Difference between revisions of "समाज को सुदृढ़ बनायें"

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भारत अपने लिये तो इस सामाजिक करार के सिद्धान्त का स्वीकार नहीं ही करेगा अपितु विश्वकल्याण की दृष्टि से भी उसको छोडना आवश्यक है यह समझाने का प्रयास करेगा।
 
भारत अपने लिये तो इस सामाजिक करार के सिद्धान्त का स्वीकार नहीं ही करेगा अपितु विश्वकल्याण की दृष्टि से भी उसको छोडना आवश्यक है यह समझाने का प्रयास करेगा।
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==== २. लोकतंत्र पर पुनर्विचार ====
  
 
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Revision as of 11:32, 13 January 2020

अध्याय ३६

१. सामाजिक करार सिद्धांत को नकार

एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति के साथ समरस नहीं होता तब तक समाज बनने की सम्भावना ही नहीं पैदा होती । पश्चिम को इस सूत्र का लेशमात्र बोध नहीं है । पश्चिमी स्वभाव वाला व्यक्ति अकेला रहना चाहता है। अकेले रहने को वह स्वतन्त्रता कहता है। उस स्वतन्त्रता को श्रेष्ठ मूल्य मानता है। उसे अपना अधिकार मानता है। इस स्वतन्त्रता की रक्षा के लिये वह अपने आसपास एक सुरक्षाचक्र बनाता है। सुरक्षाचक्र को यथासम्भव अभेद्य बनाने का प्रयास करता है। कोई भी उसमें प्रवेश न करे इसकी सावधानी रखता है । स्व-तन्त्र-ता का वह शाब्दिक अर्थ समझता है और अपने ही तन्त्र से वह जीता है। अपने तन्त्र में किसी की दखल वह नहीं चाहता है।

इस स्वतन्त्रता के दो आयाम हैं । एक है असुरक्षा का भाव और दूसरा है अविश्वास का भाव । उसे हमेशा दूसरों से भय रहता है। यदि सावधानी नहीं रखी गई तो कोई भी आकर उसकी स्वतन्त्रता का नाश करेगा यह भय उसका नित्य साथी है। कोई मुझे किसी प्रकार का नुकसान नहीं करेगा ऐसा विश्वास वह नहीं कर सकता । सारे सम्बन्धों को वह अविश्वास से ही देखता है । इसका भी कारण है । उसकी वृत्ति स्वार्थी और अन्यायपूर्ण है । वह अपनी स्वतन्त्रता को तो बनाये रखना चाहता है परन्तु दूसरों की स्वतन्त्रता का नाश करने की युक्ती प्रयुक्ती है। वह स्वयं तो किसी के अधीन नहीं रहना चाहता परन्तु दूसरों को अपने अधीन बनाना चाहता है। इस कारण से उसे हमेशा भय और अविश्वास भी नित्य साथ रखने ही पड़ते हैं । उसे ये इतने स्वाभाविक लगते हैं कि उनके कारण से अनेक मानसिक बिमारियाँ पैदा होती हैं इसकी भी उसे चिन्ता नहीं होती। उन्हें भी वह अनिवार्य अनिष्ट समझकर स्वीकार करता है। विषुववृत्त पर तापमान अधिक होना जितना स्वाभाविक है उतना ही स्वाभाविक भय, अविश्वास और उनसे जनित मनोवैज्ञानिक समस्याओं का होना है।

पृथ्वी के गोल पर वह अकेला तो नहीं रह सकता। यद्यपि उसका स्वप्न तो सारी पृथ्वी पर अकेले ही स्वामित्व स्थापित कर उपभोग करना रहता है। परन्तु पृथ्वी पर असंख्य मनुष्य रहते हैं । मनुष्य के अलावा शेष सारी प्रकृति का तो वह स्वघोषित स्वामी है ही, परन्तु मनुष्यों के साथ वह ऐसी घोषणा नहीं कर सकता क्योंकि दूसरे मनुष्य भी ऐसा ही चाहते हैं। प्रत्येक मनुष्य मन में एकाधिकार की आकांक्षा रखता है परन्तु प्रकट रूप में उसे सबके साथ समायोजन करना पडता है। इस समायोजन के लिये उसने जो व्यवस्था बनाई है उसे उसने 'सामाजिक करार' की संज्ञा दी है। अपने सुख और हित को सुरक्षित रखते हुए, रखने के लिये दूसरों से जितना मिलता है उतना लेना, दसरों से अधिकतम प्राप्त कर लेने के लिये यदि कुछ देना पडता है तो देना इस प्रकार का आशय और स्वरूप है।

सामाजिक करार का यह सिद्धान्त सामाजिक जीवन में विसंवाद पैदा करनेवाला है। यह सिद्धान्त स्वार्थ और स्वकेन्द्री व्यवस्था को मान्यता देता है. । स्पर्धा और संघर्ष को अनिवार्य बनाता है, युद्ध को स्वाभाविक सिद्ध करता है और दुःख, शोक, अस्वास्थ्य को नियन्त्रित कर नाश की ओर गति करता है। अपने आपको बचाकर रखने की मनुष्य की वृत्ति समरसता, परिवार भावना, सेवा आदि को पनपने ही नहीं देती । इन तत्त्वों के बिना समाज की समृद्धि और संस्कृति सम्भव ही नहीं है।

भारत अपने लिये तो इस सामाजिक करार के सिद्धान्त का स्वीकार नहीं ही करेगा अपितु विश्वकल्याण की दृष्टि से भी उसको छोडना आवश्यक है यह समझाने का प्रयास करेगा।

२. लोकतंत्र पर पुनर्विचार

References

भारतीय शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण भारतीय शिक्षा (भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला ५), प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे