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समग्र विकास की धार्मिक (भारतीय) संकल्पना एकात्म मानव दर्शन में पं. दीनदयालजी उपाध्याय बताते हैं – व्यक्तिगत विकास, समष्टिगत विकास और सृष्टिगत विकास तीनों का मिलकर समग्र विकास होता है। सृष्टिगत विकास होने से आगे का परमेष्ठीगत विकास अपने आप ही हो जाता है। इसी को हमारे पूर्वज मोक्ष कहा करते थे। मुक्ति कहते थे। परमात्मपद प्राप्ति कहते थे।  
 
समग्र विकास की धार्मिक (भारतीय) संकल्पना एकात्म मानव दर्शन में पं. दीनदयालजी उपाध्याय बताते हैं – व्यक्तिगत विकास, समष्टिगत विकास और सृष्टिगत विकास तीनों का मिलकर समग्र विकास होता है। सृष्टिगत विकास होने से आगे का परमेष्ठीगत विकास अपने आप ही हो जाता है। इसी को हमारे पूर्वज मोक्ष कहा करते थे। मुक्ति कहते थे। परमात्मपद प्राप्ति कहते थे।  
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पुरुषार्थ चतुष्ट्य के धर्म, अर्थ और काम इन पुरुषार्थों के अनुपालन से चौथे पुरुषार्थ की याने मोक्ष की प्राप्ति होती है। धर्म के अनुकूल जब अर्थ और काम होते हैं तब ही मोक्ष प्राप्ति भी होती है और भौतिक उन्नति भी होती है। इसीलिये यतोऽभ्युदय नि:श्रेयस सिद्धि स धर्म: ऐसी धर्म की व्याख्या वैशेषिक दर्शन में की गयी है। अभ्युदय की प्राप्ति के लिए समाज में परस्पर संवाद सहजता से होना आवश्यक होता है। यह संवाद समान जीवनदृष्टि वाले लोगों में सहज होता है। समाज की जीवन दृष्टि के अगली पीढी में संक्रमण के लिए सक्षम भाषा की आवश्यकता होती है। इसी दृष्टि से विकसित उनकी भाषा के माध्यम से उनकी मान्यताओं की सहज अभिव्यक्ति और अभिसरण दोनों हो सकते हैं।  
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पुरुषार्थ चतुष्ट्य के धर्म, अर्थ और काम इन पुरुषार्थों के अनुपालन से चौथे पुरुषार्थ की याने मोक्ष की प्राप्ति होती है। धर्म के अनुकूल जब अर्थ और काम होते हैं तब ही मोक्ष प्राप्ति भी होती है और भौतिक उन्नति भी होती है। इसीलिये यतोऽभ्युदय नि:श्रेयस सिद्धि स धर्म: ऐसी धर्म की व्याख्या वैशेषिक दर्शन में की गयी है। अभ्युदय की प्राप्ति के लिए समाज में परस्पर संवाद सहजता से होना आवश्यक होता है। यह संवाद समान जीवनदृष्टि वाले लोगोंं में सहज होता है। समाज की जीवन दृष्टि के अगली पीढी में संक्रमण के लिए सक्षम भाषा की आवश्यकता होती है। इसी दृष्टि से विकसित उनकी भाषा के माध्यम से उनकी मान्यताओं की सहज अभिव्यक्ति और अभिसरण दोनों हो सकते हैं।  
    
== वाणी के चार स्तर ==
 
== वाणी के चार स्तर ==
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# मोक्ष से जुडी संकल्पनाएं : विश्व के अन्य समाज स्वर्ग और नरक की कल्पना से आगे बढ नहीं पाए है । वर्तमान विज्ञान भी जड जगत के आगे चेतना तक नहीं पहुंच पाया है। धार्मिक (भारतीय) मान्यता के अनुसार तो वास्तव में जड कुछ है ही नहीं। जब अखंड और अनंत चैतन्य परमात्मतत्त्व से सभी सृष्टि का जन्म हुआ है तो कोई भी वस्तू जड़ कैसे हो सकती है। ऊपर शब्दावली के संदर्भ में दिये शब्दों की संकल्पनाएं समझने के लिये धार्मिक (भारतीय) भाषाएं और उस में भी संस्कृत का ही आधार लेना पड़ता है।  
 
