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== प्रस्तावना ==
 
== प्रस्तावना ==
वर्तमान में वर्ण व्यवस्था का अस्तित्व लगभग नष्ट हो गया है। वर्ण तो परमात्मा के बनाए होते हैं अतः उन्हें नष्ट करने की सामर्थ्य मनुष्य जाति में नहीं है। लेकिन वर्ण की शुद्धि, वृद्धि और समायोजन की व्यवस्था को हमने उपेक्षित और दुर्लक्षित कर दिया है। इस कारण जिन भिन्न भिन्न प्रकार की सामाजिक और व्यक्तिगत समस्याओं और अव्यवस्थाओं का सामना करना पड रहा है उसकी कल्पना भी हमें नहीं है। ब्राह्मण वर्ण के लोगों का प्रभाव समाज में बहुत हुआ करता था। इसे अंग्रेज जान गए थे। ऐसा नहीं कि उस समय के सभी ब्राह्मण बहुत तपस्वी थे, लेकिन ऐसे तप करनेवाले ब्राह्मण भी रहे होंगे। हम भी देखते हैं कि हिन्दुत्ववादी से लेकर कांग्रेसी तथा कम्यूनिस्ट विचारधारा के प्रारम्भ के नेताओं में ब्राह्मण वर्ण के लोग बड़ी संख्या में थे। डॉ. बाबासाहेब अम्बेडकर के लिए अत्यंत आदरणीय ऐसे उनके शिक्षक श्री आम्बावडेकर से लेकर तो उनके विविध आन्दोलनों में सहभागी कई नेता ब्राह्मण थे।
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वर्तमान में वर्ण व्यवस्था का अस्तित्व लगभग नष्ट हो गया है। वर्ण तो परमात्मा के बनाए होते हैं अतः उन्हें नष्ट करने की सामर्थ्य मनुष्य जाति में नहीं है। लेकिन वर्ण की शुद्धि, वृद्धि और समायोजन की व्यवस्था को हमने उपेक्षित और दुर्लक्षित कर दिया है। इस कारण जिन भिन्न भिन्न प्रकार की सामाजिक और व्यक्तिगत समस्याओं और अव्यवस्थाओं का सामना करना पड रहा है उसकी कल्पना भी हमें नहीं है। ब्राह्मण वर्ण के लोगोंं का प्रभाव समाज में बहुत हुआ करता था। इसे अंग्रेज जान गए थे। ऐसा नहीं कि उस समय के सभी ब्राह्मण बहुत तपस्वी थे, लेकिन ऐसे तप करनेवाले ब्राह्मण भी रहे होंगे। हम भी देखते हैं कि हिन्दुत्ववादी से लेकर कांग्रेसी तथा कम्यूनिस्ट विचारधारा के प्रारम्भ के नेताओं में ब्राह्मण वर्ण के लोग बड़ी संख्या में थे। डॉ. बाबासाहेब अम्बेडकर के लिए अत्यंत आदरणीय ऐसे उनके शिक्षक श्री आम्बावडेकर से लेकर तो उनके विविध आन्दोलनों में सहभागी कई नेता ब्राह्मण थे।
    
किसी व्यवस्था को तोड़ना तुलना में आसान होता है। लेकिन व्यवस्था निर्माण करना अत्यंत कठिन काम होता है। हमने वर्ण व्यवस्था का कोई विकल्प ढूँढे बिना ही इसे नष्ट होने दिया है यह बुद्धिमानी का लक्षण तो नहीं है। ऐसे तो हम नहीं थे। इस परिप्रेक्ष में हमें वर्ण व्यवस्था को समझना होगा।<ref>जीवन का धार्मिक प्रतिमान-खंड १, अध्याय १५ लेखक - दिलीप केलकर</ref>
 
किसी व्यवस्था को तोड़ना तुलना में आसान होता है। लेकिन व्यवस्था निर्माण करना अत्यंत कठिन काम होता है। हमने वर्ण व्यवस्था का कोई विकल्प ढूँढे बिना ही इसे नष्ट होने दिया है यह बुद्धिमानी का लक्षण तो नहीं है। ऐसे तो हम नहीं थे। इस परिप्रेक्ष में हमें वर्ण व्यवस्था को समझना होगा।<ref>जीवन का धार्मिक प्रतिमान-खंड १, अध्याय १५ लेखक - दिलीप केलकर</ref>
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== स्वतंत्रता की रक्षा की जिम्मेदारियां ==
 
== स्वतंत्रता की रक्षा की जिम्मेदारियां ==
मानव जीवन का सामाजिक स्तर पर लक्ष्य स्वतंत्रता है। स्वतंत्रता तीन प्रकार की होती है। आर्थिक स्वतंत्रता, शासनिक स्वतंत्रता और स्वाभाविक स्वतंत्रता। स्वाभाविक स्वतंत्रता में शासनिक और आर्थिक इन दोनों स्वतंत्रताओं का समावेश होता है। पूरे समाज की स्वाभाविक स्वतंत्रता की रक्षा करने की जिम्मेदारी ब्राह्मण वर्ण के लोगों की है। इसी तरह शासनिक और आर्थिक इन दोनों स्वतंत्रताओं का समावेश शासनिक स्वतंत्रता में हो जाता है। शासनिक स्वतंत्रता की रक्षा की जिम्मेदारी क्षत्रिय वर्ण के लोगों की है। और आर्थिक स्वतंत्रता की रक्षा की जिम्मेदारी वैश्य की है। स्वाभाविक स्वतंत्रता का अर्थ है मनुष्य को अपने किसी भी स्वाभाविक कर्म को जो अन्यों का अहित करनेवाला नहीं है, के करने में किसी भी प्रकार का कोई अवरोध नहीं हो। ऐसे ही शासनिक स्वतंत्रता का अर्थ है मनुष्य को अपने किसी भी स्वाभाविक कर्म को जो अन्यों का अहित करनेवाला नहीं है, के करने में किसी भी प्रकार का शासनिक अवरोध नहीं हो। इसी तरह आर्थिक स्वतंत्रता से तात्पर्य है कि मनुष्य को अपने किसी भी स्वाभाविक कर्म जो अन्यों का अहित करनेवाला नहीं है, के करने में किसी भी प्रकार का आर्थिक अवरोध न हो। इस प्रकार से सारे समाज की स्वाभाविक (सर्वोच्च) स्वतंत्रता की जिम्मेदारी लेने के कारण (लेने वाला) ब्राह्मण सर्वोच्च सम्मान का अधिकारी बनता है। ऐसी जिम्मेदारी न लेने वाला ब्राह्मण सर्वोच्च सम्मान का अधिकारी नहीं बन सकता। इसी तरह जो क्षत्रिय, समाज की शासनिक स्वतंत्रता की रक्षा की जिम्मेदारी नहीं लेता वह भी दूसरे क्रमांक के सम्मान का अधिकारी नहीं रहता। यही बात आर्थिक स्वतंत्रता के सम्बन्ध में वैश्य के लिए भी लागू है।
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मानव जीवन का सामाजिक स्तर पर लक्ष्य स्वतंत्रता है। स्वतंत्रता तीन प्रकार की होती है। आर्थिक स्वतंत्रता, शासनिक स्वतंत्रता और स्वाभाविक स्वतंत्रता। स्वाभाविक स्वतंत्रता में शासनिक और आर्थिक इन दोनों स्वतंत्रताओं का समावेश होता है। पूरे समाज की स्वाभाविक स्वतंत्रता की रक्षा करने की जिम्मेदारी ब्राह्मण वर्ण के लोगोंं की है। इसी तरह शासनिक और आर्थिक इन दोनों स्वतंत्रताओं का समावेश शासनिक स्वतंत्रता में हो जाता है। शासनिक स्वतंत्रता की रक्षा की जिम्मेदारी क्षत्रिय वर्ण के लोगोंं की है। और आर्थिक स्वतंत्रता की रक्षा की जिम्मेदारी वैश्य की है। स्वाभाविक स्वतंत्रता का अर्थ है मनुष्य को अपने किसी भी स्वाभाविक कर्म को जो अन्यों का अहित करनेवाला नहीं है, के करने में किसी भी प्रकार का कोई अवरोध नहीं हो। ऐसे ही शासनिक स्वतंत्रता का अर्थ है मनुष्य को अपने किसी भी स्वाभाविक कर्म को जो अन्यों का अहित करनेवाला नहीं है, के करने में किसी भी प्रकार का शासनिक अवरोध नहीं हो। इसी तरह आर्थिक स्वतंत्रता से तात्पर्य है कि मनुष्य को अपने किसी भी स्वाभाविक कर्म जो अन्यों का अहित करनेवाला नहीं है, के करने में किसी भी प्रकार का आर्थिक अवरोध न हो। इस प्रकार से सारे समाज की स्वाभाविक (सर्वोच्च) स्वतंत्रता की जिम्मेदारी लेने के कारण (लेने वाला) ब्राह्मण सर्वोच्च सम्मान का अधिकारी बनता है। ऐसी जिम्मेदारी न लेने वाला ब्राह्मण सर्वोच्च सम्मान का अधिकारी नहीं बन सकता। इसी तरह जो क्षत्रिय, समाज की शासनिक स्वतंत्रता की रक्षा की जिम्मेदारी नहीं लेता वह भी दूसरे क्रमांक के सम्मान का अधिकारी नहीं रहता। यही बात आर्थिक स्वतंत्रता के सम्बन्ध में वैश्य के लिए भी लागू है।
    
वर्ण व्यवस्था यह इस सामाजिक विभूति संयम को और स्वतंत्रता की रक्षा की व्यवहार में आश्वस्ति हेतु निर्माण की गई व्यवस्था है।
 
वर्ण व्यवस्था यह इस सामाजिक विभूति संयम को और स्वतंत्रता की रक्षा की व्यवहार में आश्वस्ति हेतु निर्माण की गई व्यवस्था है।
    
== वर्ण व्यवस्था और वर्ण अनुशासन ==
 
== वर्ण व्यवस्था और वर्ण अनुशासन ==
परमात्मा ने सृष्टि को संतुलन के साथ बनाया है। संतुलन बनाए रखने की व्यवस्था भी की है। अर्थात् मनुष्य निर्माण किया है तो उस की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये प्राकृतिक संसाधन भी बनाए है। मनुष्य समाज ठीक से जी सके इस लिये चार प्रकार की प्रवृत्तियों के लोगों को आवश्यक अनुपात में परमात्मा पैदा करता ही रहता है। इसी लिये श्रीमद्भगवद्गीता<ref>श्रीमद्भगवद्गीता 4-13</ref> में भगवान कहते है:<blockquote>चातुर्वर्ण्यम् मया सृष्टं गुणकर्म विभागश:  (4-13)</blockquote>जिस वर्ण का वह मनुष्य होता है उस के गुण लक्षण अन्य वर्ण के मनुष्य से भिन्न होते है। हिन्दू समाज की विशेषता यह रही की इस के मार्गदर्शकों ने, पूर्वजन्मों के कर्मों के अनुसार नये जन्म में वर्ण विशेष का ‘स्वभाव ‘ लेकर आये मनुष्य के इन वर्णों के गुण लक्षणों को समझकर, समाज में इन का संतुलन बनाये रखने के लिये इन्हें एक व्यवस्था में ढाला। जन्म से या शिशु अवस्था से वर्ण तय होने से वर्ण के अनुसार संस्कार और शिक्षा के माध्यम से बालक के वर्णगत गुणों में शुद्धि और वृद्धि की जा सकती है। इसी व्यवस्था को वर्ण व्यवस्था कहते है। वर्ण व्यवस्था के दो प्रमुख अंग है।
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परमात्मा ने सृष्टि को संतुलन के साथ बनाया है। संतुलन बनाए रखने की व्यवस्था भी की है। अर्थात् मनुष्य निर्माण किया है तो उस की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये प्राकृतिक संसाधन भी बनाए है। मनुष्य समाज ठीक से जी सके इस लिये चार प्रकार की प्रवृत्तियों के लोगोंं को आवश्यक अनुपात में परमात्मा पैदा करता ही रहता है। इसी लिये श्रीमद्भगवद्गीता<ref>श्रीमद्भगवद्गीता 4-13</ref> में भगवान कहते है:<blockquote>चातुर्वर्ण्यम् मया सृष्टं गुणकर्म विभागश:  (4-13)</blockquote>जिस वर्ण का वह मनुष्य होता है उस के गुण लक्षण अन्य वर्ण के मनुष्य से भिन्न होते है। हिन्दू समाज की विशेषता यह रही की इस के मार्गदर्शकों ने, पूर्वजन्मों के कर्मों के अनुसार नये जन्म में वर्ण विशेष का ‘स्वभाव ‘ लेकर आये मनुष्य के इन वर्णों के गुण लक्षणों को समझकर, समाज में इन का संतुलन बनाये रखने के लिये इन्हें एक व्यवस्था में ढाला। जन्म से या शिशु अवस्था से वर्ण तय होने से वर्ण के अनुसार संस्कार और शिक्षा के माध्यम से बालक के वर्णगत गुणों में शुद्धि और वृद्धि की जा सकती है। इसी व्यवस्था को वर्ण व्यवस्था कहते है। वर्ण व्यवस्था के दो प्रमुख अंग है।
 
# वर्ण विशेष के गुण लक्षण लेकर आये शिशु / बालक  का 'स्वभाव' और गुण लक्षणों को समझना। अर्थात शिशु / बालक का वर्ण तय करना।
 
# वर्ण विशेष के गुण लक्षण लेकर आये शिशु / बालक  का 'स्वभाव' और गुण लक्षणों को समझना। अर्थात शिशु / बालक का वर्ण तय करना।
 
# शिशु / बालक के तय किये वर्ण के गुण लक्षणों में शुद्धि और वृद्धि के लिये अनुकूल और अनुरूप संस्कार और शिक्षा की व्यवस्था करना। ऐसा करने से वर्णगत गुणों की तीव्रता में शुद्धि और वृद्धि होती है। समाज सुसंस्कृत बनता है।
 
# शिशु / बालक के तय किये वर्ण के गुण लक्षणों में शुद्धि और वृद्धि के लिये अनुकूल और अनुरूप संस्कार और शिक्षा की व्यवस्था करना। ऐसा करने से वर्णगत गुणों की तीव्रता में शुद्धि और वृद्धि होती है। समाज सुसंस्कृत बनता है।
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=== वर्णों की विशेषताएं ===
 
=== वर्णों की विशेषताएं ===
मनुष्य जो भी कुछ ज्ञानेंद्रियों के माध्यम से अनुभव करता है उसे वह दिमाग में संग्रहित करता है। उस का विश्लेषण करता है और शरीर के विभिन्न कर्मेन्द्रियों को 'कर्म करने की' सूचना देता है। सामान्यत: कर्मेंद्रिय इस सूचना के अनुसार कर्म करते है। जब किसी मनुष्य में मस्तिष्क या कर्मेन्द्रिय इस प्रकार से काम नहीं करते इसे अस्वस्थता का या रोग का लक्षण माना जाता हे। समाज में मस्तिष्क की भूमिका ब्राह्मण वर्ण के लोगों की होती है। ब्राह्मण ज्ञान प्राप्त करते है। फिर उस ज्ञान का विश्लेषण कर मानव समाज की समस्याओं को सुलझाने के लिये सुझाव देते है। समाज में यदि कुछ अनिष्ट निर्माण हुए हैं तो उनकी प्राथमिक जिम्मेदारी ब्राह्मण वर्ण के लोगों की है।  
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मनुष्य जो भी कुछ ज्ञानेंद्रियों के माध्यम से अनुभव करता है उसे वह दिमाग में संग्रहित करता है। उस का विश्लेषण करता है और शरीर के विभिन्न कर्मेन्द्रियों को 'कर्म करने की' सूचना देता है। सामान्यत: कर्मेंद्रिय इस सूचना के अनुसार कर्म करते है। जब किसी मनुष्य में मस्तिष्क या कर्मेन्द्रिय इस प्रकार से काम नहीं करते इसे अस्वस्थता का या रोग का लक्षण माना जाता हे। समाज में मस्तिष्क की भूमिका ब्राह्मण वर्ण के लोगोंं की होती है। ब्राह्मण ज्ञान प्राप्त करते है। फिर उस ज्ञान का विश्लेषण कर मानव समाज की समस्याओं को सुलझाने के लिये सुझाव देते है। समाज में यदि कुछ अनिष्ट निर्माण हुए हैं तो उनकी प्राथमिक जिम्मेदारी ब्राह्मण वर्ण के लोगोंं की है।  
    
मनुष्य के शरीर में हाथ बाहर के खतरों से शरीर की रक्षा करते है। कहीं खुजली होती है, मोच आती है तो ऐसी शरीर की अंतर्गत समस्याओं के निवारण का भी काम करते है। इसी तरह समाज में क्षत्रिय वर्ण के लोग समाज का बाहरी और आंतरिक खतरों से रक्षण करते है।  
 
मनुष्य के शरीर में हाथ बाहर के खतरों से शरीर की रक्षा करते है। कहीं खुजली होती है, मोच आती है तो ऐसी शरीर की अंतर्गत समस्याओं के निवारण का भी काम करते है। इसी तरह समाज में क्षत्रिय वर्ण के लोग समाज का बाहरी और आंतरिक खतरों से रक्षण करते है।  
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वैश्यों के कर्म के विषय में लिखा है<ref>मनुस्मृति 1-90</ref>: <blockquote>पशूनां रक्षणं दानमिज्याध्ययनमेव च ।</blockquote><blockquote>वणिक्पथं कुसीदंच वैश्यस्य कृषिमेव च ॥ 1-90 ॥</blockquote>अर्थ : पशूपालन, दान देना, यज्ञ करना, अध्ययन करना, व्यापार करना, साहुकारी और खेती करना यह वैश्य के स्वाभाविक कर्म है।  
 
वैश्यों के कर्म के विषय में लिखा है<ref>मनुस्मृति 1-90</ref>: <blockquote>पशूनां रक्षणं दानमिज्याध्ययनमेव च ।</blockquote><blockquote>वणिक्पथं कुसीदंच वैश्यस्य कृषिमेव च ॥ 1-90 ॥</blockquote>अर्थ : पशूपालन, दान देना, यज्ञ करना, अध्ययन करना, व्यापार करना, साहुकारी और खेती करना यह वैश्य के स्वाभाविक कर्म है।  
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शूद्र का एकमेव कर्म परिचर्या बताया है:<ref>श्रीमद्भगवद्गीता 18-44</ref> <blockquote>परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यपि स्वभावजम् । </blockquote><blockquote>एकमेव तु शूद्रस्य प्रभु: कर्म समादिशत्  ।। 18-44।।</blockquote><blockquote>एतेषामेव वर्णानाम् शुश्रुषामनसूयया  ॥<ref>मनुस्मृति 1-91</ref> </blockquote>मन में द्वेषभाव न रखते हुए अन्य तीनों वर्णों के लोगों की असूया न रखते हुए सेवा आदि करना शूद्र के कर्म है।  
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शूद्र का एकमेव कर्म परिचर्या बताया है:<ref>श्रीमद्भगवद्गीता 18-44</ref> <blockquote>परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यपि स्वभावजम् । </blockquote><blockquote>एकमेव तु शूद्रस्य प्रभु: कर्म समादिशत्  ।। 18-44।।</blockquote><blockquote>एतेषामेव वर्णानाम् शुश्रुषामनसूयया  ॥<ref>मनुस्मृति 1-91</ref> </blockquote>मन में द्वेषभाव न रखते हुए अन्य तीनों वर्णों के लोगोंं की असूया न रखते हुए सेवा आदि करना शूद्र के कर्म है।  
    
श्रीमद्भगवद्गीता में आगे बताया है<ref>श्रीमद्भगवद्गीता 18-4</ref>: <blockquote>स्वे स्वे कर्मण्यभिरत: संसिद्धिं लभते नरा ।। 18-4 ।।</blockquote>याने अपने वर्ण के स्वभावज कर्मों को करने से ही सिद्धि प्राप्त होती है। अन्य वर्ण के स्वभावज कर्मों को करने से नहीं । आगे और बताया है<ref>श्रीमद्भगवद्गीता 18-47</ref> <blockquote>श्रेयान स्वधर्मों विगुणा: परधर्मात्स्वनुष्ठितात ।। 18-47 ।।</blockquote>याने अपने वर्ण के स्वभावज कर्म हेय लगने पर भी उन्हे ही करना चाहिये।  
 
श्रीमद्भगवद्गीता में आगे बताया है<ref>श्रीमद्भगवद्गीता 18-4</ref>: <blockquote>स्वे स्वे कर्मण्यभिरत: संसिद्धिं लभते नरा ।। 18-4 ।।</blockquote>याने अपने वर्ण के स्वभावज कर्मों को करने से ही सिद्धि प्राप्त होती है। अन्य वर्ण के स्वभावज कर्मों को करने से नहीं । आगे और बताया है<ref>श्रीमद्भगवद्गीता 18-47</ref> <blockquote>श्रेयान स्वधर्मों विगुणा: परधर्मात्स्वनुष्ठितात ।। 18-47 ।।</blockquote>याने अपने वर्ण के स्वभावज कर्म हेय लगने पर भी उन्हे ही करना चाहिये।  
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महाभारत में शांतिपर्व १८९.४ और ८ में तथा अनुशासन पर्व में शंकर पार्वती से कहते हैं कि हीन कुल में जन्मा हुआ शूद्र भी यदि आगम संपन्न याने धर्मज्ञानी हो तो उसे ब्राह्मण मानना चाहिए। इसका अर्थ है यदि वह इतनी योग्यतावाला है तो केवल शूद्र के घर में पैदा हुआ है अतः उसे ब्राह्मणत्व नकारना उचित नहीं है। डॉ. बाबासाहब अम्बेडकर जैसे लोगों के विषय में ही शायद ऐसा कहा होगा ऐसा लगता है।  
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महाभारत में शांतिपर्व १८९.४ और ८ में तथा अनुशासन पर्व में शंकर पार्वती से कहते हैं कि हीन कुल में जन्मा हुआ शूद्र भी यदि आगम संपन्न याने धर्मज्ञानी हो तो उसे ब्राह्मण मानना चाहिए। इसका अर्थ है यदि वह इतनी योग्यतावाला है तो केवल शूद्र के घर में पैदा हुआ है अतः उसे ब्राह्मणत्व नकारना उचित नहीं है। डॉ. बाबासाहब अम्बेडकर जैसे लोगोंं के विषय में ही शायद ऐसा कहा होगा ऐसा लगता है।  
    
== वर्ण निश्चिति और वर्ण शिक्षा ==
 
== वर्ण निश्चिति और वर्ण शिक्षा ==
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जो बच्चे इस आयु तक अपने को सिद्ध नहीं कर पाते उन की आगे भी परीक्षा चलती रहती थी। परीक्षा के आधारपर ब्राह्मण को उपनयन का सोलह वर्ष तक, क्षत्रिय को बावीस वर्ष तक और वैश्य को चौबीस वर्ष तक अवसर होता था। (2-38)
 
जो बच्चे इस आयु तक अपने को सिद्ध नहीं कर पाते उन की आगे भी परीक्षा चलती रहती थी। परीक्षा के आधारपर ब्राह्मण को उपनयन का सोलह वर्ष तक, क्षत्रिय को बावीस वर्ष तक और वैश्य को चौबीस वर्ष तक अवसर होता था। (2-38)
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इस आयु तक जो अपने को इन तीन वर्णों के योग्य सिद्ध नहीं कर पाते थे, उन्हें शूद्र वर्ण प्राप्त होता था। अपने को सिद्ध करने का पूरा अवसर मिलने के कारण और अपनी अक्षमता समझ में आने से जिसे शूद्र वर्ण प्राप्त होता था उस में सामान्यत: अन्य वर्णों के लोगों के प्रति असूया का भाव पनपता नहीं था।
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इस आयु तक जो अपने को इन तीन वर्णों के योग्य सिद्ध नहीं कर पाते थे, उन्हें शूद्र वर्ण प्राप्त होता था। अपने को सिद्ध करने का पूरा अवसर मिलने के कारण और अपनी अक्षमता समझ में आने से जिसे शूद्र वर्ण प्राप्त होता था उस में सामान्यत: अन्य वर्णों के लोगोंं के प्रति असूया का भाव पनपता नहीं था।
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बगैर किसी भेदभाव के हर बच्चे को उस के स्वभाव, गुण, लक्षणों के अनुसार वर्ण की प्राप्ति होती थी। इसलिये एक वर्ण के मानव का दूसरे वर्ण के मानव के साथ कोई द्वेषभाव नहीं रहता था। अपने स्वभाव के अनुसार कर्म करने की दृष्टि से शिक्षण और प्रशिक्षण प्राप्त होने से बच्चा अपने स्वाभाविक कर्मों में और व्यवसाय में भी कुशल बन जाता था। अपनी व्यावसायिक कुशलता का अभिमान संजोता था। अपने व्यवसाय को उसे बोझ नहीं होता था। व्यवसाय के काम में आनंद लेता था और लोगों को भी आनंद ही बाँटता था। बालक के जन्म से वर्ण जानने के और उसे और सुनिश्चित करने के कई उपाय हुआ करते थे। इन में से कुछ तो हर माता पिता को पता होते थे। ऐसे कुछ उपायों का विवरण हम आगे देखेंगे।
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बगैर किसी भेदभाव के हर बच्चे को उस के स्वभाव, गुण, लक्षणों के अनुसार वर्ण की प्राप्ति होती थी। इसलिये एक वर्ण के मानव का दूसरे वर्ण के मानव के साथ कोई द्वेषभाव नहीं रहता था। अपने स्वभाव के अनुसार कर्म करने की दृष्टि से शिक्षण और प्रशिक्षण प्राप्त होने से बच्चा अपने स्वाभाविक कर्मों में और व्यवसाय में भी कुशल बन जाता था। अपनी व्यावसायिक कुशलता का अभिमान संजोता था। अपने व्यवसाय को उसे बोझ नहीं होता था। व्यवसाय के काम में आनंद लेता था और लोगोंं को भी आनंद ही बाँटता था। बालक के जन्म से वर्ण जानने के और उसे और सुनिश्चित करने के कई उपाय हुआ करते थे। इन में से कुछ तो हर माता पिता को पता होते थे। ऐसे कुछ उपायों का विवरण हम आगे देखेंगे।
    
आगे गुरूकुलों में केवल ब्राह्मण और क्षत्रिय की ही शिक्षा होने लगी। वैश्य बच्चों की व्यावसायिक कुशलता की शिक्षा परिवार में और धर्म की शिक्षा लोक-शिक्षा के माध्यम से होने लगी। काल के प्रवाह में आवश्यकता के अनुसार ऐसे परिवर्तन तो हुए होंगे।
 
आगे गुरूकुलों में केवल ब्राह्मण और क्षत्रिय की ही शिक्षा होने लगी। वैश्य बच्चों की व्यावसायिक कुशलता की शिक्षा परिवार में और धर्म की शिक्षा लोक-शिक्षा के माध्यम से होने लगी। काल के प्रवाह में आवश्यकता के अनुसार ऐसे परिवर्तन तो हुए होंगे।
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# चाणक्य का सूत्र कहता है - लालयेत पंचवर्षाणि दश वर्षाणि ताडयेत् । इस का अर्थ है कि पाँच वर्ष तक बालक को लाड प्यार ही देना चाहिये। कोई बात उस के मन के विपरीत नहीं करनीं चाहिये। इस का यह अर्थ नहीं है कि बच्चे को आग में भी हाथ डालने देना चाहिये। इस से उस बच्चे का जो स्वभाव है वैसा ही व्यवहार बच्चा करता है। भयमुक्त और दबावमुक्त ऐसे वातावरण में बच्चा उसके स्वभाव के अनुरूप ही सहजता से व्यवहार करता है। बच्चे के इस सहज व्यवहार से भी वर्ण की पुष्टि हो सकती है। शुध्द सात्विक स्वभाव ब्राह्मण वर्ण का, सात्विक और राजसी का मेल क्षत्रिय वर्ण का, राजसी और तामसी का मेल वैश्य वर्ण का और तामसी स्वभाव शूद्र वर्ण का परिचायक होता है।
 
# चाणक्य का सूत्र कहता है - लालयेत पंचवर्षाणि दश वर्षाणि ताडयेत् । इस का अर्थ है कि पाँच वर्ष तक बालक को लाड प्यार ही देना चाहिये। कोई बात उस के मन के विपरीत नहीं करनीं चाहिये। इस का यह अर्थ नहीं है कि बच्चे को आग में भी हाथ डालने देना चाहिये। इस से उस बच्चे का जो स्वभाव है वैसा ही व्यवहार बच्चा करता है। भयमुक्त और दबावमुक्त ऐसे वातावरण में बच्चा उसके स्वभाव के अनुरूप ही सहजता से व्यवहार करता है। बच्चे के इस सहज व्यवहार से भी वर्ण की पुष्टि हो सकती है। शुध्द सात्विक स्वभाव ब्राह्मण वर्ण का, सात्विक और राजसी का मेल क्षत्रिय वर्ण का, राजसी और तामसी का मेल वैश्य वर्ण का और तामसी स्वभाव शूद्र वर्ण का परिचायक होता है।
 
