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==== भिक्षा ====
 
==== भिक्षा ====
यह बहुत प्रसिद्ध व्यवस्था है। भिक्षा आचार्यों और छात्रों की दिनचर्या का अनिवार्य हिस्सा था। आज भिक्षा को भीख कहकर हेय दृष्टि से देखा जाता है और कोई भी भीख मांगने के लिये इच्छुक नहीं होता है। परन्तु जिस समय गुरुकुल सुप्रतिष्ठित अवस्था में थे तब भिक्षा आचार्यों और छात्रों के लिये मान्य व्यवहार था । जिस प्रकार स्नान
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यह बहुत प्रसिद्ध व्यवस्था है। भिक्षा आचार्यों और छात्रों की दिनचर्या का अनिवार्य हिस्सा था। आज भिक्षा को भीख कहकर हेय दृष्टि से देखा जाता है और कोई भी भीख मांगने के लिये इच्छुक नहीं होता है। परन्तु जिस समय गुरुकुल सुप्रतिष्ठित अवस्था में थे तब भिक्षा आचार्यों और छात्रों के लिये मान्य व्यवहार था । जिस प्रकार स्नान-ध्यान करना, स्वाध्याय करना, अध्ययन अध्यापन करना  स्वाभाविक था उसी प्रकार भिक्षा माँगना भी स्वाभाविक काम माना जाता था। उसमें किसी प्रकार का संकोच या लज्जा का भाव नहीं था। आज हम भीख को सामाजिक जीवन से बहिष्कृत करना चाहते हैं। बिना कोई उद्योग किये,बिना अधिकार के मुफ्त में कुछ प्राप्त करने की वृत्ति को हम भीख कहते हैं । भिखारी को समाज में प्रतिष्ठायुक्त स्थान प्राप्त नहीं है। अमेरिका जैसे देशों में भीख माँगने वालों को कारावास में डाला जाता है। परन्तु हमारे सामाजिक सांस्कृतिक इतिहास में 'भिक्षा' को हेय दृष्टि से नहीं देखा गया है। उसे एक आवश्यक और उपयोगी व्यवस्था के रूप में स्थापित किया गया । उदाहरण के लिये संन्यासी भिक्षा माँगकर ही अपना निर्वाह करता है परन्तु वह छोटे-बड़े सबके लिये आदरणीय ही होता है। साधु भिक्षा माँगता है परन्तु साधु को भिक्षा के साथ-साथ आदर भी मिलता है। तात्पर्य यह है कि भिक्षा कोई क्षुद्र क्रिया नहीं है। इस बात को ध्यान में रखकर भारत में शिक्षा के साथ भिक्षा व्यवस्था किस प्रकार जुड़ी हुई है यह देखें।
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सामान्य अर्थ में हम यही मानते हैं कि भिक्षा माँगना याने भीख माँगना । भीख माँगने की क्रिया को हम तिरस्कारयुक्त दृष्टि से देखते हैं। बिना कोई उद्यम किये, बिना अधिकार के मुफ्त में कुछ प्राप्त करने की वृत्ति को हम भिक्षा माँगना कहते हैं। भिखारी को समाज में प्रतिष्ठायुक्त स्थान प्राप्त नहीं होता है।
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परन्तु हमारे सामाजिक सांस्कृतिक इतिहास में 'भिक्षा' शब्द को अथवा भिक्षा माँगने की क्रिया को हेय दृष्टि से नहीं देखा गया है। उदाहरण के लिये संन्यासी भिक्षा माँगकर ही अपना निर्वाह करता है । यह सर्वमान्य प्रथा है, और संन्यासी छोटे बड़े सभी के लिये आदरणीय है। साधु भिक्षा माँगता है परंतु साधु को भिक्षा के साथ साथ आदर भी मिलता है। तात्पर्य यह है कि 'भिक्षा' कोई क्षुद्र शब्द या क्षुद्र क्रिया नहीं है । इस एक बात को ध्यान में रखकर अब भारतीय शिक्षा व्यवस्था के साथ भिक्षा किस प्रकार से जुड़ी हुई है यह समझने का प्रयास करेंगे।
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१. हम गुरुकुलों एवं आश्रमों के विषय में पढ़ते हैं कि वहाँ विद्याध्ययन करने वाले छात्र भिक्षा माँगने हेतु जाते थे। भिक्षा लाकर गुरु को अर्पित करते थे । लाई हुई भिक्षा में से गुरु जो देते थे वही लेते थे और सन्तुष्ट रहते थे।
