Dharmik Education Paradigm (धार्मिक शिक्षा दृष्टि)

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शिक्षा की धार्मिक (भारतीय) दृष्टि और वर्तमान अधार्मिक (अधार्मिक) दृष्टि में आमूलाग्र अन्तर है। यह अन्तर जीवन दृष्टि के अन्तर के कारण है। जीवन के लक्ष्य की भिन्नता के कारण है।[1]

शिक्षा के विषय

अध्ययन के प्रत्येक विषय का संदर्भ काम और अर्थ को धर्मानुकूल रखने के साथ होता है। पुरूषार्थों के पालन हेतु विद्यार्थी को विवेकार्जन, ज्ञानार्जन, बलार्जन, श्रध्दार्जन, कौशलार्जन करना आवश्यक होता है। किसी भी विषय के अध्ययन का अर्थ होता है उस विषय के लक्षणों को जीवन में उतारना।

विषयों के अंगांगी संबंध के संदर्भ में प्रत्येक विषय का अध्ययन

मानव जीवन के लक्ष्य को ध्यान में रखकर प्रत्येक विषय की विषयवस्तु का निर्धारण करना। अर्थात् केवल आध्यात्म ही नहीं, विज्ञान और तन्त्रज्ञान जैसे विषय भी अध्ययनकर्ता को मोक्ष की दिशा में आगे बढाएँ इसे ध्यान में रखकर विषयवस्तु तय करना।

करणीय अकरणीय विवेक

करणीय वे बातें होतीं हैं जो सर्वे भवन्तु सुखिन: से सुसंगत होतीं हैं। और अकरणीय वे बातें होतीं हैं जिन के करने से किसी को हानि होती हो। किसी बात के सरल होने से वह करणीय नहीं हो जाती और ना ही किसी बात के कठिन होने से या असंभव लगनेपर वह अकरणीय बन जाती है। असंभव लगने पर भी यदि वह सब के हित में है तो करणीय तो वही रहता है। उसे संभव चरणों में बाँटकर करना होता है।

किसी भी प्राप्त परिस्थिति में करणीय और अकरणीय क्या है यह समझना कभी कभी कठिन ही नहीं तो बहुत कठिन होता है। सामान्य लोगों के लिये ऐसे समय में श्रेष्ठ लोगों के अनुकरण की बात श्रीमद्भगवद्गीता में कही गई है।

स्वभाव शुध्दि और वृद्धि की शिक्षा

मोटे मोटे तौर पर जो भी स्वभाव धर्म व्यवस्था निर्धारित करे उन स्वभावों की शुध्दि और वृद्धि की व्यवस्था करना। यह करते समय समाज की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर सभी स्वभावों के सन्तुलन और समायोजन का भी ध्यान रखना।

काम पुरूषार्थ की शिक्षा

मनुष्य के जीवन का पहला पुरूषार्थ काम है। काम का अर्थ कामना है, इच्छा है। इच्छाएँ धर्म के दायरे में रहें इसलिये काम की शिक्षा आवश्यक होती है। इच्छाएँ मन करता है। इसलिये काम की शिक्षा का अर्थ है मन की शिक्षा। सामान्यत: बुद्धि सत्यानुगामी होती है। मन के विकार ही उसे भटकाते हैं। मन की शिक्षा के लिये पहले मन को ठीक से समझना होगा। मन की शिक्षा का अर्थ है मन को बुद्धि के नियंत्रण में विवेक के नियंत्रण में रखने की शिक्षा।

अर्थ पुरुषार्थ की शिक्षा

अर्थ से तात्पर्य यहाँ केवल पैसे से नहीं है। कामनाओं की पूर्ति के लिए किये गये प्रयास और साथ में उपयोग में लाए गए धन, साधन और संसाधन भी अर्थ पुरूषार्थ के हिस्से हैं। जिस प्रकार काम पुरुषार्थ जीवनव्यापि है उसी प्रकार से अर्थ पुरूषार्थ भी जीवन व्यापने वाला है।

जब लेने के स्थान पर देने पर बल दिया जाता है तब अर्थव्यवस्था अच्छी चलती है। सर्वहितकारी होती है। दिया तो वही जा सकता है जो अर्जित किया हो या अपने पास पहले से ही हो। अपने पास जो है उस में से सर्वश्रेष्ठ जो है उसे देने की मानसिकता समाज को श्रेष्ठ बनाती है। ऐसी मानसिकतावाले समाज का मनुष्य जो भी करता है वह सर्वश्रेष्ठ बने इसका प्रयास करता है। और ऐसा प्रयास जिस समाज के लोग करेंगे उस समाज का सम्मान तो अन्य समाज करेंगे ही। दान की भी यही संकल्पना है। जो सर्वश्रेष्ठ है उसी का तो दान किया जाता है (नचिकेत की कथा)। अर्थ पुरुषार्थ की शिक्षा के कुछ बिंदु निम्न हैं:

