी से शरीर की और धनशुद्धि, आहारशुद्धि और आचारशुद्धि से आसक्ति, कपट, द्वेषभाव आदि को दूर करने वाली आंतरिक शुद्धि), शान्ति (बिना हडबडाए व्यवहार करना), आस्तिक्यम् (आस्तिक बुध्दि), ज्ञान (ब्रह्म) और विज्ञान(अष्टधा प्रकृति) की समझ और वैसा व्यवहार।  
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ब्राह्मण के गुण और कर्मों के लक्षणों का वर्णन है<ref>श्रीमद्भगवद्गीता 18-42</ref> <blockquote>शमो दमस्तप: शाप्रचं क्षान्तिरार्जवमेव च ।</blockquote><blockquote>ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम् ॥ 18-42 ॥</blockquote>अर्थात् शम ( मनपर नियंत्रण), दम (इंद्रियों का दमन), तप (कार्य के लिये कठिनाई का सामना करने की शक्ति), शौच (अंतर्बाह्य पवित्रता/शुचिता - जल और माटी से शरीर की और धनशुद्धि, आहारशुद्धि और आचारशुद्धि से आसक्ति, कपट, द्वेषभाव आदि को दूर करने वाली आंतरिक शुद्धि), शान्ति (बिना हडबडाए व्यवहार करना), आस्तिक्यम् (आस्तिक बुद्धि), ज्ञान (ब्रह्म) और विज्ञान(अष्टधा प्रकृति) की समझ और वैसा व्यवहार।  
    
मनुस्मृति में ब्राह्मण के कर्म बताए गये हैं<ref>मनुस्मृति: 1-88</ref>: <blockquote>अध्यापनमध्ययनं यजनं याजनं तथा ।</blockquote><blockquote>दानं प्रतिग्रहंचैव ब्राह्मणानामकल्पयत् ॥ 1-88 ॥</blockquote>अर्थ : पढना / पढाना, यज्ञ करना/कराना और दान लेना/देना यह ब्राह्मण के कर्म है।  
 
मनुस्मृति में ब्राह्मण के कर्म बताए गये हैं<ref>मनुस्मृति: 1-88</ref>: <blockquote>अध्यापनमध्ययनं यजनं याजनं तथा ।</blockquote><blockquote>दानं प्रतिग्रहंचैव ब्राह्मणानामकल्पयत् ॥ 1-88 ॥</blockquote>अर्थ : पढना / पढाना, यज्ञ करना/कराना और दान लेना/देना यह ब्राह्मण के कर्म है।  

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