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इसी का वर्णन अर्वाचीन वैज्ञानिक आयझॅक न्यूटन अपने गति के नियम में करता है - Every particle of matter continues to be in a state of rest or motion with a constant speed in a straight line unless compelled by an external force to change its state.
 
इसी का वर्णन अर्वाचीन वैज्ञानिक आयझॅक न्यूटन अपने गति के नियम में करता है - Every particle of matter continues to be in a state of rest or motion with a constant speed in a straight line unless compelled by an external force to change its state.
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जड़ और चेतन में अंतर है चेतना के स्तरका। और इस स्तर के कारण आनेवाली मन, बुद्धि और अहंकार की सक्रीयता का। सृष्टि के सभी अस्तित्वों में अष्टधा प्रकृति होती ही है फिर वह धातू हो, वनस्पति हो, प्राणी हो या मानव। मानव में चेतना का स्तर सबसे अधिक और धातू या मिट्टीजैसे पदार्थों में सबसे कम होता है। सुख, दुःख, थकान, मनोविकार, बुद्धिकी शक्ति, अहंकार आदि बातें चेतना के स्तर के कम या अधिक होने की मात्रा में कम या अधिक होती है। जगदीशचंद्र बोस ने यही बात धातुपट्टिका के तुकडे पर प्रयोग कर धातु को भी थकान आती है यह प्रयोगद्वारा सिद्ध कर दिखाई थी।
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जड़ और चेतन में चेतना के स्तर का अंतर है और इस स्तर के कारण आने वाली मन, बुद्धि और अहंकार की सक्रीयता का। सृष्टि के सभी अस्तित्वों में अष्टधा प्रकृति होती ही है फिर वह धातू हो, वनस्पति हो, प्राणी हो या मानव। मानव में चेतना का स्तर सबसे अधिक और धातू या मिट्टी जैसे पदार्थों में सबसे कम होता है। सुख, दुःख, थकान, मनोविकार, बुद्धि की शक्ति, अहंकार आदि बातें चेतना के स्तर के कम या अधिक होने की मात्रा में कम या अधिक होती है।  
जुड़वां ऋणाणु (Twin Electrons) के प्रयोग से और ऋणाणु धारा (Electron Beam) के प्रयोग से वर्तमान साइंटिस्ट भी सोचने लगे हैं कि ऋणाणु को भी मन, बुद्धि होते हैं।
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चेतन तत्व के लक्षण न्याय दर्शन में १-१-१० में दिए हैं। वे हैं - इच्छाद्वेषप्रयत्नसुखदु:खज्ञानानि आत्मनो लिंगम् इति।
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जगदीशचंद्र बोस ने यही बात धातुपट्टिका के टुकड़े पर प्रयोग कर धातु को भी थकान आती है यह प्रयोग द्वारा सिद्ध कर दिखाई थी (इसे fatigue कहते हैं) । जुड़वां ऋणाणु (Twin Electrons) के प्रयोग से और ऋणाणु धारा (Electron Beam) के प्रयोग से वर्तमान साइंटिस्ट भी सोचने लगे हैं कि ऋणाणु को भी मन, बुद्धि होते हैं ।
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चेतन तत्व के लक्षण न्याय दर्शन में १-१-१० में दिए हैं। वे हैं:
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इच्छाद्वेषप्रयत्नसुखदु:खज्ञानानि आत्मनो लिंगम् इति।
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अर्थ : आत्मा के लिंग (चिन्ह) हैं इच्छा करना, विपरीत परिस्थिति का विरोध करना, अनुकूल को प्राप्त करने का प्रयास करना, सुख दु:ख को अनुभव करना और अपने अस्तित्व का ज्ञान रखना।
 
अर्थ : आत्मा के लिंग (चिन्ह) हैं इच्छा करना, विपरीत परिस्थिति का विरोध करना, अनुकूल को प्राप्त करने का प्रयास करना, सुख दु:ख को अनुभव करना और अपने अस्तित्व का ज्ञान रखना।
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मानव और मानव समाज का निर्माण : श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय ३ में कहा है –  
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== मानव और मानव समाज का निर्माण ==
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: श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय ३ में कहा है –  
 
सहयज्ञा: प्रजा: सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापति:। अनेन प्रसविष्यध्वमेंष वो स्त्विष्टकामधुक।।१०।।  
 
सहयज्ञा: प्रजा: सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापति:। अनेन प्रसविष्यध्वमेंष वो स्त्विष्टकामधुक।।१०।।  
 
अर्थ : प्रजापति ब्रह्माने कल्पके प्रारम्भ में यज्ञ के साथ प्रजा को उत्पन्न किया और कहा तुम इस यज्ञ (भूतमात्र के हित के कार्य) के द्वारा उत्कर्ष करो और यह यज्ञ तुम्हारे मनोरथ पूर्ण करनेवाला हो। - यह है समाज निर्माण की बारतीय मान्यता। वर्तमान व्यक्तिकेंद्रितता के कारण निर्माण हुई सभी सामाजिक समस्याओं का निराकरण इस दृष्टी में है। आगे कहा है –
 
अर्थ : प्रजापति ब्रह्माने कल्पके प्रारम्भ में यज्ञ के साथ प्रजा को उत्पन्न किया और कहा तुम इस यज्ञ (भूतमात्र के हित के कार्य) के द्वारा उत्कर्ष करो और यह यज्ञ तुम्हारे मनोरथ पूर्ण करनेवाला हो। - यह है समाज निर्माण की बारतीय मान्यता। वर्तमान व्यक्तिकेंद्रितता के कारण निर्माण हुई सभी सामाजिक समस्याओं का निराकरण इस दृष्टी में है। आगे कहा है –
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