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== संहिता स्कन्ध के उपस्कन्ध ==
 
== संहिता स्कन्ध के उपस्कन्ध ==
संहिता स्कन्ध अपने आप मेम एक अत्यन्त विशाल कल्पवृक्ष के समान है, जिसमें प्रकृति एवं खगोलीय तादात्म्य के आधार पर विविध देशों, प्राणियों और वनस्पतियों में होने वाले भेद और फल का बडे ही उदात्त भाव से वर्णन किया गया है। प्राणिविज्ञान, वनस्पतिविज्ञान, कृषिविज्ञान, वृष्टि एवं ऋतुविज्ञान, पर्यावरणविज्ञान, जलविज्ञान, अर्थशास्त्र, भूगर्भविज्ञान भूगोल और मनोविज्ञान के साथ-साथ सामुद्रिकशास्त्र, रत्नविज्ञान, धर्मशास्त्र, कर्मकाण्ड का विज्ञानिक पक्ष, स्वरोदयशास्त्र, मुहूर्तशास्त्र, स्वप्नशास्त्र के सभी विषयों का अंतर्भाव सरलता से इस स्कंध में होता है।<ref>श्याम देव मिश्र, [http://egyankosh.ac.in//handle/123456789/80812 ज्योतिष शास्त्र के अंग], प्रमुख स्कन्ध-संहिता, सन् २०२१, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, नई दिल्ली (पृ० २०६)।</ref> यदि इन सभी विषयों को स्थूलरूप से वर्गीकृत करें तो संहिता के कुछ उपस्कंध समझ में आते हैं जिन पर भारतीय ज्योतिष के इतिहास में ग्रन्थ मिलते हैं-
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संहिता स्कन्ध अपने आप मेम एक अत्यन्त विशाल कल्पवृक्ष के समान है, जिसमें प्रकृति एवं खगोलीय तादात्म्य के आधार पर विविध देशों, प्राणियों और वनस्पतियों में होने वाले भेद और फल का बडे ही उदात्त भाव से वर्णन किया गया है। प्राणिविज्ञान, वनस्पतिविज्ञान, कृषिविज्ञान, वृष्टि एवं ऋतुविज्ञान, पर्यावरणविज्ञान, जलविज्ञान, अर्थशास्त्र, भूगर्भविज्ञान भूगोल और मनोविज्ञान के साथ-साथ सामुद्रिकशास्त्र, रत्नविज्ञान, धर्मशास्त्र, कर्मकाण्ड का विज्ञानिक पक्ष, स्वरोदयशास्त्र, मुहूर्तशास्त्र, स्वप्नशास्त्र के सभी विषयों का अंतर्भाव सरलता से इस स्कंध में होता है।<ref name=":0">श्याम देव मिश्र, [http://egyankosh.ac.in//handle/123456789/80812 ज्योतिष शास्त्र के अंग], प्रमुख स्कन्ध-संहिता, सन् २०२१, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, नई दिल्ली (पृ० २०६)।</ref> यदि इन सभी विषयों को स्थूलरूप से वर्गीकृत करें तो संहिता के कुछ उपस्कंध समझ में आते हैं जिन पर भारतीय ज्योतिष के इतिहास में ग्रन्थ मिलते हैं-
    
'''संहिता स्कन्ध-''' शकुन, स्वप्न, सामुद्रिकशास्त्र, वास्तु, मुहूर्त, अर्घ और वृष्टि। इन उपस्कन्धों के भी विषय की दृष्टि से और विभाग हो सकते हैं, जिससे कि संहिता में शोध को नई दिशा मिल सके।
 
'''संहिता स्कन्ध-''' शकुन, स्वप्न, सामुद्रिकशास्त्र, वास्तु, मुहूर्त, अर्घ और वृष्टि। इन उपस्कन्धों के भी विषय की दृष्टि से और विभाग हो सकते हैं, जिससे कि संहिता में शोध को नई दिशा मिल सके।
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'''शकुन'''
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==== शकुन ====
