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३. भारत को ज्ञानवान बनना होगा। यह सब कैसे होगा इसका विचार हम आगे कर रहे है।  
 
३. भारत को ज्ञानवान बनना होगा। यह सब कैसे होगा इसका विचार हम आगे कर रहे है।  
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==== ३. कुटुंब व्यवस्था का सुदृढ़ीकरण ====
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==== ३. [[Family_Structure_(कुटुंब_व्यवस्था)|कुटुंब व्यवस्था]] का सुदृढ़ीकरण ====
 
# भारत को भारत बनाने का यह सबसे कारगर उपाय है । विश्वभर में भारत जैसी कुटुम्ब व्यवस्था नहीं है । उन्हें इस व्यवस्था से मिलनेवाले सुखों का अनुभव ही नहीं है इस व्यवस्था के बिखर जाने से क्या हानि होती है इसका भी पता नहीं चलता। भारत को तो कुटुम्ब व्यवस्था से प्राप्त सुख और बिखरने से दुःख दोनों का अनुभव हो रहा है । इसके आधार पर ही कह सकते हैं कि भारत को कुटुम्ब व्यवस्था के बारे में पुनः गम्भीर होकर विचार करने की आवश्यकता है।  
 
# भारत को भारत बनाने का यह सबसे कारगर उपाय है । विश्वभर में भारत जैसी कुटुम्ब व्यवस्था नहीं है । उन्हें इस व्यवस्था से मिलनेवाले सुखों का अनुभव ही नहीं है इस व्यवस्था के बिखर जाने से क्या हानि होती है इसका भी पता नहीं चलता। भारत को तो कुटुम्ब व्यवस्था से प्राप्त सुख और बिखरने से दुःख दोनों का अनुभव हो रहा है । इसके आधार पर ही कह सकते हैं कि भारत को कुटुम्ब व्यवस्था के बारे में पुनः गम्भीर होकर विचार करने की आवश्यकता है।  
 
# पश्चिम के सारे सामाजिक सम्बन्ध करार के आधार पर बने हैं । व्यक्ति के स्वार्थों की सुरक्षा हेतु करार किये जाते हैं। विवाह भी सामाजिक करारव्यवस्था का एक हिस्सा है। भारत में करारव्यवस्था की कहीं पर भी प्रतिष्ठा नहीं है । मानवीय सम्बन्धों के लिये करार व्यवस्था निकृष्ट मानी जाती है।
 
# पश्चिम के सारे सामाजिक सम्बन्ध करार के आधार पर बने हैं । व्यक्ति के स्वार्थों की सुरक्षा हेतु करार किये जाते हैं। विवाह भी सामाजिक करारव्यवस्था का एक हिस्सा है। भारत में करारव्यवस्था की कहीं पर भी प्रतिष्ठा नहीं है । मानवीय सम्बन्धों के लिये करार व्यवस्था निकृष्ट मानी जाती है।
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# कुटुम्ब व्यवस्था को सुदृढ बनाने के लिये दो पीढियों का साथ रहना अत्यन्त आवश्यक होता है। आज शिक्षा और व्यवसाय के कारणों से दो पीढियों का साथ रहना सम्भव नहीं हो रहा है। इसके मनोवैज्ञानिक, सामाजिक और सांस्कृतिक दुष्परिणाम होते हैं ।  
 
# कुटुम्ब व्यवस्था को सुदृढ बनाने के लिये दो पीढियों का साथ रहना अत्यन्त आवश्यक होता है। आज शिक्षा और व्यवसाय के कारणों से दो पीढियों का साथ रहना सम्भव नहीं हो रहा है। इसके मनोवैज्ञानिक, सामाजिक और सांस्कृतिक दुष्परिणाम होते हैं ।  
 
# कुटुम्ब पीढियों को जोडता है । पीढियों के जुडने से परम्परा बनती है। सर्व प्रकार की सांस्कृतिक परम्परा की रक्षा पीढियों के साथ रहने से होती है । इसलिये दो पीढियों का साथ रहना आवश्यक माना जाना चाहिये । दो पीढियों के साथ रहने से अनेक प्रकार की मनोवैज्ञानिक और व्यावहारिक समस्याओं का समाधान भी हो जाता है यह हम सबका अनुभव है।  
 