# मोक्ष से जुडी संकल्पनाएं : विश्व के अन्य समाज स्वर्ग और नरक की कल्पना से आगे बढ नहीं पाए है । वर्तमान विज्ञान भी जड जगत के आगे चेतना तक नहीं पहुंच पाया है। धार्मिक (भारतीय) मान्यता के अनुसार तो वास्तव में जड कुछ है ही नहीं। जब अखंड और अनंत चैतन्य परमात्मतत्त्व से सभी सृष्टि का जन्म हुआ है तो कोई भी वस्तू जड़ कैसे हो सकती है। ऊपर शब्दावली के संदर्भ में दिये शब्दों की संकल्पनाएं समझने के लिये धार्मिक (भारतीय) भाषाएं और उस में भी संस्कृत का ही आधार लेना पड़ता है।  
 
# कहावतें और मुहावरे : हमारी भाषाएं मोक्ष कल्पना से जुडी कई कहावतों और मुहावरों से भरी पडी है। कई संस्कृत की उक्तियों का उपयोग जस का तस अपनी भिन्न भिन्न धार्मिक (भारतीय) भाषाओं में किया जाता है। जैसे आत्मनो मोक्षार्थं जगद् हिताय च, विश्वं पुष्टं अस्मिन् ग्रामे अनातुरम्, सच्चिदानंद, आत्माराम, प्राणपखेरू उड जाना, पंचत्व में विलीन हो जाना, सात्म्य पाना, जैसी करनी वैसी भरनी, मुंह में राम बगल में छुरी, काया, वाचा, मनसा किये कर्मों का फल, परहितसम पुण्य नहीं भाई परपीडासम नहीं अधमाई, कायोत्सर्ग, परकायाप्रवेश करना आदि ।  
 
# कहावतें और मुहावरे : हमारी भाषाएं मोक्ष कल्पना से जुडी कई कहावतों और मुहावरों से भरी पडी है। कई संस्कृत की उक्तियों का उपयोग जस का तस अपनी भिन्न भिन्न धार्मिक (भारतीय) भाषाओं में किया जाता है। जैसे आत्मनो मोक्षार्थं जगद् हिताय च, विश्वं पुष्टं अस्मिन् ग्रामे अनातुरम्, सच्चिदानंद, आत्माराम, प्राणपखेरू उड जाना, पंचत्व में विलीन हो जाना, सात्म्य पाना, जैसी करनी वैसी भरनी, मुंह में राम बगल में छुरी, काया, वाचा, मनसा किये कर्मों का फल, परहितसम पुण्य नहीं भाई परपीडासम नहीं अधमाई, कायोत्सर्ग, परकायाप्रवेश करना आदि ।  
# लोगों के नाम : जितनी संख्या में भारतवर्ष में राम, कृष्ण और शंकर इन तीन देवों के भिन्न भिन्न नामों के लोग पाये जाते है उतनी बडी संख्या में शायद ही विश्व में अन्य कोई नाम पाये जाते होंगे । यह नाम रखने के पीछे माता-पिता की भावना बच्चे उन देवताओं जैसे सर्वहितकारी बनें ऐसी हुआ करती है । अच्छे नामों को तोडकर मरोडकर कहना यह धार्मिक (भारतीय) समाज की रीति नहीं है।  
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# लोगोंं के नाम : जितनी संख्या में भारतवर्ष में राम, कृष्ण और शंकर इन तीन देवों के भिन्न भिन्न नामों के लोग पाये जाते है उतनी बडी संख्या में शायद ही विश्व में अन्य कोई नाम पाये जाते होंगे । यह नाम रखने के पीछे माता-पिता की भावना बच्चे उन देवताओं जैसे सर्वहितकारी बनें ऐसी हुआ करती है । अच्छे नामों को तोडकर मरोडकर कहना यह धार्मिक (भारतीय) समाज की रीति नहीं है।  
    
=== भारतीय सांस्कृतिक और सामाजिक मान्यताओं की संवाहक ===
 
=== भारतीय सांस्कृतिक और सामाजिक मान्यताओं की संवाहक ===
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धर्म, संस्कृति, राष्ट्र, संस्कार, परमात्मा, मोक्ष, एकात्मता जैसी संकल्पनाएं अन्य समाजों की भाषाओं में नहीं है । ना ही इन संकल्पनाओं की अभिव्यक्ति के लिये उचित शब्द। अन्य भाषाओ के माध्यम से पढने से हमारे बच्चे इन मूलभूत धार्मिक (भारतीय) संकल्पनाओं से अर्थात् मूल धार्मिक (भारतीय) तत्व से अपरिचित रह जाते है।  
 
