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== समृद्धि शास्त्र के स्तंभ ==
 
== समृद्धि शास्त्र के स्तंभ ==
भारतीय समृद्धि शास्त्र के मानव से जुड़े पाँच प्रमुख स्तंभ हैं। पहला है कौटुम्बिक उद्योग, दूसरा है ग्रामकुल, तीसरा है व्यावसायिक कौशल विधा व्यवस्था और चौथा है राष्ट्र। इन चारों के विषय में हमने अलग अलग इकाईयों के स्वरूप में पूर्व में जाना है। लेकिन इनके साथ में ही एक और महत्त्वपूर्ण स्तंभ “प्रकृति” है। प्राकृतिक संसाधनों के बिना जीना संभव ही नहीं है। थोड़ा गहराई से विचार करने से हमें ध्यान में आएगा कि स्त्री पुरुष सहजीवन, जीने के लिए परस्परावलंबन, कौशल विधाओं की आनुवांशिकता तथा समान जीवन दृष्टि वाले समाज की समान आवश्यकताओं की पूर्ति के साथ सहजीवन की आवश्यकता ये भी सभी प्राकृतिक बातें ही हैं। इन्हें जब व्यवस्थित किया जाता है तब कुटुंब, ग्राम, कौशल विधा (पूर्व में जिसे जाति कहते थे) और राष्ट्र की व्यवस्थाएँ बनतीं हैं। यह व्यवस्थित करने का काम मानवीय है।  
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भारतीय समृद्धि शास्त्र के मानव से जुड़े पाँच प्रमुख स्तंभ हैं। पहला है कौटुम्बिक उद्योग, दूसरा है ग्रामकुल, तीसरा है व्यावसायिक कौशल विधा व्यवस्था और चौथा है राष्ट्र। इन चारों के विषय में हमने अलग अलग इकाईयों के स्वरूप में पूर्व में जाना है। लेकिन इनके साथ में ही एक और महत्वपूर्ण स्तंभ “प्रकृति” है। प्राकृतिक संसाधनों के बिना जीना संभव ही नहीं है। थोड़ा गहराई से विचार करने से हमें ध्यान में आएगा कि स्त्री पुरुष सहजीवन, जीने के लिए परस्परावलंबन, कौशल विधाओं की आनुवांशिकता तथा समान जीवन दृष्टि वाले समाज की समान आवश्यकताओं की पूर्ति के साथ सहजीवन की आवश्यकता ये भी सभी प्राकृतिक बातें ही हैं। इन्हें जब व्यवस्थित किया जाता है तब कुटुंब, ग्राम, कौशल विधा (पूर्व में जिसे जाति कहते थे) और राष्ट्र की व्यवस्थाएँ बनतीं हैं। यह व्यवस्थित करने का काम मानवीय है।  
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मानव का सामाजिक स्तर का जीवन का लक्ष्य “स्वतंत्रता” है। स्वतन्त्रता का अर्थ है अन्य किसी की भी मदाद के बिना और हस्तक्षेप के बिना अपने हिसाब से जीने की क्षमता रखना। सामाजिक दृष्टि से समाज की लघुतम ईकाई कुटुम्ब है। व्यक्ति अपने आप में अपनी उपर्युक्त न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं कर सकता। कुटुम्ब की मदद के बिना अपने बलबूते पर तो वह जन्म के बाद अधिक दिन जीवित भी नहीं रह सकता। आयु की अवस्थाओं के कारण भी मनुष्य को कुटुम्ब बनाकर जीना ही पड़ता है। कुटुम्ब में भी परावलंबन होता है तब ही कुटुम्ब में भी जीना संभव होता है। कुटुम्ब में रहना अनिवार्यता होती है। इसलिए व्यक्ति की स्वतन्त्रता का कुछ क्षरण तो होता ही है। लेकिन परस्परावलंबन से कुटुम्ब में भी स्वतन्त्रता और जीवन जीने में एक सन्तुलन  बनाया जाता है। यह सन्तुलन जितना अच्छा होगा उतनी ही स्वतन्त्रता अधिक होती है। कुटुम्ब में आत्मीयता की भावना याने कुटुम्ब भावना होने से आवश्यकतानुसार किसी की स्वतन्त्रता को बढाया जा सकता है। कुटुम्ब भावना का स्तर जितना अधिक उतनी सहकार की भावना बढ़ने से स्वतन्त्रता का स्तर भी बढ़ता है।  
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मानव का सामाजिक स्तर का जीवन का लक्ष्य “स्वतंत्रता” है। स्वतन्त्रता का अर्थ है अन्य किसी की भी मदद के बिना और हस्तक्षेप के बिना अपने हिसाब से जीने की क्षमता रखना। सामाजिक दृष्टि से समाज की लघुतम ईकाई कुटुम्ब है। व्यक्ति अपने आप में अपनी उपर्युक्त न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं कर सकता। कुटुम्ब की मदद के बिना अपने बलबूते पर तो वह जन्म के बाद अधिक दिन जीवित भी नहीं रह सकता। आयु की अवस्थाओं के कारण भी मनुष्य को कुटुम्ब बनाकर जीना ही पड़ता है। कुटुम्ब में भी परावलंबन होता है तब ही कुटुम्ब में भी जीना संभव होता है। कुटुम्ब में रहना अनिवार्यता होती है। इसलिए व्यक्ति की स्वतन्त्रता का कुछ क्षरण तो होता ही है। लेकिन परस्परावलंबन से कुटुम्ब में भी स्वतन्त्रता और जीवन जीने में एक सन्तुलन  बनाया जाता है। यह सन्तुलन जितना अच्छा होगा उतनी ही स्वतन्त्रता अधिक होती है। कुटुम्ब में आत्मीयता की भावना याने कुटुम्ब भावना होने से आवश्यकतानुसार किसी की स्वतन्त्रता को बढाया जा सकता है। कुटुम्ब भावना का स्तर जितना अधिक उतनी सहकार की भावना बढ़ने से स्वतन्त्रता का स्तर भी बढ़ता है।  
    
