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विश्वविद्यालयों को सब का मिलकर एक ग्रन्थागार भी बनाना चाहिये। यह अभिनव स्वरूप का रहेगा। सभी पचास विश्वविद्यालयों द्वारा निर्मित, सभी भाषाओं में निर्मित साहित्य एक स्थान पर उपलब्ध हो ऐसी व्यवस्था करनी चाहिये । साथ ही विभिन्न विषयों और विद्याशाखाओं के मूल ग्रन्थ तथा भारत में विभिन्न भाषाओं में लिखित भाष्यग्रन्थों का समावेश इस केन्द्रीय ग्रन्थालय में होना चाहिये । नालन्दा विद्यापीठ का ज्ञानगंज ग्रन्थालय सभी ग्रन्थालयों के मानक के रूप में आज भी सर्वविदित है । इससे प्रेरणा प्राप्त कर इस ग्रन्थालय की रचना हो सकती है।
 
विश्वविद्यालयों को सब का मिलकर एक ग्रन्थागार भी बनाना चाहिये। यह अभिनव स्वरूप का रहेगा। सभी पचास विश्वविद्यालयों द्वारा निर्मित, सभी भाषाओं में निर्मित साहित्य एक स्थान पर उपलब्ध हो ऐसी व्यवस्था करनी चाहिये । साथ ही विभिन्न विषयों और विद्याशाखाओं के मूल ग्रन्थ तथा भारत में विभिन्न भाषाओं में लिखित भाष्यग्रन्थों का समावेश इस केन्द्रीय ग्रन्थालय में होना चाहिये । नालन्दा विद्यापीठ का ज्ञानगंज ग्रन्थालय सभी ग्रन्थालयों के मानक के रूप में आज भी सर्वविदित है । इससे प्रेरणा प्राप्त कर इस ग्रन्थालय की रचना हो सकती है।
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साथ ही एक कार्य विश्वभर की विभिन्न विचारधाराओं के साथ भारतीय विचारधारा का तुलनात्मक
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साथ ही एक कार्य विश्वभर की विभिन्न विचारधाराओं के साथ भारतीय विचारधारा का तुलनात्मक अध्ययन तथा विश्व की वर्तमान स्थिति, उसके संकट, समस्याओं तथा उनके भारतीय हल आदि विषयों का समावेश करने वाला अध्ययन भी इन विश्वविद्यालयों का कार्यक्षेत्र बनना आवश्यक है।
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इन विश्वविद्यालयों की गोष्ठियाँ, अनुसन्धान की पत्रिका तथा मुखपत्रों का प्रकाशन होना तो सहज है।
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भारत में पूर्व में भी विद्यापीठों ने इसी प्रकार काम किया है और भारत के ज्ञान को विश्व में ले जाने में वे यशस्वी हुए हैं। विश्व ने ज्ञान का प्रकाश उन्हीं विश्वविद्यालयों से पाया है। ऐसे विश्वविद्यालयों की स्थापना भारतीय शिक्षा की पुनर्रचना का प्रथम चरण है। समाज द्वारा पोषित और समर्पित ये विश्वविद्यालय अन्य सभी आयामों के लिये मार्गदर्शक होंगे।
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==== आर्थिक पुनर्रचना ====
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विश्वविद्यालयों को आर्थिक क्षेत्र में दो प्रकार से काम करना होगा।
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# शिक्षा का आर्थिक पक्ष व्यवस्थित करना
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# समाज की आर्थिक व्यवस्था ठीक करना
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वर्तमान विश्वस्थिति को देखते हुए आर्थिक पक्ष की ओर ध्यान देना आवश्यक है । इसका कारण यह है कि विश्व आज अर्थसंकट से ग्रस्त हो गया है। इसका मूल कारण पश्चिमी देशों की जीवन व्यवस्था अर्थनिष्ठ है । उपभोग प्रधान जीवनशैली होने के कारण उन्हें अर्थ की आवश्यकता अधिक होती है और अर्थप्राप्ति ही परम पुरुषार्थ होने के कारण अर्थप्राप्ति के प्रयासों को कोई बन्धन नहीं है। कोई मर्यादा नहीं है। भारत अपने स्वभाव से अर्थनिष्ठ नहीं है, धर्मनिष्ठ है। चार पुरुषार्थों में अर्थ भी एक पुरुषार्थ है और सभी आवश्यकताओं को अच्छी तरह से पूर्ण किया जा सके ऐसा अर्थसम्पादन सबको करना चाहिये ऐसा आदेश सभी गृहस्थाश्रमियों को दिया जाता है। ऐसा आदेश धर्म ही देता है । परन्तु मनुष्य के अर्थ पुरुषार्थ को ओर उपभोग को धर्म की मर्यादा में बाँधा गया है। परिणाम स्वरूप सबकी आवश्यकताओं की पूर्ति सम्यक् रूप से होती है।
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परन्तु आज भारत, पश्चिमी प्रभाव से ग्रस्त हो गया है। हम जब कहते हैं कि भारत में शिक्षा भारतीय नहीं है
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तब वह कथन सम्पूर्ण जीवन को लागू होता है। भारत में आज सम्पूर्ण जीवनव्यवस्था ही भारतीय नहीं रही। पश्चिमी जीवनदृष्टि का प्रभाव जीवनव्यापी हुआ है। अतः धर्मनिष्ठ भारत आज अर्थनिष्ठ बन गया है। हम पैसे को सर्वस्व मानते हैं, एक मात्र प्राप्त करने लायक वस्तु मानते हैं, येन केन प्रकारेण उसे प्राप्त करने का प्रयास करते हैं, अर्थ के ही सन्दर्भ में सभी बातों का मूल्यांकन करते हैं। अर्थ, धर्म, ज्ञान, संस्कार, सद्गुण, भावना, राजनीति, परिवार व्यवस्था, शिक्षा आदि का नियन्त्रक बन गया है।
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इसके कारण अनेक संकट निर्माण हुए हैं । सर्वाधिक संकट तो स्वयं अर्थक्षेत्र का ही है। इस प्रकार इनकी सूची बना सकते हैं...
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* दारिद्य में वृद्धि
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* जीवनावश्यक वस्तुओं का अभाव
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* बेरोजगारी
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* भ्रष्टाचार और अनाचार
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* वस्तुओं की गुणवत्ता का ह्रास और कीमतो में वृद्धि
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* वितरण व्यवस्ता में जटिलता
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* उत्पादन का केन्द्रीकरण
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* विज्ञापन
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इनके साथ साथ स्वास्थ्य में गिरावट और पर्यावरण का प्रदूषण भी बढा है। अर्थक्षेत्र ने राजकीय क्षेत्र को अपने नियन्त्रण में ले लिया है। देश की अर्थनीति संसद नहीं बनाती, उससे बनवाई जाती है। चुनाव अर्थ के प्रभाव से ही जीते जाते हैं।
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अर्थ के अभाव से कई समस्यायें निर्माण होती हैं, अर्थ के प्रभाव से भी होती हैं।
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==== शिक्षा के व्यवस्थापक्ष की पुनर्रचना ====
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शिक्षा के व्यवस्थाकीय पक्ष के मुख्य सूत्र इस प्रकार है.....
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# शिक्षा राज्य और समाज दोनों का मार्गदर्शन करनेवाली है। जो मार्गदर्शन करता है वह मार्गदर्शन प्राप्त करने वाले के अधीन रहे यह दोनों में से एक को भी अनुकूल नहीं है। इसलिये शिक्षाक्षेत्र राज्य और समाज दोनों से उपर, स्वायत्त, स्वाधीन होना चाहिये।
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# शिक्षाक्षेत्र शिक्षक के अधीन होना चाहिये । शिक्षक अपने से श्रेष्ठ शिक्षक द्वारा ही नियुक्त होना चाहिये । शिक्षक नहीं है ऐसी कोई सत्ता उसे नियुक्त नहीं करेगी।
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# इसी कारण से उसे विद्यार्थी के तथा सम्पूर्ण समाज के चरित्र का दायित्व लेना होता है। जैसा विद्यालय वैसी शिक्षा, जैसी शिक्षा वैसा समाज परन्तु जैसा शिक्षक वैसा विद्यालय ।
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# इसलिये केन्द्र सरकार से लेकर छोटे गाँव तक जो शिक्षकों की नियुक्ति की व्यवस्था बनी है वह बदलनी होगी।
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# जो पढाता है, पढता है, अनुसन्धान करता है शैक्षिक साहित्य निर्माण करता है वही शिक्षक ऐसी शिक्षक की परिभाषा बनानी होगी।
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# विद्यालय के शिक्षक, मुख्यशिक्षक यह तो विद्यालय की व्यवस्था होगी। मुख्य शिक्षक यदि विद्यालय की स्थापना करता है तो वह स्वयंनियुक्त होगा। अपने अनुगामी मुख्य शिक्षक की तथा अन्य शिक्षकों की नियुक्ति करेगा। विद्यार्थियों का प्रवेश, पाठ्यक्रम, मूल्यांकन आदि के विषय में विद्यालय का शिक्षकवृन्द ही व्यवस्था करेगा।
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# यदि सारे मुख्य शिक्षक और शिक्षक चाहें तो गाँव या नगर के सभी विद्यालयों की शिक्षक परिषद या आचार्य परिषद बन सकती है। यह परिषद शैक्षिक विषयों तक सीमित रहेगी, व्यवस्थाकीय विषयों में प्रत्यक विद्यालय स्वायत्त ही रहेगा। विद्यालय मुख्य शिक्षक के नाम से जाना जायेगा।
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# विद्यालय की अर्थव्यवस्था मुख्यशिक्षक के नेतृत्व में अन्य शिक्षक और विद्यार्थी मिलकर करेंगे यह तो सीधी समझ में आने वाली बात है।
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# सामान्य अध्ययन स्थानिक स्वरूप का ही होगा। प्रगत अध्ययन के लिये बड़े विद्यालय होंगे जहाँ अन्य स्थानों से भी विद्यार्थी अध्ययन के लिये आयेंगे। ये विद्यार्थी गुरु के साथ ही रहेंगे। यह गुरुकुल कहा जायेगा। इनमें पढ़ने वाले विद्यार्थियों के लिये निःशुल्क व्यवस्था होगी। वे घर के सदस्य के समान रहेंगे । व्यवस्थाओं में भी सहभागी बनेंगे।
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# गुरुकुलों में कुलपति होंगे। यदि उन्होंने गुरुकुल स्थापन किया है तो वे स्वयंनियुक्त कुलपति होंगे, नहीं तो पूर्व कुलपति के द्वारा नियुक्त । सभी आचार्यों की नियुक्ति कुलपति द्वारा होगी।
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# गुरुकुल की सारी भौतिक व्यवस्थायें भी आचार्य और विद्यार्थी मिलकर ही करेंगे।
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# नगर के लोग विद्यापीठ या गुरुकुल के कार्यक्रमों में सहभागी बन सकते हैं। छोटे मोटे काम करके सेवा भी कर सकते हैं। नगरजन गुरुकुल को अपने कार्यक्रमों में नियन्त्रित भी कर सकते हैं । गृहस्थों के कामों में गुरुकुल मार्गदर्शक भी बन सकता है। विशेषरूप से गृहस्थजीवन की समस्याओं में परामर्शक के रूप में आचार्यवृन्द सहभागी बन सकता है।
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# प्रगत अध्ययन के ये केन्द्र सामाजिक चेतना के केन्द्र के रूप में काम करेंगे।
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# विद्यार्थियों के प्रवेश, परीक्षा, पाठ्यक्रम आदि के निर्णय गुरुकुल अथवा विद्यापीठ स्वयं लेगा।
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# राज्य के और समस्त देश के गुरुकुलों या विद्यापीठों की विद्वत् परिषद या आचार्य परिषद बनेगी। आचार्य परिषद के सदस्य कौन बन सकते हैं इसके मापदण्ड कुलपतियों की परिषद निश्चित करेगी। ये मापदण्ड निश्चित ही ज्ञानक्षेत्र और धर्मक्षेत्र को शोभा देने वाले ही होंगे।
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# स्थानिक, जिलास्तरीय और राज्यस्तरीय विद्वत्प रिषदें बनेंगी जो विद्यालयों को शैक्षिक सहयोग करेंगी।
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# सम्पूर्ण देश की मिलकर एक विद्वत् परिषद और एक कुलपति परिषद होगी। कुलपति अपने में से ही कुलाधिपति का चयन करेंगे। यह कुलपति परिषद कुलाधिपति के नेतृत्व में राज्य और समाजधुरीणों से संवाद और समायोजन स्थापित करेंगे।
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# देशविदेशों के शिक्षाक्षेत्र के साथ सम्पर्क में रहना, उनसे संवाद स्थापित करना, वहाँ जाना और उन्हें अपने यहाँ निमन्त्रित करना कुलपति परिषद का काम है।
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# देश के ज्ञान का रक्षण, वर्धन, परिष्करण करना, अगली पीढी को हस्तान्तरित करना, जीवन की और जगत की समस्याओं का ज्ञानात्मक समाधान करना, राज्य और समाज के कल्याण हेतु नित्य चिन्तन करना, मार्गदर्शन करने हेतु सदैव सिद्ध रहना, नित्य ज्ञानसाधक और विद्यावृत्ती रहना, ज्ञान के प्रति एकानिष्ठ रहना, ज्ञान का अनादर नहीं होने देना, अज्ञानी को प्रश्रय नहीं देना, सत्ता या धन के समक्ष नहीं झुकना, इनके स्वार्थों के साथ समझौते नहीं करना, राज्य की ओर से पुरस्कार या अर्थसहयोग की अपेक्षा नहीं करना, सम्मान और खुशामद का अन्तर समझना विद्यापीठों के लिये अत्यन्त आवश्यक है।
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# सर्व स्तरों पर विद्यासंस्था के मुखिया को धर्मसंस्था के मुखिया के साथ समयायोजन करना आवश्यक है। धर्म और शिक्षा एक ही सिस्के के दो पक्ष हैं। शिक्षा वही है जो धर्म सिखाती है । शिक्षा के बिना धर्म का प्रसार नहीं होगा, धर्म के बिना शिक्षा का आधार नहीं बनेगा। दोनों परस्परपूरक हैं। अतः दोनों का एकदूसरे के साथ मेल होना आवश्यक है। शिक्षक को धर्मतत्त्व अवगत होना चाहिये, धर्माचार्य को शिक्षक की कला का ज्ञान होना चाहिये । दोनों यदि एक ही हैं तब तो अच्छा ही है परन्तु व्यवस्था की दृष्टि से दोनों भिन्न रहेंगे। शिक्षक और धर्माचार्य में कौन बडा है ऐसा यदि कोई पूछता है तो निश्चित ही धर्माचार्य बडा है, अधिक सम्माननीय है। एक ही साथ यदि राष्ट्रपति, कुलाधिपति और धर्माधिपति उपस्थित हों तो सर्वोच्च स्थान धर्माधिपति को, दूसरा स्थान कुलाधिपति को और तीसरा राष्ट्रपति को दिया जाना चाहिये । भारतीय समाज की यही व्यवस्था रही है, युगों से रही है। भारत के लिये यही स्वाभाविक व्यवस्था है।
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==== किसकी शिक्षा कहाँ और कैसे हो ====
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भारतीय शिक्षा की पुनर्रचना का एक और आयाम है किसकी शिक्षा कहाँ और कैसे होगी इसका विचार करना । इसका विचार कुछ इस प्रकार किया जा सकता है....
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१. गर्भाधान से लेकर सात वर्ष की आयु तक की शिक्षा घर में ही मातापिता के सान्निध्य में होगी। इसी दृष्टि से माता को बालक की प्रथम गुरु कहा है।
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२. इसके बाद पन्द्रह वर्ष तक की शिक्षा तीन केन्द्रों में विभाजित होगी। एक केन्द्र होगा घर जहाँ गृहस्थ बनने की शिक्षा होगी। इस सन्दर्भ में पिता गुरु है और माता उसकी सहायक । दूसरा केन्द्र विद्यालय है जहाँ उसे देशदुनिया का और धर्म का ज्ञान मिलेगा। विद्यालय के शिक्षक उसके गुरु होंगे। तीसरा केन्द्र होगा उत्पादन का केन्द्र जहाँ वह व्यवसाय सीखेगा। व्यवसाय का मालिक उसका गुरु होगा। तीनों केन्द्रों पर एक विद्यार्थी की तरह ही उसके साथ व्यवहार होगा। यदि उसे शिक्षक, पुरोहित, राज्यकर्ता, अमात्य आदि बनना है तो विद्यालय में ही जायेगा, उत्पादन केन्द्र में जाने की आवश्यकता नहीं।
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३. पन्द्रह वर्ष से लेकर विवाह करता है तब तक तीनों केन्द्र पर ही रहेगा परन्तु अब उसका विद्यार्थी और शिक्षक दोनों का काम शुरू होगा। अर्थात् वह
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८.
    
कर्तव्य का विचार प्रथम करना है, भोग और सुविधा के बारे में अपने आपको अन्त में रखना है। इस तथ्य का स्वीकार करना तप का प्रथम चरण है। तप त्याग की अपेक्षा करता है । वर्तमान स्थिति को देखते हुए प्रथम त्याग सम्मान और प्रतिष्ठा का करना होगा । आज अनुयायिओं की ओर से जो सम्मान मिलता है और उसके कारण जो प्रतिष्ठा मिलती है वह हमें तप नहीं करने देती। इन दो बातों के लिये सिद्धता करेंगे तो आगे के तप के लिये भी सिद्धता होगी। धर्माचार्यों को आज बौद्धिक तप की बहुत आवश्यकता है। इस तप के मुख्य आयाम इस प्रकार
 
कर्तव्य का विचार प्रथम करना है, भोग और सुविधा के बारे में अपने आपको अन्त में रखना है। इस तथ्य का स्वीकार करना तप का प्रथम चरण है। तप त्याग की अपेक्षा करता है । वर्तमान स्थिति को देखते हुए प्रथम त्याग सम्मान और प्रतिष्ठा का करना होगा । आज अनुयायिओं की ओर से जो सम्मान मिलता है और उसके कारण जो प्रतिष्ठा मिलती है वह हमें तप नहीं करने देती। इन दो बातों के लिये सिद्धता करेंगे तो आगे के तप के लिये भी सिद्धता होगी। धर्माचार्यों को आज बौद्धिक तप की बहुत आवश्यकता है। इस तप के मुख्य आयाम इस प्रकार
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