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सनातन धर्म में भारतीय जीवन पद्धति क्रमबद्ध और नियन्त्रित है। इसकी क्रमबद्धता और नियन्त्रित जीवन पद्धति ही दीर्घायु, प्रबलता, अपूर्व ज्ञानत्व, अद्भुत प्रतिभा एवं अतीन्द्रिय शक्ति का कारण रही है। ऋषिकृत दिनचर्या व्यवस्था का शास्त्रीय, व्यावहारिक एवं सांस्कृतिक तथा वैज्ञानिक अनुशासन भारतीय जीवनचर्या में देखा जाता है। जो अपना सर्वविध कल्याण चाहते हैं उन्हैं शास्त्रकी विधिके अनुसार अपनी दैनिकचर्या बनानी चाहिए। दिनचर्या का धर्म से सम्बन्ध एवं गहरी चिंतन की प्रक्रिया में आध्यात्मिकता की भूमिका का महत्वपूर्ण योगदान है।  
 
सनातन धर्म में भारतीय जीवन पद्धति क्रमबद्ध और नियन्त्रित है। इसकी क्रमबद्धता और नियन्त्रित जीवन पद्धति ही दीर्घायु, प्रबलता, अपूर्व ज्ञानत्व, अद्भुत प्रतिभा एवं अतीन्द्रिय शक्ति का कारण रही है। ऋषिकृत दिनचर्या व्यवस्था का शास्त्रीय, व्यावहारिक एवं सांस्कृतिक तथा वैज्ञानिक अनुशासन भारतीय जीवनचर्या में देखा जाता है। जो अपना सर्वविध कल्याण चाहते हैं उन्हैं शास्त्रकी विधिके अनुसार अपनी दैनिकचर्या बनानी चाहिए। दिनचर्या का धर्म से सम्बन्ध एवं गहरी चिंतन की प्रक्रिया में आध्यात्मिकता की भूमिका का महत्वपूर्ण योगदान है।  
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==परिचय==
 
==परिचय==
 
दिनचर्या नित्य कर्मों की एक क्रमबद्ध शृंघला है। जिसका प्रत्येक अंग अन्त्यत महत्त्वपूर्ण है और क्रमशः दैनिककर्मों को किया जाता है। दिनचर्या के अनेक बिन्दु नीतिशास्त्र, धर्मशास्त्र और आयुर्वेद शास्त्र में प्राप्त होते हैं। प्रकृति के प्रभाव को शरीर और वातावरण पर देखते हुये दिनचर्या के लिये समय का उपयोग आगे पीछे किया जाता है। धर्म और योग की दृष्टि से दिन का शुभारम्भ उषःकाल से होता है। इस व्यवस्था को आयुर्वेद और ज्योतिषशास्त्र भी स्वीकार करते हैं। चौबीस घण्टे का समय ऋषिगण सुव्यवस्थित ढंग से व्यतीत करने को कहते हैं। संक्षिप्त दृष्टि से इस काल को इस प्रकार व्यवस्थित करते हैं-
 
दिनचर्या नित्य कर्मों की एक क्रमबद्ध शृंघला है। जिसका प्रत्येक अंग अन्त्यत महत्त्वपूर्ण है और क्रमशः दैनिककर्मों को किया जाता है। दिनचर्या के अनेक बिन्दु नीतिशास्त्र, धर्मशास्त्र और आयुर्वेद शास्त्र में प्राप्त होते हैं। प्रकृति के प्रभाव को शरीर और वातावरण पर देखते हुये दिनचर्या के लिये समय का उपयोग आगे पीछे किया जाता है। धर्म और योग की दृष्टि से दिन का शुभारम्भ उषःकाल से होता है। इस व्यवस्था को आयुर्वेद और ज्योतिषशास्त्र भी स्वीकार करते हैं। चौबीस घण्टे का समय ऋषिगण सुव्यवस्थित ढंग से व्यतीत करने को कहते हैं। संक्षिप्त दृष्टि से इस काल को इस प्रकार व्यवस्थित करते हैं-
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ऋतुकालाभिगामीस्यात्‌ स्वदारनिरतः सदा।अहिंसा सत्यवचनं सर्वभूतानुकम्पनम्‌।
 
ऋतुकालाभिगामीस्यात्‌ स्वदारनिरतः सदा।अहिंसा सत्यवचनं सर्वभूतानुकम्पनम्‌।
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शमो दानं यथाशक्तिर्गार्हस्थ्यो धर्म उच्यते॥<ref>डा० कामेश्वर उपाध्याय, हिन्दू जीवन पद्धति, सन् २०११, प्रकाशन- त्रिस्कन्धज्योतिषम् , पृ० ५८।</ref></blockquote>'''अर्थ-''' ब्राह्म मुहूर्तं मे जागना चाहिए, मूत्र-मल का विसर्जन, शुद्धि, दन्तधावन, स्नान, तर्पण, शुद्ध- पवित्र वस्त्र, तिलक, प्राणायाम- संध्यावन्दन, देव पूजा, अतिथि सत्कार, गोग्रास एवं जीवों को भोजन, पूर्वमुख मौन होकर भोजन, भोजन कर मुख ओर हाथ धोयें, ताम्बूल भक्षण, स्व-कार्य(जीविका हेतु), प्रातःसायं संध्या के पश्चात् वेद अध्ययन, धर्म चिन्तन, वैश्वदेव, हाथपैरधोकर भोजन, दोयाम (छःघण्टा) शयन, पानीपीने हेतु सिर की ओर पूर्णकुम्भ, ऋतुकाल (चतुर्थरात्रि से सोलहरात्रि) में पत्नी गमन आदि भारतीय जीवन पद्धति का यही सुव्यवस्थित पवित्र वैदिक एवं आयुर्वर्धक क्रम ब्रह्मपुराण मे दिया हआ है। इसे आलस्य, उपेक्षा, नास्तिकता या शरीर सुख मोह के कारण नहीं तोडना चाहिये। जिसमें की धार्मिकदिनचर्या के विषयविभाग निम्नलिखित हैं-
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शमो दानं यथाशक्तिर्गार्हस्थ्यो धर्म उच्यते॥<ref>डा० कामेश्वर उपाध्याय, हिन्दू जीवन पद्धति, सन् २०११, प्रकाशन- त्रिस्कन्धज्योतिषम् , पृ० ५८।</ref></blockquote>'''अर्थ-''' ब्राह्म मुहूर्तं मे जागना चाहिए, मूत्र-मल का विसर्जन, शुद्धि, दन्तधावन, स्नान, तर्पण, शुद्ध- पवित्र वस्त्र, तिलक, प्राणायाम- संध्यावन्दन, देव पूजा, अतिथि सत्कार, गोग्रास एवं जीवों को भोजन, पूर्वमुख मौन होकर भोजन, भोजन कर मुख ओर हाथ धोयें, ताम्बूल भक्षण, स्व-कार्य(जीविका हेतु), प्रातःसायं संध्या के पश्चात् वेद अध्ययन, धर्म चिन्तन, वैश्वदेव, हाथपैरधोकर भोजन, दोयाम (छःघण्टा) शयन, पानीपीने हेतु सिर की ओर पूर्णकुम्भ, ऋतुकाल (चतुर्थरात्रि से सोलहरात्रि) में पत्नी गमन आदि भारतीय जीवन पद्धति का यही सुव्यवस्थित पवित्र वैदिक एवं आयुर्वर्धक क्रम ब्रह्मपुराण मे दिया हआ है। इसे आलस्य, उपेक्षा, नास्तिकता या शरीर सुख मोह के कारण नहीं तोडना चाहिये। जिसमें की धार्मिकदिनचर्या के विषयविभाग निम्नलिखित हैं- {{columns-list|colwidth=15em|style=width: 800px; font-style: normal;|
 
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'''ब्राह्म मुहूर्तम्॥ Brahma muhurta'''
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'''प्रातः जागरण॥ Time of getting up in the morning'''
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'''करदर्शन॥ Kar Darshana'''
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'''भूमिवन्दना॥ Bhumi Vandana'''
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'''मंगलदर्शन॥ Mangala Darshana'''
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'''अभिवादन॥ Abhivadana'''
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'''अजपाजप॥ Ajapajapa'''
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'''उषा काल॥ Ushakala'''
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'''शौचाचार॥ Shouchara'''
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'''दन्तधावन एवं मुखप्रक्षालन॥ Dantadhavana Evam Mukhaprakshalana'''
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'''व्यायाम॥ Vyayama'''
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'''तैलाभ्यंग॥ Tailabhyanga'''
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'''क्षौर॥ Kshaura'''
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'''स्नान॥ Snana'''
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'''वस्त्रपरिधान॥ vastra paridhana'''
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'''पूजाविधान॥ pujavidhana'''
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'''योगसाधना॥ yoga sadhana'''
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'''यज्ञोपवीत धारण॥ Yagyopavita Dharana'''
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'''तिलक-आभरण धारण॥ Tilaka Abharana Dharana'''
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'''संध्योपासना-आराधना॥ Sandhyopasana- Aradhana'''
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'''तर्पण॥ Tarpana'''
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'''पञ्चमहायज्ञ॥ Pancha mahayagya'''
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'''भोजन॥ Bhojana'''
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'''लोक संग्रह-व्यवहार-जीविका॥ Loka sangraha- Vyavahara jivika'''
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'''संध्या-गोधूलि-प्रदोष॥ sayam Sandhya'''
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'''शयनविधि॥ Shayana Vidhi'''
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* ब्राह्म मुहूर्तम्॥ Brahma muhurta
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* प्रातः जागरण॥ Pratah Jagarana
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* करदर्शन॥ Kar Darshana
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* भूमिवन्दना॥ Bhumi Vandana
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* मंगलदर्शन॥ Mangala Darshana
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* अभिवादन॥ Abhivadana
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* अजपाजप॥ Ajapajapa
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* उषा काल॥ Ushakala
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* शौचाचार॥ Shouchara
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* दन्तधावन एवं मुखप्रक्षालन॥ Dantadhavana Evam Mukhaprakshalana
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* व्यायाम॥ Vyayama
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* तैलाभ्यंग॥ Tailabhyanga
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* क्षौर॥ Kshaura
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* स्नान॥ Snana
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* वस्त्रपरिधान॥ Vastra paridhana
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* पूजाविधान॥ Pujavidhana
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* योगसाधना॥ Yoga sadhana
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* यज्ञोपवीत धारण॥ Yagyopavita Dharana
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* तिलक-आभरण धारण॥ Tilaka Abharana Dharana
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* संध्योपासना-आराधना॥ Sandhyopasana- Aradhana
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* तर्पण॥ Tarpana
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* पञ्चमहायज्ञ॥ Pancha mahayajna
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* भोजन॥ Bhojana
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* लोक संग्रह-व्यवहार-जीविका॥ Lokasangraha- Vyavahara jivika
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* संध्या-गोधूलि-प्रदोष॥ Saayam Sandhya
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* शयनविधि॥ Shayana Vidhi}}
    
== धार्मिक दिनचर्या के विषय विभाग ==
 
== धार्मिक दिनचर्या के विषय विभाग ==
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=== यज्ञोपवीत धारण॥ Yagyopavita Dharana ===
 
=== यज्ञोपवीत धारण॥ Yagyopavita Dharana ===
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उपनयन के समय पिता तथा आचार्यके द्वारा त्रैवर्णिकवटुकों को यज्ञोपवीत धारण करवाया जाता है।
    
=== तिलक-आभरण धारण॥ Tilaka Abharana Dharana ===
 
=== तिलक-आभरण धारण॥ Tilaka Abharana Dharana ===
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=== तर्पण॥ Tarpana ===
 
=== तर्पण॥ Tarpana ===
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तर्पण का अर्थ होता है जल दान या तृप्त करने की क्रिया। जिस प्रकार संध्योपासनमें सूर्यार्घ्यसे  मन्देहादि राक्षस भस्म होते हैं उसी प्रकार तर्पणसे समस्त ब्रह्माण्डका कल्याण होता है। इसलिये प्रत्येक अधिकारीको तर्पण प्रतिदिन अवश्य करना चाहिये- <ref>राधेश्याम खेमका, [https://archive.org/details/NityaKarmaPujaPrakashGitaPressGorakhpur/page/n1/mode/1up नित्यकर्म पूजाप्रकाश], सन् २०१४, गीताप्रेस गोरखपुर (पृ० ९२)।</ref><blockquote>नित्यमेव स्नात्वाऽद्भिर्देवानृषींश्च तर्पयन्ति तर्पयन्ति।(गृह्यसूत्र)</blockquote>तर्पणके मुख्य तीन भेद हैं -
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*देव तर्पण
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*ऋषि तर्पण
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*पितृ तर्पण
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मुख्यतः तर्पण को निम्नप्रकारों में विभाजित किया गया है-
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'''ब्रह्मयज्ञांग'''- (यज्ञ के समय किया जानेवाला)।
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'''स्नानांग'''- नित्य स्नान के उपरांत किया जानेवाला तर्पण कहलाता है। संध्या के पहले इसका करना आवश्यक माना गया है। अशौचकाल एवं जीवित-पितृकों के लिये भी यह विहित है।
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'''श्राद्धांग''' (श्राद्ध में किया जानेवाला) इस प्रकार से तर्पण को उस विशेष अवसर पर करना चाहिये।
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=== पञ्चमहायज्ञ॥ Pancha mahayagya ===
+
===पञ्चमहायज्ञ॥ Pancha mahayagya===
 
सामान्यतः लौकिक जीवनमें स्वयंके भविष्यको हवनसे, त्रैविद्य नामक व्रतसे, ब्रह्मचर्यावस्थामें देवर्षि-पितृसँवारनेके लिये सन्ध्यावन्दनका विधान किया गया है, तर्पण आदि क्रियाओंसे, गृहस्थाश्रममें पुत्रोत्पादनसे, महायज्ञोंसे कुटुम्ब एवं परिवारकी समृद्धिके निमित्त देवपूजाकी और ज्योतिष्टोमादि यज्ञोंसे यह शरीर ब्रह्मप्राप्तिके योग्य व्यवस्था की गयी है। जबकि ऋणमुक्ति एवं समृद्धिहेतु, बनाया जाता है। उत्कृष्ट संस्कार पानेके लिये, नैतिकता-सदाचार-सद्व्यवस्था इन यज्ञोंको और स्पष्ट करते हुए मनुस्मृति (३।६०)और सद्व्यवहारके लिये गृहस्थ जीवनमें पंचमहायज्ञोंका में कहा गया है अनुष्ठान-विधान अनिवार्य अंगके रूपमें निर्दिष्ट है। धर्म कर्ममय जीवनमें यह एक आवश्यक कर्तव्य है, जिसका विधान ब्राह्मण-आरण्यक-गृह्यसूत्र-धर्मसूत्र आदिमें पाया अर्थात् वेदका अध्ययन और अध्यापन करना जाता है।
 
