Dharmik Drishti on Various Subjects (विभिन्न विषयों की विषयवस्तु में धार्मिक दृष्टि)

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प्रस्तावना

भारत में अंग्रेजी शिक्षा को स्थापित हुए अब २०० वर्षों से अधिक काल हो गया है। इस काल में हमने अंग्रेजी या पाश्चात्य जीवनदृष्टि का लगभग स्वीकार कर लिया दिखाई देता है। केवल पाश्चात्य जीवनदृष्टि ही नहीं तो उस के अनुसार प्रत्यक्ष व्यवहार और व्यवस्थाओं का भी हमने स्वीकार कर लिया है। जैसे हमने अंग्रेजों जैसे कपड़े पहनना स्वीकार कर लिया है। कपडों को किया हुआ लोहा नहीं बिगडे इस लिये अब हम कुर्सी पर बैठकर, टेबल पर खाना रख कर खाते है। भारतीय स्वास्थ्य विचार के अनुसार भोजन की यह स्थिति अत्यंत गलत है। किंतु हम अब उस आदत के इतने गुलाम बन गये है कि नीचे बैठकर पालखी मार कर हम खाना नहीं खा सकते। हम ऐसी आदतों के इतने आदि हो गये है कि अब हमें हम कुछ गलत कर रहे है इस का ज्ञान भी नहीं है।

भारत में राष्ट्रीय शिक्षा की प्रतिष्ठापना के प्रयास भी १९ वीं सदी से ही आरम्भ हो गये थे। यह प्रयास रवींद्रनाथ ठाकुर, स्वामी दयानंद सरस्वती, मदन मोहन मालवीय, लोकमान्य टिळक, बिपिनचंद्र पाल , महात्मा गांधी जैसे दिग्गजों ने किये थे। किंतु शिक्षा राष्ट्रीय नहीं बनीं। स्वाधीनता के उपरांत भी यह प्रयास हुए। विद्या भारती के द्वारा, गायत्री परिवार के द्वारा, अन्यान्य संतों द्वारा हजारों की संख्या में भारत में विद्यालय और गुरुकुल चलाए जाते है। किंतु शिक्षा भारतीय बनती दिखाई नहीं देती।

गांधीजी ने १९४४ में द्वितीय विश्वयुध्द समाप्त होने से पूर्व जवाहरलाल नेहरू को एक पत्र लिखा था और स्वाधीन भारत के मार्गक्रमण का आधार क्या होगा इस विषय में चर्चा छेडी थी। इस के उत्तर मे नेहरूजी ने भी लिखा था की आप के हिंद स्वराज पुस्तक में लिखे विचार मैंने १९३० में पढे थे। मैं आप के विचारों से तब भी सहमत नहीं था और आज भी सहमत नहीं हूं। इस पर गांधीजी ने फिर नेहरूजी को लिखा था कि ठीक है। तथापि इस विषय पर लोगोंं को तय करने दो कि स्वाधीन भारत किस पथ पर चलेगा। नेहरूजी ने गांधीजी को फिर पत्र लिख कर कहा की स्वाधीन भारत किस पथ पर चलेगा यह स्वाधीन भारत के निर्वाचित लोग तय करेंगे। आप कृपया यह बहस अभी नहीं छेडें। गांधीजी ने बहस बंद कर दी। जवाहरलाल नेहरुजी के विचारों से सहमति नहीं होने के उपरांत भी गांधीजी की दृष्टि से जो देशहित था, उस को भी गांधीजी ने दाँव पर क्यों लगाया यह एक खोज का विषय ही है।

नेहरूजी शिक्षा और संस्कारों से अंग्रेजीयत में रंगे हुए थे। तथापि अनाकलनीय कारणों से उन्हें गांधीजी का समर्थन प्राप्त था। इस लिये अंग्रेज जाने के बाद भी स्वाधीन भारत में अंग्रेजी शिक्षा की लीक पर ही भारत की शिक्षा चलती रही। महर्षि दयानंद सरस्वती द्वारा चलाए गये गुरूकुल, रवींद्रनाथ ठाकूर द्वारा चलाए जा रहे शांति निकेतन आदि और गांधीजी द्वारा चलाए जा रहे बुनियादी शिक्षा के विद्यालय, यहाँ तक की स्वायत्त गुजरात विद्यापीठ जैसे राष्ट्रीय शिक्षा के प्रयोग भी धीरे धीरे इसी पश्चिमी ज्ञानधारा में विसर्जित हो गये।

गांधीजी के अनुयायी धर्मपालजी लिखते है[1]:

यूरोपीय शिक्षा प्राप्त लोगोंं के विचार, मानस, व्यवहार, दृष्टिकोण सभी कुछ बदलने लगा। हमें गुलामी रास आने लग गई। दैन्य अखरना बंद हो गया। अंग्रेजों के दास बनने में ही हमें गौरव अनुभव होने लगा। जो भी यूरोपीय है वह विकसित है, श्रेष्ठ है और जो भी अपना है वह निकृष्ट है, हीन है, लज्जास्पद है, गया बीता है ऐसा हमें लगने लगा। यूरोपीय या यूरोप जैसा बनना ही हमारी आकांक्षा बन गई। भौतिक प्रगति की पश्चिमी चकाचौंध ने हमें भ्रम में डाल दिया है। हम पश्चिम की तन्त्रज्ञान में श्रेष्ठता को ही सबकुछ समझ बैठे हैं। इस लिये पश्चिमी तन्त्रज्ञान के साथ उन की जीवनदृष्टि को भी आत्मसात करते जा रहे हैं।

कुछ लोग दोनों में अन्तर है यह समझते हैं। ऐसे लोग पश्चिमी जीवनदृष्टि पर आधारित ज्ञानधारा को मुख्य धारा बनाकर भारतीय जीवनदृष्टि का उस के साथ समायोजन करने के प्रयास कर रहे हैं। किंतु पश्चिमी और भारतीय जीवनदृष्टि में जमीन आसमान का अन्तर है, इन का समायोजन नहीं हो सकता। इस कारण पश्चिमी जीवनदृष्टि हमारे विचार, व्यवहार और व्यवस्थाओं में सर्वव्याप्त हो गई है, हो रही है।

हमें सर्वप्रथम पाश्चात्य जीवनदृष्टि को समझना होगा। यह हम इसी अध्याय में आगे करेंगे। इस जीवनदृष्टि के आधार के कारण हमारे विचार, व्यवहार और व्यवस्थाएं, सब कैसे विकृत बन गये हैं यह जानना होगा। इस जीवनदृष्टि के कारण केवल हमारा ही नहीं तो चराचर का अहित कैसे हो रहा है यह समझना होगा। भारतीय जीवनदृष्टि को और इस जीवनदृष्टि पर आधारित वर्तनसूत्रों को समझना होगा। इन की सर्वहितकारिता का विश्लेषण करना होगा। इन सूत्रों पर आधारित व्यवहार और व्यवस्थाओं को शिक्षा के माध्यम से हमें प्रतिष्ठित करना होगा। इस जीवनदृष्टि की जानकारी हमने इस लेख में प्राप्त की है। उसे हमें शिक्षा के हर विषय में अनुस्यूत करना होगा। जिस प्रकार दूध में शक्कर घुल जाने के बाद दूध के हर कण में शक्कर होती ही है, उसी प्रकार हमें शिक्षा क्षेत्र के हर विषय के पाठयक्रम की विषयवस्तु को भारतीय जीवनदृष्टि से ओतप्रोत करना होगा। वर्तमान पाश्चात्य शिक्षा में टुकडों में भारतीय जीवनदृष्टि का समावेश करने से केवल आत्मवंचना ही हो रही है। इस दृष्टि से हमें विभिन्न विषयों की विषयवस्तु का विचार करना होगा।

