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लेख सम्पादित किया
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== प्रस्तावना ==
 
== प्रस्तावना ==
वर्तमान में अपने को हिन्दुत्ववादी कहलाने वाले कई लोगों में भारतीय शास्त्रों की समझ और श्रध्दा का अभाव दिखाई देता है। गोहत्या का विषय तो ताजा है। कई हिन्दुत्ववादी लोगों के मन में वर्तमान पत्रों में जो विपरीत समाचार आते हैं उन के कारण संभ्रम निर्माण हुवा दिखाई देता है। यज्ञ में बलि के विषय को लेकर भी बहुत संभ्रम है। इस संभ्रम के मुख्य कारण भारतीय शास्त्रों में श्रध्दा का अभाव और अभारतीय शिक्षा के फलस्वरूप विचार करने की संशयात्मक दृष्टि यह हैं।
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विचार या शोध के क्षेत्र में काम करनेवाले और राष्ट्रवादी कहलाने वाले लोगों के पाँच प्रकार हैं। पहले प्रकार के अपने को राष्ट्रवादी कहलाने वाले लोग ऐसे हैं जिन्हें भारतीय शास्त्रों का और वर्तमान साईंस का भी ज्ञान है किन्तु उन में शास्त्रों के प्रति या तो श्रद्धा नहीं है या भारतीय शास्त्रों के समर्थन में खडे होने की हिम्मत नहीं है। दूसरे ऐसे लोग हैं जो भारतीय शास्त्रों के जानकार तो हैं, भारतीय शास्त्रों पर श्रद्धा भी रखते हैं किन्तु वर्तमान साईंस की प्रगति से अनभिज्ञ हैं। तीसरे लोग ऐसे हैं जो भारतीय शास्त्रों को जानते नहीं हैं। लेकिन उन की श्रेष्ठता में श्रद्धा रखते हैं। उन्हें भारतीय शास्त्रों की जानकारी नहीं होने से वे निम्न स्तर के तथाकथित साईंटिस्टों द्वारा आतंकित हो जाते हैं। चौथे प्रकार के लोग वे हैं जो प्रामाणिकता से यह मानते हैं कि साईंस युगानुकूल है। शास्त्र अब कालबाह्य हो गये हैं। पाँचवे प्रकार के लोग वे हैं जो दोनों की समझ रखते हैं। लेकिन ये एक तो संख्या में नगण्य हैं और दूसरे ये मुखर नहीं हैं। भारतीय शोध दृष्टी की अच्छी समझ ऐसे सभी लोगों के लिये आवश्यक है।
एक बार चर्चा में विषय निकला कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक पू. श्री. गुरूजी का वृत्तपत्र में छपा कोई कथन श्रीमद्भगवद्गीता के विरोधी है। संघ के कुछ कार्यकर्ता सोचने लगे कि पू. श्री. गुरूजी जब ऐसा कहते हैं तो क्या श्रीमद्भगवद्गीता गलत है? या गुरूजी गलत हैं? वास्तव में विचार तो इस तरह करना चाहिये कि पहली बात तो यह है कि श्रीमद्भगवद्गीता में कहा गलत नहीं हो सकता, इस बात पर श्रध्दा हो। दूसरी बात यह है कि पू. श्री. गुरूजी पर भी श्रध्दा हो कि वे ऐसा कह ही नहीं सकते। यह तो छापने वाले की गलती ही हो सकती है। किन्तु इतनी प्रगल्भता कम ही लोगों में होती है। सामान्य लोगों में यह संभ्रम शायद क्षम्य माना जा सकता है। किन्तु अध्ययन और अनुसंधान के या शोध के क्षेत्र में काम करने वाले शोध कर्ताओं को तो इस संभ्रम से ऊपर उठना ही होगा।
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विचार या शोध के क्षेत्र में काम करनेवाले और हिंदुत्ववादी कहलाने वाले लोगों के पाँच प्रकार हैं। पहले प्रकार के अपने को हिंदुत्ववादी कहलाने वाले लोग ऐसे हैं जिन्हें भारतीय शास्त्रों का और वर्तमान साईंस का भी ज्ञान है किन्तु उन में शास्त्रों के प्रति या तो श्रध्दा नहीं है या भारतीय शास्त्रों के समर्थन में खडे होने की हिम्मत नहीं है। दूसरे ऐसे लोग हैं जो भारतीय शास्त्रों के जानकार तो हैं, भारतीय शास्त्रों पर श्रध्दा भी रखते हैं किन्तु वर्तमान साईंस की प्रगति से अनभिज्ञ हैं। तीसरे लोग ऐसे हैं जो भारतीय शास्त्रों को जानते नहीं हैं। लेकिन उन की श्रेष्ठता में श्रध्दा रखते हैं। उन्हें भारतीय शास्त्रों की जानकारी नहीं होने से वे निम्न स्तर के तथाकथित साईंटिस्टों द्वारा आतंकित हो जाते हैं। चौथे प्रकार के लोग वे हैं जो प्रामाणिकता से यह मानते हैं कि साईंस युगानुकूल है। शास्त्र अब कालबाह्य हो गये हैं। पाँचवे प्रकार के लोग वे हैं जो दोनों की समझ रखते हैं। लेकिन ये एक तो संख्या में नगण्य हैं और दूसरे ये मुखर नहीं हैं। भारतीय शोध दृष्टी की अच्छी समझ ऐसे सभी लोगों के लिये आवश्यक है|
      
