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ज्योतिषशास्त्र और चिकित्साशास्त्र का सम्बन्ध प्राचीन कालसे रहा है। आयु एवं आयुर्ज्ञान संबन्धी आयुर्वेदशास्त्र अनादि है। आयुर्वेद का स्थल बहुत विस्तीर्ण है, जिसमें उसका ज्योतिष के साथ भी समावेश प्राप्त होता है। आयुर्वेद में औषधिके अतिरिक्त दैवव्यपाश्रय चिकित्साके अन्तर्गत मणि एवं मन्त्रों से चिकित्सा करने का विधान है। पूर्वकालमें एक सुयोग्य चिकित्सकके लिये ज्योतिष-विषयका ज्ञाता होना अनिवार्य था। इससे रोग-निदान में सरलता होती थी। ज्योतिष-शास्त्रके द्वारा रोगकी प्रकृति, रोगका प्रभाव-क्षेत्र, रोगका निदान और साथ ही रोगके प्रकट होनेकी अवधि तथा कारणोंका भलीभॉंति विश्लेषण किया जा सकता है।
 
ज्योतिषशास्त्र और चिकित्साशास्त्र का सम्बन्ध प्राचीन कालसे रहा है। आयु एवं आयुर्ज्ञान संबन्धी आयुर्वेदशास्त्र अनादि है। आयुर्वेद का स्थल बहुत विस्तीर्ण है, जिसमें उसका ज्योतिष के साथ भी समावेश प्राप्त होता है। आयुर्वेद में औषधिके अतिरिक्त दैवव्यपाश्रय चिकित्साके अन्तर्गत मणि एवं मन्त्रों से चिकित्सा करने का विधान है। पूर्वकालमें एक सुयोग्य चिकित्सकके लिये ज्योतिष-विषयका ज्ञाता होना अनिवार्य था। इससे रोग-निदान में सरलता होती थी। ज्योतिष-शास्त्रके द्वारा रोगकी प्रकृति, रोगका प्रभाव-क्षेत्र, रोगका निदान और साथ ही रोगके प्रकट होनेकी अवधि तथा कारणोंका भलीभॉंति विश्लेषण किया जा सकता है।
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==परिचय॥ Parichaya==
 
==परिचय॥ Parichaya==
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सामान्य रूपसे यह समझा जा सकता हैन कि लग्न मस्तिष्कका, चन्द्र मन, उदर और इन्द्रियों का, सूर्य आत्मस्वरूप एवं हृदय का प्रतिनिधित्व करता है। इन तीनों का अलग-अलग और परस्पर एक-दूसरे से अन्तः संबन्धोंका विश्लेषण मुख्य होता है। यह अध्ययन ज्योतिश एवं आयुर्वेद के सन्दर्भ में बहुत उपयोगी सिद्ध होगा। कुशल दैवज्ञके परामर्श द्वारा न केवल स्थिति स्पष्ट होती है अपितु अत्यन्त सहजता से (ग्रहप्रीतिकर दान, मन्त्रजाप, औषध स्नान, रत्नधारण आदिसे) रोग दूर हो जाते हैं। इस प्रकार एक कुशल ज्योतिषी चिकित्साविद् तथा रोगी दोनों के लिये मार्गदर्शक बन सकता है।
 