अपनी न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति कुटुम्ब के सदस्य केवल अपने प्रयासों से नहीं कर सकते। जब कुटुम्ब अपनी आवश्यकताओं को पूर्ण नहीं कर सकता तब उसे अन्यों से मदद की आवश्यकता होती है। इससे वह ली हुई मदद के सन्दर्भ में अन्यों पर निर्भर हो जाता है। अन्यों पर निर्भरता का अर्थ है परावलंबन। परावलंबन जितना अधिक होता है उतनी उस कुटुम्ब की स्वतन्त्रता कम हो जाती है। जीने के लिए काफी मात्रा में परावलंबन आवश्यक होता है। और जितना परावलंबन होगा उस प्रमाण में स्वतन्त्रता कम हो जाती है। इसका हल भी परस्परावलंबन से निकाला जाता है। जब परस्परावलंबन के आधार पर कोई जन-समुदाय स्वतन्त्र होता है तो वह एक बड़ा कुल बन जाता है। यह बड़े स्तर का भी परस्परावलंबन जितना कौटुम्बिक भावना से होता है परस्पर सहकारिता के कारण स्वतन्त्रता उतनी अधिक होती है।  
 
अपनी न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति कुटुम्ब के सदस्य केवल अपने प्रयासों से नहीं कर सकते। जब कुटुम्ब अपनी आवश्यकताओं को पूर्ण नहीं कर सकता तब उसे अन्यों से मदद की आवश्यकता होती है। इससे वह ली हुई मदद के सन्दर्भ में अन्यों पर निर्भर हो जाता है। अन्यों पर निर्भरता का अर्थ है परावलंबन। परावलंबन जितना अधिक होता है उतनी उस कुटुम्ब की स्वतन्त्रता कम हो जाती है। जीने के लिए काफी मात्रा में परावलंबन आवश्यक होता है। और जितना परावलंबन होगा उस प्रमाण में स्वतन्त्रता कम हो जाती है। इसका हल भी परस्परावलंबन से निकाला जाता है। जब परस्परावलंबन के आधार पर कोई जन-समुदाय स्वतन्त्र होता है तो वह एक बड़ा कुल बन जाता है। यह बड़े स्तर का भी परस्परावलंबन जितना कौटुम्बिक भावना से होता है परस्पर सहकारिता के कारण स्वतन्त्रता उतनी अधिक होती है।  
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=== ग्राम धर्म ===
 
=== ग्राम धर्म ===
- ग्राम के हर व्यक्ति के लिए सार्थक रोजगार की व्यवस्था करना यह ग्राम का सबसे महत्त्वपूर्ण धर्म है। यहाँ रोजगार का अर्थ केवल धनार्जनतक ही सीमित नहीं है। ऐसे कई काम हैं जो नि:शुल्क करने होते हैं। जैसे अन्न दान, कला, कारीगरी आदि या ऐसा कहें कि ज्ञान/विज्ञान/तंत्रज्ञान की विविध विधाओं की शिक्षा, ग्राम की सुरक्षा, ग्राम सेवा (मुखिया, पञ्च, सरपञ्च आदि), वैद्यकीय सेवा आदि। वानप्रस्थी या उन्नत गृहस्थाश्रमी लोगों यह काम हैं। सेवा और नौकरी में अंतर है। सेवा नि:स्वार्थ भाव से की जाती है। नौकरी स्वार्थ भावसे होती है।  
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# ग्राम के हर व्यक्ति के लिए सार्थक रोजगार की व्यवस्था करना यह ग्राम का सबसे महत्वपूर्ण धर्म है। यहाँ रोजगार का अर्थ केवल धनार्जन तक ही सीमित नहीं है। ऐसे कई काम हैं जो नि:शुल्क करने होते हैं। जैसे अन्न दान, कला, कारीगरी आदि या ऐसा कहें कि ज्ञान/ विज्ञान / तंत्रज्ञान की विविध विधाओं की शिक्षा, ग्राम की सुरक्षा, ग्राम सेवा (मुखिया, पञ्च, सरपञ्च आदि), वैद्यकीय सेवा आदि। वानप्रस्थी या उन्नत गृहस्थाश्रमी लोगों यह काम हैं। सेवा और नौकरी में अंतर है। सेवा नि:स्वार्थ भाव से की जाती है। नौकरी स्वार्थ भाव से होती है।  
- ग्राम के सभी लोगों का चरितार्थ सम्मान के साथ चले। इस दृष्टि से रचना बनाना और चलाना। अनाथ, विधवा, वृद्ध, अपंग आदि दुर्बल घटकों के भी सम्मानपूर्ण आजीविका की व्यवस्था हो। आचार्य, विद्वान, कलाकार, वैद्य आदि की यथोचित सम्मानपूर्ण आजीविका की भी व्यवस्था हो।  
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# ग्राम के सभी लोगों का चरितार्थ सम्मान के साथ चले। इस दृष्टि से रचना बनाना और चलाना। अनाथ, विधवा, वृद्ध, अपंग आदि दुर्बल घटकों के भी सम्मानपूर्ण आजीविका की व्यवस्था हो। आचार्य, विद्वान, कलाकार, वैद्य आदि की यथोचित सम्मानपूर्ण आजीविका की भी व्यवस्था हो।  
- किसीपर भी अन्याय न हो। सुख शांतीसे जीवन चले। दुष्ट दुर्जनों और मूर्खों को नियंत्रण में रखना।  
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# किसी पर भी अन्याय न हो। सुख शांति से जीवन चले। दुष्ट दुर्जनों और मूर्खों को नियंत्रण में रखना।  
- ग्राम के सभी सदस्यों की स्वाभाविक, शासकीय और आर्थिक स्वतन्त्रता की रक्षा हो।  
