Changes

Jump to navigation Jump to search
m
Text replacement - "फिर भी" to "तथापि"
Line 7: Line 7:     
=== विषयों के अंगांगी संबंध के संदर्भ में प्रत्येक विषय का अध्ययन ===
 
=== विषयों के अंगांगी संबंध के संदर्भ में प्रत्येक विषय का अध्ययन ===
मानव जीवन के लक्ष्य को ध्यान में रखकर प्रत्येक विषय की विषयवस्तु का निर्धारण करना। अर्थात् केवल आध्यात्म ही नहीं, विज्ञान और तन्त्रज्ञान जैसे विषय भी अध्ययनकर्ता को मोक्ष की दिशा में आगे बढाएँ इसे ध्यान में रखकर विषयवस्तु तय करना।
+
मानव जीवन के लक्ष्य को ध्यान में रखकर प्रत्येक विषय की विषयवस्तु का निर्धारण करना। अर्थात् केवल आध्यात्म ही नहीं, [[Dharmik_Science_and_Technology_(धार्मिक_विज्ञान_एवं_तन्त्रज्ञान_दृष्टि)|विज्ञान]] और तन्त्रज्ञान जैसे विषय भी अध्ययनकर्ता को मोक्ष की दिशा में आगे बढाएँ इसे ध्यान में रखकर विषयवस्तु तय करना।
    
=== करणीय अकरणीय विवेक ===
 
=== करणीय अकरणीय विवेक ===
Line 26: Line 26:  
* भूमि, जल, वायू, सूर्यप्रकाश आदि प्रकृति के वरदान हैं। सामान्यत: प्रत्येक मनुष्य को ये सहज ही उपलब्ध होते हैं।
 
* भूमि, जल, वायू, सूर्यप्रकाश आदि प्रकृति के वरदान हैं। सामान्यत: प्रत्येक मनुष्य को ये सहज ही उपलब्ध होते हैं।
 
* खनिज, रत्नसंपदा, जीव-विविधता ये प्राकृतिक संपदाएँ हैं। इनको बनाया नहीं जा सकता। प्रयासों से इनकी प्राप्ति हो सकती है।
 
* खनिज, रत्नसंपदा, जीव-विविधता ये प्राकृतिक संपदाएँ हैं। इनको बनाया नहीं जा सकता। प्रयासों से इनकी प्राप्ति हो सकती है।
* समृध्दि के लिये प्राकृतिक संसाधन, बुद्धि और कुशलता ऐसी तीन बातों के समायोजन की आवश्यकता होती है।
+
* समृद्धि के लिये प्राकृतिक संसाधन, बुद्धि और कुशलता ऐसी तीन बातों के समायोजन की आवश्यकता होती है।
 
* जिस में प्राणशक्ति अधिक है वह अधिक कर्मवान है। वह अधिक अच्छी तरह कौशलों का अर्जन कर सकता है।
 
* जिस में प्राणशक्ति अधिक है वह अधिक कर्मवान है। वह अधिक अच्छी तरह कौशलों का अर्जन कर सकता है।
 
* सत्य, न्याय, शिक्षा, स्वास्थ्य, सुरक्षा आदि सांस्कृतिक या धार्मिक बातों को धन से नहीं तोला जा सकता। ये बातें अनमोल होतीं हैं। कहा गया है: अर्थशास्त्रात् बलवत् धर्मशास्त्रात् इति स्मृता:। अर्थशास्त्र धर्मशास्त्र द्वारा नियंत्रित होना चाहिये।
 
* सत्य, न्याय, शिक्षा, स्वास्थ्य, सुरक्षा आदि सांस्कृतिक या धार्मिक बातों को धन से नहीं तोला जा सकता। ये बातें अनमोल होतीं हैं। कहा गया है: अर्थशास्त्रात् बलवत् धर्मशास्त्रात् इति स्मृता:। अर्थशास्त्र धर्मशास्त्र द्वारा नियंत्रित होना चाहिये।
* उत्पादक काम तीन प्रकार के होते हैं। उपयोगी, अनुपयोगी और हानिकारक। केवल उपयोगी काम करने से समृध्दि प्राप्त होती है। अनुपयोगी काम करने से आभासी समृध्दि प्राप्त होती है। हानिकारक काम करने से समृध्दि नष्ट हो जाती है।
+
* उत्पादक काम तीन प्रकार के होते हैं। उपयोगी, अनुपयोगी और हानिकारक। केवल उपयोगी काम करने से समृद्धि प्राप्त होती है। अनुपयोगी काम करने से आभासी समृद्धि प्राप्त होती है। हानिकारक काम करने से समृद्धि नष्ट हो जाती है।
 
* अपने ‘स्व’भाव के अनुसार काम करने से काम में सहजता भी आती है और काम बोझ नहीं बनता। काम में आनंद आता है। छुट्टी की आवश्यकता नहीं होती। वैसे भी प्रकृति में कोई छुट्टी नहीं लेता। फिर मानव क्यों छुट्टी ले'?
 
* अपने ‘स्व’भाव के अनुसार काम करने से काम में सहजता भी आती है और काम बोझ नहीं बनता। काम में आनंद आता है। छुट्टी की आवश्यकता नहीं होती। वैसे भी प्रकृति में कोई छुट्टी नहीं लेता। फिर मानव क्यों छुट्टी ले'?
 
* प्रकृति तो गाँवों में होती है। ग्राम की तुलना में शहर तो अप्राकृतिक ही होते हैं। इसलिये अर्थव्यवस्था ग्रामकेंद्री होनी चाहिये। अर्थव्यवस्था को ग्रामकेंद्री बनाने के लिये सर्वप्रथम सभी प्रकार के विद्याकेन्द्र गाँवों में ले जाने होंगे। प्रगत अध्ययन के केन्द्र शहरों में चल सकते हैं।  
 
* प्रकृति तो गाँवों में होती है। ग्राम की तुलना में शहर तो अप्राकृतिक ही होते हैं। इसलिये अर्थव्यवस्था ग्रामकेंद्री होनी चाहिये। अर्थव्यवस्था को ग्रामकेंद्री बनाने के लिये सर्वप्रथम सभी प्रकार के विद्याकेन्द्र गाँवों में ले जाने होंगे। प्रगत अध्ययन के केन्द्र शहरों में चल सकते हैं।  
Line 36: Line 36:  
* इन सब के लिये ‘इच्छाओं के संयम की शिक्षा के साथ ही सर्वे भवन्तु सुखिन: की शिक्षा’ आवश्यक है।
 
* इन सब के लिये ‘इच्छाओं के संयम की शिक्षा के साथ ही सर्वे भवन्तु सुखिन: की शिक्षा’ आवश्यक है।
 
* अर्थव्यवस्था क्रय-विक्रय की नहीं व्यय की होनी चाहिये। देने की होनी चाहिये। माँग की नहीं। छोडने की होनी चाहिये। हथियाने की नहीं। दान की होनी चाहिये। भीख की नहीं। ऐसी मानसिकता बनाने का काम मुख्यत: विद्याकेंद्रों का और इस मानसिकता को दृढ बनाने का काम केंद्रों की शिक्षा व्यवस्था का होता है।
 
* अर्थव्यवस्था क्रय-विक्रय की नहीं व्यय की होनी चाहिये। देने की होनी चाहिये। माँग की नहीं। छोडने की होनी चाहिये। हथियाने की नहीं। दान की होनी चाहिये। भीख की नहीं। ऐसी मानसिकता बनाने का काम मुख्यत: विद्याकेंद्रों का और इस मानसिकता को दृढ बनाने का काम केंद्रों की शिक्षा व्यवस्था का होता है।
* संपन्नता और समृध्दि में अन्तर होता है। धन-संचय होने से संपन्नता आती है। लेकिन देने की मानसिकता नहीं हो तो उसे समृध्दि नहीं कह सकते। धन का कम अधिक होना नहीं, देने की मानसिकता ही व्यक्ति और समाज को समृध्द बनाती है। इसीलिये भारत में अभी अभी ५०-६० वर्ष पहले तक बाजार में कीमत तो एक  सैंकडा आम की तय होती थी। लेकिन बेचने वाला १३२ आम देता था। जीवन की गति बढ जाने से समाज पगढीला बन जाता है। संस्कृति विहीन हो जाता है। हर समाज की अपनी संस्कृति होती है। संस्कृति नष्ट होने के साथ समाज भी विघटित हो जाता है। जीवन की इष्ट गति संस्कृति के विकास के लिये पूरक और पोषक होती है। अतः जीवन की इष्ट गति की शिक्षा भी शिक्षा का एक अत्यंत महत्वपूर्ण पहलू है। अर्थ पुरुषार्थ के अन्य महत्त्वपूर्ण बिदू जानने के लिये कृपया [[Bharat's Economic Systems (भारतीय समृद्धि शास्त्रीय दृष्टि)|यह]] अध्याय देखें।
+
* संपन्नता और समृद्धि में अन्तर होता है। धन-संचय होने से संपन्नता आती है। लेकिन देने की मानसिकता नहीं हो तो उसे समृद्धि नहीं कह सकते। धन का कम अधिक होना नहीं, देने की मानसिकता ही व्यक्ति और समाज को समृध्द बनाती है। इसीलिये भारत में अभी अभी ५०-६० वर्ष पहले तक बाजार में कीमत तो एक  सैंकडा आम की तय होती थी। लेकिन बेचने वाला १३२ आम देता था। जीवन की गति बढ जाने से समाज पगढीला बन जाता है। संस्कृति विहीन हो जाता है। हर समाज की अपनी संस्कृति होती है। संस्कृति नष्ट होने के साथ समाज भी विघटित हो जाता है। जीवन की इष्ट गति संस्कृति के विकास के लिये पूरक और पोषक होती है। अतः जीवन की इष्ट गति की शिक्षा भी शिक्षा का एक अत्यंत महत्वपूर्ण पहलू है। अर्थ पुरुषार्थ के अन्य महत्त्वपूर्ण बिदू जानने के लिये कृपया [[Bharat's Economic Systems (भारतीय समृद्धि शास्त्रीय दृष्टि)|यह]] अध्याय देखें।
    
=== धर्म पुरुषार्थ की शिक्षा ===
 
=== धर्म पुरुषार्थ की शिक्षा ===
Line 113: Line 113:  
# श्रेष्ठ अध्यापन का वर्णन इस प्रकार किया जाता है{{Citation needed}} – चित्रम् वटम् तरोर्मूले वृद्ध: शिष्य: गुरोर्युवा।। गुरोऽस्तु मौनम् व्याख्यानम् शिष्य: छिनना संशय: ।। अर्थ : वटवृक्ष के नीचे चौपालपर युवा गुरु बैठे हैं। सामने जमीनपर वृद्ध शिष्य बैठे हैं। गुरु मौन अवस्था में ही व्याख्यान दे रहा है। और शिष्यों के संशय का निवारण हो जाता है।
 
# श्रेष्ठ अध्यापन का वर्णन इस प्रकार किया जाता है{{Citation needed}} – चित्रम् वटम् तरोर्मूले वृद्ध: शिष्य: गुरोर्युवा।। गुरोऽस्तु मौनम् व्याख्यानम् शिष्य: छिनना संशय: ।। अर्थ : वटवृक्ष के नीचे चौपालपर युवा गुरु बैठे हैं। सामने जमीनपर वृद्ध शिष्य बैठे हैं। गुरु मौन अवस्था में ही व्याख्यान दे रहा है। और शिष्यों के संशय का निवारण हो जाता है।
 
# गुरुगृहवास गुरुकुल की आत्मा है। गुरुकुल से अधिक श्रेष्ठ अन्य कोई शिक्षा प्रणाली अब तक विकसित नहीं हुई है।
 
# गुरुगृहवास गुरुकुल की आत्मा है। गुरुकुल से अधिक श्रेष्ठ अन्य कोई शिक्षा प्रणाली अब तक विकसित नहीं हुई है।
# शिक्षा व्यक्ति को दी जाती है किन्तु फिर भी वह प्रमुखता से राष्ट्रीय होती है। और अंतिमत: आत्म (तत्व) निष्ठ होती है।
+
# शिक्षा व्यक्ति को दी जाती है किन्तु तथापि वह प्रमुखता से राष्ट्रीय होती है। और अंतिमत: आत्म (तत्व) निष्ठ होती है।
 
# बच्चे के स्वधर्म को जानने की और उसके स्वधर्म के अनुसार उसे समाज के लिये उपयुक्त बनाने के लिये संस्कार और शिक्षा होते हैं।
 
# बच्चे के स्वधर्म को जानने की और उसके स्वधर्म के अनुसार उसे समाज के लिये उपयुक्त बनाने के लिये संस्कार और शिक्षा होते हैं।
 
# बच्चे को उसके स्वधर्म के अनुसार व्यवसाय और अर्थार्जन की विधा का चयन करने की प्रेरणा देना माता पिता और शिक्षक का काम है।
 
# बच्चे को उसके स्वधर्म के अनुसार व्यवसाय और अर्थार्जन की विधा का चयन करने की प्रेरणा देना माता पिता और शिक्षक का काम है।
# आश्रम व्यवस्था के वानप्रस्थी और संन्यासियों की जिम्मेदारी लोकशिक्षा की अर्थात् धर्म के प्रचार और प्रसार की है।
+
# [[Ashram System (आश्रम व्यवस्था)|आश्रम व्यवस्था]] के वानप्रस्थी और संन्यासियों की जिम्मेदारी लोकशिक्षा की अर्थात् धर्म के प्रचार और प्रसार की है।
 
# जब अधिकांश (९५ प्रतिशत) लोग स्वेच्छा से धर्म पालन करते है तब शिक्षा अच्छी है ऐसा माना जाएगा।
 
# जब अधिकांश (९५ प्रतिशत) लोग स्वेच्छा से धर्म पालन करते है तब शिक्षा अच्छी है ऐसा माना जाएगा।
  

Navigation menu