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एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति के साथ समरस नहीं होता तब तक समाज बनने की सम्भावना ही नहीं पैदा होती । पश्चिम को इस सूत्र का लेशमात्र बोध नहीं है । पश्चिमी स्वभाव वाला व्यक्ति अकेला रहना चाहता है। अकेले रहने को वह स्वतन्त्रता कहता है। उस स्वतन्त्रता को श्रेष्ठ मूल्य मानता है। उसे अपना अधिकार मानता है। इस स्वतन्त्रता की रक्षा के लिये वह अपने आसपास एक सुरक्षाचक्र बनाता है। सुरक्षाचक्र को यथासम्भव अभेद्य बनाने का प्रयास करता है। कोई भी उसमें प्रवेश न करे इसकी सावधानी रखता है । स्व-तन्त्र-ता का वह शाब्दिक अर्थ समझता है और अपने ही तन्त्र से वह जीता है। अपने तन्त्र में किसी की दखल वह नहीं चाहता है।
 
एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति के साथ समरस नहीं होता तब तक समाज बनने की सम्भावना ही नहीं पैदा होती । पश्चिम को इस सूत्र का लेशमात्र बोध नहीं है । पश्चिमी स्वभाव वाला व्यक्ति अकेला रहना चाहता है। अकेले रहने को वह स्वतन्त्रता कहता है। उस स्वतन्त्रता को श्रेष्ठ मूल्य मानता है। उसे अपना अधिकार मानता है। इस स्वतन्त्रता की रक्षा के लिये वह अपने आसपास एक सुरक्षाचक्र बनाता है। सुरक्षाचक्र को यथासम्भव अभेद्य बनाने का प्रयास करता है। कोई भी उसमें प्रवेश न करे इसकी सावधानी रखता है । स्व-तन्त्र-ता का वह शाब्दिक अर्थ समझता है और अपने ही तन्त्र से वह जीता है। अपने तन्त्र में किसी की दखल वह नहीं चाहता है।
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इस स्वतन्त्रता के दो आयाम हैं । एक है असुरक्षा का भाव और दूसरा है अविश्वास का भाव । उसे हमेशा दूसरों से भय रहता है। यदि सावधानी नहीं रखी गई तो कोई भी आकर उसकी स्वतन्त्रता का नाश करेगा यह भय उसका नित्य साथी है। कोई मुझे किसी प्रकार का नुकसान नहीं करेगा ऐसा विश्वास वह नहीं कर सकता । सारे सम्बन्धों को वह अविश्वास से ही देखता है । इसका भी कारण है । उसकी वृत्ति स्वार्थी और अन्यायपूर्ण है । वह अपनी स्वतन्त्रता को तो बनाये रखना चाहता है परन्तु दूसरों की स्वतन्त्रता का नाश करने की युक्ती प्रयुक्ती है। वह स्वयं तो किसी के अधीन नहीं रहना चाहता परन्तु दूसरों को अपने अधीन बनाना चाहता है। इस कारण से उसे हमेशा भय और अविश्वास भी नित्य साथ रखने ही पड़ते हैं । उसे ये इतने स्वाभाविक लगते हैं कि उनके कारण से अनेक मानसिक बिमारियाँ पैदा होती हैं इसकी भी उसे चिन्ता नहीं होती। उन्हें भी वह अनिवार्य अनिष्ट समझकर स्वीकार करता है। विषुववृत्त पर तापमान अधिक होना जितना स्वाभाविक है उतना ही स्वाभाविक भय, अविश्वास और उनसे जनित मनोवैज्ञानिक समस्याओं का होना है।
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इस स्वतन्त्रता के दो आयाम हैं । एक है असुरक्षा का भाव और दूसरा है अविश्वास का भाव । उसे सदा दूसरों से भय रहता है। यदि सावधानी नहीं रखी गई तो कोई भी आकर उसकी स्वतन्त्रता का नाश करेगा यह भय उसका नित्य साथी है। कोई मुझे किसी प्रकार का नुकसान नहीं करेगा ऐसा विश्वास वह नहीं कर सकता । सारे सम्बन्धों को वह अविश्वास से ही देखता है । इसका भी कारण है । उसकी वृत्ति स्वार्थी और अन्यायपूर्ण है । वह अपनी स्वतन्त्रता को तो बनाये रखना चाहता है परन्तु दूसरों की स्वतन्त्रता का नाश करने की युक्ती प्रयुक्ती है। वह स्वयं तो किसी के अधीन नहीं रहना चाहता परन्तु दूसरों को अपने अधीन बनाना चाहता है। इस कारण से उसे सदा भय और अविश्वास भी नित्य साथ रखने ही पड़ते हैं । उसे ये इतने स्वाभाविक लगते हैं कि उनके कारण से अनेक मानसिक बिमारियाँ पैदा होती हैं इसकी भी उसे चिन्ता नहीं होती। उन्हें भी वह अनिवार्य अनिष्ट समझकर स्वीकार करता है। विषुववृत्त पर तापमान अधिक होना जितना स्वाभाविक है उतना ही स्वाभाविक भय, अविश्वास और उनसे जनित मनोवैज्ञानिक समस्याओं का होना है।
    
पृथ्वी के गोल पर वह अकेला तो नहीं रह सकता। यद्यपि उसका स्वप्न तो सारी पृथ्वी पर अकेले ही स्वामित्व स्थापित कर उपभोग करना रहता है। परन्तु पृथ्वी पर असंख्य मनुष्य रहते हैं । मनुष्य के अलावा शेष सारी प्रकृति का तो वह स्वघोषित स्वामी है ही, परन्तु मनुष्यों के साथ वह ऐसी घोषणा नहीं कर सकता क्योंकि दूसरे मनुष्य भी ऐसा ही चाहते हैं। प्रत्येक मनुष्य मन में एकाधिकार की आकांक्षा रखता है परन्तु प्रकट रूप में उसे सबके साथ समायोजन करना पडता है। इस समायोजन के लिये उसने जो व्यवस्था बनाई है उसे उसने 'सामाजिक करार' की संज्ञा दी है। अपने सुख और हित को सुरक्षित रखते हुए, रखने के लिये दूसरों से जितना मिलता है उतना लेना, दसरों से अधिकतम प्राप्त कर लेने के लिये यदि कुछ देना पडता है तो देना इस प्रकार का आशय और स्वरूप है।
 
पृथ्वी के गोल पर वह अकेला तो नहीं रह सकता। यद्यपि उसका स्वप्न तो सारी पृथ्वी पर अकेले ही स्वामित्व स्थापित कर उपभोग करना रहता है। परन्तु पृथ्वी पर असंख्य मनुष्य रहते हैं । मनुष्य के अलावा शेष सारी प्रकृति का तो वह स्वघोषित स्वामी है ही, परन्तु मनुष्यों के साथ वह ऐसी घोषणा नहीं कर सकता क्योंकि दूसरे मनुष्य भी ऐसा ही चाहते हैं। प्रत्येक मनुष्य मन में एकाधिकार की आकांक्षा रखता है परन्तु प्रकट रूप में उसे सबके साथ समायोजन करना पडता है। इस समायोजन के लिये उसने जो व्यवस्था बनाई है उसे उसने 'सामाजिक करार' की संज्ञा दी है। अपने सुख और हित को सुरक्षित रखते हुए, रखने के लिये दूसरों से जितना मिलता है उतना लेना, दसरों से अधिकतम प्राप्त कर लेने के लिये यदि कुछ देना पडता है तो देना इस प्रकार का आशय और स्वरूप है।
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भारत में आज लोककन्त्र है। अंग्रेजी के शब्द डेमोक्रसी का यह अनुवाद है । परन्तु अन्य अनेक संज्ञाओं के अनुवाद की तरह इस शब्द के अनुवाद ने भी भारी अनर्थ किया है। अंग्रेजी का डेमोक्रसी और भारत का लोकतन्त्र एकदूसरे से अत्यन्त भिन्न संकल्पनायें हैं।
 
भारत में आज लोककन्त्र है। अंग्रेजी के शब्द डेमोक्रसी का यह अनुवाद है । परन्तु अन्य अनेक संज्ञाओं के अनुवाद की तरह इस शब्द के अनुवाद ने भी भारी अनर्थ किया है। अंग्रेजी का डेमोक्रसी और भारत का लोकतन्त्र एकदूसरे से अत्यन्त भिन्न संकल्पनायें हैं।
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क्या यह विस्मयकारी नहीं लगता कि सन १९४७ तक - ब्रिटीश भारत से गये तब तक भारत में लोकतन्त्र नहीं था । भारत में ब्रिटीशों का राज्य था तब भी नहीं था। तब भी राज्य तो रानी विक्टोरिया का ही था। आदि काल से भारत में राजाओं का राज्य रहा है। यह अवश्य सत्य है कि गणतन्त्र भी रहे हैं परन्तु आज का लोकतन्त्र भारत की लोकतन्त्र की संकल्पना की घोर विडम्बना है। यह संकल्पना हमने पश्चिम से ली है। आधुनिक काल में इसे श्रेष्ठतम शासनप्रणाली माना जाता है। लोगों का, लोगों के लिये, लोगों द्वारा शासन कहकर लोक का गौरव किया जाता है। सबको समान मानने का यह उत्तम तरीका है।
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क्या यह विस्मयकारी नहीं लगता कि सन १९४७ तक - ब्रिटीश भारत से गये तब तक भारत में लोकतन्त्र नहीं था । भारत में ब्रिटीशों का राज्य था तब भी नहीं था। तब भी राज्य तो रानी विक्टोरिया का ही था। आदि काल से भारत में राजाओं का राज्य रहा है। यह अवश्य सत्य है कि गणतन्त्र भी रहे हैं परन्तु आज का लोकतन्त्र भारत की लोकतन्त्र की संकल्पना की घोर विडम्बना है। यह संकल्पना हमने पश्चिम से ली है। आधुनिक काल में इसे श्रेष्ठतम शासनप्रणाली माना जाता है। लोगोंं का, लोगोंं के लिये, लोगोंं द्वारा शासन कहकर लोक का गौरव किया जाता है। सबको समान मानने का यह उत्तम तरीका है।
    
परन्तु कुछ समझदार व्यक्ति इसे अतार्किक अवश्य कहेगा । व्यक्ति के रूप में सब समान होने पर भी भावात्मक और बौद्धिक दृष्टि से सब समान नहीं होते यह हकीकत है ।
 