वर्तमान में शिक्षा क्षेत्र में जो पाठयक्रम चल रहे है उन का भी हमें अध्ययन करना होगा। उन पाठयक्रमों के निर्माण के पीछे जो जीवनदृष्टि संभ्रम या जो सांस्कृतिक संभ्रम है उसे भी समझना होगा।[2]

स्वाधीन भारत में शिक्षा के लक्ष्य निर्धारण में संभ्रम

स्वाधीनता के बाद शिक्षा के लक्ष्य निर्धारण में जो लोग थे उन्हें संभवतः ऐसा लगता था की प्राचीन भारत के पास भी कुछ श्रेष्ठ बातें थीं किंतु युरोप के वर्तमान से श्रेष्ठ नहीं। इस लिये हमारे प्राचीन भारतीय जो था उसे जब तक वर्तमान पश्चिमी ज्ञानधारा के साथ समायोजित नहीं किया जाता हम शिक्षा के माध्यम से श्रेष्ठ मानव का निर्माण नहीं कर सकेंगे। ऐसा मान कर उन्होंने पश्चिमी ज्ञानधारा के साथ भारतीय ज्ञानधारा को समायोजित करने के प्रयास किये। जो गलती स्वाधीनता से पहले किये गये शिक्षा को भारतीय बनाने के प्रयासों में हुई थी वही गलती स्वाधीनता के बाद सरकारने और नए प्रयासों ने भी दोहराई दिखाई देती है। इस के फलस्वरूप सभी पाठयक्रमों का मूल और सार तो पश्चिमी विचार ही रहे। खाना तो पश्चिमी जंक फूड ही रहा। बस साथ में कुछ भारतीय चटनी आचार परोसने का प्रयास हुआ।

इसी प्रकार विविधता या अनेकता में एकता के भारतीय तत्व को समझने में भी भूल हुई समझ में आती है। विविधता ढूँढते ढूँढते बात सांस्कृतिक विविधता तक खींची गई। फिर एकता किस बात में रही यह कहीं भी स्पष्ट नहीं किया गया। वास्तव में वेष, भोजन, भाषा, भूषणों जैसे अन्य सभी प्रकार की विविधता तो समझी जा सकती है, किंतु संस्कृति की विविधता होगी तो साथ में कैसे रह सकेंगे। इस बिंदू को ठीक से समझना होगा। स्वामी विवेकानंदजी ने पश्चिमी देशों में किये कई भाषणों में कहा है कि 'आप के समाज में अपनी माँ को छोडकर आप अन्य सभी स्त्रियों को संभाव्य पत्नी (प्रॉस्पेक्टिव्ह वाईफ) के रूप में देखते है। भारत में हम अपनी पत्नी को छोडकर अन्य सभी स्त्रियों को माता के रूप में देखते है (मातृवत् परदारेषू)। ऐसी विपरीत मान्यता रखनेवाले दो कुटुम्ब इकठ्ठे नहीं रह सकते। इसी प्रकार समाज के एक गुट की मान्यता है कि मूर्ति में भी परमात्मा को देखा जा सकता है। और दूसरे वर्ग की मान्यता है ऐसी मूर्तियों को नष्ट करना (बुतशिकन अर्थात् मूर्तिभंजक) पुण्य की बात है, मूर्ति की पूजा करने वाले लोगोंं को कत्ल करने की। ऐसी विपरीत सांस्कृतिक मान्यता वाले दो समाज गुट इकठ्ठे नहीं रह सकते। इकठ्ठे रहे तो शांति नहीं रहेगी। इसलिये मिली-जुली संस्कृति या साझी संस्कृति की भाषा तो तब ही बोली जा सकती है जब माता छोडकर हर स्त्री में संभाव्य पत्नी को देखनेवाले और मूर्तिपूजकों को जीने का अधिकार नहीं है ऐसा कहने वाले मजहबी लोग अपने विचारों का त्याग करेंगे। किंतु इस प्रकार का कोई भी प्रयास शिक्षा के माध्यम से (कोअर एलिमेंण्ट्स् की पुस्तिका में भी) किया नहीं जा रहा है। यह जब तक नहीं होता तब तक साझी संस्कृति की बात करना बेमानी होगी।

मिली-जुली संस्कृति के प्रयोग में जो सहिष्णु और श्रेष्ठ संस्कृति के अनुयायी है, उस समाज गुट को हानि होती रहेगी। या तो ऐसा समाज नष्ट हो जाएगा या फिर एक सीमा से आगे वह भी अपने अस्तित्व को बचाने के लिए असहिष्णु गटों के विरोध में खडा हो जाएगा। जैसा आज हिंदू समाज में होता दिखाई दे रहा है।

अधार्मिक जीवनदृष्टि के आधारभूत तत्व

वैसे तो इन तत्वों के विषय में हमने जीवन के प्रतिमान के अध्याय में जाना है। यहाँ हम केवल एक सरसरी निगाह से उसका स्मरण करेंगे।

दुनिया में परस्पर सामाजिक संबंधों के पीछे केवल दो ही कारण है। इन में एक है ' स्वार्थ '। और दूसरा है ' आत्मीयता '। यह दो कारण त्रिकालाबाधित है। इन्ही के आधार पर व्यक्ति की और समज की पहचान बनती है। प्राचीन काल से यह विभाजन चलता आया है। 'आत्मीयता' पर आधारित परस्पर संबंधों से जो समाज चलता है उसे 'दैवी' समाज कहा जाता है। और 'स्वार्थ' पर आधारित परस्पर संबंधों से जो समाज चलता है उसे 'आसुरी' समाज कहा जाता है। पाश्चात्य समाज इस आसुरी परस्पर संबंधों के आधार पर खडा है। पाश्चात्य समाजशास्त्र में समाज निर्माण का कारण बताया गया है ‘सामाजिक समझौता कल्पना ( सोशल काँट्रॅक्ट थियरी )’। इस के अनुसार लोग अपने अपने 'स्वार्थ' के लिये इकठ्ठे आकर समझौता करते हैं। एक दूसरे से लाभान्वित होते हैं। ऐसे लोगोंं के समूह को जो परस्पर स्वार्थ की पूर्ति के लिये समझौते से बाँधा गया है उसे समाज कहते है। इसलिये अधार्मिक (अधार्मिक) विवाह भी करार होता है। समझौता होता है। शासनकर्ता भी समझौते (किग्ज् चार्टर) के आधार पर ही शासन करता है। और सभी समझौतों का आधार स्वार्थ ही होता है।

पाश्चात्य जीवनदृष्टि का दूसरा महत्वपूर्ण तत्व है 'इहवादिता'। इहवादिता का अर्थ है जो कुछ है वह यही जीवन है। मेरे इस जन्म से पहले मेरा कुछ नहीं था। और मेरे इस जन्म के बाद में भी मेरा कुछ नहीं रहेगा।

पाश्चात्य जीवनदृष्टि का तीसरा आधारभूत तत्व है 'जड़वादिता'- मटेरियलिस्टिक। जड़ के ही विकास के एक मोड पर जीव का जन्म हुआ है। अतएव इस विश्व में चेतन कुछ भी नहीं है। इसी कारण से 'यांत्रिकता' (मेकॅनिस्टिक एप्रोच) भी पाश्चात्य जीवनदृष्टि का एक तत्व बन जाता है।