सामान्य रूपसे यह समझा जा सकता हैन कि लग्न मस्तिष्कका, चन्द्र मन, उदर और इन्द्रियों का, सूर्य आत्मस्वरूप एवं हृदय का प्रतिनिधित्व करता है। इन तीनों का अलग-अलग और परस्पर एक-दूसरे से अन्तः संबन्धोंका विश्लेषण मुख्य होता है। यह अध्ययन ज्योतिश एवं आयुर्वेद के सन्दर्भ में बहुत उपयोगी सिद्ध होगा। कुशल दैवज्ञके परामर्श द्वारा न केवल स्थिति स्पष्ट होती है अपितु अत्यन्त सहजता से (ग्रहप्रीतिकर दान, मन्त्रजाप, औषध स्नान, रत्नधारण आदिसे) रोग दूर हो जाते हैं। इस प्रकार एक कुशल ज्योतिषी चिकित्साविद् तथा रोगी दोनों के लिये मार्गदर्शक बन सकता है।
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== आयुर्वेद में ज्योतिष की उपयोगिता ==
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ज्योतिषशास्त्र चिकित्साशास्त्र का पूर्ण सहायक है। ज्योतिषशास्त्रके ज्ञान के विना औषधि निर्माण का समय सुनिश्चित नहीं किया जा सकता। ज्योतिषशास्त्रमें औषधि निर्माण के लिये मुहूर्त का विधान किया गया है। शुभ मुहूर्तमें औषधिको छेदकर निर्माण करने से वह औषधि विशिष्ट ग्रहरश्मियों से प्रभावित होकर विशिष्ट गुण सम्पन्न हो जाती है। मानव शरीर में रोग के कारण, रोग की मात्रा एवं रोग की काल अवधि जानने में भी ज्योतिषशास्त्र सहायक सिद्ध होता है।<blockquote>आतुरमुपक्रममाणेन भिषजायुरादावेव परीक्षितव्यम् ।( सु० सं० सूत्रस्थानम् ३५/३)</blockquote>
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भगवान् धन्वन्तरि ने [[Acharya Sushruta (आचार्य सुश्रुतः)|आचार्य सुश्रुत]] से कहा है कि-<blockquote>आयुः पूर्वं परीक्षेत् पश्चाल्लक्षणमादिशेत् । अनायुषां हि मनुष्याणां लक्षणैः किं प्रयोजनम् ॥(प्र० मा० ९/३)</blockquote>रोगी की चिकित्सा प्रारम्भ करनेसे पूर्व वैद्यको उसकी आयु परीक्षाकर लेनी चाहिये। यदि आयु शेष हो तो रोग, ऋतु(मौसम), वय, बल और औषधि का विचार कर चिकित्सा करनी चाहिये।
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=== औषधि निर्माण  सेवन मुहूर्त ===
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ज्योतिष विज्ञान के बिना औषधियों का निर्माण यथा समय गुण युक्त नहीं किया जा सकता। स्पष्ट है कि ग्रहों के तत्त्व और स्वभाव को ज्ञात कर उन्हीं के अनुसार उसी तत्त्व और स्वभाव वाली औषधि का निर्माण करने से वह विशेष गुणकारी हो जाती है। जो वैद्य ज्योतिषशास्त्र के ज्ञान से अपरिचित रहते हैं, वे सुन्दर और पूर्णगुणकारी औषधि का निर्माण नहीं कर सकते अतः इन दोनों ज्योतिष एवं आयुर्वेद का ज्ञान रखना आवश्यक है। औषधि एवं रसायन के निर्माण, औषधि सेवन, शल्यक्रिया(सर्जरी) और चिकित्सा सबंधी कार्यों के लिये ज्योतिषशास्त्र में मुहूर्त का विधान किया गया है। मुहूर्तचिन्तामणिकार कहते हैं-<blockquote>भैषज्यं सल्लघुमृदुचरे मूलभे द्व्यङ्गलग्ने। शुक्रेन्द्विज्ये विदि च दिवसे चापि तेषां रवेश्च। शुद्धे रिष्फद्युनमृतिगृहे सत्तिथौ नो जनेर्भे॥<ref>विन्ध्येश्वरी प्रसाद द्विवेदी, मुहूर्तचिन्तामणि, मणिप्रदीप टीका, सन् २०१८,वाराणसीः चौखम्बा सुरभारती प्रकाशन (पृ०८८)।</ref></blockquote>उपर्युक्त नक्षत्र, वार, राशि, तिथि, ग्रहशुद्धि एवं ग्रहों का बल ज्ञातकर ऐसे आयुप्रद योगमें औषधक्रिया का सेवन करना उत्तम कहा गया है। दीपिकाकार का मत है कि-जन्मनक्षत्र में कदापि औषधग्रहण करना प्रारंभ नहीं करना चाहिये।
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==रोगों का वर्गीकरण==
 
