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==== अभिमत ====
 
==== अभिमत ====
पुरी बातचीत से शुल्क अनिवार्य है यही समझ मन में बैठ गयी है ऐसा लगता है । विद्या का दान नही होता तो हमने उसे बेचने की चीज बना दी है । दक्षिणा स्वैच्छिक होती है । शुल्क को दक्षिणा मानना यह अनुचित बात को अच्छा लेबल लगाने जैसा होता है । विद्यालयों में सबका शुल्क समान एवं अनिवार्य ही होता है । शिक्षा की गुणवत्ता और शुल्क का कोई सम्बन्ध कही दिखाई ही नहीं देता । ज्यादा शुल्क वाले विद्यालय में अच्छी पढाई होती है यह आभासी विचार ज्यादातर लोगों का है । अभिभावक भी आजकल अपने इकलौते बेटे को ए.सी., मिनरल वोटर, बैठने की स्वतंत्र सुंदर व्यवस्था ऐसी सुविधाएँ विद्यालय में भी मिले ऐसा सोचते है, इसलिये ज्यादा शुल्क देने की उनकी तैयारी है। मध्यमवर्गीय लोग बालक को पढाते है तो इतना शुल्क देना ही पडेगा ऐसा सोचते हैं । जितना ज्यादा शुल्क इतनी ज्यादा सुविधायें यह समझ आज सर्वत्र दृढ हुई है। सरकार की ओर से अनुदान प्राप्त विद्यालयों में शिक्षकों का वेतन निवृत्ति वेतन तक निश्चित होता है । उस विचार से हमारा अन्नदाता सरकार है अभिभावक नहीं अतः शिक्षा की कोई गुणवत्ता टिकानी चाहिये यह बात वे भूल गये है। निजी विद्यालयों में अभी गुणवत्ता के संबंध से आपस में बहोत होड़ लगी रहती है। परंतु वह शिक्षकोंने अच्छा पढाना अनिवार्य नहीं होता, ज्यादा गुण देने से विद्यालय की गुणवत्ता वे सिद्ध करते है । आज समाज में निःशुल्क शिक्षा निकृष्ट शिक्षा और उंचे शुल्क लेनेवाली उत्कृष्ट शिक्षा ऐसा मापदण्ड निश्चित किया है । वेतन ज्यादा देने से अध्यापन की गुणवत्ता बढेगी यह संभव नहीं होता ।
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पुरी बातचीत से शुल्क अनिवार्य है यही समझ मन में बैठ गयी है ऐसा लगता है । विद्या का दान नही होता तो हमने उसे बेचने की चीज बना दी है । दक्षिणा स्वैच्छिक होती है । शुल्क को दक्षिणा मानना यह अनुचित बात को अच्छा लेबल लगाने जैसा होता है । विद्यालयों में सबका शुल्क समान एवं अनिवार्य ही होता है । शिक्षा की गुणवत्ता और शुल्क का कोई सम्बन्ध कही दिखाई ही नहीं देता । ज्यादा शुल्क वाले विद्यालय में अच्छी पढाई होती है यह आभासी विचार ज्यादातर लोगोंं का है । अभिभावक भी आजकल अपने इकलौते बेटे को ए.सी., मिनरल वोटर, बैठने की स्वतंत्र सुंदर व्यवस्था ऐसी सुविधाएँ विद्यालय में भी मिले ऐसा सोचते है, इसलिये ज्यादा शुल्क देने की उनकी तैयारी है। मध्यमवर्गीय लोग बालक को पढाते है तो इतना शुल्क देना ही पडेगा ऐसा सोचते हैं । जितना ज्यादा शुल्क इतनी ज्यादा सुविधायें यह समझ आज सर्वत्र दृढ हुई है। सरकार की ओर से अनुदान प्राप्त विद्यालयों में शिक्षकों का वेतन निवृत्ति वेतन तक निश्चित होता है । उस विचार से हमारा अन्नदाता सरकार है अभिभावक नहीं अतः शिक्षा की कोई गुणवत्ता टिकानी चाहिये यह बात वे भूल गये है। निजी विद्यालयों में अभी गुणवत्ता के संबंध से आपस में बहोत होड़ लगी रहती है। परंतु वह शिक्षकोंने अच्छा पढाना अनिवार्य नहीं होता, ज्यादा गुण देने से विद्यालय की गुणवत्ता वे सिद्ध करते है । आज समाज में निःशुल्क शिक्षा निकृष्ट शिक्षा और उंचे शुल्क लेनेवाली उत्कृष्ट शिक्षा ऐसा मापदण्ड निश्चित किया है । वेतन ज्यादा देने से अध्यापन की गुणवत्ता बढेगी यह संभव नहीं होता ।
    
शुल्क के विषय में धार्मिक मानस और वर्तमान व्यवस्था एकदूसरे से सर्वथा विपरीत हैं । मूल धार्मिक विचार में शिक्षा निःशुल्क दी जानी चाहिये । इसका कारण यह है कि शिक्षा निःशुल्क दी जानी चाहिये । इसका कारण यह है कि शिक्षा की प्रतिष्ठा अर्थ से अधिक है। अर्थ शिक्षा का मापदण्ड नहीं हो सकता । अर्थ केवल भौतिक पदार्थों का ही मापदण्ड हो सकता है। अधिक पैसा देने से अधिक अच्छा पढ़ाया जाता है और कम पैसे से नहीं यह सम्भव नहीं है । अच्छा पढाया इसलिये अधिक पैसा दिया जाना चाहिये ऐसा भी नहीं होता। इस स्वाभाविक बात को ध्यान में रखकर ही शिक्षा की व्यवस्था अर्थनिरपेक्ष बनाई गई थी । परन्तु आज का मानस कहता है कि जिसके पैसे नहीं दिये जाते उसकी कोई कीमत नहीं होती। जिसे पैसा नहीं दिया जाता उस पर कोई बन्धन या दबाव भी नहीं होता । इसलिये शिक्षा का शुल्क होना चाहिये यह सबका मत बनता है।
 
शुल्क के विषय में धार्मिक मानस और वर्तमान व्यवस्था एकदूसरे से सर्वथा विपरीत हैं । मूल धार्मिक विचार में शिक्षा निःशुल्क दी जानी चाहिये । इसका कारण यह है कि शिक्षा निःशुल्क दी जानी चाहिये । इसका कारण यह है कि शिक्षा की प्रतिष्ठा अर्थ से अधिक है। अर्थ शिक्षा का मापदण्ड नहीं हो सकता । अर्थ केवल भौतिक पदार्थों का ही मापदण्ड हो सकता है। अधिक पैसा देने से अधिक अच्छा पढ़ाया जाता है और कम पैसे से नहीं यह सम्भव नहीं है । अच्छा पढाया इसलिये अधिक पैसा दिया जाना चाहिये ऐसा भी नहीं होता। इस स्वाभाविक बात को ध्यान में रखकर ही शिक्षा की व्यवस्था अर्थनिरपेक्ष बनाई गई थी । परन्तु आज का मानस कहता है कि जिसके पैसे नहीं दिये जाते उसकी कोई कीमत नहीं होती। जिसे पैसा नहीं दिया जाता उस पर कोई बन्धन या दबाव भी नहीं होता । इसलिये शिक्षा का शुल्क होना चाहिये यह सबका मत बनता है।
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यह तो सर्वसामान्य विद्यालयों की बात है । परन्तु विद्यालयों का एक वर्ग ऐसा है जिसमें मानते हैं कि धार्मिक शिक्षा अर्थनिरपेक्ष होती है और वह होनी चाहिये।
 
