Line 291: |
Line 291: |
| | | |
| | | |
− | पुरा तक्षशिलासंस्थं निवृत्तमपराजितम्। | + | पुरा तक्षशिलासंस्थं निवृत्तमपराजितम्। |
| + | सम्यग्विजयिनं दृष्ट्वा समन्तान्मन्त्रिभिर्वृतम्॥ 1-3-171 |
| + | तस्मै जयाशिषः पूर्वं यथान्यायं प्रयुज्य सः। |
| + | उवाचैनं वचः काले शब्दसम्पन्नया गिरा॥ 1-3-172 |
| + | उद[त्त]ङ्क उवाच |
| + | अन्यस्मिन्करणीये तु कार्ये पार्थिवसत्तम। |
| + | बाल्यादिवान्यदेव त्वं कुरुषे नृपसत्तम॥ 1-3-173 |
| + | सौतिरुवाच |
| + | एवमुक्तस्तु विप्रेण स राजा जनमेजयः। |
| + | अर्चयित्वा यथान्यायं प्रत्युवाच द्विजोत्तमम्॥ 1-3-174 |
| + | जनमेजय उवाच |
| + | आसां प्रजानां परिपालनेन स्वं क्षत्रधर्मं परिपालयामि। |
| + | प्रब्रूहि मे किं करणीयमद्य येनासि कार्येण समागतस्त्वम्॥ 1-3-175 |
| + | सौतिरुवाच |
| + | स एवमुक्तस्तु नृपोत्तमेन द्विजोत्तमः पुण्यकृतां वरिष्ठः। |
| + | उवाच राजानमदीनसत्त्वं स्वमेव कार्यं नृपते कुरुष्व॥ 1-3-176 |
| + | उद[त्त]ङ्क उवाच |
| + | तक्षकेण महीन्द्रेन्द्र येन ते हिंसितः पिता। |
| + | तस्मै प्रतिकुरुष्व त्वं पन्नगाय दुरात्मने॥ 1-3-177 |
| + | कार्यकालं हि मन्येऽहं विधिदृष्टस्य कर्मणः। |
| + | तद्गच्छापचितिं राजन्पितुस्तस्य महात्मनः॥ 1-3-178 |
| + | तेन ह्यनपराधी स दष्टो दुष्टान्तरात्मना। |
| + | पञ्चत्वमगमद्राजा वज्राहत इव द्रुमः॥ 1-3-179 |
| + | बलदर्पसमुत्सिक्तस्तक्षकः पन्नगाधमः। |
| + | अकार्यं कृतवान्पापो योऽदशत्पितरं तव॥ 1-3-180 |
| + | राजर्षिवंशगोप्तारममरप्रतिमं नृपम्। |
| + | यियासुं काश्यपं चैव न्यवर्तयत्पापकृत्॥ 1-3-181 |
| + | होतुमर्हसि तं पापं ज्वलिते हव्यवाहने। |
| + | सर्पसत्रे महाराज त्वरितं तद्विधीयताम्॥ 1-3-182 |
| + | एवं पितुश्चापचितिं कृतवांस्त्वं भविष्यसि। |
| + | मम प्रियं च सुमहत्कृतं राजन्भविष्यसि॥ 1-3-183 |
| + | कर्मणः पृथिवीपाल मम येन दुरात्मना। |
| + | विघ्नः कृतो महाराज गुर्वर्थं चरतोऽनघ॥ 1-3-184 |
| + | [[:Category:Uttank|''Uttank'']] [[:Category:conversation|''conversation'']] [[:Category:Janamejaya|''Janamejaya'']] |
| + | [[:Category:serpent|''serpent'']] [[:Category:sacrifice|''sacrifice'']] [[:Category:serpent sacrifice|''serpent sacrifice'']] |
| + | [[:Category:sarpyagna|''sarpyagna'']] [[:Category:incite|''incite'']] |
| + | [[:Category:उत्तंक|''उत्तंक'']] [[:Category:उत्तंकका जनमेजयसे संवाद|''उत्तंकका जनमेजयसे संवाद'']] [[:Category:संवाद|''संवाद'']] |
| + | [[:Category:सर्पयज्ञ|''सर्पयज्ञ'']] [[:Category:प्रोत्साहन|''प्रोत्साहन'']] [[:Category:जनमेजय|''जनमेजय'']] |
| + | [[:Category:जनमेजय|''जनमेजय'']] |
| | | |
− | सम्यग्विजयिनं दृष्ट्वा समन्तान्मन्त्रिभिर्वृतम्॥ 1-3-171
| |
| | | |
− | तस्मै जयाशिषः पूर्वं यथान्यायं प्रयुज्य सः।
| + | सौतिरुवाच |
− | | + | एतच्छ्रुत्वा तु नृपतिस्तक्षकाय चुकोप ह। |
− | उवाचैनं वचः काले शब्दसम्पन्नया गिरा॥ 1-3-172
| + | उद[त्त]ङ्कवाक्यहविषा दीप्तोऽग्निर्हविषा यथा॥ 1-3-185 |
− | | + | अपृच्छत्स तदा राजा मन्त्रिणस्तान्सुदुःखितः। |
− | उद[त्त]ङ्क उवाच