# जिन बच्चों की जन्मपत्रिकाएं या तो बनीं नहीं है या जिनकी जन्मतिथि और समय ठीक से ज्ञात नहीं है ऐसे बच्चों के लिये १५ वर्ष के बाद जब हस्त-रेखाएं कुछ पक्की होने लगती है हस्त-सामुद्रिक या हस्त-रेखा देखकर भी बच्चे या मनुष्य के वर्ण का अनुमान लगाया जा सकता है।  
 
# जिन बच्चों की जन्मपत्रिकाएं या तो बनीं नहीं है या जिनकी जन्मतिथि और समय ठीक से ज्ञात नहीं है ऐसे बच्चों के लिये १५ वर्ष के बाद जब हस्त-रेखाएं कुछ पक्की होने लगती है हस्त-सामुद्रिक या हस्त-रेखा देखकर भी बच्चे या मनुष्य के वर्ण का अनुमान लगाया जा सकता है।  
# जब किसी को व्यवसाय या नित्यकर्म बोझ लगता है, सहजता से सफलता नहीं मिलती तब यह स्पष्ट है कि उस का वर्तमान व्यवसाय और काम का स्वरुप उस के वर्ण से मेल नहीं खाता । उसी तरह जब किसी को व्यवसाय या नित्यकर्म बोझ नहीं लगता है, सहजता से सफलता मिलती है तब यह स्पष्ट है कि उस का वर्तमान व्यवसाय और काम का स्वरुप उस की जाति और उस के वर्ण से मेल खाता है । इस कसौटी का उपयोग जिन का वर्तमान व्यवसाय और काम का स्वरुप उन की जाति और उन के वर्ण से मेल खाता है ऐसे लोगों का समाज में प्रतिशत जानने तक ही सीमित है । उतने प्रतिशत लोगों को वर्ण और जाति यह व्यवस्थाएं शास्त्रसंमत ही है, और जाने अनजाने में तथा पूर्व पुण्य के कारण, वर्ण और जाति व्यवस्था के तत्वों का पालन होनेसे वे सुखी है, यह ठीक से समझाना होगा । आगे भी इन लाभों को बनाए रखने के लिये उन्हे प्रेरित करना होगा। उन का अनुसरण करने के लिये औरों को भी प्रेरित करना होगा।
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# जब किसी को व्यवसाय या नित्यकर्म बोझ लगता है, सहजता से सफलता नहीं मिलती तब यह स्पष्ट है कि उस का वर्तमान व्यवसाय और काम का स्वरुप उस के वर्ण से मेल नहीं खाता । उसी तरह जब किसी को व्यवसाय या नित्यकर्म बोझ नहीं लगता है, सहजता से सफलता मिलती है तब यह स्पष्ट है कि उस का वर्तमान व्यवसाय और काम का स्वरुप उस की जाति और उस के वर्ण से मेल खाता है । इस कसौटी का उपयोग जिन का वर्तमान व्यवसाय और काम का स्वरुप उन की जाति और उन के वर्ण से मेल खाता है ऐसे लोगोंं का समाज में प्रतिशत जानने तक ही सीमित है । उतने प्रतिशत लोगोंं को वर्ण और जाति यह व्यवस्थाएं शास्त्रसंमत ही है, और जाने अनजाने में तथा पूर्व पुण्य के कारण, वर्ण और जाति व्यवस्था के तत्वों का पालन होनेसे वे सुखी है, यह ठीक से समझाना होगा । आगे भी इन लाभों को बनाए रखने के लिये उन्हे प्रेरित करना होगा। उन का अनुसरण करने के लिये औरों को भी प्रेरित करना होगा।
    
== वर्ण संतुलन व्यवस्था ==
 
== वर्ण संतुलन व्यवस्था ==
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श्रीमद्भागवत में भी ऐसे कई उदाहरण दिये गये है।
 
