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शिक्षा की धार्मिक (भारतीय) दृष्टि और वर्तमान अधार्मिक (अभारतीय) दृष्टि में आमूलाग्र अन्तर है। यह अन्तर जीवन दृष्टि के अन्तर के कारण है। जीवन के लक्ष्य की भिन्नता के कारण है।
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शिक्षा की धार्मिक (भारतीय) दृष्टि और वर्तमान अधार्मिक (अधार्मिक) दृष्टि में आमूलाग्र अन्तर है। यह अन्तर जीवन दृष्टि के अन्तर के कारण है। जीवन के लक्ष्य की भिन्नता के कारण है।<ref>जीवन का भारतीय प्रतिमान-खंड २, अध्याय २८, लेखक - दिलीप केलकर</ref>
    
== शिक्षा के विषय ==
 
== शिक्षा के विषय ==
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=== विषयों के अंगांगी संबंध के संदर्भ में प्रत्येक विषय का अध्ययन ===
 
=== विषयों के अंगांगी संबंध के संदर्भ में प्रत्येक विषय का अध्ययन ===
मानव जीवन के लक्ष्य को ध्यान में रखकर प्रत्येक विषय की विषयवस्तु का निर्धारण करना। अर्थात् केवल आध्यात्म ही नहीं, विज्ञान और तन्त्रज्ञान जैसे विषय भी अध्ययनकर्ता को मोक्ष की दिशा में आगे बढाएँ इसे ध्यान में रखकर विषयवस्तु तय करना।
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मानव जीवन के लक्ष्य को ध्यान में रखकर प्रत्येक विषय की विषयवस्तु का निर्धारण करना। अर्थात् केवल आध्यात्म ही नहीं, [[Dharmik_Science_and_Technology_(धार्मिक_विज्ञान_एवं_तन्त्रज्ञान_दृष्टि)|विज्ञान]] और तन्त्रज्ञान जैसे विषय भी अध्ययनकर्ता को मोक्ष की दिशा में आगे बढाएँ इसे ध्यान में रखकर विषयवस्तु तय करना।
    
=== करणीय अकरणीय विवेक ===
 
=== करणीय अकरणीय विवेक ===
 
करणीय वे बातें होतीं हैं जो सर्वे भवन्तु सुखिन: से सुसंगत होतीं हैं। और अकरणीय वे बातें होतीं हैं जिन के करने से किसी को हानि होती हो। किसी बात के सरल होने से वह करणीय नहीं हो जाती और ना ही किसी बात के कठिन होने से या असंभव लगनेपर वह अकरणीय बन जाती है। असंभव लगने पर भी यदि वह सब के हित में है तो करणीय तो वही रहता है। उसे संभव चरणों में बाँटकर करना होता है।  
 
करणीय वे बातें होतीं हैं जो सर्वे भवन्तु सुखिन: से सुसंगत होतीं हैं। और अकरणीय वे बातें होतीं हैं जिन के करने से किसी को हानि होती हो। किसी बात के सरल होने से वह करणीय नहीं हो जाती और ना ही किसी बात के कठिन होने से या असंभव लगनेपर वह अकरणीय बन जाती है। असंभव लगने पर भी यदि वह सब के हित में है तो करणीय तो वही रहता है। उसे संभव चरणों में बाँटकर करना होता है।  
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किसी भी प्राप्त परिस्थिति में करणीय और अकरणीय क्या है यह समझना कभी कभी कठिन ही नहीं तो बहुत कठिन होता है। सामान्य लोगों के लिये ऐसे समय में श्रेष्ठ लोगों के अनुकरण की बात श्रीमद्भगवद्गीता में कही गई है।
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किसी भी प्राप्त परिस्थिति में करणीय और अकरणीय क्या है यह समझना कभी कभी कठिन ही नहीं तो बहुत कठिन होता है। सामान्य लोगोंं के लिये ऐसे समय में श्रेष्ठ लोगोंं के अनुकरण की बात श्रीमद्भगवद्गीता में कही गई है।
    
=== स्वभाव शुध्दि और वृद्धि की शिक्षा ===
 
=== स्वभाव शुध्दि और वृद्धि की शिक्षा ===
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* भूमि, जल, वायू, सूर्यप्रकाश आदि प्रकृति के वरदान हैं। सामान्यत: प्रत्येक मनुष्य को ये सहज ही उपलब्ध होते हैं।
 
* भूमि, जल, वायू, सूर्यप्रकाश आदि प्रकृति के वरदान हैं। सामान्यत: प्रत्येक मनुष्य को ये सहज ही उपलब्ध होते हैं।
 
* खनिज, रत्नसंपदा, जीव-विविधता ये प्राकृतिक संपदाएँ हैं। इनको बनाया नहीं जा सकता। प्रयासों से इनकी प्राप्ति हो सकती है।
 
* खनिज, रत्नसंपदा, जीव-विविधता ये प्राकृतिक संपदाएँ हैं। इनको बनाया नहीं जा सकता। प्रयासों से इनकी प्राप्ति हो सकती है।
* समृध्दि के लिये प्राकृतिक संसाधन, बुद्धि और कुशलता ऐसी तीन बातों के समायोजन की आवश्यकता होती है।
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* समृद्धि के लिये प्राकृतिक संसाधन, बुद्धि और कुशलता ऐसी तीन बातों के समायोजन की आवश्यकता होती है।
 