परन्तु कुछ समझदार व्यक्ति इसे अतार्किक अवश्य कहेगा । व्यक्ति के रूप में सब समान होने पर भी भावात्मक और बौद्धिक दृष्टि से सब समान नहीं होते यह हकीकत है ।
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इसके साथ ही भारत भी जिम्मेदार है । भारत के लिये ये सारी बातें दर्लभ नहीं थीं, नहीं हैं। भारत के पास ज्ञान है, कौशल है और अनुभव है। हजारों वर्षों की भारत की परम्परा है।
 
इसके साथ ही भारत भी जिम्मेदार है । भारत के लिये ये सारी बातें दर्लभ नहीं थीं, नहीं हैं। भारत के पास ज्ञान है, कौशल है और अनुभव है। हजारों वर्षों की भारत की परम्परा है।
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अपने इस अनुभव के आधार पर पश्चिम की अपरिपक्व अधूरी और उसके स्वयं के लिये तथा शेष विश्व के लिये संकट निर्माण करनेवाली बातों को हमें नकारना पडेगा। उनका स्वीकार क्यों नहीं हो सकता यह समझना पडेगा और समझाना पड़ेगा।
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अपने इस अनुभव के आधार पर पश्चिम की अपरिपक्व अधूरी और उसके स्वयं के लिये तथा शेष विश्व के लिये संकट निर्माण करनेवाली बातों को हमें नकारना पड़ेगा। उनका स्वीकार क्यों नहीं हो सकता यह समझना पड़ेगा और समझाना पड़ेगा।
    
जैसा कि पूर्व में कहा है भारत ने इस स्थिति का सामना पूर्व इतिहास में अनेक बार किया है । भूभाग के साथ साथ संस्कृति पर होने वाले आक्रमणों को अनेक बार परास्त किया है । धर्म और अधर्म, दैवी और आसुरी सम्पद् के मध्य अनेक बार संघर्ष हुए हैं, और भारत ने सिद्ध किया है कि विजय तो धर्म की और सत्य की ही होती है।
 
जैसा कि पूर्व में कहा है भारत ने इस स्थिति का सामना पूर्व इतिहास में अनेक बार किया है । भूभाग के साथ साथ संस्कृति पर होने वाले आक्रमणों को अनेक बार परास्त किया है । धर्म और अधर्म, दैवी और आसुरी सम्पद् के मध्य अनेक बार संघर्ष हुए हैं, और भारत ने सिद्ध किया है कि विजय तो धर्म की और सत्य की ही होती है।
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आज का पश्चिम आसुरी सम्पद् का साक्षात् उदाहरण है। अहंकार, बल, आत्मस्तुति, स्वयं की श्रेष्ठता का भाव, औरों के प्रति तुच्छता का भाव, अपरिमित सत्ता और वैभव प्राप्त करने की आकांक्षा, अविचार, सबके ऊपर विजय प्राप्त करने की और श्रेष्ठत्व प्रस्थापित करने की प्रवृत्ति आसुरी सम्पद् के लक्षण हैं। ऐसी मनोवृत्ति लेकर ही पश्चिम ने पाँचसौ वर्ष पूर्व विश्व की यात्रा शुरू की थी। समस्त पृथ्वी को पादाक्रान्त करते हुए उसने अनेक राष्ट्रों के मूल निवासियों को नष्ट किया उन पर अपना आधिपत्य जमाया, अनेक प्रजाओं को गुलाम बनाया, शोषण और अत्याचार का अपरिमित दौर, चलाया, अनेक राष्ट्रों को यूरोपीय बनाया, अनेक राष्ट्रों को इसाई बनाया और 'साम्राज्य में सूर्य कभी अस्त नहीं होता' ऐसी गर्वोक्ति को सार्थक भी बनाया।
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आज का पश्चिम आसुरी सम्पद् का साक्षात् उदाहरण है। अहंकार, बल, आत्मस्तुति, स्वयं की श्रेष्ठता का भाव, औरों के प्रति तुच्छता का भाव, अपरिमित सत्ता और वैभव प्राप्त करने की आकांक्षा, अविचार, सबके ऊपर विजय प्राप्त करने की और श्रेष्ठत्व प्रस्थापित करने की प्रवृत्ति आसुरी सम्पद् के लक्षण हैं। ऐसी मनोवृत्ति लेकर ही पश्चिम ने पाँचसौ वर्ष पूर्व विश्व की यात्रा आरम्भ की थी। समस्त पृथ्वी को पादाक्रान्त करते हुए उसने अनेक राष्ट्रों के मूल निवासियों को नष्ट किया उन पर अपना आधिपत्य जमाया, अनेक प्रजाओं को गुलाम बनाया, शोषण और अत्याचार का अपरिमित दौर, चलाया, अनेक राष्ट्रों को यूरोपीय बनाया, अनेक राष्ट्रों को इसाई बनाया और 'साम्राज्य में सूर्य कभी अस्त नहीं होता' ऐसी गर्वोक्ति को सार्थक भी बनाया।
    
परन्तु आसुरी सम्पद् सर्वभक्षी होती है। सर्व का भक्षण होने के बाद वह स्वयं भी अपनी ही आसुरी वृत्ति का भक्ष्य बन जाती है यह इतिहास का सत्य है।
 
परन्तु आसुरी सम्पद् सर्वभक्षी होती है। सर्व का भक्षण होने के बाद वह स्वयं भी अपनी ही आसुरी वृत्ति का भक्ष्य बन जाती है यह इतिहास का सत्य है।
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पश्चिम आज विनाश के कगार पर खड़ा है । उसने विश्व के लिये संकट खडे किये उन संकटों का दुष्प्रभाव वह स्वयं झेल रहा है। परिस्थिति उसके नियन्त्रण में नहीं रही है।
 
पश्चिम आज विनाश के कगार पर खड़ा है । उसने विश्व के लिये संकट खडे किये उन संकटों का दुष्प्रभाव वह स्वयं झेल रहा है। परिस्थिति उसके नियन्त्रण में नहीं रही है।
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पश्चिम को इस विनाश से बचाने के लिये भी भारत को ही सिद्ध होना पडेगा । भारत स्वयं भी पश्चिम से त्रस्त और ग्रस्त है परन्तु अपनी और पश्चिम की मुक्ति के लिये भारत को ही प्रयास करने होंगे।
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पश्चिम को इस विनाश से बचाने के लिये भी भारत को ही सिद्ध होना पड़ेगा । भारत स्वयं भी पश्चिम से त्रस्त और ग्रस्त है परन्तु अपनी और पश्चिम की मुक्ति के लिये भारत को ही प्रयास करने होंगे।
    
भारत के लिये ये प्रयास सरल तो नहीं हैं। परन्तु विश्व में यदि कोई कर सकता है तो भारत ही है।
 
भारत के लिये ये प्रयास सरल तो नहीं हैं। परन्तु विश्व में यदि कोई कर सकता है तो भारत ही है।
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इस कार्य में यशस्वी होने के लिये
 
इस कार्य में यशस्वी होने के लिये
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१. भारत को अपने में स्थित होना पडेगा अर्थात् भारत को भारत बनना पड़ेगा।
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१. भारत को अपने में स्थित होना पड़ेगा अर्थात् भारत को भारत बनना पड़ेगा।
    
२. भारत को समर्थ बनना होगा।  
 
२. भारत को समर्थ बनना होगा।  
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३. भारत को ज्ञानवान बनना होगा। यह सब कैसे होगा इसका विचार हम आगे कर रहे है।  
 