| + | उद[त्त]ङ्कस्यैव सांनिध्ये पितुः स्वर्गगतिं प्रति॥ 1-3-186 |
− | | + | तदैव हि स राजेन्द्रो दुःखशोकाप्लुतोऽभवत्। |
− | अन्यस्मिन्करणीये तु कार्ये पार्थिवसत्तम।
| + | यदैव वृत्तं पितरमुद[त्त]ङ्कादशृणोत्तदा॥ 1-3-187 |
− | | + | इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि पौष्यपर्वणि उदङ्कोपाख्यानं नाम तृतीयोऽध्यायः॥ 3 ॥ |
− | बाल्यादिवान्यदेव त्वं कुरुषे नृपसत्तम॥ 1-3-173
| + | [[:Category:Janamejaya|''Janamejaya'']] [[:Category:sorrow|''sorrow'']] [[:Category:father|''father'']] [[:Category:death|''death'']] |
− | | + | [[:Category:जनमेजय|''जनमेजय'']] [[:Category:पिता|''पिता'']] [[:Category:मृत्यु|''मृत्यु'']] [[:Category:शोक|''शोक'']] |
− | सौतिरुवाच
| + | [[:Category:जनमेजयका शोकमें डूबना|''जनमेजयका शोकमें डूबना'']] |
− | | |
− | एवमुक्तस्तु विप्रेण स राजा जनमेजयः।
| |
− | | |
− | अर्चयित्वा यथान्यायं प्रत्युवाच द्विजोत्तमम्॥ 1-3-174
| |
− | | |
− | जनमेजय उवाच
| |
− | | |
− | आसां प्रजानां परिपालनेन स्वं क्षत्रधर्मं परिपालयामि।
| |
− | | |
− | प्रब्रूहि मे किं करणीयमद्य येनासि कार्येण समागतस्त्वम्॥ 1-3-175
| |
− | | |
− | सौतिरुवाच | |
− | | |
− | स एवमुक्तस्तु नृपोत्तमेन द्विजोत्तमः पुण्यकृतां वरिष्ठः।
| |
− | | |
− | उवाच राजानमदीनसत्त्वं स्वमेव कार्यं नृपते कुरुष्व॥ 1-3-176
| |
− | | |
− | उद[त्त]ङ्क उवाच
| |
− | | |
− | तक्षकेण महीन्द्रेन्द्र येन ते हिंसितः पिता।
| |
− | | |
− | तस्मै प्रतिकुरुष्व त्वं पन्नगाय दुरात्मने॥ 1-3-177
| |
− | | |
− | कार्यकालं हि मन्येऽहं विधिदृष्टस्य कर्मणः।
| |
− | | |
− | तद्गच्छापचितिं राजन्पितुस्तस्य महात्मनः॥ 1-3-178
| |
− | | |
− | तेन ह्यनपराधी स दष्टो दुष्टान्तरात्मना।
| |
− | | |
− | पञ्चत्वमगमद्राजा वज्राहत इव द्रुमः॥ 1-3-179
| |
− | | |
− | बलदर्पसमुत्सिक्तस्तक्षकः पन्नगाधमः।
| |
− | | |
− | अकार्यं कृतवान्पापो योऽदशत्पितरं तव॥ 1-3-180
| |
− | | |
− | राजर्षिवंशगोप्तारममरप्रतिमं नृपम्।
| |
− | | |
− | यियासुं काश्यपं चैव न्यवर्तयत्पापकृत्॥ 1-3-181
| |
− | | |
− | होतुमर्हसि तं पापं ज्वलिते हव्यवाहने।
| |
− | | |
− | सर्पसत्रे महाराज त्वरितं तद्विधीयताम्॥ 1-3-182
| |
− | | |
− | एवं पितुश्चापचितिं कृतवांस्त्वं भविष्यसि।
| |
− | | |
− | मम प्रियं च सुमहत्कृतं राजन्भविष्यसि॥ 1-3-183
| |
− | | |
− | कर्मणः पृथिवीपाल मम येन दुरात्मना।
| |
− | | |
− | विघ्नः कृतो महाराज गुर्वर्थं चरतोऽनघ॥ 1-3-184
| |
− | | |
− | सौतिरुवाच
| |
− | | |
− | एतच्छ्रुत्वा तु नृपतिस्तक्षकाय चुकोप ह। | |
− | | |
− | उद[त्त]ङ्कवाक्यहविषा दीप्तोऽग्निर्हविषा यथा॥ 1-3-185 | |
− | | |
− | अपृच्छत्स तदा राजा मन्त्रिणस्तान्सुदुःखितः। | |
− | | |
− | उद[त्त]ङ्कस्यैव सांनिध्ये पितुः स्वर्गगतिं प्रति॥ 1-3-186 | |
− | | |
− | तदैव हि स राजेन्द्रो दुःखशोकाप्लुतोऽभवत्। | |
− | | |
− | यदैव वृत्तं पितरमुद[त्त]ङ्कादशृणोत्तदा॥ 1-3-187 | |
− | | |
− | इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि पौष्यपर्वणि उदङ्कोपाख्यानं नाम तृतीयोऽध्यायः॥ 3 ॥ | |