श्रीमद्भागवत में भी ऐसे कई उदाहरण दिये गये है।
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वर्तमान में भी जो शूद्र माने जाते है, उनके बच्चों की जन्मपत्रियों को देखें तो दिखाई देगा कि चारों वर्णों के बच्चे उन में है। और जो ब्राह्मण माने जाते है, ऐसे कई ब्राह्मणों के बच्चों की जन्मपत्रियों के अनुसार उन में ब्राह्मण वर्ण का कोई भी बच्चा नहीं है। तात्पर्य यह है कि पूरा परिवार एक वर्ण का ही हो यह आवश्यक नहीं है। एक ही परिवार में भिन्न वर्ण के लोगों का होना स्वाभाविक है। लेकिन माता पिता से, आनुवांशिकता से आये पूर्वजों के अन्वयागत संस्कार या व्यावसायिक कुशलताओं के संस्कार आनुवांशिक होने से पूरा परिवार होगा उसी जाति का जो उन के पुरखों की थी।
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वर्तमान में भी जो शूद्र माने जाते है, उनके बच्चों की जन्मपत्रियों को देखें तो दिखाई देगा कि चारों वर्णों के बच्चे उन में है। और जो ब्राह्मण माने जाते है, ऐसे कई ब्राह्मणों के बच्चों की जन्मपत्रियों के अनुसार उन में ब्राह्मण वर्ण का कोई भी बच्चा नहीं है। तात्पर्य यह है कि पूरा परिवार एक वर्ण का ही हो यह आवश्यक नहीं है। एक ही परिवार में भिन्न वर्ण के लोगोंं का होना स्वाभाविक है। लेकिन माता पिता से, आनुवांशिकता से आये पूर्वजों के अन्वयागत संस्कार या व्यावसायिक कुशलताओं के संस्कार आनुवांशिक होने से पूरा परिवार होगा उसी जाति का जो उन के पुरखों की थी।
    
== यत् पिंडे तत् ब्रह्माण्डे ==
 
== यत् पिंडे तत् ब्रह्माण्डे ==
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इस दृष्टि से धार्मिक (धार्मिक) जाति व्यवस्था में एक जाति में भी उन्हीं गुणधर्मों का होना जो एक जीवंत इकाई जैसे मनुष्य या एक जीवंत बडी इकाई समाज या राष्ट्र में पाये जाते है, उन का होना यह स्वाभाविक ही है। इस का कारण है कि जाति भी एक जीवंत इकाई है। धार्मिक (धार्मिक) मान्यता के अनुसार समाज की कल्पना एक विराट समाज पुरूष के रूप में की गयी है। जैसे एक सामान्य मनुष्य के भिन्न भिन्न अंग मनुष्य के लिए भिन्न भिन्न क्रियाएं करते है। इसी तरह यह कहा गया कि समाज में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चार वर्णों के लोग हर समाज में होते ही है। यह केवल धार्मिक (धार्मिक) समाज में होते है ऐसी बात नहीं है। जिन समाजों में वर्णव्यवस्था नहीं है ऐसे विश्व के सभी समाजों का निरीक्षण करने से यह ध्यान में आ जाएगा कि उन में भी ऐसी चार वृत्तियों के लोग पाये जाते है। उन समाजों में वर्णव्यवस्था नहीं है लेकिन वर्ण तो हैं ही।  
 
इस दृष्टि से धार्मिक (धार्मिक) जाति व्यवस्था में एक जाति में भी उन्हीं गुणधर्मों का होना जो एक जीवंत इकाई जैसे मनुष्य या एक जीवंत बडी इकाई समाज या राष्ट्र में पाये जाते है, उन का होना यह स्वाभाविक ही है। इस का कारण है कि जाति भी एक जीवंत इकाई है। धार्मिक (धार्मिक) मान्यता के अनुसार समाज की कल्पना एक विराट समाज पुरूष के रूप में की गयी है। जैसे एक सामान्य मनुष्य के भिन्न भिन्न अंग मनुष्य के लिए भिन्न भिन्न क्रियाएं करते है। इसी तरह यह कहा गया कि समाज में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चार वर्णों के लोग हर समाज में होते ही है। यह केवल धार्मिक (धार्मिक) समाज में होते है ऐसी बात नहीं है। जिन समाजों में वर्णव्यवस्था नहीं है ऐसे विश्व के सभी समाजों का निरीक्षण करने से यह ध्यान में आ जाएगा कि उन में भी ऐसी चार वृत्तियों के लोग पाये जाते है। उन समाजों में वर्णव्यवस्था नहीं है लेकिन वर्ण तो हैं ही।  
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इस तर्क के आधार पर यदि कहा जाए कि हर जाति एक जीवंत इकाई होने के कारण इस में भी ऐसी ही चार वृत्तियों के लोगों का होना अनिवार्य है, स्वाभाविक है तो इस तर्क को गलत नहीं कहा जा सकता। अर्थात् हर जाति में चार वर्णों के लोग होते ही है, इसे मान्य करना होगा। कोई भी शास्त्र इसे नकारता नहीं है।  
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इस तर्क के आधार पर यदि कहा जाए कि हर जाति एक जीवंत इकाई होने के कारण इस में भी ऐसी ही चार वृत्तियों के लोगोंं का होना अनिवार्य है, स्वाभाविक है तो इस तर्क को गलत नहीं कहा जा सकता। अर्थात् हर जाति में चार वर्णों के लोग होते ही है, इसे मान्य करना होगा। कोई भी शास्त्र इसे नकारता नहीं है।  
    
==References==
 
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