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| + | अथापरः शिष्यस्तस्यैवायोदस्य धौम्यस्य वेदो नाम तमुपाध्यायः समादिदेश वत्स वेद इहास्यतां तावन्मम गृहे कंचित्कालं शुश्रूषुणा च भवितव्यं श्रेयस्ते भविष्यतीति॥ 1-3-78 |
| + | स तथेत्युक्त्वा गुरुकुले दीर्घकालं गुरुशुश्रूषणपरोऽवसद्गौरिव नित्यं गुरुणा धूर्षु नियोज्यमानः शीतोष्णक्षुत्तृष्णादुःखसहः सर्वत्राप्रतिकूलस्तस्य महता कालेन गुरुः परितोषं जगाम॥ 1-3-79 |
| + | तत्परितोषाच्च श्रेयः सर्वज्ञतां चावाप॥ |
| + | एषा तस्यापि परीक्षा वेदस्य॥ 1-3-80 |
| + | स उपाध्यायेनानुज्ञातः समावृतस्तस्माद्गुरुकुलवासाद्गृहाश्रमं प्रत्यपद्यत॥ |
| + | तस्यापि स्वगृहे वसतस्त्रयः शिष्या बभूवुः स शिष्यान्न किंचिदुवाच कर्म वा क्रियतां गुरुशुश्रूषा चेति॥ |
| + | दुःखाभिज्ञो हि गुरुकुलवासस्य शिष्यान्परिक्लेशेन योजयितुं नेयेष॥ 1-3-81 |
| + | [[:Category:Gurubhakti of Ved|''Gurubhakti of Ved'']] [[:Category:वेदकी गुरुभक्ति|''वेदकी गुरुभक्ति'']] |
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− | अथापरः शिष्यस्तस्यैवायोदस्य धौम्यस्य वेदो नाम तमुपाध्यायः समादिदेश वत्स वेद इहास्यतां तावन्मम गृहे कंचित्कालं शुश्रूषुणा च भवितव्यं श्रेयस्ते भविष्यतीति॥ 1-3-78
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− | स तथेत्युक्त्वा गुरुकुले दीर्घकालं गुरुशुश्रूषणपरोऽवसद्गौरिव नित्यं गुरुणा धूर्षु नियोज्यमानः शीतोष्णक्षुत्तृष्णादुःखसहः सर्वत्राप्रतिकूलस्तस्य महता कालेन गुरुः परितोषं जगाम॥ 1-3-79 | + | अथ कस्मिंश्चित्काले वेदं ब्राह्मणं जनमेजयः पौष्यश्च क्षत्रियावुपेत्य वरयित्वोपाध्यायं चक्रतुः॥ 1-3-82 |
| + | स कदाचिद्याज्यकार्येणाभिप्रस्थित उद[त्त]ङ्कनामानं शिष्यं नियोजयामास॥ 1-3-83 |
| + | भो यत्किंचिदस्मद्गृहे परिहीयते तदिच्छाम्यहमपरिहीयमानं भवता क्रियमाणमिति स एवं प्रतिसंदिश्योद[त्त]ङ्कं वेदः प्रवासं जगाम॥ 1-3-84 |
| + | अथोद[त्त]ङ्कः शुश्रूषुर्गुरुनियोगमनुतिष्ठमानो गुरुकुले वसति स्म॥ |
| + | स तत्र वसमान उपाध्यायस्त्रीभिः सहिताभिराहूयोक्तः॥ 1-3-85 |
| + | उपाध्यायानी ते ऋतुमती उपाध्यायश्चोषितोऽस्या यथायमृतुर्वन्ध्यो न भवति तथा क्रियतामेषा विषीदतीति॥ 1-3-86 |
| + | एवमुक्तस्ताः स्त्रियः प्रत्युवाच न मया स्त्रीणां वचनादिदमकार्यं करणीयम्॥ |
| + | न ह्यहमुपाध्यायेन संदिष्टोऽकार्यमपि त्वया कार्यमिति॥ 1-3-87 |
| + | तस्य पुनरुपाध्यायः कालान्तरेण गृहमाजगाम तस्मात्प्रवासात्॥ 1-3-88 |
| + | (स तु तद्वृत्तं तस्याशेषमुपलभ्य प्रीतिमानभूत्॥) |
| + | उवाच चैनं वत्सोद[त्त]ङ्क किं ते प्रियं करवाणीति॥ |
| + | धर्मतो हि शुश्रूषितोऽस्मि भवता तेन प्रीतिः परस्परेण नौ संवृद्धा तदनुजाने भवन्तं सर्वानेव कामानवाप्स्यसि गम्यतामिति॥ 1-3-89 |
| + | स एवमुक्तः प्रत्युवाच किं ते प्रियं करवाणीति एवमाह॥ 1-3-90 |
| + | यश्चाधर्मेण वै ब्रूयाद्यश्चाधर्मेण पृच्छति। |
| + | तयोरन्यतरः प्रैति विद्वेषं चाधिगच्छति॥ 1-3-91 |
| + | सोऽहमनुज्ञातो भवतेच्छामीष्टं गुर्वर्थमुपहर्तुमिति॥ |
| + | तेनैवमुक्त उपाध्यायः प्रत्युवाच वत्सोद[त्त]ङ्क उष्यतां तावदिति॥ 1-3-92 |
| + | स कदाचिदुपाध्यायमाहोद[त्त]ङ्क आज्ञापयतु भवान्किं ते प्रियमुपाहरामि गुर्वर्थमिति॥ 1-3-93 |
| + | तमुपाध्यायः प्रत्युवाच वत्सोद[त्त]ङ्क बहुशो मां चोदयसि गुर्वर्थमुपाहरामीति तद्गच्छैनां प्रविश्योपाध्यायानीं पृच्छ किमुपाहरामीति॥ |
| + | एषा यद्ब्रवीति तदुपाहरस्वेति॥ 1-3-94 |
| + | स एवमुक्त उपाध्यायेनोपाध्यायानीमपृच्छद्भगवत्युपाध्यायेनास्म्यनुज्ञातो गृहं गन्तुमिच्छामीष्टं ते गुर्वर्थमुपहृत्यानृणो गन्तुमिति॥ |
| + | तदाज्ञापयतु भवती किमुपाहरामि गुर्वर्थमिति॥ 1-3-95 |
| + | सैवमुक्तोपाध्यायानी तमुद[त्त]ङ्कं प्रत्युवाच गच्छ पौष्यं प्रति राजानं कुण्डले भिक्षितुं तस्य क्षत्रियया पिनद्धे॥ 1-3-96 |
| + | ते आनयस्व चतुर्थेऽहनि पुण्यकं भविता ताभ्यामाबद्धाभ्यां शोभमाना ब्राह्मणान्परिवेष्टुमिच्छामि॥ |
| + | तत्सम्पादयस्व एवं हि कुर्वतः श्रेयो भवितान्यथा कुतः श्रेय इति॥ 1-3-97 |
| + | स एवमुक्तस्तया प्रातिष्ठतोद[त्त]ङ्कः स पथि गच्छन्नपश्यदृषभमतिप्रमाणं तमधिरूढं च पुरुषमतिप्रमाणमेव स पुरुष उद[त्त]ङ्कमभ्यभाषत॥ 1-3-98 |
| + | भो उद[त्त]ङ्कैतत्पुरीषमस्य ऋषभस्य भक्षयस्वेति स एवमुक्तो नैच्छत्॥ 1-3-99 |
| + | तमाह पुरुषो भूयो भक्षयस्वोत्तङ्का मा विचारयोपाध्यायेनापि ते भक्षितं पूर्वमिति॥ 1-3-100 |
| + | स एवमुक्तो बाढमित्युक्त्वा तदा तद्वृषभस्य मूत्रं पुरीषं च भक्षयित्वोद[त्त]ङ्कः सम्भ्रमादुत्थित एवाप उपस्पृश्य प्रतस्थे॥ 1-3-101 |
| + | यत्र स क्षत्रियः पौष्यस्तमुपेत्यासीनमपश्यदुद[त्त]ङ्कः॥ |
| + | स उद[त्त]ङ्कस्तमुपेत्याशीर्भिरभिनन्द्योवाच॥ 1-3-102 |
| + | अर्थी भवन्तमुपागतोऽस्मीति स एनमभिवाद्योवाच भगवन्पौष्यः खल्वहं किं करवाणीति॥ 1-3-103 |
| + | तमुवाच गुर्वर्थं कुण्डलयोरर्थेनाभ्यागतोऽस्मीति॥ |
| + | ये वै ते क्षत्रियया पिनद्धे कुण्डले ते भवान्दातुमर्हतीति॥ 1-3-104 |
| + | तं प्रत्युवाच पौष्यः प्रविश्यान्तःपुरं क्षत्रिया याच्यतामिति॥ |
| + | स तेनैवमुक्तः प्रविश्यान्तःपुरं क्षत्रियां नापश्यत्॥ 1-3-105 |