# कुटुम्ब पीढियों को जोडता है । पीढियों के जुडने से परम्परा बनती है। सर्व प्रकार की सांस्कृतिक परम्परा की रक्षा पीढियों के साथ रहने से होती है । इसलिये दो पीढियों का साथ रहना आवश्यक माना जाना चाहिये । दो पीढियों के साथ रहने से अनेक प्रकार की मनोवैज्ञानिक और व्यावहारिक समस्याओं का समाधान भी हो जाता है यह हम सबका अनुभव है।  
# कुटुम्ब में दो पीढियाँ साथ रहती है इसलिये बच्चों के लिये नर्सरी, बेबी सिटींग, के. जी. छात्रावास आदि की व्यवस्था नहीं करनी पड़ती और वृद्धों के लिये वृद्धाश्रमों की व्यवस्था नहीं करनी पडती । कुटुम्ब व्यवस्था सुदृढ होती है तब कोई अनाथ या अनाश्रित नहीं रहता।  
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# कुटुम्ब में दो पीढियाँ साथ रहती है इसलिये बच्चोंं के लिये नर्सरी, बेबी सिटींग, के. जी. छात्रावास आदि की व्यवस्था नहीं करनी पड़ती और वृद्धों के लिये वृद्धाश्रमों की व्यवस्था नहीं करनी पडती । कुटुम्ब व्यवस्था सुदृढ होती है तब कोई अनाथ या अनाश्रित नहीं रहता।  
 
# कुटुम्ब व्यवस्था में हर एक व्यक्ति का कुल इकहत्तर कुलों के साथ वंशगत सम्बन्ध बनता है। वंशपरम्परागत संस्कारों की दृष्टि से यह बात अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। व्यक्ति के स्वभाव, क्षमताओं और विकास की सम्भावनाओं पर इसका प्रभाव होता है।  
 
# कुटुम्ब व्यवस्था में हर एक व्यक्ति का कुल इकहत्तर कुलों के साथ वंशगत सम्बन्ध बनता है। वंशपरम्परागत संस्कारों की दृष्टि से यह बात अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। व्यक्ति के स्वभाव, क्षमताओं और विकास की सम्भावनाओं पर इसका प्रभाव होता है।  
 
# प्रेम, समर्पण, त्याग और सेवा के आधार पर कुटुम्ब बनता है। इन भावों को एक पीढी से दूसरी पीढी तक आचरण के माध्यम से संक्रान्त किया जाता है। इनकी शिक्षा का इससे अधिक प्रभावी कोई उपाय नहीं हो सकता । कुटुम्ब से इन भावों की शिक्षा प्राप्त कर व्यक्ति अपने सामाजिक व्यवहार में भी इन्हें प्रकट करता है। समाज के चरित्रनिर्माण में कुटुम्ब का बडा योगदान रहता है।  
 
# प्रेम, समर्पण, त्याग और सेवा के आधार पर कुटुम्ब बनता है। इन भावों को एक पीढी से दूसरी पीढी तक आचरण के माध्यम से संक्रान्त किया जाता है। इनकी शिक्षा का इससे अधिक प्रभावी कोई उपाय नहीं हो सकता । कुटुम्ब से इन भावों की शिक्षा प्राप्त कर व्यक्ति अपने सामाजिक व्यवहार में भी इन्हें प्रकट करता है। समाज के चरित्रनिर्माण में कुटुम्ब का बडा योगदान रहता है।  
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परन्तु व्यवहार जगत में व्यक्ति अकेला नहीं होता, अकेला रह भी नहीं सकता । उसे दूसरों के साथ रहना है । साथ रहने के लिये लेनदेन का व्यवहार करना ही होता है, दूसरों का काम करना होता है, दूसरों से काम लेना भी होता _है। तब स्वायत्तता और स्वतन्त्रता का क्या होगा ?
 
