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# शिक्षा मुख्यत: ज्ञानार्जन, कौशालार्जन, बलार्जन, गुनार्जन के लिये होती है। अर्थार्जन याने पैसा कमाना यह तो उसका आनुषंगिक लाभ है। यह भी जीवन के लिये महत्वपूर्ण होता है। लेकिन अन्य बातों के अर्जन से अर्थार्जन तो सहज ही किया जा सकता है।
 
# शिक्षा मुख्यत: ज्ञानार्जन, कौशालार्जन, बलार्जन, गुनार्जन के लिये होती है। अर्थार्जन याने पैसा कमाना यह तो उसका आनुषंगिक लाभ है। यह भी जीवन के लिये महत्वपूर्ण होता है। लेकिन अन्य बातों के अर्जन से अर्थार्जन तो सहज ही किया जा सकता है।
 
# अध्ययन शिक्षा की मूल प्रक्रिया है। अध्यापन तो अध्ययन की प्रक्रिया का प्रेरक रूप ही है। अध्ययन तो अध्यापन के बगैर भी हो सकता है। लेकिन बिना अध्ययनकर्ता के कोई अध्यापन संभव नहीं होता। इसलिए शिक्षा अच्छी होने के लिये बालक का विद्यार्थी होना अनिवार्य है। हर बालक प्रारंभ से ही विद्यार्थी नहीं होता। उसे विद्यार्थी बनाना यह माता-पिता की प्राथमिक और बाद में शिक्षक की जिम्मेदारी है।
 
# अध्ययन शिक्षा की मूल प्रक्रिया है। अध्यापन तो अध्ययन की प्रक्रिया का प्रेरक रूप ही है। अध्ययन तो अध्यापन के बगैर भी हो सकता है। लेकिन बिना अध्ययनकर्ता के कोई अध्यापन संभव नहीं होता। इसलिए शिक्षा अच्छी होने के लिये बालक का विद्यार्थी होना अनिवार्य है। हर बालक प्रारंभ से ही विद्यार्थी नहीं होता। उसे विद्यार्थी बनाना यह माता-पिता की प्राथमिक और बाद में शिक्षक की जिम्मेदारी है।
# बालक को व्यक्तिगत तथा सामूहिक रूप में और साथ ही में समाज को भी निकट से देखनेवाला शिक्षक जैसा अन्य घटक नहीं होता। इसीलिये शिक्षा श्रेष्ठ तब ही बन सकती है जब शिक्षा शिक्षक के अधीन रहे। शिक्षक धर्मनिष्ठ रहे, समाजनिष्ठ रहे, राष्ट्रनिष्ठ रहे और शिक्षा शिक्षकाधिष्ठित रहे यही भारतीय परंपरा है। जब शिक्षा शिक्षकाधिष्ठीत होती है शिक्षा को स्वायत्त कहा जाता है। क्योंकि शिक्षक ही शिक्षा का मूर्तिमंत स्वरूप  होता है। राजा शिक्षा नियंत्रक तो प्रजा में अराजक।  
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# बालक को व्यक्तिगत तथा सामूहिक रूप में और साथ ही में समाज को भी निकट से देखने वाला शिक्षक जैसा अन्य घटक नहीं होता। इसीलिये शिक्षा श्रेष्ठ तब ही बन सकती है जब शिक्षा शिक्षक के अधीन रहे। शिक्षक धर्मनिष्ठ रहे, समाजनिष्ठ रहे, राष्ट्रनिष्ठ रहे और शिक्षा शिक्षकाधिष्ठित रहे यही भारतीय परंपरा है। जब शिक्षा शिक्षकाधिष्ठीत होती है शिक्षा को स्वायत्त कहा जाता है। क्योंकि शिक्षक ही शिक्षा का मूर्तिमंत स्वरूप  होता है। राजा शिक्षा नियंत्रक तो प्रजा में अराजक।  
 
# केवल शिक्षक के अधीन होने से शिक्षा श्रेष्ठ नहीं बनती। उसके लिये शिक्षक का ज्ञानी, कुशल, श्रेष्ठ समाज निर्माण के लिये समर्पित राष्ट्रनिष्ठ, शिक्षानिष्ठ और विद्यार्थीनिष्ठ होना भी आवश्यक है।
 
# केवल शिक्षक के अधीन होने से शिक्षा श्रेष्ठ नहीं बनती। उसके लिये शिक्षक का ज्ञानी, कुशल, श्रेष्ठ समाज निर्माण के लिये समर्पित राष्ट्रनिष्ठ, शिक्षानिष्ठ और विद्यार्थीनिष्ठ होना भी आवश्यक है।
 
# मनुष्य परमात्मा का ही अंश है। इसलिये मूलत: वह सर्वज्ञानी है। अपने आप में पूर्ण है। लेकिन देहभाव के कारण वह अपने को कुछ भिन्न मानता है। मनुष्य को उसके देहभाव से मुक्त करना ही शिक्षा का काम है। समाज के साथ और आगे जड़-चेतन पर्यावरण के साथ आत्मीयता की भावना और व्यवहार का विकास ही शिक्षा का वास्तविक लक्ष्य है। यही व्यक्ति के समग्र विकास की भारतीय संकल्पना है।
 
# मनुष्य परमात्मा का ही अंश है। इसलिये मूलत: वह सर्वज्ञानी है। अपने आप में पूर्ण है। लेकिन देहभाव के कारण वह अपने को कुछ भिन्न मानता है। मनुष्य को उसके देहभाव से मुक्त करना ही शिक्षा का काम है। समाज के साथ और आगे जड़-चेतन पर्यावरण के साथ आत्मीयता की भावना और व्यवहार का विकास ही शिक्षा का वास्तविक लक्ष्य है। यही व्यक्ति के समग्र विकास की भारतीय संकल्पना है।
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# जानकारी ग्रहण करना, जानकारी के अर्थ को समझना, जानकारी का उपयोग कैसे करना चाहिए इसपर चिंतन करना याने ज्ञान प्राप्त करना, प्रयोग कर अपने चिंतन से उपजे ज्ञान की पुष्टि करना और सबसे अंत में ज्ञान का औरों को अन्तरण करना। यही अध्ययन की प्रक्रिया है।
 
# जानकारी ग्रहण करना, जानकारी के अर्थ को समझना, जानकारी का उपयोग कैसे करना चाहिए इसपर चिंतन करना याने ज्ञान प्राप्त करना, प्रयोग कर अपने चिंतन से उपजे ज्ञान की पुष्टि करना और सबसे अंत में ज्ञान का औरों को अन्तरण करना। यही अध्ययन की प्रक्रिया है।
 
# शैक्षिक व्यवस्थाओं के विषय में निर्णय की कसौटी का महत्त्वक्रम निम्न होना चाहिए। स्वास्थ्यप्रद होना, सुविधाजनक होना, सस्ती होना और सब से अंत में सुन्दर/शोभादायक होना।
 
# शैक्षिक व्यवस्थाओं के विषय में निर्णय की कसौटी का महत्त्वक्रम निम्न होना चाहिए। स्वास्थ्यप्रद होना, सुविधाजनक होना, सस्ती होना और सब से अंत में सुन्दर/शोभादायक होना।
# श्रेष्ठ अध्यापन का वर्णन इस प्रकार किया जाता है– चित्रम् वटम् तरोर्मूले वृद्ध: शिष्य: गुरोर्युवा।। गुरोऽस्तु मौनम् व्याख्यानम् शिष्य: छिनना संशय: ।। अर्थ : वटवृक्ष के नीचे चौपालपर युवा गुरु बैठे हैं। सामने जमीनपर वृद्ध शिष्य बैठे हैं। गुरु मौन अवस्था में ही व्याख्यान दे रहा है। और शिष्यों के संशय का निवारण हो जाता है।
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# श्रेष्ठ अध्यापन का वर्णन इस प्रकार किया जाता है{{Citation needed}} – चित्रम् वटम् तरोर्मूले वृद्ध: शिष्य: गुरोर्युवा।। गुरोऽस्तु मौनम् व्याख्यानम् शिष्य: छिनना संशय: ।। अर्थ : वटवृक्ष के नीचे चौपालपर युवा गुरु बैठे हैं। सामने जमीनपर वृद्ध शिष्य बैठे हैं। गुरु मौन अवस्था में ही व्याख्यान दे रहा है। और शिष्यों के संशय का निवारण हो जाता है।
 
# गुरुगृहवास गुरुकुल की आत्मा है। गुरुकुल से अधिक श्रेष्ठ अन्य कोई शिक्षा प्रणाली अब तक विकसित नहीं हुई है।
 
# गुरुगृहवास गुरुकुल की आत्मा है। गुरुकुल से अधिक श्रेष्ठ अन्य कोई शिक्षा प्रणाली अब तक विकसित नहीं हुई है।
 
# शिक्षा व्यक्ति को दी जाती है किन्तु फिर भी वह प्रमुखता से राष्ट्रीय होती है। और अंतिमत: आत्म (तत्व) निष्ठ होती है।
 
# शिक्षा व्यक्ति को दी जाती है किन्तु फिर भी वह प्रमुखता से राष्ट्रीय होती है। और अंतिमत: आत्म (तत्व) निष्ठ होती है।
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