३. भारत को ज्ञानवान बनना होगा। यह सब कैसे होगा इसका विचार हम आगे कर रहे है।  
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==== ३. कुटुंब व्यवस्था का सुदृढ़ीकरण ====
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==== ३. [[Family_Structure_(कुटुंब_व्यवस्था)|कुटुंब व्यवस्था]] का सुदृढ़ीकरण ====
१. भारत को भारत बनाने का यह सबसे कारगर उपाय है । विश्वभर में भारत जैसी कुटुम्ब व्यवस्था नहीं है । उन्हें इस व्यवस्था से मिलनेवाले सुखों का अनुभव ही नहीं है इस व्यवस्था के बिखर जाने से क्या हानि होती है इसका भी पता नहीं चलता। भारत को तो कुटुम्ब व्यवस्था से प्राप्त सुख और बिखरने से दुःख दोनों का अनुभव हो रहा है । इसके आधार पर ही कह सकते हैं कि भारत को कुटुम्ब व्यवस्था के बारे में पुनः गम्भीर होकर विचार करने की आवश्यकता है।  
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# भारत को भारत बनाने का यह सबसे कारगर उपाय है । विश्वभर में भारत जैसी कुटुम्ब व्यवस्था नहीं है । उन्हें इस व्यवस्था से मिलनेवाले सुखों का अनुभव ही नहीं है इस व्यवस्था के बिखर जाने से क्या हानि होती है इसका भी पता नहीं चलता। भारत को तो कुटुम्ब व्यवस्था से प्राप्त सुख और बिखरने से दुःख दोनों का अनुभव हो रहा है । इसके आधार पर ही कह सकते हैं कि भारत को कुटुम्ब व्यवस्था के बारे में पुनः गम्भीर होकर विचार करने की आवश्यकता है।  
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# पश्चिम के सारे सामाजिक सम्बन्ध करार के आधार पर बने हैं । व्यक्ति के स्वार्थों की सुरक्षा हेतु करार किये जाते हैं। विवाह भी सामाजिक करारव्यवस्था का एक हिस्सा है। भारत में करारव्यवस्था की कहीं पर भी प्रतिष्ठा नहीं है । मानवीय सम्बन्धों के लिये करार व्यवस्था निकृष्ट मानी जाती है।
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# परन्तु पश्चिम के सांस्कृतिक प्रभाव के कारण भारत में विवाह को करार के रूप में स्वीकृति प्राप्त हुई है। अब कानून में, सरकारी व्यवस्था में, सार्वजनिक व्यवस्थाओं में विवाह को करार ही माना जाता है। समाजव्यवस्था में अब परिवार को नहीं अपितु व्यक्ति को इकाई माना जाता है। अतः पति और पत्नी की भी स्वतन्त्र व्यक्ति के नाते ही पहचान बनती है। भारत में पति की पत्नी से और पत्नी की पति से स्वतन्त्र पहचान नहीं होती वे एक ही माने जाते हैं, परन्तु अब वे स्वतन्त्र हो गये हैं।
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# कुटुम्ब व्यवस्था की इस केन्द्रवर्ती रचना को पुनः प्रस्थापित करना सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण विषय है। इसके सांस्कृतिक संकेत महत्त्वपूर्ण है। भारत के एकात्म दर्शन की व्यावहारिक व्यवस्था स्त्री और पुरुष के पतिपत्नी के रूप में एकात्म सम्बन्ध में हुई है। इस पर आघात हुआ है। केन्द्र से ही च्युत हो जाने पर सारी व्यवस्था छिन्नविच्छिन्न हो जायेगी इसमें कोई आश्चर्य नहीं । सम्पूर्ण समाज व्यवस्था को ठीक करने हेतु विवाह व्यवस्था ठीक करने की आवश्यकता है।
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# विवाह के सम्बन्ध में भारत में अनेक शास्त्रों का विकास हआ है। यह विवाहसंस्था का महत्त्व दर्शाता है । इन शाखों ने दी हुई व्यवस्था के अनुसार आज पुनर्विचार किया जा सकता है।
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# विवाहसंस्था को ठीक करने हेतु बालक और बालिका को विवाह के योग्य बनाने की शिक्षा दी जाने की आवश्यकता है। इसी प्रकार से पतिपत्नी का सम्बन्ध, गृहस्थाश्रम, सामाजिक दायित्व आदि की शिक्षा भी दी जाने की आवश्यकता है।
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# कुटुम्ब व्यवस्था को सुदृढ बनाने के लिये दो पीढियों का साथ रहना अत्यन्त आवश्यक होता है। आज शिक्षा और व्यवसाय के कारणों से दो पीढियों का साथ रहना सम्भव नहीं हो रहा है। इसके मनोवैज्ञानिक, सामाजिक और सांस्कृतिक दुष्परिणाम होते हैं ।
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# कुटुम्ब पीढियों को जोडता है । पीढियों के जुडने से परम्परा बनती है। सर्व प्रकार की सांस्कृतिक परम्परा की रक्षा पीढियों के साथ रहने से होती है । इसलिये दो पीढियों का साथ रहना आवश्यक माना जाना चाहिये । दो पीढियों के साथ रहने से अनेक प्रकार की मनोवैज्ञानिक और व्यावहारिक समस्याओं का समाधान भी हो जाता है यह हम सबका अनुभव है।
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# कुटुम्ब में दो पीढियाँ साथ रहती है इसलिये बच्चोंं के लिये नर्सरी, बेबी सिटींग, के. जी. छात्रावास आदि की व्यवस्था नहीं करनी पड़ती और वृद्धों के लिये वृद्धाश्रमों की व्यवस्था नहीं करनी पडती । कुटुम्ब व्यवस्था सुदृढ होती है तब कोई अनाथ या अनाश्रित नहीं रहता।
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# कुटुम्ब व्यवस्था में हर एक व्यक्ति का कुल इकहत्तर कुलों के साथ वंशगत सम्बन्ध बनता है। वंशपरम्परागत संस्कारों की दृष्टि से यह बात अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। व्यक्ति के स्वभाव, क्षमताओं और विकास की सम्भावनाओं पर इसका प्रभाव होता है।
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# प्रेम, समर्पण, त्याग और सेवा के आधार पर कुटुम्ब बनता है। इन भावों को एक पीढी से दूसरी पीढी तक आचरण के माध्यम से संक्रान्त किया जाता है। इनकी शिक्षा का इससे अधिक प्रभावी कोई उपाय नहीं हो सकता । कुटुम्ब से इन भावों की शिक्षा प्राप्त कर व्यक्ति अपने सामाजिक व्यवहार में भी इन्हें प्रकट करता है। समाज के चरित्रनिर्माण में कुटुम्ब का बडा योगदान रहता है।
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# अर्थार्जन हेतु व्यवसाय की निश्चिति भी कुटुम्ब के आधार पर ही होती है। यह स्थिति भारत की आर्थिक और सामाजिक व्यवस्था बिखर जाने से पूर्व की है। व्यवसाय कुटुम्बगत होने से कुटुम्ब की एकता और एकात्मता साध्य करना सुगम होता है। निश्चिन्तता और सुरक्षा भी सुनिश्चित होती है। इस प्रकार कुटुम्ब केवल भावात्मक ही नहीं तो व्यावहारिक आवश्यकता है।
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# कुटुम्ब बहुत बडा विद्याकेन्द्र है। व्यक्ति को जीवनविकास के लिये आवश्यक बातों की साठ से सत्तर प्रतिशत शिक्षा कुटुम्ब में ही प्राप्त होती है। शिक्षा गर्भाधान से ही आरम्भ होती है । माता बालक की प्रथम शिक्षक होती है। पिता सहित घर के सभी सदस्य बालक को शिक्षा देने वाले होते हैं। आज शिक्षा की दृष्टि से कुटुम्ब में कोई विचार नहीं किया जाता है। शिक्षा का विचार कर कुटुम्ब को एक प्रभावी शिक्षाकेन्द्र बनाने की आवश्यकता है।
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# घर में संस्कारों की शिक्षा होती है, संस्कृति की शिक्षा होती है, घर चलाने की शिक्षा होती है, आचरण की शिक्षा होती है, सामाजिक दायित्वबोध की शिक्षा होती है, अर्थार्जन की शिक्षा होती है । यह शिक्षा संस्कार, अनुकरण, प्रेरणा, क्रिया, अनुभव, प्रयोग आदि के माध्यम से होती है। इतना सब कुछ होने के कारण कुटुम्ब प्रभावी शिक्षाकेन्द्र है। उसे पुनः ऐसा शिक्षाकेन्द्र बनाने की आवश्यकता है।
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# पश्चिम को भौतिक जीवन और सांस्कृतिक जीवन का अन्तर समझने की आवश्यकता है। मनुष्य के लिये सांस्कृतिक जीवन होता है, भौतिक नहीं । भौतिक जीवन केवल पशुओं के लिये होता है । सांस्कृतिक जीवन का केन्द्र कुटुम्ब है। इसलिये पश्चिम के लिये भी कुटुम्बसंस्था को अपनाना लाभकारी है। विश्व को यह बात समझाने हेतु भारत को भी अपनी कुटुम्ब व्यवस्था को सुदृढ बनाना होगा।
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# भारत आज अनेक बातों में पश्चिम से आक्रान्त हुआ है। आक्रमण का उसे विस्मरण सा भी हुआ है इसलिये जो आक्रमण के रूप में आया है उसे वह स्वाभाविक मानता है, भले ही वह परेशान करता हो । कुटुम्ब संस्था भी आक्रमण का शिकार बनी हुई है। उसे पश्चिमी प्रभाव से मुक्त करने की आवश्यकता है।
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# कुटुम्ब के सम्बन्धों में एकदूसरे की सापेक्षता ही होती है। कुटुम्ब में व्यक्ति का व्यक्ति के नाते परिचय नहीं होता, सम्बन्ध के नाते होता है, जैसे कि एक ही व्यक्ति अलग अलग व्यक्तियों के सम्बन्ध में पुत्र, पिता, पौत्र, दादा, नाना, दौहित्र, भाई, देवर, बहनोई, साला, चाचा, मामा, फूफा, भतीजा, भानजा आदि होता है। इन सभी सम्बन्धों के कुछ अधिकार और कुछ कर्तव्य होते है। इन अधिकारों का स्वीकार और कर्तव्यों के पालन से सामाजिकता विकसित होती है।
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# कुटुम्ब में शिशु का जन्म होता है और नई पीढी का प्रारम्भ होता है। इस शिशु को चरित्रवान, कर्तृत्ववान और ज्ञानवान बनाकर कुटुम्ब समाज को एक सुयोग्य नागरिक प्रदान करता है । कुटुम्ब की यह श्रेष्ठ समाजसेवा है। समाज के लिये अत्यन्त मूल्यवान यह कार्य कुटुम्ब के अलावा और कहीं नहीं हो सकता।