परन्तु व्यवहार जगत में व्यक्ति अकेला नहीं होता, अकेला रह भी नहीं सकता । उसे दूसरों के साथ रहना है । साथ रहने के लिये लेनदेन का व्यवहार करना ही होता है, दूसरों का काम करना होता है, दूसरों से काम लेना भी होता _है। तब स्वायत्तता और स्वतन्त्रता का क्या होगा ?
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इस प्रश्न का समाधान खोजते खोजते भारत ने कुटुम्ब व्यवस्था बनाई । कुटुम्ब व्यवस्था का, केन्द्रवर्ती तत्त्व है आत्मीयता । कुटुम्ब में सब साथ रहते हैं और साथ साथ काम करते हैं। कुटुम्ब में व्यक्ति दूसरों का काम करता है और उसका काम दूसरा कोई करता है। फिर व्यक्ति की स्वतन्त्रता और स्वायतत्ता का क्या होगा ? इस के लिये समाधान यह है कि कुटुम्ब में पहले अपनापन होता है, बाद में एकदूसरे का काम करना होता है। कुटुम्ब में सब एक होते हैं, एकदूसरे के होते हैं । यहाँ सब का काम सब करते हैं । कोई एक व्यक्ति दूसरे का काम, दूसरे की इच्छा के अनुसार काम कब करता है ? भारत में सिखाया जाता है कि भय, स्वार्थ, लालच, विवशता से दूसरे का काम न करो परन्तु आदर, स्नेह, श्रद्धा, दया से दूसरों का काम अवश्य  करो । इसे ही सेवा कहा गया है। इस सूत्र से ही मातापिता की, गुरु की, सन्त की, रुग्ण की, अनाथ और अपाहिज की, शिशु की सेवा करना कर्तव्य बताया गया है और किसी के दबाव में आकर, अपना स्वार्थ साधने के लिये, दीन बनकर, धूर्त बनकर किसी का काम करने को त्याज्य बताया गया है। इसलिये अर्थार्जन के क्षेत्र में नौकरी को कभी भी प्रतिष्ठा नहीं मिली है। विवशता अथवा गुलामी का ही दूसरा नाम नौकरी है। नौकरी को सेवा कहना सेवा शब्द की अवमानना है। अर्थार्जन के लिये व्यक्ति नहीं अपितु कुटुम्ब साथ मिलकर काम करता है। कामकाज के क्षेत्र में नौकरी नहीं अपितु परस्परावलम्बिता, परस्परपरकता, परस्पर सहयोग आधारभूत तत्व है। उदाहरण के लिये किसी की बड़ी खेती है तब प्रथम तो किसान अधिक भाई और बेटे चाहता है ताकि काम पूरा हो सके । परन्तु फिर भी व्यक्ति कम पड रहे हैं तो अपने भतीजें आदि को काम में सहयोगी बनने के लिये बुलाता है। भतीजा कुटुम्ब का ही सदस्य है। यदि कुटुम्बीजन के अलावा और किसी को बुलाने की आवश्यकता पड़ती है तब उसे भागीदारी पर बुलाया जाता _है, मजदूर के रूप में नहीं। वह सहभागी होता है, नौकर नहीं।
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इस प्रश्न का समाधान खोजते खोजते भारत ने कुटुम्ब व्यवस्था बनाई । कुटुम्ब व्यवस्था का, केन्द्रवर्ती तत्त्व है आत्मीयता । कुटुम्ब में सब साथ रहते हैं और साथ साथ काम करते हैं। कुटुम्ब में व्यक्ति दूसरों का काम करता है और उसका काम दूसरा कोई करता है। फिर व्यक्ति की स्वतन्त्रता और स्वायतत्ता का क्या होगा ? इस के लिये समाधान यह है कि कुटुम्ब में पहले अपनापन होता है, बाद में एकदूसरे का काम करना होता है। कुटुम्ब में सब एक होते हैं, एकदूसरे के होते हैं । यहाँ सब का काम सब करते हैं । कोई एक व्यक्ति दूसरे का काम, दूसरे की इच्छा के अनुसार काम कब करता है ? भारत में सिखाया जाता है कि भय, स्वार्थ, लालच, विवशता से दूसरे का काम न करो परन्तु आदर, स्नेह, श्रद्धा, दया से दूसरों का काम अवश्य  करो । इसे ही सेवा कहा गया है। इस सूत्र से ही मातापिता की, गुरु की, सन्त की, रुग्ण की, अनाथ और अपाहिज की, शिशु की सेवा करना कर्तव्य बताया गया है और किसी के दबाव में आकर, अपना स्वार्थ साधने के लिये, दीन बनकर, धूर्त बनकर किसी का काम करने को त्याज्य बताया गया है। इसलिये अर्थार्जन के क्षेत्र में नौकरी को कभी भी प्रतिष्ठा नहीं मिली है। विवशता अथवा गुलामी का ही दूसरा नाम नौकरी है। नौकरी को सेवा कहना सेवा शब्द की अवमानना है। अर्थार्जन के लिये व्यक्ति नहीं अपितु कुटुम्ब साथ मिलकर काम करता है। कामकाज के क्षेत्र में नौकरी नहीं अपितु परस्परावलम्बिता, परस्परपरकता, परस्पर सहयोग आधारभूत तत्व है। उदाहरण के लिये किसी की बड़ी खेती है तब प्रथम तो किसान अधिक भाई और बेटे चाहता है ताकि काम पूरा हो सके । परन्तु तथापि व्यक्ति कम पड रहे हैं तो अपने भतीजें आदि को काम में सहयोगी बनने के लिये बुलाता है। भतीजा कुटुम्ब का ही सदस्य है। यदि कुटुम्बीजन के अलावा और किसी को बुलाने की आवश्यकता पड़ती है तब उसे भागीदारी पर बुलाया जाता _है, मजदूर के रूप में नहीं। वह सहभागी होता है, नौकर नहीं।
    