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# ग्राम के सभी सदस्यों की स्वाभाविक, शासकीय और आर्थिक स्वतन्त्रता की रक्षा हो।  
- ग्राम के सभी लोगों और उनके धन की तथा ग्राम की सुरक्षा की व्यवस्था करना।  
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# ग्राम के सभी लोगों और उनके धन की तथा ग्राम की सुरक्षा की व्यवस्था करना।  
- ग्राम ग्रामकुल बने। ग्राम के सभी सदस्य कुटुम्ब भावना से रहें ऐसा व्यवहार हो, ऐसा वातावरण रहे, ऐसे कार्यक्रमों का ही आयोजन हो। हर कुटुम्ब का मेहमान ग्राम का मेहमान है ऐसा उससे व्यवहार करना।
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# ग्राम ग्रामकुल बने। ग्राम के सभी सदस्य कुटुम्ब भावना से रहें ऐसा व्यवहार हो, ऐसा वातावरण रहे, ऐसे कार्यक्रमों का ही आयोजन हो। हर कुटुम्ब का मेहमान ग्राम का मेहमान है ऐसा उससे व्यवहार करना।  
- विश्व की प्रत्येक श्रेष्ठ बात ग्राम में उपलब्ध हो। ऐसी कुशलताओं का यथासंभव विकास हो।
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# विश्व की प्रत्येक श्रेष्ठ बात ग्राम में उपलब्ध हो। ऐसी कुशलताओं का यथासंभव विकास हो।  
- ग्राम का युवक, धन पूर्णत: और पानी यथासम्भव ग्राम से बाहर न जाए।  
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# ग्राम का युवक, धन पूर्णत: और पानी यथासम्भव ग्राम से बाहर न जाए।  
- ग्राम के लिए उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों के जैसे खेतों, तालाबों, गोचर भूमि, जंगल, खनिज पदार्थ आदि के रक्षण और रखरखाव की व्यवस्था करना।  
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# ग्राम के लिए उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों के जैसे खेतों, तालाबों, गोचर भूमि, जंगल, खनिज पदार्थ आदि के रक्षण और रखरखाव की व्यवस्था करना।  
- पैसा या धन (मुद्रा) यह आर्थिक व्यवहारों को बिगाड़ता है।(मनी इज द बिगेस्ट डिस्टॉर्टर ऑफ एकॉनॉमी)। इसलिये चलन विनिमय न्यूनतम रखना। वस्तु विनिमय (बार्टर प्रणाली) के आधारपर गाँव का व्यवहार नहीं चल सकता । इसलिये प्रत्येक व्यक्ति के सम्मान और आजीविका की आश्वस्ति दे, ऐसी मूलभूत आवश्यकताओं (वस्तुओं) के निर्माण और वितरण की व्यवस्था विकसित करना ।
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# पैसा या धन (मुद्रा) यह आर्थिक व्यवहारों को बिगाड़ता है।(मनी इज द बिगेस्ट डिस्टॉर्टर ऑफ एकॉनॉमी)। इसलिये चलन विनिमय न्यूनतम रखना। वस्तु विनिमय (बार्टर प्रणाली) के आधार पर गाँव का व्यवहार नहीं चल सकता। इसलिये प्रत्येक व्यक्ति के सम्मान और आजीविका की आश्वस्ति दे, ऐसी मूलभूत आवश्यकताओं (वस्तुओं) के निर्माण और वितरण की व्यवस्था विकसित करना।
- गाँव के लिये आवश्यक निवास, कृषि, जंगल, गोचर भूमिपर गाँव का अधिकार हो। अर्थात् ग्रामसभा का अधिकार हो। ग्रामसभा के निर्णय सर्वसहमति (जैसे आजतक होते आए हैं) से हों। खनिज राष्ट्रीय संपति है। इसलिये खनिजों का खनन शाश्वत राष्ट्रीय विकास नीति के अनुसार हो।  
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# गाँव के लिये आवश्यक निवास, कृषि, जंगल, गोचर भूमिपर गाँव का अधिकार हो। अर्थात् ग्रामसभा का अधिकार हो। ग्रामसभा के निर्णय सर्वसहमति (जैसे आजतक होते आए हैं) से हों। खनिज राष्ट्रीय संपति है। इसलिये खनिजों का खनन शाश्वत राष्ट्रीय विकास नीति के अनुसार हो।  
- सुबह सूर्योदय को घर से निकलकर अपनी आजीविका के लिए समय देकर सूर्यास्ततक अपने घर लौटने की सीमा यह ग्राम की सीमा है।  
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# सुबह सूर्योदय को घर से निकलकर अपनी आजीविका के लिए समय देकर सूर्यास्त तक अपने घर लौटने की सीमा यह ग्राम की सीमा है।  
- ज्ञानार्जन, कौशालार्जन और पुण्यार्जन के लिए समूचा विश्व ग्राम होता है। इसलिए अटन केवल ज्ञानार्जन, कौशलार्जन और पुण्यार्जन के लिए ही करना। लेकिन जीवन जीने के लिए ग्राम ही समूचा विश्व होता है।  
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# ज्ञानार्जन, कौशालार्जन और पुण्यार्जन के लिए समूचा विश्व ग्राम होता है। इसलिए अटन केवल ज्ञानार्जन, कौशलार्जन और पुण्यार्जन के लिए ही करना। लेकिन जीवन जीने के लिए ग्राम ही समूचा विश्व होता है।  
- अन्न निर्माण प्रभूत मात्रा में करना। कठिन परिस्थितियों के लिए धान्य संचय की व्यापक व्यवस्था बनाना।  
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# अन्न निर्माण प्रभूत मात्रा में करना। कठिन परिस्थितियों के लिए धान्य संचय की व्यापक व्यवस्था बनाना।  
    
=== कौशल विधा (जाति) धर्म ===
 
=== कौशल विधा (जाति) धर्म ===
- कभी भी ग्राम की आवश्यकता पूर्ण करनेवाली अपनी कौशल विधा से निर्माण हुई वस्तु की कमी न हो इसकी आश्वस्ति करना। इस दृष्टि से अपनी कौशल विधा का और अधिक विकास कर अगली पीढी को हस्तान्तरित करना। समाज की बदलती आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर अपने उत्पादनों में परिवर्तन करते जाना।
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# कभी भी ग्राम की आवश्यकता पूर्ण करनेवाली अपनी कौशल विधा से निर्माण हुई वस्तु की कमी न हो इसकी आश्वस्ति करना। इस दृष्टि से अपनी कौशल विधा का और अधिक विकास कर अगली पीढी को हस्तान्तरित करना। समाज की बदलती आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर अपने उत्पादनों में परिवर्तन करते जाना।  
- मेरे द्वारा निर्मित पदार्थ का उपभोग करनेवाले सभी लोग परमात्मा के ही रूप हैं यह ध्यान में रखकर मैं जो भी पदार्थ बना रहा हूँ वह परमात्मा के चरणों में चढाने के लिए है, ऐसी भावना से श्रेष्ठतम बने ऐसा प्रयास करना।
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# मेरे द्वारा निर्मित पदार्थ का उपभोग करनेवाले सभी लोग परमात्मा के ही रूप हैं, यह ध्यान में रखकर "मैं जो भी पदार्थ बना रहा हूँ वह परमात्मा के चरणों में चढाने के लिए है", ऐसी भावना से श्रेष्ठतम पदार्थ के निर्माण का प्रयास करना।  
- माँग के अनुसार उत्पादन करना। कच्चे माल का उपयोग न्यूनतम करना।  
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# माँग के अनुसार उत्पादन करना। कच्चे माल का उपयोग न्यूनतम करना।  
- अपनी कौशल विधा की शुद्धि और वृद्धि के निरंतर प्रयास करना। इस हेतु अध्ययन अनुसन्धान करना।  
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# अपनी कौशल विधा की शुद्धि और वृद्धि के निरंतर प्रयास करना। इस हेतु अध्ययन अनुसन्धान करना।  
- उत्पादन करते समय प्राकृतिक संसाधनों का अपव्यय नहीं करना। प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग भी न्यूनतम करने के उपायों का अनुसन्धान करते रहना। उपलब्ध स्थानिक संसाधनों के आधारसे ही जीवन चल सके ऐसा कौशल विकसित करना।  
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# उत्पादन करते समय प्राकृतिक संसाधनों का अपव्यय नहीं करना। प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग भी न्यूनतम करने के उपायों का अनुसन्धान करते रहना। उपलब्ध स्थानिक संसाधनों के आधार से ही जीवन चल सके ऐसा कौशल विकसित करना।  
- आवश्यकता की सटीक पूर्ति हो ऐसे पदार्थ ही बनाना।  
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# आवश्यकता की सटीक पूर्ति हो ऐसे पदार्थ ही बनाना।  
- कौशल विधा के किसी भी सदस्य पर अन्याय न हो यह देखना। किसी सदस्य द्वारा दुर्व्यवहार होनेपर उसे साम, दाम, दंड, भेद से ठीक करना। कौशल विधा के सभी सदस्य कौशल बांधव हैं ऐसा उन के साथ व्यवहार रखना।  
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# कौशल विधा के किसी भी सदस्य पर अन्याय न हो यह देखना। किसी सदस्य द्वारा दुर्व्यवहार होनेपर उसे साम, दाम, दंड, भेद से ठीक करना। कौशल विधा के सभी सदस्य कौशल बांधव हैं ऐसा उन के साथ व्यवहार रखना।  
- अन्न निर्माण प्रभूत मात्रा में करना।  
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# अन्न निर्माण प्रभूत मात्रा में करना।  
    
=== राष्ट्र धर्म ===
 
=== राष्ट्र धर्म ===
राष्ट्र धर्म के अनेकों पहलू हैं। जिनमें से एक समृद्धि से सम्बंधित है। यहाँ हम केवल राष्ट्र धर्म के समृद्धि से सम्बंधित बिदुओं का विचार करेंगे।
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राष्ट्र धर्म के अनेकों पहलू हैं। जिनमें से एक समृद्धि से सम्बंधित है। यहाँ हम केवल राष्ट्र धर्म के समृद्धि से सम्बंधित बिदुओं का विचार करेंगे:
- अपरमातृका समृद्धिव्यवस्था और अदेवमातृका खेती।
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# अपरमातृका समृद्धिव्यवस्था और अदेवमातृका खेती।  
- जन (आबादी), धन, सत्ता और उत्पादन का विकेंद्रीकरण ।
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# जन (आबादी), धन, सत्ता और उत्पादन का विकेंद्रीकरण।
- अधिकतम कर निर्धारण १६ प्रतिशत हो ।      
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# अधिकतम कर निर्धारण १६ प्रतिशत हो।
- राष्ट्र के सभी सदस्यों के लिए निम्न व्यवस्थाओं का निर्माण करना।
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# राष्ट्र के सभी सदस्यों के लिए निम्न व्यवस्थाओं का निर्माण करना:
- पोषण व्यवस्था - रक्षण व्यवस्था - शिक्षण व्यवस्था
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## पोषण व्यवस्था  
- राष्ट्र के पड़ोसियों से दौत्य सम्बन्ध रखना। पड़ोसी देशों में होनेवाले वातावरण, परिवर्तनों का निरीक्षण कर उचित सावधानी बरतना। उचित कार्यवाही भी करना। भारतीय समृद्धिशास्त्र की प्रस्तुति भारतीय जीवनदृष्टि के आधारपर ही की जायेगी ।  
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## रक्षण व्यवस्था  
- भारतीय विचारों में जीवन का लक्ष्य ' मोक्ष ' है । काम पुरुषार्थ अर्थात् कामनाओं को और आर्थिक पुरुषार्थ अर्थात् इन कामनाओं की पूर्ति के लिये किये गये प्रयासों को धर्मानुकूल बनाना होगा । यह विचार भारतीय समृद्धिशास्त्र के निर्माण का आधार बने । समृद्धिशास्त्र यह शिक्षा का विषय है । और शिक्षा का लक्ष्य स्पष्ट किया गया है ' सा विद्या या विमुक्तये ' इस कथन से। मुक्ति दिलाए ऐसी शिक्षा मुक्ति दिलाए ऐसा समृद्धिशास्त्र ।  
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## शिक्षण व्यवस्था  
- किसी भी प्रकार के आर्थिक अधिकार सरकार के पास न रहें । धर्म व्यवस्था ने दिया कर वसूली का और कर के योग्य विनिमय का अधिकार केवल शासन के पास रहेगा । इस हेतु सत्ता का आडा विकेंद्रीकरण भी करना होगा ।
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# राष्ट्र के पड़ोसियों से दौत्य सम्बन्ध रखना। पड़ोसी देशों में होने वाले वातावरण, परिवर्तनों का निरीक्षण कर उचित सावधानी बरतना। उचित कार्यवाही भी करना।   
- संपूर्ण और सार्थक रोजगार की संकल्पना और चराचर की नि:स्वार्थ सेवा की भावना से किये जा रहे काम, इनका सन्तुलन। प्राचीन काल में धनार्जन के काम केवल गृहस्थाश्रमी अर्थात् मात्र ३३ प्रतिशत सज्ञान लोग करते थे । मैं नौकर नहीं बनूंगा ऐसी मानसिकता हुआ करती थी। यही योग्य भी है।
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# भारतीय विचारों में जीवन का लक्ष्य 'मोक्ष' है। काम पुरुषार्थ अर्थात् कामनाओं को और आर्थिक पुरुषार्थ अर्थात् इन कामनाओं की पूर्ति के लिये किये गये प्रयासों को धर्मानुकूल बनाना होगा। यह विचार भारतीय समृद्धिशास्त्र के निर्माण का आधार बने। समृद्धिशास्त्र शिक्षा का विषय है। और शिक्षा का लक्ष्य स्पष्ट किया गया है: 'सा विद्या या विमुक्तये' अर्थात 'मुक्ति दिलाए ऐसी शिक्षा' या 'मुक्ति दिलाए ऐसा समृद्धिशास्त्र'।  
- अनुभव और ज्ञान के आधारपर समाज को श्रेष्ठ बनाने के लिए योग्य समाज घटकों को मार्गदर्शन कर अपने से अधिक श्रेष्ठ अगली पीढी बनें ऐसी परम्परा विकसित करना यह सभी वानप्रस्थियों की जिम्मेदाररियाँ है।  
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# किसी भी प्रकार के आर्थिक अधिकार सरकार के पास न रहें। धर्म व्यवस्था ने दिया कर वसूली का और कर के योग्य विनिमय का अधिकार केवल शासन के पास रहेगा। इस हेतु सत्ता का विकेंद्रीकरण भी करना होगा।
- आपद्धर्म – अंत्योदय। समाज में कोई पिछड़ा नहीं रहे ऐसी नीति और व्यवहार रखना।  
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# संपूर्ण और सार्थक रोजगार की संकल्पना और चराचर की नि:स्वार्थ सेवा की भावना से किये जा रहे काम, इनका सन्तुलन। प्राचीन काल में धनार्जन के काम केवल गृहस्थाश्रमी अर्थात् मात्र ३३ प्रतिशत सज्ञान लोग करते थे। 'मैं नौकर नहीं बनूंगा' ऐसी मानसिकता हुआ करती थी। यही योग्य भी है।  
- स्वदेशी वस्तू संकल्पना जो वस्तू घर में बनी हो वह सबसे अधिक स्वदेशी । घर के बाद अपने पडोसी के घर में बनी । फिर गाँव में या परिसर में बनी । फिर अपने जिले में बनी । फिर अपने जनपद में बनी । फिर अपने प्रांत में बनी । फिर अपने देश के अन्य प्रांतों में बनी । फिर पडोसी देश में बनी । अंत में किसी भी अन्य देश में बनी ( स्वदेशो भुवनत्रयम ) । अधिकतम स्वदेशी वस्तुओं के उपयोग का आग्रह हो ।