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२. सामान्य रूप से अन्न ही भिक्षा में लिया जाता होगा ऐसी हमारी धारणा बनती है परन्तु यह भी मान सकते हैं कि वस्त्र, और यज्ञ करना है तो यज्ञ की सामग्री की भी भिक्षा हो सकती है।
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३. निर्वाह के लिये अन्न और वस्त्र के अतिरिक्त अनेक छोटी मोटी चीजों की आवश्यकता होती है, यथा निवास, आसन, बिस्तर, पात्र आदि । इन विषयों में अनेक प्रकार से संयम किया जाता था। यथा अध्ययन हेतु बैठना है तो भूमि को साफ करना और बैठना, पर्णों की शैय्या पर सोना, पर्गों से ही पत्तल और दोना बना लेना, गोबर से भूमि लीपना आदि के लिये न पैसा खर्च करना पड़ता है न किसी से माँगना पडता है। कुटिया भी चाहिये तो स्वयं बना सकते है।
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४. आश्रम अथवा गुरुकुल की सर्व प्रकार की व्यवस्था करने का दायित्व गुरु का होता है। वे करते भी हैं। तो भी भोजन व्यवस्था के लिये समाज पर ही निर्भर करना होता है । भिक्षा माँगकर लाने का कार्य शिष्यों को ही करना होता है, गुरु को नहीं । शिष्य भिक्षा माँगकर लायेंगे तो भी भिक्षा पर अधिकार गुरु का ही होता है, शिष्यों का नहीं। लाई हई भिक्षा की व्यवस्था गुरु ही करते हैं। उदाहरण के लिये कोई शिष्य मिष्टान्न लाता है और कोई सादी रोटी लाता है। परन्तु मिष्टान्न लाने वाले को मिष्टान्न मिलेगा और रोटी लाने वाले को रोटी ऐसा नहीं होगा। हो सकता है कि मिष्टान्न लाने वाले को गुरु मिष्टान्न दें ही नहीं । ज्यादा भिक्षा लाने वाले को ज्यादा हिस्सा मिलेगा ऐसा भी नहीं होगा।
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५. भिक्षा लाने वाला शिष्य आश्रम में लाने से पूर्व उसे खा नहीं लेता है। ऐसा करना अपराध माना जायेगा । उसका शिष्यत्व कम हो जायेगा।
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६. अन्नसत्र या सदाव्रत में जाकर भिक्षा नहीं लाई जाती, गृहस्थ के घर जाकर ही भिक्षा माँगी जाती है। भिक्षा माँगना ब्रह्मचारी का कर्तव्य भी है और अधिकार भी है। ब्रह्मचारी को भिक्षा देना गृहस्थाश्रमी का कर्तव्य है, दायित्व है।
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७. भिक्षा माँगते समय 'यही चाहिये' और 'यह नहीं चाहिये' ऐसा नहीं कहा जाता । गृहिणी जो देती है और जितना देती है उतना ही लिया जाता है । जो मिलता है उसके प्रति अरुचि, नाराजी, असन्तोष नहीं दर्शाया जा सकता है । कोई पूर्वव्यवस्था भी नहीं की जाती। जहाँ अच्छी भिक्षा मिलती है वहाँ प्रतिदिन जाना भी मना है। अपने सगेसम्बन्धियों के घर जाना भी मना है।
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८. शिक्षा की अर्थव्यवस्था के कुछ आयामों के साथ भिक्षा की योजना को जोड़कर विचार करने पर कुछ सूत्र समझ में आयेंगे।
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१. भोजन छात्रों के निर्वाहखर्च का एक बड़ा हिस्सा है। उस हिस्से को पूरा करने के दायित्व में समाज का सीधा सहभाग भिक्षा के रूप में है। साथ ही अध्ययन करने वाले शिष्यों का भी सीधा सहभाग है। इस प्रकार अध्ययन के साथ-साथ दायित्व निभाने की शिक्षा भी मिलती है।
