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=== क्यों हुआ बाजारीकरण ===
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. सन १८६० में Indian Charitable Societies Act आया | इस देश की शताब्दियों की दान-धर्म की परम्परा के लिए पंजीकरण (Registration) अनिवार्य हुआ । धर्म के कार्य भी बाजार के तंत्र में आ गए । शिक्षा भी, जो जीवन का अंग थी, इस तंत्र के कारण समिति, संविधान, चुनाव आदि से बंध गई | 
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२.. शिक्षा को सीधे रोजगार से जोड़ दिया गया । जीवन के विकास के लिए शिक्षा, यह संकल्पना समाप्त हो गई । प्राचीन विचार - “कऋषिकऋण से मुवित के लिए शिक्षा - जो पिछली पीढ़ी से पाया, वह अगली पीढ़ी को हस्तान्तरित करने का हमारा दायित्व है' - समाप्त हो गया। इन सभी संकल्पनाओं का ऐसे ही विसर्जन हो गया । आज के प्रचलित मापदण्डों के अनुसार “अनपढ़ भारत ने शताब्दियों से नदी, वन, पर्वतों का संरक्षण किया, आधुनिक शिक्षित भारत ने सबको प्रदूषित कर दिया क्योंकि ऋणमुक्त होने विचार कालबाह्य, पिछड़े होने की निशानी मान लिया गया | 
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. नवीन पद्धति में शिक्षा डिग्री अवलम्बित हो गई । चूँकि डिग्री से रोजगार मिलता है, शिक्षा का उद्देश्य ज्ञानप्राप्ति के स्थान पर डिग्री प्राप्त करना और उसके माध्यम से रोजगार, जिसका एकमात्र अर्थ “नौकरी' रह गया, प्राप्त करना हो गया । “सा विद्या या विमुक्तये' के स्थान पर “सा विद्या या नियुक्तये' हो गया । डिग्री देने वाली संस्था सरकारी मान्यता से युक्त हो, यह अनिवार्यता हुई । मान्यता देने वाली संस्थाओं - प्राधिकरणों ने जो मानक तय किए उनमें शिक्षा संस्थानों के संचालन के लिए शैक्षिक गुणवता, वातावरण, प्रयोग-नवाचार.. अथवा शिक्षकीय तज्ञता के स्थान पर भूमि-भवन, भौतिक संसाधनों की उपलब्धता को अधिक स्थान दिया गया । प्राचीन भारत के गुरुकुल-आश्रमों और वर्तमान काल के शान्तिनिकेतन आदि को इन मानकों पर नहीं परखा जा सकता । शिक्षा संस्थान संचालन करने वाली संस्थाओं को शैक्षिक गुणवत्ता विकास के स्थान पर भौतिक संसाधन जुटाने की होड़ में सम्मिलित होना पड़ा । 
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वित्तीय संस्थान सहायता तथा ऋण देने को तैयार हैं । आखिर उन्हें भारत में तकनीकी शिक्षा के विकास में क्या और क्यों रुचि हो सकती है, इसके अतिरिक्त कि उनके तकनीक आधारित बड़े उद्योगों में मानव श्रम की आपूर्ति के लिए भारतीय श्रम शक्ति उपलब्ध हो जायेगी ?
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4. दुर्योग से १९८६ की नई शिक्षा नीति ने भी शिक्षा के बजाय डिग्री को ही पुष्ट किया । उसके बाद से यह क्रम जारी है । भारतीय विश्वविद्यालयों व तकनीकी संस्थाओं में विदेशी councils से Grade लेने की होड मची हैं । भारत में तकनीकी शिक्षा के विकास के लिए अमेरिकी सरकार तथा अनेक अन्तर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थान सहायता तथा ऋण देने को तैयार हैं । आखिर उन्हें भारत में तकनीकी शिक्षा के विकास में क्या और क्यों रुचि हो सकती है, इसके अतिरिक्त कि उनके तकनीक आधारित बड़े उद्योगों में मानव श्रम की आपूर्ति के लिए भारतीय श्रम शक्ति उपलब्ध हो जायेगी ?
    
५. संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (UNDP) का सर्वेक्षण बताता है कि भारत में ४५ लाख प्रशिक्षित शिक्षकों की आवश्यकता है - वर्तमान में उपलब्धता २२ लाख है, २३ लाख प्रशिक्षित शिक्षक और चाहिए । वर्मा आयोग सुझाव देता है कि इस कार्य के लिए |NGOs का सहयोग लिया जाए । CBSE इस नये तंत्र के क्रियान्वयन की प्रक्रिया प्रारंभ कर चुका है - Expression of interest, technical bid, financial bid आमंत्रित की गई है | यह तो शुद्ध बाजारीकरण की प्रक्रिया है । मजे की बात यह है कि CBSE की शर्त है कि शिक्षक प्रशिक्षण के तंत्र में शामिल होने वाले NGOs को प्राप्त प्रशिक्षण शुल्क में से १० प्रतिशत राशि CBSE को देनी होगी । यह प्रकारान्तर से कमीशनखोरी का सरकारीकरण है, वह भी देश की उस शीर्ष शैक्षिक संस्था द्वारा जो निःशुल्क शिक्षा की पक्षधर होने का दावा करती है । यह सरेआम बाजारीकरण का स्वरूप हैं ।
 
५. संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (UNDP) का सर्वेक्षण बताता है कि भारत में ४५ लाख प्रशिक्षित शिक्षकों की आवश्यकता है - वर्तमान में उपलब्धता २२ लाख है, २३ लाख प्रशिक्षित शिक्षक और चाहिए । वर्मा आयोग सुझाव देता है कि इस कार्य के लिए |NGOs का सहयोग लिया जाए । CBSE इस नये तंत्र के क्रियान्वयन की प्रक्रिया प्रारंभ कर चुका है - Expression of interest, technical bid, financial bid आमंत्रित की गई है | यह तो शुद्ध बाजारीकरण की प्रक्रिया है । मजे की बात यह है कि CBSE की शर्त है कि शिक्षक प्रशिक्षण के तंत्र में शामिल होने वाले NGOs को प्राप्त प्रशिक्षण शुल्क में से १० प्रतिशत राशि CBSE को देनी होगी । यह प्रकारान्तर से कमीशनखोरी का सरकारीकरण है, वह भी देश की उस शीर्ष शैक्षिक संस्था द्वारा जो निःशुल्क शिक्षा की पक्षधर होने का दावा करती है । यह सरेआम बाजारीकरण का स्वरूप हैं ।
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