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# कुटुम्ब में ब्रह्मचर्य, गृहस्थ और वानप्रस्थ ये तीनों आश्रमों के सदस्य साथ साथ रहते हैं। तीन, और कहीं कहीं चार पीढियाँ साथ साथ रहती हैं । जीवन के सर्व प्रकार के अनुभव कुटुम्ब में होते हैं। सर्व प्रकार की आयु के सदस्यों के साथ व्यवहार करने की शिक्षा कुटुम्ब में मिलती है।
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# कुटुम्ब जीवन धार्मिक जीवनव्यवस्था की अमूल्य निधि है। उसकी प्रतिष्ठा करना भारत के लिये परम आवश्यक है। उसकी प्रतिष्टा करने से भारत का तो अभ्युदय होगा ही, अनेक प्रकार के मानसिक और सांस्कृतिक संकटों से ग्रस्त विश्व के लिये भी वह पथप्रदर्शक बनेगा।
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पश्चिम के सारे सामाजिक सम्बन्ध करार के आधार पर बने हैं । व्यक्ति के स्वार्थों की सुरक्षा हेतु करार किये जाते हैं। विवाह भी सामाजिक करारव्यवस्था का एक हिस्सा है। भारत में करारव्यवस्था की कहीं पर भी प्रतिष्ठा नहीं है । मानवीय सम्बन्धों के लिये करार व्यवस्था निकृष्ट मानी जाती है।
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==== ४. स्वायत समाज की रचना ====
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स्वायत्त समाज भारत की विशिष्ट पहचान है। इसका मूल है स्वतन्त्रता की चाह स्वतन्त्रता के साथ स्वावलम्बन और जिम्मेदारी के तत्त्व भी जुड़े हुए हैं । जो जिम्मेदार और स्वावलम्बी नहीं वह स्वतन्त्र नहीं हो सकता।
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परन्तु पश्चिम के सांस्कृतिक प्रभाव के कारण भारत में विवाह को करार के रूप में स्वीकृति प्राप्त हुई है। अब कानून में, सरकारी व्यवस्था में, सार्वजनिक व्यवस्थाओं में विवाह को करार ही माना जाता है। समाजव्यवस्था में अब परिवार को नहीं अपितु व्यक्ति को इकाई माना जाता है। अतः पति और पत्नी की भी स्वतन्त्र व्यक्ति के नाते ही पहचान बनती है। भारत में पति की पत्नी से और पत्नी की पति से स्वतन्त्र पहचान नहीं होती वे एक ही माने जाते हैं, परन्तु अब वे स्वतन्त्र हो गये हैं।
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स्वतन्त्रता की मूल परिभाषा परमात्मा के साथ जुडी है। परमात्मा के विषय में कहा गया है कि वह कर्तुमक अन्यथा कर्तुं समर्थ है अर्थात् करने नहीं करने या अलग पद्धति से करने में समर्थ है अर्थात् उसे रोकने टोकनेवाला कोई नहीं है। स्वतन्त्र का अर्थ है अपना तन्त्र अर्थात् अपनी व्यवस्था । अपनी व्यवस्था से रहना धार्मिक व्यक्ति का और धार्मिक समाज का लक्षण है।
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कुटुम्ब व्यवस्था की इस केन्द्रवर्ती रचना को पुनः प्रस्थापित करना सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण विषय है। इसके सांस्कृतिक संकेत महत्त्वपूर्ण है। भारत के एकात्म दर्शन की व्यावहारिक व्यवस्था स्त्री और पुरुष के पतिपत्नी के रूप में एकात्म सम्बन्ध में हुई है। इस पर आघात हुआ है। केन्द्र से ही च्युत हो जाने पर सारी व्यवस्था छिन्नविच्छिन्न हो जायेगी इसमें कोई आश्चर्य नहीं सम्पूर्ण समाज व्यवस्था को ठीक करने हेतु विवाह व्यवस्था ठीक करने की आवश्यकता है।  
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स्वायत्त का अर्थ है स्वाधीन । स्वाधीन होने का अर्थ है अपने स्वयं के ही अनुसार जीना, अपनी इच्छा सर्वोपरि होना समर्थ समाज ही स्वायत्त और स्वतन्त्र होता है।
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५. विवाह के सम्बन्ध में भारत में अनेक शास्त्रों का विकास हआ है। यह विवाहसंस्था का महत्त्व दर्शाता है । इन शाखों ने दी हुई व्यवस्था के अनुसार आज पुनर्विचार किया जा सकता है।  
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स्वावलम्बी समाजरचना का प्रारम्भ व्यक्ति के स्वावलम्बी होने के साथ होता है । व्यक्ति के स्वावलम्बी होने का सीधा सादा सूत्र है अपना काम खुद करों' । अतः व्यक्ति को स्वयं के लिये आवश्यक सारे काम छोटी आयु से ही सिखाये जाते है। व्यक्ति खानापीना, चलनादौडना, नहानाधोना तो स्वयं करता ही है परन्तु कपड़े धोना, बर्तन साफ करना, अपनी वस्तुओं को व्यवस्थित रखना, अपना वाहन तथा अन्य सामान व्यवस्थित रखना आदि भी स्वयं करता है। अपना जीवननिर्वाह भी स्वयं कर सके इतना कुशल बनना भी सिखाया जाता है। अपने सुखदुःख, आनन्दप्रमोद, चित्तवृत्तियाँ भी स्वंय के अधीन हो यह सिखाया जाता है।
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विवाहसंस्था को ठीक करने हेतु बालक और बालिका को विवाह के योग्य बनाने की शिक्षा दी जाने की आवश्यकता है। इसी प्रकार से पतिपत्नी का सम्बन्ध, गृहस्थाश्रम, सामाजिक दायित्व आदि की शिक्षा भी दी जाने की आवश्यकता है।
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परन्तु व्यवहार जगत में व्यक्ति अकेला नहीं होता, अकेला रह भी नहीं सकता । उसे दूसरों के साथ रहना है । साथ रहने के लिये लेनदेन का व्यवहार करना ही होता है, दूसरों का काम करना होता है, दूसरों से काम लेना भी होता _है। तब स्वायत्तता और स्वतन्त्रता का क्या होगा ?
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कुटुम्ब व्यवस्था को सुदृढ बनाने के लिये दो पीढियों का साथ रहना अत्यन्त आवश्यक होता है। आज शिक्षा और व्यवसाय के कारणों से दो पीढियों का साथ रहना सम्भव नहीं हो रहा है। इसके मनोवैज्ञानिक, सामाजिक और सांस्कृतिक दुष्परिणाम होते हैं ।
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इस प्रश्न का समाधान खोजते खोजते भारत ने कुटुम्ब व्यवस्था बनाई । कुटुम्ब व्यवस्था का, केन्द्रवर्ती तत्त्व है आत्मीयता । कुटुम्ब में सब साथ रहते हैं और साथ साथ काम करते हैं। कुटुम्ब में व्यक्ति दूसरों का काम करता है और उसका काम दूसरा कोई करता है। फिर व्यक्ति की स्वतन्त्रता और स्वायतत्ता का क्या होगा ? इस के लिये समाधान यह है कि कुटुम्ब में पहले अपनापन होता है, बाद में एकदूसरे का काम करना होता है। कुटुम्ब में सब एक होते हैं, एकदूसरे के होते हैं । यहाँ सब का काम सब करते हैं । कोई एक व्यक्ति दूसरे का काम, दूसरे की इच्छा के अनुसार काम कब करता है ? भारत में सिखाया जाता है कि भय, स्वार्थ, लालच, विवशता से दूसरे का काम न करो परन्तु आदर, स्नेह, श्रद्धा, दया से दूसरों का काम अवश्य  करो । इसे ही सेवा कहा गया है। इस सूत्र से ही मातापिता की, गुरु की, सन्त की, रुग्ण की, अनाथ और अपाहिज की, शिशु की सेवा करना कर्तव्य बताया गया है और किसी के दबाव में आकर, अपना स्वार्थ साधने के लिये, दीन बनकर, धूर्त बनकर किसी का काम करने को त्याज्य बताया गया है। इसलिये अर्थार्जन के क्षेत्र में नौकरी को कभी भी प्रतिष्ठा नहीं मिली है। विवशता अथवा गुलामी का ही दूसरा नाम नौकरी है। नौकरी को सेवा कहना सेवा शब्द की अवमानना है। अर्थार्जन के लिये व्यक्ति नहीं अपितु कुटुम्ब साथ मिलकर काम करता है। कामकाज के क्षेत्र में नौकरी नहीं अपितु परस्परावलम्बिता, परस्परपरकता, परस्पर सहयोग आधारभूत तत्व है। उदाहरण के लिये किसी की बड़ी खेती है तब प्रथम तो किसान अधिक भाई और बेटे चाहता है ताकि काम पूरा हो सके । परन्तु तथापि व्यक्ति कम पड रहे हैं तो अपने भतीजें आदि को काम में सहयोगी बनने के लिये बुलाता है। भतीजा कुटुम्ब का ही सदस्य है। यदि कुटुम्बीजन के अलावा और किसी को बुलाने की आवश्यकता पड़ती है तब उसे भागीदारी पर बुलाया जाता _है, मजदूर के रूप में नहीं। वह सहभागी होता है, नौकर नहीं।
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८. कुटुम्ब पीढियों को जोडता है । पीढियों के जुडने से परम्परा बनती है। सर्व प्रकार की सांस्कृतिक परम्परा की रक्षा पीढियों के साथ रहने से होती है । इसलिये दो पीढियों का साथ रहना आवश्यक माना जाना चाहिये । दो पीढियों के साथ रहने से अनेक प्रकार की मनोवैज्ञानिक और व्यावहारिक समस्याओं का समाधान भी हो जाता है यह हम सबका अनुभव है।  
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स्वायत्त समाज में अर्थार्जन के क्षेत्र में भी कुटुम्बों को, भिन्न भिन्न व्यवसायों को साथ मिलकर ही काम करना होता है। तब भी परस्परावलम्बिता, परस्परपूरकता, सहभागिता और आत्मीयता के आधार पर रचना बनती है । मुख्य बात यह होती है कि श्रम और काम की प्रतिष्ठा होती है और श्रम और काम करनेवाला अपने श्रम और काम का मालिक होता है।
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कुटुम्ब में दो पीढियाँ साथ रहती है इसलिये बच्चों के लिये नर्सरी, बेबी सिटींग, के. जी. छात्रावास आदि की व्यवस्था नहीं करनी पड़ती और वृद्धों के लिये वृद्धाश्रमों की व्यवस्था नहीं करनी पडती । कुटुम्ब व्यवस्था सुदृढ होती है तब कोई अनाथ या अनाश्रित नहीं रहता।