इन तत्वों के आधार पर पश्चिमी जीवनदृष्टि के निम्न वर्तनसूत्र तैयार हुए है।

अधार्मिक जीवनदृष्टि के वर्तनसूत्र

  1. बलवान को ही जीने का अधिकार है। ( सर्व्हायव्हल ऑफ द फिटेस्ट )। दुर्बल बलवान जैसा और जितना चाहेगा, वैसा और उतना ही जियेगा। 'स्वार्थ' भावना से ही इस वर्तनसूत्र का जन्म हुआ है। दुर्बल किसी को तकलीफ नहीं दे सकता। इस लिये स्वार्थ की होड में दुर्बल को कोई स्थान नहीं है। बलवान को जितना चाहिये और जैसा चाहिए उतना ही दुर्बल जिएगा। इस सूत्र से और दो सूत्र तैयार होते है
    1. दुर्बल का शोषण (एक्स्प्लॉयटेशन ऑफ द वीक)। स्त्री, प्रकृति या पर्यावरण, अन्य पुरूष, अन्य समाज, अन्य देश, सारी दुनिया इन से मैं यदि बलवान हूं तो इन का शोषण करना मेरा अधिकार है।
    2. अमर्याद व्यक्तिगत स्वतंत्रता (अनलिमिटेड इंडिविज्युअल लिबर्टि)। बलवान अपना स्वार्थ साध सके इस लिये अमर्याद व्यक्तिगत स्वतन्त्रता आवश्यक है।
  2. जीवन एक लडाई है (फाईट फॉर सर्व्हायव्हल)। अन्य लोगोंं से लडे बिना मैं जी नहीं सकता। मुझे यदि जीना है तो मुझे बलवान बनना पड़ेगा। बलवान लोगोंं से लडने के लिये मुझे और बलवान बनना पड़ेगा। बलवान बनने के लिए गलाकाट स्पर्धा आवश्यक है।
  3. अधिकारों के लिये संघर्ष (फाईट फॉर राईट्स्)। मैं जब तक लडूंगा नहीं मेरे अधिकारों की रक्षा नहीं होगी। मेरे अधिकारों की रक्षा मैंने ही करनी होगी। अन्य कोई नहीं करेगा।
  4. भौतिकवादी विचार (मटेरियलिस्टिक थिंकिंग) सृष्टि अचेतन पदार्थ से बनीं है। मनुष्य भी अन्य प्राकृतिक संसाधनों की ही तरह से एक संसाधन है। इसी लिये ' मानव संसाधन मंत्रालय ' की प्रथा आरम्भ हुई है। मनुष्य केवल मात्र रासायनिक प्रक्रियाओं का पुलिंदा है, यह इसका तात्त्विक आधार है। सारी सृष्टि जड़ से बनीं है। चेतना तो उस जड़ का ही एक रूप है। इस लिये मानव व्यवहार में भी अचेतन पदार्थों के मापदंड लगाना। भौतिकवादिता का और एक पहलू टुकडों में विचार (पीसमील एप्रोच) करना भी है। पाश्चात्य देशों ने जब से विज्ञान को टुकडों में बाँटा है विश्व में विज्ञान विश्व नाशक बन गया है। शुध्द विज्ञान (प्युअर सायन्सेस्) और उपयोजित विज्ञान (अप्लाईड साईंसेस्) इस प्रकार दो भिन्न टुकडों का एक दूसरे से कोई संबंध नहीं है। मैं जिस शुध्द विज्ञान के ज्ञान का विकास कर रहा हूं, उस का कोई विनाश के लिये उपयोग करता है तो भले करे। मेरा नाम होगा, प्रतिष्ठा होगी, पैसा मिलेगा तो मैं यह शुध्द विज्ञान किसी को भी बेच दूंगा। कोई इस का उपयोग विनाश के लिये करता है तो मैं उस के लिये जिम्मेदार नहीं हूं। संभवतः वैज्ञानिकों की इस गैरजिम्मेदार मानसिकता को लेकर ही आईन्स्टाईन ने कहा था 'यदि कोई पूरी मानव जाति को नष्ट करने का लक्ष्य रखता है तो भी बौद्धिक आधारों पर उस की इस दृष्टि का खण्डन नहीं किया जा सकता'।
  5. यांत्रिकतावादी विचार। (मेकॅनिस्टिक थिंकिंग)। यांत्रिक (मेकेनिस्टिक) दृष्टि भी इसी का हिस्सा है। जिस प्रकार पुर्जों का काम और गुण लक्षण समझने से एक यंत्र का काम समझा जा सकता है, उसी प्रकार से छोटे छोटे टुकडों में विषय को बाँटकर अध्ययन करने से उस विषय को समझा जा सकता है। इस पर व्यंग्य से ऐसा भी कहा जा सकता है कि ' टु नो मोर एँड मोर अबाऊट स्मॉलर एँड स्मॉलर थिंग्ज् टिल यू नो एव्हरीथिंग अबाऊट नथिंग’ (To know more and more about smaller and smaller things till you know everything about nothing. )।
  6. इहवादिता। (धिस इज द ओन्ली लाईफ)। मानव जन्म एक बार ही मिलता है। इस के न आगे कोई जन्म है न पीछे कोई था, ऐसी मानसिकता। इस लिये उपभोगवाद का समर्थन।

पूरे यूरोप के सभी देशों का इतिहास साक्षी है की उनका व्यवहार इन्हीं वर्तनसूत्रों के अनुरूप होता रह है। १८ वीं और १९ वीं सदी में दुनिया के लगभग सभी देशों पर यूरोप के किसी देश का आधिपत्य था। इन में इंग्लैण्ड, फ्रांस, पुर्तगाल, इटली आदि जो भी विभिन्न देश शासक थे उन में अपवाद के लिये भी एक भी समाज ऐसा नहीं है जिसने अपने औपनिवेशिक देशों की जनता पर अनन्वित अत्याचार नहीं किये, जनता के कत्ले आम नहीं किये, अपने उपनिवेशों को लूटकर नंगा नहीं कर दिया। अमरिका में 'रेड इंडियन' आज केवल प्रदर्शनी की वस्तु बन गये है। ऑस्ट्रेलिया की तो मूल जनता का १०० प्रतिशत कत्ले आम किया गया। भारत में अंग्रेजों ने किये अत्याचार हम जानते है। भारत की सन १७५७ से १९४७ तक अंग्रेजों ने की हुई लूट को हम जानते है। भारत की जनसंख्या बहुत अधिक और भारत का प्रतिकार अन्य देशों की तुलना में बहुत अधिक होने से अंग्रेज भारत में कत्ले आम कम ही कर सके।

इन वर्तनसूत्रों के अनुसार पश्चिमी व्यवहार अब नहीं होता ऐसा भी नहीं है। केवल तरीके बदल गये है। जो वर्तन पाश्चात्य देश दूसरे महायुध्द से पहले कर रहे थे वही काम वे अब भी कर रहे है। विश्व कोष, आंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व व्यापार संगठन आदि के माध्यम से दुर्बल देशों की लूट का ही प्रयास यह देश करते दिखाई दे रहे है।

इसलिये पश्चिमी जीवनदृष्टि से पिण्ड छुडा कर अन्य किसी श्रेष्ठ जीवनदृष्टि का स्वीकार करना यह वैश्विक आवश्यकता है। यह जीवनदृष्टि भारतीय ही होगी। इसे व्यवहार में लाने का माध्यम/साधन शिक्षा है।

पाठयक्रम निर्माण प्रक्रिया

पाठयक्रम का निर्माण और विविध विषयों की विषयवस्तु का निर्माण करने का आधार जिस समाज के लिये इन का निर्माण किया जा रहा है, उस की जीवनदृष्टि, उस की मान्यताएं आदि होते है। यह जीवन दृष्टि और मान्यताएं उस समाज के सामूहिक और समाज घटकों के व्यक्तिगत लक्ष्य के अनुसार उस समाज की जीवनदृष्टि और मान्यताएं विकसित होतीं है। इस प्रकार से सर्वप्रथम समाज के सामूहिक और समाज घटकों के व्यक्तिगत लक्ष्य को सर्वप्रथम समझना, इस लक्ष्य के कारण विकसित हुई जीवनदृष्टि को समझना, जीवनदृष्टि के आधार पर पाठयक्रम निर्माण का उद्देश्य तय करना, इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये आयु की अवस्था के अनुसार पाठयक्रम निर्माण के मार्गदर्शक सूत्र, इन सूत्रों के आधार पर समाज जीवन से जुड़े विभिन्न आवश्यक विषयों का निर्धारण और फिर जीवनदृष्टि के अनुरूप उन विषयों की विषयवस्तुओं का निर्माण, ऐसी यह प्रक्रिया चलती है।

