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हजार अध्यापकों की ज्ञानशक्ति कार्य का । प्रारम्भ करने के लिये कम नहीं है।
 
हजार अध्यापकों की ज्ञानशक्ति कार्य का । प्रारम्भ करने के लिये कम नहीं है।
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अध्यापकों के इस संगठनने एक ओर उद्योजकों, दूसरी ओर प्रशासकों और तीसरी ओर सरकार के मन्त्री परिषद के साथ समायोजन स्थापित करना चाहिये । विश्वविद्यालयों को सरकार से मुक्त रखने का कारण यह नहीं है कि अध्यापक सरकार का विरोध करते हैं, विरोधी विचारधारा वाले हैं या सरकार उनका विरोध करती है।
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अध्यापकों के इस संगठनने एक ओर उद्योजकों, दूसरी ओर प्रशासकों और तीसरी ओर सरकार के मन्त्री परिषद के साथ समायोजन स्थापित करना चाहिये । विश्वविद्यालयों को सरकार से मुक्त रखने का कारण यह नहीं है कि अध्यापक सरकार का विरोध करते हैं, विरोधी विचारधारा वाले हैं या सरकार उनका विरोध करती है। प्रशासन से मुक्त रहना भी विरोध के कारण से नहीं है। मुक्त रहना तो सर्वकल्याणकारी शिक्षा की आवश्यकता है। इसलिये सबका कर्तव्य है। परन्तु मुक्त रहने के बाद भी संवाद, समन्वय और समर्थन तो हो ही सकता है। सरकार प्रजा के लिये है और विश्वविद्यालय सरकार और प्रजा दोनों के लिये हैं । इसलिये संवाद लाभकारी है।
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प्रशासन से मुक्त रहना भी विरोध के कारण से नहीं है। __ मुक्त रहना तो सर्वकल्याणकारी शिक्षा की आवश्यकता
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उद्योजकों के साथ संवाद इसलिये नहीं करना है क्योंकि उनसे धन चाहिये । उद्योगकों से संवाद इसलिये चाहिये कि देश की अर्थव्यवस्था ठीक करने में उनका सहयोग प्राप्त हो । उसी प्रकार प्रबोधन की दृष्टि से सामान्य जनसे भी संवाद स्थापित हो यह आवश्यक है। संक्षेप में इन विद्यालयों को समाजाभिमुख होना चाहिये ।
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उन्हें अन्य विश्वविद्यालयों के साथ भी विचार विमर्श करने की दृष्टि से संवाद स्थापित करना शिक्षाक्षेत्र के हित की दृष्टि से लाभकारी है।
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(२) इन विश्वविद्यालयों को पहला कार्य देशभर की शिक्षा का एक शैक्षिक प्रारूप तैयार करने का करना चाहिये । ऐसा करने में उन्हें तीन काम करने होंगे...
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# अध्ययन और अनुसन्धान
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# पाठ्यक्रम निर्माण
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# सन्दर्भसाहित्य का निर्माण
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है। इसलिये सबका कर्तव्य है। परन्तु मुक्त रहने के बाद
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==== अध्ययन और अनुसन्धान ====
