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संस्कृति के विषय में बहुत सारी भ्रामक कल्पनाएँ वर्तमान में समाज में प्रतिष्ठित हैं। नाचना, गाना, सिनेमा, नाटक आदि जैसे मनोरंजन के कार्यक्रमों को संस्कृति माना जा रहा है। विभिन्न सांस्कृतिक कार्यक्रमों के आयोजन में इसी भ्रम का प्रदर्शन दिखाई देता है। शासकीय कार्यक्रमों में भी यही देखने को मिलता है। विभिन्न देशों में सांस्कृतिक लेनदेन के कार्यक्रमों में ऐसे ही मनोरंजन करनेवाले नाच, गाने, नाटकों के जत्थे भेजे जाते हैं। ऐसी संस्कृति के विस्तार के लिए तो हमारे ऋषि मुनियों ने विश्वसंचार के उपक्रम नहीं किये थे। फिर वह कैसी संस्कृति थी?  
 
संस्कृति के विषय में बहुत सारी भ्रामक कल्पनाएँ वर्तमान में समाज में प्रतिष्ठित हैं। नाचना, गाना, सिनेमा, नाटक आदि जैसे मनोरंजन के कार्यक्रमों को संस्कृति माना जा रहा है। विभिन्न सांस्कृतिक कार्यक्रमों के आयोजन में इसी भ्रम का प्रदर्शन दिखाई देता है। शासकीय कार्यक्रमों में भी यही देखने को मिलता है। विभिन्न देशों में सांस्कृतिक लेनदेन के कार्यक्रमों में ऐसे ही मनोरंजन करनेवाले नाच, गाने, नाटकों के जत्थे भेजे जाते हैं। ऐसी संस्कृति के विस्तार के लिए तो हमारे ऋषि मुनियों ने विश्वसंचार के उपक्रम नहीं किये थे। फिर वह कैसी संस्कृति थी?  
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अंग्रेजी में संस्कृति के लिए कल्चर शब्द का प्रयोग होता है। ऑक्स्फ़र्ड डिक्शनरी के अनुसार कल्चर शब्द का अर्थ है साहित्य, कला, संगीत आदि; किसी समाज या देश की कला, रीति-रिवाज आदि की विकसित समझ। (डेव्हलप्ड अंडरस्टैंडिंग ऑफ़ लिटरेचर, आर्ट, म्यूझिक आदि; आर्ट; कस्टम्स ऑफ़ ए परटीक्यूलर कंट्री ऑर सोसायटी)। विकसित समझ से तात्पर्य क्या है स्पष्ट नहीं किया गया है। शायद उसका तात्पर्य गहरी समझ से हो सकता है। याने किसी समाज के साहित्य, संगीत, कला, रीति रिवाज की अभिव्यक्ति ठीक से जिस में होती है वह संस्कृति है। शायद इसी समझ के कारण हमारे सांस्कृतिक प्रतिनिधि मण्डल केवल नाचगाना और नाटक मंडली तक सीमित रहता है। वेबस्टर डिक्शनरी में भी कुछ ऐसे ही अर्थ बताया गया है।  
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अंग्रेजी में संस्कृति के लिए कल्चर शब्द का प्रयोग होता है। ऑक्स्फ़र्ड डिक्शनरी के अनुसार कल्चर शब्द का अर्थ है साहित्य, कला, संगीत आदि; किसी समाज या देश की कला, रीति-रिवाज आदि की विकसित समझ। (डेव्हलप्ड अंडरस्टैंडिंग ऑफ़ लिटरेचर, आर्ट, म्यूझिक आदि; आर्ट; कस्टम्स ऑफ़ ए परटीक्यूलर कंट्री ऑर सोसायटी)। विकसित समझ से तात्पर्य क्या है स्पष्ट नहीं किया गया है। संभवतः उसका तात्पर्य गहरी समझ से हो सकता है। याने किसी समाज के साहित्य, संगीत, कला, रीति रिवाज की अभिव्यक्ति ठीक से जिस में होती है वह संस्कृति है। संभवतः इसी समझ के कारण हमारे सांस्कृतिक प्रतिनिधि मण्डल केवल नाचगाना और नाटक मंडली तक सीमित रहता है। वेबस्टर डिक्शनरी में भी कुछ ऐसे ही अर्थ बताया गया है।  
    