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स्वायत्त समाज सुसंस्कृत समाज बनने की दिशा में तब आगे बढता है जब केवल अपना नहीं अपितु सबका और अपने से पहले और अपने से अधिक दूसरों का विचार करता है। स्वायत्त समाज में व्यक्ति तो किसी का नौकर नहीं बनता, साथ ही किसी पर भी नौकर बनने की नौबत न आये इसकी चिन्ता करता है इसलिये अर्थार्जन के क्षेत्र में दूसरों का काम छीनकर अपना अर्थार्जन का क्षेत्र विस्तृत करने की अनुमति किसी को भी नहीं होती। अर्थार्जन के क्षेत्र में स्पर्धा असंस्कृत और कम बुद्धिमान समाज का लक्षण है क्योंकि वह असुरक्षा, चिन्ता, मानसिक तनाव, दारिद्य और हिंसा को ही जन्म देती है।
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१०. कुटुम्ब व्यवस्था में हर एक व्यक्ति का कुल इकहत्तर कुलों के साथ वंशगत सम्बन्ध बनता है। वंशपरम्परागत संस्कारों की दृष्टि से यह बात अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। व्यक्ति के स्वभाव, क्षमताओं और विकास की सम्भावनाओं पर इसका प्रभाव होता है।  
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स्वायत्त समाज राज्य के अधीन भी नहीं होता । राज्य समाज की विभिन्न व्यवस्थाओं और गतिविधियों की सुरक्षा और सहूलियत के लिये होता है।
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११. प्रेम, समर्पण, त्याग और सेवा के आधार पर कुटुम्ब बनता है। इन भावों को एक पीढी से दूसरी पीढी तक आचरण के माध्यम से संक्रान्त किया जाता है। इनकी शिक्षा का इससे अधिक प्रभावी कोई उपाय नहीं हो सकता । कुटुम्ब से इन भावों की शिक्षा प्राप्त कर व्यक्ति अपने सामाजिक व्यवहार में भी इन्हें प्रकट करता है। समाज के चरित्रनिर्माण में कुटुम्ब का बडा योगदान रहता है।
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स्वायत्त समाज परिवार भावना से कार्यरत होता है इसलिये समाज में कोई बेरोजगार और अनाथ नहीं होता यहाँ बेरोजगारों को भत्ता नहीं मिलता काम मिलता है, अनाथों को राज्याश्रय नहीं मिलता है, कुटुम्ब का आश्रय मिलता है। स्वायत्त समाज में होटेल, बैंक, साहुकारी, छात्रालय, अनाथगृह, अबलाश्रम, वृद्धाश्रम नहीं होते । इनके स्थान पर सदाव्रत, धर्मशाला, मन्दिर आदि होते हैं।
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अर्थार्जन हेतु व्यवसाय की निश्चिति भी कुटुम्ब के आधार पर ही होती है। यह स्थिति भारत की आर्थिक और सामाजिक व्यवस्था बिखर जाने से पूर्व की है। व्यवसाय कुटुम्बगत होने से कुटुम्ब की एकता और एकात्मता साध्य करना सुगम होता है। निश्चिन्तता और सुरक्षा भी सुनिश्चित होती है। इस प्रकार कुटुम्ब केवल भावात्मक ही नहीं तो व्यावहारिक आवश्यकता है।  
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भारत ने अपनी इतनी सुन्दर और श्रेष्ठ व्यवस्थाओं का त्याग कर दिया है। ब्रिटीशों ने अपने स्वार्थ और अज्ञान के चलते इनका नाश किया और स्वाधीनता के बाद हमने उस नाश की ओर देखने के स्थान पर उनके द्वारा की गई व्यवस्था (?) को ही अपना लिया । अब भारत की स्वायत्त समाज की कल्पना हमें अत्यन्त अपरिचित और अवास्तविक लगती है। स्पर्धा नहीं होनी चाहिये ऐसा कहने वाले की बात ही समझ में नहीं आती। बिना बैंक के, बिना ऋण के व्यवसाय, शिक्षा, अपना मकान हो सकता है इसकी कल्पना भी नहीं कर सकते । व्यापक और मूलगत विचार करने हेतु आवश्यक शान्ति, धैर्य और विशाल बुद्धि का भी अभाव है।
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१३. कुटुम्ब बहुत बडा विद्याकेन्द्र है। व्यक्ति को जीवनविकास के लिये आवश्यक बातों की साठ से सत्तर प्रतिशत शिक्षा कुटुम्ब में ही प्राप्त होती है। शिक्षा गर्भाधान से ही शुरू होती है माता बालक की प्रथम शिक्षक होती है। पिता सहित घर के सभी सदस्य बालक को शिक्षा देने वाले होते हैं। आज शिक्षा की दृष्टि से कुटुम्ब में कोई विचार नहीं किया जाता है। शिक्षा का विचार कर कुटुम्ब को एक प्रभावी शिक्षाकेन्द्र बनाने की आवश्यकता है।
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परन्तु भारत को अपनी ये मूल्यवान बातें पुनः प्राप्त करनी ही होंगी ऐसा नहीं किया तो उसका क्या होगा ? विश्व का क्या होगा ?
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१४. घर में संस्कारों की शिक्षा होती है, संस्कृति की शिक्षा होती है, घर चलाने की शिक्षा होती है, आचरण की शिक्षा होती है, सामाजिक दायित्वबोध की शिक्षा होती है, अर्थार्जन की शिक्षा होती है । यह शिक्षा संस्कार, अनुकरण, प्रेरणा, क्रिया, अनुभव, प्रयोग आदि के माध्यम से होती है। इतना सब कुछ होने के कारण कुटुम्ब प्रभावी शिक्षाकेन्द्र है। उसे पुनः ऐसा शिक्षाकेन्द्र बनाने की आवश्यकता है।  
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==== ५. स्थिर समाज बनाना ====
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शिक्षा को धार्मिक बनाने के लिये स्थिर समाज की आवश्यकता होती है । संगठित समाज ही स्थिर समाज होता है। हमारा इस बात की ओर कदाचित ध्यान नहीं जाता है कि ब्रिटीश शासन के काल में सर्वाधिक क्षति समाज व्यवस्था को पहुँची है । सहस्रों वर्षों से जिन व्यवस्थाओं से समाज का संचालन होता आया था उन सभी व्यवस्थाओं को छिन्न-विच्छिन्न कर नष्ट कर दिया गया । इस हद तक उन व्यवस्थाओं को लेकर जनमानस को कलुषित कर दिया गया कि आज भी हम उन व्यवस्थाओं के लिये आस्थापूर्वक बात भी करना नहीं चाहते । शिक्षा ही इस नाश का प्रमुख माध्यम बनी है। आज भी स्थिति वही है।
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१५. पश्चिम को भौतिक जीवन और सांस्कृतिक जीवन का अन्तर समझने की आवश्यकता है। मनुष्य के लिये सांस्कृतिक जीवन होता है, भौतिक नहीं । भौतिक जीवन केवल पशुओं के लिये होता है । सांस्कृतिक जीवन का केन्द्र कुटुम्ब है। इसलिये पश्चिम के लिये भी कुटुम्बसंस्था को अपनाना लाभकारी है। विश्व को यह बात समझाने हेतु भारत को भी अपनी कुटुम्ब व्यवस्था को सुदृढ बनाना होगा।
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धार्मिक समाज को संगठित रखनेवाली व्यवस्थायें थीं [[Varna_System_(वर्ण_व्यवस्था)|[[Varna_System_(वर्ण_व्यवस्था)|वर्ण व्यवस्था]]]], [[Jaati_System_(जाति_व्यवस्था)|जाति व्यवस्था]], [[Ashram System (आश्रम व्यवस्था)|आश्रमव्यवस्था]] और परिवारव्यवस्था । इनमें परिवारव्यवस्था केन्द्र में थी और सबका आश्रय थी। आज आश्रम व्यवस्था को नाम से भी नई पीढी जानती नहीं है। आश्रम के नाम पर ऋषिमुनियों के आश्रम ही कल्पना में आते हैं, कदाचित वे भी परिचित नहीं हैं। ब्रह्मचर्याश्रम, गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थाश्रम और संन्यस्ताश्रम की कल्पना ही नहीं रही। वर्ण और जाति बहुत बदनाम हो गये हैं यद्यपि यह कहना चाहिये कि वे बदनामी के जितने लायक थे उससे कई गुना अधिक बदनाम हो गये हैं। परिवारव्यवस्था का अस्तित्व आज है परन्तु उस पर बहुत अधिक पश्चिमी प्रभाव है। समाजव्यवस्था छिन्नविच्छिन्न हो जाने से धर्म और संस्कृति, शिक्षा और अर्थार्जन, दायित्वबोध और देशभक्ति अनाश्रित बन गये हैं। इन आधारों की चिन्ता किये बिना समाज व्यवस्थित नहीं हो सकता और जब तक समाज व्यवस्थित नहीं होता, शिक्षा धार्मिक नहीं बन सकती।
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१६. भारत आज अनेक बातों में पश्चिम से आक्रान्त हुआ है। आक्रमण का उसे विस्मरण सा भी हुआ है इसलिये जो आक्रमण के रूप में आया है उसे वह स्वाभाविक मानता है, भले ही वह परेशान करता हो कुटुम्ब संस्था भी आक्रमण का शिकार बनी हुई है। उसे पश्चिमी प्रभाव से मुक्त करने की आवश्यकता है।  
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वर्ण और [[Jaati_System_(जाति_व्यवस्था)|जाति व्यवस्था]] का हम त्याग भी कर दें तो तत्त्वतः तो कोई आपत्ति नहीं हो सकती। परन्तु इनका पर्याय खोजना और स्थापित करना तो अत्यन्त आवश्यक है । इस दृष्टि से हमें वर्ण और जाति की उपयोगिता क्या थी और उनके दूषण क्या थे इसका विचार करना होगा । दूषण का विचार करें तो दो बातें ध्यान में आती हैं । एक है ऊँच नीच का भेद और दूसरी है अस्पृश्यता उपयोगिता का विचार करें तो सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि वर्ण और जाति से आचार और व्यवसाय की व्यवस्था और निश्चिति होती थी। तत्वतः वर्ण जन्म से नहीं अपितु गुण और कर्म से माने जाते थे परन्तु व्यवहार में जन्म से ही माने जाने लगे थे। वर्ण और जाति विवाह के लिये भी आवश्यक मानी जाती थी । वर्णान्तर और जात्यन्तर यद्यपि सम्भव था परन्तु नगण्य मात्रा में किया जाता था । स्थिर समाज के लिये, अर्थार्जन की निश्चितता और निश्चिंतता और संस्कृति और समृद्धि की सुरक्षा के लिये इनका उपयोग था । इन व्यवस्थाओं के दूषणों को दूर कर, इनका परिष्कार कर इन्हें पुनः उपयोगी बनाने का विचार किया जाय तो लाभ हो सकता है। परन्तु राजकीय हस्तक्षेप के कारण और