==रोगों का वर्गीकरण==
ज्योतिषशास्त्र के ग्रन्थों में रोगों का गम्भीरता पूर्वक विचार करने से सर्वप्रथम उनके भेदों का विचार किया गया है, इस शास्त्र में रोगों को मुख्यतः दो प्रकार का माना गया है<ref>अर्चना शुक्ला, उदररोगमें ग्रहयोगकी समीक्षा वर्तमान सन्दर्भमें समालोचनात्मक अध्ययन, मेवाड विश्वविद्यालय, सन् २०२१, अध्य्याय०२, (पृ० ३८)</ref>-
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स्वास्थ्य संबंधी विचार के कई योग ग्रह,राशि और भाव आदि के माध्यम ज्योतिष शास्त्र में बताये गये हैं। ज्योतिषशास्त्र के ग्रन्थों में रोगों का गम्भीरता पूर्वक विचार करने से सर्वप्रथम उनके भेदों का विचार किया गया है, प्रश्नमार्ग के अनुसार रोगों को मुख्यतः दो प्रकार का माना गया है<ref>अर्चना शुक्ला, उदररोगमें ग्रहयोगकी समीक्षा वर्तमान सन्दर्भमें समालोचनात्मक अध्ययन, मेवाड विश्वविद्यालय, सन् २०२१, अध्य्याय०२, (पृ० ३८)</ref>-<blockquote>सन्ति प्रकार भेदाश्च रोगभेदनिरूपणे। ते चाप्यत्र विलिख्यन्ते यथा शास्त्रान्तरोदिताः।
#'''सहज-''' जन्मजात रोगों को सहज रोग कहते हैं।
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रोगास्तु द्विविधा ज्ञेया निजागन्तुविभेदितः। निजाश्चागन्तुकाश्चापि प्रत्येकं द्विविधाः पुनः॥
#'''आगन्तुक-''' जन्म के बाद होने वाले रोगों को आगन्तुक रोग कहते हैं।
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सहज रोगों के दो भेद होते हैं- शारीरिक एवं मानसिक।
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निजा शरीरचित्तोत्था दृष्टादृष्टनिमित्तजाः। तथैवागन्तुकाश्चैवं व्याधयः स्युश्चतुर्विधाः॥(प्रश्नमा० १२/१७-१९)<ref>आर० सुब्रह्मण्यम उपाध्याय, [https://archive.org/details/prasnamarga-035823mbp-1/page/n179/mode/1up?view=theater प्रश्नमार्ग पार्ट-१,]  श्रीगीर्वाणवाणी पुस्तकशाला, अध्याय-१२, श्लोक- १७-१९, (पृ०१६७)।</ref></blockquote>अर्थात् रोगों का वर्गीकरण इस प्रकार है- शास्त्रान्तरों (आयुर्वेदीय ग्रन्थों जैसे- चरक संहिता, सुश्रुत संहिता, काश्यप संहिता, अष्टांग संग्रह, अष्टांगहृदय आदि) में निज तथा आगन्तुक भेद से रोग दो प्रकार के होते हैं, फिर इन दोनों में से प्रत्येक के दो-दो भेद हैं।
#'''शारीरिक-''' लंगडापन, कुबडापन, अन्धत्व, मूकत्व, बधिरत्व, नपुंसकत्व, हीनांग आदि कुछ शारीरिक रोग जन्मजात होते हैं।
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#'''सहज रोग(निज रोग)''' - जन्मजात रोगों को सहज रोग कहते हैं। शारीरिक तथा मानसिक दो प्रकार के होते हैं।
#'''मानसिक-''' जडता, उन्माद एवम पागलपन आदि कुछ मानसिक रोग भी जन्मजात होते हैं। इस प्रकार के समस्त रोगों को सहज रोग कहा गया है।
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#'''आगन्तुक रोग''' - जन्म के बाद होने वाले रोगों को आगन्तुक रोग कहते हैं। ये भी दृष्टनिमित्तजन्य और अदृष्टनिमित्तजन्य भेद से दो प्रकार के होते हैं।
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इन रोगों पर विस्तृत विचार हम निम्न प्रकार से कर सकते हैं-
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सहजरोग (निज रोग)- सहजरोग उन्हैं कहते हैं जो जन्मजात ही होते हैं अर्थात् जन्म के साथ ही ये रोग शरीर में विद्यमान रहते हैं। ये जन्मजात रोग भी दो प्रकार के होते हैं-
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#'''शारीरिक-''' जन्मजात शारीरिक रोगों में लंगडापन, कुबडापन, अन्धत्व, मूकत्व, बधिरत्व, नपुंसकत्व, हीनांग आदि कुछ शारीरिक रोग जन्मजात होते हैं।
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#'''मानसिक-''' जन्मजात मानसिकरोग, जडता, उन्माद एवम पागलपन आदि कुछ मानसिक रोग भी जन्मजात होते हैं। इस प्रकार के समस्त रोगों को सहज रोग कहा गया है।
 