| + | स पौष्यं पुनरुवाच न युक्तं भवताहमनृतेनोपचरितुं न हि तेऽन्तःपुरे क्षत्रिया सन्निहिता नैनां पश्यामि॥ 1-3-106 |
| + | स एवमुक्तः पौष्यः क्षणमात्रं विमृश्योत्तङ्कं प्रत्युवाच नियतं भवानुच्छिष्टः स्मर तावन्न हि सा क्षत्रिया उच्छिष्टेनाशुचिना शक्या द्रष्टुं पतिव्रतात्वात्सैषा नाशुचेर्दर्शनमुपैतीति॥ 1-3-107 |
| + | (अथैवमुक्त उद[त्त]ङ्कः स्मृत्वोवाचास्ति खलु मयोत्थितेनोपस्पृष्टं गच्छता चेति॥ |
| + | तं पौष्यः प्रत्युवाच-- एष ते व्यतिक्रमो नोत्थितेनोपस्पृष्टं भवतीति शीघ्रं गच्छता चेति॥) |
| + | अथोद[त्त]ङ्कस्तं तथेत्युक्त्वा प्राङ्मुख उपविश्य सुप्रक्षालितपाणिपादवदनो निःशब्दाभिरफेनाभिरनुष्णाभिर्हृद्गताभिरद्भिस्त्रिः पीत्वा द्विः परिमृज्य खान्यद्भिरुपस्पृश्य चान्तःपुरं प्रविवेश॥ 1-3-108 |
| + | ततस्तां क्षत्रियामपश्यत् सा च दृष्ट्वैवोत्तङ्कं प्रत्युत्थायाभिवाद्योवाच स्वागतं ते भगवन्नाज्ञापय किं करवाणीति॥ 1-3-109 |
| + | स तामुवाचैते कुण्डले गुर्वर्थं मे भिक्षिते दातुमर्हसीति॥ |
| + | सा प्रीता तेन तस्य सद्भावेन पात्रमयमनतिक्रमणीयश्चेति मत्वा ते कुण्डलेऽवमुच्यास्मै प्रायच्छदाह चैन मेते कुण्डले तक्षको नागराजः सुभृशं प्रार्थयत्यप्रमत्तो नेतुमर्हसीति॥ 1-3-110 |
| + | स एवमुक्तस्तां क्षत्रियां प्रत्युवाच भगवति सुनिर्वृत्ता भव॥ |
| + | न मां शक्तस्तक्षको नागराजो धर्षयितुमिति॥ 1-3-111 |
| + | स एवमुक्त्वा तां क्षत्रियामामन्त्र्य पौष्यसकाशमागच्छत्॥ |
| + | आह चैनं भोः पौष्य प्रीतोऽस्मीति तमुत्तङ्कं पौष्यः प्रत्युवाच॥ 1-3-112 |
| + | भगवंश्चिरेण पात्रमासाद्यते भवांश्च गुणवानतिथिस्तदिच्छे श्राद्धं कर्तुं क्रियतां क्षण इति॥ 1-3-113 |
| + | तमुद[त्त]ङ्कः प्रत्युवाच कृतक्षण एवास्मि शीघ्रमिच्छामि यथोपपन्नमन्नमुपस्कृतं भवतेति स तथेत्युक्त्वा यथोपपन्नेनान्नेनैनं भोजयामास॥ 1-3-114 |
| + | अथोद[त्त]ङ्कः सकेशं शीतमन्नं दृष्ट्वा अशुच्येतदिति मत्वा तं पौष्यमुवाच यस्मान्मेऽशुच्यन्नं ददासि तस्मादन्धो भविष्यसीति॥ 1-3-115 |
| + | तं पौष्यः प्रत्युवाच यस्मात्त्वमप्यदुष्टमन्नं दूषयसि तस्मात्त्वमनपत्यो भविष्यसीति तमुद[त्त]ङ्कः प्रत्युवाच॥ 1-3-116 |
| + | न युक्तं भवतान्नमशुचि दत्त्वा प्रतिशापं दातुं तस्मादन्नमेव प्रत्यक्षीकुरु॥ |
| + | ततः पौष्यस्तदन्नमशुचि दृष्ट्वा तस्याशुचिभावमपरोक्षयामास॥ 1-3-117 |
| + | अथ तदन्नं मुक्तकेश्या स्त्रिया यत्कृतमनुष्णं सकेशं चाशुच्येतदिति मत्वा तमृषिमुद[त्त]ङ्कं प्रसादयामास॥ 1-3-118 |
| + | भगवन्नेतदज्ञानादन्नं सकेशमुपाहृतं शीतं तत्क्षामये भवन्तं न भवेयमन्ध इति तमुद[त्त]ङ्कः प्रत्युवाच॥ 1-3-119 |
| + | न मृषा ब्रवीमि भूत्वा त्वमन्धो न चिरादनन्धो भविष्यसीति॥ |
| + | ममापि शापो भवता दत्तो न भवेदिति॥ 1-3-120 |
| + | तं पौष्यः प्रत्युवाच न चाहं शक्तः शापं प्रत्यादातुं न हि मे मन्युरद्याप्युपशमं गच्छति किं चैतद्भवता न ज्ञायते यथा--॥ 1-3-121 |
| + | नवनीतं हृदयं ब्राह्मणस्य वाचि क्षुरो निहितस्तीक्ष्णधारः। |
| + | तदुभयमेतद्विपरीतं क्षत्रियस्य वाङ्नवनीतं हृदयं तीक्ष्णधारम्। इति॥ 1-3-122 |
| + | तदेवं गते न शक्तोऽहं तीक्ष्णहृदयत्वात्तं शापमन्यथा कर्तुं गम्यतामिति॥ |
| + | तमुद[त्त]ङ्कः प्रत्युवाच भवताहमन्नस्याशुचिभावमालक्ष्य प्रत्यनुनीतः प्राक्च तेऽभिहितम्॥ 1-3-123 |
| + | यस्माददुष्टमन्नं दूषयसि तस्मादनपत्यो भविष्यसीति॥ |
| + | दुष्टे चान्ने नैष मम शापो भविष्यतीति॥ 1-3-124 |
| + | साधयामस्तावदित्युक्त्वा प्रातिष्ठतोद[त्त]ङ्कस्ते कुण्डले गृहीत्वा सोऽपश्यदथ पथि नग्नं क्षपणकमागच्छन्तं मुहुर्मुहुर्दृश्यमानमदृश्यमानं च॥ 1-3-125 |
| + | अथोद[त्त]ङ्कस्ते कुण्डले संन्यस्य भूमावुदकार्थं प्रचक्रमे॥ |
| + | एतस्मिन्नन्तरे स क्षपणकस्त्वरमाण उपसृत्य ते कुण्डले गृहीत्वा प्राद्रवत्॥ 1-3-126 |
| + | तमुद[त्त]ङ्कोऽभिसृत्य कृतोदककार्यः शुचिः प्रयतो नमो देवेभ्यो गुरुभ्यश्च कृत्वा महता जवेन तमन्वयात्॥ 1-3-127 |
| + | तस्य तक्षको दृढमासन्नः स तं जग्राह गृहीतमात्रः स तद्रूपं विहाय तक्षकस्वरूपं कृत्वा सहसा धरण्यां विवृतं महाबिलं प्रविवेश॥ 1-3-128 |
| + | प्रविश्य च नागलोकं स्वभवनमगच्छत्॥ |
| + | अथोद[त्त]ङ्कस्तस्याः क्षत्रियाया वचः स्मृत्वा तं तक्षकमन्वगच्छत्॥ 1-3-129 |
| + | स तद्बिलं दण्डकाष्ठेन चखान न चाशकत्॥ |
| + | तं क्लिश्यमानमिन्द्रोऽपश्यत्स वज्रं प्रेषयामास॥ 1-3-130 |
| + | गच्छास्य ब्राह्मणस्य साहाय्यं कुरुष्वेति॥ |
| + | अथ वज्रं दण्डकाष्ठमनुप्रविश्य तद्बिलमदारयत्॥ 1-3-131 |
| + | तमुद[त्त]ङ्कोऽनुविवेश तेनैव बिलेन प्रविश्य च तं नागलोकमपर्यन्तमनेकविधप्रासादहर्म्यवलभीनिर्यूहशतसंकुलमुच्चावचक्रीडाश्चर्यस्थानावकीर्णमपश्यत्॥ 1-3-132 |
| + | स तत्र नागांस्तानस्तुवदेभिः श्लोकैः- |
| + | य ऐरावतराजानः सर्पाः समितिशोभनाः। |
| + | क्षरन्त इव जीमूताः सविद्युत्पवनेरिताः॥ 1-3-133 |
| + | सुरूपा बहुरूपाश्च तथा कल्माषकुण्डलाः। |
| + | आदित्यवन्नागलोके रेजुरैरावतोद्भवाः॥ 1-3-134 |
| + | बहूनि नागवेश्मानि गङ्गायास्तीर उत्तरे। |
| + | तत्रस्थानपि संस्तौमि महतः पन्नगानहम्॥ 1-3-135 |
| + | इच्छेत्कोऽर्कांशुसेनायां चर्तुमैरावतं विना। |