* जिस में प्राणशक्ति अधिक है वह अधिक कर्मवान है। वह अधिक अच्छी तरह कौशलों का अर्जन कर सकता है।
 
* जिस में प्राणशक्ति अधिक है वह अधिक कर्मवान है। वह अधिक अच्छी तरह कौशलों का अर्जन कर सकता है।
 
* सत्य, न्याय, शिक्षा, स्वास्थ्य, सुरक्षा आदि सांस्कृतिक या धार्मिक बातों को धन से नहीं तोला जा सकता। ये बातें अनमोल होतीं हैं। कहा गया है: अर्थशास्त्रात् बलवत् धर्मशास्त्रात् इति स्मृता:। अर्थशास्त्र धर्मशास्त्र द्वारा नियंत्रित होना चाहिये।
 
* सत्य, न्याय, शिक्षा, स्वास्थ्य, सुरक्षा आदि सांस्कृतिक या धार्मिक बातों को धन से नहीं तोला जा सकता। ये बातें अनमोल होतीं हैं। कहा गया है: अर्थशास्त्रात् बलवत् धर्मशास्त्रात् इति स्मृता:। अर्थशास्त्र धर्मशास्त्र द्वारा नियंत्रित होना चाहिये।
* उत्पादक काम तीन प्रकार के होते हैं। उपयोगी, अनुपयोगी और हानिकारक। केवल उपयोगी काम करने से समृध्दि प्राप्त होती है। अनुपयोगी काम करने से आभासी समृध्दि प्राप्त होती है। हानिकारक काम करने से समृध्दि नष्ट हो जाती है।
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* उत्पादक काम तीन प्रकार के होते हैं। उपयोगी, अनुपयोगी और हानिकारक। केवल उपयोगी काम करने से समृद्धि प्राप्त होती है। अनुपयोगी काम करने से आभासी समृद्धि प्राप्त होती है। हानिकारक काम करने से समृद्धि नष्ट हो जाती है।
 
* अपने ‘स्व’भाव के अनुसार काम करने से काम में सहजता भी आती है और काम बोझ नहीं बनता। काम में आनंद आता है। छुट्टी की आवश्यकता नहीं होती। वैसे भी प्रकृति में कोई छुट्टी नहीं लेता। फिर मानव क्यों छुट्टी ले'?
 
* अपने ‘स्व’भाव के अनुसार काम करने से काम में सहजता भी आती है और काम बोझ नहीं बनता। काम में आनंद आता है। छुट्टी की आवश्यकता नहीं होती। वैसे भी प्रकृति में कोई छुट्टी नहीं लेता। फिर मानव क्यों छुट्टी ले'?
 
* प्रकृति तो गाँवों में होती है। ग्राम की तुलना में शहर तो अप्राकृतिक ही होते हैं। इसलिये अर्थव्यवस्था ग्रामकेंद्री होनी चाहिये। अर्थव्यवस्था को ग्रामकेंद्री बनाने के लिये सर्वप्रथम सभी प्रकार के विद्याकेन्द्र गाँवों में ले जाने होंगे। प्रगत अध्ययन के केन्द्र शहरों में चल सकते हैं।  
 
* प्रकृति तो गाँवों में होती है। ग्राम की तुलना में शहर तो अप्राकृतिक ही होते हैं। इसलिये अर्थव्यवस्था ग्रामकेंद्री होनी चाहिये। अर्थव्यवस्था को ग्रामकेंद्री बनाने के लिये सर्वप्रथम सभी प्रकार के विद्याकेन्द्र गाँवों में ले जाने होंगे। प्रगत अध्ययन के केन्द्र शहरों में चल सकते हैं।  
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* इन सब के लिये ‘इच्छाओं के संयम की शिक्षा के साथ ही सर्वे भवन्तु सुखिन: की शिक्षा’ आवश्यक है।
 
* इन सब के लिये ‘इच्छाओं के संयम की शिक्षा के साथ ही सर्वे भवन्तु सुखिन: की शिक्षा’ आवश्यक है।
 
* अर्थव्यवस्था क्रय-विक्रय की नहीं व्यय की होनी चाहिये। देने की होनी चाहिये। माँग की नहीं। छोडने की होनी चाहिये। हथियाने की नहीं। दान की होनी चाहिये। भीख की नहीं। ऐसी मानसिकता बनाने का काम मुख्यत: विद्याकेंद्रों का और इस मानसिकता को दृढ बनाने का काम केंद्रों की शिक्षा व्यवस्था का होता है।
 
