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यह एक स्वाभाविक कथन है । कभी कभी तो लोग आश्चर्य व्यक्त करते हैं कि ऐसा कथन करने की आवश्यकता ही क्या है। भारत में शिक्षा भारतीय ही तो है। भारत सरकार इसे चला रही है। भारत के ही संसाधनों से चलती है। भारत के ही लोग इसे चला रहे हैं। भारत के ही संचालक, भारत के ही शिक्षक, भारत के ही विद्यार्थी हैं फिर शिक्षा का भारतीय होना स्वाभाविक ही तो है। फिर भारतीय होनी चाहिये ऐसा कहने का प्रयोजन ही क्या है ? भारत के लोगोंं को भारतीय होना चाहिये ऐसा कभी कोई कहता है क्या ? हमारा संविधान हमें भारत का नागरिकत्व देता है फिर प्रश्न ही नहीं है। अमेरिका के अमेरिकन, चीन के चीनी, अफ्रीका के अफ्रीकी, तो भारत के लोग भारतीय हैं यह जितना स्वाभाविक है उतना ही स्वाभाविक भारत में शिक्षा का भारतीय होना है। भारत में शिक्षा भारतीय होनी चाहिये इस कथन का कोई विशेष प्रयोजन ही नहीं है।
 
यह एक स्वाभाविक कथन है । कभी कभी तो लोग आश्चर्य व्यक्त करते हैं कि ऐसा कथन करने की आवश्यकता ही क्या है। भारत में शिक्षा भारतीय ही तो है। भारत सरकार इसे चला रही है। भारत के ही संसाधनों से चलती है। भारत के ही लोग इसे चला रहे हैं। भारत के ही संचालक, भारत के ही शिक्षक, भारत के ही विद्यार्थी हैं फिर शिक्षा का भारतीय होना स्वाभाविक ही तो है। फिर भारतीय होनी चाहिये ऐसा कहने का प्रयोजन ही क्या है ? भारत के लोगोंं को भारतीय होना चाहिये ऐसा कभी कोई कहता है क्या ? हमारा संविधान हमें भारत का नागरिकत्व देता है फिर प्रश्न ही नहीं है। अमेरिका के अमेरिकन, चीन के चीनी, अफ्रीका के अफ्रीकी, तो भारत के लोग भारतीय हैं यह जितना स्वाभाविक है उतना ही स्वाभाविक भारत में शिक्षा का भारतीय होना है। भारत में शिक्षा भारतीय होनी चाहिये इस कथन का कोई विशेष प्रयोजन ही नहीं है।
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देश के अधिकतम लोगोंं के लिये यह प्रश्न ही नहीं है। भारतीय और अभारतीय जैसी संज्ञाओं से कोई विशेष अर्थबोध होता है ऐसा भी नहीं है। भारतीय होने से और अभारतीय होने से क्या अन्तर हो जायेगा इसकी कल्पना भी नहीं है। घूमन्तु, अनपढ, भिखारी, गँवार, मजदूर ऐसे लोगोंं की यह स्थिति है ऐसा नहीं है, झुग्गी झोंपडियों में रहनेवाले, दिनभर परिश्रम करके मुश्किल से दो जून रोटी खाने वाले लोगोंं की यह बात नहीं है। कार्यालयों में बाबूगीरी या अफसरी करने वाले, व्यापार करने वाले, उद्योग चलाने वाले, लाखों रूपये कमाने वाले, लाखों रूपये अपने बच्चों की शिक्षा पर खर्च करने वाले, शिक्षा संस्थाओं का संचालन करने वाले, उनमें पढाने वाले, अधिकांश लोग ऐसे हैं जिन्हें भारतीय और अभारतीय का प्रश्न ही परेशान नहीं करता है। उन्हें कभी कभी शिक्षा अच्छी होनी चाहिये, सुलभ होनी चाहिये, सरलता से नौकरी दिलाने वाली होनी चाहिये