| + | शतान्यशीतिरष्टौ च सहस्राणि च विंशतिः॥ 1-3-136 |
| + | सर्पाणां प्रग्रहा यान्ति धृतराष्ट्रोऽयमेजति। |
| + | ये चैनमुपसर्पन्ति ये च दूरपथं गताः॥ 1-3-137 |
| + | अहमैरावतज्येष्ठभ्रातृभ्योऽकरवं नमः। |
| + | यस्य वासः कुरुक्षेत्रे खाण्डवे चाभवत्पुरा॥ 1-3-138 |
| + | तं नागराजमस्तौषं कुण्डलार्थाय तक्षकम्। |
| + | तक्षकश्चाश्वसेनश्च नित्यं सहचरावुभौ॥ 1-3-139 |
| + | कुरुक्षेत्रे च वसतां नदीमिक्षुमतीमनु। |
| + | जघन्यजस्तक्षकस्य श्रुतसेनेति यः सुतः॥ 1-3-140 |
| + | अवसद्यो महद्युम्नि प्रार्थयन्नागमुख्यताम्। |
| + | करवाणि सदा चाहं नमस्तस्मै महात्मने॥ 1-3-141 |
| + | एवं स्तुत्वा स विप्रर्षिरुद[त्त]ङ्को भुजगोत्तमान्। |
| + | नैव ते कुण्डले लेभे ततश्चिन्तामुपागमत्॥ 1-3-142 |
| + | एवं स्तुवन्नपि नागान्यदा ते कुण्डले नालभत तदापश्यत्स्त्रियौ तन्त्रे अधिरोप्य सुवेमे पटं वयन्त्यौ॥ |
| + | तस्मिंस्तन्त्रे कृष्णाः सिताञ्च तन्तवश्चक्रं चापश्यद्द्वादशारं षड्भिः कुमारैः परिवर्त्यमानं पुरुषं चापश्यदश्वं च दर्शनीयम्॥ 1-3-143 |
| + | स तान्सर्वांस्तुष्टाव एभिर्मन्त्रवाद[वदेव] श्लोकैः॥ 1-3-144 |
| + | त्रीण्यर्पितान्यत्र शतानि मध्ये षष्टिश्च नित्यं चरति ध्रुवेऽस्मिन्। |
| + | चक्रे चतुर्विंशतिपर्वयोगे षड्वै कुमाराः परिवर्तयन्ति॥ 1-3-145 |
| + | तन्त्रं चेदं विश्वरूपे युवत्यौ वयतस्तन्तून्सततं वर्तयन्त्यौ। |
| + | कृष्णान्सितांश्चैव विवर्तयन्त्यौ भूतान्यजस्रं भुवनानि चैव॥ 1-3-146 |
| + | वज्रस्य भर्ता भुवनस्य गोप्ता वृत्रस्य हन्ता नमुचेर्निहन्ता। |
| + | कृष्णे वसानो वसने महात्मा सत्यानृते यो विविनक्ति लोके॥ 1-3-147 |
| + | यो वाजिनं गर्भमपां पुराणं वैश्वानरं वाहनमभ्युपैति। |
| + | नमोऽस्तु तस्मै जगदीश्वराय लोकत्रयेशाय पुरन्दराय॥ 1-3-148 |
| + | ततः स एनं पुरुषः प्राह प्रीतोऽस्मि तेऽहमनेन स्तोत्रेण किं ते प्रियं करवाणीति स तमुवाच॥ 1-3-149 |
| + | नागा मे वशमीयुरिति स चैनं पुरुषः पुनरुवाच एतमश्वमपाने धमस्वेति॥ 1-3-150 |
| + | ततोऽश्वस्यापानमधमत्ततोऽश्वाद्धम्यमानात्सर्वस्रोतोभ्यः पावकार्चिष सधूमा निष्पेतुः॥ 1-3-151 |
| + | ताभिर्नागलोक उपधूपितेऽथ सम्भ्रान्तस्तक्षकोऽग्नेस्तेजोभयाद्विषण्णः कुण्डले गृहीत्वा सहसा भवनान्निष्क्रम्योद[त्त]ङ्कमुवाच॥ 1-3-152 |
| + | इमे कुण्डले गृह्णातु भवानिति स ते प्रतिजग्राहोद[त्त]ङ्कः प्रतिगृह्य च कुण्डलेऽचिन्तयत्॥ 1-3-153 |
| + | अद्य तत्पुण्यकमुपाध्यायान्या दूरं चाहमभ्यागतः स कथं सम्भावयेयमिति तत एनं चिन्तयानमेव स पुरुष उवाच॥ 1-3-154 |
| + | उद[त्त]ङ्क एनमेवाश्वमधिरोह त्वां क्षणेनैवोपाध्यायकुलं प्रापयिष्यतीति॥ 1-3-155 |
| + | स तथेत्युक्त्वा तमश्वमधिरुह्य प्रत्याजगामोपाध्यायकुलमुपाध्यायानी च स्नाता केशानावापयन्त्युपविष्टोद[त्त]ङ्को नागच्छतीति शापायास्य मनो दधे॥ 1-3-156 |
| + | अथ तस्मिन्नन्तरे स उद[त्त]ङ्कः प्रविश्य उपाध्यायगृहे उपाध्यायानीमभ्यवादयत्ते चास्यै कुण्डले प्रायच्छत्सा चैनं प्रत्युवाच॥ 1-3-157 |
| + | उद[त्त]ङ्क देशे कालेऽभ्यागतः स्वागतं ते वत्स अनागतोऽसि यदि मूहूर्तं मया शप्तो भविष्यसि॥ |
| + | श्रेयस्तवोपस्थितं सिद्धिमाप्नुहीति॥ 1-3-158 |
| + | अथोद[त्त]ङ्क उपाध्यायमभ्यवादयत्॥ |
| + | तमुपाध्यायः प्रत्युवाच वत्सोत्तङ्क स्वागतं ते किं चिरं कृतमिति॥ 1-3-159 |
| + | तमुद[त्त]ङ्क उपाध्यायं प्रत्युवाच भोस्तक्षकेण मे नागराजेन विघ्नः कृतोऽस्मिन्कर्मणि तेनास्मि नागलोकं गतः॥ 1-3-160 |
| + | तत्र च मया दृष्टे स्त्रियौ तन्त्रेऽधिरोप्य पटं वयन्त्यौ तस्मिश्च कृष्णा सिताश्च तन्तवः किं तत्॥ 1-3-161 |
| + | तत्र च मया चक्रं दृष्टं द्वादशारं षट्चैनं कुमाराः परिवर्तयन्ति तदपि किम्॥ |
| + | पुरुषश्चापि मया दृष्टः स चापि कः॥ 1-3-162 |
| + | पथि गच्छता च मया ऋषभो दृष्टस्तं च पुरुषोऽधिरूढस्तेनास्मि सोपचारमुक्त उद[त्त]ङ्कास्य ऋषभस्य पुरीषं भक्षय उपाध्यायेनापि ते भक्षितमिति॥ 1-3-163 |
| + | ततस्तस्य वचनान्मया तदृषभस्य पुरीषमुपयुक्तं स चापि कः॥ |
| + | तदेतद्भवतोपदिष्टमिच्छेयं श्रोतुं किं तदिति स तेनैवमुक्त उपाध्यायः प्रत्युवाच॥ 1-3-164 |
| + | ये ते स्त्रियौ धाता विधाता च ये च ते कृष्णाः सितास्तन्तवस्ते रात्र्यहनी॥ |
| + | तदपि तच्चक्रं द्वादशारं षड्वै कुमाराः परिवर्तयन्ति तेऽपि षडृतवः द्वादशारा द्वादश मासाः संवत्सरश्चक्रम्॥ 1-3-165 |
| + | यः पुरुषः स पर्जन्यो योऽश्वः सोऽग्निर्य ऋषभस्त्वया पथि गच्छता दृष्टः स ऐरावतो नागराट्॥ 1-3-166 |
| + | यश्चैनमधिरूढः पुरुषः च चेन्द्रो यदपि ते भक्षितं तस्य ऋषभस्य पुरीषं तदमृतं तेन खल्वसि तस्मिन्नागभवने न व्यापन्नस्त्वम्॥ 1-3-167 |
| + | स हि भगवानिन्द्रो मम सखा त्वदनुक्रोशादिममनग्रहं कृतवान्॥ |
| + | तस्मात्कुण्डले गृहीत्वा पुनरागतोऽसि॥ 1-3-168 |
| + | तत्सौम्य गम्यतामनुजाने भवन्तं श्रेयोऽवाप्स्यसीति॥ |
| + | स उपाध्यायेनानुज्ञातो भगवानुद[त्त]ङ्कः क्रुद्धस्तक्षकं प्रति चिकीर्षमाणो हास्तिनपुरं प्रतस्थे॥ 1-3-169 |
| + | स हास्तिनपुरं प्राप्य नचिराद्विप्रसत्तमः। |
| + | समागच्छत राजानमुद[त्त]ङ्को जनमेजयम्॥ 1-3-170 |
| + | [[:Category:Gurubhakti of Uttank|''Gurubhakti of Uttank'']] [[:Category:उत्तंककी गुरुभक्ति|''उत्तंककी गुरुभक्ति'']] |
