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मनुष्य के व्यक्तित्वविकास की व्यवस्था को ही आश्रमव्यवस्था कहा गया है। ये चार आश्रम हैं ब्रह्मचर्याश्रम, गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थाश्रम और संन्यस्ताश्रम । मनुष्य की आयु की अवधि को मोटे तौर पर चार विभागों में बाँटकर उन उन विभागों की जीवनचर्या का विचार आश्रमव्यवस्था में किया गया है। प्रथम ब्रह्मचर्याश्रम सर्व प्रकार की क्षमताओं को कसने का और उन्हें अर्जित करने का है। अर्थात् शारीरिक, प्राणिक, मानसिक, बौद्धिक और चैतसिक क्षमताओं के विकास हेतु आहारविहार, नियम, संयम, अनुशासन, व्यायाम, अध्ययन, सेवा, शुश्रुषा, परिचर्या, विभिन्न प्रकार के कौशल, व्यवहार आदि सब सीखने का यह काल है । आगे के जीवन की पूर्ण रूप से पूर्वतैयारी कर सिद्धता प्राप्त करने का यह काल है । इसका बड़ा महत्त्व है।
 
मनुष्य के व्यक्तित्वविकास की व्यवस्था को ही आश्रमव्यवस्था कहा गया है। ये चार आश्रम हैं ब्रह्मचर्याश्रम, गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थाश्रम और संन्यस्ताश्रम । मनुष्य की आयु की अवधि को मोटे तौर पर चार विभागों में बाँटकर उन उन विभागों की जीवनचर्या का विचार आश्रमव्यवस्था में किया गया है। प्रथम ब्रह्मचर्याश्रम सर्व प्रकार की क्षमताओं को कसने का और उन्हें अर्जित करने का है। अर्थात् शारीरिक, प्राणिक, मानसिक, बौद्धिक और चैतसिक क्षमताओं के विकास हेतु आहारविहार, नियम, संयम, अनुशासन, व्यायाम, अध्ययन, सेवा, शुश्रुषा, परिचर्या, विभिन्न प्रकार के कौशल, व्यवहार आदि सब सीखने का यह काल है । आगे के जीवन की पूर्ण रूप से पूर्वतैयारी कर सिद्धता प्राप्त करने का यह काल है । इसका बड़ा महत्त्व है।
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दूसरा है गृहस्थाश्रम । अर्थार्जन, नई पीढी को जन्म देना और उनकी शिक्षा और संस्कार की व्यवस्था करना तथा समाजधर्म का पालन इस आश्रम में मुख्य बातें हैं। वैभव और समृद्धि का उपभोग और पूर्वावस्था में प्राप्त ज्ञान का व्यवहार में विनियोग महत्त्वपूर्ण बातें हैं। वानप्रस्थाश्रम में सभी सांसारिक अधिकारों और कर्तव्यों से मुक्त होकर परिवार के परामर्शक और समाज सेवा में सक्रिय होना है और संन्यस्ताश्रम में परिवार, कुल, गोत्र, जाति, वर्ण, व्यवसाय, दायित्व, अधिकार सब का त्याग कर समाजहित चिन्तन और स्वयं की मुक्ति हेतु साधना करना है। प्रथम तीन आश्रम सबके लिये हैं जबकि संन्यास स्वैच्छिक है। जीवनविकास हेतु की गई यह व्यवस्था अद्भुत है। यह किसी भी दूसरी व्यवस्था के आडे नहीं आती तो भी बिना
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दूसरा है गृहस्थाश्रम । अर्थार्जन, नई पीढी को जन्म देना और उनकी शिक्षा और संस्कार की व्यवस्था करना तथा समाजधर्म का पालन इस आश्रम में मुख्य बातें हैं। वैभव और समृद्धि का उपभोग और पूर्वावस्था में प्राप्त ज्ञान का व्यवहार में विनियोग महत्त्वपूर्ण बातें हैं। वानप्रस्थाश्रम में सभी सांसारिक अधिकारों और कर्तव्यों से मुक्त होकर परिवार के परामर्शक और समाज सेवा में सक्रिय होना है और संन्यस्ताश्रम में परिवार, कुल, गोत्र, जाति, वर्ण, व्यवसाय, दायित्व, अधिकार सब का त्याग कर समाजहित चिन्तन और स्वयं की मुक्ति हेतु साधना करना है। प्रथम तीन आश्रम सबके लिये हैं जबकि संन्यास स्वैच्छिक है। जीवनविकास हेतु की गई यह व्यवस्था अद्भुत है। यह किसी भी दूसरी व्यवस्था के आडे नहीं आती तो भी बिना किसी कारण से हमने इसका त्याग किया है। इसे अपने पुराने ही रूप में पुनः स्वीकार करने की आवश्यकता है।
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शेष सारी व्यवस्थाओं को सम्भव बनाने वाली परिवार व्यवस्था वास्तव में अत्यन्त मूल्यवान है। इसका विस्तार से वर्णन तो पूर्व के ग्रन्थों में हुआ है। यहां उसके मुख्य सूत्रों का पुनःस्मरण करेंगे।
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# परिवार समाजव्यवस्था की लघुतम इकाई है। व्यक्ति की पारिवारिक पहचान ही समाज-स्वीकृत बनानी चाहिये।
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# परिवार का केन्द्रबिन्दु पतिपत्नी हैं। स्त्री और पुरुष को पतिपत्नी बनाने वाला विवाह संस्कार सामाजिक दृष्टि से प्रतिष्ठित होना चाहिये, व्यवस्थित भी होना चाहिये ।
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# समाज की सर्व प्रकार की व्यवस्थाओं का आलम्बन परिवार है । व्यवसाय, सम्प्रदाय, आचार, यज्ञ, दान, तप आदि सब परिवार के आश्रय से होते हैं।
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# परिवार के माध्यम से व्यक्ति पूर्वजों से अर्थात् अतीत से जुडता है, अतीत और भविष्यका संगम स्थान बनता है और समष्टि और सृष्टि के साथ ही जुडता है। पीढियाँ एक के बाद एक जुड़ने से परम्परा बनती है।
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# ज्ञान की, संस्कार की, रीतिरिवाज की, कौशलों की परम्परा खण्डित नहीं होने देनी चाहिये । तभी सामाजिक जीवन की निरन्तरता बनी रहती है। निरन्तरता बनी रहने से उत्कृष्टता और श्रेष्ठता प्राप्त होती है । निरन्तरता में प्रवाहिता रहती है इसलिये समयानुसार परिष्कृति भी निहित है।
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# नई पीढी का सर्व प्रकार से रक्षण, पोषण, शिक्षण, संवर्धन करना परिवार का मुख्य काम है। इसी प्रकार से समष्टि और सृष्टि के साथ उचित समायोजन करना भी दूसरा मुख्य आयाम है।
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इन कारणों से विवाह के सम्बन्ध में भारत में विस्तारपूर्वक और सूक्ष्मतापूर्वक निरूपण किया गया है। सन्तानों को जन्म देने का भी अत्यन्त विस्तृत शास्त्र बनाया गया है। पंचमहायज्ञ और तीन प्रकार के ऋणों की संकल्पना विकसित की गई है।
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भारत में समाजशास्त्र को स्मृति और स्मृति को मानवधर्मशास्त्र कहा गया है। वहाँ धर्म का अर्थ कर्तव्य
    
==References==
 
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