यह तो सर्वसामान्य विद्यालयों की बात है । परन्तु विद्यालयों का एक वर्ग ऐसा है जिसमें मानते हैं कि धार्मिक शिक्षा अर्थनिरपेक्ष होती है और वह होनी चाहिये।
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ऐसे लोगों को सक्रिय होने की आवश्यकता है । ऐसे लोगों को मुखर होना चाहिये । ऐक चिरपुरातन परन्तु आज अपरिचित और विस्मृत विचार को पुनः प्रतिष्ठित करने हेतु जितने और जिस प्रकार के उपाय करने होते हैं वे सब करने चाहिये । शीघ्र ही ध्यान में आयेगा कि समाज इसे अपनाने के लिये तैयार हो जायेगा।
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ऐसे लोगोंं को सक्रिय होने की आवश्यकता है । ऐसे लोगोंं को मुखर होना चाहिये । ऐक चिरपुरातन परन्तु आज अपरिचित और विस्मृत विचार को पुनः प्रतिष्ठित करने हेतु जितने और जिस प्रकार के उपाय करने होते हैं वे सब करने चाहिये । शीघ्र ही ध्यान में आयेगा कि समाज इसे अपनाने के लिये तैयार हो जायेगा।
    
शुल्क व्यवस्था को निरस्त करने से शिक्षा को बाजारीकरण से मुक्ति मिलेगी। शिक्षा की यह बहुत बडी सेवा होगी । इसका लाभ समाज और संस्कृति को होगा । सही दिशा में यात्रा करने का पुण्य भी प्राप्त होगा।
 
शुल्क व्यवस्था को निरस्त करने से शिक्षा को बाजारीकरण से मुक्ति मिलेगी। शिक्षा की यह बहुत बडी सेवा होगी । इसका लाभ समाज और संस्कृति को होगा । सही दिशा में यात्रा करने का पुण्य भी प्राप्त होगा।
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==== निःशुल्क शिक्षा के प्रयोग ====
 
==== निःशुल्क शिक्षा के प्रयोग ====
ऐसी कई वेद पाठशालायें हैं जहाँ छात्रों से शुल्क नहीं लिया जाता है। वनवासी कल्याण आश्रम, विश्व हिन्दू परिषद, सेवा भारती, विद्या भारती जैसी अनेक संस्थाओं द्वारा गरीब बस्तियों में, वनवासी क्षेत्रों में और नगरों की झुग्गीझोंपड़ियों में संस्कारकेन्द्र और एकल विद्यालय चलते हैं, जहाँ शुल्क नहीं लिया जाता है। सरकार स्वयं प्राथमिक विद्यालय निःशुल्क ही चलाती है। ये प्राथमिक विद्यालय लाखों की संख्या में हैं और देश के करोड़ों बच्चे इन विद्यालयों में पढ़ते ही हैं। कर्नाटक में हिन्दू सेवा प्रतिष्ठान द्वारा संचालित गुरुकुलों में आवास, भोजन और शिक्षा का शुल्क नहीं लिया जाता है । ऐसे और भी कई उदाहरण होंगे। अतः निःशुल्क शिक्षा के प्रयोग तो चलते ही हैं। परन्तु इसका परिणाम जैसा हमें अपेक्षित है, ऐसा नहीं हो रहा है। वेदविज्ञान गुरुकुल एक आदर्श नमूने के रूप में प्रतिष्ठित है परन्तु उसका अनुसरण अन्यत्र नहीं हो रहा है। विभिन्न संगठनों के द्वारा चलाये जाने वाले संस्कारकेन्द्रों और एकल विद्यालयों को सेवा के प्रकल्प के रूप में और धर्मादाय की व्यवस्था के रूप में देखा जाता है। उनमें पढ़ना प्रतिष्ठा का विषय नहीं माना जाता है। सरकारी विद्यालयों की दशा इतनी खराब है कि कोई उसमें पढ़ना नहीं चाहता है । लोग अधिक पैसा खर्च करके भी निजी संस्थानों द्वारा चलने वाले विद्यालयों में अपने बच्चों को भेजते हैं । शिक्षा पर खर्च करने में लोगों को अर्थार्जन के लिये अधिक कष्ट झेलने पड़ते हैं, कर्जा लेना पड़ता है, गाँवों में लोग अपनी जमीन या आभूषण बेचते हैं परन्तु निःशुल्क शिक्षा लेने के लिये सरकारी विद्यालयों में नहीं जाते । एक ऐसा लोकमत हो गया है कि जो मुफ्त मिलता है, वह गुणवत्तापूर्ण नहीं होता है। इस प्रकार व्यवस्था और लोकमत दोनों क्षेत्रों में उपाय करने की आवश्यकता है।
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ऐसी कई वेद पाठशालायें हैं जहाँ छात्रों से शुल्क नहीं लिया जाता है। वनवासी कल्याण आश्रम, विश्व हिन्दू परिषद, सेवा भारती, विद्या भारती जैसी अनेक संस्थाओं द्वारा गरीब बस्तियों में, वनवासी क्षेत्रों में और नगरों की झुग्गीझोंपड़ियों में संस्कारकेन्द्र और एकल विद्यालय चलते हैं, जहाँ शुल्क नहीं लिया जाता है। सरकार स्वयं प्राथमिक विद्यालय निःशुल्क ही चलाती है। ये प्राथमिक विद्यालय लाखों की संख्या में हैं और देश के करोड़ों बच्चे इन विद्यालयों में पढ़ते ही हैं। कर्नाटक में हिन्दू सेवा प्रतिष्ठान द्वारा संचालित गुरुकुलों में आवास, भोजन और शिक्षा का शुल्क नहीं लिया जाता है । ऐसे और भी कई उदाहरण होंगे। अतः निःशुल्क शिक्षा के प्रयोग तो चलते ही हैं। परन्तु इसका परिणाम जैसा हमें अपेक्षित है, ऐसा नहीं हो रहा है। वेदविज्ञान गुरुकुल एक आदर्श नमूने के रूप में प्रतिष्ठित है परन्तु उसका अनुसरण अन्यत्र नहीं हो रहा है। विभिन्न संगठनों के द्वारा चलाये जाने वाले संस्कारकेन्द्रों और एकल विद्यालयों को सेवा के प्रकल्प के रूप में और धर्मादाय की व्यवस्था के रूप में देखा जाता है। उनमें पढ़ना प्रतिष्ठा का विषय नहीं माना जाता है। सरकारी विद्यालयों की दशा इतनी खराब है कि कोई उसमें पढ़ना नहीं चाहता है । लोग अधिक पैसा खर्च करके भी निजी संस्थानों द्वारा चलने वाले विद्यालयों में अपने बच्चों को भेजते हैं । शिक्षा पर खर्च करने में लोगोंं को अर्थार्जन के लिये अधिक कष्ट झेलने पड़ते हैं, कर्जा लेना पड़ता है, गाँवों में लोग अपनी जमीन या आभूषण बेचते हैं परन्तु निःशुल्क शिक्षा लेने के लिये सरकारी विद्यालयों में नहीं जाते । एक ऐसा लोकमत हो गया है कि जो मुफ्त मिलता है, वह गुणवत्तापूर्ण नहीं होता है। इस प्रकार व्यवस्था और लोकमत दोनों क्षेत्रों में उपाय करने की आवश्यकता है।
    
हम निःशुल्क शिक्षा का प्रयोग तो करें ही, साथ ही शिक्षा का क्षेत्र क्यों अर्थनिरपेक्ष होना चाहिये, इसका भी ज्ञान दें।
 
हम निःशुल्क शिक्षा का प्रयोग तो करें ही, साथ ही शिक्षा का क्षेत्र क्यों अर्थनिरपेक्ष होना चाहिये, इसका भी ज्ञान दें।
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५. कोई भी अच्छा कार्य, फिर चाहे व्यक्तिगत साधना, तपश्चर्या या सेवा का हो तो भी समाज उसके योगक्षेम की चिन्ता करना अपना धर्म समझता था । काम करने वाले को भी ऐसा विश्वास था।  
 
५. कोई भी अच्छा कार्य, फिर चाहे व्यक्तिगत साधना, तपश्चर्या या सेवा का हो तो भी समाज उसके योगक्षेम की चिन्ता करना अपना धर्म समझता था । काम करने वाले को भी ऐसा विश्वास था।  
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६. कुल मिलाकर ध्येयनिष्ठा, उच्च लक्ष्य सिद्ध करने के लिये परिश्रम करने की वृत्ति और अवरोधों को पार करने का साहस लोगों में अधिक था । जीवन की सार्थकता के मापदण्ड भौतिक कम और मानसिक, बौद्धिक और आत्मिक अधिक थे ।
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६. कुल मिलाकर ध्येयनिष्ठा, उच्च लक्ष्य सिद्ध करने के लिये परिश्रम करने की वृत्ति और अवरोधों को पार करने का साहस लोगोंं में अधिक था । जीवन की सार्थकता के मापदण्ड भौतिक कम और मानसिक, बौद्धिक और आत्मिक अधिक थे ।
    