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# अनुभव और ज्ञान के आधार पर समाज को श्रेष्ठ बनाने के लिए योग्य समाज घटकों को मार्गदर्शन कर अपने से अधिक श्रेष्ठ अगली पीढी बनें ऐसी परम्परा विकसित करना यह सभी वानप्रस्थियों की जिम्मेदारियाँ है।  
- अनविकरणीय पदार्थों का उपयोग न्यूनतम रखना और प्रतिदिन कम करते जाना । नविकरणीय पदार्थों का उपभोग भी उस के नवीकरण की क्षमता की मर्यादा से बढने न देना । भोग और नवनिर्माण का सन्तुलन बनाए रखना ।
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# आपद्धर्म – अंत्योदय। समाज में कोई पिछड़ा नहीं रहे ऐसी नीति और व्यवहार रखना।  
- निर्णय के अधिकार और जिम्मेदारीयों का विकेंद्रीकरण । जो बात ग्राम स्तरपर संभव नहीं है केवल वही निर्णय और जिम्मेदारी तहसील स्तरपर हो । जो बात तहसील स्तरपर संभव नहीं है केवल वही निर्णय और जिम्मेदारी जिला स्तरपर हो। जो बात जिला स्तरपर संभव नहीं है केवल वही निर्णय और जिम्मेदारी विभाग स्तरपर हो । जो बात विभाग स्तरपर संभव नहीं है केवल वही निर्णय और जिम्मेदारी प्रांत स्तरपर हो । जो बात प्रांत स्तरपर संभव नहीं है केवल वही निर्णय और जिम्मेदारी राष्ट्रीय स्तरपर हो ।
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# स्वदेशी वस्तू संकल्पना: जो वस्तू घर में बनी हो वह सबसे अधिक स्वदेशी। घर के बाद अपने पडोसी के घर में बनी। फिर गाँव में या परिसर में बनी। फिर अपने जिले में बनी। फिर अपने जनपद में बनी। फिर अपने प्रांत में बनी। फिर अपने देश के अन्य प्रांतों में बनी। फिर पडोसी देश में बनी। अंत में किसी भी अन्य देश में बनी (स्वदेशो भुवनत्रयम)। अधिकतम स्वदेशी वस्तुओं के उपयोग का आग्रह हो।
- राजा व्यापारी तो प्रजा भिखारी । सामान्य रूप में उत्पादन और व्यापार शासन के काम नहीं है ।
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# अनविकरणीय पदार्थों का उपयोग न्यूनतम रखना और प्रतिदिन कम करते जाना। नविकरणीय पदार्थों का उपभोग भी उस के नवीकरण की क्षमता की मर्यादा से बढने न देना। भोग और नवनिर्माण का सन्तुलन बनाए रखना।
- देश और गाँवगाँव का तालाबीकरण करना। चार और आचार की प्यास बुझाने का यह सर्वश्रेष्ठ तरीका है। तालाबों का निर्माण रखरखाव और नियंत्रण ये ग्राम की जिम्मेदारीयाँ और इस कारण अधिकार भी होंगे।  
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# निर्णय के अधिकार और जिम्मेदारीयों का विकेंद्रीकरण। जो बात ग्राम स्तर पर संभव नहीं है केवल वही निर्णय और जिम्मेदारी तहसील स्तर पर हो। जो बात तहसील स्तर पर संभव नहीं है, केवल वही निर्णय और जिम्मेदारी जिला स्तर पर हो। जो बात जिला स्तर पर संभव नहीं है, केवल वही निर्णय और जिम्मेदारी विभाग स्तर पर हो। जो बात विभाग स्तर पर संभव नहीं है, केवल वही निर्णय और जिम्मेदारी प्रांत स्तर पर हो। जो बात प्रांत स्तर पर संभव नहीं है, केवल वही निर्णय और जिम्मेदारी राष्ट्रीय स्तर पर हो।
- प्राकृतिक नविकरणीय और यथासंभव अनविकरणीय संसाधनों के भी पुनर्भरण के प्रयास सतत चलते रहें ।
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# राजा व्यापारी तो प्रजा भिखारी । सामान्य रूप में उत्पादन और व्यापार शासन के काम नहीं है।
- माँग से अधिक उत्पादन करनेपर रोक लगे। विज्ञापनबाजी वर्जित और दंडनीय हो।
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# देश और गाँव गाँव का तालाबीकरण करना। चार और आचार की प्यास बुझाने का यह सर्वश्रेष्ठ तरीका है। तालाबों का निर्माण रखरखाव और नियंत्रण ये ग्राम की जिम्मेदारीयाँ और इस कारण अधिकार भी होंगे।  
- प्रतिव्यक्ति वेतन का अनुपात बडे से बडे अधिकारी और छोटे से छोटे सेवक में १५ गुना से अधिक न रहे । अधिकारी के काम के स्वरूप के अनुसार उसे विशेष सुविधाएं और साधन देना आवश्यक ।
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# प्राकृतिक नविकरणीय और यथासंभव अनविकरणीय संसाधनों के भी पुनर्भरण के प्रयास सतत चलते रहें।
- उत्पादन का स्तर भी न्यूनतम हो। अर्थात् जो वस्तू गृह उद्योग में बन सकती हो उसे लघु उद्योग में न बनाएं । जो वस्तू लघु उद्योग में बन सकती हो उसे मध्यम उद्योग में न बनाएं । जो वस्तू मध्यम उद्योग में बन सकती हो उसे बडे उद्योग में न बनाएं। जो वस्तू बडे उद्योग में बन सकती हो उसे विशाल उद्योग में न बनाएं। जो वस्तु नीजी उद्योग में बनाना से देश की सुरक्षा को खतरा हो सकता है ऐसी वस्तुएं केवल सरकारी उद्योग में बने । अनिवार्य है ऐसे मध्यम, बडे और विशाल उद्योगों के लिये पूंजी बचतगटों के जाल से या सहकारी तत्वपर निर्माण की जायेगी ।
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# माँग से अधिक उत्पादन करने पर रोक लगे। विज्ञापनबाजी वर्जित और दंडनीय हो।  
- स्वायत्त (धर्मानुकूल) आर्थिक क्षेत्र के कानून बनानेवाला धर्म के जानकारों का एक वर्ग निर्माण करना आवश्यक है। धर्म के जानकारों का निर्णय अंतिम हो ।
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# प्रतिव्यक्ति वेतन का अनुपात बडे से बडे अधिकारी और छोटे से छोटे सेवक में १५ गुना से अधिक न रहे। अधिकारी के काम के स्वरूप के अनुसार उसे विशेष सुविधाएं और साधन देना आवश्यक।
- राज्यशासित लेकिन धर्म व्यवस्थाद्वारा मार्गदर्शित राज्यव्यवस्था न्याय की चिंता करे। कानून बनाने का अधिकार केवल धर्म के जानकारों को हो। धर्म के जानकारों में भी जिस क्षेत्र के लिये कानून बनाया जायेगा, उस क्षेत्र के ज्ञाताओं का है।
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# उत्पादन का स्तर भी न्यूनतम हो। अर्थात् जो वस्तू गृह उद्योग में बन सकती हो उसे लघु उद्योग में न बनाएं। जो वस्तू लघु उद्योग में बन सकती हो उसे मध्यम उद्योग में न बनाएं। जो वस्तू मध्यम उद्योग में बन सकती हो उसे बडे उद्योग में न बनाएं। जो वस्तू बडे उद्योग में बन सकती हो उसे विशाल उद्योग में न बनाएं। जो वस्तु निजी उद्योग में बनाने से देश की सुरक्षा को खतरा हो सकता है ऐसी वस्तुएं केवल सरकारी उद्योग में बने। अनिवार्य है ऐसे मध्यम, बडे और विशाल उद्योगों के लिये पूंजी बचतगटों के जाल से या सहकारी तत्व पर निर्माण की जायेगी।
- अर्थायाम याने अर्थ का अभाव और प्रभाव दोनों ना रहें। बड़े/विशाल उद्योग अपने हित के लिए समाज को विज्ञापनबाजी, शासनपर दबाव आदि अलग अलग माध्यमों से नियमित करते हैं। इनके कारण धन का अभाव और प्रभाव दोनों निर्माण होते हैं। धन की प्रतिष्ठा ज्ञान/धर्म, शिक्षा और सुरक्षा से नीचे रखने से धन का अभाव और प्रभाव निर्माण नहीं हो पाता। इस हेतु एक ओर तो अर्थ के सुयोग्य वितरण की व्यवस्था का और दूसरी ओर शिक्षा के माध्यम से सुसंस्कारित मानव का निर्माण करना होगा।। कौटुम्बिक उद्योगोंपर आधारित समृद्धि व्यवस्था में यह सहज ही हो सकता है। समाज अपने हित में कौटुम्बिक उद्योगों को नियमित करता है। इसलिए धन का अभाव और प्रभाव दोनों निर्माण नहीं होते।
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# स्वायत्त (धर्मानुकूल) आर्थिक क्षेत्र के कानून बनाने वाला धर्म के जानकारों का एक वर्ग निर्माण करना आवश्यक है। धर्म के जानकारों का निर्णय अंतिम हो।
- धर्माचरण करनेवाला, धर्मानुकूल अर्थ की समझवाला, अभोगी शासक हो।
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# राज्यशासित लेकिन धर्म व्यवस्था द्वारा मार्गदर्शित राज्यव्यवस्था न्याय की चिंता करे। कानून बनाने का अधिकार केवल धर्म के जानकारों को हो। धर्म के जानकारों में भी जिस क्षेत्र के लिये कानून बनाया जायेगा, उस क्षेत्र के ज्ञाताओं का है।  
- कुटुम्ब शिक्षा और विद्यालयीन शिक्षा के माध्यम से समाज की मानसिकता को समृद्धि शास्त्र के अनुकूल बनाना।
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# अर्थायाम याने अर्थ का अभाव और प्रभाव दोनों ना रहें। बड़े / विशाल उद्योग अपने हित के लिए समाज को विज्ञापनबाजी, शासनपर दबाव आदि अलग अलग माध्यमों से नियमित करते हैं। इनके कारण धन का अभाव और प्रभाव दोनों निर्माण होते हैं। धन की प्रतिष्ठा ज्ञान / धर्म, शिक्षा और सुरक्षा से नीचे रखने से धन का अभाव और प्रभाव निर्माण नहीं हो पाता। इस हेतु एक ओर तो अर्थ के सुयोग्य वितरण की व्यवस्था का और दूसरी ओर शिक्षा के माध्यम से सुसंस्कारित मानव का निर्माण करना होगा। कौटुम्बिक उद्योगों पर आधारित समृद्धि व्यवस्था में यह सहज ही हो सकता है। समाज अपने हित में कौटुम्बिक उद्योगों को नियमित करता है। इसलिए धन का अभाव और प्रभाव दोनों निर्माण नहीं होते।  
- किसी भी काम के लिए ॠण लेना यह सामाजिक लज्जा की बात हो। किसी आपदा के कारण मजबूरी में ऐसा ॠण लेना पड़े तो पहले संभव क्षण को ॠण लौटाने की मानासिकता हो।  
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# धर्माचरण करनेवाला, धर्मानुकूल अर्थ की समझवाला, अभोगी शासक हो।  