ऐसा तो लगता है, विद्यालयों के अभिभावक सम्मेलनों में या गोष्ठियों में अच्छी शिक्षा के विषय पर तो चर्चा होती है परन्तु धार्मिक और अधार्मिक के प्रश्न की चर्चा नहीं होती। सामान्य जन के लिये शिक्षा नौकरी दिलाने वाली होने से, प्रतिष्ठा दिलाने वाली होने से प्रयोजन है। उसे अपने बच्चे की चिन्ता है, अपने निर्वाह की चिन्ता है, देश के, समाज के या शिक्षा के विषय में विचार करना उसके विश्व का हिस्सा नहीं है। सामान्य जन अपने आपसे मतलब रखता है, अपने परिवार से मतलब रखता है, उससे आगे या उससे परे जाकर चिन्ता करने की आवश्यकता उसे नहीं लगती। ऐसी अपेक्षा भी उससे कम ही की जाती है। हाँ, धार्मिक संगठन धर्म के लिये अर्थात् अपने सम्प्रदाय के लिये और राजकीय पक्ष अपने पक्ष के लिये कुछ कार्य करते दिखाई देते हैं परन्तु कुल मिलाकर देश के लिये और शिक्षा के लिये काम करने वाले कम ही लोग दिखाई देते हैं।
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देश के अधिकतम लोगोंं के लिये यह प्रश्न ही नहीं है। भारतीय और अभारतीय जैसी संज्ञाओं से कोई विशेष अर्थबोध होता है ऐसा भी नहीं है। भारतीय होने से और अभारतीय होने से क्या अन्तर हो जायेगा इसकी कल्पना भी नहीं है। घूमन्तु, अनपढ, भिखारी, गँवार, मजदूर ऐसे लोगोंं की यह स्थिति है ऐसा नहीं है, झुग्गी झोंपडियों में रहनेवाले, दिनभर परिश्रम करके मुश्किल से दो जून रोटी खाने वाले लोगोंं की यह बात नहीं है। कार्यालयों में बाबूगीरी या अफसरी करने वाले, व्यापार करने वाले, उद्योग चलाने वाले, लाखों रूपये कमाने वाले, लाखों रूपये अपने बच्चों की शिक्षा पर खर्च करने वाले, शिक्षा संस्थाओं का संचालन करने वाले, उनमें पढाने वाले, अधिकांश लोग ऐसे हैं जिन्हें भारतीय और अभारतीय का प्रश्न ही परेशान नहीं करता है। उन्हें कभी कभी शिक्षा अच्छी होनी चाहिये, सुलभ होनी चाहिये, सरलता से नौकरी दिलाने वाली होनी चाहिये ऐसा तो लगता है, विद्यालयों के अभिभावक सम्मेलनों में या गोष्ठियों में अच्छी शिक्षा के विषय पर तो चर्चा होती है परन्तु भारतीय और अभारतीय के प्रश्न की चर्चा नहीं होती। सामान्य जन के लिये, शिक्षा नौकरी दिलाने वाली होने से, प्रतिष्ठा दिलाने वाली होने से, प्रयोजन है। उसे अपने बच्चे की चिन्ता है, अपने निर्वाह की चिन्ता है, देश के, समाज के या शिक्षा के विषय में विचार करना उसके विश्व का हिस्सा नहीं है। सामान्य जन अपने आपसे मतलब रखता है, अपने परिवार से मतलब रखता है, उससे आगे या उससे परे जाकर चिन्ता करने की आवश्यकता उसे नहीं लगती। ऐसी अपेक्षा भी उससे कम ही की जाती है। हाँ, धार्मिक संगठन धर्म के लिये अर्थात् अपने सम्प्रदाय के लिये और राजकीय पक्ष अपने पक्ष के लिये कुछ कार्य करते दिखाई देते हैं, परन्तु कुल मिलाकर देश के लिये और शिक्षा के लिये काम करने वाले कम ही लोग दिखाई देते हैं।
    