सामान्यतः लौकिक जीवनमें स्वयंके भविष्यको हवनसे, त्रैविद्य नामक व्रतसे, ब्रह्मचर्यावस्थामें देवर्षि-पितृसँवारनेके लिये सन्ध्यावन्दनका विधान किया गया है, तर्पण आदि क्रियाओंसे, गृहस्थाश्रममें पुत्रोत्पादनसे, महायज्ञोंसे कुटुम्ब एवं परिवारकी समृद्धिके निमित्त देवपूजाकी और ज्योतिष्टोमादि यज्ञोंसे यह शरीर ब्रह्मप्राप्तिके योग्य व्यवस्था की गयी है। जबकि ऋणमुक्ति एवं समृद्धिहेतु, बनाया जाता है। उत्कृष्ट संस्कार पानेके लिये, नैतिकता-सदाचार-सद्व्यवस्था इन यज्ञोंको और स्पष्ट करते हुए मनुस्मृति (३।६०)और सद्व्यवहारके लिये गृहस्थ जीवनमें पंचमहायज्ञोंका में कहा गया है अनुष्ठान-विधान अनिवार्य अंगके रूपमें निर्दिष्ट है। धर्म कर्ममय जीवनमें यह एक आवश्यक कर्तव्य है, जिसका विधान ब्राह्मण-आरण्यक-गृह्यसूत्र-धर्मसूत्र आदिमें पाया अर्थात् वेदका अध्ययन और अध्यापन करना जाता है।
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=== भोजन॥ Bhojana ===
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===भोजन॥ Bhojana===
 
सनातन धर्म में आचार विचार,आहार तथा व्यवहार इन चार विषयों पर बहुत महत्व दिया है इनमें आहार(भोजन)विधि के बारे में बहुत महत्व दिया गया है जिस प्रकार का अन्न खाया जाता है उसी प्रकार की बुद्धि भी बनती है।आहार सात्विक होगा, तो मन भी सात्विक होगा और जब मन सात्विक होगा तब विचार भी सात्विक होंगे और क्रमशः फिर क्रिया भी सात्विक होगी। सात्विक भोजन से शरीर स्वस्थ एवं चित्त प्रसन्न रहता है। अधिक कटु, उष्ण, तीक्ष्ण एवं रुक्ष आहार राजस कहा गया है । बासी, रसहीन, दुर्गन्धियुक्त, जूठा और अपवित्र आहार तामस कहा गया है ।
 
सनातन धर्म में आचार विचार,आहार तथा व्यवहार इन चार विषयों पर बहुत महत्व दिया है इनमें आहार(भोजन)विधि के बारे में बहुत महत्व दिया गया है जिस प्रकार का अन्न खाया जाता है उसी प्रकार की बुद्धि भी बनती है।आहार सात्विक होगा, तो मन भी सात्विक होगा और जब मन सात्विक होगा तब विचार भी सात्विक होंगे और क्रमशः फिर क्रिया भी सात्विक होगी। सात्विक भोजन से शरीर स्वस्थ एवं चित्त प्रसन्न रहता है। अधिक कटु, उष्ण, तीक्ष्ण एवं रुक्ष आहार राजस कहा गया है । बासी, रसहीन, दुर्गन्धियुक्त, जूठा और अपवित्र आहार तामस कहा गया है ।
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=== लोक संग्रह-व्यवहार-जीविका॥ Loka sangraha- Vyavahara jivika ===
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=== लोक संग्रह-व्यवहार-जीविका॥ Loka sangraha- Vyavahara jivika===
 
प्रतिदिन भोजन के बाद प्रत्येक व्यक्ति (चाहे वह खी हो या पुरुष) को स्व कर्म मे लग जाना चाहिए। दो याम (छः घण्टा) दिन मे जीवन निर्वाह हेतु सत्य-श्रम-अहिंसा-अक्रोध-अलोभ-विद्या-बुद्धि-प्रतिभा-वैभव द्वारा धनार्जन का उपक्रम करना चाहिए। व्यक्ति जो कुछ अर्जित करता है वह केवल अपने लिए नही; बल्कि अपनी योग्यता से अपने पाल्य (आश्रित) जनो, परिवार, समाज, जनपद, राज, राष्ट ओर समस्त मानवता के लिए अर्जित करता हे। अतः लोकव्यवहार संचालन के लिए तथा अपनी गृहस्थी को चलाने के लिए प्रत्येक व्यक्ति को प्रतिदिन अवश्य ही परिश्रम करना चाहिए। चित्त संयमित और वित्त न्यायोपार्जित होना चाहिए।
 
प्रतिदिन भोजन के बाद प्रत्येक व्यक्ति (चाहे वह खी हो या पुरुष) को स्व कर्म मे लग जाना चाहिए। दो याम (छः घण्टा) दिन मे जीवन निर्वाह हेतु सत्य-श्रम-अहिंसा-अक्रोध-अलोभ-विद्या-बुद्धि-प्रतिभा-वैभव द्वारा धनार्जन का उपक्रम करना चाहिए। व्यक्ति जो कुछ अर्जित करता है वह केवल अपने लिए नही; बल्कि अपनी योग्यता से अपने पाल्य (आश्रित) जनो, परिवार, समाज, जनपद, राज, राष्ट ओर समस्त मानवता के लिए अर्जित करता हे। अतः लोकव्यवहार संचालन के लिए तथा अपनी गृहस्थी को चलाने के लिए प्रत्येक व्यक्ति को प्रतिदिन अवश्य ही परिश्रम करना चाहिए। चित्त संयमित और वित्त न्यायोपार्जित होना चाहिए।
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==== धनार्जन के माध्यम ====
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====धनार्जन के माध्यम====
 
धन कमाने के अनेक माध्यम हें। ये माध्यम सहस्राधिक हँ। इन माध्यम को अनेक क्रमों में विभाजित ओर परिसमूहित किया जाता है-
 
धन कमाने के अनेक माध्यम हें। ये माध्यम सहस्राधिक हँ। इन माध्यम को अनेक क्रमों में विभाजित ओर परिसमूहित किया जाता है-
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* भूमिज कर्म- पृथ्वी से धन प्राप्त करना।
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*भूमिज कर्म- पृथ्वी से धन प्राप्त करना।
* अन्तरिक्षज कर्म- आकाश का दोहन कर धन प्राप्त करना।
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*अन्तरिक्षज कर्म- आकाश का दोहन कर धन प्राप्त करना।
* अग्निज कर्म- अग्नि के माध्यम से धन प्राप्त करना।
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*अग्निज कर्म- अग्नि के माध्यम से धन प्राप्त करना।
* दैवज (ब्राह्य.) कर्म- धर्म, यज्ञ, पूजन, मंत्र, शिक्षा से धनार्जन करना।
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*दैवज (ब्राह्य.) कर्म- धर्म, यज्ञ, पूजन, मंत्र, शिक्षा से धनार्जन करना।
* वारुण कर्म- जल के माध्यम से धनार्जन करना।
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*वारुण कर्म- जल के माध्यम से धनार्जन करना।
    
इन पच संविभागो मे मनुष्य के पुरुषार्थं से उत्पन्न सभी कर्म (लोक व्यवहार ओर जीविका आदि) समाहित होते है। भूमिज कर्म का विस्तार ही मनुष्य के लिए अनन्त प्रकार के कर्मो को जन्म देता हे।
 
इन पच संविभागो मे मनुष्य के पुरुषार्थं से उत्पन्न सभी कर्म (लोक व्यवहार ओर जीविका आदि) समाहित होते है। भूमिज कर्म का विस्तार ही मनुष्य के लिए अनन्त प्रकार के कर्मो को जन्म देता हे।
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=== संध्या-गोधूलि-प्रदोष॥ sayam Sandhya ===
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===शयनविधि॥ Shayana Vidhi===
 
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=== शयनविधि॥ Shayana Vidhi ===
   