== भारतीय विद्वानों में हीनता बोध ==
 
== भारतीय विद्वानों में हीनता बोध ==
गुलामी गई किन्तु गुलामी की मानसिकता नहीं गई। स्वामी विवेकानंद कहते थे कि जिस तपस्वी ने सत्य दर्शन किये हैं वह यह कहता है, ऐसा जब कोई कहता है तो हमारे विद्वान उसे मूर्ख कहते हैं। किन्तु वही बात जब किसी मिश्टर हक्सले या मिश्टर टिंडल ने कही है ऐसा कहा जाता है तब उसे सत्य मान लिया जाता है। साहेब वाक्यं प्रमाणम् की मानसिकता आज भी बदली नहीं है|
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गुलामी गई किन्तु गुलामी की मानसिकता नहीं गई। स्वामी विवेकानंद कहते थे कि हम अपने मनीषियों और तपस्वियों के अनुभव को नहीं मानेंगे, किन्तु वही बात जब किसी मिश्टर हक्सले या मिश्टर टिंडल ने कही है, तो उसे सत्य मान लेंगे। साहेब वाक्यं प्रमाणम् की मानसिकता आज भी बदली नहीं है।
यह हीनता बोध १० पीढियों से चली आ रही अभारतीय शिक्षा के कारण और गहरा होता जा रहा है। इस शिक्षा के कारण लोगों को लगने लगा है कि भारत के पास विश्व को देने के लिये कुछ भी नहीं है। विश्व में कुछ भी श्रेष्ठ है तो वह यूरो अमरिकी देशों की देन है। डॉ राधाकृष्णन जैसे कई ख्याति प्राप्त भारतीय विद्वानों ने भी कुछ लेखन ऐसा किया है जो भारतीय साहित्य और संस्कृति के प्रति हीनता का भाव निर्माण करने वाला है। (संदर्भ : भारतीय विद्या भवन प्रकाशित व्हॉट इंडिया शुड नो) भारतीयता की विकृत समझ रखने वाले नौकरशाहों और शासकीय नीतियों ने भी इस हीनता बोध को बढाया ही है।
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यह हीनता बोध १० पीढियों से चली आ रही अभारतीय शिक्षा के कारण और गहरा होता जा रहा है। इस शिक्षा के कारण लोगों को लगने लगा है कि भारत के पास विश्व को देने के लिये कुछ भी नहीं है। विश्व में कुछ भी श्रेष्ठ है तो वह यूरो अमरिकी देशों की देन है। डॉ राधाकृष्णन जैसे कई ख्याति प्राप्त भारतीय विद्वानों ने भी कुछ लेखन ऐसा किया है जो भारतीय साहित्य और संस्कृति के प्रति हीनता का भाव निर्माण करने वाला है।<ref>व्हॉट इंडिया शुड नो, भारतीय विद्या भवन द्वारा प्रकाशित </ref> भारतीयता की विकृत समझ रखने वाले नौकरशाहों और शासकीय नीतियों ने भी इस हीनता बोध को बढाया ही है।
    
== जीवन का पूरा प्रतिमान ही अभारतीय ==
 
== जीवन का पूरा प्रतिमान ही अभारतीय ==
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इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्य: परं मन ।
 
इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्य: परं मन ।
 
मनसस्तु परा बुध्दिर्यो बुध्दे: परतस्तु स: ॥
 
मनसस्तु परा बुध्दिर्यो बुध्दे: परतस्तु स: ॥
अर्थात् इंद्रियों से मन सूक्ष्म है। मन से बुद्धि सूक्ष्म है। और आत्म तत्त्व तो बुद्धि से भी कहीं अधिक सूक्ष्म है। संस्कृत में सूक्ष्म का अर्थ होता है बलवान और व्यापक। पंचमहाभूतों से बनीं इंद्रियाँ स्थूल महाभूतों से तो सूक्ष्म है किन्तु मन उन से भी अधिक सूक्ष्म है। बुद्धि मन से और आत्म तत्त्व बुद्धि से भी अत्यंत सूक्ष्म है। जो सूक्ष्म होता है उस की मापन पट्टी से तो जो उस से स्थूल है उस का मापन किया जा सकता है, किन्तु जो उस से अधिक सूक्ष्म है उस का मापन नहीं किया जा सकता। इस दृष्टि से आत्म तत्त्व की मापन पट्टी से बुद्धि का, बुद्धि की मापन पट्टी से मन का और मन की मापन पट्टी से इंद्रियों का और इंद्रियों की मापन पट्टी से स्थूल पंचमहाभूतों का मापन किया जा सकता है। किन्तु इस से उलट नहीं किया जा सकता। भौतिक उपकरणों से मन, बुद्धि और आत्म तत्त्व के व्यापारों का मापन नहीं किया जा सकता। वर्तमान साईंस के मापन के जो उपकरण हैं वे प्रकृति के पंचमहाभौतिक घटकों का तो मापन कर सकते है लेकिन इस से सूक्ष्म घटकों का मापन नहीं कर सकते|
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अर्थात् इंद्रियों से मन सूक्ष्म है। मन से बुद्धि सूक्ष्म है। और आत्म तत्त्व तो बुद्धि से भी कहीं अधिक सूक्ष्म है। संस्कृत में सूक्ष्म का अर्थ होता है बलवान और व्यापक। पंचमहाभूतों से बनीं इंद्रियाँ स्थूल महाभूतों से तो सूक्ष्म है किन्तु मन उन से भी अधिक सूक्ष्म है। बुद्धि मन से और आत्म तत्त्व बुद्धि से भी अत्यंत सूक्ष्म है। जो सूक्ष्म होता है उस की मापन पट्टी से तो जो उस से स्थूल है उस का मापन किया जा सकता है, किन्तु जो उस से अधिक सूक्ष्म है उस का मापन नहीं किया जा सकता। इस दृष्टि से आत्म तत्त्व की मापन पट्टी से बुद्धि का, बुद्धि की मापन पट्टी से मन का और मन की मापन पट्टी से इंद्रियों का और इंद्रियों की मापन पट्टी से स्थूल पंचमहाभूतों का मापन किया जा सकता है। किन्तु इस से उलट नहीं किया जा सकता। भौतिक उपकरणों से मन, बुद्धि और आत्म तत्त्व के व्यापारों का मापन नहीं किया जा सकता। वर्तमान साईंस के मापन के जो उपकरण हैं वे प्रकृति के पंचमहाभौतिक घटकों का तो मापन कर सकते है लेकिन इस से सूक्ष्म घटकों का मापन नहीं कर सकते।
 
इस तरह इस से यह स्पष्ट होता है कि आत्म तत्त्व (इस मुख्य सेट का) यानी अध्यात्म के क्षेत्र के बुध्दि, मन और इन्द्रियाँ यह एक-एक हिस्से (सब-सेट) हैं। इसे समझने के उपरांत साईंस जो आज पंचमहाभूतों में उलझ गया है उस का मन, बुद्धि और अहंकार के अध्ययन का क्षेत्र खुल जाता है।
 
इस तरह इस से यह स्पष्ट होता है कि आत्म तत्त्व (इस मुख्य सेट का) यानी अध्यात्म के क्षेत्र के बुध्दि, मन और इन्द्रियाँ यह एक-एक हिस्से (सब-सेट) हैं। इसे समझने के उपरांत साईंस जो आज पंचमहाभूतों में उलझ गया है उस का मन, बुद्धि और अहंकार के अध्ययन का क्षेत्र खुल जाता है।
    
