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# जैविक तंत्रज्ञान अनैतिक है। जैविक तन्त्रज्ञान सूक्ष्म तन्त्रज्ञान है। सूक्ष्म का अर्थ है अधिक बलवान। अधिक व्यापक। इन का चार या दस पीढियों के बाद की पीढियों पर क्या परिणाम होगा यह समझना इनका विकास करनेवालों के लिये संभव ही नहीं है। फिर भी कुछ प्रयोगों के आधार पर प्रतिजैविकों को मनुष्य के लिये योग्य होने की घोषणा अनैतिक ही है। एक ही पीढी में तेजी से परिवर्तन करनेवाले जैविक तन्त्रज्ञान प्रकृति में जो सहज परस्परावलंबन है उस की किसी कडी को हानि पहुँचाते हैं। लाखों की संख्या में जो जीवजातियाँ हैं उन के इस परस्परावलंबन को पूरी तरह से समझना असंभव है। फिर भी इस का झूठा दावा कर जैविक परिवर्तन करने के तन्त्रज्ञान वर्तमान में बाजार व्याप रहे हैं। ऐसे तन्त्रज्ञान सर्वथा अमान्य हैं।      
 
# जैविक तंत्रज्ञान अनैतिक है। जैविक तन्त्रज्ञान सूक्ष्म तन्त्रज्ञान है। सूक्ष्म का अर्थ है अधिक बलवान। अधिक व्यापक। इन का चार या दस पीढियों के बाद की पीढियों पर क्या परिणाम होगा यह समझना इनका विकास करनेवालों के लिये संभव ही नहीं है। फिर भी कुछ प्रयोगों के आधार पर प्रतिजैविकों को मनुष्य के लिये योग्य होने की घोषणा अनैतिक ही है। एक ही पीढी में तेजी से परिवर्तन करनेवाले जैविक तन्त्रज्ञान प्रकृति में जो सहज परस्परावलंबन है उस की किसी कडी को हानि पहुँचाते हैं। लाखों की संख्या में जो जीवजातियाँ हैं उन के इस परस्परावलंबन को पूरी तरह से समझना असंभव है। फिर भी इस का झूठा दावा कर जैविक परिवर्तन करने के तन्त्रज्ञान वर्तमान में बाजार व्याप रहे हैं। ऐसे तन्त्रज्ञान सर्वथा अमान्य हैं।      
 
# इसी तरह से नैनो तन्त्रज्ञान भी सूक्ष्म तन्त्रज्ञान है। इनका भी चराचर के ऊपर क्या और कैसा सूक्ष्म प्रभाव होगा इसकी जानकारी नहीं होती। लाखों जीवजातियों के ऊपर इनका होनेवाला सूक्ष्म प्रभाव जानना असंभव है।      
 
# इसी तरह से नैनो तन्त्रज्ञान भी सूक्ष्म तन्त्रज्ञान है। इनका भी चराचर के ऊपर क्या और कैसा सूक्ष्म प्रभाव होगा इसकी जानकारी नहीं होती। लाखों जीवजातियों के ऊपर इनका होनेवाला सूक्ष्म प्रभाव जानना असंभव है।      
== भारतीय विद्वानों में हीनता बोध ==
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गुलामी गई किन्तु गुलामी की मानसिकता नहीं गई। स्वामी विवेकानंद कहते थे कि हम अपने मनीषियों और तपस्वियों के अनुभव को नहीं मानेंगे, किन्तु वही बात जब किसी मिश्टर हक्सले या मिश्टर टिंडल ने कही है, तो उसे सत्य मान लेंगे। साहेब वाक्यं प्रमाणम् की मानसिकता आज भी बदली नहीं है।
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यह हीनता बोध १० पीढियों से चली आ रही अधार्मिक (अभारतीय) शिक्षा के कारण और गहरा होता जा रहा है। इस शिक्षा के कारण लोगों को लगने लगा है कि भारत के पास विश्व को देने के लिये कुछ भी नहीं है। विश्व में कुछ भी श्रेष्ठ है तो वह यूरो अमरिकी देशों की देन है। डॉ राधाकृष्णन जैसे कई ख्याति प्राप्त धार्मिक (भारतीय) विद्वानों ने भी कुछ लेखन ऐसा किया है जो धार्मिक (भारतीय) साहित्य और संस्कृति के प्रति हीनता का भाव निर्माण करने वाला है।<ref>व्हॉट इंडिया शुड नो, भारतीय विद्या भवन द्वारा प्रकाशित </ref> भारतीयता की विकृत समझ रखने वाले नौकरशाहों और शासकीय नीतियों ने भी इस हीनता बोध को बढाया ही है।
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== जीवन का पूरा प्रतिमान ही अभारतीय ==
 
== जीवन का पूरा प्रतिमान ही अभारतीय ==
 
अंग्रेजों ने हमारे पूरे जीवन के धार्मिक (भारतीय) प्रतिमान को ही नष्ट कर उस के स्थान पर अपना अंग्रेजी जीवन का प्रतिमान स्थापित कर दिया है। जीवन दृष्टि, जीवन शैली (व्यवहार सूत्र) और सामाजिक जीवन की व्यवस्थाएं इन को मिलाकर जीवन का प्रतिमान बनता है। हमारी जीवन दृष्टि, जीवन शैली (व्यवहार सूत्र) और सामाजिक जीवन की व्यवस्थाएं सभी अधार्मिक (अभारतीय) बन गये हैं। यदि कुछ शेष है तो पिछली पीढियों के कुछ लोग जो धार्मिक (भारतीय) जीवनदृष्टि को जानने वाले हैं। व्यवहार तो उन के भी मोटे तौर पर अधार्मिक (अभारतीय) जीवनदृष्टि के अनुरूप ही होते हैं। युवा पीढ़ी के तो शायद ही कोई धार्मिक (भारतीय) जीवन दृष्टि से परिचित होंगे। जब जीवन दृष्टि से ही युवा पीढ़ी अपरिचित है तो धार्मिक (भारतीय) जीवनशैली और जीवन व्यवस्थाओं की समझ की उन से अपेक्षा भी नहीं की जा सकती।
 
अंग्रेजों ने हमारे पूरे जीवन के धार्मिक (भारतीय) प्रतिमान को ही नष्ट कर उस के स्थान पर अपना अंग्रेजी जीवन का प्रतिमान स्थापित कर दिया है। जीवन दृष्टि, जीवन शैली (व्यवहार सूत्र) और सामाजिक जीवन की व्यवस्थाएं इन को मिलाकर जीवन का प्रतिमान बनता है। हमारी जीवन दृष्टि, जीवन शैली (व्यवहार सूत्र) और सामाजिक जीवन की व्यवस्थाएं सभी अधार्मिक (अभारतीय) बन गये हैं। यदि कुछ शेष है तो पिछली पीढियों के कुछ लोग जो धार्मिक (भारतीय) जीवनदृष्टि को जानने वाले हैं। व्यवहार तो उन के भी मोटे तौर पर अधार्मिक (अभारतीय) जीवनदृष्टि के अनुरूप ही होते हैं। युवा पीढ़ी के तो शायद ही कोई धार्मिक (भारतीय) जीवन दृष्टि से परिचित होंगे। जब जीवन दृष्टि से ही युवा पीढ़ी अपरिचित है तो धार्मिक (भारतीय) जीवनशैली और जीवन व्यवस्थाओं की समझ की उन से अपेक्षा भी नहीं की जा सकती।
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इस तरह इस से यह स्पष्ट होता है कि आत्म तत्व (इस मुख्य सेट का) यानी अध्यात्म के क्षेत्र के बुद्धि, मन और इन्द्रियाँ यह एक-एक हिस्से (सब-सेट) हैं। इसे समझने के उपरांत साईंस जो आज पंचमहाभूतों में उलझ गया है उस का मन, बुद्धि और अहंकार के अध्ययन का क्षेत्र खुल जाता है।
 