रात्रि मे सोने से पहले रात्रिसूक्त का पाठ करके सोना चाहिए। इस पाठ को करने वाला व्यक्ति दुःस्वप्न, अनिद्रा, निद्राभंग, भय, निर्जन शयन भय, भूत-परेत आदि भय, आकस्मिक उपद्रव आदि से सर्वथा सुरक्षित रहता हे। रात्रि में सोने के बाद उसे सर्पं आदि विषधर नहीं काट पाते। अग्नि, विषाक्त वायु आदि से भी उसे मृत्यु का भय नहीं होता हे। अतः प्राचीन भारत में रात्रिसूक्त का पाठ करके ही सोया जाता था। विशेष रूप से जँ रात्रि भय उपस्थित हो वहां इसका पाठ अवश्य करना चाहिए। अतिनिद्रा ओर अनिद्रा से वचने के लिए भी इसका पाठ करके सोना चाहिए।
 
रात्रि मे सोने से पहले रात्रिसूक्त का पाठ करके सोना चाहिए। इस पाठ को करने वाला व्यक्ति दुःस्वप्न, अनिद्रा, निद्राभंग, भय, निर्जन शयन भय, भूत-परेत आदि भय, आकस्मिक उपद्रव आदि से सर्वथा सुरक्षित रहता हे। रात्रि में सोने के बाद उसे सर्पं आदि विषधर नहीं काट पाते। अग्नि, विषाक्त वायु आदि से भी उसे मृत्यु का भय नहीं होता हे। अतः प्राचीन भारत में रात्रिसूक्त का पाठ करके ही सोया जाता था। विशेष रूप से जँ रात्रि भय उपस्थित हो वहां इसका पाठ अवश्य करना चाहिए। अतिनिद्रा ओर अनिद्रा से वचने के लिए भी इसका पाठ करके सोना चाहिए।
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निद्रा परिभाषा-<blockquote>यदा तु मनसि क्लान्ते कर्मात्मानः क्लमान्विताः। विषयेभ्यो निवर्तन्ते तदा स्वपिति मानवः॥(चर0सूत्र0२९)</blockquote>मन के थकने से इन्द्रियाँ थकती हैं। इन्द्रियों के थकने से विषय निवृत्ति हो जाती है और मनुष्य सो जाता है।
 
निद्रा परिभाषा-<blockquote>यदा तु मनसि क्लान्ते कर्मात्मानः क्लमान्विताः। विषयेभ्यो निवर्तन्ते तदा स्वपिति मानवः॥(चर0सूत्र0२९)</blockquote>मन के थकने से इन्द्रियाँ थकती हैं। इन्द्रियों के थकने से विषय निवृत्ति हो जाती है और मनुष्य सो जाता है।
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* यामद्वयं शयानस्तु ब्रह्मभूयाय कल्पते- छ. घण्टा से अधिक न सोयें।
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*यामद्वयं शयानस्तु ब्रह्मभूयाय कल्पते- छ. घण्टा से अधिक न सोयें।
* न सन्ध्ययोः- सन्धि वेला (सूर्योदय-सूर्यास्त) में नहीं सोना चाहिए।
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*न सन्ध्ययोः- सन्धि वेला (सूर्योदय-सूर्यास्त) में नहीं सोना चाहिए।
    
धर्मशास्त्र में प्रायशः अनेक पर्वों में रात्रि जागरण हेतु विधान किया गया है। ध्येय है जहोँ भी रात्रि जागरण की व्यवस्था होती है, वहीं पर उपवास का भी विधान प्राप्त होता हे। रात्रि जागरण हेतु उपवास आवश्यक होता है। उपवास करके रात्रि जागरण करने पर कफ ओर अग्नि दोनों तत्व शान्त ओर सन्तुलित रहते है। अतिनिद्रा ओर अनिद्रा ये दोनो रोग के रूप में शरीर को कष्ट परहचाती है। अनिद्रा से जहाँ अंग मर्द, सिर का भारीपन, जम्हाई, जडता, ग्लानि, श्रम, अजीर्ण, तन्द्रा तथा वातजनित रोग होते हं वहीं पर अतिनिद्रा से शिथिलता, मस्तिष्क मे भारीपन, रक्तसंचरण में मन्दता तथा अनेक प्रकार की मानसिक बीमारियों पेदा होती है। आयुर्वेद के अनुसार काय विरेचन, शिरो विरेचन, व्यायाम, धुप्रपान उपवास, तथा पूजन आदि सं अतिनिद्रा दूर होती है।
 
धर्मशास्त्र में प्रायशः अनेक पर्वों में रात्रि जागरण हेतु विधान किया गया है। ध्येय है जहोँ भी रात्रि जागरण की व्यवस्था होती है, वहीं पर उपवास का भी विधान प्राप्त होता हे। रात्रि जागरण हेतु उपवास आवश्यक होता है। उपवास करके रात्रि जागरण करने पर कफ ओर अग्नि दोनों तत्व शान्त ओर सन्तुलित रहते है। अतिनिद्रा ओर अनिद्रा ये दोनो रोग के रूप में शरीर को कष्ट परहचाती है। अनिद्रा से जहाँ अंग मर्द, सिर का भारीपन, जम्हाई, जडता, ग्लानि, श्रम, अजीर्ण, तन्द्रा तथा वातजनित रोग होते हं वहीं पर अतिनिद्रा से शिथिलता, मस्तिष्क मे भारीपन, रक्तसंचरण में मन्दता तथा अनेक प्रकार की मानसिक बीमारियों पेदा होती है। आयुर्वेद के अनुसार काय विरेचन, शिरो विरेचन, व्यायाम, धुप्रपान उपवास, तथा पूजन आदि सं अतिनिद्रा दूर होती है।
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==दिनचर्या कब, कितनी ?==
 
==दिनचर्या कब, कितनी ?==
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दिनचर्या सुव्यवस्थित ढंग से अपने स्थिर निवास पर ही हो पाती है। अनेक लोग ऐसे भी हैं जो अपनी दिनचर्या को सर्वत्र एक जैसे जी लेते हैं। यात्रा, विपत्ति, तनाव, अभाव ओर मौसम का प्रभाव उन पर नहीं पडता। ऐसे लोगों को दृढव्रत कहते हैं। किसी भी कर्म को सम्पन्न करने के लिए दृढव्रत ओर एकाग्रचित्त होना अनिवार्य है। यह शास्त्रों का आदेश है -<blockquote>मनसा नैत्यक कर्म प्रवसन्नप्यतन्द्रितः। उपविश्य शुचिः सर्वं यथाकालमनुद्रवेत्‌॥ (कात्यायनस्मृतिः,९,९८/२)</blockquote>प्रवास में भी आलस्य रहित होकर, पवित्र होकर, बैठकर समस्त नित्यकर्मो को यथा समय कर लेना चाहिए। अपने निवास पर दिनचर्या का शतप्रतिशत पालन करना चाहिए। यात्रा में दिनचर्या विधान को आधा कर देना चाहिए। बीमार पड़ने पर दिनचर्या का कोई नियम नहीं होता। विपत्ति मे पड़ने पर दिनचर्या का नियम बाध्य नहीं करता-<blockquote>स्वग्रामे पूर्णमाचारं पथ्यर्धं मुनिसत्तम। आतुरे नियमो नास्ति महापदि तथेव च॥ (ब्रह्माण्डपुराण)</blockquote>
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दिनचर्या सुव्यवस्थित ढंग से अपने स्थिर निवास पर ही हो पाती है। अनेक लोग ऐसे भी हैं जो अपनी दिनचर्या को सर्वत्र एक जैसे जी लेते हैं। यात्रा, विपत्ति, तनाव, अभाव ओर मौसम का प्रभाव उन पर नहीं पडता। ऐसे लोगों को दृढव्रत कहते हैं। किसी भी कर्म को सम्पन्न करने के लिए दृढव्रत ओर एकाग्रचित्त होना अनिवार्य है।<ref>श्री बाबूलाल गुप्त, सनातन धर्म का वैज्ञानिक रहस्य, सन् 1966, हिन्दी प्रचारक मण्डल अमीनाबाद, लखनऊ,उ0 प्र0, (पृ0181)।</ref> यह शास्त्रों का आदेश है -<blockquote>मनसा नैत्यक कर्म प्रवसन्नप्यतन्द्रितः। उपविश्य शुचिः सर्वं यथाकालमनुद्रवेत्‌॥ (कात्यायनस्मृतिः,९,९८/२)</blockquote>प्रवास में भी आलस्य रहित होकर, पवित्र होकर, बैठकर समस्त नित्यकर्मो को यथा समय कर लेना चाहिए। अपने निवास पर दिनचर्या का शतप्रतिशत पालन करना चाहिए। यात्रा में दिनचर्या विधान को आधा कर देना चाहिए। बीमार पड़ने पर दिनचर्या का कोई नियम नहीं होता। विपत्ति मे पड़ने पर दिनचर्या का नियम बाध्य नहीं करता-<blockquote>स्वग्रामे पूर्णमाचारं पथ्यर्धं मुनिसत्तम। आतुरे नियमो नास्ति महापदि तथेव च॥ (ब्रह्माण्डपुराण)</blockquote>
    