| + | [[:Category:गुरुभक्ति|''गुरुभक्ति'']] [[:Category:उत्तंक|''उत्तंक'']] [[:Category:Gurubhakti|''Gurubhakti'']] |
| + | [[:Category:गुरुदेव|''गुरुदेव'']] [[:Category:उत्तंकके गुरुदेवसे प्रश्न|''गुरुदेव गुरुदेवसे प्रश्न'']] |
| + | [[:Category:Uttank|''Uttank'']] [[:Category:Gurudakshina of Uttank|''Gurudakshina of Uttank'']] |
| + | [[:Category:Gurudakshina|''Gurudakshina'']] [[:Category:उत्तंककी गुरुदक्षिणा|''उत्तंककी गुरुदक्षिणा'']] |
| + | [[:Category:answers|''answers'']] [[:Category:उत्तर|''उत्तर'']] |
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− | तत्परितोषाच्च श्रेयः सर्वज्ञतां चावाप॥
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− | एषा तस्यापि परीक्षा वेदस्य॥ 1-3-80
| + | पुरा तक्षशिलासंस्थं निवृत्तमपराजितम्। |
| + | सम्यग्विजयिनं दृष्ट्वा समन्तान्मन्त्रिभिर्वृतम्॥ 1-3-171 |
| + | तस्मै जयाशिषः पूर्वं यथान्यायं प्रयुज्य सः। |
| + | उवाचैनं वचः काले शब्दसम्पन्नया गिरा॥ 1-3-172 |
| + | उद[त्त]ङ्क उवाच |
| + | अन्यस्मिन्करणीये तु कार्ये पार्थिवसत्तम। |
| + | बाल्यादिवान्यदेव त्वं कुरुषे नृपसत्तम॥ 1-3-173 |
| + | सौतिरुवाच |
| + | एवमुक्तस्तु विप्रेण स राजा जनमेजयः। |
| + | अर्चयित्वा यथान्यायं प्रत्युवाच द्विजोत्तमम्॥ 1-3-174 |
| + | जनमेजय उवाच |
| + | आसां प्रजानां परिपालनेन स्वं क्षत्रधर्मं परिपालयामि। |
| + | प्रब्रूहि मे किं करणीयमद्य येनासि कार्येण समागतस्त्वम्॥ 1-3-175 |
| + | सौतिरुवाच |
| + | स एवमुक्तस्तु नृपोत्तमेन द्विजोत्तमः पुण्यकृतां वरिष्ठः। |
| + | उवाच राजानमदीनसत्त्वं स्वमेव कार्यं नृपते कुरुष्व॥ 1-3-176 |
| + | उद[त्त]ङ्क उवाच |
| + | तक्षकेण महीन्द्रेन्द्र येन ते हिंसितः पिता। |
| + | तस्मै प्रतिकुरुष्व त्वं पन्नगाय दुरात्मने॥ 1-3-177 |
| + | कार्यकालं हि मन्येऽहं विधिदृष्टस्य कर्मणः। |
| + | तद्गच्छापचितिं राजन्पितुस्तस्य महात्मनः॥ 1-3-178 |
| + | तेन ह्यनपराधी स दष्टो दुष्टान्तरात्मना। |
| + | पञ्चत्वमगमद्राजा वज्राहत इव द्रुमः॥ 1-3-179 |
| + | बलदर्पसमुत्सिक्तस्तक्षकः पन्नगाधमः। |
| + | अकार्यं कृतवान्पापो योऽदशत्पितरं तव॥ 1-3-180 |
| + | राजर्षिवंशगोप्तारममरप्रतिमं नृपम्। |
| + | यियासुं काश्यपं चैव न्यवर्तयत्पापकृत्॥ 1-3-181 |
| + | होतुमर्हसि तं पापं ज्वलिते हव्यवाहने। |
| + | सर्पसत्रे महाराज त्वरितं तद्विधीयताम्॥ 1-3-182 |
| + | एवं पितुश्चापचितिं कृतवांस्त्वं भविष्यसि। |
| + | मम प्रियं च सुमहत्कृतं राजन्भविष्यसि॥ 1-3-183 |
| + | कर्मणः पृथिवीपाल मम येन दुरात्मना। |
| + | विघ्नः कृतो महाराज गुर्वर्थं चरतोऽनघ॥ 1-3-184 |
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| | | |
− | स उपाध्यायेनानुज्ञातः समावृतस्तस्माद्गुरुकुलवासाद्गृहाश्रमं प्रत्यपद्यत॥
| |
| | | |
− | तस्यापि स्वगृहे वसतस्त्रयः शिष्या बभूवुः स शिष्यान्न किंचिदुवाच कर्म वा क्रियतां गुरुशुश्रूषा चेति॥
| + | सौतिरुवाच |
− | | + | एतच्छ्रुत्वा तु नृपतिस्तक्षकाय चुकोप ह। |
− | दुःखाभिज्ञो हि गुरुकुलवासस्य शिष्यान्परिक्लेशेन योजयितुं नेयेष॥ 1-3-81
| + | उद[त्त]ङ्कवाक्यहविषा दीप्तोऽग्निर्हविषा यथा॥ 1-3-185 |
− | | + | अपृच्छत्स तदा राजा मन्त्रिणस्तान्सुदुःखितः। |
− | अथ कस्मिंश्चित्काले वेदं ब्राह्मणं जनमेजयः पौष्यश्च क्षत्रियावुपेत्य वरयित्वोपाध्यायं चक्रतुः॥ 1-3-82
| + | उद[त्त]ङ्कस्यैव सांनिध्ये पितुः स्वर्गगतिं प्रति॥ 1-3-186 |
− | | + | तदैव हि स राजेन्द्रो दुःखशोकाप्लुतोऽभवत्। |
− | स कदाचिद्याज्यकार्येणाभिप्रस्थित उद[त्त]ङ्कनामानं शिष्यं नियोजयामास॥ 1-3-83
| + | यदैव वृत्तं पितरमुद[त्त]ङ्कादशृणोत्तदा॥ 1-3-187 |
− | | + | इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि पौष्यपर्वणि उदङ्कोपाख्यानं नाम तृतीयोऽध्यायः॥ 3 ॥ |
− | भो यत्किंचिदस्मद्गृहे परिहीयते तदिच्छाम्यहमपरिहीयमानं भवता क्रियमाणमिति स एवं प्रतिसंदिश्योद[त्त]ङ्कं वेदः प्रवासं जगाम॥ 1-3-84
| + | [[:Category:Janamejaya|''Janamejaya'']] [[:Category:sorrow|''sorrow'']] [[:Category:father|''father'']] [[:Category:death|''death'']] |
− | | + | [[:Category:जनमेजय|''जनमेजय'']] [[:Category:पिता|''पिता'']] [[:Category:मृत्यु|''मृत्यु'']] [[:Category:शोक|''शोक'']] |
− | अथोद[त्त]ङ्कः शुश्रूषुर्गुरुनियोगमनुतिष्ठमानो गुरुकुले वसति स्म॥
| + | [[:Category:जनमेजयका शोकमें डूबना|''जनमेजयका शोकमें डूबना'']] |
− | | |
− | स तत्र वसमान उपाध्यायस्त्रीभिः सहिताभिराहूयोक्तः॥ 1-3-85
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− | | |
− | उपाध्यायानी ते ऋतुमती उपाध्यायश्चोषितोऽस्या यथायमृतुर्वन्ध्यो न भवति तथा क्रियतामेषा विषीदतीति॥ 1-3-86
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− | | |
− | एवमुक्तस्ताः स्त्रियः प्रत्युवाच न मया स्त्रीणां वचनादिदमकार्यं करणीयम्॥
| |
− | | |
− | न ह्यहमुपाध्यायेन संदिष्टोऽकार्यमपि त्वया कार्यमिति॥ 1-3-87
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− | | |
− | तस्य पुनरुपाध्यायः कालान्तरेण गृहमाजगाम तस्मात्प्रवासात्॥ 1-3-88
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− | | |
− | (स तु तद्वृत्तं तस्याशेषमुपलभ्य प्रीतिमानभूत्॥)
| |
− | | |
− | उवाच चैनं वत्सोद[त्त]ङ्क किं ते प्रियं करवाणीति॥
| |
− | | |
− | धर्मतो हि शुश्रूषितोऽस्मि भवता तेन प्रीतिः परस्परेण नौ संवृद्धा तदनुजाने भवन्तं सर्वानेव कामानवाप्स्यसि गम्यतामिति॥ 1-3-89
| |
− | | |
− | स एवमुक्तः प्रत्युवाच किं ते प्रियं करवाणीति एवमाह॥ 1-3-90
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− | | |
− | यश्चाधर्मेण वै ब्रूयाद्यश्चाधर्मेण पृच्छति।
| |
− | | |
− | तयोरन्यतरः प्रैति विद्वेषं चाधिगच्छति॥ 1-3-91
| |
− | | |
− | सोऽहमनुज्ञातो भवतेच्छामीष्टं गुर्वर्थमुपहर्तुमिति॥
| |
− | | |
− | तेनैवमुक्त उपाध्यायः प्रत्युवाच वत्सोद[त्त]ङ्क उष्यतां तावदिति॥ 1-3-92
| |
− | | |
− | स कदाचिदुपाध्यायमाहोद[त्त]ङ्क आज्ञापयतु भवान्किं ते प्रियमुपाहरामि गुर्वर्थमिति॥ 1-3-93
| |
− | | |
− | तमुपाध्यायः प्रत्युवाच वत्सोद[त्त]ङ्क बहुशो मां चोदयसि गुर्वर्थमुपाहरामीति तद्गच्छैनां प्रविश्योपाध्यायानीं पृच्छ किमुपाहरामीति॥
| |
− | | |
− | एषा यद्ब्रवीति तदुपाहरस्वेति॥ 1-3-94
| |
− | | |
− | स एवमुक्त उपाध्यायेनोपाध्यायानीमपृच्छद्भगवत्युपाध्यायेनास्म्यनुज्ञातो गृहं गन्तुमिच्छामीष्टं ते गुर्वर्थमुपहृत्यानृणो गन्तुमिति॥
| |
− | | |
− | तदाज्ञापयतु भवती किमुपाहरामि गुर्वर्थमिति॥ 1-3-95
| |
− | | |
− | सैवमुक्तोपाध्यायानी तमुद[त्त]ङ्कं प्रत्युवाच गच्छ पौष्यं प्रति राजानं कुण्डले भिक्षितुं तस्य क्षत्रियया पिनद्धे॥ 1-3-96
| |
− | | |
− | ते आनयस्व चतुर्थेऽहनि पुण्यकं भविता ताभ्यामाबद्धाभ्यां शोभमाना ब्राह्मणान्परिवेष्टुमिच्छामि॥
| |
− | | |
− | तत्सम्पादयस्व एवं हि कुर्वतः श्रेयो भवितान्यथा कुतः श्रेय इति॥ 1-3-97
| |
− | | |
− | स एवमुक्तस्तया प्रातिष्ठतोद[त्त]ङ्कः स पथि गच्छन्नपश्यदृषभमतिप्रमाणं तमधिरूढं च पुरुषमतिप्रमाणमेव स पुरुष उद[त्त]ङ्कमभ्यभाषत॥ 1-3-98
| |
− | | |
− | भो उद[त्त]ङ्कैतत्पुरीषमस्य ऋषभस्य भक्षयस्वेति स एवमुक्तो नैच्छत्॥ 1-3-99
| |
− | | |
− | तमाह पुरुषो भूयो भक्षयस्वोत्तङ्का मा विचारयोपाध्यायेनापि ते भक्षितं पूर्वमिति॥ 1-3-100
| |
− | | |
− | स एवमुक्तो बाढमित्युक्त्वा तदा तद्वृषभस्य मूत्रं पुरीषं च भक्षयित्वोद[त्त]ङ्कः सम्भ्रमादुत्थित एवाप उपस्पृश्य प्रतस्थे॥ 1-3-101
| |
− | | |
− | यत्र स क्षत्रियः पौष्यस्तमुपेत्यासीनमपश्यदुद[त्त]ङ्कः॥
| |
− | | |
− | स उद[त्त]ङ्कस्तमुपेत्याशीर्भिरभिनन्द्योवाच॥ 1-3-102
| |
− | | |
− | अर्थी भवन्तमुपागतोऽस्मीति स एनमभिवाद्योवाच भगवन्पौष्यः खल्वहं किं करवाणीति॥ 1-3-103
| |
− | | |
− | तमुवाच गुर्वर्थं कुण्डलयोरर्थेनाभ्यागतोऽस्मीति॥
| |
− | | |
− | ये वै ते क्षत्रियया पिनद्धे कुण्डले ते भवान्दातुमर्हतीति॥ 1-3-104
| |
− | | |
− | तं प्रत्युवाच पौष्यः प्रविश्यान्तःपुरं क्षत्रिया याच्यतामिति॥
| |
− | | |
− | स तेनैवमुक्तः प्रविश्यान्तःपुरं क्षत्रियां नापश्यत्॥ 1-3-105
| |
− | | |
− | स पौष्यं पुनरुवाच न युक्तं भवताहमनृतेनोपचरितुं न हि तेऽन्तःपुरे क्षत्रिया सन्निहिता नैनां पश्यामि॥ 1-3-106
| |
− | | |
− | स एवमुक्तः पौष्यः क्षणमात्रं विमृश्योत्तङ्कं प्रत्युवाच नियतं भवानुच्छिष्टः स्मर तावन्न हि सा क्षत्रिया उच्छिष्टेनाशुचिना शक्या द्रष्टुं पतिव्रतात्वात्सैषा नाशुचेर्दर्शनमुपैतीति॥ 1-3-107 | |
− | | |
− | (अथैवमुक्त उद[त्त]ङ्कः स्मृत्वोवाचास्ति खलु मयोत्थितेनोपस्पृष्टं गच्छता चेति॥
| |
− | | |
− | तं पौष्यः प्रत्युवाच-- एष ते व्यतिक्रमो नोत्थितेनोपस्पृष्टं भवतीति शीघ्रं गच्छता चेति॥)
| |
− | | |
− | अथोद[त्त]ङ्कस्तं तथेत्युक्त्वा प्राङ्मुख उपविश्य सुप्रक्षालितपाणिपादवदनो निःशब्दाभिरफेनाभिरनुष्णाभिर्हृद्गताभिरद्भिस्त्रिः पीत्वा द्विः परिमृज्य खान्यद्भिरुपस्पृश्य चान्तःपुरं प्रविवेश॥ 1-3-108
| |
− | | |
− | ततस्तां क्षत्रियामपश्यत् सा च दृष्ट्वैवोत्तङ्कं प्रत्युत्थायाभिवाद्योवाच स्वागतं ते भगवन्नाज्ञापय किं करवाणीति॥ 1-3-109
| |
− | | |
− | स तामुवाचैते कुण्डले गुर्वर्थं मे भिक्षिते दातुमर्हसीति॥
| |
− | | |
− | सा प्रीता तेन तस्य सद्भावेन पात्रमयमनतिक्रमणीयश्चेति मत्वा ते कुण्डलेऽवमुच्यास्मै प्रायच्छदाह चैन मेते कुण्डले तक्षको नागराजः सुभृशं प्रार्थयत्यप्रमत्तो नेतुमर्हसीति॥ 1-3-110
| |
− | | |
− | स एवमुक्तस्तां क्षत्रियां प्रत्युवाच भगवति सुनिर्वृत्ता भव॥
| |
− | | |
− | न मां शक्तस्तक्षको नागराजो धर्षयितुमिति॥ 1-3-111
| |
− | | |
− | स एवमुक्त्वा तां क्षत्रियामामन्त्र्य पौष्यसकाशमागच्छत्॥
| |
− | | |
− | आह चैनं भोः पौष्य प्रीतोऽस्मीति तमुत्तङ्कं पौष्यः प्रत्युवाच॥ 1-3-112
| |
− | | |
− | भगवंश्चिरेण पात्रमासाद्यते भवांश्च गुणवानतिथिस्तदिच्छे श्राद्धं कर्तुं क्रियतां क्षण इति॥ 1-3-113
| |
− | | |
− | तमुद[त्त]ङ्कः प्रत्युवाच कृतक्षण एवास्मि शीघ्रमिच्छामि यथोपपन्नमन्नमुपस्कृतं भवतेति स तथेत्युक्त्वा यथोपपन्नेनान्नेनैनं भोजयामास॥ 1-3-114
| |
− | | |