इस तरह इस से यह स्पष्ट होता है कि आत्म तत्व (इस मुख्य सेट का) यानी अध्यात्म के क्षेत्र के बुद्धि, मन और इन्द्रियाँ यह एक-एक हिस्से (सब-सेट) हैं। इसे समझने के उपरांत साईंस जो आज पंचमहाभूतों में उलझ गया है उस का मन, बुद्धि और अहंकार के अध्ययन का क्षेत्र खुल जाता है।
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== एँथ्रॉपॉलॉजी (Anthropology) के तहत् शोध कार्य ==
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== मूल समस्या - एकात्म मानव दृष्टि का अभाव ==
अंग्रेजों के काल से ही भारत में जो शोध कार्य शुरू हुए, उन का आधार एँथ्रॉपॉलॉजी ही रहा। एँथ्रॉपॉलॉजी के धुरंधर विद्वान क्लॉड लेवी स्ट्रॉस के अनुसार “पराधीन, पराजित और खंडित समाज” इस की विषय वस्तू होते हैं। विजेता समाज विजित समाजों का अध्ययन करने के लिये जो उपक्रम करते हैं वही एँथ्रॉपॉलॉजी है। एँथ्रॉपॉलॉजी के अनुसार अपने समाज का अध्ययन नहीं किया जाता। पराजित समाज के विद्वान भी विजेता समाज का ऐसा अध्ययन नहीं करते। किन्तु धार्मिक (भारतीय) समाज के विद्वान अपने ही समाज का अध्ययन एँथ्रॉपॉलॉजी के अनुसार किये जा रहे हैं<ref>भारतीय चित्त, मानस और काल, धर्मपाल, पृष्ठ १४</ref>। आज भारत में यह सब अध्ययन धार्मिक (भारतीय) दृष्टि से नहीं अपितु यूरोपीय दृष्टि से चल रहे हैं।
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भारत पर किये जानने वाले शोध पर एक बिंदु विचारणीय है। इन शोधों का कोई लाभ भारत को या धार्मिक (भारतीय) समाज को नहीं मिलता। यह सब शोध कार्य भारत के विषय में होते हैं। भारत के लिये नहीं। इस लिये इन शोध कार्यों का वर्तमान और भावी भारत से कोई लेना देना नहीं होता। भारत में जाति व्यवस्था के विषय में कई शोध कार्य चल रहे होंगे। लेकिन उन का स्वरूप इस व्यवस्था को निर्दोष और युगानुकूल बनाने का नहीं है और ना ही किसी वैकल्पिक व्यवस्था का विचार इन शोध कार्यों में है। हजारों वर्षों से जाति व्यवस्था भारत में रही है। तो उस के कुछ लाभ होंगे ही। उन लाभों का और उस के कारण हुई हानियों का विश्लेषणात्मक अध्ययन करना इन शोध कार्यों का उद्देश्य नहीं है।
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वास्तव में नई व्यवस्था के निर्माण से पहले पुरानी व्यवस्था को तोडना या टूटने देना यह बुद्धिमान समाज का लक्षण नहीं है। लेकिन हम ठीक ऐसा ही कर रहे हैं। महाकवि कालिदास कहते हैं:<ref>'''मालविकाग्निमित्रम्, महाकवि कालिदास'''</ref><blockquote>पुराणमित्येव न साधु सर्वं न चापि काव्यं नवमित्यवद्यम् ।</blockquote><blockquote>अर्थ: पुरानी होने से ही न तो सभी वस्तुएँ अच्छी होती हैं और न नयी होने से बुरी तथा हेय।</blockquote>और यह भी कहा गया है{{Citation needed}} :
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युक्तियुक्तं वचो ग्राह्यं बालादपि शुकादपि ।
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अयुक्तियुक्तं वचो त्याज्यं बालादपि शुकादपि  ।।
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== मूल समस्या - एकात्म मानव दृष्टि का अभाव ==
   
हम कहते तो हैं कि धार्मिक (भारतीय) दृष्टि हर बात को समग्रता से देखने की है। अभारतीयों जैसा हम टुकडों में विचार नहीं करते। किन्तु १० पीढियों की अधार्मिक (अभारतीय) शिक्षा के कारण प्रत्यक्ष में तो हम भी टुकडों में ही विचार करने लग गये हैं। अधिकारों के लिये लडने लग गये हैं।  
 
हम कहते तो हैं कि धार्मिक (भारतीय) दृष्टि हर बात को समग्रता से देखने की है। अभारतीयों जैसा हम टुकडों में विचार नहीं करते। किन्तु १० पीढियों की अधार्मिक (अभारतीय) शिक्षा के कारण प्रत्यक्ष में तो हम भी टुकडों में ही विचार करने लग गये हैं। अधिकारों के लिये लडने लग गये हैं।  
  

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