== एँथ्रॉपॉलॉजी के तहत् शोध कार्य ==
 
== एँथ्रॉपॉलॉजी के तहत् शोध कार्य ==
अंग्रेजों के काल से ही भारत में जो शोध कार्य शुरू हुवे उन का आधार एँथ्रॉपॉलॉजी ही रहा। एँथ्रॉपॉलॉजी के धुरंधर विद्वान क्लॉड लेवी स्ट्रॉस के अनुसार इस में “पराधीन, पराजित और खंडित समाज” इस की विषय वस्तू होते हैं। विजेता समाज विजित समाजों का अध्ययन करने के लिये जो उपक्रम करते हैं वही एँथ्रॉपॉलॉजी है। एँथ्रॉपॉलॉजी के अनुसार अपने समाज का अध्ययन नहीं किया जाता। पराजित समाज के विद्वान भी विजेता समाज का ऐसा अध्ययन नहीं करते। किन्तु भारतीय समाज के विद्वान अपने ही समाज का अध्ययन एँथ्रॉपॉलॉजी के अनुसार किये जा रहे हैं। (धर्मपाल- भारतीय चित्त, मानस और काल, पृष्ठ १४)| आज भारत में यह सब अध्ययन भारतीय दृष्टि से नहीं तो यूरोपीय दृष्टि से चल रहे हैं। इस का चोटी का उदाहरण धर्मपाल देते हैं। पं सातवळेकरजी द्वारा तत्कालीन अंग्रेजी शासन के विभागों के आधार पर पुरूष सूक्त का श्रेष्ठत्व समझाना (भारतीय चित्त, मानस और काल, पृष्ठ १५)। ऐसे सब काम बुध्दिमत्ता के तो होते है। किन्तु इस का कोई लाभ भारत को या भारतीय समाज को नहीं मिलता। यह सब शोध कार्य भारत के विषय में होते हैं। भारत के लिये नहीं। इस लिये इन शोध कार्यों का वर्तमान और भावि भारत से कोई लेना देना नहीं होता। भारत में जाति व्यवस्था के विषय में कई शोध कार्य चल रहे होंगे। लेकिन उन का स्वरूप इस व्यवस्था को निर्दोष और युगानुकूल बनाने का नहीं है और ना ही किसी वैकल्पिक व्यवस्था का विचार इन शोध कार्यों में है। हजारों वर्षों से जाति व्यवस्था भारत में रही है। तो उस के कुछ लाभ होंगे ही। उन लाभों का और उस के कारण हुई हानियों का विश्लेषणात्मक अध्ययन करना इन शोध कार्यों का उद्देष्य नहीं है। वास्तव में नई व्यवस्था के निर्माण से पहले पुरानी व्यवस्था को तोडना या टूटने देना यह बुध्दिमान समाज का लक्षण नहीं है। लेकिन हम ठीक ऐसा ही कर रहे हैं। महाकवि कालिदास कहते हैं –
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अंग्रेजों के काल से ही भारत में जो शोध कार्य शुरू हुवे उन का आधार एँथ्रॉपॉलॉजी ही रहा। एँथ्रॉपॉलॉजी के धुरंधर विद्वान क्लॉड लेवी स्ट्रॉस के अनुसार इस में “पराधीन, पराजित और खंडित समाज” इस की विषय वस्तू होते हैं। विजेता समाज विजित समाजों का अध्ययन करने के लिये जो उपक्रम करते हैं वही एँथ्रॉपॉलॉजी है। एँथ्रॉपॉलॉजी के अनुसार अपने समाज का अध्ययन नहीं किया जाता। पराजित समाज के विद्वान भी विजेता समाज का ऐसा अध्ययन नहीं करते। किन्तु भारतीय समाज के विद्वान अपने ही समाज का अध्ययन एँथ्रॉपॉलॉजी के अनुसार किये जा रहे हैं। (धर्मपाल- भारतीय चित्त, मानस और काल, पृष्ठ १४)आज भारत में यह सब अध्ययन भारतीय दृष्टि से नहीं तो यूरोपीय दृष्टि से चल रहे हैं। इस का चोटी का उदाहरण धर्मपाल देते हैं। पं सातवळेकरजी द्वारा तत्कालीन अंग्रेजी शासन के विभागों के आधार पर पुरूष सूक्त का श्रेष्ठत्व समझाना (भारतीय चित्त, मानस और काल, पृष्ठ १५)। ऐसे सब काम बुध्दिमत्ता के तो होते है। किन्तु इस का कोई लाभ भारत को या भारतीय समाज को नहीं मिलता। यह सब शोध कार्य भारत के विषय में होते हैं। भारत के लिये नहीं। इस लिये इन शोध कार्यों का वर्तमान और भावि भारत से कोई लेना देना नहीं होता। भारत में जाति व्यवस्था के विषय में कई शोध कार्य चल रहे होंगे। लेकिन उन का स्वरूप इस व्यवस्था को निर्दोष और युगानुकूल बनाने का नहीं है और ना ही किसी वैकल्पिक व्यवस्था का विचार इन शोध कार्यों में है। हजारों वर्षों से जाति व्यवस्था भारत में रही है। तो उस के कुछ लाभ होंगे ही। उन लाभों का और उस के कारण हुई हानियों का विश्लेषणात्मक अध्ययन करना इन शोध कार्यों का उद्देष्य नहीं है। वास्तव में नई व्यवस्था के निर्माण से पहले पुरानी व्यवस्था को तोडना या टूटने देना यह बुध्दिमान समाज का लक्षण नहीं है। लेकिन हम ठीक ऐसा ही कर रहे हैं। महाकवि कालिदास कहते हैं –
पुराणमित्येव न साधु सर्वं न चापि काव्यं नवमित्यवद्यम्  |
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पुराणमित्येव न साधु सर्वं न चापि काव्यं नवमित्यवद्यम् 
 
और यह भी कहा गया है –
 
और यह भी कहा गया है –
युक्तियुक्तं वचो ग्राह्यं बालादपि शुकादपि  |
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युक्तियुक्तं वचो ग्राह्यं बालादपि शुकादपि 
अयुक्तियुक्तं वचो त्याज्यं बालादपि शुकादपि  ||
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अयुक्तियुक्तं वचो त्याज्यं बालादपि शुकादपि  ।।
    
== एकात्म मानव दृष्टि ==
 
== एकात्म मानव दृष्टि ==
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== प्रमाण का भारतीय अधिष्ठान ==
 
== प्रमाण का भारतीय अधिष्ठान ==
 
- प्रस्थान त्रयी
 
- प्रस्थान त्रयी
भारत में यह मान्यता है कि वेद स्वत: प्रमाण है। वेद की ऋचाएं तो ऋषियों ने प्रस्तुत की हैं, ऐसी मान्यता है| लेकिन वे उन ऋषियों की बौध्दिक क्षमता या प्रगल्भता के कारण उन से नहीं जुडीं है। वे उन ऋचाओं के दृष्टा माने जाते है। ध्यानावस्था में प्राप्त अनुभूति की उन ऋषियों की अभिव्यक्ति को ही ऋचा कहते है। वेद ऐसी ऋचाओं का संग्रह है। यह मानव की बुद्धि के स्तर की रचनाएं नहीं है। इसी लिये वेदों को अपौरुषेय माना जाता है। और स्वत: प्रमाण भी माना जाता है। महर्षी व्यास ने इन ऋचाओं को चार वेदों में सूत्रबध्द किया। वेदों के सार की सूत्र रूप में प्रस्तुति ही वेदान्त दर्शन याने ब्रह्मसूत्र है।  
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भारत में यह मान्यता है कि वेद स्वत: प्रमाण है। वेद की ऋचाएं तो ऋषियों ने प्रस्तुत की हैं, ऐसी मान्यता है। लेकिन वे उन ऋषियों की बौध्दिक क्षमता या प्रगल्भता के कारण उन से नहीं जुडीं है। वे उन ऋचाओं के दृष्टा माने जाते है। ध्यानावस्था में प्राप्त अनुभूति की उन ऋषियों की अभिव्यक्ति को ही ऋचा कहते है। वेद ऐसी ऋचाओं का संग्रह है। यह मानव की बुद्धि के स्तर की रचनाएं नहीं है। इसी लिये वेदों को अपौरुषेय माना जाता है। और स्वत: प्रमाण भी माना जाता है। महर्षी व्यास ने इन ऋचाओं को चार वेदों में सूत्रबध्द किया। वेदों के सार की सूत्र रूप में प्रस्तुति ही वेदान्त दर्शन याने ब्रह्मसूत्र है।  
 
वेदों की विषय वस्तू के मोटे मोटे तीन हिस्से किये जा सकते है। पहला है इस का उपासना पक्ष।दूसरा है कर्मकांड पक्ष। और तीसरा है इन का ज्ञान का पक्ष। यह ज्ञान पक्ष उपनिषदों में अधिक विस्तार से वर्णित है। और उपनिषदों का सार है श्रीमद्भगवद्गीता।  
 
वेदों की विषय वस्तू के मोटे मोटे तीन हिस्से किये जा सकते है। पहला है इस का उपासना पक्ष।दूसरा है कर्मकांड पक्ष। और तीसरा है इन का ज्ञान का पक्ष। यह ज्ञान पक्ष उपनिषदों में अधिक विस्तार से वर्णित है। और उपनिषदों का सार है श्रीमद्भगवद्गीता।  
 
वेदों के सार के रूप में ब्रह्मसूत्र, वेद ज्ञान के विषदीकरण की दृष्टि से उपनिषद और उपनिषदों के सार के रूप में श्रीमद्भगवद्गीता ऐसे तीन को मिला कर 'प्रस्थान त्रयी' कहा जाता है।  
 
वेदों के सार के रूप में ब्रह्मसूत्र, वेद ज्ञान के विषदीकरण की दृष्टि से उपनिषद और उपनिषदों के सार के रूप में श्रीमद्भगवद्गीता ऐसे तीन को मिला कर 'प्रस्थान त्रयी' कहा जाता है।  
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उपर्युक्त दोनों ही क्षेत्र वास्तव में प्रस्थान त्रयी के बाहर के नहीं है। सूक्ष्मता के क्षेत्र में, अंतरिक्ष ज्ञान के क्षेत्र में और स्वयंचलित यंत्रों के ऐसे तीनों क्षेत्रों में प्रस्थान त्रयी का प्रमाण उपयुक्त ही है। अध्यात्म विज्ञान तो नॅनो से कहीं सूक्ष्म, वर्तमान साईंस की कल्पना से अधिक व्यापक, विशाल और पूरी सृष्टि के निर्माण, रचना और विनाश का ज्ञान रखता है।
 
उपर्युक्त दोनों ही क्षेत्र वास्तव में प्रस्थान त्रयी के बाहर के नहीं है। सूक्ष्मता के क्षेत्र में, अंतरिक्ष ज्ञान के क्षेत्र में और स्वयंचलित यंत्रों के ऐसे तीनों क्षेत्रों में प्रस्थान त्रयी का प्रमाण उपयुक्त ही है। अध्यात्म विज्ञान तो नॅनो से कहीं सूक्ष्म, वर्तमान साईंस की कल्पना से अधिक व्यापक, विशाल और पूरी सृष्टि के निर्माण, रचना और विनाश का ज्ञान रखता है।
 
ऐसे साईंटिस्ट प्रस्थान त्रयी के बारे में जानते ही नहीं है। किन्तु उन्हें समझाने का काम भारतीय शास्त्रों के जानकारों का है। वर्तमान साईंटिस्टों को यह समझाना होगा कि पंचमहाभूतों के साथ मन, बुद्धि और अहंकार के साथ अष्टधा प्रकृति तक सीमा रखने वाला विज्ञान यह अंगी है। और केवल पंचमहाभूतों तक सीमित रहने वाला साईंस उसका अंग है। अष्ट्धा प्रकृति से भी अत्यंत सूक्ष्म जो आत्म तत्त्व है उसका क्षेत्र याने अध्यात्म शास्त्र यह तो और भी व्यापक है। अध्यात्म शास्त्र यह अंगी है और अष्टधा प्रकृति की सीमाओं वाला भारतीय विज्ञान उसका अंग है। और इस लिये साईंस, भारतीय विज्ञान और अध्यात्म विज्ञान इन में कोई विरोधाभास नहीं है। यह तो एक दूसरे से अंगांगी भाव से जुडे विषय है।  
 
ऐसे साईंटिस्ट प्रस्थान त्रयी के बारे में जानते ही नहीं है। किन्तु उन्हें समझाने का काम भारतीय शास्त्रों के जानकारों का है। वर्तमान साईंटिस्टों को यह समझाना होगा कि पंचमहाभूतों के साथ मन, बुद्धि और अहंकार के साथ अष्टधा प्रकृति तक सीमा रखने वाला विज्ञान यह अंगी है। और केवल पंचमहाभूतों तक सीमित रहने वाला साईंस उसका अंग है। अष्ट्धा प्रकृति से भी अत्यंत सूक्ष्म जो आत्म तत्त्व है उसका क्षेत्र याने अध्यात्म शास्त्र यह तो और भी व्यापक है। अध्यात्म शास्त्र यह अंगी है और अष्टधा प्रकृति की सीमाओं वाला भारतीय विज्ञान उसका अंग है। और इस लिये साईंस, भारतीय विज्ञान और अध्यात्म विज्ञान इन में कोई विरोधाभास नहीं है। यह तो एक दूसरे से अंगांगी भाव से जुडे विषय है।  
पर्यावरण प्रदूषण की समस्या के निराकरण की साईंस की दृष्टी भारतीय विज्ञान की दृष्टी, इन दोनों को समझने से इन का परस्पर संबंध और इनमे अंगी और अंग सम्बन्ध समझ में आ जाएंगे| वर्तमान में पर्यावरण के प्रदूषण को दूर करने के लिए बहुत गंभीरता से विचार हो रहा है| प्रमुखता से जल, हवा और पृथ्वी के प्रदूषण का विचार इसमें है| यह साईंटिफिक ही है| लेकिन यह अधूरा है| भारतीय विज्ञान की दृष्टी से पर्यावरण याने प्रकृति के आठ घटक हैं| जल, हवा और पृथ्वी इन तीन महाभूतोंका जिनका आज विचार हो रहा है, उनके अलावा आकाश और तेज ये दो महाभूत और मन, बुद्धि और अहंकार ये त्रिगुण मिलाकर अष्टधा प्रकृति बनती है| इनमें प्रदूषण के लिए जबतक, मन और बुद्धि के प्रदूषण का विचार और इस प्रदूषण का निराकरण नहीं होगा पर्यावरण प्रदूषण के निराकरण की कोई योजना सफल नहीं होनेवाली| इस का तात्पर्य है कि वर्तमान साईंस अंग है और भारतीय विज्ञान अंगी है| इस अंगांगी भाव को स्थापित करने से ही प्रस्थान त्रयी की पुन: सार्वकालिक और सार्वत्रिक प्रमाण के रूप से स्थापना हो सकेगी तथा प्रमाण से संबंधित विवाद का शमन होगा।
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पर्यावरण प्रदूषण की समस्या के निराकरण की साईंस की दृष्टी भारतीय विज्ञान की दृष्टी, इन दोनों को समझने से इन का परस्पर संबंध और इनमे अंगी और अंग सम्बन्ध समझ में आ जाएंगे। वर्तमान में पर्यावरण के प्रदूषण को दूर करने के लिए बहुत गंभीरता से विचार हो रहा है। प्रमुखता से जल, हवा और पृथ्वी के प्रदूषण का विचार इसमें है। यह साईंटिफिक ही है। लेकिन यह अधूरा है। भारतीय विज्ञान की दृष्टी से पर्यावरण याने प्रकृति के आठ घटक हैं। जल, हवा और पृथ्वी इन तीन महाभूतोंका जिनका आज विचार हो रहा है, उनके अलावा आकाश और तेज ये दो महाभूत और मन, बुद्धि और अहंकार ये त्रिगुण मिलाकर अष्टधा प्रकृति बनती है। इनमें प्रदूषण के लिए जबतक, मन और बुद्धि के प्रदूषण का विचार और इस प्रदूषण का निराकरण नहीं होगा पर्यावरण प्रदूषण के निराकरण की कोई योजना सफल नहीं होनेवाली। इस का तात्पर्य है कि वर्तमान साईंस अंग है और भारतीय विज्ञान अंगी है। इस अंगांगी भाव को स्थापित करने से ही प्रस्थान त्रयी की पुन: सार्वकालिक और सार्वत्रिक प्रमाण के रूप से स्थापना हो सकेगी तथा प्रमाण से संबंधित विवाद का शमन होगा।
 
निष्कर्ष :
 
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