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प्राकृतिक संकेत या जानवरों एवं पक्षियों की चेष्टाएं और ध्वनियां अंगस्फुरण (अंगों का फ़डकना) तथा पल्लीपतन आदि मुख्यतया शकुन के विचारणीय विषय हैं। वसन्तराज का 'वसन्तराजशकुनम् ' शकुनशास्त्र का प्रसिद्ध ग्रन्थ है। शुभ और अशुभ इन दोनों प्रकार के शकुनों के फल इस ग्रन्थ में वर्णित हैं। बृहत्संहिता में उत्पातों भूकम्प आदि के लक्षण में एवं कृषि की सूचना में पक्षियों की विशेष चेष्टाओं का वर्णन है, जिनके आधार पर उत्पातों, भूकंप आदि का पूर्वानुमान प्राचीन समय में सांहितिक आचार्य किया करते थे। कालक्रम से इसका लोप हो गया। किन्तु विडम्बना यह है कि पाश्चात्य देशों एवं जापान आदि में पशु-पक्षियों की इन चेष्टाओं पर गंभीर अध्ययन और शोध हो रहे हैं जिनके आधार पर प्राकृतिक-उत्पात आदि के पूर्वानुमान में वैज्ञानिक सफल भी हो रहे हैं। इसके अतिरिक्त बृहत्संहिता में एवं वास्तु के ग्रन्थों में भी वास्तु-निर्माण के पूर्व सूत्रपात शल्योद्धार के समय शकुन का विचार किया गया है। मुहूर्त-ग्रन्थों यथा- मुहूर्तचिंतामणि, मुहूर्तमार्तण्ड, रत्नमाला आदि में यात्रा-मुहूर्त के वर्णन के प्रसंग में भी शकुनों का विचार है। इन शकुनों परे भारत में भी शोध की संभावनायें अनंत हैं।<ref name=":0" />
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प्राकृतिक संकेत या जानवरों एवं पक्षियों की चेष्टाएं और ध्वनियां अंगस्फुरण (अंगों का फ़डकना) तथा पल्लीपतन आदि मुख्यतया शकुन के विचारणीय विषय हैं। वसन्तराज का 'वसन्तराजशकुनम् ' शकुनशास्त्र का प्रसिद्ध ग्रन्थ है। शुभ और अशुभ इन दोनों प्रकार के शकुनों के फल इस ग्रन्थ में वर्णित हैं। बृहत्संहिता में उत्पातों भूकम्प आदि के लक्षण में एवं कृषि की सूचना में पक्षियों की विशेष चेष्टाओं का वर्णन है, जिनके आधार पर उत्पातों, भूकंप आदि का पूर्वानुमान प्राचीन समय में सांहितिक आचार्य किया करते थे। कालक्रम से इसका लोप हो गया। किन्तु विडम्बना यह है कि पाश्चात्य देशों एवं जापान आदि में पशु-पक्षियों की इन चेष्टाओं पर गंभीर अध्ययन और शोध हो रहे हैं जिनके आधार पर प्राकृतिक-उत्पात आदि के पूर्वानुमान में वैज्ञानिक सफल भी हो रहे हैं। इसके अतिरिक्त बृहत्संहिता में एवं वास्तु के ग्रन्थों में भी वास्तु-निर्माण के पूर्व सूत्रपात शल्योद्धार के समय शकुन का विचार किया गया है। मुहूर्त-ग्रन्थों यथा- मुहूर्तचिंतामणि, मुहूर्तमार्तण्ड, रत्नमाला आदि में यात्रा-मुहूर्त के वर्णन के प्रसंग में भी शकुनों का विचार है। इन शकुनों परे भारत में भी शोध की संभावनायें अनंत हैं।
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==== स्वप्न ====
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स्वप्न पर आधारित सूत्र प्रायः पुराणों में मिलते हैं। मत्स्य पुराण, अग्निपुराण, नारदपुराण और अन्य पुरानों में स्वप्न के शुभाशुभ फल का विचार किया गया है। स्वप्नदर्शन के प्रकार और परिणाम पर भी दैवज्ञों ने सविस्तार प्रकाश डाला है, जो ज्योतिष के अतिरिक्त संसार के अन्य किसी भी चिन्तन में दृष्टिगोचर नहीं होता। यद्यपि ऐसे चिन्तन ब्रह्मवैवर्त आदि पुराणों में प्राप्त होते हैं, किंतु वे विचार भी ज्योतिषतत्त्व मूलक ही हैं। यथा- <blockquote>स्वप्ने हसति यो हर्षाद्विवाहं यदि पश्यति। नर्तकं गीतमिष्टञ्च विपत्तिस्तस्य निश्चितम् ॥(स्वप्न०वि० दुःस्व० श्लो० २)</blockquote>स्वप्नों पर अधिक कार्य स्वतन्त्र रूप से प्राप्त नहीं होता है, अतः संहिता के इस भाग पर यदि मनोवैज्ञानिक एवं अध्यात्म-विद्या के क्षेत्र में कार्य कर रहे विद्वान् मिलकर शोध करें तो निश्चय ही मनुष्य को समझने और कई मानसिक रोगों से लडने में सफलता प्राप्त की जा सकती है।