  • भूमि, जल, वायू, सूर्यप्रकाश आदि प्रकृति के वरदान हैं। सामान्यत: प्रत्येक मनुष्य को ये सहज ही उपलब्ध होते हैं।
  • खनिज, रत्नसंपदा, जीव-विविधता ये प्राकृतिक संपदाएँ हैं। इनको बनाया नहीं जा सकता। प्रयासों से इनकी प्राप्ति हो सकती है।
  • समृध्दि के लिये प्राकृतिक संसाधन, बुद्धि और कुशलता ऐसी तीन बातों के समायोजन की आवश्यकता होती है।
  • जिस में प्राणशक्ति अधिक है वह अधिक कर्मवान है। वह अधिक अच्छी तरह कौशलों का अर्जन कर सकता है।
  • सत्य, न्याय, शिक्षा, स्वास्थ्य, सुरक्षा आदि सांस्कृतिक या धार्मिक बातों को धन से नहीं तोला जा सकता। ये बातें अनमोल होतीं हैं। कहा गया है: अर्थशास्त्रात् बलवत् धर्मशास्त्रात् इति स्मृता:। अर्थशास्त्र धर्मशास्त्र द्वारा नियंत्रित होना चाहिये।
  • उत्पादक काम तीन प्रकार के होते हैं। उपयोगी, अनुपयोगी और हानिकारक। केवल उपयोगी काम करने से समृध्दि प्राप्त होती है। अनुपयोगी काम करने से आभासी समृध्दि प्राप्त होती है। हानिकारक काम करने से समृध्दि नष्ट हो जाती है।
  • अपने ‘स्व’भाव के अनुसार काम करने से काम में सहजता भी आती है और काम बोझ नहीं बनता। काम में आनंद आता है। छुट्टी की आवश्यकता नहीं होती। वैसे भी प्रकृति में कोई छुट्टी नहीं लेता। फिर मानव क्यों छुट्टी ले'?
  • प्रकृति तो गाँवों में होती है। ग्राम की तुलना में शहर तो अप्राकृतिक ही होते हैं। इसलिये अर्थव्यवस्था ग्रामकेंद्री होनी चाहिये। अर्थव्यवस्था को ग्रामकेंद्री बनाने के लिये सर्वप्रथम सभी प्रकार के विद्याकेन्द्र गाँवों में ले जाने होंगे। प्रगत अध्ययन के केन्द्र शहरों में चल सकते हैं।
  • प्रभूतता की अर्थव्यवस्था हो। माँग की या कमी(स्कॅर्सिटी) की नहीं।
  • विभूति संयम और सन्तुलन रहने से अर्थ का अभाव और प्रभाव दोनों नहीं हों।
  • इन सब के लिये ‘इच्छाओं के संयम की शिक्षा के साथ ही सर्वे भवन्तु सुखिन: की शिक्षा’ आवश्यक है।
  • अर्थव्यवस्था क्रय-विक्रय की नहीं व्यय की होनी चाहिये। देने की होनी चाहिये। माँग की नहीं। छोडने की होनी चाहिये। हथियाने की नहीं। दान की होनी चाहिये। भीख की नहीं। ऐसी मानसिकता बनाने का काम मुख्यत: विद्याकेंद्रों का और इस मानसिकता को दृढ बनाने का काम केंद्रों की शिक्षा व्यवस्था का होता है।
  • संपन्नता और समृध्दि में अन्तर होता है। धन-संचय होने से संपन्नता आती है। लेकिन देने की मानसिकता नहीं हो तो उसे समृध्दि नहीं कह सकते। धन का कम अधिक होना नहीं, देने की मानसिकता ही व्यक्ति और समाज को समृध्द बनाती है। इसीलिये भारत में अभी अभी ५०-६० वर्ष पहले तक बाजार में कीमत तो एक सैंकडा आम की तय होती थी। लेकिन बेचने वाला १३२ आम देता था। जीवन की गति बढ जाने से समाज पगढीला बन जाता है। संस्कृति विहीन हो जाता है। हर समाज की अपनी संस्कृति होती है। संस्कृति नष्ट होने के साथ समाज भी विघटित हो जाता है। जीवन की इष्ट गति संस्कृति के विकास के लिये पूरक और पोषक होती है। इसलिए जीवन की इष्ट गति की शिक्षा भी शिक्षा का एक अत्यंत महत्वपूर्ण पहलू है। अर्थ पुरुषार्थ के अन्य महत्त्वपूर्ण बिदू जानने के लिये कृपया यह अध्याय देखें।