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भारतीय ज्ञानधारा युगों से प्रवाहित है। द्रष्टा ऋषियों ने अपने हृदय में इस ज्ञान की अनुभूति की है। इस अनुभूति के आधार पर शास्त्रग्रन्थों की रचना हुई है। इन शास्त्रग्रन्थों का अध्ययन करना पहला काम है। इस अध्ययन का उद्देश्य वर्तमान जीवन को सुस्थिति में लाने का है। अतः वर्तमान सन्दर्भ सहित उसका अध्ययन करना आवश्यक है। वर्तमान जीवन की सर्व व्यवस्थाओं में हमारे शास्त्रग्रन्थों में निरूपित ज्ञान किस प्रकार लागू हो सकता है इस विषय को लेकर व्यावहारिक अनुसन्धान होना चाहिये । उदाहरण के लिये हम वेदों को विश्व का प्रथम ज्ञानग्रन्थ मानते हैं, श्रीमद् भगवद्गीता को सर्व उपनिषदों का सार मानते हैं। तब इन ग्रन्थों में स्थित ज्ञान के आधार पर घर, बाजार, संसद और शिक्षा क्षेत्र चलने चाहिये । यह ज्ञान व्यावहारिक नहीं है ऐसा तो नहीं कह सकते । फिर आज व्यावहारिक क्यों नहीं हो सकता ? पतंजली मुनिने योगसूत्रों की रचना की हैं। योगसूत्र मनोविज्ञान है, अनेक मनीषियों के भाष्यग्रन्थ भी उस विषय में उपलब्ध हैं। भाष्य लिखने वाले सभी श्रेष्ठ विद्वज्जन रहे हैं। यह भारतीय मनोविज्ञान है। फिर प्रश्न पूछा जाना चाहिये कि विश्वविद्यालय में यह मनोविज्ञान क्यों नहीं पढाया जाता है ? भौतिक विज्ञान के अनेक ग्रन्थ विज्ञान विद्याशाखा में सर्वथा अपरिचित क्यों हैं ? प्राणविज्ञान क्या है, आत्मविज्ञान क्या हैं ? अथर्ववेद तो यन्त्रविज्ञान और तन्त्रशास्त्र का भण्डार है। वर्तमान इन्जिनीयरींग की शाखायें इनसे अनभिज्ञ हैं।
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भी संवाद, समन्वय और समर्थन तो हो ही सकता है। __ सरकार प्रजा के लिये है और विश्वविद्यालय सरकार और प्रजा दोनों के लिये हैं इसलिये संवाद लाभकारी है।
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भारतीय ज्ञान की वर्तमान ज्ञानविश्व में प्रतिष्ठा हो यह अनुसन्धान कर्ताओं का उद्देश्य होना चाहिये
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उद्योजकों के साथ संवाद इसलिये नहीं करना है क्योंकि उनसे धन चाहिये । उद्योगकों से संवाद इसलिये चाहिये कि देश की अर्थव्यवस्था ठीक करने में उनका सहयोग प्राप्त हो । उसी प्रकार प्रबोधन की दृष्टि से सामान्य जनसे भी संवाद स्थापित हो यह आवश्यक है। संक्षेप में इन विद्यालयों को समाजाभिमुख होना चाहिये ।
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आज ज्ञानक्षेत्र में जिन शास्त्रों की प्रतिष्ठा है उनका भारतीय पर्याय बन सकें, उनसे भी अधिक व्यापक और समावेशक शास्त्रग्रन्थों की सम्भावना स्थापित कर सकें इस _प्रकार के अनुसन्धान की आवश्यकता है।
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उन्हें अन्य विश्वविद्यालयों के साथ भी विचार विमर्श __ करने की दृष्टि से संवाद स्थापित करना शिक्षाक्षेत्र के हित की दृष्टि से लाभकारी है।
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देशभर में जहाँ जहाँ ऐसा अनुसन्धान का कार्य हो रहा है वहाँ संवाद भी साथ ही साथ स्थापित करना चाहिये ।
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(२) इन विश्वविद्यालयों को पहला कार्य देशभर की शिक्षा का एक शैक्षिक प्रारूप तैयार करने का करना चाहिये । ऐसा करने में उन्हें तीन काम करने होंगे...