− | अथोद[त्त]ङ्कः सकेशं शीतमन्नं दृष्ट्वा अशुच्येतदिति मत्वा तं पौष्यमुवाच यस्मान्मेऽशुच्यन्नं ददासि तस्मादन्धो भविष्यसीति॥ 1-3-115
| |
− | | |
− | तं पौष्यः प्रत्युवाच यस्मात्त्वमप्यदुष्टमन्नं दूषयसि तस्मात्त्वमनपत्यो भविष्यसीति तमुद[त्त]ङ्कः प्रत्युवाच॥ 1-3-116
| |
− | | |
− | न युक्तं भवतान्नमशुचि दत्त्वा प्रतिशापं दातुं तस्मादन्नमेव प्रत्यक्षीकुरु॥
| |
− | | |
− | ततः पौष्यस्तदन्नमशुचि दृष्ट्वा तस्याशुचिभावमपरोक्षयामास॥ 1-3-117
| |
− | | |
− | अथ तदन्नं मुक्तकेश्या स्त्रिया यत्कृतमनुष्णं सकेशं चाशुच्येतदिति मत्वा तमृषिमुद[त्त]ङ्कं प्रसादयामास॥ 1-3-118
| |
− | | |
− | भगवन्नेतदज्ञानादन्नं सकेशमुपाहृतं शीतं तत्क्षामये भवन्तं न भवेयमन्ध इति तमुद[त्त]ङ्कः प्रत्युवाच॥ 1-3-119
| |
− | | |
− | न मृषा ब्रवीमि भूत्वा त्वमन्धो न चिरादनन्धो भविष्यसीति॥
| |
− | | |
− | ममापि शापो भवता दत्तो न भवेदिति॥ 1-3-120
| |
− | | |
− | तं पौष्यः प्रत्युवाच न चाहं शक्तः शापं प्रत्यादातुं न हि मे मन्युरद्याप्युपशमं गच्छति किं चैतद्भवता न ज्ञायते यथा--॥ 1-3-121
| |
− | | |
− | नवनीतं हृदयं ब्राह्मणस्य वाचि क्षुरो निहितस्तीक्ष्णधारः।
| |
− | | |
− | तदुभयमेतद्विपरीतं क्षत्रियस्य वाङ्नवनीतं हृदयं तीक्ष्णधारम्। इति॥ 1-3-122
| |
− | | |
− | तदेवं गते न शक्तोऽहं तीक्ष्णहृदयत्वात्तं शापमन्यथा कर्तुं गम्यतामिति॥
| |
− | | |
− | तमुद[त्त]ङ्कः प्रत्युवाच भवताहमन्नस्याशुचिभावमालक्ष्य प्रत्यनुनीतः प्राक्च तेऽभिहितम्॥ 1-3-123
| |
− | | |
− | यस्माददुष्टमन्नं दूषयसि तस्मादनपत्यो भविष्यसीति॥
| |
− | | |
− | दुष्टे चान्ने नैष मम शापो भविष्यतीति॥ 1-3-124
| |
− | | |
− | साधयामस्तावदित्युक्त्वा प्रातिष्ठतोद[त्त]ङ्कस्ते कुण्डले गृहीत्वा सोऽपश्यदथ पथि नग्नं क्षपणकमागच्छन्तं मुहुर्मुहुर्दृश्यमानमदृश्यमानं च॥ 1-3-125
| |
− | | |
− | अथोद[त्त]ङ्कस्ते कुण्डले संन्यस्य भूमावुदकार्थं प्रचक्रमे॥
| |
− | | |
− | एतस्मिन्नन्तरे स क्षपणकस्त्वरमाण उपसृत्य ते कुण्डले गृहीत्वा प्राद्रवत्॥ 1-3-126
| |
− | | |
− | तमुद[त्त]ङ्कोऽभिसृत्य कृतोदककार्यः शुचिः प्रयतो नमो देवेभ्यो गुरुभ्यश्च कृत्वा महता जवेन तमन्वयात्॥ 1-3-127
| |
− | | |
− | तस्य तक्षको दृढमासन्नः स तं जग्राह गृहीतमात्रः स तद्रूपं विहाय तक्षकस्वरूपं कृत्वा सहसा धरण्यां विवृतं महाबिलं प्रविवेश॥ 1-3-128
| |
− | | |
− | प्रविश्य च नागलोकं स्वभवनमगच्छत्॥
| |
− | | |
− | अथोद[त्त]ङ्कस्तस्याः क्षत्रियाया वचः स्मृत्वा तं तक्षकमन्वगच्छत्॥ 1-3-129
| |
− | | |
− | स तद्बिलं दण्डकाष्ठेन चखान न चाशकत्॥
| |
− | | |
− | तं क्लिश्यमानमिन्द्रोऽपश्यत्स वज्रं प्रेषयामास॥ 1-3-130
| |
− | | |
− | गच्छास्य ब्राह्मणस्य साहाय्यं कुरुष्वेति॥
| |
− | | |
− | अथ वज्रं दण्डकाष्ठमनुप्रविश्य तद्बिलमदारयत्॥ 1-3-131
| |
− | | |
− | तमुद[त्त]ङ्कोऽनुविवेश तेनैव बिलेन प्रविश्य च तं नागलोकमपर्यन्तमनेकविधप्रासादहर्म्यवलभीनिर्यूहशतसंकुलमुच्चावचक्रीडाश्चर्यस्थानावकीर्णमपश्यत्॥ 1-3-132
| |
− | | |
− | स तत्र नागांस्तानस्तुवदेभिः श्लोकैः-
| |
− | | |
− | य ऐरावतराजानः सर्पाः समितिशोभनाः।
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− | | |
− | क्षरन्त इव जीमूताः सविद्युत्पवनेरिताः॥ 1-3-133
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− | | |
− | सुरूपा बहुरूपाश्च तथा कल्माषकुण्डलाः।
| |
− | | |
− | आदित्यवन्नागलोके रेजुरैरावतोद्भवाः॥ 1-3-134
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− | | |
− | बहूनि नागवेश्मानि गङ्गायास्तीर उत्तरे।
| |
− | | |
− | तत्रस्थानपि संस्तौमि महतः पन्नगानहम्॥ 1-3-135
| |
− | | |
− | इच्छेत्कोऽर्कांशुसेनायां चर्तुमैरावतं विना।
| |
− | | |
− | शतान्यशीतिरष्टौ च सहस्राणि च विंशतिः॥ 1-3-136
| |
− | | |
− | सर्पाणां प्रग्रहा यान्ति धृतराष्ट्रोऽयमेजति।
| |
− | | |
− | ये चैनमुपसर्पन्ति ये च दूरपथं गताः॥ 1-3-137
| |
− | | |
− | अहमैरावतज्येष्ठभ्रातृभ्योऽकरवं नमः।
| |
− | | |
− | यस्य वासः कुरुक्षेत्रे खाण्डवे चाभवत्पुरा॥ 1-3-138
| |
− | | |
− | तं नागराजमस्तौषं कुण्डलार्थाय तक्षकम्।
| |
− | | |
− | तक्षकश्चाश्वसेनश्च नित्यं सहचरावुभौ॥ 1-3-139
| |
− | | |
− | कुरुक्षेत्रे च वसतां नदीमिक्षुमतीमनु।
| |
− | | |
− | जघन्यजस्तक्षकस्य श्रुतसेनेति यः सुतः॥ 1-3-140
| |
− | | |
− | अवसद्यो महद्युम्नि प्रार्थयन्नागमुख्यताम्।
| |
− | | |
− | करवाणि सदा चाहं नमस्तस्मै महात्मने॥ 1-3-141
| |
− | | |
− | एवं स्तुत्वा स विप्रर्षिरुद[त्त]ङ्को भुजगोत्तमान्।
| |
− | | |
− | नैव ते कुण्डले लेभे ततश्चिन्तामुपागमत्॥ 1-3-142
| |
− | | |
− | एवं स्तुवन्नपि नागान्यदा ते कुण्डले नालभत तदापश्यत्स्त्रियौ तन्त्रे अधिरोप्य सुवेमे पटं वयन्त्यौ॥
| |
− | | |
− | तस्मिंस्तन्त्रे कृष्णाः सिताञ्च तन्तवश्चक्रं चापश्यद्द्वादशारं षड्भिः कुमारैः परिवर्त्यमानं पुरुषं चापश्यदश्वं च दर्शनीयम्॥ 1-3-143
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− | | |
− | स तान्सर्वांस्तुष्टाव एभिर्मन्त्रवाद[वदेव] श्लोकैः॥ 1-3-144
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− | | |
− | त्रीण्यर्पितान्यत्र शतानि मध्ये षष्टिश्च नित्यं चरति ध्रुवेऽस्मिन्।
| |
− | | |
− | चक्रे चतुर्विंशतिपर्वयोगे षड्वै कुमाराः परिवर्तयन्ति॥ 1-3-145
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− | | |
− | तन्त्रं चेदं विश्वरूपे युवत्यौ वयतस्तन्तून्सततं वर्तयन्त्यौ।
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− | | |
− | कृष्णान्सितांश्चैव विवर्तयन्त्यौ भूतान्यजस्रं भुवनानि चैव॥ 1-3-146
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− | | |
− | वज्रस्य भर्ता भुवनस्य गोप्ता वृत्रस्य हन्ता नमुचेर्निहन्ता।
| |
− | | |
− | कृष्णे वसानो वसने महात्मा सत्यानृते यो विविनक्ति लोके॥ 1-3-147
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− | | |
− | यो वाजिनं गर्भमपां पुराणं वैश्वानरं वाहनमभ्युपैति।
| |
− | | |
− | नमोऽस्तु तस्मै जगदीश्वराय लोकत्रयेशाय पुरन्दराय॥ 1-3-148
| |
− | | |
− | ततः स एनं पुरुषः प्राह प्रीतोऽस्मि तेऽहमनेन स्तोत्रेण किं ते प्रियं करवाणीति स तमुवाच॥ 1-3-149
| |
− | | |
− | नागा मे वशमीयुरिति स चैनं पुरुषः पुनरुवाच एतमश्वमपाने धमस्वेति॥ 1-3-150
| |
− | | |
− | ततोऽश्वस्यापानमधमत्ततोऽश्वाद्धम्यमानात्सर्वस्रोतोभ्यः पावकार्चिष सधूमा निष्पेतुः॥ 1-3-151
| |
− | | |
− | ताभिर्नागलोक उपधूपितेऽथ सम्भ्रान्तस्तक्षकोऽग्नेस्तेजोभयाद्विषण्णः कुण्डले गृहीत्वा सहसा भवनान्निष्क्रम्योद[त्त]ङ्कमुवाच॥ 1-3-152
| |
− | | |
− | इमे कुण्डले गृह्णातु भवानिति स ते प्रतिजग्राहोद[त्त]ङ्कः प्रतिगृह्य च कुण्डलेऽचिन्तयत्॥ 1-3-153
| |
− | | |
− | अद्य तत्पुण्यकमुपाध्यायान्या दूरं चाहमभ्यागतः स कथं सम्भावयेयमिति तत एनं चिन्तयानमेव स पुरुष उवाच॥ 1-3-154
| |
− | | |
− | उद[त्त]ङ्क एनमेवाश्वमधिरोह त्वां क्षणेनैवोपाध्यायकुलं प्रापयिष्यतीति॥ 1-3-155
| |
− | | |
− | स तथेत्युक्त्वा तमश्वमधिरुह्य प्रत्याजगामोपाध्यायकुलमुपाध्यायानी च स्नाता केशानावापयन्त्युपविष्टोद[त्त]ङ्को नागच्छतीति शापायास्य मनो दधे॥ 1-3-156
| |
− | | |
− | अथ तस्मिन्नन्तरे स उद[त्त]ङ्कः प्रविश्य उपाध्यायगृहे उपाध्यायानीमभ्यवादयत्ते चास्यै कुण्डले प्रायच्छत्सा चैनं प्रत्युवाच॥ 1-3-157
| |
− | | |
− | उद[त्त]ङ्क देशे कालेऽभ्यागतः स्वागतं ते वत्स अनागतोऽसि यदि मूहूर्तं मया शप्तो भविष्यसि॥
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− | श्रेयस्तवोपस्थितं सिद्धिमाप्नुहीति॥ 1-3-158
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− | अथोद[त्त]ङ्क उपाध्यायमभ्यवादयत्॥
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− | तमुपाध्यायः प्रत्युवाच वत्सोत्तङ्क स्वागतं ते किं चिरं कृतमिति॥ 1-3-159
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− | तमुद[त्त]ङ्क उपाध्यायं प्रत्युवाच भोस्तक्षकेण मे नागराजेन विघ्नः कृतोऽस्मिन्कर्मणि तेनास्मि नागलोकं गतः॥ 1-3-160
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− | तत्र च मया दृष्टे स्त्रियौ तन्त्रेऽधिरोप्य पटं वयन्त्यौ तस्मिश्च कृष्णा सिताश्च तन्तवः किं तत्॥ 1-3-161
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− | तत्र च मया चक्रं दृष्टं द्वादशारं षट्चैनं कुमाराः परिवर्तयन्ति तदपि किम्॥
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− | पुरुषश्चापि मया दृष्टः स चापि कः॥ 1-3-162
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− | पथि गच्छता च मया ऋषभो दृष्टस्तं च पुरुषोऽधिरूढस्तेनास्मि सोपचारमुक्त उद[त्त]ङ्कास्य ऋषभस्य पुरीषं भक्षय उपाध्यायेनापि ते भक्षितमिति॥ 1-3-163
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− | ततस्तस्य वचनान्मया तदृषभस्य पुरीषमुपयुक्तं स चापि कः॥
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− | तदेतद्भवतोपदिष्टमिच्छेयं श्रोतुं किं तदिति स तेनैवमुक्त उपाध्यायः प्रत्युवाच॥ 1-3-164
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− | ये ते स्त्रियौ धाता विधाता च ये च ते कृष्णाः सितास्तन्तवस्ते रात्र्यहनी॥
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− | तदपि तच्चक्रं द्वादशारं षड्वै कुमाराः परिवर्तयन्ति तेऽपि षडृतवः द्वादशारा द्वादश मासाः संवत्सरश्चक्रम्॥ 1-3-165
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− | यः पुरुषः स पर्जन्यो योऽश्वः सोऽग्निर्य ऋषभस्त्वया पथि गच्छता दृष्टः स ऐरावतो नागराट्॥ 1-3-166
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− | यश्चैनमधिरूढः पुरुषः च चेन्द्रो यदपि ते भक्षितं तस्य ऋषभस्य पुरीषं तदमृतं तेन खल्वसि तस्मिन्नागभवने न व्यापन्नस्त्वम्॥ 1-3-167
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− | स हि भगवानिन्द्रो मम सखा त्वदनुक्रोशादिममनग्रहं कृतवान्॥
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− | तस्मात्कुण्डले गृहीत्वा पुनरागतोऽसि॥ 1-3-168
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− | तत्सौम्य गम्यतामनुजाने भवन्तं श्रेयोऽवाप्स्यसीति॥
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− | स उपाध्यायेनानुज्ञातो भगवानुद[त्त]ङ्कः क्रुद्धस्तक्षकं प्रति चिकीर्षमाणो हास्तिनपुरं प्रतस्थे॥ 1-3-169