पाठयक्रमों में भिन्नता

हर मानव समाज की जीने की कुछ आधारभूत मान्यताएं होतीं है। इन मान्यताओं के अनुसार ही उस समाज का जीने का तरीका निर्धारित होता है। इन मान्यताओं को 'जीवनदृष्टि' और जीने के तरीके को 'जीवनशैली' कहा जाता है। एक समाज की जीवनदृष्टि में और दूसरे समाज की जीवनदृष्टि में कुछ मूलगत भिन्नता होती है। इसी प्रकार से एक समाज की जीवनशैली दूसरे समाज की जीवनशैली से भिन्न होती है। इन भिन्नताओं के कारण ही उस समाज की 'पहचान’ बनती है। जैसे युरोप के दो देश लें। एक देश में, इंग्लैंड में भोजन के उपरांत थाली में अन्न छूट गया हो तो यह माना जाता है की भोजन करने वाले को भोजन पसंद नहीं आया। और दूसरे देश में, फ्रांस में भोजन के उपरांत थाली में अन्न नहीं छोडने पर यह समझा जाता है कि खाने वाले को भोजन पसंद नहीं आया।

तात्पर्य यह है कि हर समाज की मान्यताओं में भिन्नता होती है । इन मान्यताओं के आधार पर वह समाज व्यवहार करे ऐसी अपेक्षा की जाती है। ऐसा व्यवहार व्यक्ति कर सके इस के लिये अनुकूल और अनुरूप व्यवस्थाएं निर्माण की जातीं है। ऐसा करने से समाज का जीवन सुचारू रूप से चलता है।

यह प्रक्रिया दुनिया भर के सभी देशों को लागू है। आजकल व्हॅल्यू एज्युकेशन का बोलबाला है। दुनियाभर के लोग आज अनेकों भीषण समस्याओं से जूझ रहे है। महिलाओं पर अत्याचार बढ रहे है। बेरोजगारी के कारण युवक वर्ग गुनहगारी की दिशा में खींचा जा रहा है। पर्यावरण के संरक्षण की बातें तो हो रही है तथापि हवा, पानी और जमीन का प्रदूषण बढता ही जा रहा है। प्लॅस्टिक के कचरे के अंबार लग रहे है। आण्विक कचरे और आण्विक विकीरणों के कारण नयी पीढी में जन्मगत विकृतियाँ आ रही है। कार्य के घण्टे बढ रहे है और जीना कम हो रहा है। युवकों को आयु से पूर्व ही बुढापा घेर रहा है। निराधार महिलाओं के लिये महिलाश्रम, वृध्दाश्रम, अनाथाश्रम बढ रहे है। उच्च शिक्षा विभूषित युवक अपने माता पिताओं को वृध्दाश्रमों मे धकेल रहे है। इसीलिये युनेस्को की पहल से सभी देशों में व्हॅल्यू एज्युकेशन (मूल्यशिक्षा) का विचार किया जा रहा है। भारत में भी हो रहा है। अंग्रेज भारत में आए तब भारत अपने पतन के निम्नतम स्तरपर था। तथापि सामान्य भारतीय मनुष्य की नीतिमत्ता ब्रिटिश पादरी से श्रेष्ठ पाई गई थी, इसीलिये १७९२ की चार्टर डिबेट में चर्चा के बाद, भारत के ईसाईकरण के लिये भारत में पादरी भेजने की योजना को रोक दिया गया था। जीवनमूल्यों की शिक्षा का विचार भारत में प्राचीन काल से अंग्रेज पूर्व काल तक की शिक्षा के इतिहास में कभी भी ऐसा अलग से किया नहीं किया गया था। किंतु अब विदेशी विशेषज्ञों के मार्गदर्शन में यह हो रहा है।

वर्तमान में जीवनमूल्य शब्द का जिस अर्थ से प्रयोग किया जाता है वह भारतीय सोच के अनुसार ठीक नहीं है। यह अंग्रेजी ‘व्हैल्यू’ शब्द का सीधा अनुवाद है। अंग्रेजों का अन्धानुकरण है। भारतीय शिक्षा के इतिहास में जीवनमूल्य शब्द का कभी प्रयोग नहीं किया गया था। जो मूल में होता है उसे मूल्य कहते हैं। जो मूल में होता है उसे प्रकृति कहते हैं। शिक्षा की आवश्यकता ही, जो प्राकृतिक है उसे अन्नत कर सांस्कृतिक बनाने के लिए होती है। इसे जीवनदृष्टि की, जीवनशैली की शिक्षा कहा जाना चाहिए।

एक अखिल भारतीय शैक्षिक संगठन ने जीवनमूल्यों की शिक्षा की दृष्टि से तथाकथित सैंकड़ों जीवनमूल्यों की सूचि बनाई। उन के ध्यान में आया कि इन सैंकड़ों जीवनमूल्यों को शिक्षा में ढालना अत्यंत अव्यावहारिक है। उन का सारा परिश्रम व्यर्थ गया। महाराष्ट्र की युती सरकार का भी अनुभव कुछ ऐसा ही था। व्यावहारि दृष्टि से प्राथमिकता के क्रम से केवल दस जीवनमूल्यों का चयन हो पाया। इन मूल्यों के महत्वक्रम के अनुसार चयनित दस जीवनमूल्यों में ‘सत्यनिष्ठा’ इस मूल्य का समावेश नहीं हो पाया।

मूल्य और जीवनदृष्टि में अन्तर होता है। मूल्य शब्द जीवन की किसी भौतिक वस्तु के लिए लागू होता है। जीवनदृष्टि शब्द भौतिक, आध्यात्मिक, सांस्कृतिक, सामाजिक, साम्पत्तिक, राजकीय ऐसे जीवन के सभी पहलुओं को लागू होता है। जीवन में सामने आई एक ही वस्तु का मूल्य हर मनुष्य अपनी जीवनदृष्टि के अनुसार तय करता है। सोने के सिक्के का मूल्य गृहस्थ की दृष्टि में अनमोल है। उसी सोने के सिक्के का मूल्य बैरागी के लिये संन्यासी के लिये मिटटी से बढकर नहीं है। दोनों में अन्तर दृष्टि का ही होता है। भारत शांति से जीना चाहता है। पाकिस्तान भी शांति से जीना चाहता है। किंतु पाकिस्तान के शांति के अर्थ और भारत के शांति के अर्थ भिन्न भिन्न हैं। यह इन दोनों देशों के समाजों की जीवनदृष्टि के अनुसार है। इस जीवनदृष्टि के अन्तर के कारण पाठयक्रमों में और उन की विषय वस्तुओं में भिन्नता होना अपरिहार्य होता है।