संस्कृति और सभ्यता इन दो विषयों में भी बहुत अस्पष्टता दिखाई देती है। अंग्रेजी में सिव्हिलायझेशन शब्द का प्रयोग सभ्यता इस शब्द के लिए किया जाता है। सिव्हिलायझेशन शब्द सिव्हिल शब्द से बना है। ऑक्स्फ़र्ड डिक्शनरी के अनुसार सिव्हिल शब्द के दो अर्थ दिए हैं।   
 
संस्कृति और सभ्यता इन दो विषयों में भी बहुत अस्पष्टता दिखाई देती है। अंग्रेजी में सिव्हिलायझेशन शब्द का प्रयोग सभ्यता इस शब्द के लिए किया जाता है। सिव्हिलायझेशन शब्द सिव्हिल शब्द से बना है। ऑक्स्फ़र्ड डिक्शनरी के अनुसार सिव्हिल शब्द के दो अर्थ दिए हैं।   
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== वर्तमान जीवन की गति और संस्कृति ==
 
== वर्तमान जीवन की गति और संस्कृति ==
विश्व गति करता है इसीलिये विश्व को जगत भी कहते हैं। गति ही जीवन है। गतिशून्यता मृत्यू है। अतः जीवन चलते रहने के लिए गति आवश्यक होती है। लेकिन जीवन की गति जब बहुत अधिक हो जाती है तब बड़ी मात्रा में समाज के दुर्बल घटक उस गति के साथ चल नहीं पाते। ऐसा होने से वे अन्यों से पिछड़ जाते हैं। दु:खी हो जाते हैं। लेकिन जीवन जब इष्ट गति से चलता है तब वह सबको सुखमय होता है। इष्ट गति से तात्पर्य उस गति से है जिस गति से समाज का अंतिम व्यक्ति भी साथ चल सके। इष्ट गति से कम या अधिक गति जब समाज जीवन को मिलती है तब समाज सुख से दूर जाता है। वर्तमान में जीवन को जो गति मिली है वह जीवन की इष्ट गति से बहुत ही अधिक है। इस बढ़ी हुई गति के कारण जीवन में किसी भी प्रकार का ठहराव नहीं आ पाता। ठहराव, विकास का विरोधी है ऐसी भावना व्याप्त हो गयी है। केवल ठहराव ही नहीं तो कम गति भी विकास के विरोध में मानी जाती है। वर्तमान जीवन ने लोगोंं को पगढ़ीला बना दिया है। आवागमन के क्षिप्रा गति के साधनों के कारण समाज घुमंतू बन रहा है। घुमंतू जातियों की भी कुछ संस्कृति होती है। क्यों कि घुमंतू स्वभाव छोड़ दें तो उनका जीवन ठहराव से भरा रहता है। घुमंतू स्वभाव के कारण संस्कृति शायद श्रेष्ठ नहीं होगी लेकिन होती अवश्य है। लेकिन वर्तमान तंत्रज्ञान के, और तेजी से विकास की तीव्र इच्छा के कारण समाज में कोई ठहराव की संभावनाएं नहीं रहतीं।
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विश्व गति करता है इसीलिये विश्व को जगत भी कहते हैं। गति ही जीवन है। गतिशून्यता मृत्यू है। अतः जीवन चलते रहने के लिए गति आवश्यक होती है। लेकिन जीवन की गति जब बहुत अधिक हो जाती है तब बड़ी मात्रा में समाज के दुर्बल घटक उस गति के साथ चल नहीं पाते। ऐसा होने से वे अन्यों से पिछड़ जाते हैं। दु:खी हो जाते हैं। लेकिन जीवन जब इष्ट गति से चलता है तब वह सबको सुखमय होता है। इष्ट गति से तात्पर्य उस गति से है जिस गति से समाज का अंतिम व्यक्ति भी साथ चल सके। इष्ट गति से कम या अधिक गति जब समाज जीवन को मिलती है तब समाज सुख से दूर जाता है। वर्तमान में जीवन को जो गति मिली है वह जीवन की इष्ट गति से बहुत ही अधिक है। इस बढ़ी हुई गति के कारण जीवन में किसी भी प्रकार का ठहराव नहीं आ पाता। ठहराव, विकास का विरोधी है ऐसी भावना व्याप्त हो गयी है। केवल ठहराव ही नहीं तो कम गति भी विकास के विरोध में मानी जाती है। वर्तमान जीवन ने लोगोंं को पगढ़ीला बना दिया है। आवागमन के क्षिप्रा गति के साधनों के कारण समाज घुमंतू बन रहा है। घुमंतू जातियों की भी कुछ संस्कृति होती है। क्यों कि घुमंतू स्वभाव छोड़ दें तो उनका जीवन ठहराव से भरा रहता है। घुमंतू स्वभाव के कारण संस्कृति संभवतः श्रेष्ठ नहीं होगी लेकिन होती अवश्य है। लेकिन वर्तमान तंत्रज्ञान के, और तेजी से विकास की तीव्र इच्छा के कारण समाज में कोई ठहराव की संभावनाएं नहीं रहतीं।
    