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'''स्वप्न'''
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==== सामुद्रिकशास्त्र ====
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समुद्र मुनि द्वारा प्रतिपादित यह सामुद्रिक शास्त्र बडे ही महत्व का है। इस शास्त्र में स्त्री-पुरुषों की आकृति, वर्ण, हस्तरेखा एवं विविध अंगों की बनावट के आधार पर न केवल उसकी प्रकृति का अपितु भविष्य में घटित होने वाली शुभ-अशुभ घटनाओं का भी फलादेश किया जाता है। महर्षि समुद्र के अनुसार ललाट में ७ रेखाएं ऊपरसे क्रमशः १-शनिस्वामिनी, २-गुरुस्वामिनी, ३-मंगलस्वामिनी, ४-सूर्यस्वमिनी, ५-भृगुस्वामिनी, ६-बुधस्वामिनी तथा ७-चन्द्रस्वामिनी होती हैं। जिनके आकार, लम्बाई, स्थिति आदि के अनुसार फलादेश किया जाता है। इसी प्रकार हस्त और चरण की रेखाएँ भी पृथक् - पृथक् फल प्रदान करती हैं तथा नेत्रों के आकार, रंग, कर्ण, ओष्ठ, नासिका एवं दन्तादि अंगों की आकृतियाँ भी अलग-अलग फल प्रदान करती हैं, जिन्हैं ज्ञान और अभ्यास के द्वारा जाना जा सकता है।
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इसी प्रकार शरीर के विभिन्न अंगों में स्थित चिह्नों और तिलों के स्वरूप और स्थितियाँ भी तत्सम्बद्ध मानव के जीवन के सन्दर्भ में बहुत कुछ फलों की संसूचना देते हैं। यहाँ तक कि चिह्नों के द्वारा जातक की राशि, लग्न और नक्षत्र का ज्ञान भी प्राप्त हो जाता है और मनुष्य के सन्तानसंख्या, दाम्पत्यसुख, भ्राता, भगिनी, स्त्री, सम्पत्ति और चरित्र का ज्ञान भी ज्योतिषी को हो जाता है।
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==== वास्तु ====
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वासयोग्यभूमि या गृहनिर्माणभूमि की वास्तु संज्ञा है। वास्तुशास्त्र का जितना विस्तार हुआ उतना अन्य उपस्कन्धों का नहीं हुआ। इसका कारण यह है कि मत्स्यपुराण, अग्निपुराण, स्कन्दपुराण, विष्णुधर्मोत्तरपुराण आदि में वास्तु के विषय पर्याप्त-मात्रा में मिले जिनका पल्ल्वन स्वतन्त्र-ग्रन्थों के रूप में हुआ। इसके अतिरिक्त कश्यप, नारद, विश्वकर्मा, मयासुर, नग्नजित आदि पौराणिक आचार्यों ने भी अपने-अपने सिद्धान्तों का प्रतिपादन उस काल में किया। वास्तु के १८ आचार्य तो स्वयं मत्स्यपुराण में गिनाए गये हैं।
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वास्तु को मुख्यतया १, सामान्यगृह, २,राजगृह एवं ३,देवगृह एवं ४, नगर-निवेश में विभक्त किया जा सकता है। इन तीनों ही प्रकार के वास्तु-निर्माण में ध्यातव्य मुख्य बिंदु- भूमिपरीक्षण, शल्योद्धार, आयादिसाधन, 'ध्रुवादि'गृह-संज्ञा, शतपद आदि विविध वास्तु चक्र, गृहारंभ, विविध शुभाशुभयोग, द्वारस्थापन, इष्ट-चयन विविधशाला-युक्त गृहों के भेद, देवालय कक्ष सज्जा, प्रतिमा, शिल्प एवं चित्र कला, वापी-कूप-तडाग-उपवन आदि का निर्माण, नगर में मार्ग-चत्वर-प्रणाली आदि की व्यवस्था एवं राजा, मंत्री, अधिकारी-गण व प्रजा के आवासों की व्यवस्था आदि विषय वर्णित हैं।