स्वायत्त समाज में अर्थार्जन के क्षेत्र में भी कुटुम्बों को, भिन्न भिन्न व्यवसायों को साथ मिलकर ही काम करना होता है। तब भी परस्परावलम्बिता, परस्परपूरकता, सहभागिता और आत्मीयता के आधार पर रचना बनती है । मुख्य बात यह होती है कि श्रम और काम की प्रतिष्ठा होती है और श्रम और काम करनेवाला अपने श्रम और काम का मालिक होता है।
 
स्वायत्त समाज में अर्थार्जन के क्षेत्र में भी कुटुम्बों को, भिन्न भिन्न व्यवसायों को साथ मिलकर ही काम करना होता है। तब भी परस्परावलम्बिता, परस्परपूरकता, सहभागिता और आत्मीयता के आधार पर रचना बनती है । मुख्य बात यह होती है कि श्रम और काम की प्रतिष्ठा होती है और श्रम और काम करनेवाला अपने श्रम और काम का मालिक होता है।
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शिक्षा को धार्मिक बनाने के लिये स्थिर समाज की आवश्यकता होती है । संगठित समाज ही स्थिर समाज होता है। हमारा इस बात की ओर कदाचित ध्यान नहीं जाता है कि ब्रिटीश शासन के काल में सर्वाधिक क्षति समाज व्यवस्था को पहुँची है । सहस्रों वर्षों से जिन व्यवस्थाओं से समाज का संचालन होता आया था उन सभी व्यवस्थाओं को छिन्न-विच्छिन्न कर नष्ट कर दिया गया । इस हद तक उन व्यवस्थाओं को लेकर जनमानस को कलुषित कर दिया गया कि आज भी हम उन व्यवस्थाओं के लिये आस्थापूर्वक बात भी करना नहीं चाहते । शिक्षा ही इस नाश का प्रमुख माध्यम बनी है। आज भी स्थिति वही है।
 