====दिनचर्या एवं मानवीय जीवनचर्या====
 
====दिनचर्या एवं मानवीय जीवनचर्या====
 
इस पृथ्वी पर मनुष्य से अतिरिक्त जितने भी जीव हैं। उनका अधिकतम समय भोजन खोजने में नष्ट हो जाता है। यदि भोजन मिल गया तो वे निद्रा में लीन हो जाते हैं। आहार और निद्रा मनुष्येतर प्राणियों को पृथ्वी पर अभीष्ट हैं। मनुष्य आहार और निद्रा से ऊपर उठ कर व्रती ओर गुडाकेश (निद्राजित) बनता है। यही भारतीय जीवन पद्धति की प्राधान्यता है।<ref name=":0">श्री राधेश्याम खेमका,जीवनचर्या अंक,गीताप्रेस गोरखपुर,२०१० (पृ०१५)।</ref>
 
इस पृथ्वी पर मनुष्य से अतिरिक्त जितने भी जीव हैं। उनका अधिकतम समय भोजन खोजने में नष्ट हो जाता है। यदि भोजन मिल गया तो वे निद्रा में लीन हो जाते हैं। आहार और निद्रा मनुष्येतर प्राणियों को पृथ्वी पर अभीष्ट हैं। मनुष्य आहार और निद्रा से ऊपर उठ कर व्रती ओर गुडाकेश (निद्राजित) बनता है। यही भारतीय जीवन पद्धति की प्राधान्यता है।<ref name=":0">श्री राधेश्याम खेमका,जीवनचर्या अंक,गीताप्रेस गोरखपुर,२०१० (पृ०१५)।</ref>
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==== दैनिक कृत्य-सूची-निर्धारण ====
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====दैनिक कृत्य-सूची-निर्धारण====
 
इसी समय दिन-रातके कार्योंकी सूची तैयार कर लें।
 
इसी समय दिन-रातके कार्योंकी सूची तैयार कर लें।
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एतादृश जागरण के अनन्तर दैनिक क्रिया कलापों की सूची-बद्धता प्रातः स्मरण के बाद ही बिस्तर पर निर्धारित कर लेना चाहिये। जिससे हमारे नित्य के कार्य सुचारू रूप से पूर्ण हो सकें।<ref>पं०लालबिहारी मिश्र,नित्यकर्म पूजाप्रकाश,गीताप्रेस गोरखपुर (पृ० १४)।</ref>
 
एतादृश जागरण के अनन्तर दैनिक क्रिया कलापों की सूची-बद्धता प्रातः स्मरण के बाद ही बिस्तर पर निर्धारित कर लेना चाहिये। जिससे हमारे नित्य के कार्य सुचारू रूप से पूर्ण हो सकें।<ref>पं०लालबिहारी मिश्र,नित्यकर्म पूजाप्रकाश,गीताप्रेस गोरखपुर (पृ० १४)।</ref>
== धार्मिक दिनचर्या का महत्व ==
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==धार्मिक दिनचर्या का महत्व==
    
व्यक्ति चाहे जितना भी दीर्घायुष्य क्यों न हो वह इस पृथ्वी पर अपना जीवन व्यवहार चौबीस घण्टे के भीतर ही व्यतीत करता है। वह अपना नित्य कर्म (दिनचर्या), नैमित्त कर्म (जन्म-मृत्यु-श्राद्ध- सस्कार आदि) तथा काम्य कर्म (मनोकामना पूर्ति हेतु किया जाने वाला कर्म) इन्हीं चौबीस घण्टों में पूर्ण करता है। इन्हीं चक्रों (एक सूर्योदय से दूसरे सूर्योदय) के बीच वह जन्म लेता है, पलता- बढ़ता है ओर मृत्यु को प्राप्त कर जाता है-<blockquote>'''अस्मिन्नेव प्रयुञ्जानो यस्मिन्नेव तु लीयते। तस्मात्‌ सर्वप्रयत्नेन कर्त्तव्यं सुखमिच्छता। । दक्षस्मृतिः, (२८/५७)'''</blockquote>अतः व्यक्ति को प्रयत्नपूर्वक मन-बुद्धि को आज्ञापित करके अपनी दिनचर्या को सुसंगत तथा सुव्यवस्थित करना चाहिए। ब्राह्ममुहूर्त में जागकर स्नान पूजन करने वाला, पूर्वाह्न मे भोजन करने वाला, मध्याह्न में लोकव्यवहार करने वाला तथा सायंकृत्य करके रात्रि में भोजन-शयन करने वाला अपने जीवन में आकस्मिक विनाश को नहीं प्राप्त करता है -<blockquote>'''सर्वत्र मध्यमौ यामौ हुतशेषं हविश्च यत्‌। भुञ्जानश्च शयानश्च ब्राह्मणो नावसीदती॥ (दक्षस्मृतिः,२/५८)'''</blockquote>उषः काल में जागकर, शौच कर, गायत्री - सूर्य की आराधना करने वाला, जीवों को अन्न देने वाला, अतिथि सत्कार कर स्वयं भोजन करने वाला, दिन में छः घण्टा जीविका सम्बन्धी कार्य करने वाला, सायंकाल में सूर्य को प्रणाम करने वाला, पूर्व रात्रि में जीविका, विद्या आदि का चिन्तन करने वाला तथा रात्रि में छः घण्टा सुखपूर्वक शयन करने वाला इस धरती पर वाञ्छित कार्य पूर्ण कर लेता है। अतः दिनचर्या ही व्यक्ति को महान्‌ बनाती है। जो प्रतिदिवसीय दिनचर्या में अनुशासित नहीं हैं वह दीर्घजीवन में यशस्वी ओर दीर्घायु हो ही नहीं सकता। अतः सर्व प्रथम अपने को अनुशासित करना चाहिए। अनुशासित व्यक्तित्व सृष्टि का श्रेष्ठतम व्यक्तित्व होता है ओर अनुशासन दिनचर्या का अभिन्न अंग होता है।
 