लेकिन जीवन जब तक इष्ट गति से नहीं चलता उसमें धर्म की भावना, संस्कृति पनप ही नहीं सकती। संस्कृति के लिए ठहराव आवश्यक होता है। लेकिन ठहराव से तो जीवन ही नष्ट हो जाएगा। अतः इष्ट गति वह गति है जिसमें धर्म तथा संस्कृति के पनपने के लिए वातावरण रहे। जब समाज के सारे लोग समान (इष्ट) गति से आगे बढ़ाते हैं तब वे एक सापेक्ष ठहराव की स्थिति को प्राप्त करते हैं। यह सापेक्ष ठहराव ही संस्कृति के विकास के लिए भूमि बनाता है। वर्तमान जीवन की गति विश्व की सभी समाजों की संस्कृतियों को नष्ट कर रही हैं। विश्व के सभी राष्ट्रों के सम्मुख संस्कृति की रक्षा की चुनौती निर्माण हो गयी है। यह गति जिस सामाजिक जीवन के अधार्मिक (अधार्मिक) प्रतिमान में हम जी रहे हैं उसका स्वाभाविक परिणाम है।
 
लेकिन जीवन जब तक इष्ट गति से नहीं चलता उसमें धर्म की भावना, संस्कृति पनप ही नहीं सकती। संस्कृति के लिए ठहराव आवश्यक होता है। लेकिन ठहराव से तो जीवन ही नष्ट हो जाएगा। अतः इष्ट गति वह गति है जिसमें धर्म तथा संस्कृति के पनपने के लिए वातावरण रहे। जब समाज के सारे लोग समान (इष्ट) गति से आगे बढ़ाते हैं तब वे एक सापेक्ष ठहराव की स्थिति को प्राप्त करते हैं। यह सापेक्ष ठहराव ही संस्कृति के विकास के लिए भूमि बनाता है। वर्तमान जीवन की गति विश्व की सभी समाजों की संस्कृतियों को नष्ट कर रही हैं। विश्व के सभी राष्ट्रों के सम्मुख संस्कृति की रक्षा की चुनौती निर्माण हो गयी है। यह गति जिस सामाजिक जीवन के अधार्मिक (अधार्मिक) प्रतिमान में हम जी रहे हैं उसका स्वाभाविक परिणाम है।
    
== धार्मिक संस्कृति की श्रेष्ठता ==
 
== धार्मिक संस्कृति की श्रेष्ठता ==
भारत ने कभी भी आक्रमण नहीं किया। दूसरे पर किसी भी कारण के बिना लूटपाट के लिए, अत्याचार के लिए आक्रमण करना यह एक मानवीय विकृति है। विश्व में ऐसा शायद एक भी समाज का उदाहरण नहीं है जो बलवान बना और उसने औरों की लूट करने के लिए, औरों को गुलाम बनाने के लिए अन्य समाजों पर आक्रमण नहीं किये। फिर भी धार्मिक  संस्कृति ने दुनिया को जीता था। कैसे ? वैसे तो ईसा पूर्व के काल में कुछ सैनिक अभियान भी हुए लेकिन वे कभी भी जनता की लूटमार करने के लिए नहीं हुए। धार्मिक  संस्कृति के वैश्विक विस्तार के कारण सभी राज्यों की जनता समान संस्कृति की थी। अतः वे आक्रमण एक राष्ट्र द्वारा  दूसरे राष्ट्र पर किये हुए आक्रमण के स्वरूप के नहीं थे। एक ही राष्ट्र के अन्दर होनेवाले राजाओं के संघर्ष जैसे ही थे।  
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भारत ने कभी भी आक्रमण नहीं किया। दूसरे पर किसी भी कारण के बिना लूटपाट के लिए, अत्याचार के लिए आक्रमण करना यह एक मानवीय विकृति है। विश्व में ऐसा संभवतः एक भी समाज का उदाहरण नहीं है जो बलवान बना और उसने औरों की लूट करने के लिए, औरों को गुलाम बनाने के लिए अन्य समाजों पर आक्रमण नहीं किये। तथापि धार्मिक  संस्कृति ने दुनिया को जीता था। कैसे ? वैसे तो ईसा पूर्व के काल में कुछ सैनिक अभियान भी हुए लेकिन वे कभी भी जनता की लूटमार करने के लिए नहीं हुए। धार्मिक  संस्कृति के वैश्विक विस्तार के कारण सभी राज्यों की जनता समान संस्कृति की थी। अतः वे आक्रमण एक राष्ट्र द्वारा  दूसरे राष्ट्र पर किये हुए आक्रमण के स्वरूप के नहीं थे। एक ही राष्ट्र के अन्दर होनेवाले राजाओं के संघर्ष जैसे ही थे।  
    
== धार्मिक संस्कृति का विश्वसंचार ==
 
== धार्मिक संस्कृति का विश्वसंचार ==
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2.  अरबस्तान में इस्लामी सत्ता का सन 632 में उदय हुआ। लेकिन हमारे राष्ट्र की धर्मसत्ता और राजसत्ता दोनों इससे बेखबर रहे। परिणाम स्वरूप विपरीत संस्कृति वाली यह सत्ता भौगोलिक दृष्टि से भारत राष्ट्र की भूमि पर विस्तार पाती गई।  
 
2.  अरबस्तान में इस्लामी सत्ता का सन 632 में उदय हुआ। लेकिन हमारे राष्ट्र की धर्मसत्ता और राजसत्ता दोनों इससे बेखबर रहे। परिणाम स्वरूप विपरीत संस्कृति वाली यह सत्ता भौगोलिक दृष्टि से भारत राष्ट्र की भूमि पर विस्तार पाती गई।  
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3. ईरान के अग्निपूजक पारसी लोग इस्लाम के आक्रमण से ध्वस्त होकर इसवी सन 637 से 641 के मध्य भारत में शरण लेने आए। फिर भी हमारे राष्ट्र की धर्मसत्ता और राजसत्ता दोनों इससे बेखबर रहे।  
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3. ईरान के अग्निपूजक पारसी लोग इस्लाम के आक्रमण से ध्वस्त होकर इसवी सन 637 से 641 के मध्य भारत में शरण लेने आए। तथापि हमारे राष्ट्र की धर्मसत्ता और राजसत्ता दोनों इससे बेखबर रहे।  
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4.  सन 642 तक इस्लामी सत्ता उपगणस्थान (वर्तमान अफगानिस्तान) को पादाक्रांत कर हिंदुकुश तक आ पहुँची। महाभारत का गांधार ही वर्तमान अफगानिस्तान है। काबुल, जाबुल, कंदाहार, गजनी आदि इस्लामी सत्ता ने जीत लिये। गजनी के हिन्दू शासकों ने अवरोध अवश्य किया फिर भी भारत की भूमि आक्रांत हुई। बडी संख्या में हिंदुओं का धर्मांतर होता रहा। विरोध करनेवालों का कत्ले-आम भी होता रहा। हिंदुओं की आबादी कम होती गई और इस कारण हिंदू प्रतिरोध भी नष्ट होता गया। भारत की धर्मसत्ता और राजसत्ता दोनों विस्तार की दृष्टि से निष्क्रीय रहे। भारत की भूमि घट गई।  
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4.  सन 642 तक इस्लामी सत्ता उपगणस्थान (वर्तमान अफगानिस्तान) को पादाक्रांत कर हिंदुकुश तक आ पहुँची। महाभारत का गांधार ही वर्तमान अफगानिस्तान है। काबुल, जाबुल, कंदाहार, गजनी आदि इस्लामी सत्ता ने जीत लिये। गजनी के हिन्दू शासकों ने अवरोध अवश्य किया तथापि भारत की भूमि आक्रांत हुई। बडी संख्या में हिंदुओं का धर्मांतर होता रहा। विरोध करनेवालों का कत्ले-आम भी होता रहा। हिंदुओं की आबादी कम होती गई और इस कारण हिंदू प्रतिरोध भी नष्ट होता गया। भारत की धर्मसत्ता और राजसत्ता दोनों विस्तार की दृष्टि से निष्क्रीय रहे। भारत की भूमि घट गई।  
    