आगन्तुक रोग भी दो प्रकार के होते हैं- दृष्टिनिमित्तजन्य एवं अदृष्टिनिमित्तजन्य।
 
आगन्तुक रोग भी दो प्रकार के होते हैं- दृष्टिनिमित्तजन्य एवं अदृष्टिनिमित्तजन्य।
 
#'''दृष्टिनिमित्तजन्य -''' शाप, अभिचार, घात, संसर्ग, महामारी एवं दुर्घटना आदि प्रत्यक्ष घटनाओं द्वारा उत्पन्न होने वाले रोगों को दृष्टिनिमित्तजन्य रोग कहते हैं।
 
#'''दृष्टिनिमित्तजन्य -''' शाप, अभिचार, घात, संसर्ग, महामारी एवं दुर्घटना आदि प्रत्यक्ष घटनाओं द्वारा उत्पन्न होने वाले रोगों को दृष्टिनिमित्तजन्य रोग कहते हैं।
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==ग्रह अधिष्ठित शरीराङ्ग॥ Planets Ruling The Body Parts==
 
==ग्रह अधिष्ठित शरीराङ्ग॥ Planets Ruling The Body Parts==
 
नवग्रहों में सूर्य-चन्द्र आदि जिस राशि में बैठते हैं, उसके अनुरूप रोग-विचार होता है। तथापि उनका स्वतन्त्र रूपमें  जिस अङ्ग पर प्रभाव या रोग विशेष होने की सम्भावना होती है उसे अधोलिखित सारणी द्वारा समझा जा सकता है<ref>श्री नलिनजी पाण्डे, आरोग्य अङ्क, ज्योतिष-रोग एवं उपचार, गोरखपुरः गीताप्रेस (पृ०२८३)।</ref>-
 
नवग्रहों में सूर्य-चन्द्र आदि जिस राशि में बैठते हैं, उसके अनुरूप रोग-विचार होता है। तथापि उनका स्वतन्त्र रूपमें  जिस अङ्ग पर प्रभाव या रोग विशेष होने की सम्भावना होती है उसे अधोलिखित सारणी द्वारा समझा जा सकता है<ref>श्री नलिनजी पाण्डे, आरोग्य अङ्क, ज्योतिष-रोग एवं उपचार, गोरखपुरः गीताप्रेस (पृ०२८३)।</ref>-
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मस्तिष्क-रोग, हृदय-रोग, उच्च रक्तचाप, उदरविकार, मेननजाइटिस, मिरगी, सिरदर्द, नेत्रविकार, बुखार।
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नेत्ररोग, हिस्टीरिया, ठंड, कफ, उदर-रोग, अस्थमा, डायरिया, दस्त, मानसिक रोग, जननाङ्ग रोग (स्त्रियोचित), पागलपन, हैजा, ट्यूमर, ड्रॉप्सी।
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तीव्र ज्वर, सिरदर्द, मुँहासे, चेचक, घाव, जलन, कटना, बवासीर, नासूर, साइनस, गर्भपात, रक्ताल्पता, फोड़ा, लकवा, पक्षाघात, पोलियो, गले-गर्दनके रोग, हाइड्रोसील, हर्निया ।
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{| class="wikitable"
 
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|+नवग्रह, रोग तथा तत्संबन्धित अङ्ग
 
|+नवग्रह, रोग तथा तत्संबन्धित अङ्ग
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*'''कफज ग्रह'''- शुक्र और चन्द्र।
 