व्यक्ति चाहे जितना भी दीर्घायुष्य क्यों न हो वह इस पृथ्वी पर अपना जीवन व्यवहार चौबीस घण्टे के भीतर ही व्यतीत करता है। वह अपना नित्य कर्म (दिनचर्या), नैमित्त कर्म (जन्म-मृत्यु-श्राद्ध- सस्कार आदि) तथा काम्य कर्म (मनोकामना पूर्ति हेतु किया जाने वाला कर्म) इन्हीं चौबीस घण्टों में पूर्ण करता है। इन्हीं चक्रों (एक सूर्योदय से दूसरे सूर्योदय) के बीच वह जन्म लेता है, पलता- बढ़ता है ओर मृत्यु को प्राप्त कर जाता है-<blockquote>'''अस्मिन्नेव प्रयुञ्जानो यस्मिन्नेव तु लीयते। तस्मात्‌ सर्वप्रयत्नेन कर्त्तव्यं सुखमिच्छता। । दक्षस्मृतिः, (२८/५७)'''</blockquote>अतः व्यक्ति को प्रयत्नपूर्वक मन-बुद्धि को आज्ञापित करके अपनी दिनचर्या को सुसंगत तथा सुव्यवस्थित करना चाहिए। ब्राह्ममुहूर्त में जागकर स्नान पूजन करने वाला, पूर्वाह्न मे भोजन करने वाला, मध्याह्न में लोकव्यवहार करने वाला तथा सायंकृत्य करके रात्रि में भोजन-शयन करने वाला अपने जीवन में आकस्मिक विनाश को नहीं प्राप्त करता है -<blockquote>'''सर्वत्र मध्यमौ यामौ हुतशेषं हविश्च यत्‌। भुञ्जानश्च शयानश्च ब्राह्मणो नावसीदती॥ (दक्षस्मृतिः,२/५८)'''</blockquote>उषः काल में जागकर, शौच कर, गायत्री - सूर्य की आराधना करने वाला, जीवों को अन्न देने वाला, अतिथि सत्कार कर स्वयं भोजन करने वाला, दिन में छः घण्टा जीविका सम्बन्धी कार्य करने वाला, सायंकाल में सूर्य को प्रणाम करने वाला, पूर्व रात्रि में जीविका, विद्या आदि का चिन्तन करने वाला तथा रात्रि में छः घण्टा सुखपूर्वक शयन करने वाला इस धरती पर वाञ्छित कार्य पूर्ण कर लेता है। अतः दिनचर्या ही व्यक्ति को महान्‌ बनाती है। जो प्रतिदिवसीय दिनचर्या में अनुशासित नहीं हैं वह दीर्घजीवन में यशस्वी ओर दीर्घायु हो ही नहीं सकता। अतः सर्व प्रथम अपने को अनुशासित करना चाहिए। अनुशासित व्यक्तित्व सृष्टि का श्रेष्ठतम व्यक्तित्व होता है ओर अनुशासन दिनचर्या का अभिन्न अंग होता है।
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* शास्त्रों में दिनचर्या की प्रधानता बताई गयी है। शरीरके लिये उपयुक्त पोषकतत्व विज्ञान आदि आयुर्वेदीय एवं दूसरी ओर मन की उत्क्रान्ति विकास साधने वाला मानसशास्त्र आदि हेतु धार्मिकदिनचर्या की आवश्यकता है।
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*शास्त्रों में दिनचर्या की प्रधानता बताई गयी है। शरीरके लिये उपयुक्त पोषकतत्व विज्ञान आदि आयुर्वेदीय एवं दूसरी ओर मन की उत्क्रान्ति विकास साधने वाला मानसशास्त्र आदि हेतु धार्मिकदिनचर्या की आवश्यकता है।
* दिनचर्या का यथार्थपालन करने से व्याधि, दुर्व्यसन एवं मनोविकृति आदि नष्ट होते हैं।
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*दिनचर्या का यथार्थपालन करने से व्याधि, दुर्व्यसन एवं मनोविकृति आदि नष्ट होते हैं।
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== आयुर्वैदिक दिनचर्या ==
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==आयुर्वैदिक दिनचर्या==
 
{{Main|Dinacharya_(दिनचर्या)}}
 
{{Main|Dinacharya_(दिनचर्या)}}
आयुर्वेद दिनचर्या, ऋतुचर्या, आहार-विहार को निर्देशित करके स्वास्थ्य हेतु शुभ एवं कल्याणकारी पथ दिखलाता है। आयुर्वेद की परम्परा वेद से आरम्भ होने के कारण अत्यन्त प्राचीन है। आयुर्वेद से उपदिष्ट मार्ग पर चलता हआ व्यक्ति यदि तपस्वी हो तो शतायु की सीमाओं को भी लाँघ जाता है। तपस्या, आत्मनियन्त्रण, सम्यक् चर्या और आहार-विहार से व्यक्ति इच्छित आयु प्राप्त कर लेता हे। मुनिप्रवर व्यासजी ने कहा है-<blockquote>पुरुषाः सर्वसिद्धाश्च चतुर्वर्षशतायुषः। कृते त्रेतादिकेऽप्येवं पादशो हृसति क्रमात् ॥</blockquote>कृत (सत्य) युग में पुरुष चार सौ वर्ष की आयु वाले होते थे। वे सर्वसिद्ध होते थे। त्रेता मे तीन सौ वर्ष, द्वापर में दो सौ वर्ष और कलियुग में सौ वर्ष या इससे कम आयु के होते हैं। पुरुष का अर्थ है- पुर अर्थात् शरीर मे सोने वाला चेतन तत्व (आत्मा)। यही पुरुष कहलाता हे। अतः स्त्री-पुरुष जनित भेद आत्मा में उपलब्ध नहीं होता है। रोग अपने ही कर्म से शरीर और मन दोनों में उत्पन्न होते हैं-<blockquote>कर्मजा हि शरीरेषु रोगाः शरीरमानसाः। शरा इव पतन्तीह विमुखा दृढधन्विभिः॥</blockquote>चरक संहिता की व्याख्या में श्रीचक्रपाणिदत्त ने लिखा है कि शारीरिक रोग कुष्ठादि हैं, मानसिक रोग कामादि हैं और शरीर मन दोनों से उत्पत्न रोग उन्माद होता है। शरीर की रक्षा संसार की सभी वस्तुओं को समर्पित करके करनी चाहिए।
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आयुर्वेद दिनचर्या, ऋतुचर्या, आहार-विहार को निर्देशित करके स्वास्थ्य हेतु शुभ एवं कल्याणकारी पथ दिखलाता है। आयुर्वेद की परम्परा वेद से आरम्भ होने के कारण अत्यन्त प्राचीन है। आयुर्वेद से उपदिष्ट मार्ग पर चलता हआ व्यक्ति यदि तपस्वी हो तो शतायु की सीमाओं को भी लाँघ जाता है। तपस्या, आत्मनियन्त्रण, सम्यक् चर्या और आहार-विहार से व्यक्ति इच्छित आयु प्राप्त कर लेता हे। मुनिप्रवर व्यासजी ने कहा है-<blockquote>पुरुषाः सर्वसिद्धाश्च चतुर्वर्षशतायुषः। कृते त्रेतादिकेऽप्येवं पादशो हृसति क्रमात्॥</blockquote>कृत (सत्य) युग में पुरुष चार सौ वर्ष की आयु वाले होते थे। वे सर्वसिद्ध होते थे। त्रेता मे तीन सौ वर्ष, द्वापर में दो सौ वर्ष और कलियुग में सौ वर्ष या इससे कम आयु के होते हैं। पुरुष का अर्थ है- पुर अर्थात् शरीर मे सोने वाला चेतन तत्व (आत्मा)। यही पुरुष कहलाता हे। अतः स्त्री-पुरुष जनित भेद आत्मा में उपलब्ध नहीं होता है। रोग अपने ही कर्म से शरीर और मन दोनों में उत्पन्न होते हैं-<blockquote>कर्मजा हि शरीरेषु रोगाः शरीरमानसाः। शरा इव पतन्तीह विमुखा दृढधन्विभिः॥</blockquote>चरक संहिता की व्याख्या में श्रीचक्रपाणिदत्त ने लिखा है कि शारीरिक रोग कुष्ठादि हैं, मानसिक रोग कामादि हैं और शरीर मन दोनों से उत्पत्न रोग उन्माद होता है। शरीर की रक्षा संसार की सभी वस्तुओं को समर्पित करके करनी चाहिए।
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==== विद्यार्थी की दिनचर्या ====
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====विद्यार्थी की दिनचर्या====
 
