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==== ५. हीनताबोध से मुक्ति ====
 
==== ५. हीनताबोध से मुक्ति ====
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१. आत्मविश्वास के अभाव का एक बड़ा कारण हीनताबोध है। हीनताबोध एक मानसिक रोग है। वर्तमान में इस रोग से मुक्ति प्राप्त किये बिना भारत का विकास नहीं हो सकता है, उसका खोया हुआ आत्मविश्वास भी पुनः प्राप्त नहीं कर सकता है।
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२. ब्रिटीश शासन के दौरान उनके द्वारा किय गये शोषण, उत्पीडन, अत्याचार, तिरस्कार, अवमानना, अपमान के चलते और बात बात में अपनी श्रेष्ठता का बखान करने की प्रवृत्ति के चलते हीनता का बोध भारतीय प्रजा के जेहन में उतरगया है । अब भारत को अपनी हर बात में हीनता दिखाई देती है। इसका इलाज करने की आवश्यकता है।
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३. ब्रिटीशों द्वारा जब अपनी श्रेष्ठता का बखान किया जाता था तब उसमें कोई तर्क नहीं था, अज्ञान और अहंकार था। उदाहरण के लिये टॉमस बेबिंग्टन मेकाले कहता था कि इंग्लैण्ड के एक प्राथमिक विद्यालय के ग्रन्थालय की एक आलमारी के एक शेल्फ में जो पुस्तकें हैं, उनमें जो ज्ञान है वह भारत के ग्रन्थालयों में रखे सारे ग्रन्थों में समाये हए ज्ञान से श्रेष्ठ है । यह मिथ्या गर्वोक्ति है । मेकाले न तो भारत की ग्रन्थसम्पदा को जानता था न भारतीयों के उन ग्रन्थों के प्रति आदर को । फिर भी वह एसी गर्वोक्ति कर सकता था क्योंकि वह भारत की अवमानना करना चाहता था। उसकी उक्ति कोई तुलनात्मक अध्ययन का निष्कर्ष नहीं था।
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४. उसकी गर्वोक्ति का हम पर असर क्यों हुआ ? बौद्धिक प्रतीति के कारण नहीं। कीटभ्रमर न्याय से हम ब्रिटीशों से आतंकित हुए और उनका कहा मानने लगे। हमारे अन्दर का भय और आतंक अभी तक गया नहीं है। उससे प्रेरित होकर आज भी हम अंग्रेजी और यूरोपीय ज्ञान को श्रेष्ठ मानते हैं । इलाज इस भय का होना चाहिये ।
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५. हीनता बोध से मुक्ति मनोवैज्ञानिक उपायों से ही प्राप्त हो सकती है। तार्किक चर्चाओं से नहीं । दसियों तर्क और प्रमाण प्रस्तुत करने के बाद भी आतंक समाप्त नहीं होता यह सबका अनुभव है। मनोवैज्ञानिक तरीके अपनाने का साहस बौद्धिक जगत में होता नहीं है।
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६. जिससे भय है उससे दूर भागना, दूरी बनाये रखना यह व्यावहारिक समझदारी है। जिसने प्रताडना दी है उसके पास नहीं जाना यह स्वाभाविक प्रवृत्ति है। परन्तु भयभीत और प्रताडित करने वाले ने अपनी श्रेष्ठता यदि हमारे चित्त में अंकित कर दी है तो उससे बचना कठिन हो जाता है। आज उसी कठिनाई का सामना हम कर रहे हैं।
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७. एक नीति और रणनीति के तहत हम तय करें कि हम अंग्रेजी नहीं बोलेंगे, अंग्रेजी में लिखी किसी पस्तक को नहीं पढेंगे, यूरोपीय पदार्थ नहीं खायेंगे, यूरोपीय वेश नहीं पहनेंगे, यूरोपीय व्यवस्थाओं को अपने घरों, विद्यालयों और कार्यालयों में स्थान नहीं देंगे। तो क्या होगा ? क्या ब्रिटीश भारत में नहीं आये थे तब तक देश नहीं चलता था ?  कदाचित अच्छे से चलता था।
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८. परन्तु ऐसा बोलने की और करने की हिम्मत हम नहीं कर सकते हैं । तुरन्त ही प्रतितर्क शुरू हो जाते हैं । अंग्रेजी में क्या बुराई है ? यूरोपीय वेश पहनने से क्या हम भारतीय नहीं रहते ? पित्झा खाने से क्या हम भ्रष्ट हो जायेंगे ? खानपान, वेशभूषा, शिष्टाचार तो बाह्य बातें हैं । अन्दर से तो हम भारतीय ही हैं। हमें अंग्रेजी से भय कैसा ?
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९. परन्तु यह झूठा तर्क है। हमारे अन्दर बैठा हुआ अंग्रेजी हमें ऐसा बोलने के लिये बाध्य करता है। यह तो घोर हीनताबोध का ही लक्षण है। स्थिति ऐसी है कि हम तो नहीं समझेंगे परन्तु कोई हमें इस स्थिति से बलपूर्वक उबारे तभी हम बाहर आ सकते है।
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१०. कोई तानाशाह बेरहमी से घोषणा करे कि आज से, इसी क्षण से अंग्रेजी और अंग्रेजी के सभी चिह्न इस देश में प्रतिबन्धित हैं और उसे अपने पास रखने वाले को कठोर दण्ड मिलेगा तभी हम मानेंगे। रोयेंगे, चिल्लायेंगे, विरोध करेंगे, आन्दोलन करेंगे, चुनाव में मत नहीं देंगे परन्तु तानाशाही के आदेश को मानना पडेगा। हमारी नई पीढी अंग्रेजी और अंग्रेजीयत से 'वंचित' रहेगी । तब एक या दो पीढियों के बाद हम हीनताबोध के रोग से मुक्त होंगे । इझरायेलने हिब्रू को लेकर ऐसा किया ही था।
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११. या विभिन्न पंथों के धर्माचार्य अपने अनुयायिओं को कठोर प्रतिज्ञा करवायें कि अंग्रेजी और अंग्रेजीयत् का अनुसरण करने वाला धर्मद्रोही माना जायेगा, उसे पाप लगेगा और वह घोर नर्क में जायेगा। तब धर्म के भय से लोग अंग्रेजी को छोडेंगे ।
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१२. या कोई चमत्कार हो कि एक दिन सुबह होते ही लोग जागें तब वे अंग्रेजी और अंग्रेजीयत को सर्वथा भूल गये हों, जैसे मृत्यु के बाद पुनर्जन्म होता है और पूर्वजन्म की स्मृति नहीं रहती। या भूतप्रेत की बाधाओं को झाडफूंक के उपायों से दूर भगानेवाला
    
==References==
 
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