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१७. कुटुम्ब के सम्बन्धों में एकदूसरे की सापेक्षता ही होती है। कुटुम्ब में व्यक्ति का व्यक्ति के नाते परिचय नहीं होता, सम्बन्ध के नाते होता है, जैसे कि एक ही व्यक्ति अलग अलग व्यक्तियों के सम्बन्ध में पुत्र, पिता, पौत्र, दादा, नाना, दौहित्र, भाई, देवर, बहनोई, साला, चाचा, मामा, फूफा, भतीजा, भानजा आदि होता है। इन सभी सम्बन्धों के कुछ अधिकार और कुछ कर्तव्य होते है। इन अधिकारों का स्वीकार और कर्तव्यों के पालन से सामाजिकता विकसित होती है।  
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मानसिक पूर्वाग्रहों के कारण वर्ण और जाति का मामला बहुत उलझ गया है। अब हमारे पास दो उपाय हैं । एक तो जनसमाज का प्रबोधन कर पूर्वाग्रह दूर करना और दूसरा पूर्ण रूप से नई शब्दावली के साथ विकल्प देना । विद्वजनों ने और समाजहितचिन्तकों ने दो में से एक की निश्चिति कर व्यवस्था बनाने की अनिवार्य आवश्यकता है। कदाचित पूर्ण रूप से नई वैकल्पिक व्यवस्था देना कम कठिन हो सकता है । सम्भव है कि सौ वर्ष बाद धार्मिक समाज पुनः पुरानी शब्दावली और संकल्पनाओं पर लौट आये । जो भी हम तय करें व्यवस्था शीघ्रातिशीघ्र बनानी चाहिये । यह व्यवस्था मुख्य रूप से अर्थार्जन हेतु व्यवसाय निश्चिति की होनी चाहिये । इस रूप में समाजव्यवस्था अर्थव्यवस्था के साथ जुडी हुई है । आज व्यवसाय के क्षेत्र में भी स्वैराचार ही है। स्वतन्त्रता मूल्यवान है परन्तु स्वतन्त्रता के अपने ही कुछ बन्धन होते हैं। उदाहरण के लिये स्वतन्त्रता के साथ स्वदायित्व भी अनिवार्य रूप से जुड़ा हुआ है। बिना दायित्व के स्वतन्त्रता सम्भव नहीं। स्वैराचार कोई बन्धन नहीं मानता । अर्थक्षेत्र में स्वतन्त्रता होनी चाहिये, स्वैराचार नहीं । समाज के लिये व्यक्ति का व्यवसाय निश्चित करने हेतु स्वतनत्रता और मर्यादा दोनों निश्चित करने की व्यवस्था होनी चाहिये । जैसे कि व्यक्ति अपने व्यवसाय का चयन करने के लिये तो स्वतन्त्र है परन्तु मनमर्जी से कभी भी बदलने के लिये नहीं । दूसरों का व्यवसाय छिन जाय या राष्ट्रीय सम्पत्ति की हानि हो इस प्रकार का आर्थिक व्यवहार व्यक्ति नहीं कर सकता । उदाहरण के लिये एक बहुत बडा कारखाना आरम्भ किया और सैंकड़ों लोगोंं के व्यवसाय छिन गये और उन्हें गाँव छोडकर नगर में जाकर झोपडी में रहना पडा और नौकरी करनी पड़ी यह आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अपराध है। स्वतन्त्रता के नामपर इसकी अनुमति नहीं मिल सकती । कभी भी व्यवसाय बदलने से भी अर्थक्षेत्र में हलचल हो ही जाती है।
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१८. कुटुम्ब में शिशु का जन्म होता है और नई पीढी का प्रारम्भ होता है। इस शिशु को चरित्रवान, कर्तृत्ववान और ज्ञानवान बनाकर कुटुम्ब समाज को एक सुयोग्य नागरिक प्रदान करता है । कुटुम्ब की यह श्रेष्ठ समाजसेवा है। समाज के लिये अत्यन्त मूल्यवान यह कार्य कुटुम्ब के अलावा और कहीं नहीं हो सकता।
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अध्ययन और व्यवसाय का भी परस्पर दायित्वपूर्ण सम्बन्ध होना चाहिये जो आज नहीं है। उदाहरण के लिये व्यक्ति इन्जिनीयरींग का अध्ययन करता है परन्तु व्यवसाय नहीं करता, डॉक्टर बनता है परन्तु व्यवसाय छापखाने का करता है। बाबूगीरी करता है परन्तु उसकी पढाई नहीं करता ऐसा होने से विद्यार्थियों की पढाई के लिये परिवार का और समाज का जो पैसा खर्च होता है और विद्यार्थी की आयु के जो वर्ष व्यतीत होते हैं वे व्यर्थ जाते हैं। यह भी सही नहीं है। इसलिये सामाजिक स्तर पर अर्थनियोजन होना चाहिये । इसकी व्यवस्था बनानी होगी । उसके अनुसार शिक्षा की व्यवस्था करनी होगी।
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१९. कुटुम्ब में ब्रह्मचर्य, गृहस्थ और वानप्रस्थ ये तीनों आश्रमों के सदस्य साथ साथ रहते हैं। तीन, और कहीं कहीं चार पीढियाँ साथ साथ रहती हैं । जीवन के सर्व प्रकार के अनुभव कुटुम्ब में होते हैं। सर्व प्रकार की आयु के सदस्यों के साथ व्यवहार करने की शिक्षा कुटुम्ब में मिलती है।
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वर्ण और जाति के साथ आचारधर्म भी जुड़ा है। व्यवसाय के अनुरूप आचार भी निश्चित होते हैं । उदाहरण के लिये भगवद् गीता कहती है कि किसी भी आश्रम में, किसी भी वर्ण में यज्ञ दान और तप सबके लिये अनिवार्य है । परन्तु व्यवसायों के अनुसार इनका स्वरूप भिन्न होगा । शिक्षक का ज्ञानयज्ञ होगा तो किसान का श्रमयज्ञ । शिक्षक का तप, वैद्य का तप, कुम्हार का तप और सांसद का तप एकदूसरे से भिन्न है। खानपान, वेशभूषा, दिनचर्या सब व्यवसाय के अनुरूप भिन्न होंगे। उदाहरण के लिये आयुर्वेद के अनुसार कस्तूरी और प्याज के औषधि गुण एकसमान हैं परन्तु प्याज सस्ती है। कस्तूरी महँगी। इसलिये निर्धनों को प्याज खानी चाहिये, धनवानों को कस्तूरी । धनिक भी प्याज खाने लगेंगे तो निर्धनों के लिये वह महँगी हो जायेगी । इसलिये धनिकों के लिये प्याज निषिद्ध बनाना चाहिये प्याज उसके तमोगुण के कारण वही खा सकता है जिसके शरीर से श्रम के कारण पसीना बहुत निकलता है । इसलिये श्रमिकों को प्याज खाने की अनुमति है, परन्तु एक स्थान पर बैठकर व्यापार करने वालों, अध्ययन करने वालों या बाबूगीरी करने वालों के लिये प्याज निषिद्ध है । बाबू और व्यापारी का, व्यापारी और भेडबकरी चलाने वालों का, भेडबकरी चरानेवाले से खेत में काम करने वाले का और खेत में काम करने वाले से वैद्य का वेश अलग होगा, दिनचर्या भी अलग होगी। उनके आवासों की रचना भी अलग होगी। अध्यापक के घर में पुस्तकें और किसान के घर में खेती के औजार रखने की सुविधा चाहिये । उनके घरों की साजसज्जा भी अलग होगी। उनके इष्टदेवता भी अलग होंगे। अध्यापक की इष्टदेवता सरस्वती होगी,
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२०. कुटुम्ब जीवन भारतीय जीवनव्यवस्था की अमूल्य निधि है। उसकी प्रतिष्ठा करना भारत के लिये परम आवश्यक है। उसकी प्रतिष्टा करने से भारत का तो अभ्युदय होगा ही, अनेक प्रकार के मानसिक और सांस्कृतिक संकटों से ग्रस्त विश्व के लिये भी वह पथप्रदर्शक बनेगा।
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व्यापारी की लक्ष्मी और सुथार की विश्वकर्मा । अध्यापक वसन्तपंचमी को उत्सव मनायेगा, गोपाल गोपाष्टमी को । इस प्रकार व्यवसाय के साथ आचारों का भी स्वाभाविक और अनिवार्य सम्बन्ध जुडता है और 'समानशीले व्यसनेषु सख्य' के नाते समुदाय भी बनते हैं । इनको पूर्व में जाति कहा जाता था, आज हमें जो उचित लगता है वह कहें । प्रश्न नामकरण का नहीं है, व्यवस्था बनाने का है।
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===== आश्रम व्यवस्था =====
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मनुष्य के व्यक्तित्वविकास की व्यवस्था को ही [[Ashram System (आश्रम व्यवस्था)|आश्रमव्यवस्था]] कहा गया है। ये चार आश्रम हैं ब्रह्मचर्याश्रम, गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थाश्रम और संन्यस्ताश्रम । मनुष्य की आयु की अवधि को मोटे तौर पर चार विभागों में बाँटकर उन उन विभागों की जीवनचर्या का विचार आश्रमव्यवस्था में किया गया है। प्रथम ब्रह्मचर्याश्रम सर्व प्रकार की क्षमताओं को कसने का और उन्हें अर्जित करने का है। अर्थात् शारीरिक, प्राणिक, मानसिक, बौद्धिक और चैतसिक क्षमताओं के विकास हेतु आहारविहार, नियम, संयम, अनुशासन, व्यायाम, अध्ययन, सेवा, शुश्रुषा, परिचर्या, विभिन्न प्रकार के कौशल, व्यवहार आदि सब सीखने का यह काल है । आगे के जीवन की पूर्ण रूप से पूर्वतैयारी कर सिद्धता प्राप्त करने का यह काल है । इसका बड़ा महत्त्व है।
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दूसरा है गृहस्थाश्रम । अर्थार्जन, नई पीढी को जन्म देना और उनकी शिक्षा और संस्कार की व्यवस्था करना तथा समाजधर्म का पालन इस आश्रम में मुख्य बातें हैं। वैभव और समृद्धि का उपभोग और पूर्वावस्था में प्राप्त ज्ञान का व्यवहार में विनियोग महत्त्वपूर्ण बातें हैं। वानप्रस्थाश्रम में सभी सांसारिक अधिकारों और कर्तव्यों से मुक्त होकर परिवार के परामर्शक और समाज सेवा में सक्रिय होना है और संन्यस्ताश्रम में परिवार, कुल, गोत्र, जाति, वर्ण, व्यवसाय, दायित्व, अधिकार सब का त्याग कर समाजहित चिन्तन और स्वयं की मुक्ति हेतु साधना करना है। प्रथम तीन आश्रम सबके लिये हैं जबकि संन्यास स्वैच्छिक है। जीवनविकास हेतु की गई यह व्यवस्था अद्भुत है। यह किसी भी दूसरी व्यवस्था के आडे नहीं आती तो भी बिना किसी कारण से हमने इसका त्याग किया है। इसे अपने पुराने ही रूप में पुनः स्वीकार करने की आवश्यकता है।
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शेष सारी व्यवस्थाओं को सम्भव बनाने वाली परिवार व्यवस्था वास्तव में अत्यन्त मूल्यवान है। इसका विस्तार से वर्णन तो पूर्व के ग्रन्थों में हुआ है। यहां उसके मुख्य सूत्रों का पुनःस्मरण करेंगे।
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# परिवार समाजव्यवस्था की लघुतम इकाई है। व्यक्ति की पारिवारिक पहचान ही समाज-स्वीकृत बनानी चाहिये।
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# परिवार का केन्द्रबिन्दु पतिपत्नी हैं। स्त्री और पुरुष को पतिपत्नी बनाने वाला विवाह संस्कार सामाजिक दृष्टि से प्रतिष्ठित होना चाहिये, व्यवस्थित भी होना चाहिये ।
