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==== शैक्षिक पुनर्रचना ====
 
==== शैक्षिक पुनर्रचना ====
इसका केन्द्रवर्ती विषय है क्या पढाना ? घरों में, विद्यालयों में, कारखानों मे, खेत खलिहानों में सिखाने
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इसका केन्द्रवर्ती विषय है क्या पढाना ? घरों में, विद्यालयों में, कारखानों मे, खेत खलिहानों में सिखाने वाला सीखने वाले को, बडा छोटे को, सत्ताधीश सत्ताधीन को, मालिक नौकर को, अधिकारी कर्मचारी को क्या सिखा रहा है, क्या करने को कह रहा है, क्या बना रहा है, किस पद्धति को अपना रहा है, उसकी भावना और उद्देश्य क्या है यह सबसे पहली विचारणीय बात है। उदाहरण के लिये मालिक नौकर को खाद्य पदार्थ में मिलावट करने को कह रहा है या किसी भी स्थिति में मिलावट नहीं करने को कह रहा है, पिता पुत्र को स्वार्थी बनाना चाहता है या सेवाभावी, उद्योजक यन्त्र को अधिक महत्त्व देता है या मनुष्य को, शिक्षक विद्यार्थी को रटना सिखाता है या स्वतन्त्र बुद्धि से विचार करना, प्राध्यापक विद्यार्थी को अर्थ ही प्रधान है यह सिखाता है या धर्म को प्रधानता बताता है, धर्माचार्य अपने ही सम्प्रदाय को सही मानना सिखाता है या सर्वपंथ समादर यह ध्यान देने योग्य बातें हैं। सिखानेवाले और सीखनेवाले के बीच यह आदानप्रदान निरन्तर चलता रहता है, सर्वत्र चलता रहता है। यह प्रक्रिया ही वास्तव में शिक्षा है।
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इसे शैक्षिक परिभाषा में पाठ्यक्रम कहते हैं। यह पाठ्यक्रम सभी आयु वर्गों के लिये होता है, सभी व्यवस्थाओं के लिये होता है, जीवन के सभी क्षेत्रों में होता है। इसके आधार पर व्यक्ति का चरित्र बनता है, समाज का और राष्ट्र का चरित्र बनता है। पाठ्यक्रम शिक्षाप्रक्रिया का केन्द्र है और उसके आधार पर व्यक्तिगत से लेकर राष्ट्रीय जीवन चलता है। इसलिये इस विषय की चिन्ता करनी चाहिये।
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यह पाठ्यक्रम आज भारतीय नहीं है। सर्वत्र जो पढाया जाता है। वह मुख्य रूप से पश्चिमी जीवनदृष्टि पर आधारित है। यही सारे अनिष्टों और संकटों का मूल है। इसकी तात्त्विक चर्चा अन्यत्र की गई है। अब उसे व्यावहारिक बनाने के लिये क्या करना होगा इसका ही विचार करना आवश्यक है। कुछ मुद्दे इस प्रकार हैं...
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(१) प्रथम तो विश्वविद्यालयों को इसका दायित्व लेना चाहिये । विश्वविद्यालय देश की शिक्षा का सर्वप्रकार का निर्देशन करने वाले हों यह अत्यन्त आवश्यक है।
    
कर्तव्य का विचार प्रथम करना है, भोग और सुविधा के बारे में अपने आपको अन्त में रखना है। इस तथ्य का स्वीकार करना तप का प्रथम चरण है। तप त्याग की अपेक्षा करता है । वर्तमान स्थिति को देखते हुए प्रथम त्याग सम्मान और प्रतिष्ठा का करना होगा । आज अनुयायिओं की ओर से जो सम्मान मिलता है और उसके कारण जो प्रतिष्ठा मिलती है वह हमें तप नहीं करने देती। इन दो बातों के लिये सिद्धता करेंगे तो आगे के तप के लिये भी सिद्धता होगी। धर्माचार्यों को आज बौद्धिक तप की बहुत आवश्यकता है। इस तप के मुख्य आयाम इस प्रकार
 
कर्तव्य का विचार प्रथम करना है, भोग और सुविधा के बारे में अपने आपको अन्त में रखना है। इस तथ्य का स्वीकार करना तप का प्रथम चरण है। तप त्याग की अपेक्षा करता है । वर्तमान स्थिति को देखते हुए प्रथम त्याग सम्मान और प्रतिष्ठा का करना होगा । आज अनुयायिओं की ओर से जो सम्मान मिलता है और उसके कारण जो प्रतिष्ठा मिलती है वह हमें तप नहीं करने देती। इन दो बातों के लिये सिद्धता करेंगे तो आगे के तप के लिये भी सिद्धता होगी। धर्माचार्यों को आज बौद्धिक तप की बहुत आवश्यकता है। इस तप के मुख्य आयाम इस प्रकार
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