5. सिंध के पतन के इतिहास में यद्यपि बाप्पा रावल ने ईरान तक प्रत्याक्रमण किया<ref>मुस्लिम आक्रमण का हिंदू प्रतिरोध, डॉ शरद हेबाळकर, पृष्ठ 14-15 </ref> लेकिन इस का प्रभाव इस्लामी सत्ता पर अधिक समय तक नहीं रहा। सन 743 तक मुस्लिम सेनाएँ गुजरात, मालवा तक भारत के अंदर घुस गई थीं। बडे पैमाने पर हिंदुओं के कत्ले-आम और धर्मांतर होते रहे। ‘देवल स्मृति’ का निर्माण हुआ। धर्मांतरित लोगोंं को परावर्तित कर फिर से हिंदू बनाने का प्रावधान इस स्मृति में किया गया था। इस के आधार पर परावर्तन के कुछ क्षीण दौर भी चले होंगे। लेकिन यह दौर जो मूलत: हिंदू थे केवल उनके परावर्तन के लिये थे और बहुत ही कम संख्या में हुए । मूलत: मुस्लिम आक्रांताओं को हिंदू बनाकर हिंदू संस्कृति के विस्तार की दृष्टि से कोई विचार नहीं हुआ।   
 
5. सिंध के पतन के इतिहास में यद्यपि बाप्पा रावल ने ईरान तक प्रत्याक्रमण किया<ref>मुस्लिम आक्रमण का हिंदू प्रतिरोध, डॉ शरद हेबाळकर, पृष्ठ 14-15 </ref> लेकिन इस का प्रभाव इस्लामी सत्ता पर अधिक समय तक नहीं रहा। सन 743 तक मुस्लिम सेनाएँ गुजरात, मालवा तक भारत के अंदर घुस गई थीं। बडे पैमाने पर हिंदुओं के कत्ले-आम और धर्मांतर होते रहे। ‘देवल स्मृति’ का निर्माण हुआ। धर्मांतरित लोगोंं को परावर्तित कर फिर से हिंदू बनाने का प्रावधान इस स्मृति में किया गया था। इस के आधार पर परावर्तन के कुछ क्षीण दौर भी चले होंगे। लेकिन यह दौर जो मूलत: हिंदू थे केवल उनके परावर्तन के लिये थे और बहुत ही कम संख्या में हुए । मूलत: मुस्लिम आक्रांताओं को हिंदू बनाकर हिंदू संस्कृति के विस्तार की दृष्टि से कोई विचार नहीं हुआ।   
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जो धर्मांतरित हो गये हैं उन्हें हिन्दू बनाना तो दूर ही रहा, मूलत: जो अहिंदू हैं उन्हें हिंदू बनाने की कल्पना भी हमारे मन में नहीं आती थी। हिंदू धर्मांतरित होते रहे। मरते कटते रहे। हमारी धर्मसत्ता और राजसत्ता निष्क्रीय रही। 1947 को स्वाधीनता प्राप्ति तक अफगानिस्तान, सिंध, आधा पंजाब, आधा कश्मीर, आधा बंगाल यानी भारत का एक बडा हिस्सा मुस्लिम बहुल हो गया। राष्ट्र का हिस्सा नहीं रहा। इस इलाके में हिंदू अल्पसंख्य हुए, हिंदू असंगठित हुए, हिंदू दुर्बल हुए। परिणामस्वरूप यह हिस्सा भारत के भूगोल का हिस्सा नहीं रहा। इस भूमि पर रहनेवालों का धर्म और राज्य दोनों हिंदू नहीं रहे। भारत की धर्मसत्ता और भारत की राजसत्ता देखती रही।  
 