==== धार्मिक शिक्षा हेतु कार्यरत संगठन ====
 
==== धार्मिक शिक्षा हेतु कार्यरत संगठन ====
देश में कुछ ऐसे शैक्षिक संगठन हैं जो शिक्षा के धार्मिक या अधार्मिक होने की चिन्ता करते हैं। इन्हें लगता है कि शिक्षा धार्मिक होनी चाहिये । वे इस दिशा में प्रयत्नशील भी हैं। वे स्थानिक से लेकर अखिल धार्मिक स्तर पर कार्यरत हैं। वे लोगोंं तक इस विषय को ले जाने का प्रयास भी करते हैं। उनेक लिये यह आन्दोलन का विषय है। अपने आन्दोलन में वे अनेक
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देश में कुछ ऐसे शैक्षिक संगठन हैं जो शिक्षा के भारतीय या अभारतीय होने की चिन्ता करते हैं। इन्हें लगता है कि शिक्षा भारतीय होनी चाहिये । वे इस दिशा में प्रयत्नशील भी हैं। वे स्थानिक से लेकर अखिल भारतीय स्तर पर कार्यरत हैं। वे लोगोंं तक इस विषय को ले जाने का प्रयास भी करते हैं। उनके लिये यह आन्दोलन का विषय है। अपने आन्दोलन में वे अनेक लोगोंं को जोडना चाहते हैं, कुछ मात्रा में उन्हें यश भी मिलता है। उनका कार्यक्षेत्र और पहुँच परिवार से लेकर सरकार तक भी है।
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लोगोंं को जोडना चाहते हैं, कुछ मात्रा में उन्हें यश भी मिलता है। उनका कार्यक्षेत्र और पहुँच परिवार से लेकर सरकार तक भी है।
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कुछ ऐसे संगठन भी है जिनका मुख्य कार्य शिक्षा नहीं है, संस्कृति और धर्म है। परन्तु अपने कार्य के एक अंग के रूप में वे शिक्षा पर भी काम करते हैं । मूल्यनिष्ठा संस्कारयुक्त शिक्षा यह उनका विषय है,भारतीय शिक्षा नहीं। विगत सौ सवा-सौ वर्षों में राष्ट्रीय शिक्षा के नाम से इस देश में शिक्षा को धार्मिक बनाने के आन्दोलन चले हैं। उनके लिये शिक्षा का धार्मिक और अधार्मिक होना प्राणप्रश्न था और अपनी सारी शक्ति लगाकर उन्होंने राष्ट्रीय शिक्षा के नमूने खड़े किये थे, इस अपेक्षा से कि पूरे देश में इन के जैसे शिक्षाकेन्द्र निर्माण होंगे। उनका कहना था कि शिक्षा राष्ट्रीय अर्थात् धार्मिक होनी चाहिये ।
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कुछ ऐसे संगठन भी है जिनका मुख्य कार्य शिक्षा नहीं है, संस्कृति और धर्म है। परन्तु अपने कार्य के एक अंग के रूप में वे शिक्षा पर भी काम करते हैं । मूल्यनिष्ठा संस्कारयुक्त शिक्षा यह उनका विषय है, धार्मिक शिक्षा नहीं।
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परन्तु आज तो वह भी इतिहास की बात हो गई। भारत स्वाधीन हुआ और शिक्षा के भारतीय या अभारतीय होने का प्रश्न ही मिट गया। भले ही भ्रान्त हो परन्तु मानो ऐसी धारणा बन गई कि अब सब कुछ भारतीय ही है।
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विगत सौ सवासौ वर्षों में राष्ट्रीय शिक्षा के नाम से इस देश में शिक्षा को धार्मिक बनाने के आन्दोलन चले हैं। उनके लिये शिक्षा का धार्मिक और अधार्मिक होना प्राणप्रश्न था और अपनी सारी शक्ति लगाकर उन्होंने राष्ट्रीय शिक्षा के नमूने खड़े किये थे, इस अपेक्षा से कि पूरे देश में इन के जैसे शिक्षाकेन्द्र निर्माण होंगे। उनका कहना था कि शिक्षा राष्ट्रीय अर्थात् धार्मिक होनी चाहिये ।
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अब प्रश्न अच्छी शिक्षा का है, भारतीय शिक्षा का नहीं।
 
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परन्तु आज तो वह भी इतिहास की बात हो गई। भारत स्वाधीन हुआ और शिक्षा के धार्मिक या अधार्मिक होने का प्रश्न ही मिट गया। भले ही भ्रान्त हो परन्तु मानो ऐसी धारणा बन गई कि अब सब कुछ धार्मिक ही है।
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अब प्रश्न अच्छी शिक्षा का है, धार्मिक शिक्षा का नहीं।
      