विषयों की नहीं जीवन की शिक्षा

१५ वर्ष तक की आयु के बच्चोंं के लिए शिक्षा विषयों की नहीं होती। जीवन की होती है। समग्रता की होती है। एकात्मता की होती है। विषयों को टुकड़ों में बांटकर शिक्षा नहीं होती थी। जीवन जीने के लिए और बालक के ज्ञानार्जन के करणों के विकास के लिए, आयु की अवस्था के अनुसार शिक्षा में जितने गणित की आवश्यकता है उतना गणित आएगा, जितना इतिहास आना चाहिये इतिहास आएगा, जितना विज्ञान आना चाहिये विज्ञान आएगा, जितना भाषाज्ञान आना चाहिये भाषाज्ञान आएगा। याने जिस जिस विषय का जितना जितना ज्ञान आवश्यक है उतना आएगा। वर्तमान शिक्षा प्रणाली में यांत्रिकता है। शिक्षा को विषयों के अनुसार समय खण्डों में बांटा जाता है। बालक का मन को कोई बिजली के खटके जैसी कल लगी नहीं होती की एक विषय की कल को बंद किया और दूसरे विषय की कल दबा दी। शिक्षा की कहीं से भी किसी भी वस्तु या विचार को लेकर शुरुआत होगी। परस्पर सम्बद्ध विचारों के माध्यम से शिक्षा की यात्रा अन्यान्य विषयों का ज्ञान प्रकट करती हुई आगे बढ़ेगी। ऐसा कौशल्य रखने के लिए शिक्षक का प्रतिभाशाली होना आवश्यक होगा। तब ही तो समाज में वह सर्वोच्च सम्मान का पात्र होगा।

१६ वर्ष से आगे की आयु में जब जीवन का समग्रता से विचार करने की नींव डल गयी है, किसी विशेष विषय के अध्ययन की शिक्षा चलेगी।

भारतीय दृष्टि में समाज का और व्यक्ति जीवन का लक्ष्य

किसी भी समाज का अर्थात् समाज के सभी घटकों का व्यक्तिगत और सामूहिक लक्ष्य तो सुख ही होता है। समाज में सुख तब ही सर्वव्याप्त होता है जब समाज के सभी घटक पुरूषार्थ चतुष्ट्य का पालन करते है। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष यह वे चार पुरूषार्थ हैं। इन में पहले तीन को त्रिवर्ग भी कहा जाता है। सामाजिक सुख, सौहार्द, समृद्धि आदि के लिये इस त्रिवर्ग का पालन महत्वपूर्ण होता है। चौथा पुरूषार्थ है मोक्ष। समाज के सामान्य घटक को इस की इच्छा तो होती है। किंतु इसे वह समझता नहीं है। अतः उस की शक्ति तो सुख की प्राप्ति के लिये ही खर्च होती है। पुरुषार्थ चतुष्ट्य या त्रिवर्ग की शिक्षा ही वास्तव में शिक्षा होती है।

भारतीय शास्त्रों में धर्म की व्याख्या ' यतो अभ्युदय नि:श्रेयस सिद्धि स: धर्म:[3] - यह भी की गई है। इस का अर्थ है जिन नियमों का पालन करने से अभ्युदय की अर्थात् सुख और समृद्धि की प्राप्ति होती है वह और नि:श्रेयस अर्थात् मोक्ष की दिशा में प्रगति हो, उसे धर्म कहते है।

व्यक्ति के स्तर पर इस लक्ष्य को ‘मोक्ष’ कहते हैं। सामाजिक स्तर पर यह लक्ष्य ‘स्वतंत्रता” होता है। और सृष्टि के स्तर पर यह लक्ष्य ‘धर्माचरण’ का होता है।

भारतीय दृष्टि से शिक्षा के लक्ष्य की विशेषताएं

भारतीय मनीषियों ने इस विषय पर गहराई से चिंतन किया है। उन्होंने यह भी जाना था की मानव जीवन का लक्ष्य और शिक्षा का लक्ष्य भिन्न नहीं हो सकता। मानव जीवन के लक्ष्य की प्राप्ति के लिये ही शिक्षा व्यवस्था का निर्माण मानव ने किया है।

मानव जीवन का लक्ष्य भी हमारे पूर्वजों ने सोच समझ कर निर्धारित किया है। ऐसे लक्ष्य को निर्धारित करने के निकष निम्न हो सकते है। वह लक्ष्य:

  1. सामान्य मानव समझ सके ऐसा है।
  2. सामान्य मानव चाहता है, ऐसा हो।
  3. सामान्य मानव भी उसे ( शिक्षा के द्वारा ) प्राप्त कर सकता हो, ऐसा हो।
  4. अपने जन्मजात गुण स्वभाव के आधार पर भी प्राप्त करना संभव हो, ऐसा हो।
  5. जिसे प्राप्त करने के बाद अन्य कुछ प्राप्त करनेयोग्य नहीं रहे, ऐसा हो।

इन निकषों के आधार पर सर्वप्रथम हम प्राचीन काल से चले आ रहे भारतीय लक्ष्य और वर्तमान में शासन द्वारा निर्धारित लक्ष्य का मूल्यांकन करेंगे। विश्वभर का हर मानव पाँच बातें चाहता है:

  • मैं सदासुखी रहूं
  • मैं अमर हो जाऊं
  • मैं सर्वज्ञानी बन जाऊं
  • मुझ पर किसी का नियंत्रण नहीं हो
  • मेरा नियंत्रण सभी पर चले

यह पाँच बातें केवल परमात्मा के पास ही होतीं है इन की चाहत रखने का अर्थ है परमात्मपद की प्राप्ति की चाहत रखना। अर्थात् 'मोक्ष' की प्राप्ति की चाहत रखना। इसी को अलग अलग शब्दों में व्य्क्त किया जाता है। जैसे जन्म मृत्यू के बंधन से मुक्ति पाना, चराचर के साथ आत्मीयता की भावना का विकास (व्यक्तिगत, समष्टिगत और सृष्टिगत विकास करना (पं. दीनदयालजी द्वारा प्रस्तुत एकात्म मानव की कल्पना), परमात्मा के साथ एकरूप हो जाना (सात्म्य प्राप्त करना), अपने में अंतर्निहित पूर्णता का प्रकटीकरण (स्वामी विवेकानंदजी द्वारा प्रस्तुत शिक्षा की व्याख्या) करना आदि।

जीवन के इस लक्ष्य को भारत का अनपढ से अनपढ ग्रामीण आदमी भी जानता था। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये ही जीता था। अपनी इच्छाओं (काम पुरुषार्थ) को और उन इच्छाओं को पूर्ण करने हेतु किये गये प्रयासों और साधनों को (अर्थ पुरूषार्थ) धर्म के अनुकूल रखते हुए त्रिवर्ग का पालन करते हुए, आप भी सुखी और समृध्द बनते हुए समाज को भी सुखी और समृध्द बनाते हुए मोक्ष की दिशा में बढता था।

इस लक्ष्य को प्राप्त करने वाले जैसे ॠषि-मुनि हुए, राजा-महाराजा हुए उसी प्रकार सामान्य मोची भी हुए, दर्जी भी हुए, वैष्य वाणी भी हुए, चोखा मेळा जैसे महार भी हुए। यह सब अपने जन्मजात गुणों के अनुसार अपने विहित स्वकर्म करते हुए, समाज के हित में योगदान देते हुए ही परमात्मपद को प्राप्त हुए थे।

यह ऐसा लक्ष्य है कि जिसे प्राप्त करने के बाद प्राप्त करने के लिये कुछ भी शेष नहीं रह जाता।

इसी लिये शिक्षा की व्याख्या की गई थी - सा विद्या या विमुक्तये। मुक्ति दिलाने के लिये शिक्षा होती है। अर्थात् शिक्षा का लक्ष्य भी चराचर से एकात्मता की भावना का विकास ही है। चराचर के साथ एकात्मता की भावना के कारण 'सर्वे भवन्तु सुखिन:' के अनुरूप और अनुकूल व्यवहार होता है। और समाज के सभी लोग जब ऐसा व्यवहार करते है तब सभी के सुखी बनने की स्थिति निर्माण होती है। इस से श्रेष्ठ लक्ष्य और क्या हो सकता है ?