धर्म, संस्कृति, राष्ट्र, संस्कार, परमात्मा, मोक्ष, एकात्मता जैसी संकल्पनाएं अन्य समाजों की भाषाओं में नहीं है । ना ही इन संकल्पनाओं की अभिव्यक्ति के लिये उचित शब्द। अन्य भाषाओ के माध्यम से पढने से हमारे बच्चे इन मूलभूत धार्मिक (भारतीय) संकल्पनाओं से अर्थात् मूल धार्मिक (भारतीय) तत्व से अपरिचित रह जाते है।  
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विदेशी भाषा के माध्यम से शिक्षा देना एक सामाजिक अपराध है । यह विषय सामान्य लोगों द्वारा निर्णय करने का नहीं है। ऐसे मामलों में लोकतंत्रात्मक पद्दति अपनाने से जनता का अपरिमित नुकसान होता है। समाज एक कुटुम्ब जैसा ही होता है । इस में कुछ बडे (समझदार, ज्ञानी) लोग होते हैं। लेकिन बडी संख्या अज्ञानियों की होती है । घर में जैसे जो सज्ञान (केवल आयु से नहीं तो ज्ञान, अनुभव आदि से सज्ञान) होते है, वही सब के हित को ध्यान मे रखकर निर्णय लेते है। घर के सब लोग उस निर्णय के अनुसार व्यवहार करते है। भोजन में, खाने के लिये क्या हो इस बात का निर्णय नासमझ बच्चों के मत (लोकतांत्रिक प्रणाली के अनुसार मतदान) के अनुसार तय नहीं किया जा सकता। इसी प्रकार शिक्षा का माध्यम कौन सी भाषा हो इसका निर्णय लोकतांत्रिक ढंग से नहीं लिया जा सकता । यह निर्णय करना, वोट बैंक की राजनीति करनेवाले राजनीतिक दलों का या सरकार का काम नहीं है । यह निर्भय, नि:स्वार्थ और विद्वान शिक्षाविदों का काम है ।  
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विदेशी भाषा के माध्यम से शिक्षा देना एक सामाजिक अपराध है । यह विषय सामान्य लोगोंं द्वारा निर्णय करने का नहीं है। ऐसे मामलों में लोकतंत्रात्मक पद्दति अपनाने से जनता का अपरिमित नुकसान होता है। समाज एक कुटुम्ब जैसा ही होता है । इस में कुछ बडे (समझदार, ज्ञानी) लोग होते हैं। लेकिन बडी संख्या अज्ञानियों की होती है । घर में जैसे जो सज्ञान (केवल आयु से नहीं तो ज्ञान, अनुभव आदि से सज्ञान) होते है, वही सब के हित को ध्यान मे रखकर निर्णय लेते है। घर के सब लोग उस निर्णय के अनुसार व्यवहार करते है। भोजन में, खाने के लिये क्या हो इस बात का निर्णय नासमझ बच्चों के मत (लोकतांत्रिक प्रणाली के अनुसार मतदान) के अनुसार तय नहीं किया जा सकता। इसी प्रकार शिक्षा का माध्यम कौन सी भाषा हो इसका निर्णय लोकतांत्रिक ढंग से नहीं लिया जा सकता । यह निर्णय करना, वोट बैंक की राजनीति करनेवाले राजनीतिक दलों का या सरकार का काम नहीं है । यह निर्भय, नि:स्वार्थ और विद्वान शिक्षाविदों का काम है ।  
    
=== अंग्रेजी या योरप की अन्य भाषा को शिक्षा का माध्यम बनाने के सांस्कृतिक दुष्परिणाम ===
 
=== अंग्रेजी या योरप की अन्य भाषा को शिक्षा का माध्यम बनाने के सांस्कृतिक दुष्परिणाम ===
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=== अंग्रेजी भाषा को हटाकर धार्मिक (भारतीय) भाषाओं को शिक्षा का माध्यम बनाने की उपाय योजना ===
 