==== शिक्षा का रमणीयवृक्ष ====
 
==== शिक्षा का रमणीयवृक्ष ====
* इस आधार पर भारत में समाजव्यवस्था बनी हुई थी और शिक्षाव्यवस्था उसीका एक अंग थी। हमारा इतिहास बताता है कि ऐसी व्यवस्था सहस्रों वर्षों तक चली। धर्मपालजी की पुस्तक 'रमणीय वृक्ष' में अठारहवीं शताब्दी की धार्मिक शिक्षा का वर्णन मिलता है। उसके अनुसार उस समय भारत में पाँच लाख प्राथमिक विद्यालय थे और उसी अनुपात में उच्च शिक्षा के केन्द्र थे परन्तु शिक्षकों को वेतन, छात्रों के लिये शुल्क और राज्य की ओर से अनुदान की कोई व्यवस्था नहीं थी। हाँ, मन्दिरों और धनी लोगों से दान अवश्य मिलता था। राज्य भी योगक्षेम की चिन्ता करता था। अर्थ व्यवस्था शिक्षक की स्वतन्त्रता और ज्ञान की गरिमा का मूल्य चुकाकर नहीं होती थी।  
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* इस आधार पर भारत में समाजव्यवस्था बनी हुई थी और शिक्षाव्यवस्था उसीका एक अंग थी। हमारा इतिहास बताता है कि ऐसी व्यवस्था सहस्रों वर्षों तक चली। धर्मपालजी की पुस्तक 'रमणीय वृक्ष' में अठारहवीं शताब्दी की धार्मिक शिक्षा का वर्णन मिलता है। उसके अनुसार उस समय भारत में पाँच लाख प्राथमिक विद्यालय थे और उसी अनुपात में उच्च शिक्षा के केन्द्र थे परन्तु शिक्षकों को वेतन, छात्रों के लिये शुल्क और राज्य की ओर से अनुदान की कोई व्यवस्था नहीं थी। हाँ, मन्दिरों और धनी लोगोंं से दान अवश्य मिलता था। राज्य भी योगक्षेम की चिन्ता करता था। अर्थ व्यवस्था शिक्षक की स्वतन्त्रता और ज्ञान की गरिमा का मूल्य चुकाकर नहीं होती थी।  
 
* परन्तु अठारहवीं शताब्दी में अंग्रेजों ने इस देश की शिक्षा व्यवस्था में चंचुपात करना प्रारम्भ किया और स्थितियाँ शीघ्र ही बदलने लगीं। अंग्रेजों की जीवनदृष्टि जड़वादी थी। पूर्व में वर्णन किया है उस प्रकार आसुरी थी। भारत धर्मप्रधान जीवनदृष्टि वाला देश था परन्तु वे अर्थ प्रधान जीवनदृष्टि वाले थे। अतः उन्होंने ज्ञान को भी भौतिक पदार्थ प्राप्त करने का साधन मानकर उसके साथ वैसा ही व्यवहार आरम्भ किया। उन्होंने शिक्षा के तन्त्र को राज्य के अधीन बनाया और शिक्षा को आर्थिक लेनदेन के व्यवहार में जोड़ दिया। शिक्षा के क्षेत्र में अर्थ विषयक समस्याओं और विपरीत स्थितियों के मूल में यह जीवनदृष्टि है।  
 
* परन्तु अठारहवीं शताब्दी में अंग्रेजों ने इस देश की शिक्षा व्यवस्था में चंचुपात करना प्रारम्भ किया और स्थितियाँ शीघ्र ही बदलने लगीं। अंग्रेजों की जीवनदृष्टि जड़वादी थी। पूर्व में वर्णन किया है उस प्रकार आसुरी थी। भारत धर्मप्रधान जीवनदृष्टि वाला देश था परन्तु वे अर्थ प्रधान जीवनदृष्टि वाले थे। अतः उन्होंने ज्ञान को भी भौतिक पदार्थ प्राप्त करने का साधन मानकर उसके साथ वैसा ही व्यवहार आरम्भ किया। उन्होंने शिक्षा के तन्त्र को राज्य के अधीन बनाया और शिक्षा को आर्थिक लेनदेन के व्यवहार में जोड़ दिया। शिक्षा के क्षेत्र में अर्थ विषयक समस्याओं और विपरीत स्थितियों के मूल में यह जीवनदृष्टि है।  
 
* अंग्रेजों का भारत की शिक्षा के साथ खिलवाड़ सन १७७३ से आरम्भ हुआ। बढ़ते-बढ़ते सन १८५७ में वह पूर्णता को प्राप्त हुआ, जब ईस्ट इण्डिया कम्पनी के द्वारा भारत में तीन विश्वविद्यालय प्रारम्भ हुए। इसके साथ ही भारत की शिक्षा का अंग्रेजीकरण पूर्ण हुआ। १९४७ में जब हम स्वाधीन हुए तब तक यही व्यवस्था चलती रही । लगभग पौने दो सौ वर्षों के इस कालखण्ड में धार्मिक शिक्षा व्यवस्था का पूर्ण रूप से अंग्रेजीकरण हो गया । हमारी लगभग दस पीढ़ियाँ इस व्यवस्था में शिक्षा प्राप्त करती रहीं । कोई आश्चर्य नहीं कि स्वाधीनता के बाद भी भारत में यही व्यवस्था बनी रही। शिक्षा तो क्या स्वाधीनता के साथ भारत की कोई भी व्यवस्था नहीं बदली । कारण स्पष्ट है, उचित अनुचित का विवेक करने वाली बुद्धि ही अंग्रेजीयत से ग्रस्त हो गई थी और कामप्रधान दृष्टि के प्रभाव में मन दुर्बल हो गया था । भारत की व्यवस्थाओं में परिवर्तन नहीं होना समझ में आने वाली बात है। आश्चर्य तो इस बात का होना चाहिये कि पौने दोसौ वर्षों की ज्ञान के क्षेत्र की दासता के बाद भी भारत में स्वत्व का सम्पूर्ण लोप नहीं हो गया । विश्व में इतनी बलवती जिजीविषा से युक्त देश और कोई नहीं है। इसलिये विवश और दुर्बल बन जाने के बाद भी अन्दर अन्दर हम धार्मिक स्वभाव को जानते हैं और मानते भी हैं। इस कारण से तो हम अभी कर रहे हैं वैसी चर्चायें देश में स्थान-स्थान पर चलती हैं। अंग्रेजों द्वारा समाज जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में ढाये गये कहर को पहचानने और समझने का प्रयास चल रहा है और मार्ग ढूँढकर शिक्षा की गाड़ी पुनः धार्मिकता की अपनी पटरी पर लाने का कार्य चल रहा है।  
 
* अंग्रेजों का भारत की शिक्षा के साथ खिलवाड़ सन १७७३ से आरम्भ हुआ। बढ़ते-बढ़ते सन १८५७ में वह पूर्णता को प्राप्त हुआ, जब ईस्ट इण्डिया कम्पनी के द्वारा भारत में तीन विश्वविद्यालय प्रारम्भ हुए। इसके साथ ही भारत की शिक्षा का अंग्रेजीकरण पूर्ण हुआ। १९४७ में जब हम स्वाधीन हुए तब तक यही व्यवस्था चलती रही । लगभग पौने दो सौ वर्षों के इस कालखण्ड में धार्मिक शिक्षा व्यवस्था का पूर्ण रूप से अंग्रेजीकरण हो गया । हमारी लगभग दस पीढ़ियाँ इस व्यवस्था में शिक्षा प्राप्त करती रहीं । कोई आश्चर्य नहीं कि स्वाधीनता के बाद भी भारत में यही व्यवस्था बनी रही। शिक्षा तो क्या स्वाधीनता के साथ भारत की कोई भी व्यवस्था नहीं बदली । कारण स्पष्ट है, उचित अनुचित का विवेक करने वाली बुद्धि ही अंग्रेजीयत से ग्रस्त हो गई थी और कामप्रधान दृष्टि के प्रभाव में मन दुर्बल हो गया था । भारत की व्यवस्थाओं में परिवर्तन नहीं होना समझ में आने वाली बात है। आश्चर्य तो इस बात का होना चाहिये कि पौने दोसौ वर्षों की ज्ञान के क्षेत्र की दासता के बाद भी भारत में स्वत्व का सम्पूर्ण लोप नहीं हो गया । विश्व में इतनी बलवती जिजीविषा से युक्त देश और कोई नहीं है। इसलिये विवश और दुर्बल बन जाने के बाद भी अन्दर अन्दर हम धार्मिक स्वभाव को जानते हैं और मानते भी हैं। इस कारण से तो हम अभी कर रहे हैं वैसी चर्चायें देश में स्थान-स्थान पर चलती हैं। अंग्रेजों द्वारा समाज जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में ढाये गये कहर को पहचानने और समझने का प्रयास चल रहा है और मार्ग ढूँढकर शिक्षा की गाड़ी पुनः धार्मिकता की अपनी पटरी पर लाने का कार्य चल रहा है।  
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==== शिक्षा के नाम पर अनावश्यक खर्च ====
 