वर्तमान शैक्षिक लक्ष्य

सर्वप्रथम तो भारतीय समाज का लक्ष्य क्या है? यह निश्चित करना चाहिये था। अनिवार्य रूप से मानव जीवन के लक्ष्य के आधार पर ही शिक्षा का लक्ष्य निर्धारित किया जाता है। प्राचीन काल से मानव जीवन का लक्ष्य 'मोक्ष' ही रहा है। इसीलिये शिक्षा के लक्ष्य का वर्णन किया गया था 'सा विद्या या विमुक्तये'। किंतु वर्तमान में इस लक्ष्य का निर्धारण, जैसी हमारी परंपरा रही है वैसा समाज के विद्वानों ने नहीं किया है, अपितु शासनमान्य विद्वानों ने किया है। शासन मान्य विद्वान का अर्थ है शासन की नीतियों के लिये अपने ज्ञान का उपयोग करने वाला विद्वान। सामान्य तौर पर समूचे शिक्षा क्षेत्र ने शासन द्वारा निर्धारित इस लक्ष्य को मान्य किया है। इस की प्रस्तुति शासन ने 'कोअर एलिमेंटस्' (केंद्रीय घटक) के अंतर्गत की है।

१९८६ की शिक्षा नीति के अनुसार यह कोअर एलिमेंटस् १० थे। २००६ में इन में तीन और जोडे गये। इस लिये इन कोअर एलिमेंटस् की संख्या अब १३ हो गई है। यह कोअर एलिमेंटस् निम्न हैं:

  1. स्वाधीनता के आंदोलन का इतिहास ( हिस्टरी ऑफ इंडियाज फ्रीड़म मुव्हमेंट )
  2. भारतीय संवैधानिक जिम्मेदारियाँ ( कॉन्स्टिटयूशनल ऑब्लिगेशनस् )
  3. राष्ट्रीय पहचान के लिये आवश्यक बातें (कंटेंट इसेंशियल टु नर्चर नॅशनल आयडेंटिटी)
  4. भारतीय संस्कृति की साझी विरासत ( इंडियाज कॉमन कल्चरल हेरिटेज)
  5. समानतावाद, लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता (इक्वॅलिटेरियनिझम्, डेमॉक्रेसी ऍंड सेक्युलॅरिझम्)
  6. स्त्री-पुरूष समानता (इक्वॅलिटि ऑफ सेक्सेस् )
  7. पर्यावरण सुरक्षा ( प्रोटेक्शन ऑफ एन्व्हिरॉनमेंट/एन्व्हॉयरमेंट )
  8. सामाजिक अवरोधों का निर्मूलन (रिमूव्हल ऑफ सोशल बॅरियर्स्)
  9. छोटे कुटुम्ब का आदर्श ( ऑब्झर्व्हन्स् ऑफ स्मॉल फॅमिली नोर्म्स )
  10. वैज्ञानिक दृष्टि की स्थापना ( इनकल्केशन ऑफ साईंटिफिक टेंपर )
  11. महिला और अन्य दुर्बल घटकों का सबलीकरण (एम्पॉवरमेंट ऑफ विमेन ऍंड अदर सोशल एलिमेंट्स्)
  12. वैश्वीकरण और स्थानिकीकरण में मेल ( कोऑर्डिनेशन ऑफ ग्लोबलायझेशन ऍंड लोकलायझेशन)
  13. बुद्धि, मन और कृति का समन्वय ( कोऑर्डिनेशन ऑफ ईन्टेलिजन्स्, इमोशन्स् एंड ऍक्शन्स् )

वर्तमान शिक्षा के उद्देश्यों का मूल्यांकन

वर्तमान में माध्यमिक के स्तर तक की शिक्षा के उद्देश्यों की प्रस्तुति कोअर एलिमेंट्स् (केंद्रीय घटकों) के माध्यम से की गई है। माध्यमिक शिक्षा तक के स्तर के पाठयक्रम और पाठयक्रमों की विषयवस्तु कोअर एलिमेंटस् के प्रकाश में ही तैयार किये जाते है, इस लिये इन कोअर एलिमेंट्स् का थोडा विश्लेषण करना आवश्यक है। इन में से कई कोअर एलिमेंट्स् ऐसे है जो अधूरे हैं, कुछ अस्पष्ट है, कुछ अंग्रेजों की मानसिक दासता के फलस्वरूप है, कुछ नकारात्मक है, कुछ जिन का अर्थ इन के निर्माताओं को भी नहीं समझता है ऐसे हैं। सामान्य मानव इन्हें ठीक से कैसे समझ सकेगा?

स्वाधीनता के आंदोलन का इतिहास (हिस्टरी ऑफ इंडियाज फ्रीड़म मुव्हमेंट History of India's Freedom Movement) : इस केंद्रीय घटक के पीछे क्या कारण रहा होगा? कुछ प्रत्यक्ष पाठयक्रमों की विषयवस्तु का निरीक्षण और कुछ उस के होने वाले परिणामों से इस के चार उद्देश्य ध्यान में आते है:

  1. अत्यंत गौरवशाली भारतीय इतिहास को नकारना।
  2. केवल काँग्रेस के स्वाधीनता संग्राम में जुटे, 'वी आर ए नेशन इन द मेकिंग We are a nation in the making' ऐसा लगने वाले नेताओं का महिमा मंडन करना। लगभग १५ वर्ष पूर्व प्रस्तुत लेखक ने ७वीं में पढ रही एक लडकी से प्रश्न पूछा था 'स्वाधीनता किस के कारण प्राप्त हुई ?' तुरंत उत्तर आया 'गांधीजी और नेहरूजी'।
  3. वाह्य आक्रान्ताओं के हत्याकांडों, अत्याचारों, स्त्रियों पर बलात्कार, गुलाम बनाकर बेचना, तलवार के बल पर धर्मान्तरण, कत्ले आम आदि को नकारना।
  4. एक आभासी साझी संस्कृति को जन्म देना।

देश का जो भी संविधान है उसका उचित आदर तो सभी से अपेक्षित है। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि संविधान आलोचना से ऊपर माना जाने लगे। १०० से अधिक बार जिस संविधान में संशोधन करने की आवश्यकता निर्माण हुई उसे पवित्र नहीं माना जा सकता। यह संविधान मूलत: भारतीय जीवनदृष्टि पर आधारित नहीं है। संविधान में पूरा बल अधिकारों पर ही दिया गया है। अंग्रेजी शासन के गव्हर्नमेंट ऑफ़ इंडिया ऐक्ट आदि अंग्रेजों ने भारत पर शासन करने के लिए बनाए अन्यान्य कानूनों से बहुत बड़ा हिस्सा इस संविधान में लिया गया है। भारतीय दृष्टि से तो धर्म सर्वोपरि होता है। इस संविधान में धर्म को कोई स्थान नहीं है।

संविधान में कहीं भी राष्ट्र की व्याख्या नहीं दी गयी है। संविधान का प्रारम्भ ही ‘इंडिया दैट इज भारत’ की विकृति से आरम्भ होता है। इसकी अल्पसंख्य की संकल्पना और उनको दिए जानेवाले विशेषाधिकार तो राष्ट्रीय दिवालियेपन का ही लक्षण है। इसके कर्ता डॉ. बाबासाहेब अंबेडकर भी इस संविधान से समाधानी नहीं थे। किन्तु जवाहरलाल नेहरू की हठधर्मी के कारण वे अपनी पसंद का संविधान नहीं बना पाए।

राष्ट्रीय पहचान के लिये आवश्यक बातें (कंटेंट इसेंशियल टु नर्चर नॅशनल आयडेंटिटी Content essential to nurture national identity) : इसमें राष्ट्र की भ्रामक संकल्पना के कारण सभी बिन्दुओं में भारतीय दृष्टि से भिन्न विषयों का चयन हुआ दिखाई देता है। राष्ट्रध्वज, राष्ट्रीय भाषा, राष्ट्रगान, राष्ट्रीय त्यौहार, राष्ट्रीय फूल, राष्ट्रीय पक्षी, राष्ट्रीय पशु आदि विषय आते हैं। यहीं से ‘राष्ट्र संकल्पना का संभ्रम खडा हो जाता है।