=== अंग्रेजी भाषा को हटाकर धार्मिक (भारतीय) भाषाओं को शिक्षा का माध्यम बनाने की उपाय योजना ===
भारतीय भाषाएं वर्तमान में अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है। और अस्तित्व का यह संकट अग्रेजी भाषा को शिक्षा के माध्यम के स्वरूप में अपनाने की सामान्य लोगों की मानसिकता के कारण है। इस लड़ाई को लड़ाई के धर्म के अनुसार लड़ना होगा । धार्मिक (भारतीय) संस्कृति धर्मपर आधारित होने से यह धर्मयुद्ध होगा। अर्थात् अंग्रेजी भाषा से हमारी कोई लड़ाई नहीं है । हमारी लड़ाई है अंग्रेजी को शिक्षा का माध्यम बनाने के विरोध में।  
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भारतीय भाषाएं वर्तमान में अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है। और अस्तित्व का यह संकट अग्रेजी भाषा को शिक्षा के माध्यम के स्वरूप में अपनाने की सामान्य लोगोंं की मानसिकता के कारण है। इस लड़ाई को लड़ाई के धर्म के अनुसार लड़ना होगा । धार्मिक (भारतीय) संस्कृति धर्मपर आधारित होने से यह धर्मयुद्ध होगा। अर्थात् अंग्रेजी भाषा से हमारी कोई लड़ाई नहीं है । हमारी लड़ाई है अंग्रेजी को शिक्षा का माध्यम बनाने के विरोध में।  
    
अंग्रेजी भाषा का एक प्रबल बलस्थान निम्न है। विश्व के बहुत बडे हिस्से में, दर्जनों देशों में अंग्रेजों के उपनिवेश रहे हैं। हर उपनिवेश में अंग्रेजों ने अपनी संस्कृति, अपनी भाषा को स्थानिक समाज पर थोपने के सफल प्रयास किये। इसी का परिणाम है कि कई देशों ने जैसे अमरिका, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया आदि देशों की संस्कृति और सामान्य व्यवहार की भाषा अंग्रेजी बन गई। धार्मिक (भारतीय) संस्कृति मे उपनिवेषवाद को कोई स्थान नहीं है । इसलिये यह अंग्रेजी का ऐसा बलस्थान है जिसे हम उसी ढंग से उत्तर नहीं दे सकते। अर्थात् इंग्लैण्ड को अपना उपनिवेश बनाकर नहीं दे सकते। इस बल स्थान को हमें धार्मिक (भारतीय) भाषाओं के अन्य बल स्थानों के बल पर ही परास्त करना होगा ।  
 
अंग्रेजी भाषा का एक प्रबल बलस्थान निम्न है। विश्व के बहुत बडे हिस्से में, दर्जनों देशों में अंग्रेजों के उपनिवेश रहे हैं। हर उपनिवेश में अंग्रेजों ने अपनी संस्कृति, अपनी भाषा को स्थानिक समाज पर थोपने के सफल प्रयास किये। इसी का परिणाम है कि कई देशों ने जैसे अमरिका, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया आदि देशों की संस्कृति और सामान्य व्यवहार की भाषा अंग्रेजी बन गई। धार्मिक (भारतीय) संस्कृति मे उपनिवेषवाद को कोई स्थान नहीं है । इसलिये यह अंग्रेजी का ऐसा बलस्थान है जिसे हम उसी ढंग से उत्तर नहीं दे सकते। अर्थात् इंग्लैण्ड को अपना उपनिवेश बनाकर नहीं दे सकते। इस बल स्थान को हमें धार्मिक (भारतीय) भाषाओं के अन्य बल स्थानों के बल पर ही परास्त करना होगा ।  
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=== अपनी भाषा में अन्य भाषा के शब्दों को लेने से भाषा समृद्धि या प्रदूषण ===
 
=== अपनी भाषा में अन्य भाषा के शब्दों को लेने से भाषा समृद्धि या प्रदूषण ===
अपनी भाषा में बात करते समय अंग्रेजी शब्दों का उस में जहाँ तहाँ उपयोग करना यह सामान्य लोगों की आदत बन गई है । उस के समर्थन मे कहा जाता है की ‘ऐसा करने से हमारी भाषा समृद्ध बनती है’। अंग्रेजी भाषा का उदाहरण दिया जाता है। अंग्रेजी भाषा भिन्न भिन्न भाषाओं से ऐसे शब्द लेती रहती है। अंग्रेजी शब्दकोष के हर नये प्रकाशन में ऐसे अन्य भाषाओं से लिये शब्द मिलते है । अंग्रेजी जैसी अवैज्ञानिक (आर्बिट्रेरी) भाषा के लिये यह ठीक हो सकता है । हमारी भाषाओं के लिये नहीं। हमारी भाषाओं के शब्दों का निर्माण शास्त्रीय पद्दति से होता है। अंग्रेजी शब्दों का उपयोग और समावेश हमारी भाषाओं में करने से हमारी भाषाएं प्रदूषित होती हैं। इसलिये अपनी भाषा में बोलते/लिखते समय हम यह विशेष रूप से देखें की अंग्रेजी या उर्दू भाषा के शब्दों का उपयोग कर हम अपनी भाषा को प्रदूषित तो नहीं कर रहे? ऐसा करते हों तो इसे अविलंब रोकने का प्रयास करना आवश्यक है ।
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अपनी भाषा में बात करते समय अंग्रेजी शब्दों का उस में जहाँ तहाँ उपयोग करना यह सामान्य लोगोंं की आदत बन गई है । उस के समर्थन मे कहा जाता है की ‘ऐसा करने से हमारी भाषा समृद्ध बनती है’। अंग्रेजी भाषा का उदाहरण दिया जाता है। अंग्रेजी भाषा भिन्न भिन्न भाषाओं से ऐसे शब्द लेती रहती है। अंग्रेजी शब्दकोष के हर नये प्रकाशन में ऐसे अन्य भाषाओं से लिये शब्द मिलते है । अंग्रेजी जैसी अवैज्ञानिक (आर्बिट्रेरी) भाषा के लिये यह ठीक हो सकता है । हमारी भाषाओं के लिये नहीं। हमारी भाषाओं के शब्दों का निर्माण शास्त्रीय पद्दति से होता है। अंग्रेजी शब्दों का उपयोग और समावेश हमारी भाषाओं में करने से हमारी भाषाएं प्रदूषित होती हैं। इसलिये अपनी भाषा में बोलते/लिखते समय हम यह विशेष रूप से देखें की अंग्रेजी या उर्दू भाषा के शब्दों का उपयोग कर हम अपनी भाषा को प्रदूषित तो नहीं कर रहे? ऐसा करते हों तो इसे अविलंब रोकने का प्रयास करना आवश्यक है ।
    
=== पहली कक्षा से अंग्रेजी सीखने का आग्रह और बलप्रयोग सामाजिक अपराध है ===
 
=== पहली कक्षा से अंग्रेजी सीखने का आग्रह और बलप्रयोग सामाजिक अपराध है ===
 
# अंग्रेजी भाषा नहीं आती इसलिये विद्यालयों की शिक्षा से वंचित रहनेवाले बच्चों की संख्या लक्षणीय है। इन बच्चों को शिक्षा से वंचित रखने का अधिकार किसी को भी नहीं है। यह समाजद्रोह है।
 
# अंग्रेजी भाषा नहीं आती इसलिये विद्यालयों की शिक्षा से वंचित रहनेवाले बच्चों की संख्या लक्षणीय है। इन बच्चों को शिक्षा से वंचित रखने का अधिकार किसी को भी नहीं है। यह समाजद्रोह है।
# अंग्रेजी मे संवाद की अनिवार्यता वाले देशों की संख्या विश्व में मुश्किल से दर्जनभर है। अन्य सभी देशों के साथ उन देशों की भाषा में ही संवाद होता है। हमारी जनता के मुश्किल से ०.१ प्रतिशत लोगों का ही शायद इन अंग्रेजी भाषी दर्जनभर देशों से व्यवहार चलता है। इस ०.१ प्रतिशत लोगों को अच्छी अंग्रेजी आना आवश्यक है। किंतु इस ०.१ प्रतिशत समाज के लिये बाकी के ९९.९ प्रतिशत लोगोंपर अंग्रेजी थोपना अनावश्यक ही नहीं, सामाजिक प्रतिभा की ह्त्या करने का सामाजिक अपराध भी है।
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# अंग्रेजी मे संवाद की अनिवार्यता वाले देशों की संख्या विश्व में मुश्किल से दर्जनभर है। अन्य सभी देशों के साथ उन देशों की भाषा में ही संवाद होता है। हमारी जनता के मुश्किल से ०.१ प्रतिशत लोगोंं का ही शायद इन अंग्रेजी भाषी दर्जनभर देशों से व्यवहार चलता है। इस ०.१ प्रतिशत लोगोंं को अच्छी अंग्रेजी आना आवश्यक है। किंतु इस ०.१ प्रतिशत समाज के लिये बाकी के ९९.९ प्रतिशत लोगोंंपर अंग्रेजी थोपना अनावश्यक ही नहीं, सामाजिक प्रतिभा की ह्त्या करने का सामाजिक अपराध भी है।
    
== संपर्क भाषा की समस्या ==
 
== संपर्क भाषा की समस्या ==

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