* अर्थव्यवस्था क्रय-विक्रय की नहीं व्यय की होनी चाहिये। देने की होनी चाहिये। माँग की नहीं। छोडने की होनी चाहिये। हथियाने की नहीं। दान की होनी चाहिये। भीख की नहीं। ऐसी मानसिकता बनाने का काम मुख्यत: विद्याकेंद्रों का और इस मानसिकता को दृढ बनाने का काम केंद्रों की शिक्षा व्यवस्था का होता है।
* संपन्नता और समृध्दि में अन्तर होता है। धन-संचय होने से संपन्नता आती है। लेकिन देने की मानसिकता नहीं हो तो उसे समृध्दि नहीं कह सकते। धन का कम अधिक होना नहीं, देने की मानसिकता ही व्यक्ति और समाज को समृध्द बनाती है। इसीलिये भारत में अभी अभी ५०-६० वर्ष पहले तक बाजार में कीमत तो एक  सैंकडा आम की तय होती थी। लेकिन बेचने वाला १३२ आम देता था। जीवन की गति बढ जाने से समाज पगढीला बन जाता है। संस्कृति विहीन हो जाता है। हर समाज की अपनी संस्कृति होती है। संस्कृति नष्ट होने के साथ समाज भी विघटित हो जाता है। जीवन की इष्ट गति संस्कृति के विकास के लिये पूरक और पोषक होती है। इसलिए जीवन की इष्ट गति की शिक्षा भी शिक्षा का एक अत्यंत महत्वपूर्ण पहलू है। अर्थ पुरुषार्थ के अन्य महत्त्वपूर्ण बिदू जानने के लिये कृपया [[Bharat's Economic Systems (भारतीय समृद्धि शास्त्रीय दृष्टि)|यह]] अध्याय देखें।
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* संपन्नता और समृद्धि में अन्तर होता है। धन-संचय होने से संपन्नता आती है। लेकिन देने की मानसिकता नहीं हो तो उसे समृद्धि नहीं कह सकते। धन का कम अधिक होना नहीं, देने की मानसिकता ही व्यक्ति और समाज को समृध्द बनाती है। इसीलिये भारत में अभी अभी ५०-६० वर्ष पहले तक बाजार में कीमत तो एक  सैंकडा आम की तय होती थी। लेकिन बेचने वाला १३२ आम देता था। जीवन की गति बढ जाने से समाज पगढीला बन जाता है। संस्कृति विहीन हो जाता है। हर समाज की अपनी संस्कृति होती है। संस्कृति नष्ट होने के साथ समाज भी विघटित हो जाता है। जीवन की इष्ट गति संस्कृति के विकास के लिये पूरक और पोषक होती है। अतः जीवन की इष्ट गति की शिक्षा भी शिक्षा का एक अत्यंत महत्वपूर्ण पहलू है। अर्थ पुरुषार्थ के अन्य महत्त्वपूर्ण बिदू जानने के लिये कृपया [[Bharat's Economic Systems (भारतीय समृद्धि शास्त्रीय दृष्टि)|यह]] अध्याय देखें।
    
=== धर्म पुरुषार्थ की शिक्षा ===
 
=== धर्म पुरुषार्थ की शिक्षा ===
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* इच्छाओं को और प्रयासों को धर्म की सीमा में रखना सिखाना ही धर्म शिक्षा है।
 
* इच्छाओं को और प्रयासों को धर्म की सीमा में रखना सिखाना ही धर्म शिक्षा है।
 
* अपने समाज, सृष्टि के विविध घटकों के प्रति कर्तव्यों के अनुसार व्यवहार करना सिखाना धर्मशिक्षा है।
 
* अपने समाज, सृष्टि के विविध घटकों के प्रति कर्तव्यों के अनुसार व्यवहार करना सिखाना धर्मशिक्षा है।
* सृष्टि में हर अस्तित्व का अपना अपना प्रयोजन है। इस प्रयोजन के अनुसार उसका उपयोग करना धर्म है। जैसे मनुष्य का शरीर मांसाहार के लिये नहीं बना हुआ है। इसलिए मांसाहार करना अधर्म है।
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* सृष्टि में हर अस्तित्व का अपना अपना प्रयोजन है। इस प्रयोजन के अनुसार उसका उपयोग करना धर्म है। जैसे मनुष्य का शरीर मांसाहार के लिये नहीं बना हुआ है। अतः मांसाहार करना अधर्म है।
 
* करणीय अकरणीय विवेक ही वास्तव में धर्म का आधार है।   
 
* करणीय अकरणीय विवेक ही वास्तव में धर्म का आधार है।   
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शिक्षक के अन्य गुण निम्न हैं:
 
शिक्षक के अन्य गुण निम्न हैं:
 
* जिसे ज्ञानार्जन में आनंद आता है, जो स्वयं भी ज्ञानवान है, श्रध्दा (अपने आप में, ज्ञान में और विद्यार्थी में) रखता है, विद्यार्थी को अपने पुत्र की भाँति प्रेम करता है, विद्यार्थीप्रिय है, तत्वनिष्ठ है (सौदेबाज नहीं है), "समाज को श्रेष्ठ बनाने की जिम्मेदारी मेरी है" ऐसा मानने वाला, सभ्य, सुशील, गौरवशील, सुसंस्कृत, मन के विकारों को नियंत्रण में रखता है, सन्मार्गगामी, लालच, भय, खुशामद और निंदा से दूर रहनेवाला आदि।
 