शिक्षा को धार्मिक बनाने के लिये स्थिर समाज की आवश्यकता होती है । संगठित समाज ही स्थिर समाज होता है। हमारा इस बात की ओर कदाचित ध्यान नहीं जाता है कि ब्रिटीश शासन के काल में सर्वाधिक क्षति समाज व्यवस्था को पहुँची है । सहस्रों वर्षों से जिन व्यवस्थाओं से समाज का संचालन होता आया था उन सभी व्यवस्थाओं को छिन्न-विच्छिन्न कर नष्ट कर दिया गया । इस हद तक उन व्यवस्थाओं को लेकर जनमानस को कलुषित कर दिया गया कि आज भी हम उन व्यवस्थाओं के लिये आस्थापूर्वक बात भी करना नहीं चाहते । शिक्षा ही इस नाश का प्रमुख माध्यम बनी है। आज भी स्थिति वही है।
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धार्मिक समाज को संगठित रखनेवाली व्यवस्थायें थीं वर्ण व्यवस्था, जातिव्यवस्था, आश्रमव्यवस्था और परिवारव्यवस्था । इनमें परिवारव्यवस्था केन्द्र में थी और सबका आश्रय थी। आज आश्रम व्यवस्था को नाम से भी नई पीढी जानती नहीं है। आश्रम के नाम पर ऋषिमुनियों के आश्रम ही कल्पना में आते हैं, कदाचित वे भी परिचित नहीं हैं। ब्रह्मचर्याश्रम, गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थाश्रम और संन्यस्ताश्रम की कल्पना ही नहीं रही। वर्ण और जाति बहुत बदनाम हो गये हैं यद्यपि यह कहना चाहिये कि वे बदनामी के जितने लायक थे उससे कई गुना अधिक बदनाम हो गये हैं। परिवारव्यवस्था का अस्तित्व आज है परन्तु उस पर बहुत अधिक पश्चिमी प्रभाव है। समाजव्यवस्था छिन्नविच्छिन्न हो जाने से धर्म और संस्कृति, शिक्षा और अर्थार्जन, दायित्वबोध और देशभक्ति अनाश्रित बन गये हैं। इन आधारों की चिन्ता किये बिना समाज व्यवस्थित नहीं हो सकता और जब तक समाज व्यवस्थित नहीं होता, शिक्षा धार्मिक नहीं बन सकती।
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धार्मिक समाज को संगठित रखनेवाली व्यवस्थायें थीं [[Varna_System_(वर्ण_व्यवस्था)|[[Varna_System_(वर्ण_व्यवस्था)|वर्ण व्यवस्था]]]], [[Jaati_System_(जाति_व्यवस्था)|जाति व्यवस्था]], [[Ashram System (आश्रम व्यवस्था)|आश्रमव्यवस्था]] और परिवारव्यवस्था । इनमें परिवारव्यवस्था केन्द्र में थी और सबका आश्रय थी। आज आश्रम व्यवस्था को नाम से भी नई पीढी जानती नहीं है। आश्रम के नाम पर ऋषिमुनियों के आश्रम ही कल्पना में आते हैं, कदाचित वे भी परिचित नहीं हैं। ब्रह्मचर्याश्रम, गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थाश्रम और संन्यस्ताश्रम की कल्पना ही नहीं रही। वर्ण और जाति बहुत बदनाम हो गये हैं यद्यपि यह कहना चाहिये कि वे बदनामी के जितने लायक थे उससे कई गुना अधिक बदनाम हो गये हैं। परिवारव्यवस्था का अस्तित्व आज है परन्तु उस पर बहुत अधिक पश्चिमी प्रभाव है। समाजव्यवस्था छिन्नविच्छिन्न हो जाने से धर्म और संस्कृति, शिक्षा और अर्थार्जन, दायित्वबोध और देशभक्ति अनाश्रित बन गये हैं। इन आधारों की चिन्ता किये बिना समाज व्यवस्थित नहीं हो सकता और जब तक समाज व्यवस्थित नहीं होता, शिक्षा धार्मिक नहीं बन सकती।
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वर्ण और जाति व्यवस्था का हम त्याग भी कर दें तो तत्त्वतः तो कोई आपत्ति नहीं हो सकती। परन्तु इनका पर्याय खोजना और स्थापित करना तो अत्यन्त आवश्यक है । इस दृष्टि से हमें वर्ण और जाति की उपयोगिता क्या थी और उनके दूषण क्या थे इसका विचार करना होगा । दूषण का विचार करें तो दो बातें ध्यान में आती हैं । एक है ऊँच नीच का भेद और दूसरी है अस्पृश्यता । उपयोगिता का विचार करें तो सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि वर्ण और जाति से आचार और व्यवसाय की व्यवस्था और निश्चिति होती थी। तत्वतः वर्ण जन्म से नहीं अपितु गुण और कर्म से माने जाते थे परन्तु व्यवहार में जन्म से ही माने जाने लगे थे। वर्ण और जाति विवाह के लिये भी आवश्यक मानी जाती थी । वर्णान्तर और जात्यन्तर यद्यपि सम्भव था परन्तु नगण्य मात्रा में किया जाता था । स्थिर समाज के लिये, अर्थार्जन की निश्चितता और निश्चिंतता और संस्कृति और समृद्धि की सुरक्षा के लिये इनका उपयोग था । इन व्यवस्थाओं के दूषणों को दूर कर, इनका परिष्कार कर इन्हें पुनः उपयोगी बनाने का विचार किया जाय तो लाभ हो सकता है। परन्तु राजकीय हस्तक्षेप के कारण और
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वर्ण और [[Jaati_System_(जाति_व्यवस्था)|जाति व्यवस्था]] का हम त्याग भी कर दें तो तत्त्वतः तो कोई आपत्ति नहीं हो सकती। परन्तु इनका पर्याय खोजना और स्थापित करना तो अत्यन्त आवश्यक है । इस दृष्टि से हमें वर्ण और जाति की उपयोगिता क्या थी और उनके दूषण क्या थे इसका विचार करना होगा । दूषण का विचार करें तो दो बातें ध्यान में आती हैं । एक है ऊँच नीच का भेद और दूसरी है अस्पृश्यता । उपयोगिता का विचार करें तो सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि वर्ण और जाति से आचार और व्यवसाय की व्यवस्था और निश्चिति होती थी। तत्वतः वर्ण जन्म से नहीं अपितु गुण और कर्म से माने जाते थे परन्तु व्यवहार में जन्म से ही माने जाने लगे थे। वर्ण और जाति विवाह के लिये भी आवश्यक मानी जाती थी । वर्णान्तर और जात्यन्तर यद्यपि सम्भव था परन्तु नगण्य मात्रा में किया जाता था । स्थिर समाज के लिये, अर्थार्जन की निश्चितता और निश्चिंतता और संस्कृति और समृद्धि की सुरक्षा के लिये इनका उपयोग था । इन व्यवस्थाओं के दूषणों को दूर कर, इनका परिष्कार कर इन्हें पुनः उपयोगी बनाने का विचार किया जाय तो लाभ हो सकता है। परन्तु राजकीय हस्तक्षेप के कारण और
    
मानसिक पूर्वाग्रहों के कारण वर्ण और जाति का मामला बहुत उलझ गया है। अब हमारे पास दो उपाय हैं । एक तो जनसमाज का प्रबोधन कर पूर्वाग्रह दूर करना और दूसरा पूर्ण रूप से नई शब्दावली के साथ विकल्प देना । विद्वजनों ने और समाजहितचिन्तकों ने दो में से एक की निश्चिति कर व्यवस्था बनाने की अनिवार्य आवश्यकता है। कदाचित पूर्ण रूप से नई वैकल्पिक व्यवस्था देना कम कठिन हो सकता है । सम्भव है कि सौ वर्ष बाद धार्मिक समाज पुनः पुरानी शब्दावली और संकल्पनाओं पर लौट आये । जो भी हम तय करें व्यवस्था शीघ्रातिशीघ्र बनानी चाहिये । यह व्यवस्था मुख्य रूप से अर्थार्जन हेतु व्यवसाय निश्चिति की होनी चाहिये । इस रूप में समाजव्यवस्था अर्थव्यवस्था के साथ जुडी हुई है । आज व्यवसाय के क्षेत्र में भी स्वैराचार ही है। स्वतन्त्रता मूल्यवान है परन्तु स्वतन्त्रता के अपने ही कुछ बन्धन होते हैं। उदाहरण के लिये स्वतन्त्रता के साथ स्वदायित्व भी अनिवार्य रूप से जुड़ा हुआ है। बिना दायित्व के स्वतन्त्रता सम्भव नहीं। स्वैराचार कोई बन्धन नहीं मानता । अर्थक्षेत्र में स्वतन्त्रता होनी चाहिये, स्वैराचार नहीं । समाज के लिये व्यक्ति का व्यवसाय निश्चित करने हेतु स्वतनत्रता और मर्यादा दोनों निश्चित करने की व्यवस्था होनी चाहिये । जैसे कि व्यक्ति अपने व्यवसाय का चयन करने के लिये तो स्वतन्त्र है परन्तु मनमर्जी से कभी भी बदलने के लिये नहीं । दूसरों का व्यवसाय छिन जाय या राष्ट्रीय सम्पत्ति की हानि हो इस प्रकार का आर्थिक व्यवहार व्यक्ति नहीं कर सकता । उदाहरण के लिये एक बहुत बडा कारखाना आरम्भ किया और सैंकड़ों लोगोंं के व्यवसाय छिन गये और उन्हें गाँव छोडकर नगर में जाकर झोपडी में रहना पडा और नौकरी करनी पड़ी यह आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अपराध है। स्वतन्त्रता के नामपर इसकी अनुमति नहीं मिल सकती । कभी भी व्यवसाय बदलने से भी अर्थक्षेत्र में हलचल हो ही जाती है।
 