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==== पाठ्यक्रम निर्माण ====
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इस अध्ययन और अनुस्धान के आधार पर विभिन्न स्तरों के लिये विभिन्न विषयों के पर्यायी पाठ्यक्रम तैयार करने चाहिये । उदाहरण के लिये
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१. अध्ययन और अनुसन्धान २. पाठ्यक्रम निर्माण ३. सन्दर्भसाहित्य का निर्माण
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१. आयु की प्रत्येक अवस्था के लिये सामान्य पाठ्यक्रम । यह सर्वसमावेशक होना चाहिये। अर्थात् गर्भावस्था से वृद्धावस्था तक का पाठ्यक्रम । गृहीत यह है कि शिक्षा आजीवन चलती है। मनुष्य का इस जन्म का जीवन गभाधान से शुरू होता है और मृत्यु तक चलता है। मृत्यु के साथ इस जन्म का जीवन पूर्ण होता है। इन दो क्षणों के मध्य जीवन गर्भावस्था, शिशुअवस्था, बालावस्था, किशोरावस्था, युवावस्था, प्रौढावस्था और वृद्धावस्था से गुजरता है। इन सभी अवस्थाओं में अवस्था के अनुरूप शिक्षा की व्यवस्था होना आवश्यक है। अतः इस शिक्षा के लिये पाठ्यक्रम चाहिये । सामान्य पाठ्यक्रम का अर्थ यह है कि व्यक्ति राजा हो या प्रजा, मालिक हो या नौकर, स्त्री हो या पुरुष, किसान हो या व्यापारी, दर्जी हो या मोची, सब को लागू होने वाला पाठ्यक्रम ।
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अध्ययन और अनुसन्धान
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उदाहरण के लिये धर्मपरायण होना, सज्जन होना, बलवान होना, बुद्धिमान होना, व्यवहारदक्ष होना, प्रचुर होना, सबके लिये समान रूप से लागू है।
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भारतीय ज्ञानधारा युगों से प्रवाहित है। द्रष्टा ऋषियों ने अपने हृदय में इस ज्ञान की अनुभूति की है। इस __ अनुभूति के आधार पर शास्त्रग्रन्थों की रचना हुई है। इन
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२. सन्दर्भ विशेष के लिये विशेष पाठ्यक्रम । व्यक्ति विभिन्न परिस्थितियों में विभिन्न भूमिकाओं में होता है। कहीं पिता है तो कहीं पुत्र, कहीं शिक्षक है तो कहीं विद्यार्थी, कहीं राजा है तो कहीं अमात्य, आज की भाषा में कहें तो कहीं सांसद या मंत्री है तो कहीं सचिव, तो कहीं प्रजाजन, कहीं उद्योजक है तो कहीं व्यापारी, कहीं कृषक है तो कहीं गोपाल । इन भूमिकाओं के अनुरूप उसे शिक्षा की आवश्यकता होती है। उदाहरण के लिये एक गोपाल को गायों की जाति, उनके स्वभाव, उनकी आवश्यकताओं, उसके आहार, उनकी क्षमता, उनकी बिमारी आदि का ज्ञान होना आवश्यक है। साथ ही उनकी सन्तति, उनका दूध, दूध की व्यवस्था आदि विषयों का ज्ञान होना भी आवश्यक है। एक उत्पादक को उत्पादन करने योग्य वस्तुयें, लोगों की आवश्यकता, उत्पादन प्रक्रिया, उत्पादन हेतु आवश्यक यन्त्र, स्थान,
    
कर्तव्य का विचार प्रथम करना है, भोग और सुविधा के बारे में अपने आपको अन्त में रखना है। इस तथ्य का स्वीकार करना तप का प्रथम चरण है। तप त्याग की अपेक्षा करता है । वर्तमान स्थिति को देखते हुए प्रथम त्याग सम्मान और प्रतिष्ठा का करना होगा । आज अनुयायिओं की ओर से जो सम्मान मिलता है और उसके कारण जो प्रतिष्ठा मिलती है वह हमें तप नहीं करने देती। इन दो बातों के लिये सिद्धता करेंगे तो आगे के तप के लिये भी सिद्धता होगी। धर्माचार्यों को आज बौद्धिक तप की बहुत आवश्यकता है। इस तप के मुख्य आयाम इस प्रकार
 
कर्तव्य का विचार प्रथम करना है, भोग और सुविधा के बारे में अपने आपको अन्त में रखना है। इस तथ्य का स्वीकार करना तप का प्रथम चरण है। तप त्याग की अपेक्षा करता है । वर्तमान स्थिति को देखते हुए प्रथम त्याग सम्मान और प्रतिष्ठा का करना होगा । आज अनुयायिओं की ओर से जो सम्मान मिलता है और उसके कारण जो प्रतिष्ठा मिलती है वह हमें तप नहीं करने देती। इन दो बातों के लिये सिद्धता करेंगे तो आगे के तप के लिये भी सिद्धता होगी। धर्माचार्यों को आज बौद्धिक तप की बहुत आवश्यकता है। इस तप के मुख्य आयाम इस प्रकार
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