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→‎धर्माचार्यों के लिये तप: लेख सम्पादित किया
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धर्माचार्यों का दायित्व शेष समाज से अधिक है क्योंकि उन्हें समाज का मार्गदर्शन करना है । समाज भी उनका सम्मान करता है । समाजव्यवस्था की जो श्रेणियों बनी हैं उनमें धर्माचार्य सबसे ऊपर हैं क्योंकि धार्मिक समाज धर्मनिष्ठ है । भारत में जो बडा है उसे ही अपने साथ अधिक कठोर बनना है। बड़ों को कर्तव्य का विचार प्रथम करना है, भोग और सुविधा के बारे में अपने आपको अन्त में रखना है। इस तथ्य का स्वीकार करना तप का प्रथम चरण है।  
 
धर्माचार्यों का दायित्व शेष समाज से अधिक है क्योंकि उन्हें समाज का मार्गदर्शन करना है । समाज भी उनका सम्मान करता है । समाजव्यवस्था की जो श्रेणियों बनी हैं उनमें धर्माचार्य सबसे ऊपर हैं क्योंकि धार्मिक समाज धर्मनिष्ठ है । भारत में जो बडा है उसे ही अपने साथ अधिक कठोर बनना है। बड़ों को कर्तव्य का विचार प्रथम करना है, भोग और सुविधा के बारे में अपने आपको अन्त में रखना है। इस तथ्य का स्वीकार करना तप का प्रथम चरण है।  
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तप त्याग की अपेक्षा करता है । वर्तमान स्थिति को देखते हुए प्रथम त्याग सम्मान और प्रतिष्ठा का करना होगा। आज अनुयायिओं की ओर से जो सम्मान मिलता है और उसके कारण जो प्रतिष्ठा मिलती है वह हमें तप नहीं करने देती। इन दो बातों के लिये सिद्धता करेंगे तो आगे के तप के लिये भी सिद्धता होगी।  
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तप त्याग की अपेक्षा करता है । वर्तमान स्थिति को देखते हुए प्रथम त्याग, सम्मान और प्रतिष्ठा का करना होगा। आज अनुयायियों की ओर से जो सम्मान मिलता है और उसके कारण जो प्रतिष्ठा मिलती है, वह हमें तप नहीं करने देती। इन दो बातों के लिये सिद्धता करेंगे तो आगे के तप के लिये भी सिद्धता होगी।  
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धर्माचार्यों को आज बौद्धिक तप की बहुत आवश्यकता है । इस तप के मुख्य आयाम इस प्रकार हैं...
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धर्माचार्यों को आज बौद्धिक तप की बहुत आवश्यकता है । इस तप के मुख्य आयाम इस प्रकार हैं:
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अनुयायिओं की ओर से सम्मान क्यों मिल रहा है, कौन से तत्त्व उन्हें हमारे पास आने के लिये प्रेरित कर रहे हैं, उनकी दुर्बलतायें कौन सी हैं, आकांक्षायें कैसी हैं और अपेक्षायें क्या होती हैं इन्हें समझना और उसके बाद उनका मार्गदर्शन करना।  
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अनुयायियों की ओर से सम्मान क्यों मिल रहा है, कौन से तत्त्व उन्हें हमारे पास आने के लिये प्रेरित कर रहे हैं, उनकी दुर्बलतायें कौन सी हैं, आकांक्षायें कैसी हैं और अपेक्षायें क्या होती हैं, इन्हें समझना और उसके बाद उनका मार्गदर्शन करना।  
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धर्म को आज विवाद का विषय बना दिया गया है। इस विवाद से धर्म को मुक्त करने हेतु तप की आवश्यकता है। इस विवाद को समझना, उसके पीछे जो निहित स्वार्थ है उन्हें समझना, उन स्वार्थों को कैसे परास्त करना इसका विचार करना, उसकी योजना करना और योजनाओं का क्रियान्वयन करना यह तप है। विवाद में न पडना पड़े इसके लिये धर्म के नाम पर संस्कृति, अध्यात्म, योग आदि के नाम स्वीकार कर धर्म संज्ञा का ही त्याग करना युद्धक्षेत्र से पलायन करना होता है। बौद्धिक तप का यह दूसरा आयाम है।  
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धर्म को आज विवाद का विषय बना दिया गया है। इस विवाद से धर्म को मुक्त करने हेतु तप की आवश्यकता है। इस विवाद को समझना, उसके पीछे जो निहित स्वार्थ है उन्हें समझना, उन स्वार्थों को कैसे परास्त करना इसका विचार करना, उसकी योजना करना और योजनाओं का क्रियान्वयन करना, यह तप है। विवाद में न पडना पड़ेइसके लिये धर्म के नाम पर संस्कृति, अध्यात्म, योग आदि के नाम स्वीकार कर धर्म संज्ञा का ही त्याग करना युद्धक्षेत्र से पलायन करना होता है। बौद्धिक तप का यह दूसरा आयाम है।  
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सम्प्रदाय को धर्म के रूप में प्रस्तुत करना धर्म को ही संकुचित बना देना है। सम्प्रदाय को व्यापक धर्म का एक अंग मानकर उसकी प्रतिष्ठा के लिये सम्प्रदाय की शक्ति का उपयोग करना तप ही है क्योंकि तब अनुयायिओं की आर्थिक, राजकीय, सामाजिक, व्यक्तिगत गतिविधियों पर नियन्त्रण करना पडता है।
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सम्प्रदाय को धर्म के रूप में प्रस्तुत करना, धर्म को ही संकुचित बना देना है। सम्प्रदाय को व्यापक धर्म का एक अंग मानकर उसकी प्रतिष्ठा के लिये सम्प्रदाय की शक्ति का उपयोग करना तप ही है क्योंकि तब अनुयायियों की आर्थिक, राजकीय, सामाजिक, व्यक्तिगत गतिविधियों पर नियन्त्रण करना पड़ता है।
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अर्थनिष्ठ समाज को धर्मनिष्ठ समाज बनाने हेतु क्या करना पड़ेगा इसका आकलन करना यह बौद्धिक तप है। इस आधार पर नई रचनायें बनाना यह बौद्धिक तप है। इन रचनाओं को ही धार्मिक परम्परा में स्मृति कहा गया है। स्मृति की रचना करना धर्माचार्यों के लिये बौद्धिक तप है। ऐसा तप करनेवाले ऋषि हैं।  
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अर्थनिष्ठ समाज को धर्मनिष्ठ समाज बनाने हेतु क्या करना पड़ेगा इसका आकलन करना बौद्धिक तप है। इस आधार पर नई रचनायें बनाना बौद्धिक तप है। इन रचनाओं को ही धार्मिक परम्परा में स्मृति कहा गया है। स्मृति की रचना करना धर्माचार्यों के लिये बौद्धिक तप है। ऐसा तप करनेवाले ऋषि हैं।  
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दूसरा है मानसिक तप । मानसिक तप करने पर ही बौद्धिक तप करने की क्षमता प्राप्त होती है। मानसिक तप के कुछ आयाम इस प्रकार हैं...
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दूसरा है मानसिक तप । मानसिक तप करने पर ही बौद्धिक तप करने की क्षमता प्राप्त होती है। मानसिक तप के कुछ आयाम इस प्रकार हैं:
 
# सम्मान और प्रतिष्ठा का त्याग करना, उसकी अपेक्षा नहीं करना यह प्रथम चरण है। इसका उल्लेख पूर्व में भी हुआ है।  
 
# सम्मान और प्रतिष्ठा का त्याग करना, उसकी अपेक्षा नहीं करना यह प्रथम चरण है। इसका उल्लेख पूर्व में भी हुआ है।  
# सामाजिक स्वीकृति के लिये आसान तरीके, लुभावने रास्ते अपनाने का मोह टालना यह जरा कठिन मानसिक तप है।  
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# सामाजिक स्वीकृति के लिये आसान तरीके, लुभावने रास्ते अपनाने का मोह टालना, यह जरा कठिन मानसिक तप है।  
# सही बातें कहने पर अनेक अवरोध निर्माण हो सकते हैं, प्रतिरोध भी हो सकता है। इन प्रतिरोधों और अवरोधों को सहना और डटे रहना भी मानसिक तप है
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# सही बातें कहने पर अनेक अवरोध निर्माण हो सकते हैं, प्रतिरोध भी हो सकता है। इन प्रतिरोधों और अवरोधों को सहना और डटे रहना भी मानसिक तप है।
 
# आर्थिक और राजनीतिक लालचों में न फंसना बहुत बडा मानसिक तप है।  
 
# आर्थिक और राजनीतिक लालचों में न फंसना बहुत बडा मानसिक तप है।  
 
# निहित स्वार्थों का पोषण कर लाभ प्राप्त करने के लिये प्रवृत्त नहीं होना मानसिक तप है ।  
 
# निहित स्वार्थों का पोषण कर लाभ प्राप्त करने के लिये प्रवृत्त नहीं होना मानसिक तप है ।  
# धर्माचार्यों को भोग विलास के साधन बहत सुलभ हो जाते हैं। इनसे प्रभावित नहीं होना भी मानसिक तप है.
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# धर्माचार्यों को भोग विलास के साधन बहत सुलभ हो जाते हैं। इनसे प्रभावित नहीं होना भी मानसिक तप है
* धर्माचार्यों के लिये तप का तीसरा आयाम है शारीरिक तप का । इसके कुछ आयाम इस प्रकार हैं...
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* धर्माचार्यों के लिये तप का तीसरा आयाम है, शारीरिक तप का । इसके कुछ आयाम इस प्रकार हैं:
# धर्माचार्य गृहस्थ हो, वानप्रस्थ हो या संन्यासी उसे धर्म के विरोधी किसी भी प्रकार का आचरण नहीं करना चाहिये।
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# धर्माचार्य गृहस्थ हो, वानप्रस्थ हो या संन्यासी, उसे धर्म के विरोधी, किसी भी प्रकार का आचरण नहीं करना चाहिये।
# खानपान, वेशभूषा, बोलचाल, उपभोग आदि में संयम, सादगी और त्याग होना ही चाहिये । उदाहरण के लिये न खाने के पदार्थ खाना, शृंगार और अलंकारों का अतिरेक करना, शृंगार की बातें करना, टीवी सिनेमा आदि में अधिक रुचि लेना किसी को प्रेरणा देने वाला आचरण नहीं होता। धार्मिक मानस संयम, सदाचार, त्याग, अनुशासन आदि से ही प्रेरित होता है । दम्भ समझता है, उससे प्रभावित नहीं होता। जिसे समाज का मार्गदर्शन करना है उसे शारीरिक स्तर के वैभव विलास से परहेज करना ही होता है। दिखावे के लिये संयम और एकान्त में असंयम से चरित्र दुर्बल होता है और लोग छले नहीं जाते इसलिये ऐसा करने से सब कुछ नष्ट होता है।  
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# खानपान, वेशभूषा, बोलचाल, उपभोग आदि में संयम, सादगी और त्याग होना ही चाहिये। उदाहरण के लिये न खाने के पदार्थ खाना, शृंगार और अलंकारों का अतिरेक करना, शृंगार की बातें करना, टीवी सिनेमा आदि में अधिक रुचि लेना, किसी को प्रेरणा देने वाला आचरण नहीं होता। धार्मिक मानस संयम, सदाचार, त्याग, अनुशासन आदि से ही प्रेरित होता है । दम्भ समझता है, उससे प्रभावित नहीं होता। जिसे समाज का मार्गदर्शन करना है उसे शारीरिक स्तर के वैभव विलास से परहेज करना ही होता है। दिखावे के लिये संयम और एकान्त में असंयम से चरित्र दुर्बल होता है और लोग छले नहीं जाते - इसलिये ऐसा करने से सब कुछ नष्ट होता है।  
# जो समाजविरोधी, पर्यावरणविरोधी, स्वास्थ्यविरोधी है वह धर्मविरोधी है। जरा इन बातों पर विचार करना चाहिये...
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# जो समाजविरोधी, पर्यावरणविरोधी, स्वास्थ्यविरोधी है वह धर्मविरोधी है। जरा इन बातों पर विचार करना चाहिये:
 
* विदेशी वस्तुयें आकर्षक और सुविधायुक्त हैं, क्या उन्हें अपनाने से बच सकते हैं ? ए.सी. पर्यावरण विरोधी है। क्या उससे बचकर गर्मी सह सकते हैं ?  
 
* विदेशी वस्तुयें आकर्षक और सुविधायुक्त हैं, क्या उन्हें अपनाने से बच सकते हैं ? ए.सी. पर्यावरण विरोधी है। क्या उससे बचकर गर्मी सह सकते हैं ?  
 
* बिना स्नान के भोजन करने का नियम अपनाने में कभी चौबीस घण्टे भूखा रहना पड़ सकता है। क्या ऐसा नियम अपना सकते हैं ?  
 
* बिना स्नान के भोजन करने का नियम अपनाने में कभी चौबीस घण्टे भूखा रहना पड़ सकता है। क्या ऐसा नियम अपना सकते हैं ?  
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उपरी स्तर पर प्रभावित करने के तरीके अपनाना सरल है, परन्तु उनसे आन्तरिक और स्थायी परिवर्तन नहीं होता । समाज को शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक स्तर पर प्रभावित और प्रेरित करने हेतु तीनों प्रकार के तप करने होते है।  
 
उपरी स्तर पर प्रभावित करने के तरीके अपनाना सरल है, परन्तु उनसे आन्तरिक और स्थायी परिवर्तन नहीं होता । समाज को शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक स्तर पर प्रभावित और प्रेरित करने हेतु तीनों प्रकार के तप करने होते है।  
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जितनी तपश्चर्या उग्र उतना ही प्रभाव स्थायी यह वैज्ञानिक नियम है । समाज यदि दुर्बल है तो उसका कारण धर्माचार्यों की तपश्चर्या कम पड़ रही है यही समझना चाहिये।
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जितनी तपश्चर्या उग्र उतना ही प्रभाव स्थायी यह वैज्ञानिक नियम है । समाज यदि दुर्बल है तो उसका कारण धर्माचार्यों की तपश्चर्या कम पड़ रही है, यही समझना चाहिये।
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ऐसा नहीं है कि आज ऐसा तप करनेवाले लोग हैं ही नहीं । तपश्चर्या करने वाले लोग हैं इसीलिये समाज पूर्ण रूप से नष्ट नहीं हो रहा है और अच्छे भविष्य की सम्भावना बची है। परन्तु तप कम पड रहा है यह भी स्पष्ट रूप से दिखाई दे रहा है। आसुरी शक्तियों का प्रभाव बढ़ रहा है यही इसका प्रमाण है। जो हैं उन धर्माचार्यों को अपनी तपश्चर्या बढाना यह एक आवश्यकता है, तपश्चर्या करने वालों की संख्या बढाना दूसरी आवश्यकता है। यह भी ध्यान में रखने की बात है कि केवल संख्या बढ़ने से होगा नहीं, तपश्चर्या की मात्रा भी बढनी चाहिये । सत्ययुग हो या कलियुग तपश्चर्या की उग्रता तो होना आवश्यक ही है।
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ऐसा नहीं है कि आज ऐसा तप करनेवाले लोग हैं ही नहीं । तपश्चर्या करने वाले लोग हैं, इसीलिये समाज पूर्ण रूप से नष्ट नहीं हो रहा है और अच्छे भविष्य की सम्भावना बची है। परन्तु तप कम पड रहा है यह भी स्पष्ट रूप से दिखाई दे रहा है। आसुरी शक्तियों का प्रभाव बढ़ रहा है, यही इसका प्रमाण है। जो धर्माचार्य बचे हैं, उन धर्माचार्यों को अपनी तपश्चर्या बढाना एक आवश्यकता है, तपश्चर्या करने वालों की संख्या बढाना दूसरी आवश्यकता है। यह भी ध्यान में रखने की बात है कि केवल संख्या बढ़ने से नहीं होगा, तपश्चर्या की मात्रा भी बढनी चाहिये । सत्ययुग हो या कलियुग तपश्चर्या की उग्रता तो होना आवश्यक ही है।
    
==== समाज के लिये तप ====
 
==== समाज के लिये तप ====
अच्छे धर्माचार्य प्राप्त हों यह समाजका भी भाग्य है। ऐसा भाग्य प्राप्त होने हेतु समाज को भी तप करने की आवश्यकता होती है।
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अच्छे धर्माचार्य प्राप्त हों यह समाज का भी भाग्य है। ऐसा भाग्य प्राप्त होने हेतु समाज को भी तप करने की आवश्यकता होती है।
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समाज के तप के कुछ आयाम इस प्रकार हैं...
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समाज के तप के कुछ आयाम इस प्रकार हैं:
    
आस्था, विश्वास और श्रद्धा का भाव सांस्कृतिक विकास के लिये आवश्यक है। आज इन तीनों बातों का अभाव सार्वत्रिक रूप में दिखाई दे रहा है। किसी की किसी बात पर या किसी व्यक्ति पर श्रद्धा नहीं है। इसी प्रकार किसी पर विश्वास भी नहीं है। किसी तत्त्व पर, किसी सिद्धान्त पर, किसी ग्रन्थ पर आस्था भी नहीं है। ये तीनों बातें दिखाई भी देती हैं तो बहुत जल्दी नष्ट भी हो जाती हैं । इसका कारण यह है कि किसी न किसी स्वार्थ की पूर्ति के आलम्बन से जब आस्था, विश्वास या श्रद्धा जुड़ जाते हैं तब स्वार्थ सिद्ध नहीं होने पर वे टूट भी जाते हैं।
 
आस्था, विश्वास और श्रद्धा का भाव सांस्कृतिक विकास के लिये आवश्यक है। आज इन तीनों बातों का अभाव सार्वत्रिक रूप में दिखाई दे रहा है। किसी की किसी बात पर या किसी व्यक्ति पर श्रद्धा नहीं है। इसी प्रकार किसी पर विश्वास भी नहीं है। किसी तत्त्व पर, किसी सिद्धान्त पर, किसी ग्रन्थ पर आस्था भी नहीं है। ये तीनों बातें दिखाई भी देती हैं तो बहुत जल्दी नष्ट भी हो जाती हैं । इसका कारण यह है कि किसी न किसी स्वार्थ की पूर्ति के आलम्बन से जब आस्था, विश्वास या श्रद्धा जुड़ जाते हैं तब स्वार्थ सिद्ध नहीं होने पर वे टूट भी जाते हैं।
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इस प्रकार समाज और धर्माचार्य दोनों को तप करने की आवश्यकता है, परन्तु दोनों में भी धर्माचार्य का दायित्व विशेष है क्योंकि वे शीर्षस्थान पर हैं।
 
इस प्रकार समाज और धर्माचार्य दोनों को तप करने की आवश्यकता है, परन्तु दोनों में भी धर्माचार्य का दायित्व विशेष है क्योंकि वे शीर्षस्थान पर हैं।
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तपश्चर्या से अपना सामर्थ्य बढाने के बाद, समाज को सच्चरित्र बनाने की योजना के बाद धर्माचार्यों ने शिक्षाक्षेत्र के साथ समायोजन करना चाहिये। धर्माचार्य और शिक्षक दोनों ने मिलकर धर्मानुसारी शिक्षा का प्रतिमान विकसित करना चाहिये । इस शिक्षा का प्रसार किस प्रकार हो इसकी योजना करनी चाहिये।
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तपश्चर्या से अपना सामर्थ्य बढाने के बाद, समाज को सच्चरित्र बनाने की योजना के बाद धर्माचार्यों को शिक्षाक्षेत्र के साथ समायोजन करना चाहिये। धर्माचार्य और शिक्षक दोनों को मिलकर धर्मानुसारी शिक्षा का प्रतिमान विकसित करना चाहिये । इस शिक्षा का प्रसार किस प्रकार हो, इसकी योजना करनी चाहिये।
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उदाहरण के लिये भारत के हर मन्दिर, मठ, संस्थान, मिशन आदिने शिक्षा की व्यवस्था करनी चाहिये और उसे राज्यनिरपेक्ष और अर्थनिरपेक्ष बनाना चाहिये । धार्मिक शिक्षा का जो स्वरूप है उसे साकार करने वाली यह शिक्षाव्यवस्था होनी चाहिये। यह सर्व प्रकार से सम्प्रदायनिरपेक्ष तो स्वभाव से ही होगी।
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उदाहरण के लिये भारत के हर मन्दिर, मठ, संस्थान, मिशन आदि को शिक्षा की व्यवस्था करनी चाहिये और उसे राज्यनिरपेक्ष और अर्थनिरपेक्ष बनाना चाहिये । धार्मिक शिक्षा का जो स्वरूप है उसे साकार करने वाली यह शिक्षाव्यवस्था होनी चाहिये। यह सर्व प्रकार से सम्प्रदायनिरपेक्ष तो स्वभाव से ही होगी।
    
सम्पूर्ण देश की शिक्षा को धर्मानुसारी बनाना धर्माचार्यों और शिक्षकों का संयुक्त कर्तव्य है।
 
सम्पूर्ण देश की शिक्षा को धर्मानुसारी बनाना धर्माचार्यों और शिक्षकों का संयुक्त कर्तव्य है।
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=== भारत के शिक्षाक्षेत्र  की पुनर्रचना ===
 
=== भारत के शिक्षाक्षेत्र  की पुनर्रचना ===
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==== भारत में धार्मिक शिक्षा होनी चाहिये ====
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==== भारत में भारतीय शिक्षा होनी चाहिये ====
यह एक स्वाभाविक कथन है । कभी कभी तो लोग आश्चर्य व्यक्त करते हैं कि ऐसा कथन करने की आवश्यकता ही क्या है। भारत में शिक्षा धार्मिक ही तो है। भारत सरकार इसे चला रही है। भारत के ही संसाधनों से चलती है। भारत के ही लोग इसे चला रहे हैं। भारत के ही संचालक, भारत के ही शिक्षक, भारत के ही विद्यार्थी हैं फिर शिक्षा का धार्मिक होना स्वाभाविक ही तो है। फिर धार्मिक होनी चाहिये ऐसा कहने का प्रयोजन ही क्या है ? भारत के लोगोंं को धार्मिक होना चाहिये ऐसा कभी कोई कहता है क्या ? हमारा संविधान हमें भारत का नागरिकत्व देता है फिर प्रश्न ही नहीं है। अमेरिका के अमेरिकन, चीन के चीनी, अफ्रीका के अफ्रीकी तो भारत के लोग धार्मिक हैं यह जितना स्वाभाविक है उतना ही स्वाभाविक भारत में शिक्षा का धार्मिक होना है। भारत में शिक्षा धार्मिक होनी चाहिये इस कथन का कोई विशेष प्रयोजन ही नहीं है।
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यह एक स्वाभाविक कथन है । कभी कभी तो लोग आश्चर्य व्यक्त करते हैं कि ऐसा कथन करने की आवश्यकता ही क्या है। भारत में शिक्षा भारतीय ही तो है। भारत सरकार इसे चला रही है। भारत के ही संसाधनों से चलती है। भारत के ही लोग इसे चला रहे हैं। भारत के ही संचालक, भारत के ही शिक्षक, भारत के ही विद्यार्थी हैं फिर शिक्षा का भारतीय होना स्वाभाविक ही तो है। फिर भारतीय होनी चाहिये ऐसा कहने का प्रयोजन ही क्या है ? भारत के लोगोंं को भारतीय होना चाहिये ऐसा कभी कोई कहता है क्या ? हमारा संविधान हमें भारत का नागरिकत्व देता है फिर प्रश्न ही नहीं है। अमेरिका के अमेरिकन, चीन के चीनी, अफ्रीका के अफ्रीकी, तो भारत के लोग भारतीय हैं यह जितना स्वाभाविक है उतना ही स्वाभाविक भारत में शिक्षा का भारतीय होना है। भारत में शिक्षा भारतीय होनी चाहिये इस कथन का कोई विशेष प्रयोजन ही नहीं है।
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देश के अधिकतम लोगोंं के लिये यह प्रश्न ही नहीं है। धार्मिक और अधार्मिक जैसी संज्ञाओं से कोई विशेष अर्थबोध होता है ऐसा भी नहीं है। धार्मिक होने से और अधार्मिक होने से क्या अन्तर हो जायेगा इसकी कल्पना भी नहीं है। घूमन्तु, अनपढ, भिखारी, गँवार, मजदूर ऐसे लोगोंं की यह स्थिति है ऐसा नहीं है, झुग्गी झोंपडियों में रहनेवाले, दिनभर परिश्रम करके मुश्किल से दो जून रोटी
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देश के अधिकतम लोगोंं के लिये यह प्रश्न ही नहीं है। भारतीय और अभारतीय जैसी संज्ञाओं से कोई विशेष अर्थबोध होता है ऐसा भी नहीं है। भारतीय होने से और अभारतीय होने से क्या अन्तर हो जायेगा इसकी कल्पना भी नहीं है। घूमन्तु, अनपढ, भिखारी, गँवार, मजदूर ऐसे लोगोंं की यह स्थिति है ऐसा नहीं है, झुग्गी झोंपडियों में रहनेवाले, दिनभर परिश्रम करके मुश्किल से दो जून रोटी खाने वाले लोगोंं की यह बात नहीं है। कार्यालयों में बाबूगीरी या अफसरी करने वाले, व्यापार करने वाले, उद्योग चलाने वाले, लाखों रूपये कमाने वाले, लाखों रूपये अपने बच्चों की शिक्षा पर खर्च करने वाले, शिक्षा संस्थाओं का संचालन करने वाले, उनमें पढाने वाले, अधिकांश लोग ऐसे हैं जिन्हें भारतीय और अभारतीय का प्रश्न ही परेशान नहीं करता है। उन्हें कभी कभी शिक्षा अच्छी होनी चाहिये, सुलभ होनी चाहिये, सरलता से नौकरी दिलाने वाली होनी चाहिये ऐसा तो लगता है, विद्यालयों के अभिभावक सम्मेलनों में या गोष्ठियों में अच्छी शिक्षा के विषय पर तो चर्चा होती है परन्तु धार्मिक और अधार्मिक के प्रश्न की चर्चा नहीं होती। सामान्य जन के लिये शिक्षा नौकरी दिलाने वाली होने से, प्रतिष्ठा दिलाने वाली होने से प्रयोजन है। उसे अपने बच्चे की चिन्ता है, अपने निर्वाह की चिन्ता है, देश के, समाज के या शिक्षा के विषय में विचार करना उसके विश्व का हिस्सा नहीं है। सामान्य जन अपने आपसे मतलब रखता है, अपने परिवार से मतलब रखता है, उससे आगे या उससे परे जाकर चिन्ता करने की आवश्यकता उसे नहीं लगती। ऐसी अपेक्षा भी उससे कम ही की जाती है। हाँ, धार्मिक संगठन धर्म के लिये अर्थात् अपने सम्प्रदाय के लिये और राजकीय पक्ष अपने पक्ष के लिये कुछ कार्य करते दिखाई देते हैं परन्तु कुल मिलाकर देश के लिये और शिक्षा के लिये काम करने वाले कम ही लोग दिखाई देते हैं।
 
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खाने वाले लोगोंं की यह बात नहीं है। कार्यालयों में बाबूगीरी या अफसरी करने वाले, व्यापार करने वाले, उद्योग चलाने वाले, लाखों रूपये कमाने वाले, लाखों रूपये अपने बच्चों की शिक्षा पर खर्च करने वाले, शिक्षा संस्थाओं का संचालन करने वाले, उनमें पढाने वाले, अधिकांश लोग ऐसे हैं जिन्हें धार्मिक और अधार्मिक का प्रश्न ही परेशान नहीं करता है। उन्हें कभी कभी शिक्षा अच्छी होनी चाहिये, सुलभ होनी चाहिये, सरलता से नौकरी दिलाने वाली होनी चाहिये ऐसा तो लगता है, विद्यालयों के अभिभावक सम्मेलनों में या गोष्ठियों में अच्छी शिक्षा के विषय पर तो चर्चा होती है परन्तु धार्मिक और अधार्मिक के प्रश्न की चर्चा नहीं होती। सामान्य जन के लिये शिक्षा नौकरी दिलाने वाली होने से, प्रतिष्ठा दिलाने वाली होने से प्रयोजन है। उसे अपने बच्चे की चिन्ता है, अपने निर्वाह की चिन्ता है, देश के, समाज के या शिक्षा के विषय में विचार करना उसके विश्व का हिस्सा नहीं है। सामान्य जन अपने आपसे मतलब रखता है, अपने परिवार से मतलब रखता है, उससे आगे या उससे परे जाकर चिन्ता करने की आवश्यकता उसे नहीं लगती। ऐसी अपेक्षा भी उससे कम ही की जाती है। हाँ, धार्मिक संगठन धर्म के लिये अर्थात् अपने सम्प्रदाय के लिये और राजकीय पक्ष अपने पक्ष के लिये कुछ कार्य करते दिखाई देते हैं परन्तु कुल मिलाकर देश के लिये और शिक्षा के लिये काम करने वाले कम ही लोग दिखाई देते हैं।
      
==== धार्मिक शिक्षा हेतु कार्यरत संगठन ====
 
==== धार्मिक शिक्षा हेतु कार्यरत संगठन ====
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धर्म की और मुक्ति की तो बात ही बेमानी है । धर्म का नाम लेते ही साम्प्रदायिकता का लेबल चिपक जाता है और हजार प्रकार की परेशानियाँ निर्माण हो जाती है। आज के धर्माचार्य, साधु संन्यासी सब भोंदूगीरी ही तो कर रहे हैं। यह जमाना विज्ञान का है। विज्ञान के जमाने में वेद, उपनिषद पढाना बुद्धिमानी नहीं है । दुनिया आगे बढ़ रही है और हम पीछे जाने की बात कर रहे हैं।
 
धर्म की और मुक्ति की तो बात ही बेमानी है । धर्म का नाम लेते ही साम्प्रदायिकता का लेबल चिपक जाता है और हजार प्रकार की परेशानियाँ निर्माण हो जाती है। आज के धर्माचार्य, साधु संन्यासी सब भोंदूगीरी ही तो कर रहे हैं। यह जमाना विज्ञान का है। विज्ञान के जमाने में वेद, उपनिषद पढाना बुद्धिमानी नहीं है । दुनिया आगे बढ़ रही है और हम पीछे जाने की बात कर रहे हैं।
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आज अंग्रेजी सीखनी चाहिये, कम्प्यूटर सीखना चाहिये, मेनेजमेण्ट सिखना चाहिये, टेक्नोलोजी सीखनी चाहिये । भारत को विश्व में स्थान मिलना चाहिये और उसे प्राप्त करने के लिये इन सारे विषयों की आवश्यकता है। वेद, उपनिषद सीखने के लिये संस्कृत सीखनी पड़ेगी। संस्कृत अब 'आउट ऑफ डेट' है। अंग्रेजी ने विश्वभाषा का स्थान ले लिया है।
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आज अंग्रेजी सीखनी चाहिये, कम्प्यूटर सीखना चाहिये, मेनेजमेण्ट सिखना चाहिये, टेक्नोलोजी सीखनी चाहिये । भारत को विश्व में स्थान मिलना चाहिये और उसे प्राप्त करने के लिये इन सारे विषयों की आवश्यकता है। वेद, उपनिषद सीखने के लिये संस्कृत सीखनी पडेगी। संस्कृत अब 'आउट ऑफ डेट' है। अंग्रेजी ने विश्वभाषा का स्थान ले लिया है।
    
भारत ने अमेरिका में जाकर अपना स्थान बनाना चाहिये और प्रतिष्ठा प्राप्त करनी चाहिये । भारत के लोग बुद्धिमान हैं, कर्तृत्ववान हैं, विश्वमानकों पर खरे उतरने वाले हैं। उन्हें इस दिशा में पुरुषार्थ करना चाहिये । इसके लिये अंग्रेजी, विज्ञान तथा कम्प्यूटर पर प्रभुत्व प्राप्त करना चाहिये । हमें आधुनिक बनना चाहिये ।
 
भारत ने अमेरिका में जाकर अपना स्थान बनाना चाहिये और प्रतिष्ठा प्राप्त करनी चाहिये । भारत के लोग बुद्धिमान हैं, कर्तृत्ववान हैं, विश्वमानकों पर खरे उतरने वाले हैं। उन्हें इस दिशा में पुरुषार्थ करना चाहिये । इसके लिये अंग्रेजी, विज्ञान तथा कम्प्यूटर पर प्रभुत्व प्राप्त करना चाहिये । हमें आधुनिक बनना चाहिये ।

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