==== वैश्विक शिक्षा के हिमायती ====
 
==== वैश्विक शिक्षा के हिमायती ====
देश में एक ऐसा तबका भी है जो मानता है कि अब धार्मिक अधार्मिक का प्रश्न नहीं होना चाहिये, वैश्विकता का होना चाहिये । दुनिया छोटी हो गई है, संचार माध्यमों के प्रभाव से हमारा सम्पर्क क्षेत्र विस्तृत हो गया है, कहीं पर भी पहुँचना अब दुर्गम नहीं है, फिर अपने ही देश में बँधे रहने की आवश्यकता ही क्या है। हमें विश्व नागरिकता की बात करनी चाहिये, विश्वसंस्कृति की ही प्रतिष्ठा करनी चाहिये । हमें अपने आपको व्यापक सन्दर्भ में देखना चाहिये। भारत में बँधे रहने की आवश्यकता नहीं । विश्वभर से अच्छी बातों का स्वीकार कर अपने आपको समृद्ध बनाना चाहिये । शिक्षा का ही प्रश्न है तो हमें धार्मिक नहीं अपितु वैश्विक शिक्षा की बात करनी चाहिये।
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देश में एक ऐसा तबका भी है जो मानता है कि अब भारतीय अभारतीय का प्रश्न नहीं होना चाहिये, वैश्विकता का होना चाहिये । दुनिया छोटी हो गई है, संचार माध्यमों के प्रभाव से हमारा सम्पर्क क्षेत्र विस्तृत हो गया है, कहीं पर भी पहुँचना अब दुर्गम नहीं है, फिर अपने ही देश में बँधे रहने की आवश्यकता ही क्या है। हमें विश्व नागरिकता की बात करनी चाहिये, विश्वसंस्कृति की ही प्रतिष्ठा करनी चाहिये । हमें अपने आपको व्यापक सन्दर्भ में देखना चाहिये। भारत में बँधे रहने की आवश्यकता नहीं । विश्वभर से अच्छी बातों का स्वीकार कर अपने आपको समृद्ध बनाना चाहिये । शिक्षा का ही प्रश्न है तो हमें धार्मिक नहीं अपितु वैश्विक शिक्षा की बात करनी चाहिये। इस मान्यता के अनुसरण में स्कूली शिक्षा के लिये कई आन्तर्राष्ट्रीय शिक्षाबोर्ड और उच्च शिक्षा के क्षेत्र में कई आन्तर्राष्ट्रीय महाविद्यालय निर्माण हुए हैं और धार्मिक नागरिक अपने बच्चों को उनमें पढ़ा रहे हैं। अब वे 'टेकनिकली' धार्मिक हैं, भावना से आन्तर्राष्ट्रीय अर्थात् वैश्विक हैं (भले ही वास्तविकता में विदेशी हों)।
 
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इस मान्यता के अनुसरण में स्कूली शिक्षा के लिये कई आन्तर्राष्ट्रीय शिक्षाबोर्ड और उच्च शिक्षा के क्षेत्र में कई आन्तर्राष्ट्रीय महाविद्यालय निर्माण हुए हैं और धार्मिक नागरिक अपने बच्चों को उनमें पढ़ा रहे हैं। अब वे 'टेकनिकली' धार्मिक हैं, भावना से आन्तर्राष्ट्रीय अर्थात् वैश्विक हैं (भले ही वास्तविकता में विदेशी हों)।
      
==== अधार्मिकता का आधार ====
 
==== अधार्मिकता का आधार ====
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==== शिक्षा धार्मिक कब होगी ? ====
 
==== शिक्षा धार्मिक कब होगी ? ====
शिक्षा धार्मिक है ऐसा कब कहा जायेगा ? इस विषय की तात्त्विक चर्चा 'भातीय शिक्षा संकल्पना एवं स्वरूप' ग्रंथ में की गई है, उसका पुनरावर्तन करने की आवश्यकता नहीं है। यहाँ व्यावहारिकता के धरातल पर ही विचार करेंगे।
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शिक्षा धार्मिक है ऐसा कब कहा जायेगा ? इस विषय की तात्त्विक चर्चा [[:Category:धार्मिक शिक्षा ग्रंथमाला 1: संकल्पना एवं स्वरूप|भारतीय शिक्षा संकल्पना एवं स्वरूप]] ग्रंथ में की गई है, उसका पुनरावर्तन करने की आवश्यकता नहीं है। यहाँ व्यावहारिकता के धरातल पर ही विचार करेंगे।
    
कुछ मुद्दे इस प्रकार हैं...  
 
कुछ मुद्दे इस प्रकार हैं...  

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