* जिसे ज्ञानार्जन में आनंद आता है, जो स्वयं भी ज्ञानवान है, श्रध्दा (अपने आप में, ज्ञान में और विद्यार्थी में) रखता है, विद्यार्थी को अपने पुत्र की भाँति प्रेम करता है, विद्यार्थीप्रिय है, तत्वनिष्ठ है (सौदेबाज नहीं है), "समाज को श्रेष्ठ बनाने की जिम्मेदारी मेरी है" ऐसा मानने वाला, सभ्य, सुशील, गौरवशील, सुसंस्कृत, मन के विकारों को नियंत्रण में रखता है, सन्मार्गगामी, लालच, भय, खुशामद और निंदा से दूर रहनेवाला आदि।
* शिशू, बाल, किशोर बच्चों का शिक्षक अपंग, अंध, अस्पष्ट उच्चारण वाला, गंदे दाँतवाला न हो। सुदृढ, सशक्त, प्रभावी व्यक्तित्ववाला हो।
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* शिशू, बाल, किशोर बच्चोंं का शिक्षक अपंग, अंध, अस्पष्ट उच्चारण वाला, गंदे दाँतवाला न हो। सुदृढ, सशक्त, प्रभावी व्यक्तित्ववाला हो।
 
* आचार्य की नियुक्ति का अधिकार केवल उससे श्रेष्ठ आचार्य को है, अन्य किसी को नहीं है।
 
* आचार्य की नियुक्ति का अधिकार केवल उससे श्रेष्ठ आचार्य को है, अन्य किसी को नहीं है।
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# शिक्षा क्रय विक्रय की वस्तू नहीं है। समाज के हर बालक को उस की योग्यता और क्षमता के अनुसार शिक्षा प्राप्त हो यह सामाजिक जिम्मेदारी है। समाज के प्रत्येक घटक की जिम्मेदारी है। इसीलिए भारत में अंग्रेजों के आने से पूर्व अन्न और औषधि के साथ ही शिक्षा नि:शुल्क ही हुआ करती थी। शिक्षा नि:शुल्क ही होनी चाहिए।
 
# शिक्षा क्रय विक्रय की वस्तू नहीं है। समाज के हर बालक को उस की योग्यता और क्षमता के अनुसार शिक्षा प्राप्त हो यह सामाजिक जिम्मेदारी है। समाज के प्रत्येक घटक की जिम्मेदारी है। इसीलिए भारत में अंग्रेजों के आने से पूर्व अन्न और औषधि के साथ ही शिक्षा नि:शुल्क ही हुआ करती थी। शिक्षा नि:शुल्क ही होनी चाहिए।
 
# ज्ञानी, समर्पित, कुशल शिक्षक को ऐश्वर्य तो नहीं मिलता था लेकिन उसे अपनी आजीविका की चिंता भी नहीं करनी पड़ती थी। शिक्षक की आजीविका की जिम्मेदारी समाज की है। शासन भी समाज का ही एक हिस्सा होता है। शिक्षक के माँगे बिना ही उसकी सारी आवश्यकताओं की पूर्ति समाज को करनी होती है। गुरुदक्षिणा, समित्पाणिता, दान, भिक्षा आदि के माध्यम से समाज को अपना उत्तरदायित्व निभाना चाहिए।
 
# ज्ञानी, समर्पित, कुशल शिक्षक को ऐश्वर्य तो नहीं मिलता था लेकिन उसे अपनी आजीविका की चिंता भी नहीं करनी पड़ती थी। शिक्षक की आजीविका की जिम्मेदारी समाज की है। शासन भी समाज का ही एक हिस्सा होता है। शिक्षक के माँगे बिना ही उसकी सारी आवश्यकताओं की पूर्ति समाज को करनी होती है। गुरुदक्षिणा, समित्पाणिता, दान, भिक्षा आदि के माध्यम से समाज को अपना उत्तरदायित्व निभाना चाहिए।
# मानव कोई यंत्र से उत्पादन की हुई वस्तू नहीं है। मानव एक जीवंत ईकाई है। इसलिये शिक्षा एक जीवमान प्रक्रिया है। हर बालक को उसकी अन्यों से भिन्नता को समझकर उसके और सभी के हित की दृष्टि से ढालने की प्रक्रिया है। इसलिए हर बालक के लिये शिक्षा की प्रक्रिया एक जैसी नहीं होगी।
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# मानव कोई यंत्र से उत्पादन की हुई वस्तू नहीं है। मानव एक जीवंत ईकाई है। इसलिये शिक्षा एक जीवमान प्रक्रिया है। हर बालक को उसकी अन्यों से भिन्नता को समझकर उसके और सभी के हित की दृष्टि से ढालने की प्रक्रिया है। अतः हर बालक के लिये शिक्षा की प्रक्रिया एक जैसी नहीं होगी।
 
# हर बालक के ज्ञानार्जन के कारणों (साधनों) का विकास आयु की अवस्था के अनुसार होता है। इसी तरह ज्ञानार्जन की या शिक्षा की प्रक्रिया भी आयु की अवस्था के अनुसार भिन्न होती है।
 
# हर बालक के ज्ञानार्जन के कारणों (साधनों) का विकास आयु की अवस्था के अनुसार होता है। इसी तरह ज्ञानार्जन की या शिक्षा की प्रक्रिया भी आयु की अवस्था के अनुसार भिन्न होती है।
 
# शिक्षा मुख्यत: ज्ञानार्जन, कौशालार्जन, बलार्जन, गुनार्जन के लिये होती है। अर्थार्जन याने पैसा कमाना यह तो उसका आनुषंगिक लाभ है। यह भी जीवन के लिये महत्वपूर्ण होता है। लेकिन अन्य बातों के अर्जन से अर्थार्जन तो सहज ही किया जा सकता है।
 
# शिक्षा मुख्यत: ज्ञानार्जन, कौशालार्जन, बलार्जन, गुनार्जन के लिये होती है। अर्थार्जन याने पैसा कमाना यह तो उसका आनुषंगिक लाभ है। यह भी जीवन के लिये महत्वपूर्ण होता है। लेकिन अन्य बातों के अर्जन से अर्थार्जन तो सहज ही किया जा सकता है।
# अध्ययन शिक्षा की मूल प्रक्रिया है। अध्यापन तो अध्ययन की प्रक्रिया का प्रेरक रूप ही है। अध्ययन तो अध्यापन के बगैर भी हो सकता है। लेकिन बिना अध्ययनकर्ता के कोई अध्यापन संभव नहीं होता। इसलिए शिक्षा अच्छी होने के लिये बालक का विद्यार्थी होना अनिवार्य है। हर बालक प्रारंभ से ही विद्यार्थी नहीं होता। उसे विद्यार्थी बनाना यह माता-पिता की प्राथमिक और बाद में शिक्षक की जिम्मेदारी है।
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# अध्ययन शिक्षा की मूल प्रक्रिया है। अध्यापन तो अध्ययन की प्रक्रिया का प्रेरक रूप ही है। अध्ययन तो अध्यापन के बगैर भी हो सकता है। लेकिन बिना अध्ययनकर्ता के कोई अध्यापन संभव नहीं होता। अतः शिक्षा अच्छी होने के लिये बालक का विद्यार्थी होना अनिवार्य है। हर बालक प्रारंभ से ही विद्यार्थी नहीं होता। उसे विद्यार्थी बनाना यह माता-पिता की प्राथमिक और बाद में शिक्षक की जिम्मेदारी है।
 
# बालक को व्यक्तिगत तथा सामूहिक रूप में और साथ ही में समाज को भी निकट से देखने वाला शिक्षक जैसा अन्य घटक नहीं होता। इसीलिये शिक्षा श्रेष्ठ तब ही बन सकती है जब शिक्षा शिक्षक के अधीन रहे। शिक्षक धर्मनिष्ठ रहे, समाजनिष्ठ रहे, राष्ट्रनिष्ठ रहे और शिक्षा शिक्षकाधिष्ठित रहे यही धार्मिक (भारतीय) परंपरा है। जब शिक्षा शिक्षकाधिष्ठीत होती है शिक्षा को स्वायत्त कहा जाता है। क्योंकि शिक्षक ही शिक्षा का मूर्तिमंत स्वरूप  होता है। राजा शिक्षा नियंत्रक तो प्रजा में अराजक।  
 
# बालक को व्यक्तिगत तथा सामूहिक रूप में और साथ ही में समाज को भी निकट से देखने वाला शिक्षक जैसा अन्य घटक नहीं होता। इसीलिये शिक्षा श्रेष्ठ तब ही बन सकती है जब शिक्षा शिक्षक के अधीन रहे। शिक्षक धर्मनिष्ठ रहे, समाजनिष्ठ रहे, राष्ट्रनिष्ठ रहे और शिक्षा शिक्षकाधिष्ठित रहे यही धार्मिक (भारतीय) परंपरा है। जब शिक्षा शिक्षकाधिष्ठीत होती है शिक्षा को स्वायत्त कहा जाता है। क्योंकि शिक्षक ही शिक्षा का मूर्तिमंत स्वरूप  होता है। राजा शिक्षा नियंत्रक तो प्रजा में अराजक।  
 
# केवल शिक्षक के अधीन होने से शिक्षा श्रेष्ठ नहीं बनती। उसके लिये शिक्षक का ज्ञानी, कुशल, श्रेष्ठ समाज निर्माण के लिये समर्पित राष्ट्रनिष्ठ, शिक्षानिष्ठ और विद्यार्थीनिष्ठ होना भी आवश्यक है।
 
# केवल शिक्षक के अधीन होने से शिक्षा श्रेष्ठ नहीं बनती। उसके लिये शिक्षक का ज्ञानी, कुशल, श्रेष्ठ समाज निर्माण के लिये समर्पित राष्ट्रनिष्ठ, शिक्षानिष्ठ और विद्यार्थीनिष्ठ होना भी आवश्यक है।
# मनुष्य परमात्मा का ही अंश है। इसलिये मूलत: वह सर्वज्ञानी है। अपने आप में पूर्ण है। लेकिन देहभाव के कारण वह अपने को कुछ भिन्न मानता है। मनुष्य को उसके देहभाव से मुक्त करना ही शिक्षा का काम है। समाज के साथ और आगे जड़-चेतन पर्यावरण के साथ आत्मीयता की भावना और व्यवहार का विकास ही शिक्षा का वास्तविक लक्ष्य है। यही व्यक्ति के समग्र विकास की धार्मिक (भारतीय) संकल्पना है।
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# मनुष्य परमात्मा का ही अंश है। इसलिये मूलत: वह सर्वज्ञानी है। अपने आप में पूर्ण है। लेकिन देहभाव के कारण वह अपने को कुछ भिन्न मानता है। मनुष्य को उसके देहभाव से मुक्त करना ही शिक्षा का काम है। समाज के साथ और आगे जड़़-चेतन पर्यावरण के साथ आत्मीयता की भावना और व्यवहार का विकास ही शिक्षा का वास्तविक लक्ष्य है। यही व्यक्ति के समग्र विकास की धार्मिक (भारतीय) संकल्पना है।
 
# मन बहुत चंचल होता है। इसे स्थिर किया जा सकता है। मन अनेकाग्र होता है। सदैव भटकता रहता है। इसे एकाग्र किया जा सकता है। मन महा-बलवान होता है। इसे नियंत्रण में लाया जा सकता है। मन द्वंद्वात्मक होता है। इसे निर्द्वंद्व किया जा सकता है। मन विकारों से ग्रस्त होता है। इसे विकारों से मुक्त किया जा सकता है। विषयों से आसक्ति मन का स्वभाव है। इसे अनासक्त बनाया जा सकता है। मन बुद्धि पर और विषयों के गुलाम इन्द्रिय मन पर नियंत्रण करते हैं तब अनर्थ होता है। मन को बुद्धि के नियंत्रण में लाने के लिये ही शिक्षा होती है। इसीलिये स्वामी विवेकानंद कहते थे मन को नियंत्रण में रखना ही शिक्षा का मुख्य पहलू है।
 
# मन बहुत चंचल होता है। इसे स्थिर किया जा सकता है। मन अनेकाग्र होता है। सदैव भटकता रहता है। इसे एकाग्र किया जा सकता है। मन महा-बलवान होता है। इसे नियंत्रण में लाया जा सकता है। मन द्वंद्वात्मक होता है। इसे निर्द्वंद्व किया जा सकता है। मन विकारों से ग्रस्त होता है। इसे विकारों से मुक्त किया जा सकता है। विषयों से आसक्ति मन का स्वभाव है। इसे अनासक्त बनाया जा सकता है। मन बुद्धि पर और विषयों के गुलाम इन्द्रिय मन पर नियंत्रण करते हैं तब अनर्थ होता है। मन को बुद्धि के नियंत्रण में लाने के लिये ही शिक्षा होती है। इसीलिये स्वामी विवेकानंद कहते थे मन को नियंत्रण में रखना ही शिक्षा का मुख्य पहलू है।
 
# मनुष्य के पास मन, बुद्धि, चित्त आदि अन्य प्राणियों की तुलना में अत्यंत विकासशील होते हैं। पशु पक्षी और प्राणियों में इनका स्तर बहुत निम्न होता है। अन्य योनियाँ भोग योनियाँ हैं। केवल मनुष्य योनि ही कर्मयोनि है। कर्म योनि का अर्थ है जो अपने मन बुद्धि के अनुसार कर्म करने के लिये स्वतन्त्र है। इसीलिये केवल मनुष्य को ही शिक्षा की आवश्यकता होती है।
 
# मनुष्य के पास मन, बुद्धि, चित्त आदि अन्य प्राणियों की तुलना में अत्यंत विकासशील होते हैं। पशु पक्षी और प्राणियों में इनका स्तर बहुत निम्न होता है। अन्य योनियाँ भोग योनियाँ हैं। केवल मनुष्य योनि ही कर्मयोनि है। कर्म योनि का अर्थ है जो अपने मन बुद्धि के अनुसार कर्म करने के लिये स्वतन्त्र है। इसीलिये केवल मनुष्य को ही शिक्षा की आवश्यकता होती है।
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# शासन की या अभिभावकों की अपेक्षाओं की पूर्ति के लिए शिक्षा नहीं होती। शिक्षा होती है उन्हें शिक्षा से किस प्रकार की अपेक्षा रखनी चाहिए यह सिखाने के लिये।
 
# शासन की या अभिभावकों की अपेक्षाओं की पूर्ति के लिए शिक्षा नहीं होती। शिक्षा होती है उन्हें शिक्षा से किस प्रकार की अपेक्षा रखनी चाहिए यह सिखाने के लिये।
 
# जिस देश में शिक्षक की प्रतिष्ठा सबसे ऊपर होती है वह देश या समाज विश्व में सबसे अधिक प्रतिष्ठित होता है। यह प्रतिष्ठा शिक्षक को अपने ज्ञान, कौशल, लोकसंग्रह, समर्पण भाव आदि से अर्जित करनी होती है।
 
# जिस देश में शिक्षक की प्रतिष्ठा सबसे ऊपर होती है वह देश या समाज विश्व में सबसे अधिक प्रतिष्ठित होता है। यह प्रतिष्ठा शिक्षक को अपने ज्ञान, कौशल, लोकसंग्रह, समर्पण भाव आदि से अर्जित करनी होती है।
# कहा गया है - माता प्रथमो गुरु:, पिता द्वितीय:। और भी कहा गया है – लालयेत पञ्चवर्षाणी दशवर्षाणी ताडयेत्। जन्म से पांच वर्ष तक माता ही बच्चे की पहली गुरु होती है। पिता दूसरा गुरु होता है। इस आयु में बच्चे को अच्छी आदतें लगाना, उसकी रूचि को पहचानना, उसके इन्द्रियों का श्रेष्ठतम विकास करना इसकी प्राथमिक जिम्मेदारी माँ की होती है। दुसरे क्रमांक पर यह जिम्मेदारी पिता की है। बालक की रूचि ध्यान में लेकर योग्य गुरु के पास उसे ले जाना पिता की जिम्मेदारी है।
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# कहा गया है - माता प्रथमो गुरु:, पिता द्वितीय:। और भी कहा गया है – लालयेत पञ्चवर्षाणी दशवर्षाणी ताडयेत्। जन्म से पांच वर्ष तक माता ही बच्चे की पहली गुरु होती है। पिता दूसरा गुरु होता है। इस आयु में बच्चे को अच्छी आदतें लगाना, उसकी रूचि को पहचानना, उसके इन्द्रियों का श्रेष्ठतम विकास करना इसकी प्राथमिक जिम्मेदारी माँ की होती है। दूसरे क्रमांक पर यह जिम्मेदारी पिता की है। बालक की रूचि ध्यान में लेकर योग्य गुरु के पास उसे ले जाना पिता की जिम्मेदारी है।
 
# धर्म की शिक्षा देनेवाले श्रेष्ठ शिक्षा केन्द्रों को सहायता (संसाधन आदि), संरक्षण और समर्थन देना शासन की जिम्मेदारी है। विपरीत शिक्षा या असामाजिक या अधार्मिक तत्वों को शिक्षा क्षेत्र से दूर रखना भी शासन की जिम्मेदारी है।
 
# धर्म की शिक्षा देनेवाले श्रेष्ठ शिक्षा केन्द्रों को सहायता (संसाधन आदि), संरक्षण और समर्थन देना शासन की जिम्मेदारी है। विपरीत शिक्षा या असामाजिक या अधार्मिक तत्वों को शिक्षा क्षेत्र से दूर रखना भी शासन की जिम्मेदारी है।
 
# मानव के व्यक्तित्व के मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार इन घटकों की शिक्षा का श्रेष्ठ साधन अष्टांग योग की शिक्षा है। अष्टांग योग में से पहले पांच चरणों की याने बहिरंग योग की शिक्षा बालक के व्यक्तित्व विकास के लिए आवश्यक है।
 
# मानव के व्यक्तित्व के मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार इन घटकों की शिक्षा का श्रेष्ठ साधन अष्टांग योग की शिक्षा है। अष्टांग योग में से पहले पांच चरणों की याने बहिरंग योग की शिक्षा बालक के व्यक्तित्व विकास के लिए आवश्यक है।
 
# अनध्ययन के दिनों में मन अस्थिर हो जाता है। इसलिये प्रतिपदा, अष्टमी, चतुर्दशी, अमावस्या और पूर्णिमा इन अनध्ययन के दिनों में अध्ययन टालना चाहिए।  
 
# अनध्ययन के दिनों में मन अस्थिर हो जाता है। इसलिये प्रतिपदा, अष्टमी, चतुर्दशी, अमावस्या और पूर्णिमा इन अनध्ययन के दिनों में अध्ययन टालना चाहिए।  
# मानव एक जीवंत ईकाई है, यंत्र नहीं। शिक्षा भी एक जैविक प्रक्रिया है, यांत्रिक नहीं। इसलिये शिक्षा को समयबद्ध घंटों में बांधना योग्य नहीं है। घंटी बजाकर एक विषय बंद कर दूसरा विषय शुरू करने के लिये मनुष्य कोई बिजली का खटका (स्विच) नहीं होता। इसे ध्यान में रखकर अध्ययन/ अध्यापन की रचना करनी चाहिए। बालक कोई मन, बुद्धि विहीन वस्तू नहीं होता। परीक्षा की, मूल्याङ्कन की एक ही पट्टी से सभी बच्चों को नापा नहीं जा सकता। शिक्षा में यांत्रिकता शिक्षा को अक्षम बना देती है।
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# मानव एक जीवंत ईकाई है, यंत्र नहीं। शिक्षा भी एक जैविक प्रक्रिया है, यांत्रिक नहीं। इसलिये शिक्षा को समयबद्ध घंटों में बांधना योग्य नहीं है। घंटी बजाकर एक विषय बंद कर दूसरा विषय आरम्भ करने के लिये मनुष्य कोई बिजली का खटका (स्विच) नहीं होता। इसे ध्यान में रखकर अध्ययन/ अध्यापन की रचना करनी चाहिए। बालक कोई मन, बुद्धि विहीन वस्तू नहीं होता। परीक्षा की, मूल्याङ्कन की एक ही पट्टी से सभी बच्चोंं को नापा नहीं जा सकता। शिक्षा में यांत्रिकता शिक्षा को अक्षम बना देती है।
 
# अध्ययन का विकसित स्तर ही अध्यापन का स्तर होता है। जब किसी विषय में मेरा ज्ञान इतना श्रेष्ठ बन जाता है कि मुझे लगने लगता है कि अब मैं बताऊंगा तो लोग सुनेंगे, तब मैं अध्यापक बन जाता हूँ। शिक्षक की नियुक्ति एक श्रेष्ठ शिक्षक ही कर सकता है। अन्य कोई नहीं। जब शिक्षक अध्ययन करना छोड़ देता है, समझो अब वह शिक्षक नहीं रहा। शिक्षक के लिए सदैव अध्येता बने रहना आवश्यक है।
 
# अध्ययन का विकसित स्तर ही अध्यापन का स्तर होता है। जब किसी विषय में मेरा ज्ञान इतना श्रेष्ठ बन जाता है कि मुझे लगने लगता है कि अब मैं बताऊंगा तो लोग सुनेंगे, तब मैं अध्यापक बन जाता हूँ। शिक्षक की नियुक्ति एक श्रेष्ठ शिक्षक ही कर सकता है। अन्य कोई नहीं। जब शिक्षक अध्ययन करना छोड़ देता है, समझो अब वह शिक्षक नहीं रहा। शिक्षक के लिए सदैव अध्येता बने रहना आवश्यक है।
 