समय पर सोना एवं समय पर जागना, वह स्वस्थ और दीर्घायुमान बने। ऐसी शिक्षा पूर्वकाल में बच्चों को दी जाती थी। आजकल बच्चे विलंब से सोते और उठते हैं। प्राचीनकाल में ऋषि-मुनियों का दिन ब्राह्ममुहूर्त से आरंभ होता था परन्तु आज वर्तमान काल में रात्रि में कार्य और दिन में नींद होती है। पूर्वकाल की दिनचर्या प्रकृति के अनुरूप थी। दिनचर्या जितनी अधिक प्रकृति के अनुरूप होगी उतनी ही स्वास्थ्य के लिये पूरक होती है। शास्त्रोक्त आचारों के पालन से रज एवं तम गुण न्यून होते एवं सत्वगुण में वृद्धि होती है। ज्ञानयोग, कर्मयोग आदि साधन मार्गों की तरह ही धार्मिक दिनचर्या भी उत्तम मार्ग प्रशस्त करती है।<blockquote>शरीरं चैव वाचं च बुद्धीन्द्रिय मनांसि च। नियम्य प्राञ्जलिस्तिष्ठेद् वीक्षमाणो गुरोर्मुखम् ॥
 
समय पर सोना एवं समय पर जागना, वह स्वस्थ और दीर्घायुमान बने। ऐसी शिक्षा पूर्वकाल में बच्चों को दी जाती थी। आजकल बच्चे विलंब से सोते और उठते हैं। प्राचीनकाल में ऋषि-मुनियों का दिन ब्राह्ममुहूर्त से आरंभ होता था परन्तु आज वर्तमान काल में रात्रि में कार्य और दिन में नींद होती है। पूर्वकाल की दिनचर्या प्रकृति के अनुरूप थी। दिनचर्या जितनी अधिक प्रकृति के अनुरूप होगी उतनी ही स्वास्थ्य के लिये पूरक होती है। शास्त्रोक्त आचारों के पालन से रज एवं तम गुण न्यून होते एवं सत्वगुण में वृद्धि होती है। ज्ञानयोग, कर्मयोग आदि साधन मार्गों की तरह ही धार्मिक दिनचर्या भी उत्तम मार्ग प्रशस्त करती है।<blockquote>शरीरं चैव वाचं च बुद्धीन्द्रिय मनांसि च। नियम्य प्राञ्जलिस्तिष्ठेद् वीक्षमाणो गुरोर्मुखम् ॥
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ब्राह्ममुहूर्त में उठ कर स्नान-संध्या-वन्दन-गायत्री जप करके तप से परिपूर्ण जीवनचर्या का शुभारम्भ करें। सरस्वती और गणेश देवता को प्रणाम करें। योगासन और व्यायाम हितकारी मात्रा में करें। शरीर, मन, वाणी, बुद्धि, इन्द्रियों को एकाग्र करके गुरु मुख की ओर देखते हुए विद्या को आत्मसात् करना चाहिए। सत्य, ब्रह्मचर्य, व्यायाम, विद्या, देशभक्ति और आत्म त्याग के द्वारा विद्यार्थी को हमेशा सम्मान प्राप्त करना चाहिए।
 
ब्राह्ममुहूर्त में उठ कर स्नान-संध्या-वन्दन-गायत्री जप करके तप से परिपूर्ण जीवनचर्या का शुभारम्भ करें। सरस्वती और गणेश देवता को प्रणाम करें। योगासन और व्यायाम हितकारी मात्रा में करें। शरीर, मन, वाणी, बुद्धि, इन्द्रियों को एकाग्र करके गुरु मुख की ओर देखते हुए विद्या को आत्मसात् करना चाहिए। सत्य, ब्रह्मचर्य, व्यायाम, विद्या, देशभक्ति और आत्म त्याग के द्वारा विद्यार्थी को हमेशा सम्मान प्राप्त करना चाहिए।
== श्रीरामजी की दिनचर्या ==
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==श्रीरामजी की दिनचर्या==
 
प्रातः जागरण से लेकर रात्रि शयन पर्यंत व्यक्तिविशेष द्वारा किए जानेवाले कार्य या आचार-विचार ही उसकी दैनिकचर्या की संज्ञा से अभिहित होते हैं।  श्रीरामचंद्रजी की दिनचर्या सुनियमित एवं शास्त्रोक्त विधिकी अनुसारिणी थी। दिनचर्या का आरंभ अनेक प्रकारके धार्मिक कृत्योंसे होता था। प्रातःजागरण के उपरान्त स्नानादिसे निवृत्त होकर देवताओंका तर्पण, सन्ध्योपासना तथा मन्त्रजप आदि उनकी दिनचर्या का अभिन्न अंग था। रामायण में वर्णित श्री राम जी की आदर्श दिनचर्या समस्त मानवमात्र के लिए मननीय एवं अनुकरणीय है।<blockquote>प्रभातकाले चोत्थाय पूर्वां सन्ध्यामुपास्य च। प्रशुची परमं जाप्यं समाप्य नियमेन च॥ हुताग्निहोत्रमासीनं विश्वामित्रमवन्दताम् ॥</blockquote>
 
प्रातः जागरण से लेकर रात्रि शयन पर्यंत व्यक्तिविशेष द्वारा किए जानेवाले कार्य या आचार-विचार ही उसकी दैनिकचर्या की संज्ञा से अभिहित होते हैं।  श्रीरामचंद्रजी की दिनचर्या सुनियमित एवं शास्त्रोक्त विधिकी अनुसारिणी थी। दिनचर्या का आरंभ अनेक प्रकारके धार्मिक कृत्योंसे होता था। प्रातःजागरण के उपरान्त स्नानादिसे निवृत्त होकर देवताओंका तर्पण, सन्ध्योपासना तथा मन्त्रजप आदि उनकी दिनचर्या का अभिन्न अंग था। रामायण में वर्णित श्री राम जी की आदर्श दिनचर्या समस्त मानवमात्र के लिए मननीय एवं अनुकरणीय है।<blockquote>प्रभातकाले चोत्थाय पूर्वां सन्ध्यामुपास्य च। प्रशुची परमं जाप्यं समाप्य नियमेन च॥ हुताग्निहोत्रमासीनं विश्वामित्रमवन्दताम् ॥</blockquote>
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== ऊर्जाचक्र एवं दिनचर्या ==
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==ऊर्जाचक्र एवं दिनचर्या==
 
मनुष्यकी दिनचर्याका प्रारम्भ निद्रा-त्यागसे और समापन निद्रा आने के साथ होता है। स्वस्थ रहनेकी कामना रखनेवालोंको शरीरमें कौन-से अंग और क्रिया कब विशेष सक्रिय होती हैं, इस बात का ध्यान रखना चाहिये। यदि हम प्रकृतिके अनुरूप दिनचर्याको निर्धारित करें हम स्वस्थ रह सकते हैं। दिनचर्याका निर्माण इस प्रकार करना चाहिये जिससे शरीरके अंगोंकी क्षमताओंका अधिकतम उपयोग हो। शरीरके सभी अंगोंमें प्राण-ऊर्जाका प्रवाह वैसे तो चौबीसों घण्टे होता है परंतु सभी समय एक-सा ऊर्जाका प्रवाह नहीं होता। प्रायः प्रत्येक अंग कुछ समयके लिये अपेक्षाकृत कम सक्रिय होते हैं।<ref name=":0" />
 
मनुष्यकी दिनचर्याका प्रारम्भ निद्रा-त्यागसे और समापन निद्रा आने के साथ होता है। स्वस्थ रहनेकी कामना रखनेवालोंको शरीरमें कौन-से अंग और क्रिया कब विशेष सक्रिय होती हैं, इस बात का ध्यान रखना चाहिये। यदि हम प्रकृतिके अनुरूप दिनचर्याको निर्धारित करें हम स्वस्थ रह सकते हैं। दिनचर्याका निर्माण इस प्रकार करना चाहिये जिससे शरीरके अंगोंकी क्षमताओंका अधिकतम उपयोग हो। शरीरके सभी अंगोंमें प्राण-ऊर्जाका प्रवाह वैसे तो चौबीसों घण्टे होता है परंतु सभी समय एक-सा ऊर्जाका प्रवाह नहीं होता। प्रायः प्रत्येक अंग कुछ समयके लिये अपेक्षाकृत कम सक्रिय होते हैं।<ref name=":0" />
 
{| class="wikitable"
 
{| class="wikitable"
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|3.
 
|3.
 
|प्रातः 7 बजेसे 9 बजे तक।
 
|प्रातः 7 बजेसे 9 बजे तक।
|आमाशय (स्टमक)-में प्राण ऊर्जाका प्रवाह सर्वाधिक।  
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|आमाशय (स्टमक)-में प्राण ऊर्जाका प्रवाह सर्वाधिक।
|प्रातः ७ बजेसे ९ बजे तक आमाशय (स्टमक)- में प्राण-ऊर्जा का प्रभाव सर्वाधिक होता है। इस समय तक बडी आँत की सफाई हो जाने से पाचन आसानी से होता है। अतः इस समय हमें भोजन करना चाहिये। प्रातः भोजन करने से पाचन अच्छी तरह से होता है और हम पाचन सम्बन्धी रोगों से सहज ही बचे रहते हैं। ९ बजेतक भोजन करने से रक्त-परिसंचरण अच्छा होता है और हम अपने-आपको ऊर्जित महसूस करते हैं।
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| प्रातः ७ बजेसे ९ बजे तक आमाशय (स्टमक)- में प्राण-ऊर्जा का प्रभाव सर्वाधिक होता है। इस समय तक बडी आँत की सफाई हो जाने से पाचन आसानी से होता है। अतः इस समय हमें भोजन करना चाहिये। प्रातः भोजन करने से पाचन अच्छी तरह से होता है और हम पाचन सम्बन्धी रोगों से सहज ही बचे रहते हैं। ९ बजेतक भोजन करने से रक्त-परिसंचरण अच्छा होता है और हम अपने-आपको ऊर्जित महसूस करते हैं।
 
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|प्रातः 9 बजेसे 11 बजे तक।
 
|प्रातः 9 बजेसे 11 बजे तक।
|स्प्लीन(तिल्ली) और पैन्क्रियाजकी सबसे अधिक सक्रियता का समय।  
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|स्प्लीन(तिल्ली) और पैन्क्रियाजकी सबसे अधिक सक्रियता का समय।
 
|इसी समय हमारे शरीरमें  पेन्क्रियाटिक रस तथा इन्सुलिन सबसे ज्यादा बनता है। इन रसों का पाचन में विशेष महत्व है। अतः जो डायबिटीज या किसी पाचनरोग से ग्रस्त हैं, उन्हैं इस समय तक भोजन अवश्य कर लेना चाहिये।
 
|इसी समय हमारे शरीरमें  पेन्क्रियाटिक रस तथा इन्सुलिन सबसे ज्यादा बनता है। इन रसों का पाचन में विशेष महत्व है। अतः जो डायबिटीज या किसी पाचनरोग से ग्रस्त हैं, उन्हैं इस समय तक भोजन अवश्य कर लेना चाहिये।
 
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|7.
 
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|दोपहर 3 बजे से 5 बजे तक।
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| दोपहर 3 बजे से 5 बजे तक।
 
|यूरेनरी ब्लेडर(मूत्राशय) में सर्वाधिक प्राण ऊर्जा का प्रवाह।
 
|यूरेनरी ब्लेडर(मूत्राशय) में सर्वाधिक प्राण ऊर्जा का प्रवाह।
 
|इस अंगका मुख्य कार्य जल तथा द्रव पदार्थोंका नियन्त्रण करना है।
 
|इस अंगका मुख्य कार्य जल तथा द्रव पदार्थोंका नियन्त्रण करना है।
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|12.
 
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|रात्रि 1 बजे से 3 बजे तक।
 
|रात्रि 1 बजे से 3 बजे तक।
|लीवरमें सर्वाधिक ऊर्जा का प्रवाह।  
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|लीवरमें सर्वाधिक ऊर्जा का प्रवाह।
 
|लीवर हमारे शरीरका मुख्य अंग है। इस समय पूर्ण विश्राम करना चाहिये। यह गहरी निद्राका समय है, इस समय बाहरका वातावरण भी शान्त हो, तभी ये अंग प्रकृतिसे प्राप्त विशेष ऊर्जाको ग्रहण कर सकते हैं। यदि आप देर राततक जगते हैं तो पित्तसम्बन्धी विकार होता है, नेत्रोंपर बुरा प्रभाव पड़ता है, स्वभाव चिड़चिड़ा हो जाता है तथा व्यक्ति जिद्दी हो जाते हैं। यदि किसी कारण देर राततक जगना पड़े तो हर १ घण्टेके बाद १ गिलास पानी पीते रहना चाहिये।
 
|लीवर हमारे शरीरका मुख्य अंग है। इस समय पूर्ण विश्राम करना चाहिये। यह गहरी निद्राका समय है, इस समय बाहरका वातावरण भी शान्त हो, तभी ये अंग प्रकृतिसे प्राप्त विशेष ऊर्जाको ग्रहण कर सकते हैं। यदि आप देर राततक जगते हैं तो पित्तसम्बन्धी विकार होता है, नेत्रोंपर बुरा प्रभाव पड़ता है, स्वभाव चिड़चिड़ा हो जाता है तथा व्यक्ति जिद्दी हो जाते हैं। यदि किसी कारण देर राततक जगना पड़े तो हर १ घण्टेके बाद १ गिलास पानी पीते रहना चाहिये।
 
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लीवरसे प्राण-ऊर्जा वापस फेफड़ोंमें चली जाती है। इस तरह प्राण-ऊर्जा चौबीस घण्टे अनवरत रूपसे चलती रहती है। आजकल व्यक्तिका जीवन प्रकृतिके विपरीत हो रहा है। सूर्योदय एवं सूर्यास्तका समय उनकी दिनचर्याके अनुरूप नहीं होता। इसलिये रोग बढ़ रहे हैं। यदि हम प्रकृतिके नियमोंका पालन करें तो हम निरोग रहेंगे और १०० वर्षतक रोगमुक्त होकर जियेंगे।
 
लीवरसे प्राण-ऊर्जा वापस फेफड़ोंमें चली जाती है। इस तरह प्राण-ऊर्जा चौबीस घण्टे अनवरत रूपसे चलती रहती है। आजकल व्यक्तिका जीवन प्रकृतिके विपरीत हो रहा है। सूर्योदय एवं सूर्यास्तका समय उनकी दिनचर्याके अनुरूप नहीं होता। इसलिये रोग बढ़ रहे हैं। यदि हम प्रकृतिके नियमोंका पालन करें तो हम निरोग रहेंगे और १०० वर्षतक रोगमुक्त होकर जियेंगे।
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== उद्धरण॥ References ==
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==उद्धरण॥ References==
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[[Category:Dharmas]]
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[[Category:Ayurved]]

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