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विश्वकर्मवास्तु, विश्वकर्मप्रकाश, मयमत, अपराजितपृच्छा, मानसार, समरांगणसूत्रधार इत्यादि अनेकों स्वतंत्र ग्रन्थ तथा वास्तुरत्नावली, वास्तुसौख्य, बृहद्वास्तुमाला आदि संकलन-ग्रन्थ भी मिलते हैं।
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इस शाखा पर आज भी सर्वाधिक कार्य हो रहे हैं किन्तु प्राच्य-सिद्धान्तों का अध्ययन और शोध की अभी भी महती आवश्यकता है, विशेषकर प्रासाद-वास्तु एवं मंदिर-वास्तु के क्षेत्र में। इस कर्म में यदि नव्य-यंत्रों की सहायता ली जाए तो न केवल प्राच्य-वास्तु-सिद्धान्तों को समझा जा सकता है अपितु प्राच्य-वास्तु-कला को पुनः जीवित करके इस क्षेत्र में भारत की प्रतिष्ठा को पुनःस्थापित किया जा सकता है।
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==== मुहूर्त ====
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यद्यपि वैदिक एवं पौराणिक-सहित्य में मुहूर्त के पर्याप्त बीज मिलते हैं, जिनका विकास उस दृष्टि से नहीं हुआ जिस प्रकार होना चाहिये था तथापि स्मृति-ग्रन्थों और गृह्यसूत्रों के प्रभाव के कारण इस शाखा का पर्याप्त विकास १०वीं से १७वीं शताब्दी के मध्य हुआ और अनेकों मुहूर्त ग्रन्थों यथा- रत्नकोष, रत्नमाला, मुहूर्तगणपति, मुहूर्तमार्तण्ड, मुहूर्तपदवी, मुहूर्तदिवाकर, मुहूर्तचिन्तामणि, विवाहवृन्दावन, ज्योतिर्विदाभरण, बृहद्दैवज्ञरंजन आदि का निर्माण हुआ।
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==== अर्घ ====
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वस्तुओं के मूल्य-निर्धारण का विचार अर्घ नाम से प्रसिद्ध है। मूल्य-वृद्धि को महर्घ एवं सामान्य को समर्घ कहते हैं। नक्षत्रों में ग्रहों के संचरण, ग्रहों की शर-क्रान्ति-युति, संक्रान्ति, सर्वतोभद्र-चक्र आदि के द्वारा वस्तुओं के अर्घ का विचार संहितास्कन्ध में मिलता है, जिस पर शोध एवं अध्ययन वर्तमान समय की मांग है। शेयर-मार्केट में वस्तुओं के मूल्य का आंकलन जैसे वाणिज्य-शास्त्र के जानकार करते हैं वैसे ही यदि ज्योतिषी भी इसका अध्ययन करके पूर्व अनुमान करे तो ये आश्चर्यजनक परिणाम निकल सकते हैं।
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==== वृष्टि ====
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वर्षा के विचार से संहिता-ग्रन्थ भरे पडे हैं। वर्षा के पूर्वानुमान का अत्यधिक विचार इस स्कन्ध में है। बृहत्संहिता में इससे संबंधित ८अध्याय हैं, जिनमे मेघों के गर्भ और प्रसव-काल से लेकर विविध योगों का विचार किया गया है। कृषिपाराशर एवं शार्गधरसंहिता में वर्षा के अनेकों योग वर्णित हैं। संहिता स्कन्ध में वर्णित वृष्टि-विचार की एक मुख्य विशेषता यह है कि वो वृष्टि का अनुमान वर्षा-काल के ३ से ६ महीने पूर्व मेघों को देखकर लगाते हैं, जिसे मेघ का गर्भधारण कहते हैं।
    
== रामायण में संहिता स्कन्ध के अंश ==
 
== रामायण में संहिता स्कन्ध के अंश ==
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