# जानकारी ग्रहण करना, जानकारी के अर्थ को समझना, जानकारी का उपयोग कैसे करना चाहिए इसपर चिंतन करना याने ज्ञान प्राप्त करना, प्रयोग कर अपने चिंतन से उपजे ज्ञान की पुष्टि करना और सबसे अंत में ज्ञान का औरों को अन्तरण करना। यही अध्ययन की प्रक्रिया है।
 
# जानकारी ग्रहण करना, जानकारी के अर्थ को समझना, जानकारी का उपयोग कैसे करना चाहिए इसपर चिंतन करना याने ज्ञान प्राप्त करना, प्रयोग कर अपने चिंतन से उपजे ज्ञान की पुष्टि करना और सबसे अंत में ज्ञान का औरों को अन्तरण करना। यही अध्ययन की प्रक्रिया है।
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# श्रेष्ठ अध्यापन का वर्णन इस प्रकार किया जाता है{{Citation needed}} – चित्रम् वटम् तरोर्मूले वृद्ध: शिष्य: गुरोर्युवा।। गुरोऽस्तु मौनम् व्याख्यानम् शिष्य: छिनना संशय: ।। अर्थ : वटवृक्ष के नीचे चौपालपर युवा गुरु बैठे हैं। सामने जमीनपर वृद्ध शिष्य बैठे हैं। गुरु मौन अवस्था में ही व्याख्यान दे रहा है। और शिष्यों के संशय का निवारण हो जाता है।
 
# श्रेष्ठ अध्यापन का वर्णन इस प्रकार किया जाता है{{Citation needed}} – चित्रम् वटम् तरोर्मूले वृद्ध: शिष्य: गुरोर्युवा।। गुरोऽस्तु मौनम् व्याख्यानम् शिष्य: छिनना संशय: ।। अर्थ : वटवृक्ष के नीचे चौपालपर युवा गुरु बैठे हैं। सामने जमीनपर वृद्ध शिष्य बैठे हैं। गुरु मौन अवस्था में ही व्याख्यान दे रहा है। और शिष्यों के संशय का निवारण हो जाता है।
 
# गुरुगृहवास गुरुकुल की आत्मा है। गुरुकुल से अधिक श्रेष्ठ अन्य कोई शिक्षा प्रणाली अब तक विकसित नहीं हुई है।
 
# गुरुगृहवास गुरुकुल की आत्मा है। गुरुकुल से अधिक श्रेष्ठ अन्य कोई शिक्षा प्रणाली अब तक विकसित नहीं हुई है।
# शिक्षा व्यक्ति को दी जाती है किन्तु फिर भी वह प्रमुखता से राष्ट्रीय होती है। और अंतिमत: आत्म (तत्व) निष्ठ होती है।
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# शिक्षा व्यक्ति को दी जाती है किन्तु तथापि वह प्रमुखता से राष्ट्रीय होती है। और अंतिमत: आत्म (तत्व) निष्ठ होती है।
 
# बच्चे के स्वधर्म को जानने की और उसके स्वधर्म के अनुसार उसे समाज के लिये उपयुक्त बनाने के लिये संस्कार और शिक्षा होते हैं।
 
# बच्चे के स्वधर्म को जानने की और उसके स्वधर्म के अनुसार उसे समाज के लिये उपयुक्त बनाने के लिये संस्कार और शिक्षा होते हैं।
 
# बच्चे को उसके स्वधर्म के अनुसार व्यवसाय और अर्थार्जन की विधा का चयन करने की प्रेरणा देना माता पिता और शिक्षक का काम है।
 
# बच्चे को उसके स्वधर्म के अनुसार व्यवसाय और अर्थार्जन की विधा का चयन करने की प्रेरणा देना माता पिता और शिक्षक का काम है।
# आश्रम व्यवस्था के वानप्रस्थी और संन्यासियों की जिम्मेदारी लोकशिक्षा की अर्थात् धर्म के प्रचार और प्रसार की है।
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# [[Ashram System (आश्रम व्यवस्था)|आश्रम व्यवस्था]] के वानप्रस्थी और संन्यासियों की जिम्मेदारी लोकशिक्षा की अर्थात् धर्म के प्रचार और प्रसार की है।
 
# जब अधिकांश (९५ प्रतिशत) लोग स्वेच्छा से धर्म पालन करते है तब शिक्षा अच्छी है ऐसा माना जाएगा।
 
# जब अधिकांश (९५ प्रतिशत) लोग स्वेच्छा से धर्म पालन करते है तब शिक्षा अच्छी है ऐसा माना जाएगा।
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==References==
 
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[[Category:Bhartiya Jeevan Pratiman (भारतीय जीवन प्रतिमान - भाग २)]]
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[[Category:Dharmik Jeevan Pratiman (धार्मिक जीवन प्रतिमान - भाग २)]]
[[Category:Bhartiya Jeevan Pratiman (भारतीय जीवन प्रतिमान)]]
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[[Category:Dharmik Jeevan Pratiman (धार्मिक जीवन प्रतिमान)]]
 
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