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२. विद्यादान का शुल्क तो लिया नहीं जाता अतः शिष्य शुल्क नहीं देंगे। शिक्षा संस्था चलाने के लिये अनुदान भी नहीं लिया जाता क्यों कि अनुदान की शर्तों के कारण स्वतंत्रता और स्वायत्तता का लोप होता है। फिर भी समाज की सहभागिता तो होनी ही चाहिये। अतः भिक्षा के रूप में समाज अपना दायित्व निभाता है।
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३. भिक्षा माँगना अध्ययन करने वाले का नैतिक अधिकार है, कानूनी नहीं । भिक्षा माँगने की पात्रता सद्गुण, सदाचार, संयम, विनय, शील आदि से आती है। भिक्षा व्यवस्था में चरित्र की शिक्षा अपने आप प्राप्त होती है। भिक्षा के निमित्त से घर घर जाना पड़ता है और समाज से सम्पर्क बना रहता है । मानव स्वभाव, समाज की स्थिति, व्यवहार की जटिलता अपने आप सीखने को मिलते हैं। यह बहुत बड़ी सामाजिक शिक्षा है।
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४. भिक्षा के माध्यम से समाज पर आधारित रहना पड़ता है। अतः संपन्न परिवार से आने वाले छात्रों का अहंकार नियंत्रित होता है और गरीब परिवार से आने वाले छात्रों में हीनता भाव नहीं आता ।
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५. समाज भी अध्ययन करने वाले छात्र और विद्यासंस्था के प्रति अपना दायित्व समझता है । भिक्षा मिलती है इसलिये विद्यासंस्था समाज की ऋणी रहती है और अपना सामाजिक दायित्व निभाने के लिये तत्पर बनती है। दूसरी ओर विद्यासंस्था समाज को शिक्षित और संस्कारित नागरिक देती है यह समाज पर बहुत बड़ा उपकार है इसका बोध समाज को भी होता है। इसलिये उस विद्यासंस्था का पोषण करने का अपना दायित्व है इसका भी बोध बना रहता है।
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इस व्यवस्था में एक बात यह भी उभर कर आती है कि भिक्षा जैसी व्यवस्था का आर्थिक उपयोजन होने पर भी आर्थिक विचार ही प्रमुख तत्त्व नहीं है। आर्थिक पक्ष से जुड़े हुए धन की चिन्ता या गिनती, उपकार से दबना या हमेशा देने वाले के अधीन रहने की वृत्ति - ये सब अत्यन्त गौण हैं। दोनों पक्षों का दायित्वबोध और चरित्रनिर्माण ही प्रमुख अंग हैं।
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भिक्षाव्यवस्था को अक्षरशः नहीं अपितु उसका तात्पर्य समझकर शिक्षा की वर्तमान अर्थव्यवस्था में यदि हम परिवर्तन कर सकते हैं तो आज भी हम शिक्षा को कल्यणकारी बना सकते हैं।
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==== गुरुदक्षिणा ====
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शिक्षा के और गुरुकुल के सन्दर्भ में यह एक ऐसी व्यवस्था है जिसका नाम अत्यन्त आदर और गौरव के साथ लिया जाता है। छात्र जब अपना अध्ययन पूर्ण करता है और समावर्तन संस्कार के बाद गुरुकुल छोड़कर अपने घर की ओर प्रस्थान करता है तब वह गुरुदक्षिणा देता है।
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गुरुदक्षिणा शब्द हमारे देश में अत्यधिक प्रचलित है।
    
आहति देने योग्य पदार्थ ही अहम माना जाता था। किन्तु इसका लाक्षणिक अर्थ है, गुरु के लिये उपयोगी हो ऐसा कुछ न कछ लेकर जाना। क्या
 
आहति देने योग्य पदार्थ ही अहम माना जाता था। किन्तु इसका लाक्षणिक अर्थ है, गुरु के लिये उपयोगी हो ऐसा कुछ न कछ लेकर जाना। क्या
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