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# समाज की सर्व प्रकार की व्यवस्थाओं का आलम्बन परिवार है । व्यवसाय, सम्प्रदाय, आचार, यज्ञ, दान, तप आदि सब परिवार के आश्रय से होते हैं।
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# परिवार के माध्यम से व्यक्ति पूर्वजों से अर्थात् अतीत से जुडता है, अतीत और भविष्यका संगम स्थान बनता है और समष्टि और सृष्टि के साथ ही जुडता है। पीढियाँ एक के बाद एक जुड़ने से परम्परा बनती है।
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# ज्ञान की, संस्कार की, रीतिरिवाज की, कौशलों की परम्परा खण्डित नहीं होने देनी चाहिये । तभी सामाजिक जीवन की निरन्तरता बनी रहती है। निरन्तरता बनी रहने से उत्कृष्टता और श्रेष्ठता प्राप्त होती है । निरन्तरता में प्रवाहिता रहती है इसलिये समयानुसार परिष्कृति भी निहित है।
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# नई पीढी का सर्व प्रकार से रक्षण, पोषण, शिक्षण, संवर्धन करना परिवार का मुख्य काम है। इसी प्रकार से समष्टि और सृष्टि के साथ उचित समायोजन करना भी दूसरा मुख्य आयाम है।
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इन कारणों से विवाह के सम्बन्ध में भारत में विस्तारपूर्वक और सूक्ष्मतापूर्वक निरूपण किया गया है। सन्तानों को जन्म देने का भी अत्यन्त विस्तृत शास्त्र बनाया गया है। पंचमहायज्ञ और तीन प्रकार के ऋणों की संकल्पना विकसित की गई है।
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भारत में समाजशास्त्र को स्मृति और स्मृति को मानवधर्मशास्त्र कहा गया है। वहाँ धर्म का अर्थ कर्तव्य है। अर्थात् समाजशास्त्र हर व्यक्ति का । सामाजिक सन्दर्भ में कर्तव्य निर्धारित करता है। वह समाज के बारे में नहीं बताता है, समाज की धारणा के मूल तत्त्व क्या हैं यह बताकर व्यक्ति का कर्तव्य क्या है और वह उसे कैसे निभाये यह बताता है।
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इस प्रकार स्थिर समाज की रचना के आधार क्या हैं यह बताने के बाद शासन की समाज में और समाज के प्रति क्या भूमिका है इसका भी विचार करना चाहिये । राज्य समाज की स्वायत्तता बनी रहे इस का ध्यान रखने के लिये हैं। सब अपने कर्तव्यों का पालन कर सकते हैं कि नहीं और करते हैं कि नहीं यह देखना शासक का काम है । इस दृष्टि से न्याय और दण्ड शासक के अधीन है । परराष्ट्र से रक्षा यह भी शासक का कर्तव्य है । परराष्ट्र के साथ यदि युद्ध का अवसर आता है तो शासक के नेतृत्व में समस्त प्रजा उसमें सहभागी होती है । परम्परा से भारत में राजा ही शासक रहा है। स्वाधीनता के बाद हमने डेमोक्रसी अपनाई है । परन्तु राजा और प्रजा का सम्बन्ध शासक और शासित का नहीं अपितु पालक और पाल्य, पिता और पुत्र का रहा है । प्रजा का हित देखना राजा का कर्तव्य है।
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इस प्रकार शिक्षा, अर्थोत्पादन, धर्मपालन, समाजव्यवस्था आदि के आन्तर्सम्बन्धों का सुव्यवस्थित गुम्फन कर राष्ट्र को चिरंजीव बनाने की व्यवस्था भारत में सहस्राब्दियों में विकसित हुई। इस व्यवस्था को छिन्नविच्छिन्न करने का पराक्रम' ब्रिटीशों ने किया । भीषण आक्रमण के बाद भी भारत में बहुत कुछ बचा है। उसके प्रताप से ही भारत अभी चल रहा है । ब्रिटीशों को तो तब भी पता नहीं था और आज भी नहीं है कि उन्होंने किन बातों का नाश किया और आज भी क्या बचा है । धार्मिक जीवन के तत्त्वों को समझना उनकी क्षमता के परे था। उनकी शिक्षा के प्रभाव से आज भी एक वर्ग ऐसा है जिसका बोध ब्रिटीशों जैसा है, एक छोटा वर्ग ऐसा है जो जानता है और बहुत बड़ा वर्ग ऐसा है जो जानता तो नहीं है परन्तु अन्तःकरण में धार्मिकता का अनुभव करता है। इन दो वर्गों के सामर्थ्य पर हमें धार्मिक भारत की पुनर्रचना करनी है।
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==== ६. व्यक्तिगत जीवन को व्यवस्थित करना ====
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मनुष्यजीवन अत्यन्त मूल्यवान है। भगवानने हमें अनेक अद्भुत शक्तियाँ दी हैं और असीम सम्भावनायें दी हैं। इन सम्भावनाओं को प्रकट करने के लिये और शक्तियों का विनियोग करने के लिये हमें बहुत कुछ करना होता है। जिस प्रकार से सुन्दर वस्त्र को धोना पडता है, प्रेस करना होता है, सुरक्षित रखना होता है, उत्तम अनाज और सब्जी को सावधानीपूर्वक उत्तम पौष्टिक, स्वादिष्ट, सात्त्विक भोजन में रूपान्तरित करना होता है उसी प्रकार हमारी क्षमताओं को भी उचित उपायों से निखारना और कसना होता है ।
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उदाहरण के लिये हमें शरीर रूपी श्रेष्ठ प्रकार का यन्त्र प्राप्त हुआ है। उसे साफ नहीं रखा, उसका रक्षण और पोषण नहीं किया और उसे कार्यकुशल नहीं बनाया तो उसकी क्षमतायें निरर्थक हो जायेंगी। भगवानने हमें शक्तिशाली मन और तेजस्वी बुद्धि दी है परन्तु उस मन को एकाग्र और शान्त नहीं बनाया और बुद्धि को कसा नहीं तो उनकी सार्थकता कैसे होगी ? यह विश्व अत्यन्त सुन्दर है परन्तु हमारे भीतर रसिकता ही न हो तो उस सौन्दर्य का आस्वाद कैसे ले पायेंगे ? अनेक कवियों और साहित्यकारों ने काव्यों और उपन्यासों की रचना की है परन्तु हमें यदि उन्हें पढना ही नहीं आया तो हमारे हृदय और बुद्धि का क्या करेंगे ? यदि सच्चरित्र लोगोंं से मिलकर, किसी के श्रेष्ठ कार्यों को देखकर, किसी की श्रेष्ठ और उत्तम उपलब्धि को देखकर हृदय गद्गदित नहीं हुआ तो हम कैसे मनुष्य कहे जायेंगे ?
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अर्थात भगवान ने तो हमारी चारों ओर अद्भुत सुन्दर सृष्टि बनाई है, हमारे जीवन को उन्नत सम्भावनाओं से भर दिया है परन्तु हमें उसके मूल्य का ही पता नहीं है क्योंकि हमने अपने आपको उसके योग्य नहीं बनाया है। इसलिये श्रेष्ठ लोग हमें अपने जीवन को नियमन में ढालने का परामर्श देते हैं।
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पश्चिम हमें स्वैर जीवन जीने के लिये उकसाता है । जीवन कामनाओं की पूर्ति हेतु ही है इसलिये खाओ, पीओ, मौज करो का नारा देता है, परन्तु भारत की मनीषा - हमें नियम संयम से रहकर श्रेष्ठ पद्धति से जीवन का आनन्द लेने का उपदेश देती है। इस प्रकार से श्रेष्ठ आनन्द के उपभोग के लिये शरीर, मन, बुद्धि को नियमन में रखना पड़ता है।
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इसके लिये नियमित दिनचर्या, उचित आहार और व्यायाम करना ही होता है, स्वाध्याय और सत्संग करना होता है, श्रम करना होता है, विभिन्न प्रकार के काम करने होते हैं, सेवा करनी होती है। मन को बलवान बनाने हेतु __ प्राणायाम और ध्यान करना होता है। बुद्धि को तेजस्वी बनाने हेतु वाचन, चिन्तन, मनन करना होता है। ये तो प्रारम्भिक बाते हैं और छोटी आयु में निग्रहपूर्वक करनी होती है। छोटी आयु में मातापिता और शिक्षक यह सब _करवाते हैं। अतः उनकी सेवा और आज्ञापालन भी करना होता है। बडी आयु में अनेक काम जिम्मेदारीपूर्वक करने होते हैं। शास्त्रग्रन्थों का वाचन और सन्तों का उपदेश श्रवण करना होता है। तत्त्व के प्रति निष्ठा और सिद्धान्तपूर्वक जीना होता है। तपश्चर्या करनी होती है। पश्चिम स्वैर आचरण को जीवन का लक्ष्य मानता है, मन में आये वह करने को स्वतन्त्रता मानता है परन्तु भारत में संयम को ही महत्त्वपूर्ण माना है।
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इसलिये व्यक्ति को अपने आपके लिये मर्यादायें निश्चित करना चाहिये, अपने आपको नियमों में बाँधना चाहिये । मन पर नियन्त्रण हेतु अनेक प्रकार से प्रयास करने चाहिये । भारत में इसी हेतु से अनेक प्रकार के व्रत, उपवास, नियम, तीर्थयात्रायें, अनुष्ठान, जप, तप, त्याग, यज्ञ, दान आदि का परामर्श दिया जाता है। उदाहरण के लिये अनेक लोग बिना स्नान किये कुछ खातेपीते नहीं, अपनी इच्छाओं को संयमित कर दान करते हैं, अपनी सुविधाओं को एक ओर रखकर किसी रुग्ण की परिचर्या करते हैं, संन्यासियों की सेवा करते हैं, जप करते हैं । यह सब अपने आपकों नियमन में रखने हेतु होता है । स्वैराचार से शक्तियों का क्षरण होता है, संयम से शक्ति का संचय होता है। निकृष्ट प्रकार के मनोरंजन से रसवृत्ति का ह्रास होता है, उत्तम प्रकार के मनोरंजन से सौन्दर्यबोध और आनन्द की अनुभूति का स्तर भी उच्च होता है । शुद्ध और शिष्ट भाषा के अभ्यास से आभिजात्य प्राप्त होता है। मर्यादापूर्ण और सुरुचिपूर्ण वेश से भी मनोभावों पर विधायक परिणाम होता है।
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इस दृष्टि से भारत की जीवनव्यवस्था में हर व्यक्ति के लिये चार आश्रमों की व्यवस्था दी गई है। ये हैं ब्रह्मचर्याश्रम, गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थाश्रम और संन्यस्ताश्रम । इनमें चौथा संन्यस्ताश्रम सबके लिये अनिवार्य नहीं है, प्रथम तीन सबके लिये हैं।