- प्राकृतिक संसाधनों का वास्तविक मूल्य उन्हें उपभोक्तातक लाने के लिए किया गया यातायात का व्यय, उन्हें उपयुक्त बनाने के लिए की गयी प्रक्रिया का व्यय और लाभ, इतना ही नहीं होता। उसका वास्तविक मूल्य लगाया ही नहीं जा सकता। क्यों कि उपभोग की कोई मर्यादा नहीं है और सभी संसाधन मर्यादित मात्रा में ही प्रकृति में उपलब्ध हैं।  
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# कुटुम्ब शिक्षा और विद्यालयीन शिक्षा के माध्यम से समाज की मानसिकता को समृद्धि शास्त्र के अनुकूल बनाना।  
- व्यवस्था धर्म के अनुसार व्यवस्थाएँ निर्माण करनी होंगी। व्यवस्था धर्म के सूत्रों का विचार हमने समाज धारणा के अध्याय में किया है।  
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# किसी भी काम के लिए ॠण लेना यह सामाजिक लज्जा की बात हो। किसी आपदा के कारण मजबूरी में ऐसा ॠण लेना पड़े तो पहले संभव क्षण को ॠण लौटाने की मानासिकता हो।  
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# प्राकृतिक संसाधनों का वास्तविक मूल्य उन्हें उपभोक्तातक लाने के लिए किया गया यातायात का व्यय, उन्हें उपयुक्त बनाने के लिए की गयी प्रक्रिया का व्यय और लाभ, इतना ही नहीं होता। उसका वास्तविक मूल्य लगाया ही नहीं जा सकता। क्योंकि उपभोग की कोई मर्यादा नहीं है और सभी संसाधन मर्यादित मात्रा में ही प्रकृति में उपलब्ध हैं।  
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# व्यवस्था धर्म के अनुसार व्यवस्थाएँ निर्माण करनी होंगी। व्यवस्था धर्म के सूत्रों का विचार हमने समाज धारणा के अध्याय में किया है।  
    
== समृद्धि व्यवस्था का ढाँचा ==
 
== समृद्धि व्यवस्था का ढाँचा ==
समृद्धि व्यवस्था में स्वतन्त्रता और सहानुभूति का सन्तुलन  होता है। इस सन्तुलन के कारण धन का अभाव और प्रभाव दोनों निर्माण नहीं हो पाते। जब धन का संचय किसी के हाथों में हो जाता है उसमें उद्दंडता, मस्ती, अहंकार बढ़ता है। इससे वह धन के बलपर लोगों को पीड़ित करने लग जाता है। और अर्थ का प्रभाव समाज में दिखने लग जाता है। इसी तरह से जब धन के अभाव के कारण समाज के किन्ही सदस्यों में या वर्गों में दीनता, लाचारी का भाव पैदा होता है।कहा गया है
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समृद्धि व्यवस्था में स्वतन्त्रता और सहानुभूति का सन्तुलन  होता है। इस सन्तुलन के कारण धन का अभाव और प्रभाव दोनों निर्माण नहीं हो पाते। जब धन का संचय किसी के हाथों में हो जाता है उसमें उद्दंडता, मस्ती, अहंकार बढ़ता है। इससे वह धन के बल पर लोगों को पीड़ित करने लग जाता है। और अर्थ का प्रभाव समाज में दिखने लग जाता है। इसी तरह से जब धन के अभाव के कारण समाज के किन्ही सदस्यों में या वर्गों में दीनता, लाचारी का भाव पैदा होता है। कहा गया है: <blockquote>यौवनं धन सम्पत्ति प्रभुत्वमविवेकिता। एकैकमप्यनर्थाय किमु यत्र चतुष्ट्य ।।</blockquote><blockquote>अर्थ : यौवन, धन/सम्पत्ति, असीम अधिकार और अविवेक इन चारों में से कोई एक भी होने से अनर्थ हो जाता है। यदि चारों एक साथ हों तो भगवान जाने क्या होगा?</blockquote>लेकिन धन का संचय होनेपर जब दान की भावना से वह पुन: जरूरतमंदों में वितरित हो जाता है, सड़क निर्माण, कुए या तालाबों का निर्माण, धर्मशालाओं का निर्माण आदि में व्यय होता है, तब धन का अनावश्यक संचय नहीं होता। धन का संचय न होने से अर्थ का प्रभाव नहीं होता। और उसका जरूरतमंदों में वितरण हो जाने से धन का अभाव भी नहीं रहता।  
यौवनं धन सम्पत्ति प्रभुत्वमविवेकिता ।
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एकैकमप्यनर्थाय किमु यत्र चतुष्ट्य ।।
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अर्थ : यौवन, धन/सम्पत्ति, असीम अधिकार और अविवेक इन चारों में से कोई एक भी होने से अनर्थ हो जाता है। यदि चारों एक साथ हों तो भगवान जाने क्या होगा?
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लेकिन धन का संचय होनेपर जब दान की भावना से वह पुन: जरूरतमंदों में वितरित हो जाता है, सड़क निर्माण, कुए या तालाबों का निर्माण, धर्मशालाओं का निर्माण आदि में व्यय होता है, तब धन का अनावश्यक संचय नहीं होता। धन का संचय न होने से अर्थ का प्रभाव नहीं होता। और उसका जरूरतमंदों में वितरण हो जाने से धन का अभाव भी नहीं रहता।  
      
भारतीय समृद्धिशास्त्र की पुन: प्रतिष्ठा   
 
भारतीय समृद्धिशास्त्र की पुन: प्रतिष्ठा   
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