मानसिक पूर्वाग्रहों के कारण वर्ण और जाति का मामला बहुत उलझ गया है। अब हमारे पास दो उपाय हैं । एक तो जनसमाज का प्रबोधन कर पूर्वाग्रह दूर करना और दूसरा पूर्ण रूप से नई शब्दावली के साथ विकल्प देना । विद्वजनों ने और समाजहितचिन्तकों ने दो में से एक की निश्चिति कर व्यवस्था बनाने की अनिवार्य आवश्यकता है। कदाचित पूर्ण रूप से नई वैकल्पिक व्यवस्था देना कम कठिन हो सकता है । सम्भव है कि सौ वर्ष बाद धार्मिक समाज पुनः पुरानी शब्दावली और संकल्पनाओं पर लौट आये । जो भी हम तय करें व्यवस्था शीघ्रातिशीघ्र बनानी चाहिये । यह व्यवस्था मुख्य रूप से अर्थार्जन हेतु व्यवसाय निश्चिति की होनी चाहिये । इस रूप में समाजव्यवस्था अर्थव्यवस्था के साथ जुडी हुई है । आज व्यवसाय के क्षेत्र में भी स्वैराचार ही है। स्वतन्त्रता मूल्यवान है परन्तु स्वतन्त्रता के अपने ही कुछ बन्धन होते हैं। उदाहरण के लिये स्वतन्त्रता के साथ स्वदायित्व भी अनिवार्य रूप से जुड़ा हुआ है। बिना दायित्व के स्वतन्त्रता सम्भव नहीं। स्वैराचार कोई बन्धन नहीं मानता । अर्थक्षेत्र में स्वतन्त्रता होनी चाहिये, स्वैराचार नहीं । समाज के लिये व्यक्ति का व्यवसाय निश्चित करने हेतु स्वतनत्रता और मर्यादा दोनों निश्चित करने की व्यवस्था होनी चाहिये । जैसे कि व्यक्ति अपने व्यवसाय का चयन करने के लिये तो स्वतन्त्र है परन्तु मनमर्जी से कभी भी बदलने के लिये नहीं । दूसरों का व्यवसाय छिन जाय या राष्ट्रीय सम्पत्ति की हानि हो इस प्रकार का आर्थिक व्यवहार व्यक्ति नहीं कर सकता । उदाहरण के लिये एक बहुत बडा कारखाना आरम्भ किया और सैंकड़ों लोगोंं के व्यवसाय छिन गये और उन्हें गाँव छोडकर नगर में जाकर झोपडी में रहना पडा और नौकरी करनी पड़ी यह आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अपराध है। स्वतन्त्रता के नामपर इसकी अनुमति नहीं मिल सकती । कभी भी व्यवसाय बदलने से भी अर्थक्षेत्र में हलचल हो ही जाती है।
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===== आश्रम व्यवस्था =====
 