==== शिक्षा के नाम पर अनावश्यक खर्च ====
पढ़ने के लिये जो अनावश्यक खर्च होता है उसके सम्बन्ध में भी विचार करना चाहिये । आज कल ऐसी बातों पर अनाप-शनाप खर्च किया जाता है जिन पर बिलकुल ही खर्च करने की आवश्यकता नहीं है। उदाहरण के लिये छोटे बच्चे जब लेखन सीखना प्रारम्भ करते हैं तब आज क्या होता है इसका विचार करें । रेत पर उँगली से भी 'अ' लिखा जाता है, भूमि पर खड़िया से भी 'अ' लिखा जाता है, पत्थर की पाटी पर लेखनी से 'अ' लिखा जाता है, कागज पर कलम से 'अ' लिखा जाता है, संगणक के पर्दे पर भी 'अ' लिखा जाता है । रेत पर ऊँगली से लिखने में एक पैसा भी खर्च नहीं होता है, जबकि संगणक पर हजारों रुपये खर्च होते हैं। एक पैसा खर्च करो या हजार, लिखा तो 'अ' ही जाता है। उँगली से लिखने में 'अ' का अनुभव अधिक गहन होता है । शैक्षिक दृष्टि से वह अधिक अच्छा है और आर्थिक दृष्टि से अधिक सुकर । फिर भी आज संगणक का आकर्षण अधिक है। लोगों को लगता है कि संगणक अधिक अच्छा है, पाटी पर या रेत पर लिखना पिछड़ेपन का लक्षण है। यह मानसिक रुग्णावस्था है जो जीवन के हर क्षेत्र में आज दिखाई देती है। संगणक बनाने वाली कम्पनियाँ इस अवस्था का लाभ उठाती हैं और विज्ञापनों के माध्यम से लोगों को और लालायित करती हैं । सरकारें चुनावों में मत बटोरने के लिये लोगों को संगणक का आमिष देते हैं और बड़े-बड़े उद्योगगृह ऊंचा शुल्क वसूलने के लिये संगणक प्रस्तुत करते हैं । संगणक का सम्यक् उपयोग सिखाने के स्थान पर अत्र-तत्र-सर्वत्र संगणक के उपयोग का आवाहन किया जाता है। संगणक तो एक उदाहरण है। ऐसी असंख्य बातें हैं जो जरा भी उपयोगी नहीं हैं, अथवा अत्यन्त अल्प मात्रा में उपयोगी हैं, परन्तु खर्च उनके लिये बहुत अधिक होता है। ऐसे खर्च के लिये लोगों को अधिक पैसा कमाना पड़ता है, अधिक पैसा कमाने के लिये अधिक कष्ट करना पड़ता है और अधिक समय देना पड़ता है । इस प्रकार पैसे का एक दुष्ट चक्र आरम्भ होता है, एक बार आरम्भ हुआ तो कैसे भी रुकता नहीं है और फिर शान्ति से विचार करने का समय भी नहीं रहता है।  
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पढ़ने के लिये जो अनावश्यक खर्च होता है उसके सम्बन्ध में भी विचार करना चाहिये । आज कल ऐसी बातों पर अनाप-शनाप खर्च किया जाता है जिन पर बिलकुल ही खर्च करने की आवश्यकता नहीं है। उदाहरण के लिये छोटे बच्चे जब लेखन सीखना प्रारम्भ करते हैं तब आज क्या होता है इसका विचार करें । रेत पर उँगली से भी 'अ' लिखा जाता है, भूमि पर खड़िया से भी 'अ' लिखा जाता है, पत्थर की पाटी पर लेखनी से 'अ' लिखा जाता है, कागज पर कलम से 'अ' लिखा जाता है, संगणक के पर्दे पर भी 'अ' लिखा जाता है । रेत पर ऊँगली से लिखने में एक पैसा भी खर्च नहीं होता है, जबकि संगणक पर हजारों रुपये खर्च होते हैं। एक पैसा खर्च करो या हजार, लिखा तो 'अ' ही जाता है। उँगली से लिखने में 'अ' का अनुभव अधिक गहन होता है । शैक्षिक दृष्टि से वह अधिक अच्छा है और आर्थिक दृष्टि से अधिक सुकर । फिर भी आज संगणक का आकर्षण अधिक है। लोगोंं को लगता है कि संगणक अधिक अच्छा है, पाटी पर या रेत पर लिखना पिछड़ेपन का लक्षण है। यह मानसिक रुग्णावस्था है जो जीवन के हर क्षेत्र में आज दिखाई देती है। संगणक बनाने वाली कम्पनियाँ इस अवस्था का लाभ उठाती हैं और विज्ञापनों के माध्यम से लोगोंं को और लालायित करती हैं । सरकारें चुनावों में मत बटोरने के लिये लोगोंं को संगणक का आमिष देते हैं और बड़े-बड़े उद्योगगृह ऊंचा शुल्क वसूलने के लिये संगणक प्रस्तुत करते हैं । संगणक का सम्यक् उपयोग सिखाने के स्थान पर अत्र-तत्र-सर्वत्र संगणक के उपयोग का आवाहन किया जाता है। संगणक तो एक उदाहरण है। ऐसी असंख्य बातें हैं जो जरा भी उपयोगी नहीं हैं, अथवा अत्यन्त अल्प मात्रा में उपयोगी हैं, परन्तु खर्च उनके लिये बहुत अधिक होता है। ऐसे खर्च के लिये लोगोंं को अधिक पैसा कमाना पड़ता है, अधिक पैसा कमाने के लिये अधिक कष्ट करना पड़ता है और अधिक समय देना पड़ता है । इस प्रकार पैसे का एक दुष्ट चक्र आरम्भ होता है, एक बार आरम्भ हुआ तो कैसे भी रुकता नहीं है और फिर शान्ति से विचार करने का समय भी नहीं रहता है।  
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अतः शिक्षा के विषय में । तत्त्वचिन्तन के साथ-साथ इन छोटी परन्तु दूरगामी परिणाम करने वाली बातों को लेकर चिन्ता करने की आवश्यकता है। ऐसी कोई कार्य योजना बननी चाहिये ताकि लोगों को इन निरर्थक और अनर्थक उलझनों से छुटकारा मिले ।
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अतः शिक्षा के विषय में । तत्त्वचिन्तन के साथ-साथ इन छोटी परन्तु दूरगामी परिणाम करने वाली बातों को लेकर चिन्ता करने की आवश्यकता है। ऐसी कोई कार्य योजना बननी चाहिये ताकि लोगोंं को इन निरर्थक और अनर्थक उलझनों से छुटकारा मिले ।
    
शिक्षा में और एक विषय में कुल मिलाकर व्यर्थ खर्च होता है। ऐसे कितने ही लोग हैं जो पढ़ते तो हैं स्नातक अथवा स्नातकोत्तर पदवी प्राप्त करने तक परन्तु काम करते हैं बैंक में या सरकारी अथवा गैरसरकारी कार्यालय में __ बाबूगिरी का । उन्होंने बाबूगिरी की कोई शिक्षा प्राप्त नहीं की होती है, दूसरी ओर इतिहास, भाषा या संस्कृत पढ़ने का बाबूगिरी में कोई उपयोग नहीं है । इंजीनियर की शिक्षा प्राप्त करने पर वे काम इंजीनियरिंग का नहीं करते हैं। शिक्षा प्राप्त करते हैं आयुर्विज्ञान की परन्तु काम चिकित्सा के क्षेत्र में नहीं करते हैं, कला या साहित्य के क्षेत्र में करते हैं। कई महिलायें डॉक्टरी की पढ़ाई के बाद चिकित्सा नहीं करती हैं । यह तो बाजार के नियम के विरुद्ध है । एक-एक छात्र की शिक्षा के लिये उसके माता-पिता के तथा सरकार के बहुत पैसे खर्च होते हैं। परन्तु छात्र पर उसकी भरपाई करने का दायित्व नहीं दिया जाता है। इस सन्दर्भ में तर्क दिया जाता है कि ज्ञान-ज्ञान है, उसे अर्थार्जन के मापदण्ड से नहीं नापा जाना चाहिये । परन्तु यह तो ज्ञानार्जन और अर्थार्जन के सन्दर्भो का घालमेल है। यदि ज्ञानार्जन ही करना है तो पूर्ण रूप से ज्ञानार्जन के ही नियम लागू करने चाहिये । अर्थार्जन करना है तो अर्थार्जन के नियम लागू करने चाहिये । दोनों का मिश्रण करने से अन्ततोगत्वा व्यक्ति और समाज की आर्थिक हानि ही होती है। आज समाज में इस बात की इतनी अव्यवस्था छाई है कि उससे होने वाली हानि का कोई हिसाब नहीं है।
 
शिक्षा में और एक विषय में कुल मिलाकर व्यर्थ खर्च होता है। ऐसे कितने ही लोग हैं जो पढ़ते तो हैं स्नातक अथवा स्नातकोत्तर पदवी प्राप्त करने तक परन्तु काम करते हैं बैंक में या सरकारी अथवा गैरसरकारी कार्यालय में __ बाबूगिरी का । उन्होंने बाबूगिरी की कोई शिक्षा प्राप्त नहीं की होती है, दूसरी ओर इतिहास, भाषा या संस्कृत पढ़ने का बाबूगिरी में कोई उपयोग नहीं है । इंजीनियर की शिक्षा प्राप्त करने पर वे काम इंजीनियरिंग का नहीं करते हैं। शिक्षा प्राप्त करते हैं आयुर्विज्ञान की परन्तु काम चिकित्सा के क्षेत्र में नहीं करते हैं, कला या साहित्य के क्षेत्र में करते हैं। कई महिलायें डॉक्टरी की पढ़ाई के बाद चिकित्सा नहीं करती हैं । यह तो बाजार के नियम के विरुद्ध है । एक-एक छात्र की शिक्षा के लिये उसके माता-पिता के तथा सरकार के बहुत पैसे खर्च होते हैं। परन्तु छात्र पर उसकी भरपाई करने का दायित्व नहीं दिया जाता है। इस सन्दर्भ में तर्क दिया जाता है कि ज्ञान-ज्ञान है, उसे अर्थार्जन के मापदण्ड से नहीं नापा जाना चाहिये । परन्तु यह तो ज्ञानार्जन और अर्थार्जन के सन्दर्भो का घालमेल है। यदि ज्ञानार्जन ही करना है तो पूर्ण रूप से ज्ञानार्जन के ही नियम लागू करने चाहिये । अर्थार्जन करना है तो अर्थार्जन के नियम लागू करने चाहिये । दोनों का मिश्रण करने से अन्ततोगत्वा व्यक्ति और समाज की आर्थिक हानि ही होती है। आज समाज में इस बात की इतनी अव्यवस्था छाई है कि उससे होने वाली हानि का कोई हिसाब नहीं है।
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==== समित्पाणि ====
 
==== समित्पाणि ====
समित्पाणि शब्द दो शब्दों से बना है । एक है समित, और दूसरा है पाणि । समित का अर्थ है, समिधा और पाणि का अर्थ है, हाथ । छात्र जब गुरुकुल में अध्ययन हेतु प्रथम बार जाते थे, तब हाथ में समिधा लेकर जाते थे । समिधा यज्ञ में होम करने हेतु उपयोग में ली जाने वाली लकड़ी को कहते हैं । गुरुकुल में यज्ञ एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण गतिविधि होती थी और छात्रों को समिधा एकत्रित करनी होती थी। अतः गुरु के समक्ष हाथ में समिधा लेकर ही उपस्थित होने का प्रचलन था । यह समिधा शब्द सांकेतिक है । उसका लाक्षणिक अर्थ है गुरुकुल वास हेतु उपयोगी सामग्री । गुरुकुल में अध्ययन हेतु जाते समय छात्र किसी न किसी प्रकार की उपयोगी सामग्री लेकर ही जाते थे। यह एक आवश्यक आचार माना जाता था । देव, गुरु, स्नेही, राजा आदि आदरणीय व्यक्तियों के सम्मुख कभी भी खाली हाथ नहीं जाना चाहिये, ऐसा आग्रह था। यह आग्रह हमारे समाज जीवन में अभी भी देखने को मिलता है । हम मन्दिर में जाते हैं तो द्रव्य और धान्य लेकर ही जाते हैं। किसीके घर जाते हैं तो बच्चों के लिये कुछ न कुछ लेकर ही जाते हैं। किसी विद्वान के पास जाते हैं तो भी खाली हाथ नहीं  जाते हैं। गाँवों में अभी भी बच्चे का विद्यालय में प्रवेश होता है तब शिक्षक को भेंट स्वरूप कुछ न कुछ दिया जाता है और छात्रों को भोजन या जलपान कराया जाता है। यह एक बहुत व्यापक सामाजिक व्यवहार का हिस्सा है, जहाँ अपने व्यक्तिगत अच्छे अवसर पर अधिकाधिक लोगों को सहभागी बनाया जाता है और खुशी से कुछ न कुछ दिया जाता है। यह देकर, बाँटकर कर खुश होने की संस्कृति का लक्षण है । तात्पर्य यह है कि विद्यालय प्रवेश के समय पर छात्र द्वारा गुरु और गुरुकुल को किसी न किसी प्रकार की उपयोगी सामग्री देने की व्यवस्था थी।
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समित्पाणि शब्द दो शब्दों से बना है । एक है समित, और दूसरा है पाणि । समित का अर्थ है, समिधा और पाणि का अर्थ है, हाथ । छात्र जब गुरुकुल में अध्ययन हेतु प्रथम बार जाते थे, तब हाथ में समिधा लेकर जाते थे । समिधा यज्ञ में होम करने हेतु उपयोग में ली जाने वाली लकड़ी को कहते हैं । गुरुकुल में यज्ञ एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण गतिविधि होती थी और छात्रों को समिधा एकत्रित करनी होती थी। अतः गुरु के समक्ष हाथ में समिधा लेकर ही उपस्थित होने का प्रचलन था । यह समिधा शब्द सांकेतिक है । उसका लाक्षणिक अर्थ है गुरुकुल वास हेतु उपयोगी सामग्री । गुरुकुल में अध्ययन हेतु जाते समय छात्र किसी न किसी प्रकार की उपयोगी सामग्री लेकर ही जाते थे। यह एक आवश्यक आचार माना जाता था । देव, गुरु, स्नेही, राजा आदि आदरणीय व्यक्तियों के सम्मुख कभी भी खाली हाथ नहीं जाना चाहिये, ऐसा आग्रह था। यह आग्रह हमारे समाज जीवन में अभी भी देखने को मिलता है । हम मन्दिर में जाते हैं तो द्रव्य और धान्य लेकर ही जाते हैं। किसीके घर जाते हैं तो बच्चों के लिये कुछ न कुछ लेकर ही जाते हैं। किसी विद्वान के पास जाते हैं तो भी खाली हाथ नहीं  जाते हैं। गाँवों में अभी भी बच्चे का विद्यालय में प्रवेश होता है तब शिक्षक को भेंट स्वरूप कुछ न कुछ दिया जाता है और छात्रों को भोजन या जलपान कराया जाता है। यह एक बहुत व्यापक सामाजिक व्यवहार का हिस्सा है, जहाँ अपने व्यक्तिगत अच्छे अवसर पर अधिकाधिक लोगोंं को सहभागी बनाया जाता है और खुशी से कुछ न कुछ दिया जाता है। यह देकर, बाँटकर कर खुश होने की संस्कृति का लक्षण है । तात्पर्य यह है कि विद्यालय प्रवेश के समय पर छात्र द्वारा गुरु और गुरुकुल को किसी न किसी प्रकार की उपयोगी सामग्री देने की व्यवस्था थी।
    
कौन कितनी और कैसी सामग्री देगा इसके कोई नियम नहीं थे। निर्धन व्यक्ति केवल समिधा की दो लकड़ियाँ देता था और धनवान व्यक्ति अपनी क्षमता के अनुसार अधिक देता था। अपनी क्षमता के अनुसार कम देने में लज्जा का भाव नहीं था और अपनी क्षमता के अनुसार अधिक देने में अहंकार का भाव नहीं था। हाँ, अपनी क्षमता से कम देने में लज्जा का भाव अवश्य होता था। अपनी क्षमता से कम देना विद्या और शिक्षक की अवमानना मानी जाती थी और सज्जन इससे सदा बचते थे। यह समित्पाणि व्यवस्था गुरुकुल के निर्वाह हेतु उपयोगी थी।
 
कौन कितनी और कैसी सामग्री देगा इसके कोई नियम नहीं थे। निर्धन व्यक्ति केवल समिधा की दो लकड़ियाँ देता था और धनवान व्यक्ति अपनी क्षमता के अनुसार अधिक देता था। अपनी क्षमता के अनुसार कम देने में लज्जा का भाव नहीं था और अपनी क्षमता के अनुसार अधिक देने में अहंकार का भाव नहीं था। हाँ, अपनी क्षमता से कम देने में लज्जा का भाव अवश्य होता था। अपनी क्षमता से कम देना विद्या और शिक्षक की अवमानना मानी जाती थी और सज्जन इससे सदा बचते थे। यह समित्पाणि व्यवस्था गुरुकुल के निर्वाह हेतु उपयोगी थी।
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तैयार कपड़े लेने के बदले अपने माप के अनुसार कपड़े सिलाने चाहिए। वे अधिक टिकाऊ होते हैं। उन्हें हर बार धोकर स्वच्छ रखना चाहिए। कहीं से थोड़ा फट जाय अथवा बटन टूट जाय तो तुरन्त टाका लगाना चाहिए या बटन लगाना चाहिए। ऐसा करने से कपड़े अधिक समय तक चलते हैं।
 
तैयार कपड़े लेने के बदले अपने माप के अनुसार कपड़े सिलाने चाहिए। वे अधिक टिकाऊ होते हैं। उन्हें हर बार धोकर स्वच्छ रखना चाहिए। कहीं से थोड़ा फट जाय अथवा बटन टूट जाय तो तुरन्त टाका लगाना चाहिए या बटन लगाना चाहिए। ऐसा करने से कपड़े अधिक समय तक चलते हैं।
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जो कपड़े छोटे पड़ गये हैं या तंग हो गये हैं, उन्हें अभावग्रस्तलोगों को दे देना चाहिए । इस तरह वे बेकार पड़े नहीं रहेंगे, उनका भी सदुपयोग हो जायेगा।
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जो कपड़े छोटे पड़ गये हैं या तंग हो गये हैं, उन्हें अभावग्रस्तलोगोंं को दे देना चाहिए । इस तरह वे बेकार पड़े नहीं रहेंगे, उनका भी सदुपयोग हो जायेगा।
    
माँ पुराने कपड़ो से रुमाल, गमछा आदि बना देती है। उन्हें हमें उपयोग में लेना चाहिए। माँ के हाथों बने होने कारण वे अधिक प्रिय हो जाते हैं। हम प्रसन्नता से उन्हें पहनते हैं।
 
माँ पुराने कपड़ो से रुमाल, गमछा आदि बना देती है। उन्हें हमें उपयोग में लेना चाहिए। माँ के हाथों बने होने कारण वे अधिक प्रिय हो जाते हैं। हम प्रसन्नता से उन्हें पहनते हैं।
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महत्त्वपूर्ण बात यह है कि अर्थक्षेत्र को धार्मिक जीवनव्यवस्था के साथ अनुकूल बनाने हेतु जो परिवर्तन करने पडेंगे इस के मुख्य बिन्दु इस प्रकार होंगे...
 
महत्त्वपूर्ण बात यह है कि अर्थक्षेत्र को धार्मिक जीवनव्यवस्था के साथ अनुकूल बनाने हेतु जो परिवर्तन करने पडेंगे इस के मुख्य बिन्दु इस प्रकार होंगे...
 
# मनुष्य की आर्थिक स्वतन्त्रता की रक्षा करनी चाहिये । सर्व प्रकार की स्वतन्त्रता मनुष्य का ही नहीं तो सृष्टि के सभी पदार्थों का जन्मसिद्ध अधिकार है। सृष्टि के अनेक पदार्थ मनुष्य के लिये अनिवार्य हैं । उदाहरण के लिये भूमि, भूमि पर उगने वाले वृक्ष, पंचमहाभूत आदि मनुष्य के जीवन के लिये अनिवार्य हैं । इनका उपयोग तो करना ही पडेगा परन्तु उपयोग करते समय उनके प्रति कृतज्ञ रहना और उनका आवश्यकता से अधिक उपयोग नहीं करना मनुष्य के लिये बाध्यता है । किसी भी पदार्थ का, प्राणी का या मनुष्य का संसाधन के रूप में प्रयोग नहीं करना परन्तु उसकी स्वतन्त्र सत्ता का सम्मान करना आवश्यक है। इस नियम को लागू कर मनुष्य की अर्थव्यवस्था बननी चाहिये। इस दष्टि से हर व्यक्ति को अपने अर्थार्जन हेतु स्वतन्त्र व्यवसाय मिलना चाहिये।  
 
# मनुष्य की आर्थिक स्वतन्त्रता की रक्षा करनी चाहिये । सर्व प्रकार की स्वतन्त्रता मनुष्य का ही नहीं तो सृष्टि के सभी पदार्थों का जन्मसिद्ध अधिकार है। सृष्टि के अनेक पदार्थ मनुष्य के लिये अनिवार्य हैं । उदाहरण के लिये भूमि, भूमि पर उगने वाले वृक्ष, पंचमहाभूत आदि मनुष्य के जीवन के लिये अनिवार्य हैं । इनका उपयोग तो करना ही पडेगा परन्तु उपयोग करते समय उनके प्रति कृतज्ञ रहना और उनका आवश्यकता से अधिक उपयोग नहीं करना मनुष्य के लिये बाध्यता है । किसी भी पदार्थ का, प्राणी का या मनुष्य का संसाधन के रूप में प्रयोग नहीं करना परन्तु उसकी स्वतन्त्र सत्ता का सम्मान करना आवश्यक है। इस नियम को लागू कर मनुष्य की अर्थव्यवस्था बननी चाहिये। इस दष्टि से हर व्यक्ति को अपने अर्थार्जन हेतु स्वतन्त्र व्यवसाय मिलना चाहिये।  
# हर मनुष्य को चाहिये कि अपना स्वामित्व युक्त व्यवसाय समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति करने हेतु होना चाहिये, आवश्यकता नहीं है ऐसी वस्तुयें विज्ञापन के माध्यम से लोगों को खरीदने हेतु बाध्य करने हेतु नहीं।  
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# हर मनुष्य को चाहिये कि अपना स्वामित्व युक्त व्यवसाय समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति करने हेतु होना चाहिये, आवश्यकता नहीं है ऐसी वस्तुयें विज्ञापन के माध्यम से लोगोंं को खरीदने हेतु बाध्य करने हेतु नहीं।  
 
# ऐसा करना है तो केन्द्रीकृत उत्पादन की व्यवस्था बदलनी होगी। छोटे छोटे उद्योग बढाने होंगे।  
 
# ऐसा करना है तो केन्द्रीकृत उत्पादन की व्यवस्था बदलनी होगी। छोटे छोटे उद्योग बढाने होंगे।  
 
# यन्त्रों का, परिवहन का, अर्थार्जन हेतु यात्रा का, उस निमित्त से होने वाला वाहनों का प्रयोग कम करना होगा।  
 
# यन्त्रों का, परिवहन का, अर्थार्जन हेतु यात्रा का, उस निमित्त से होने वाला वाहनों का प्रयोग कम करना होगा।  
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# उद्योजकों, उत्पादकों, प्रबन्धन क्षेत्र के तत्त्वों के साथ संवाद।  
 
# उद्योजकों, उत्पादकों, प्रबन्धन क्षेत्र के तत्त्वों के साथ संवाद।  
 
# नौकरी करने वाले उच्च विद्याविभूषितों के साथ संवाद ।
 
# नौकरी करने वाले उच्च विद्याविभूषितों के साथ संवाद ।
इन लोगों का संवाद अधिक समय ले सकता है। इनके मध्य राजकीय क्षेत्र के लोग भी जुड़ेंगे।
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इन लोगोंं का संवाद अधिक समय ले सकता है। इनके मध्य राजकीय क्षेत्र के लोग भी जुड़ेंगे।
    
आज उत्पादन और बाजार क्षेत्र में वैश्विक प्रवाहों का असर भी बहुत बड़ा है। अमेरिका, विश्व व्यापार संगठन, विश्वबैंक आदि अनेक संस्थाओं का प्रभाव भारत के अर्थक्षेत्र पर है। इससे मुक्त होने के रास्ते भी ढूँढने होंगे।
 
आज उत्पादन और बाजार क्षेत्र में वैश्विक प्रवाहों का असर भी बहुत बड़ा है। अमेरिका, विश्व व्यापार संगठन, विश्वबैंक आदि अनेक संस्थाओं का प्रभाव भारत के अर्थक्षेत्र पर है। इससे मुक्त होने के रास्ते भी ढूँढने होंगे।
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# स्वायत्तता के विषय में सरकार के साथ संवाद बनाना चाहिये । सरकार की भी शिक्षा को स्वायत्त बनाने की मानसिकता बननी चाहिये ।  रूपरेखा बनाने में सरकार की भी भूमिका सहभागिता की बननी चाहिये।  
 
# स्वायत्तता के विषय में सरकार के साथ संवाद बनाना चाहिये । सरकार की भी शिक्षा को स्वायत्त बनाने की मानसिकता बननी चाहिये ।  रूपरेखा बनाने में सरकार की भी भूमिका सहभागिता की बननी चाहिये।  
 
# सरकार से तात्पर्य है शासन और प्रशासन दोनों के प्रतिनिधि। शासन अपने पक्ष की विचारधारा के अनुसार चलता है, प्रशासन धार्मिक संविधान की धारा नियमों और कानूनों के अनुसार।  
 
# सरकार से तात्पर्य है शासन और प्रशासन दोनों के प्रतिनिधि। शासन अपने पक्ष की विचारधारा के अनुसार चलता है, प्रशासन धार्मिक संविधान की धारा नियमों और कानूनों के अनुसार।  
# शैक्षिक संगठनों को विद्वज्जन, कार्यकर्ता, अध्यापक आदि का मिलकर एक गट बनाना चाहिये । देशभर के अन्यान्य लोगों और वर्गों के साथ मिलकर इस विषय पर जागृति निर्माण कर, उन्हें विचार करने हेतु प्रेरित कर प्रारूप बनाने का प्रयास करना चाहिये ।  
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# शैक्षिक संगठनों को विद्वज्जन, कार्यकर्ता, अध्यापक आदि का मिलकर एक गट बनाना चाहिये । देशभर के अन्यान्य लोगोंं और वर्गों के साथ मिलकर इस विषय पर जागृति निर्माण कर, उन्हें विचार करने हेतु प्रेरित कर प्रारूप बनाने का प्रयास करना चाहिये ।  
 
# स्वायत्तता का प्रारूप भी सरकार के साथ संवाद बनाये रखते हुए होना चाहिये।  
 
# स्वायत्तता का प्रारूप भी सरकार के साथ संवाद बनाये रखते हुए होना चाहिये।  
 
# स्वायत्तता के मामले में सरकार की भूमिका सहायक की, संरक्षक और समर्थक की होनी चाहिये नियंत्रक की नहीं । समाज को, शिक्षाक्षेत्र को अपने बलबुते पर ही खडा होना चाहिये । सरकार मार्ग में अवरोध निर्माण न करे और अवरोध आयें तो उन्हें दूर करे अथवा दूर करने में सहयोग करे इतनी होनी चाहिये ।  
 
# स्वायत्तता के मामले में सरकार की भूमिका सहायक की, संरक्षक और समर्थक की होनी चाहिये नियंत्रक की नहीं । समाज को, शिक्षाक्षेत्र को अपने बलबुते पर ही खडा होना चाहिये । सरकार मार्ग में अवरोध निर्माण न करे और अवरोध आयें तो उन्हें दूर करे अथवा दूर करने में सहयोग करे इतनी होनी चाहिये ।  
 
# सरकार को शिक्षाक्षेत्र को स्वायत्त करना कुछ कठिन हो सकता है क्योंकि शिक्षाक्षेत्र से उसे जो दूसरे लाभ मिलते हैं वे मिलने बन्द हो जायेंगे । राजकीय पक्षों का मानव संसाधन भी उन्हें खोना पडेगा । इस हानि को सहने के लिये सरकार को राजी करना बहुत बडा काम होगा।  
 
# सरकार को शिक्षाक्षेत्र को स्वायत्त करना कुछ कठिन हो सकता है क्योंकि शिक्षाक्षेत्र से उसे जो दूसरे लाभ मिलते हैं वे मिलने बन्द हो जायेंगे । राजकीय पक्षों का मानव संसाधन भी उन्हें खोना पडेगा । इस हानि को सहने के लिये सरकार को राजी करना बहुत बडा काम होगा।  
# इससे भी बड़ा काम लोगों के लिये शिक्षा का प्रबन्ध करने का है। विभिन्न शैक्षिक संगठनों, धार्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक संगठनों को यह काम करने के लिये सिद्ध करना होगा।  
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# इससे भी बड़ा काम लोगोंं के लिये शिक्षा का प्रबन्ध करने का है। विभिन्न शैक्षिक संगठनों, धार्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक संगठनों को यह काम करने के लिये सिद्ध करना होगा।  
# इस योजना में पढे लोगों को नौकरी देने की जिम्मेदारी भी सरकार की नहीं रहेगी। बाबूगीरी एकदम कम हो जायेगी। शिक्षा के साथ नौकरी वाला आर्थिक क्षेत्र भी स्वायत्त होना चाहिये ।  
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# इस योजना में पढे लोगोंं को नौकरी देने की जिम्मेदारी भी सरकार की नहीं रहेगी। बाबूगीरी एकदम कम हो जायेगी। शिक्षा के साथ नौकरी वाला आर्थिक क्षेत्र भी स्वायत्त होना चाहिये ।  
 
# स्वायत्तता की यह योजना चरणों में होगी। नीचे की कोई शिक्षा अनिवार्य नहीं होगी परन्तु स्वास्थ्य सेवाओं, सैन्य सेवाओं तथा राजकीय सेवाओं का क्षेत्र सरकार के पास रहेगा। इस दृष्टि से सभी शाखाओं की प्रवेश परीक्षा होगी और जैसे चाहिये वैसे लोग तैयार कर लेना उन उन क्षेत्रों की जिम्मेदारी रहेगी।  
 
# स्वायत्तता की यह योजना चरणों में होगी। नीचे की कोई शिक्षा अनिवार्य नहीं होगी परन्तु स्वास्थ्य सेवाओं, सैन्य सेवाओं तथा राजकीय सेवाओं का क्षेत्र सरकार के पास रहेगा। इस दृष्टि से सभी शाखाओं की प्रवेश परीक्षा होगी और जैसे चाहिये वैसे लोग तैयार कर लेना उन उन क्षेत्रों की जिम्मेदारी रहेगी।  
# अर्थक्षेत्र स्वायत्त होना आवश्यक है। हर उद्योग ने अपने उद्योग के लिये आवश्यक लोगों को शिक्षित कर लेने की सिद्धता करनी होगी।  
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# अर्थक्षेत्र स्वायत्त होना आवश्यक है। हर उद्योग ने अपने उद्योग के लिये आवश्यक लोगोंं को शिक्षित कर लेने की सिद्धता करनी होगी।  
 
# शिक्षा संस्थानों को समाज से भिक्षा माँगनी पडेगी। प्राथमिक विद्यालय भी इसी तत्त्व पर चलेंगे।  
 
# शिक्षा संस्थानों को समाज से भिक्षा माँगनी पडेगी। प्राथमिक विद्यालय भी इसी तत्त्व पर चलेंगे।  
 
# इस योजना में सबसे बड़ा विरोध शिक्षक करेंगे क्योंकि उनकी सुरक्षा और वेतन समाप्त हो जायेंगे । शैक्षिक संगठनों को अपने बलबूते पर विद्यालय चलाने वाले शिक्षक तैयार करने पड़ेंगे। संगठनों के कार्यकर्ताओं को स्वयं विद्यालय आरम्भ करने होंगे।  
 
# इस योजना में सबसे बड़ा विरोध शिक्षक करेंगे क्योंकि उनकी सुरक्षा और वेतन समाप्त हो जायेंगे । शैक्षिक संगठनों को अपने बलबूते पर विद्यालय चलाने वाले शिक्षक तैयार करने पड़ेंगे। संगठनों के कार्यकर्ताओं को स्वयं विद्यालय आरम्भ करने होंगे।  
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शिक्षा को धार्मिक बनाने हेतु स्थापित विश्वविद्यालयों ने समाज के अर्थक्षेत्र के नियमन और निर्देशन का प्रथम विचार करना चाहिये । इस दृष्टि से कुछ सूत्र इस प्रकार होंगे...  
 
शिक्षा को धार्मिक बनाने हेतु स्थापित विश्वविद्यालयों ने समाज के अर्थक्षेत्र के नियमन और निर्देशन का प्रथम विचार करना चाहिये । इस दृष्टि से कुछ सूत्र इस प्रकार होंगे...  
 
# समाज के प्रत्येक सक्षम व्यक्तिको अर्थार्जन करना ही चाहिये और उसे अर्थार्जन का अवसर भी मिलना चाहिये।  
 
# समाज के प्रत्येक सक्षम व्यक्तिको अर्थार्जन करना ही चाहिये और उसे अर्थार्जन का अवसर भी मिलना चाहिये।  
# पढ़ने वाले विद्यार्थी, पढानेवाले शिक्षक, वानप्रस्थी, संन्यासी, रोगी, धर्माचार्य, अपंग आदि लोगों को अर्थार्जन करने की बाध्यता नहीं होनी चाहिये । उनके पोषण का दायित्व सरकार का नहीं अपितु परिवारजनों का होना चाहिये।  
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# पढ़ने वाले विद्यार्थी, पढानेवाले शिक्षक, वानप्रस्थी, संन्यासी, रोगी, धर्माचार्य, अपंग आदि लोगोंं को अर्थार्जन करने की बाध्यता नहीं होनी चाहिये । उनके पोषण का दायित्व सरकार का नहीं अपितु परिवारजनों का होना चाहिये।  
# अर्थार्जन करने वाले सभी लोगों की आर्थिक स्वतन्त्रता की रक्षा होनी चाहिये । इसका तात्पर्य यह है कि अर्थार्जन हेतु कोई किसी का नौकर नहीं होना चाहिये। किसी को नौकरी में रखना पडे इतना बडा उद्योग ही नहीं होना चाहिये । उद्योग बढाना है तो अपना परिवार बढाना चाहिये । छोटा परिवार सुखी परिवार नहीं, बड़ा परिवार सुखी परिवार यह सही सूत्र है। उसी प्रकार बडा उद्योग अच्छा उद्योग नहीं, छोटा उद्योग अच्छा उद्योग यह सही सूत्र है । केवल कुछ खास काम ही ऐसे हैं जो वेतनभोगी कर्मचारियों की अपेक्षा करते हैं।  
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# अर्थार्जन करने वाले सभी लोगोंं की आर्थिक स्वतन्त्रता की रक्षा होनी चाहिये । इसका तात्पर्य यह है कि अर्थार्जन हेतु कोई किसी का नौकर नहीं होना चाहिये। किसी को नौकरी में रखना पडे इतना बडा उद्योग ही नहीं होना चाहिये । उद्योग बढाना है तो अपना परिवार बढाना चाहिये । छोटा परिवार सुखी परिवार नहीं, बड़ा परिवार सुखी परिवार यह सही सूत्र है। उसी प्रकार बडा उद्योग अच्छा उद्योग नहीं, छोटा उद्योग अच्छा उद्योग यह सही सूत्र है । केवल कुछ खास काम ही ऐसे हैं जो वेतनभोगी कर्मचारियों की अपेक्षा करते हैं।  
 
# अर्थार्जन या उद्योग उत्पादन केन्द्री होना चाहिये, सेवाकेन्द्री नहीं । 'सेवा' शब्द अर्थार्जन के क्षेत्र का है ही नहीं । उसका प्रयोग वहाँ करना ही नहीं चाहिये। उदाहरण के लिये शिक्षा उद्योग नहीं हो सकती, मैनेजमेण्ट सेवा नहीं हो सकता, चिकित्सा व्यवसाय नहीं हो सकता। यह धर्म के विरोधी है इसलिये मान्य नहीं है । भौतिक वस्तुओं के उत्पादन को ही अर्थक्षेत्र में केन्द्रवर्ती स्थान देना चाहिये ।  
 
# अर्थार्जन या उद्योग उत्पादन केन्द्री होना चाहिये, सेवाकेन्द्री नहीं । 'सेवा' शब्द अर्थार्जन के क्षेत्र का है ही नहीं । उसका प्रयोग वहाँ करना ही नहीं चाहिये। उदाहरण के लिये शिक्षा उद्योग नहीं हो सकती, मैनेजमेण्ट सेवा नहीं हो सकता, चिकित्सा व्यवसाय नहीं हो सकता। यह धर्म के विरोधी है इसलिये मान्य नहीं है । भौतिक वस्तुओं के उत्पादन को ही अर्थक्षेत्र में केन्द्रवर्ती स्थान देना चाहिये ।  
 
# भौतिक वस्तुओं के उत्पादक और उपभोक्ता के मध्य कम से कम दूरी और कम से कम व्यवस्थायें होनी चाहिये । पैकिंग, संग्रह और सुरक्षा की व्यवस्था, परिवहन, बिचौलिये, वितरण की युक्ति प्रयुक्ति, विज्ञापन ये सब अनुत्पादक व्यवस्थायें हैं जो वस्तुओं की कीमतो में बिना गुणवत्ता बढे वृद्धि करती है और बिना श्रम किये, बिना निवेश के अर्थार्जन के अवसर निर्माण करती है। इससे एक आभासी अर्थव्यवस्था पैदा होती है जो समृद्धि नहीं, समृद्धि का आभास उत्पन्न करती है । आभासी समृद्धि से दारिद्य बढ़ता है।  
 
# भौतिक वस्तुओं के उत्पादक और उपभोक्ता के मध्य कम से कम दूरी और कम से कम व्यवस्थायें होनी चाहिये । पैकिंग, संग्रह और सुरक्षा की व्यवस्था, परिवहन, बिचौलिये, वितरण की युक्ति प्रयुक्ति, विज्ञापन ये सब अनुत्पादक व्यवस्थायें हैं जो वस्तुओं की कीमतो में बिना गुणवत्ता बढे वृद्धि करती है और बिना श्रम किये, बिना निवेश के अर्थार्जन के अवसर निर्माण करती है। इससे एक आभासी अर्थव्यवस्था पैदा होती है जो समृद्धि नहीं, समृद्धि का आभास उत्पन्न करती है । आभासी समृद्धि से दारिद्य बढ़ता है।  

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