*'''कफज ग्रह'''- शुक्र और चन्द्र।
 
बुध को तटस्थ(न्यूट्रल) कहा गया है,  इन ग्रहों के दाय काल में अथवा इनके दुर्बल होने से उक्त त्रिदोषजन्य व्याधियाँ होती है। जिसे व्यवहार में भी अनुभव किया गया है
 
बुध को तटस्थ(न्यूट्रल) कहा गया है,  इन ग्रहों के दाय काल में अथवा इनके दुर्बल होने से उक्त त्रिदोषजन्य व्याधियाँ होती है। जिसे व्यवहार में भी अनुभव किया गया है
===वातजन्य व्याधियॉं===
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===वातजन्य व्याधियाँ===
 
शनि, राहु, केतु के दुष्प्रभाव से वात जन्य व्याधियाँ होती हैं । यह पहले भी कहा जा चुका है । ये वात व्याधियाँ चिकित्सा शास्त्र के जनक आयुर्वेद शास्त्र के चरक संहिता में अस्सी प्रकार की बताई गई हैं । इन सभी के अनेक भेद तथा उपभेद भी हैं । जिसपर चिकित्साशास्त्र आधारित हैं । इसी प्रसंग में इन ८० प्रकार की वात व्याधियों का नाम चरक संहिता से संग्रहीत कर नीचे दिया जा रहा है<ref>अत्रिदेवजी गुप्त, चरक संहिता(हिन्दी अनुवाद सहित),वाराणसी: भार्गव पुस्तकालय, सूत्रनिदान स्थान, अध्याय-२० (पृ०२४०)।</ref>-{{columns-list|colwidth=10em|style=width: 800px; font-style: italic;|
 
शनि, राहु, केतु के दुष्प्रभाव से वात जन्य व्याधियाँ होती हैं । यह पहले भी कहा जा चुका है । ये वात व्याधियाँ चिकित्सा शास्त्र के जनक आयुर्वेद शास्त्र के चरक संहिता में अस्सी प्रकार की बताई गई हैं । इन सभी के अनेक भेद तथा उपभेद भी हैं । जिसपर चिकित्साशास्त्र आधारित हैं । इसी प्रसंग में इन ८० प्रकार की वात व्याधियों का नाम चरक संहिता से संग्रहीत कर नीचे दिया जा रहा है<ref>अत्रिदेवजी गुप्त, चरक संहिता(हिन्दी अनुवाद सहित),वाराणसी: भार्गव पुस्तकालय, सूत्रनिदान स्थान, अध्याय-२० (पृ०२४०)।</ref>-{{columns-list|colwidth=10em|style=width: 800px; font-style: italic;|
 
* १. नखभेद
 
* १. नखभेद
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* ८०. अस्वप्न अनवस्थित}}
 
* ८०. अस्वप्न अनवस्थित}}
 
  ये मुख्यतः वात जन्य व्याधियाँ हैं । शनि, राहु, तथा केतु ग्रह की दुर्बलता, अनिष्ट अरिष्ट सूचक होने पर उक्त व्याधियों का होना सुनिश्चित है ।
 
  ये मुख्यतः वात जन्य व्याधियाँ हैं । शनि, राहु, तथा केतु ग्रह की दुर्बलता, अनिष्ट अरिष्ट सूचक होने पर उक्त व्याधियों का होना सुनिश्चित है ।
===पित्तजन्य व्याधियॉं===
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===पित्तजन्य व्याधियाँ===
 
पित्तजन्य ४० प्रकार की व्याधियाँ (रोग) होती हैं । हमारे ज्योतिष शास्त्र के अनुसार सूर्य, मंगल तथा गुरु के दुर्बल तथा अरिष्ट सूचक होने पर अघोलिखित व्याधियाँ (रोग) होती हैं, जिनकी नामावली अधोलिखित हैं<ref>अत्रिदेवजी गुप्त, चरक संहिता(हिन्दी अनुवाद सहित),वाराणसी: भार्गव पुस्तकालय, सूत्रनिदान स्थान, अध्याय-२० (पृ०२४१/२४२)।</ref>-{{columns-list|colwidth=10em|style=width: 800px; font-style: italic;|
 
पित्तजन्य ४० प्रकार की व्याधियाँ (रोग) होती हैं । हमारे ज्योतिष शास्त्र के अनुसार सूर्य, मंगल तथा गुरु के दुर्बल तथा अरिष्ट सूचक होने पर अघोलिखित व्याधियाँ (रोग) होती हैं, जिनकी नामावली अधोलिखित हैं<ref>अत्रिदेवजी गुप्त, चरक संहिता(हिन्दी अनुवाद सहित),वाराणसी: भार्गव पुस्तकालय, सूत्रनिदान स्थान, अध्याय-२० (पृ०२४१/२४२)।</ref>-{{columns-list|colwidth=10em|style=width: 800px; font-style: italic;|
 
* १. ओष
 
* १. ओष
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* ३९. नेत्र शूल
 
* ३९. नेत्र शूल
 
* ४०. अमलका हरा वर्ण या पीला वर्ण}}गुरु, सूर्य तथा मंगल के कारण ये व्याधियाँ होती हैं। इसलिये इन ग्रहों के दायकाल में इनका निदान तथा समाधान आवश्यक है।
 
* ४०. अमलका हरा वर्ण या पीला वर्ण}}गुरु, सूर्य तथा मंगल के कारण ये व्याधियाँ होती हैं। इसलिये इन ग्रहों के दायकाल में इनका निदान तथा समाधान आवश्यक है।
===कफजन्य व्याधियॉं===
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===कफजन्य व्याधियाँ===
 
कफ जन्य रोग चन्द्रमा और शुक्र के प्रभाव से होते हैं। चन्द्र और शुक्र दोनों ग्रहों की प्रकृति शीतल है। शीतव्याधि से २० प्रकार के रोग उत्पन्न होते हैं। जिसकी चर्चा चिकित्सा शास्त्र में महर्षि चरक ने चरक संहिता के २०वें अध्याय में वर्णित किया है। इन रोगों के भी उपरोग अनेकों हैं। जिसकी चर्चा आयुर्वेद शास्त्र में विस्तार पूर्वक की गयी है। ये व्याधियाँ प्रसंगतः अधोलिखित रूप से यहाँ दी जा रही हैं<ref>अत्रिदेवजी गुप्त, चरक संहिता(हिन्दी अनुवाद सहित),वाराणसी: भार्गव पुस्तकालय, सूत्रनिदान स्थान, अध्याय-२० (पृ०२४३/२४४)।</ref>-{{columns-list|colwidth=10em|style=width: 800px; font-style: italic;|
 
कफ जन्य रोग चन्द्रमा और शुक्र के प्रभाव से होते हैं। चन्द्र और शुक्र दोनों ग्रहों की प्रकृति शीतल है। शीतव्याधि से २० प्रकार के रोग उत्पन्न होते हैं। जिसकी चर्चा चिकित्सा शास्त्र में महर्षि चरक ने चरक संहिता के २०वें अध्याय में वर्णित किया है। इन रोगों के भी उपरोग अनेकों हैं। जिसकी चर्चा आयुर्वेद शास्त्र में विस्तार पूर्वक की गयी है। ये व्याधियाँ प्रसंगतः अधोलिखित रूप से यहाँ दी जा रही हैं<ref>अत्रिदेवजी गुप्त, चरक संहिता(हिन्दी अनुवाद सहित),वाराणसी: भार्गव पुस्तकालय, सूत्रनिदान स्थान, अध्याय-२० (पृ०२४३/२४४)।</ref>-{{columns-list|colwidth=10em|style=width: 800px; font-style: italic;|
 
* १. तृप्ति
 
* १. तृप्ति
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ग्रहों में भी बुध को नपुंसक कहा गया है । बुध जिस ग्रह के साथ रहता है वह उसी के अनुरूप फल प्रदान करता है । अतः बुध ग्रह के दाय काल में बुध की स्थिति तथा साहचर्य पर विचार कर रोगों के विषय में फलादेश करना चाहिए| वात-पित्त-कफ तीनों में ग्रह साहचर्य के अनुसार गुणदोष का ज्ञान कर बुध ग्रह की स्थिति जानकर फल कहना उचित होगा । बुध को न्यूट्रल कहा गया है । अतः गुण, स्वभाव का भी उसी के आधार पर निरूपण करना चाहिए।
 
ग्रहों में भी बुध को नपुंसक कहा गया है । बुध जिस ग्रह के साथ रहता है वह उसी के अनुरूप फल प्रदान करता है । अतः बुध ग्रह के दाय काल में बुध की स्थिति तथा साहचर्य पर विचार कर रोगों के विषय में फलादेश करना चाहिए| वात-पित्त-कफ तीनों में ग्रह साहचर्य के अनुसार गुणदोष का ज्ञान कर बुध ग्रह की स्थिति जानकर फल कहना उचित होगा । बुध को न्यूट्रल कहा गया है । अतः गुण, स्वभाव का भी उसी के आधार पर निरूपण करना चाहिए।
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== स्वास्थ्य विचार की ज्योतिषीय उपयोगिता ==
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स्वास्थ्य विचार के क्रम में ज्योतिष शास्त्र की उपयोगिता अत्यधिक है।<ref>कृष्ण कुमार भार्गव, [http://egyankosh.ac.in//handle/123456789/80804 स्वास्थ्य और ज्योतिष], सन् 2021,  इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, नई दिल्ली।</ref>
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== विचार-विमर्श॥ Discussion ==
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वैदिकदर्शन में <nowiki>''</nowiki>यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे<nowiki>''</nowiki> का सिद्धान्त प्राचीनकाल से प्रचलित है। यह सिद्धान्त इस तथ्य को बतलाता है कि सौर मण्डलान्तर्गत ज्योतिर्मय पदार्थों की विभिन्न गतिविधियों में जो सिद्धान्त कार्य करते हैं, वही सिद्धान्त प्राणी मात्र के शरीरमें स्थित सौर जगत् की इकाई का संचालन करते हैं। जैसा कि भगवान् श्री कृष्ण जी गीता में कहते हैं-<blockquote>गामाविश्य च भूतानि धारयाम्यहमोजसा। पुष्णामि चौषधिः सर्वासोमो भूत्वा रसात्मकः॥(श्री०भ०गी० १५/१६)</blockquote>औषधियाँ सोम(चन्द्रमा) की रश्मियों के प्रभावसे रसात्मक होती हैं। यह प्रत्यक्ष अनुभव है कि औषधियों का जो विकास रात्रिमें होता है वैसा दिनमें नहीं होता है। चन्द्रमा हमारा पडोसी ग्रह है। अतः हमारे ऊपर ग्रहों का जो खिंचाव पड रहा है उसमें सर्वाधिक मात्रा चन्द्रमा की ही है। ज्योतिषशास्त्र के अन्तर्गत आचार्यों ने रोगों के कारण तथा उनके उपचारों का विचारण सम्यक् रूप से किया है। ग्रहों का प्रभाव मनुष्य पर निश्चित रूप से पडता है। ग्रहों के बीच पारस्परिक शत्रु-मित्र भाव रहते हैं और उसके अनुसार वे एक दूसरे को प्रभावित करते हैं। ग्रहों के प्रतिकूल प्रभाव के कारण जातक विभिन्न रोगों से ग्रस्त होता है और अनुकूल प्रभाव से सुख-समृद्धि को प्राप्त करता है। अतः प्रतिकूल प्रभाव को दूर करने के लिये ज्योतिषशास्त्र में आचार्यों ने विभिन्न प्रकार के उपचारों का उल्लेख किया है।
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* चन्द्रमा का दुष्प्रभाव ही हमारे शरीर की रक्तसंचार प्रणाली को असामान्य बनाता है।
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* चन्द्रमा के कारण ही अन्य अवसरों की अपेक्षा पूर्णिमा को उन्माद, मिरगी जैसे मानसिकरोग तथा रक्तचाप, रक्तविकार एवं नाडीरोग जैसे शारीरिक विकार अपनी पराकाष्ठा पर होते हैं।
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* बृहज्जातककार वराहमिहिर भी गर्भधारणमें प्रयोज्य ऋतुधर्म को मङ्गल एवं चन्द्रमा दो ग्रहों से प्रभावित मानते हैं।
    
== उद्धरण॥ References ==
 
== उद्धरण॥ References ==

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