जो धर्मांतरित हो गये हैं उन्हें हिन्दू बनाना तो दूर ही रहा, मूलत: जो अहिंदू हैं उन्हें हिंदू बनाने की कल्पना भी हमारे मन में नहीं आती थी। हिंदू धर्मांतरित होते रहे। मरते कटते रहे। हमारी धर्मसत्ता और राजसत्ता निष्क्रीय रही। 1947 को स्वाधीनता प्राप्ति तक अफगानिस्तान, सिंध, आधा पंजाब, आधा कश्मीर, आधा बंगाल यानी भारत का एक बडा हिस्सा मुस्लिम बहुल हो गया। राष्ट्र का हिस्सा नहीं रहा। इस इलाके में हिंदू अल्पसंख्य हुए, हिंदू असंगठित हुए, हिंदू दुर्बल हुए। परिणामस्वरूप यह हिस्सा भारत के भूगोल का हिस्सा नहीं रहा। इस भूमि पर रहनेवालों का धर्म और राज्य दोनों हिंदू नहीं रहे। भारत की धर्मसत्ता और भारत की राजसत्ता देखती रही।  
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6. स्वाधीनता के उपरांत भी धर्मान्तरण जनित विस्तारवाद की ओर हमारी राजसत्ता और धर्मसत्ता अनदेखी करती रहीं। शुतुर्मुर्ग की नीति अपनाती रहीं। संविधान में धर्मांतरण को मूलभूत अधिकारों में डाल दिया गया। इस संविधान के प्रावधान का लाभ लेकर देश में धर्म परिवर्तन करने वाले राष्ट्रीयता में सेंध लगाते रहे। किसी भी आस्था में परिवर्तन के बगैर छल, कपट, धन और गुंडागर्दी के सहारे हिंदूओं का धर्मांतरण करते रहे। नियोगी कमिशन की अनुशंसाओं के तथ्य नकारे नहीं जा सकते थे। फिर भी संविधान में सुधार करने के स्थानपर संविधान का बहाना बनाकर आनेवाली सभी सरकारें इस समस्या की ओर अनदेखी करती रहीं। धर्मसत्ता भी अपनी आत्मघाती मानप्रतिष्ठा में व्यस्त रही। सबसे बडा चिंता का विषय यह है कि राष्ट्र की धर्मसत्ता और राजसत्ता में तालमेल के बताए उपर्युक्त तीन अपवाद छोडकर लगभग १२०० वर्षों में सामान्यत: कभी भी धर्मसत्ता और राज्यसत्ता का कोई तालमेल ही नहीं रहा।  
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6. स्वाधीनता के उपरांत भी धर्मान्तरण जनित विस्तारवाद की ओर हमारी राजसत्ता और धर्मसत्ता अनदेखी करती रहीं। शुतुर्मुर्ग की नीति अपनाती रहीं। संविधान में धर्मांतरण को मूलभूत अधिकारों में डाल दिया गया। इस संविधान के प्रावधान का लाभ लेकर देश में धर्म परिवर्तन करने वाले राष्ट्रीयता में सेंध लगाते रहे। किसी भी आस्था में परिवर्तन के बगैर छल, कपट, धन और गुंडागर्दी के सहारे हिंदूओं का धर्मांतरण करते रहे। नियोगी कमिशन की अनुशंसाओं के तथ्य नकारे नहीं जा सकते थे। तथापि संविधान में सुधार करने के स्थानपर संविधान का बहाना बनाकर आनेवाली सभी सरकारें इस समस्या की ओर अनदेखी करती रहीं। धर्मसत्ता भी अपनी आत्मघाती मानप्रतिष्ठा में व्यस्त रही। सबसे बडा चिंता का विषय यह है कि राष्ट्र की धर्मसत्ता और राजसत्ता में तालमेल के बताए उपर्युक्त तीन अपवाद छोडकर लगभग १२०० वर्षों में सामान्यत: कभी भी धर्मसत्ता और राज्यसत्ता का कोई तालमेल ही नहीं रहा।  
    
== अंग्रेजी शासन का भारत राष्ट्र की संस्कृति पर परिणाम ==
 
== अंग्रेजी शासन का भारत राष्ट्र की संस्कृति पर परिणाम ==
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[[Category:Dharmik Jeevan Pratiman (धार्मिक जीवन प्रतिमान - भाग १)]]
 
[[Category:Dharmik Jeevan Pratiman (धार्मिक जीवन प्रतिमान - भाग १)]]
 
[[Category:Dharmik Jeevan Pratiman (धार्मिक जीवन प्रतिमान)]]
 
[[Category:Dharmik Jeevan Pratiman (धार्मिक जीवन प्रतिमान)]]
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[[Category:Dharmik Jeevan Pratimaan Paathykram]]

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