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ब्रह्मचर्य में सभी उपभोगों का निषेध, गृहस्थ में संयमित उपभोग, वानप्रस्थ में उपभोगों का त्याग और संन्यस्त में अपनी समस्त पहचान का त्याग श्रेष्ठ जीवन का लक्षण है। अर्थात् अच्छे संस्कारवान मनुष्य का जीवन त्यागप्रधान ही होता है। त्यागपूर्वक उपभोग करो ऐसा ईशावास्य उपनिषद का कथन है । त्यागपूर्वक उपभोग की गुणवत्ता ही कुछ और होती है । त्यागपूर्वक उपभोग आनन्द का स्रोत होता है।
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पश्चिम के प्रभाव के कारण भारत को आज इस बात का विस्मरण हो गया है। हम भी धीरे धीरे सर्व प्रकार का नियमन छोड रहे हैं । खानपान, वेशभूषा, मनोरंजन आदि में स्वैर हो रहे हैं । यह विकास नहीं है, हास है।
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अतः भारत के लोगोंं के व्यक्तिगत जीवन में नियम, संयम, सदाचार, दया, क्षमा, उदारता, स्नेह, मैत्रीभाव आदि आयें इसलिये प्रयास होने की आवश्यकता है। धर्मशिक्षा का यह प्रमुख अंग है। घर में, विद्यालय में और समाज में मातापिता, शिक्षक और सन्तमहात्मा लोगोंं को इसकी, शिक्षा दें ऐसा आग्रह होना चाहिये । वास्तव में ये तीनों होते ही हैं ऐसी शिक्षा देने के लिये । इन गुणों से युक्त जीवन ही मनुष्य का जीवन है अन्यथा वह पशुजीवन है।
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व्यक्तिजीवन में नियमन कम कठिन हो इसलिये संचार माध्यम और सोशयलमीडिया, टीवी और विज्ञापन पर भारी मात्रा में नियन्त्रण होना आवश्यक है। यह काम शासन कर सकता है । मन को बहकाने वाली सामग्री और स्थितियों से लोगोंं की रक्षा के उपाय करना भी तो आवश्यक है।
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जीवन के नियमन का सन्देश भारत ही विश्व को दे सकता है।
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==== ७. राष्ट्रीय विवेक शक्ति का विकास ====
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जिसमें आत्मविश्वास कम होता है वह दूसरों के अभिप्रायों से जल्दी और अधिक प्रभावित होते हैं। सुभाषित देखिये... <blockquote>पुराणमित्ये व न साधु सर्व</blockquote><blockquote>न चापि काव्य नवमित्यवद्यम् । </blockquote><blockquote>सन्तः परीक्ष्यान्यतरद् भजन्ते</blockquote><blockquote>मूढः परप्रत्ययनेय बुद्धिः ।। </blockquote>अर्थात्
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पुरातन है वह सब अच्छा ही है ऐसा नहीं है, काव्य नवीन है इसलिये उसमें कोई कमी नहीं है ऐसा नहीं है। सन्त लोग पुराना हो या नया अच्छी तरह परीक्षा करके स्वीकार या अस्वीकार करते हैं जबकि मूढ लोग दूसरों की प्रतीति से काम करने की बुद्धि वाले होते हैं।
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इस सुभाषित के पूर्वार्ध की चर्चा करने का अभी सन्दर्भ नहीं है। परप्रत्यय और स्वप्रत्यय की बात है। स्वप्रत्यय का अर्थ है स्वयं की बुद्धि में हुई प्रतीति, साधकबाधक विचार कर स्वयं बनाया हुआ मत, स्वयं का निष्कर्ष । परप्रत्यय का अर्थ है दूसरे की बुद्धि की प्रतीति, दूसरे का मत, दूसरे का निष्कर्ष । दूसरे की प्रतीति से व्यवहार करने वाले मूढ होते हैं अपनी प्रतीति से चलने वाले बुद्धिमान होते हैं।
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भारत का स्वप्रत्यय आज खो गया है। वह पश्चिम की बदि से चलता है। भारत को अपनी गरिमा का भी स्मरण नहीं रहा, अपनी जीवनदृष्टि का भी गौरव नहीं रहा ।
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भारत को स्मरण नहीं रहा
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....कि उस की आयु विश्व में अधिकतम है अर्थात् उसे जीवन का सबसे अधिक अनुभव है।
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... कि उसके पूर्वजों ने एक ऐसी श्रेष्ठ संस्कृति और सभ्यता का विकास किया है जो चिरंजीविता के गुण अपने में समाये हुए हैं।
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... कि उसने संस्कृति और समृद्धि के सर्वोच्च शिखरों को सर किया हुआ है।
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... कि जो विश्व के समस्त राष्ट्रों को श्रेष्ठ जीवन शैली सिखाने में समर्थ है।
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.... कि उसे विश्व के सभी राष्ट्रों के साथ सामंजस्य पूर्ण तरीके से रहना आता है।
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अपनी ही उपलब्धियों का विस्मरण और पश्चिम को लेकर हीनता बोध के कारण भारत ने अपनी विवेकशक्ति खो दी है । खोई हुई विवेकशक्ति को पुनः प्राप्त करने पर भारत को समझ में आयेगा कि भारत अत्यन्त विकसित देश है, समर्थ देश है। अनेक बातें इस तथ्य की निदर्शक हैं। जैसे कि
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जितने भी प्राकृतिक संकट हैं, वे पश्चिमी देशों की तुलना में भारत में कम हैं (और कदाचित अमेरिका में सबसे अधिक) क्योंकि आज भी भारत में पर्यावरण का प्रदूषण अन्य देशों की तुलना में कम है।
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आज भी भारत में मनोविकारजन्य रोगों का अनुपात कम है। एक धार्मिक आपत्ति, कष्ट, तनाव अधिक सह सकता है । परिस्थितियों से हारकर हताश, निराश होकर नशाखोरी करने वाले या आत्महत्या करनेवाले या मारपीट और तोडफोड करने वालों की संख्या भारत में कम है।
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* आज भी भारत में बैंकों का दिवाला कम निकलता है क्योंकि लोग बैंकों से लिया हुआ ऋण प्रामाणिकता से वापस करनेवाली वृत्ति के हैं।
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* आज भी अनाथालयों और वृद्धाश्रमों की संख्या कम हैं क्योंकि लोग परिवार में साथ साथ रहते हैं। आज भी विवाहविच्छेद कम हैं। आज भी बच्चे मातापिता के विरुद्ध पुलीस शिकायत क्वचित ही करते हैं।
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ऐसे तो अनेक उदाहरण दिये जा सकते हैं जो भारत को गौरव प्रदान करनेवाले हैं।
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परन्तु हम विवेकपूर्वक विचार नहीं करते इसलिये अमेरिका हमें विकासशील देश कहता है और हम मान लेते हैं । जीडीपी विकास का मापदण्ड नहीं हो सकता, आर्थिक समृद्धि आँकडों में नहीं नापी जा सकती यह हमारे शास्त्र कहते हैं परन्तु हम अपने शास्त्रों को न मानकर अमेरिका का कहना मानते हैं।
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हमारी शिक्षा ने विवेकशक्ति का ह्रास होने में अहम भूमिका निभाई है। विदेशी शास्त्र पढते पढते पश्चिमी दृष्टि हमारी बुद्धि में बैठ गई है । हम सभी बातों को उनकी दृष्टि से देखना सीख गये हैं। पढाई की कुछ पद्धति भी ऐसी है कि पढनेवाले की विवेकशक्ति का विकास ही नहीं होता। या तो हम पुस्तकों में लिखा सही मानते हैं या शिक्षकों ने कहा । जिस आयु में विचार करना, कार्य कारणभाव समझना या अपना चिन्तन करना आवश्यक होता है उस समय भी हम या तो रटकर या याद कर परीक्षा में लिखते हैं और उत्तीर्ण भी हो जाते हैं। परिणामस्वरूप सारी पूजा हाँ में हाँ मिलने वाली या बिना सोचे समझे विरोध करने वाली बन जाती है। ऐसे में एक महान राष्ट्र परप्रत्ययनेय बुद्धि से चलने लगता है । इससे मुक्त होने के लिये हमें शिक्षा पद्धति में आमूल परिवर्तन करने की आवश्यकता है। बिना उचित शिक्षा के हम विवेक से हमारी व्यवस्थायें नहीं बना सकते ।
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शिक्षा के विषय में ज्ञानात्मक और मनोवैज्ञानिक दृष्टि से पुनर्विचार करने की आवश्यकता है। इसके भी बहुआयामी प्रयास करने होंगे।
    
==References==
 
==References==
<references />भारतीय शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण भारतीय शिक्षा (भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला ५), प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे
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<references />धार्मिक शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण धार्मिक शिक्षा (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला ५), प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे
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[[Category:Education Series]]
 
[[Category:Education Series]]
[[Category:Bhartiya Shiksha Granthmala(भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला)]]
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[[Category:Dharmik Shiksha Granthmala(धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला)]]
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[[Category:धार्मिक शिक्षा ग्रंथमाला 5: वैश्विक संकटों का निवारण धार्मिक शिक्षा]]
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[[Category:धार्मिक शिक्षा ग्रंथमाला 5: पर्व 4: भारत की भूमिका]]

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