राष्ट्रीय त्यौहारों का जो उल्लेख कोअर एलिमेंट्स् (core elements) में किया है, उस के आधार पर यह कहा जा सकता है कि वर्तमान शिक्षा की दृष्टि से राष्ट्र और राज्य एक ही है। स्वतन्त्रता (वास्तव में केवल स्वाधीनता) दिवस और प्रजासत्ताक दिवस यह दोनों राज्य के त्यौहार हैं, राष्ट्र के नहीं। जैसे भारत की सांस्कृतिक विचारों की अभिव्यक्ति करनेवाली तेलुगु, तमिळ, गुजराती, मराठी, बंगाली, पंजाबी, हिंदी सभी भाषाएं राष्ट्रभाषाएं ही हैं। उसी तरह से भारत में पैदा होनेवाले भारतीय आकाश की और जंगल की शोभा बढ़ाने वाले सभी फूल, पक्षी और प्राणी राष्ट्रीय ही है। छोटे देशों में इतनी विविधता नहीं होती। अतः उनके लिए राष्ट्रीय फूल, पक्षी, प्राणी आदि तय करना एक बार समझ सकते हैं। भारत जैसे विशाल देश के लिए राष्ट्रीय फूल, राष्ट्रीय पक्षी और राष्ट्रीय प्राणी तय करना यह विषय तो अपरिपक्वता का ही लक्षण है। भारत में फूल, प्राणी आदि की जातियों में बहुत विविधता है। ये सभी हमारे राष्ट्रीय फूल, राष्ट्रीय पक्षी और राष्ट्रीय प्राणी हैं।

सर्व प्रथम तो इन केंद्रीय घटकों के विवरण में कई स्थानों पर 'राष्ट्र, राष्ट्रीय, राष्ट्रीयता' इन शब्दों का उपयोग किया है। किंतु कहीं भी 'राष्ट्र' क्या होता है, इसे स्पष्ट नहीं किया गया है। वास्तव में तो इसे स्पष्ट किये बिना ही राष्ट्रीय शिक्षा का विचार करना सरासर बेमानी है।

भारत तो सहस्रकों से एक राष्ट्र था। किंतु इस इतिहास को नकारा गया। किंतु पश्चिमी नेशन स्टेट, जिस संकल्पना का जन्म यूरोप में मुश्किल से ३०० वर्ष पूर्व हुआ उसी तरह से हम भी 'राष्ट्र' निर्माण कर रहे है, ऐसी मिथ्या भावना हमारे शासकों के मन में निर्माण हो गई। इसी लिये भारत (राष्ट्र) माता के एक श्रेष्ठ सुपुत्र को राष्ट्रपिता बना दिया गया। यह सब बताने का तात्पर्य इतना ही है कि राष्ट्र की संकल्पना के विषय में स्पष्टता नहीं है।

भारतीय संस्कृति की साझी विरासत (इंडियाज कॉमन कल्चरल हेरिटेज) : साझी सांस्कृतिक विरासत का उद्देश्य तो बुद्धिहीनता का ही लक्षण है। स्वामी विवेकानंदजी ने विदेशों में किये अपने भाषणों में कहा था कि हम भारतीय अपनी पत्नी को छोडकर अन्य स्त्रियों को माता की तरह देखते है। लेकिन आप अपनी माता छोडकर सभी अन्य स्त्रियों को अपनी संभाव्य पत्नी के रूप में देखते हो। क्या ऐसे दो विपरीत विचार रखने वाले लोग मिलकर एक संस्कृति बना सकते हैं ?

समाज का एक घटक मानता है कि परमात्मा आस्था रखना या नहीं रखना, परमात्मा की पूजा करना या नहीं करना, करना तो कैसे करना, कब करना, यह हर व्यक्ति का अपना विचार है। और उस के इस विचार का आदर सब समाज करे। किंतु समाज का दूसरा तबका यह मानता है की केवल मेरी पूजा पद्दति ही श्रेष्ठ है। केवल इतना ही नहीं, जो मेरी पूजा पद्दति और आस्थाओं का स्वीकार नहीं करेगा उस का मैं कत्ल करूंगा। क्या ऐसे दो विपरीत विचार रखने वाले लोग अपने विचार बदले बगैर साझी संस्कृति के बन सकते है? और यदि साझी संस्कृति का इतना ही आग्रह है तो जो असहिष्णु विचार वाले समाज के गुट है, उन्हें सहिष्णु बनाने के लिये शिक्षा में प्रावधान रखने की नितांत आवश्यकता है। किंतु वास्तविकता यह है कि जो सहिष्णु विचार वाला समाज है, उसे ही अपनी संस्कृति के रक्षण करने में असहिष्णु गुटों द्वारा साझी विरासत के आधार पर चुनौती दी जाती है। और गलत संवैधानिक मार्गदर्शन के चलते कानून भी असहिष्णु गुटों के पक्ष में खडा दिखाई देता है।

समानतावाद की अधार्मिक (अधार्मिक) जीवनदृष्टि के कारण हमने स्त्री और पुरुष को एक दूसरे का स्पर्धक बना दिया है। दुर्बल और बलवान को स्पर्धक बना दिया है। लोकतंत्र तो साधन है। वास्तव में सर्वे भवन्तु सुखिन: हमारा लक्ष्य होना चाहिए। हमने एक घटिया अल्पमत-बहुमतवाले लोकतंत्र को ही साध्य बना दिया है। सेक्युलरीझम तो एकदम ही अधार्मिक (अधार्मिक) संकल्पना है। इसका अनुवाद धर्मनिरपेक्षता जिन्होंने किया है वे घोर अज्ञानी हैं। वे न तो धर्म का अर्थ जानते हैं और न ही सेक्युलारिझम का।

पर्यावरण सुरक्षा का विचार तो अच्छा ही है। लेकिन पर्यावरण की समझ गलत है। केवल पृथ्वी, जल और वायु का विचार इस पर्यावरण की सुरक्षा में हो रहा दिखाई देता है। भारतीय पर्यावरण की संकल्पना इससे बहुत व्यापक है।

सामाजिक अवरोध में वर्णाश्रम धर्म का विरोध ही प्रमुख उद्देश्य दिखाई देता है। वर्णाश्रम धर्म भारतीय समाज जीवन का ताना बाना था। इसको तोड़ने से पहले इसका अच्छी तरह भारतीय दृष्टि से अध्ययन करने की आवश्यकता थी। लेकिन अंग्रेजों के अन्धानुकरण के कारण हम इसे तोड़ने में लगे हैं। छोटे परिवारों ने कई नई सामाजिक समस्याओं को जन्म दिया है। संयुक्त कुटुम्ब के दर्जनों लाभों से समाज वंचित हो गया है।

साईंटिफिक व्ह्यू याने साईंटिफिक दृष्टि का तो इतना आतंक मचा रखा है कि अभौतिक बातों का महत्व ही समाप्त हो गया है। अभौतिक बातों को भी भौतिक शास्त्र की कसौटी लगाई जाती है। अतः सामाजिक सांस्कृतिक शास्त्रों का महत्व समाप्त हो गया है। बच्चे इन विषयों के अध्ययन में कोई रूचि नहीं रखते। स्वदेशी आन्दोलन चला तब वैश्वीकरण और स्थानिकीकरण में मेल का विषय शासन के ध्यान में आया।

जब कोई रोगी परामर्श के लिये वैद्य के पास जाता है, तब वैद्य उस की अच्छी आदतों और बुरी आदतों को समझ लेता है। फिर बुरी आदतों को छोडने की बात अवश्य करता है, लेकिन अधिक बल अच्छी आदतों को बढाने पर ही देता है। हमारे पाठयक्रमों में दो वाक्य भी "भारतीय समाज चिरंजीवी क्यों बना?" इस विषय पर नहीं हैं। किस प्रकार से हजारों वर्षों तक विश्व में अग्रणी रहा इस बारे में कुछ नहीं है। आज भी विश्व के अन्य समाजों से हम किन बातों में श्रेष्ठ है यह नहीं बताया जा रहा। हजारों वर्षों से हम एक बलवान समाज थे। किंतु हमने आक्रमण नहीं किये। हम पर आक्रमण क्यों हुए?