धर्म पुरुषार्थ की शिक्षा

इसके कुछ महत्त्वपूर्ण बिंदू निम्न हैं:
  • अपने लिये करें वह कर्म और अन्यों के हित के लिये करें वह धर्म - ऐसी धर्म की अत्यंत सरल व्याख्या की गई है।
  • प्रकृति के नियम धर्म हैं। प्रकृति के नियमों का सब के हित में उपयोग करना संकृति है। सामान्य परिस्थितियों में धर्माचरण की समझ निर्माण करने के लिये धर्मशिक्षा होती है।
  • इच्छाओं को और प्रयासों को धर्म की सीमा में रखना सिखाना ही धर्म शिक्षा है।
  • अपने समाज, सृष्टि के विविध घटकों के प्रति कर्तव्यों के अनुसार व्यवहार करना सिखाना धर्मशिक्षा है।
  • सृष्टि में हर अस्तित्व का अपना अपना प्रयोजन है। इस प्रयोजन के अनुसार उसका उपयोग करना धर्म है। जैसे मनुष्य का शरीर मांसाहार के लिये नहीं बना हुआ है। इसलिए मांसाहार करना अधर्म है।
  • करणीय अकरणीय विवेक ही वास्तव में धर्म का आधार है।

मोक्ष पुरुषार्थ की शिक्षा

मोक्ष की शिक्षा नहीं होती। साधना होती है। यह व्यक्ति को स्वत: ही करनी होती है। मोक्ष प्राप्ति के लिये प्रेरणा दी जा सकती है। अष्टांग योग में से बहिरंग योग तक मार्गदर्शन भी किया जा सकता है। लेकिन आगे का मार्ग तो साधना का ही होता है।

शिक्षक

शिक्षक धर्मनिष्ठ हो। धर्म का जानकार हो। धर्म सिखाने की क्षमता और कौशल जिस के पास है ऐसा हो।

धर्माचरण सिखाने के साथ ही विवेकार्जन, ज्ञानार्जन, बलार्जन, श्रध्दार्जन, कौशलार्जन के लिये मार्गदर्शन की शिक्षक की क्षमता हो। शिष्य को अपनी संतान मानकर उसे शिक्षित करने में कोई कमी नहीं रखनेवाला ही श्रेष्ठ शिक्षक होता है।

गुरू से शिष्य सवाई - परंपरा का निर्माण : विवेक, ज्ञान, बल, श्रध्दा, कौशल आदि सभी बातों में गुरू से शिष्य सवाई बने ऐसा प्रयास होना चाहिये।

शिक्षक सर्वप्रथम आचार्य होना चाहिये।

आचार्य की व्याख्या है[citation needed]

आचिनोति हि शास्त्रार्थं आचरे स्थापयत्युत ।

स्वयमाचरत्ये यस्तु स आचार्य: प्रचक्षते ॥

अर्थ : जो शास्त्रों का जानकार है, जो शास्त्रों के ज्ञान को आचरण में स्थापित करता है, स्वयं भी वैसा आचरण करता है और छात्रों से आचरण करवाता है उसे आचार्य कहते हैं।

शिक्षक के अन्य गुण निम्न हैं:

  • जिसे ज्ञानार्जन में आनंद आता है, जो स्वयं भी ज्ञानवान है, श्रध्दा (अपने आप में, ज्ञान में और विद्यार्थी में) रखता है, विद्यार्थी को अपने पुत्र की भाँति प्रेम करता है, विद्यार्थीप्रिय है, तत्वनिष्ठ है (सौदेबाज नहीं है), "समाज को श्रेष्ठ बनाने की जिम्मेदारी मेरी है" ऐसा मानने वाला, सभ्य, सुशील, गौरवशील, सुसंस्कृत, मन के विकारों को नियंत्रण में रखता है, सन्मार्गगामी, लालच, भय, खुशामद और निंदा से दूर रहनेवाला आदि।
  • शिशू, बाल, किशोर बच्चों का शिक्षक अपंग, अंध, अस्पष्ट उच्चारण वाला, गंदे दाँतवाला न हो। सुदृढ, सशक्त, प्रभावी व्यक्तित्ववाला हो।
  • आचार्य की नियुक्ति का अधिकार केवल उससे श्रेष्ठ आचार्य को है, अन्य किसी को नहीं है।

शिक्षकाधिष्ठित शिक्षा

इसी को वास्तव में शिक्षा की स्वायत्तता कहते हैं। उपर्युक्त क्षमताओं वाले श्रेष्ठ शिक्षक को 'मूर्तिमंत शिक्षा' कहा जाता है। जब शिक्षा का अधिष्ठाता ऐसे शिक्षक के स्थान पर अन्य कोई होता है तब शिक्षा दूषित हो जाती है। अधूरी हो जाती है। कई बार विकृत और विपरीत भी हो जाती है।

नि:शुल्क शिक्षा - सामाजिक जिम्मेदारी

शिक्षा नि:शुल्क हो। श्रेष्ठ मानव का निर्माण यही शिक्षा का लक्ष्य होता है। और श्रेष्ठ मानव निर्माण से अधिक श्रेष्ठ काम दुनिया में अन्य कोई नहीं हो सकता। इसीलिये शिक्षा बिकाऊ नहीं होती। शिक्षा जब पैसे से खरीदी जाती है शिक्षा 'शिक्षा' नहीं रहती। वैसे भी धन के अभाव में समाज की प्रतिभा अविकसित रह जाए यह किसी भी श्रेष्ठ समाज के लिये लांछन की बात है। नि:शुल्क शिक्षा का ही अर्थ है शिक्षा समाज पोषित होना। शिक्षक जब अपनी आजीविका से आश्वस्त होगा तब ही वह अपनी पूरी शक्ति श्रेष्ठ मानव निर्माण में लगा सकता है। अन्यथा नहीं। इसलिये यह अनिवार्य है कि शिक्षक की सभी आवश्यकताओं की पूर्ति समाज स्वत: होकर करे।

शासन की भूमिका

शासन समाज का मालिक नहीं होता। शासन व्यवस्था, राष्ट्र के याने राष्ट्रीय समाज के सुचारू रूप से चले इस दृष्टि से दुर्जनों और मूर्खों से संरक्षण की व्यवस्था मात्र होती है। शासन का काम श्रेष्ठ शिक्षा को याने शिक्षकों और विद्याकेंद्रों को सुरक्षा, सहायता और समर्थन देने का है।

भारतीय शिक्षा के मूलतत्व

२०वीं सदी तक भारत में शिक्षा का स्वरूप गुरुगृहवास के साथ जुड़ा हुआ था। गुरु के घर के काम करते करते बच्चे जीने की शिक्षा पाते थे। प्रत्यक्ष गणित, इतिहास आदि विषयों के सिखाने की हर शिक्षक की अपनी अपनी पद्धति हुआ करती थी। और यह पद्धति भी हर विद्यार्थी के अनुसार भिन्न हुआ करती थी। अध्येता की जीवन्तता को ध्यान में रखकर शिक्षा लेने और देने का काम होता था। यांत्रिकता को स्थान नहीं था। जीवन में अनंत प्रकार की विविधता होती है। हर बच्चे के पंचकोशों की क्षमताओं और विकास की संभावनाओं की असीम विविधता ध्यान में रखकर शिक्षक को बच्चे को शिक्षित करना होता है। और शिक्षा जैसी होती है समाज भी वैसा ही बनता है। इसे ध्यान में रखकर हमारे पूर्वजों ने एक श्रेष्ठ शिक्षा व्यवस्था का निर्माण किया था। इस शिक्षा व्यवस्था के मोटे मोटे सूत्र निम्न होते हैं:

  1. शिक्षा क्रय विक्रय की वस्तू नहीं है। समाज के हर बालक को उस की योग्यता और क्षमता के अनुसार शिक्षा प्राप्त हो यह सामाजिक जिम्मेदारी है। समाज के प्रत्येक घटक की जिम्मेदारी है। इसीलिए भारत में अंग्रेजों के आने से पूर्व अन्न और औषधि के साथ ही शिक्षा नि:शुल्क ही हुआ करती थी। शिक्षा नि:शुल्क ही होनी चाहिए।
  2. ज्ञानी, समर्पित, कुशल शिक्षक को ऐश्वर्य तो नहीं मिलता था लेकिन उसे अपनी आजीविका की चिंता भी नहीं करनी पड़ती थी। शिक्षक की आजीविका की जिम्मेदारी समाज की है। शासन भी समाज का ही एक हिस्सा होता है। शिक्षक के माँगे बिना ही उसकी सारी आवश्यकताओं की पूर्ति समाज को करनी होती है। गुरुदक्षिणा, समित्पाणिता, दान, भिक्षा आदि के माध्यम से समाज को अपना उत्तरदायित्व निभाना चाहिए।
  3. मानव कोई यंत्र से उत्पादन की हुई वस्तू नहीं है। मानव एक जीवंत ईकाई है। इसलिये शिक्षा एक जीवमान प्रक्रिया है। हर बालक को उसकी अन्यों से भिन्नता को समझकर उसके और सभी के हित की दृष्टि से ढालने की प्रक्रिया है। इसलिए हर बालक के लिये शिक्षा की प्रक्रिया एक जैसी नहीं होगी।
  4. हर बालक के ज्ञानार्जन के कारणों (साधनों) का विकास आयु की अवस्था के अनुसार होता है। इसी तरह ज्ञानार्जन की या शिक्षा की प्रक्रिया भी आयु की अवस्था के अनुसार भिन्न होती है।
  5. शिक्षा मुख्यत: ज्ञानार्जन, कौशालार्जन, बलार्जन, गुनार्जन के लिये होती है। अर्थार्जन याने पैसा कमाना यह तो उसका आनुषंगिक लाभ है। यह भी जीवन के लिये महत्वपूर्ण होता है। लेकिन अन्य बातों के अर्जन से अर्थार्जन तो सहज ही किया जा सकता है।
  6. अध्ययन शिक्षा की मूल प्रक्रिया है। अध्यापन तो अध्ययन की प्रक्रिया का प्रेरक रूप ही है। अध्ययन तो अध्यापन के बगैर भी हो सकता है। लेकिन बिना अध्ययनकर्ता के कोई अध्यापन संभव नहीं होता। इसलिए शिक्षा अच्छी होने के लिये बालक का विद्यार्थी होना अनिवार्य है। हर बालक प्रारंभ से ही विद्यार्थी नहीं होता। उसे विद्यार्थी बनाना यह माता-पिता की प्राथमिक और बाद में शिक्षक की जिम्मेदारी है।
  7. बालक को व्यक्तिगत तथा सामूहिक रूप में और साथ ही में समाज को भी निकट से देखने वाला शिक्षक जैसा अन्य घटक नहीं होता। इसीलिये शिक्षा श्रेष्ठ तब ही बन सकती है जब शिक्षा शिक्षक के अधीन रहे। शिक्षक धर्मनिष्ठ रहे, समाजनिष्ठ रहे, राष्ट्रनिष्ठ रहे और शिक्षा शिक्षकाधिष्ठित रहे यही धार्मिक (भारतीय) परंपरा है। जब शिक्षा शिक्षकाधिष्ठीत होती है शिक्षा को स्वायत्त कहा जाता है। क्योंकि शिक्षक ही शिक्षा का मूर्तिमंत स्वरूप होता है। राजा शिक्षा नियंत्रक तो प्रजा में अराजक।
  8. केवल शिक्षक के अधीन होने से शिक्षा श्रेष्ठ नहीं बनती। उसके लिये शिक्षक का ज्ञानी, कुशल, श्रेष्ठ समाज निर्माण के लिये समर्पित राष्ट्रनिष्ठ, शिक्षानिष्ठ और विद्यार्थीनिष्ठ होना भी आवश्यक है।
  9. मनुष्य परमात्मा का ही अंश है। इसलिये मूलत: वह सर्वज्ञानी है। अपने आप में पूर्ण है। लेकिन देहभाव के कारण वह अपने को कुछ भिन्न मानता है। मनुष्य को उसके देहभाव से मुक्त करना ही शिक्षा का काम है। समाज के साथ और आगे जड़-चेतन पर्यावरण के साथ आत्मीयता की भावना और व्यवहार का विकास ही शिक्षा का वास्तविक लक्ष्य है। यही व्यक्ति के समग्र विकास की धार्मिक (भारतीय) संकल्पना है।