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− | स हास्तिनपुरं प्राप्य नचिराद्विप्रसत्तमः।
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− | समागच्छत राजानमुद[त्त]ङ्को जनमेजयम्॥ 1-3-170
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− | पुरा तक्षशिलासंस्थं निवृत्तमपराजितम्।
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− | सम्यग्विजयिनं दृष्ट्वा समन्तान्मन्त्रिभिर्वृतम्॥ 1-3-171
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− | तस्मै जयाशिषः पूर्वं यथान्यायं प्रयुज्य सः।
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− | उवाचैनं वचः काले शब्दसम्पन्नया गिरा॥ 1-3-172
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− | उद[त्त]ङ्क उवाच
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− | अन्यस्मिन्करणीये तु कार्ये पार्थिवसत्तम।
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− | बाल्यादिवान्यदेव त्वं कुरुषे नृपसत्तम॥ 1-3-173
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− | सौतिरुवाच
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− | एवमुक्तस्तु विप्रेण स राजा जनमेजयः।
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− | अर्चयित्वा यथान्यायं प्रत्युवाच द्विजोत्तमम्॥ 1-3-174
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− | जनमेजय उवाच
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− | आसां प्रजानां परिपालनेन स्वं क्षत्रधर्मं परिपालयामि।
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− | प्रब्रूहि मे किं करणीयमद्य येनासि कार्येण समागतस्त्वम्॥ 1-3-175
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− | सौतिरुवाच
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− | स एवमुक्तस्तु नृपोत्तमेन द्विजोत्तमः पुण्यकृतां वरिष्ठः।
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− | उवाच राजानमदीनसत्त्वं स्वमेव कार्यं नृपते कुरुष्व॥ 1-3-176
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− | उद[त्त]ङ्क उवाच
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− | तक्षकेण महीन्द्रेन्द्र येन ते हिंसितः पिता।
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− | तस्मै प्रतिकुरुष्व त्वं पन्नगाय दुरात्मने॥ 1-3-177
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− | कार्यकालं हि मन्येऽहं विधिदृष्टस्य कर्मणः।
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− | तद्गच्छापचितिं राजन्पितुस्तस्य महात्मनः॥ 1-3-178
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− | तेन ह्यनपराधी स दष्टो दुष्टान्तरात्मना।
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− | पञ्चत्वमगमद्राजा वज्राहत इव द्रुमः॥ 1-3-179
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− | बलदर्पसमुत्सिक्तस्तक्षकः पन्नगाधमः।
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− | अकार्यं कृतवान्पापो योऽदशत्पितरं तव॥ 1-3-180
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− | राजर्षिवंशगोप्तारममरप्रतिमं नृपम्।
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− | यियासुं काश्यपं चैव न्यवर्तयत्पापकृत्॥ 1-3-181
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− | होतुमर्हसि तं पापं ज्वलिते हव्यवाहने।
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− | सर्पसत्रे महाराज त्वरितं तद्विधीयताम्॥ 1-3-182
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− | एवं पितुश्चापचितिं कृतवांस्त्वं भविष्यसि।
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− | मम प्रियं च सुमहत्कृतं राजन्भविष्यसि॥ 1-3-183
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− | कर्मणः पृथिवीपाल मम येन दुरात्मना।
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− | विघ्नः कृतो महाराज गुर्वर्थं चरतोऽनघ॥ 1-3-184
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− | सौतिरुवाच
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− | एतच्छ्रुत्वा तु नृपतिस्तक्षकाय चुकोप ह।
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− | उद[त्त]ङ्कवाक्यहविषा दीप्तोऽग्निर्हविषा यथा॥ 1-3-185
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− | अपृच्छत्स तदा राजा मन्त्रिणस्तान्सुदुःखितः।
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− | उद[त्त]ङ्कस्यैव सांनिध्ये पितुः स्वर्गगतिं प्रति॥ 1-3-186
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− | तदैव हि स राजेन्द्रो दुःखशोकाप्लुतोऽभवत्।
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− | यदैव वृत्तं पितरमुद[त्त]ङ्कादशृणोत्तदा॥ 1-3-187
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− | इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि पौष्यपर्वणि उदङ्कोपाख्यानं नाम तृतीयोऽध्यायः॥ 3 ॥
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