बलवान होते ही आक्रमण करने वालों की संस्कृति, उस संस्कृति से, जिसने बलवान होकर भी कभी आक्रमण नहीं किये, अच्छी नहीं हो सकती। हम केवल समाज के अवरोधों की ही बात बच्चोंं के दिमाग में ठूंसते है । स्वामी विवेकानंदजी कहते थे कि हमें अंग्रेजों द्वारा पढ़ाया जाने वाला इतिहास: हमारे पूर्वज कैसे हीन थे, कैसे जंगली थे, उन्हें गालियाँ देने वाला ही है। स्वाधीन भारत में भी हमारे गौरवपूर्ण इतिहास को नकारा गया है। 'गुप्तकाल एक स्वर्णयुग' के जिस गौरवशाली इतिहास को पढाने के लिये अंग्रेज भी बाध्य थे उसे हमने हमारे स्वाधीन भारत के इतिहास से निष्कासित कर दिया है। अपने पूर्वजों के प्रति गौरव करने योग्य सैंकड़ों बातें हैं जिन से हमारे बच्चोंं को वंचित किया जाता है। महात्मा गांधीजी के अनुयायी धर्मपालजी ने अंग्रेजों द्वारा ही संग्रहित की हुई जानकारी के प्रकाश में सिद्ध किया है कि १८ वीं सदी तक भारत अनेकों क्षेत्रों में विश्व में सर्वश्रेष्ठ था। किंतु उस की जानकारी का स्पर्श भी हम अपने बच्चोंं को या युवकों को नहीं होने देते। ऐसे बच्चे यदि पढ़ लिख कर देश को लात मारकर विदेशों में चले जाते है तो इस का जिम्मेदार हमारा पढ़ाया जाने वाला आत्मनिंदा सिखाने वाला इतिहास ही है। हम अब भी अंग्रेजों की मानसिक गुलामी से बाहर नहीं निकल रहे हैं, यही इस से सिद्ध होता है।

महाविद्यालयीन शिक्षा के क्षेत्र में तो लगभग १०० प्रतिशत पश्चिम का अंधानुकरण होता दिखाई देता है। हजारों वर्षों तक विश्व में अग्रणी रहे भारत में समाजशास्त्र, न्यायशास्त्र, अर्थशास्त्र, राज्यशास्त्र, शिक्षणशास्त्र आदि शास्त्र यह अत्यंत प्रगत अवस्था में थे। पाश्चात्य शास्त्रों का तो जन्म पिछले २५०-३०० वर्षों का है। इस लिये उन का अधूरा होना स्वाभाविक ही है। किंतु हमारी मानसिक और बौद्धिक दासता के कारण हम कालसिद्ध भारतीय शास्त्रों का विचार छोड केवल पश्चिमी (अधूरी) ज्ञानधारा की शिक्षा को ही शिक्षा मान रहे है। वास्तव में आवश्यकता यह थी कि स्वाधीनता के बाद पूरी शक्ति के साथ हम अपने शास्त्रों का व्यावहारिक दृष्टि से अध्ययन और अनुसंधान करें। लेकिन इसका विचार आज ७० वर्ष के उपरांत भी होता दिखाई नहीं दे रहा। स्वाधीनता के बाद हमारे शिक्षा क्षेत्र के नीति निर्धारक यूनेस्को से मार्गदर्शन लेने वाले 'साहेब वाक्यं प्रमाणम्' में श्रध्दा रखने वाले राजकीय नेताओं से मार्गदर्शन लेकर शिक्षा के निर्माण में लगे हैं।

भारतीय दृष्टि पर आधारित विषयवस्तु निर्धारण के मार्गदर्शक तत्व

  1. विषय के अध्ययन, अध्यापन का लक्ष्य मोक्ष है। जब जीवन का लक्ष्य मोक्ष है तो शिक्षा का लक्ष्य उससे भिन्न नहीं हो सकता। और जब शिक्षा का लक्ष्य मोक्ष या "सा विद्या या विमुक्तये[4]" है तब किसी भी विषय के अध्ययन अध्यापन का लक्ष्य भी मोक्ष ही है।
  2. विषयों का आधार भारतीय जीवनदृष्टि याने चराचर में व्याप्त एकात्मता और वैश्विक समग्रता होंगे। एकात्मता की व्यावहारिक अभिव्यक्ति कुटुम्ब भावना है। प्रत्येक विषय की विषयवस्तु सर्वे भवन्तु सुखिन: से सुसंगत रहे।
  3. जीवन के प्रत्येक पहलू के साथ प्रत्येक विषय का अंगांगी संबंध है। कृपया यह लेख देखें।
  4. भारत के उज्वल इतिहास और इतिहास दृष्टि के आधार पर प्रत्येक विषय के विकास की जानकारी और उससे प्रेरणा मिले।
  5. हर वस्तु के निर्माण का कुछ प्रयोजन होता है। इसी तरह से हर विषय की विषयवस्तु का भी जीवन में और जीवन के लक्ष्य की प्राप्ति में प्रयोजन स्पष्ट होना चाहिए।
  6. १५ वर्ष की आयुतक बच्चे के ज्ञानार्जन के करणों (पञ्च ज्ञानेन्द्रिय और अंत:करण चतुष्टय) के विकास की दृष्टि से विषय और विषयवस्तु रहे।
  7. शिक्षा यह आजीवन चलनेवाली प्रक्रिया है। इस दृष्टि से कुटुंब शिक्षा की योजना और क्रियान्वयन नितांत आवश्यक है।
  8. भारतीय दृष्टि से विचार कैसे किया जाता है ? इसकी शिक्षा भी आवश्यक है।
  9. शिक्षा सर्वप्रथम अध्यात्मनिष्ठ हो, फिर विज्ञाननिष्ठ हो और भौतिक पदार्थों के सन्दर्भ में साईंस निष्ठ हो।
  10. अन्य सामान्य तत्व निम्न हैं:
    • प्रत्यक्ष से कल्पना की ओर या मूर्त से अमूर्त की ओर या परिचित से अपरिचित की ओर।
    • स्थूल से सूक्ष्म की ओर ।
    • सरल से कठिन/जटिल की ओर।
    • आयु की अवस्था के अनुसार भावना, इच्छा या विचार और क्रिया तीनों के विकास के लिए।
    • आनंददायक से दु:खदायक की ओर।
    • श्रेष्ठ स्त्री और श्रेष्ठ पुरुष निर्माण के लिए।
    • सर्वे भवन्तु सुखिन: के आधार पर करणीय अकरणीय विवेक से विचार कैसे करना चाहिये।

References

  1. धर्मपालजी, भारतीय परंपरा (पुनरूत्थान ट्रस्ट द्वारा अनुवादित और प्रकाशित) पृष्ठ 14
  2. जीवन का भारतीय प्रतिमान-खंड २, अध्याय २६, लेखक - दिलीप केलकर
  3. वैशेषिक दर्शन 1.1.2
  4. श्रीविष्णुपुराण 1-19-41 तत्कर्म यन्न बन्धाय सा विद्या या विमुक्तये। आयासायापरं कर्म विद्यान्या शिल्पनैपुणम्॥

अन्य स्रोत: