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उदाहरण के लिये धर्मपरायण होना, सज्जन होना, बलवान होना, बुद्धिमान होना, व्यवहारदक्ष होना, प्रचुर होना, सबके लिये समान रूप से लागू है।
 
उदाहरण के लिये धर्मपरायण होना, सज्जन होना, बलवान होना, बुद्धिमान होना, व्यवहारदक्ष होना, प्रचुर होना, सबके लिये समान रूप से लागू है।
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२. सन्दर्भ विशेष के लिये विशेष पाठ्यक्रम । व्यक्ति विभिन्न परिस्थितियों में विभिन्न भूमिकाओं में होता है। कहीं पिता है तो कहीं पुत्र, कहीं शिक्षक है तो कहीं विद्यार्थी, कहीं राजा है तो कहीं अमात्य, आज की भाषा में कहें तो कहीं सांसद या मंत्री है तो कहीं सचिव, तो कहीं प्रजाजन, कहीं उद्योजक है तो कहीं व्यापारी, कहीं कृषक है तो कहीं गोपाल । इन भूमिकाओं के अनुरूप उसे शिक्षा की आवश्यकता होती है। उदाहरण के लिये एक गोपाल को गायों की जाति, उनके स्वभाव, उनकी आवश्यकताओं, उसके आहार, उनकी क्षमता, उनकी बिमारी आदि का ज्ञान होना आवश्यक है। साथ ही उनकी सन्तति, उनका दूध, दूध की व्यवस्था आदि विषयों का ज्ञान होना भी आवश्यक है। एक उत्पादक को उत्पादन करने योग्य वस्तुयें, लोगों की आवश्यकता, उत्पादन प्रक्रिया, उत्पादन हेतु आवश्यक यन्त्र, स्थान,
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२. सन्दर्भ विशेष के लिये विशेष पाठ्यक्रम । व्यक्ति विभिन्न परिस्थितियों में विभिन्न भूमिकाओं में होता है। कहीं पिता है तो कहीं पुत्र, कहीं शिक्षक है तो कहीं विद्यार्थी, कहीं राजा है तो कहीं अमात्य, आज की भाषा में कहें तो कहीं सांसद या मंत्री है तो कहीं सचिव, तो कहीं प्रजाजन, कहीं उद्योजक है तो कहीं व्यापारी, कहीं कृषक है तो कहीं गोपाल । इन भूमिकाओं के अनुरूप उसे शिक्षा की आवश्यकता होती है। उदाहरण के लिये एक गोपाल को गायों की जाति, उनके स्वभाव, उनकी आवश्यकताओं, उसके आहार, उनकी क्षमता, उनकी बिमारी आदि का ज्ञान होना आवश्यक है। साथ ही उनकी सन्तति, उनका दूध, दूध की व्यवस्था आदि विषयों का ज्ञान होना भी आवश्यक है। एक उत्पादक को उत्पादन करने योग्य वस्तुयें, लोगों की आवश्यकता, उत्पादन प्रक्रिया, उत्पादन हेतु आवश्यक यन्त्र, स्थान, भवन, उत्पादन में सहभागी होनेवाले मनुष्यों के स्वभाव, क्षमताओं और आवश्यकताओं, उत्पादन से समाज पर और प्रकृति पर होनेवाला प्रभाव, बाजार पर होने वाला प्रभाव आदि के बारे में शिक्षा मिलने की आवश्यकता है। भारतीय ज्ञानधारा के अनुकूल इन भूमिकाओं के लिये विभिन्न प्रकार के विभिन्न स्तरों के पाठ्यक्रम बनना आवश्यक है।
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३. ज्ञानक्षेत्र की आवश्यकता की पूर्ति हेतु पाठ्यक्रम
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ज्ञानक्षेत्र की स्थिति और विकास हेतु विभिन्न प्रकार के प्रयासों की आवश्यकता रहेगी। इस दृष्टि से विभिन्न प्रकार के पाठ्यक्रमों की आवश्यकता रहेगी। उदाहरण के लिये सामान्य व्यवहार के लिये एक प्रकार के तो प्रगत अध्ययन के लिये अलग प्रकार के पाठ्यक्रम की आवश्यकता रहेगी। इसी प्रकार से उस शास्त्र की शिक्षा हेतु एक प्रकार के और अनुसन्धान हेतु अन्य प्रकार के पाठ्यक्रमों की आवश्यकता रहेगी।
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इस प्रकार से विभिन्न विषयों के, विभिन्न स्तरों के, विभिन्न प्रयोजनों को पूर्ण करने वाले पाठ्यक्रमों की सूची एवं रूपरेखा बनाने का महत्त्वपूर्ण कार्य इन विश्वविद्यालयों को करना चाहिये।
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==== सन्दर्भ साहित्य का निर्माण ====
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यह सबसे अधिक समय और शक्ति की अपेक्षा करनेवाला काम है। पाठ्यक्रमों की रूपरेखा बनने वाला काम है। पाठ्यक्रमों की रूपरेखा बनने से शिक्षा नहीं होती। इसके लिये पुस्तकें आवश्यक हैं। आजकल लोग दृश्यश्राव्य सामग्री की उपयोगिता और परिणामकारकता की चर्चा करते हैं। इस कथन के विषय में चर्चा करने की आवश्यकता है परन्तु चर्चा अन्यत्र होगी। यहाँ इतना तो कह सकते हैं कि इनके लिये भी मूल तो लिखा हुआ ही होना चाहिये । हम दूसरे के पास अपना ज्ञान बोलकर या लिखकर ही पहुँचा सकते हैं।
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तात्पर्य यह है कि पुस्तकें चाहिये । विभिन्न रुचि, क्षमता, आयु के लोगों के लिये । विभिन्न शैलियों में पुस्तकें तैयार करने की आवश्यकता रहेगी।
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उदाहरण के लिये पुस्तकों के इतने प्रकार हो सकते हैं...१. सूत्रग्रन्थ, २. भाष्यग्रन्थ, ३. सन्दर्भ ग्रन्थ, ४. निरूपण ग्रन्थ, ५. कथा ग्रन्थ, ६. काव्य ग्रन्थ, ७. संवाद ग्रन्थ, ८. चित्र ग्रन्थ आदि ।
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ये विभिन्न स्तरों के लिये भी होने की आवश्यकता है जैसे कि शिशुओं के लिये, कम शिक्षित लोगों के लिये, शिक्षकों के लिये, विद्वानों के लिये, व्यवसायिओं के लिये आदि।
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ये ग्रन्थ भारत की सभी भाषाओं में होने चाहिये, प्रभूत मात्रा में होने चाहिये, सुलभ होने चाहिये, सुबोध भाषा में और अभिव्यक्ति में होने चाहिये । पर्याप्त होने चाहिये।
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यह बडा चुनौतीपूर्ण कार्य है। सभी लेखकों और विद्वानों का अनुभव है कि सरल बातों को भी कठिन बना देना तो सरल है परन्तु कठिन बातों को सरल बनाना कठिन है। बडे बडे विद्वान छोटे बच्चों के लिये पुस्तक नहीं लिख सकते, सामान्य व्यक्ति को गहन विषय नहीं समझा सकते । इसलिये विद्वानों के लिये सरल अभिव्यक्ति सिखाने की व्यवस्था करना भी आवश्यक है।
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विश्वविद्यालयों को सब का मिलकर एक ग्रन्थागार भी बनाना चाहिये। यह अभिनव स्वरूप का रहेगा। सभी पचास विश्वविद्यालयों द्वारा निर्मित, सभी भाषाओं में निर्मित साहित्य एक स्थान पर उपलब्ध हो ऐसी व्यवस्था करनी चाहिये । साथ ही विभिन्न विषयों और विद्याशाखाओं के मूल ग्रन्थ तथा भारत में विभिन्न भाषाओं में लिखित भाष्यग्रन्थों का समावेश इस केन्द्रीय ग्रन्थालय में होना चाहिये । नालन्दा विद्यापीठ का ज्ञानगंज ग्रन्थालय सभी ग्रन्थालयों के मानक के रूप में आज भी सर्वविदित है । इससे प्रेरणा प्राप्त कर इस ग्रन्थालय की रचना हो सकती है।
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साथ ही एक कार्य विश्वभर की विभिन्न विचारधाराओं के साथ भारतीय विचारधारा का तुलनात्मक
    
कर्तव्य का विचार प्रथम करना है, भोग और सुविधा के बारे में अपने आपको अन्त में रखना है। इस तथ्य का स्वीकार करना तप का प्रथम चरण है। तप त्याग की अपेक्षा करता है । वर्तमान स्थिति को देखते हुए प्रथम त्याग सम्मान और प्रतिष्ठा का करना होगा । आज अनुयायिओं की ओर से जो सम्मान मिलता है और उसके कारण जो प्रतिष्ठा मिलती है वह हमें तप नहीं करने देती। इन दो बातों के लिये सिद्धता करेंगे तो आगे के तप के लिये भी सिद्धता होगी। धर्माचार्यों को आज बौद्धिक तप की बहुत आवश्यकता है। इस तप के मुख्य आयाम इस प्रकार
 
कर्तव्य का विचार प्रथम करना है, भोग और सुविधा के बारे में अपने आपको अन्त में रखना है। इस तथ्य का स्वीकार करना तप का प्रथम चरण है। तप त्याग की अपेक्षा करता है । वर्तमान स्थिति को देखते हुए प्रथम त्याग सम्मान और प्रतिष्ठा का करना होगा । आज अनुयायिओं की ओर से जो सम्मान मिलता है और उसके कारण जो प्रतिष्ठा मिलती है वह हमें तप नहीं करने देती। इन दो बातों के लिये सिद्धता करेंगे तो आगे के तप के लिये भी सिद्धता होगी। धर्माचार्यों को आज बौद्धिक तप की बहुत आवश्यकता है। इस तप के मुख्य आयाम इस प्रकार
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