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१. गुरुदक्षिणा से गुरु का जीवन निर्वाह होता है। परन्तु यह मात्र गुरु का व्यक्तिगत निर्वाह नहीं होता। गुरु का गुरुकुल होता है, सम्पूर्ण गुरुकुल का निर्वाह इससे होता है।  
 
१. गुरुदक्षिणा से गुरु का जीवन निर्वाह होता है। परन्तु यह मात्र गुरु का व्यक्तिगत निर्वाह नहीं होता। गुरु का गुरुकुल होता है, सम्पूर्ण गुरुकुल का निर्वाह इससे होता है।  
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२. तथापि गुरुदक्षिणा का नियमन और सूत्रसंचालन गुरु के हाथ में नहीं होता। इसी प्रकार गुरु और शिष्य के अतिरिक्त अन्य किसी तीसरे पक्ष के (आज की भाषा
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२. तथापि गुरुदक्षिणा का नियमन और सूत्रसंचालन गुरु के हाथ में नहीं होता। इसी प्रकार गुरु और शिष्य के अतिरिक्त अन्य किसी तीसरे पक्ष के (आज की भाषा में कहना हो तो संचालक और सरकार) हाथ में भी नहीं है। यह पूर्णरूप से शिष्य के ही हाथ में है।
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३. गुरुदक्षिणा विद्याध्ययन के बदले में ही दी जाती है, और उससे ही गुरु का जीवन निर्वाह चलता है यह वास्तविकता होते हुए भी इसमें जीवन निर्वाह की और गुरु द्वारा अध्यापन करवाने की गणना करने के स्थान पर कृतज्ञता एवं गुरुऋण से उऋण होने का भाव ही मुख्य है। विद्या एवं धन की बराबरी नहीं हो सकती। विद्या से धन श्रेष्ठ नहीं अपितु धन से विद्या श्रेष्ठ है। हमारे यहाँ यही स्वीकार्य है।
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४. गुरुदक्षिणा के बारे में कोई नियम, कोई कानून, कोई अनिवार्यता या कोई शर्त न होते हुए भी, हमारे सामने स्पष्ट है कि गुरु का जीवन निर्वाह इस पर ही निर्भर है फिर भी गुरु इसके बारे में तनिक भी चिन्ता करते नहीं । ऐसा होने पर भी गुरु का निर्वाह कभी रुकता नहीं। यह दर्शाता है कि विश्वास, श्रद्धा, आदर, कृतज्ञता और अपेक्षारहितता ये सब सामर्थ्य, कायदाकानून, नियम और शर्तों की अपेक्षा अधिक मूल्यवान हैं।
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गुरुदक्षिणा की संकल्पना श्रेष्ठ एवं संस्कारित समाज में ही सम्भव है। मनुष्य में निहित सद्वृत्ति के आधार पर ही ऐसी व्यवस्थाएँ सम्भव होती हैं। स्वार्थ, अप्रामाणिकता, कृतज्ञता का अभाव जैसी दुष्प्रवृत्तियाँ जब प्रबल बनती हैं तब शर्ते, कायदा-कानून भंग होते हैं, इसलिए दण्ड आदि सभी व्यवस्थाएँ करनी पड़ती हैं।
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समाज आधारित शिक्षण का यह उत्तम नमूना है। इसकी सम्पूर्ण व्यवस्था में शिक्षक और विद्यार्थी-गुरु और शिष्य - के बीच में अथवा इन दोनों का नियमन करने वाला कोई तत्त्व, कोई व्यवस्था नहीं होती। फिर यह सरकारी अर्थात् राजकीय और प्रशासनिक व्यवस्था भी नहीं है। यह सांस्कृतिक एवं सामाजिक व्यवस्था है।
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हमारा यह दृढ़ मत बना हुआ होता है कि आज के
    
आहति देने योग्य पदार्थ ही अहम माना जाता था। किन्तु इसका लाक्षणिक अर्थ है, गुरु के लिये उपयोगी हो ऐसा कुछ न कछ लेकर जाना। क्या आज हर विद्यालय सशुल्क ही चलता है । इसमें किसी को आपत्ति भी नहीं होती । विद्यालय की शुल्कव्यवस्था इस प्रश्नावली के प्रश्न पुछकर कुछ लोगों से बातचीत हुई उनसे प्राप्त उत्तर इस प्रकार रहे -
 
आहति देने योग्य पदार्थ ही अहम माना जाता था। किन्तु इसका लाक्षणिक अर्थ है, गुरु के लिये उपयोगी हो ऐसा कुछ न कछ लेकर जाना। क्या आज हर विद्यालय सशुल्क ही चलता है । इसमें किसी को आपत्ति भी नहीं होती । विद्यालय की शुल्कव्यवस्था इस प्रश्नावली के प्रश्न पुछकर कुछ लोगों से बातचीत हुई उनसे प्राप्त उत्तर इस प्रकार रहे -
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