===== आश्रम व्यवस्था =====
मनुष्य के व्यक्तित्वविकास की व्यवस्था को ही आश्रमव्यवस्था कहा गया है। ये चार आश्रम हैं ब्रह्मचर्याश्रम, गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थाश्रम और संन्यस्ताश्रम । मनुष्य की आयु की अवधि को मोटे तौर पर चार विभागों में बाँटकर उन उन विभागों की जीवनचर्या का विचार आश्रमव्यवस्था में किया गया है। प्रथम ब्रह्मचर्याश्रम सर्व प्रकार की क्षमताओं को कसने का और उन्हें अर्जित करने का है। अर्थात् शारीरिक, प्राणिक, मानसिक, बौद्धिक और चैतसिक क्षमताओं के विकास हेतु आहारविहार, नियम, संयम, अनुशासन, व्यायाम, अध्ययन, सेवा, शुश्रुषा, परिचर्या, विभिन्न प्रकार के कौशल, व्यवहार आदि सब सीखने का यह काल है । आगे के जीवन की पूर्ण रूप से पूर्वतैयारी कर सिद्धता प्राप्त करने का यह काल है । इसका बड़ा महत्त्व है।
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मनुष्य के व्यक्तित्वविकास की व्यवस्था को ही [[Ashram System (आश्रम व्यवस्था)|आश्रमव्यवस्था]] कहा गया है। ये चार आश्रम हैं ब्रह्मचर्याश्रम, गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थाश्रम और संन्यस्ताश्रम । मनुष्य की आयु की अवधि को मोटे तौर पर चार विभागों में बाँटकर उन उन विभागों की जीवनचर्या का विचार आश्रमव्यवस्था में किया गया है। प्रथम ब्रह्मचर्याश्रम सर्व प्रकार की क्षमताओं को कसने का और उन्हें अर्जित करने का है। अर्थात् शारीरिक, प्राणिक, मानसिक, बौद्धिक और चैतसिक क्षमताओं के विकास हेतु आहारविहार, नियम, संयम, अनुशासन, व्यायाम, अध्ययन, सेवा, शुश्रुषा, परिचर्या, विभिन्न प्रकार के कौशल, व्यवहार आदि सब सीखने का यह काल है । आगे के जीवन की पूर्ण रूप से पूर्वतैयारी कर सिद्धता प्राप्त करने का यह काल है । इसका बड़ा महत्त्व है।
    
दूसरा है गृहस्थाश्रम । अर्थार्जन, नई पीढी को जन्म देना और उनकी शिक्षा और संस्कार की व्यवस्था करना तथा समाजधर्म का पालन इस आश्रम में मुख्य बातें हैं। वैभव और समृद्धि का उपभोग और पूर्वावस्था में प्राप्त ज्ञान का व्यवहार में विनियोग महत्त्वपूर्ण बातें हैं। वानप्रस्थाश्रम में सभी सांसारिक अधिकारों और कर्तव्यों से मुक्त होकर परिवार के परामर्शक और समाज सेवा में सक्रिय होना है और संन्यस्ताश्रम में परिवार, कुल, गोत्र, जाति, वर्ण, व्यवसाय, दायित्व, अधिकार सब का त्याग कर समाजहित चिन्तन और स्वयं की मुक्ति हेतु साधना करना है। प्रथम तीन आश्रम सबके लिये हैं जबकि संन्यास स्वैच्छिक है। जीवनविकास हेतु की गई यह व्यवस्था अद्भुत है। यह किसी भी दूसरी व्यवस्था के आडे नहीं आती तो भी बिना किसी कारण से हमने इसका त्याग किया है। इसे अपने पुराने ही रूप में पुनः स्वीकार करने की आवश्यकता है।
 
दूसरा है गृहस्थाश्रम । अर्थार्जन, नई पीढी को जन्म देना और उनकी शिक्षा और संस्कार की व्यवस्था करना तथा समाजधर्म का पालन इस आश्रम में मुख्य बातें हैं। वैभव और समृद्धि का उपभोग और पूर्वावस्था में प्राप्त ज्ञान का व्यवहार में विनियोग महत्त्वपूर्ण बातें हैं। वानप्रस्थाश्रम में सभी सांसारिक अधिकारों और कर्तव्यों से मुक्त होकर परिवार के परामर्शक और समाज सेवा में सक्रिय होना है और संन्यस्ताश्रम में परिवार, कुल, गोत्र, जाति, वर्ण, व्यवसाय, दायित्व, अधिकार सब का त्याग कर समाजहित चिन्तन और स्वयं की मुक्ति हेतु साधना करना है। प्रथम तीन आश्रम सबके लिये हैं जबकि संन्यास स्वैच्छिक है। जीवनविकास हेतु की गई यह व्यवस्था अद्भुत है। यह किसी भी दूसरी व्यवस्था के आडे नहीं आती तो भी बिना किसी कारण से हमने इसका त्याग किया है। इसे अपने पुराने ही रूप में पुनः स्वीकार करने की आवश्यकता है।

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