  10. मन बहुत चंचल होता है। इसे स्थिर किया जा सकता है। मन अनेकाग्र होता है। सदैव भटकता रहता है। इसे एकाग्र किया जा सकता है। मन महा-बलवान होता है। इसे नियंत्रण में लाया जा सकता है। मन द्वंद्वात्मक होता है। इसे निर्द्वंद्व किया जा सकता है। मन विकारों से ग्रस्त होता है। इसे विकारों से मुक्त किया जा सकता है। विषयों से आसक्ति मन का स्वभाव है। इसे अनासक्त बनाया जा सकता है। मन बुद्धि पर और विषयों के गुलाम इन्द्रिय मन पर नियंत्रण करते हैं तब अनर्थ होता है। मन को बुद्धि के नियंत्रण में लाने के लिये ही शिक्षा होती है। इसीलिये स्वामी विवेकानंद कहते थे मन को नियंत्रण में रखना ही शिक्षा का मुख्य पहलू है।
  11. मनुष्य के पास मन, बुद्धि, चित्त आदि अन्य प्राणियों की तुलना में अत्यंत विकासशील होते हैं। पशु पक्षी और प्राणियों में इनका स्तर बहुत निम्न होता है। अन्य योनियाँ भोग योनियाँ हैं। केवल मनुष्य योनि ही कर्मयोनि है। कर्म योनि का अर्थ है जो अपने मन बुद्धि के अनुसार कर्म करने के लिये स्वतन्त्र है। इसीलिये केवल मनुष्य को ही शिक्षा की आवश्यकता होती है।
  12. ज्ञानार्जन के लिये सात्विक होना बहुत उपयोगी होता है। अन्न के अति सूक्ष्म हिस्से से मन बनता है। बुद्धि बनती है। सात्विक अन्न खाने से ही सात्विकता निर्माण होती है। इसलिये विद्यार्थी दशा में सात्विक अन्न ही खाना चाहिए।
  13. किसी बात को बार बार करने से जब उसके करने में सहजता आती है तब उस बात का संस्कार हो जाता है।
  14. शिक्षा के तीन पहलू हैं। भाव-शिक्षा अर्थात सदाचार की शिक्षा, कर्म-शिक्षा अर्थात व्यवहार की, प्रत्यक्ष करने की शिक्षा और शास्त्र-शिक्षा अर्थात व्यवहार के सैद्धांतिक पक्ष की शिक्षा। जब तक सदाचार की और प्रत्यक्ष व्यवहार की शिक्षा बालक प्राप्त नहीं करता तब तक वह शास्त्रीय शिक्षा का अधिकारी नहीं बनता। अच्छे बनने की याने सदाचार की शिक्षा तो सभी के लिये अनिवार्य है।
  15. शिक्षा जन्म-जन्मान्तर चलने वाली प्रक्रिया है। एक जन्म में यह जन्म से मृत्युपर्यंत तक चलती है। आयु की अवस्था के अनुसार शिक्षा के तीन हिस्से बनते हैं। कुटुम्ब शिक्षा, विद्याकेन्द्र शिक्षा और लोकशिक्षा। धर्म-शिक्षा और कर्म-शिक्षा कुटुम्ब में, शास्त्र-शिक्षा विद्याकेंद्रों में और लोक-शिक्षा समाज में होती है।
  16. समाज में धर्म सर्वोपरि है। शिक्षा का काम धर्माचरण सिखाना है। शिक्षा धर्म की प्रतिनिधि होती है।
  17. वर्तमान में सभी विषयों की विषय वस्तू का स्वरूप राजनीतिक है। भारत में धर्म सर्वोपरि होने से विषयवस्तु धर्म सुसंगत ही होनी चाहिए।
  18. सामान्यत: बालक के ज्ञानार्जन के करणों का संभाव्य विकास लगभग १५ वर्ष की आयुतक पूरा हो जाता है। इसीलिये इस आयु तक शिक्षा का उद्देश्य ज्ञानार्जन के करणों का विकास करना होता है। विविध विषयों की विषयवस्तु इस विकास के साधन के रूप में होती है। १६ वर्ष की आयु से विकसित ज्ञानार्जन के करण साधन बन जाते हैं और विषय का अध्ययन साध्य बन जाता है।
  19. शासन की या अभिभावकों की अपेक्षाओं की पूर्ति के लिए शिक्षा नहीं होती। शिक्षा होती है उन्हें शिक्षा से किस प्रकार की अपेक्षा रखनी चाहिए यह सिखाने के लिये।
  20. जिस देश में शिक्षक की प्रतिष्ठा सबसे ऊपर होती है वह देश या समाज विश्व में सबसे अधिक प्रतिष्ठित होता है। यह प्रतिष्ठा शिक्षक को अपने ज्ञान, कौशल, लोकसंग्रह, समर्पण भाव आदि से अर्जित करनी होती है।
  21. कहा गया है - माता प्रथमो गुरु:, पिता द्वितीय:। और भी कहा गया है – लालयेत पञ्चवर्षाणी दशवर्षाणी ताडयेत्। जन्म से पांच वर्ष तक माता ही बच्चे की पहली गुरु होती है। पिता दूसरा गुरु होता है। इस आयु में बच्चे को अच्छी आदतें लगाना, उसकी रूचि को पहचानना, उसके इन्द्रियों का श्रेष्ठतम विकास करना इसकी प्राथमिक जिम्मेदारी माँ की होती है। दुसरे क्रमांक पर यह जिम्मेदारी पिता की है। बालक की रूचि ध्यान में लेकर योग्य गुरु के पास उसे ले जाना पिता की जिम्मेदारी है।
  22. धर्म की शिक्षा देनेवाले श्रेष्ठ शिक्षा केन्द्रों को सहायता (संसाधन आदि), संरक्षण और समर्थन देना शासन की जिम्मेदारी है। विपरीत शिक्षा या असामाजिक या अधार्मिक तत्वों को शिक्षा क्षेत्र से दूर रखना भी शासन की जिम्मेदारी है।
  23. मानव के व्यक्तित्व के मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार इन घटकों की शिक्षा का श्रेष्ठ साधन अष्टांग योग की शिक्षा है। अष्टांग योग में से पहले पांच चरणों की याने बहिरंग योग की शिक्षा बालक के व्यक्तित्व विकास के लिए आवश्यक है।
  24. अनध्ययन के दिनों में मन अस्थिर हो जाता है। इसलिये प्रतिपदा, अष्टमी, चतुर्दशी, अमावस्या और पूर्णिमा इन अनध्ययन के दिनों में अध्ययन टालना चाहिए।
  25. मानव एक जीवंत ईकाई है, यंत्र नहीं। शिक्षा भी एक जैविक प्रक्रिया है, यांत्रिक नहीं। इसलिये शिक्षा को समयबद्ध घंटों में बांधना योग्य नहीं है। घंटी बजाकर एक विषय बंद कर दूसरा विषय शुरू करने के लिये मनुष्य कोई बिजली का खटका (स्विच) नहीं होता। इसे ध्यान में रखकर अध्ययन/ अध्यापन की रचना करनी चाहिए। बालक कोई मन, बुद्धि विहीन वस्तू नहीं होता। परीक्षा की, मूल्याङ्कन की एक ही पट्टी से सभी बच्चों को नापा नहीं जा सकता। शिक्षा में यांत्रिकता शिक्षा को अक्षम बना देती है।
  26. अध्ययन का विकसित स्तर ही अध्यापन का स्तर होता है। जब किसी विषय में मेरा ज्ञान इतना श्रेष्ठ बन जाता है कि मुझे लगने लगता है कि अब मैं बताऊंगा तो लोग सुनेंगे, तब मैं अध्यापक बन जाता हूँ। शिक्षक की नियुक्ति एक श्रेष्ठ शिक्षक ही कर सकता है। अन्य कोई नहीं। जब शिक्षक अध्ययन करना छोड़ देता है, समझो अब वह शिक्षक नहीं रहा। शिक्षक के लिए सदैव अध्येता बने रहना आवश्यक है।
  27. जानकारी ग्रहण करना, जानकारी के अर्थ को समझना, जानकारी का उपयोग कैसे करना चाहिए इसपर चिंतन करना याने ज्ञान प्राप्त करना, प्रयोग कर अपने चिंतन से उपजे ज्ञान की पुष्टि करना और सबसे अंत में ज्ञान का औरों को अन्तरण करना। यही अध्ययन की प्रक्रिया है।
  28. शैक्षिक व्यवस्थाओं के विषय में निर्णय की कसौटी का महत्त्वक्रम निम्न होना चाहिए। स्वास्थ्यप्रद होना, सुविधाजनक होना, सस्ती होना और सब से अंत में सुन्दर/शोभादायक होना।
  29. श्रेष्ठ अध्यापन का वर्णन इस प्रकार किया जाता है[citation needed] – चित्रम् वटम् तरोर्मूले वृद्ध: शिष्य: गुरोर्युवा।। गुरोऽस्तु मौनम् व्याख्यानम् शिष्य: छिनना संशय: ।। अर्थ : वटवृक्ष के नीचे चौपालपर युवा गुरु बैठे हैं। सामने जमीनपर वृद्ध शिष्य बैठे हैं। गुरु मौन अवस्था में ही व्याख्यान दे रहा है। और शिष्यों के संशय का निवारण हो जाता है।
  30. गुरुगृहवास गुरुकुल की आत्मा है। गुरुकुल से अधिक श्रेष्ठ अन्य कोई शिक्षा प्रणाली अब तक विकसित नहीं हुई है।
  31. शिक्षा व्यक्ति को दी जाती है किन्तु फिर भी वह प्रमुखता से राष्ट्रीय होती है। और अंतिमत: आत्म (तत्व) निष्ठ होती है।
  32. बच्चे के स्वधर्म को जानने की और उसके स्वधर्म के अनुसार उसे समाज के लिये उपयुक्त बनाने के लिये संस्कार और शिक्षा होते हैं।
  33. बच्चे को उसके स्वधर्म के अनुसार व्यवसाय और अर्थार्जन की विधा का चयन करने की प्रेरणा देना माता पिता और शिक्षक का काम है।
  34. आश्रम व्यवस्था के वानप्रस्थी और संन्यासियों की जिम्मेदारी लोकशिक्षा की अर्थात् धर्म के प्रचार और प्रसार की है।
  35. जब अधिकांश (९५ प्रतिशत) लोग स्वेच्छा से धर्म पालन करते है तब शिक्षा अच्छी है ऐसा माना जाएगा।

समावर्तन संदेश

तैत्तिरीय उपनिषद् में बताया हुआ यह शिक्षा पूर्ण करनेवाले स्नातकों को दिया जानेवाला सन्देश, उपदेश और आदेश है[2]:

सत्यं वद।

अर्थात सदैव सत्य बोलो।

धर्मंचर।

अर्थात धर्म के अनुसार आचरण करो।

स्वाध्यायान्मा प्रमद:।

अर्थात आजीवन अपनी रुचि के विषय के माध्यम से मोक्षगामी कैसे हुआ जा सकता है इस ढँग से अध्ययन करो।

आचार्याय प्रियं धनमाहृत्य।

अर्थात आचार्य को गुरुदक्षिणा देते रहो।

प्रजातंतुं मा व्यवच्छेत्सी।

अर्थात संतान निर्माण की परंपराको मत तोडो।

सत्यान्नप्रमदितव्यं।

अर्थात सत्य के पथ से कभी डिगो नहीं।

धर्मान्नप्रमदितव्यं।

अर्थात कभी भी धर्माचरण से मत डिगो।

कुशलान्नप्रमदितव्यं।

अर्थात शुभ कर्म करने से कभी नहीं चूको।

भूत्यैन्नप्रमदितव्यं।

अर्थात भौतिक उन्नति करते रहो।

स्वाध्यायप्रवचनाभ्यान्नप्रमदितव्यं।

अर्थात अपनी रुचि के विषय में पूर्व में प्राप्त ज्ञान में स्वाध्याय से वृद्धि करो और यह वृध्दिंगत ज्ञान अगली पीढी को अंतरित करो।

देवपितृकार्याभ्यां न प्रमदितव्यं।

अर्थात देवताओं के (पृथ्वी, अग्नि, वायू, वरूण आदि) पर्यावरण के विषय में और पितरों के प्रति याने समाज के प्रति अपने कर्तव्यों से कभी न चूको।

आगे कहा है:

मातृदेवो भव।

अर्थात तुम माता में देवबुद्धि रखनेवाले बनों।

पितृदेवो भव।

अर्थात तुम पिता में देवबुद्धि रखनेवाले बनो।

आचार्य देवो भव

अर्थात आचार्यों में देवबुद्धि रखो।

अतिथिदेवो भव।

अर्थात अतिथि में देवबुद्धि रखनेवाले बनो।

यन्यनववद्यनि कर्माणि। तानि सेवितव्यानि। नो इतराणि।

अर्थात जो जो अच्छे आचरण हैं उनका तुम सेवन करो। अन्य किसी का सेवन न करो याने बुरे कर्म कभी नहीं करो।

यान्यस्माकं सुचरितानि। तानि त्वयोपास्यानि। नो इतराणि।

अर्थात हमारे भी जो अच्छे कर्म हैं उन्हीं का अनुसरण करो। हमारे भी जो कर्म अच्छे नहीं हैं उनका अनुसरण न करो।

ये के चास्मच्छ्रेयांसो ब्राह्मणा:। तेषां त्वयाऽऽसनेन प्रश्वसितव्यं।

अर्थात जो अपने से या हमसे श्रेष्ठ हैं उन्हें आसन आदि देकर, उनका आदर सत्कार करना चाहिये। दान देना चाहिये।

श्रध्दया देयम्। अश्रध्दयाऽदेयम्। श्रिया देयम्। ह्रिया देयम्। भ्रिया देयम्। संविदा देयम्।

अर्थात दान भी श्रध्दा से दो अश्रध्दा से दान न दो। श्रिया याने आर्थिक स्थिति के अनुसार दो। लज्जा से दो, भय से दो लेकिन दान दो। जो कुछ भी दान दो वह विवेक से दो।

आगे और कहा है –

अथ यदि ते कर्मविचिकित्सा वा वृत्तविचिकित्सावा स्यात्। ये तत्र ब्राह्मणा: सम्मर्शिन:।

अर्थात तुम्हें कर्तव्य करने में या सदाचार के विषय में कुछ शंका हो तो उस विषय के ज्ञानी व्यक्ति से मार्गदर्शन प्राप्त करो।

युक्ता आयुक्ता:। अलूक्षा धर्मकामा: स्यू:। यथा ते तेषु वर्तेरन्। तथा ते तेषु वर्तेथा:। एष आदेश:। एष उपदेश:। एषा वेदोपनिषत्। एतदनुशासनम्। एवमुपासितव्यम्। एवमु चैतदुपास्यम्।

अर्थात किसी दोष से लांछित मनुष्य के साथ बर्ताव करने में शंका निर्माण हो जाए तो भी वहाँ जो परामर्श देने में कुशल, उत्तम कर्म और सदाचार में रत, स्निग्ध स्वभाव वाले, एकमात्र धर्म के अभिलाषी ऐसे जो ब्राह्मण जैसा बर्ताव करते हैं तुम्हें भी वैसा ही बर्ताव करना चाहिये। यही शास्त्र की आज्ञा है। यही गुरुजनों का उपदेश है। यही वेद और उपनिषदों का आदेश है। यही परंपरागत शिक्षा है। इसी प्रकार से तुम्हें अनुष्ठान करना चाहिये।

समावर्तन सन्देश एक तरह से धार्मिक (भारतीय) शिक्षण शास्त्रीय दृष्टि का सार है।

References

  1. जीवन का भारतीय प्रतिमान-खंड २, अध्याय २८, लेखक - दिलीप केलकर
  2. तैत्तिरीय उपनिषद्, शिक्षावल्ली