वर्तमानकालीन वैश्विक परिस्थिति

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आज विश्वमें बहुत बडी उठापटक हो रही है। जिस युरोप ने एशिया, आफ्रिका एवं लेटिन अमरिका में अपने उपनिवेश स्थापित किये हुए थे, अपने साम्राज्य खडे किये थे, वही युरोप वर्तमान में पतन की कगार पर खडे होने का अनुभव कर रहा है। जब कि उपरोक्त त्रिखंड में से एक एशिया विकासमार्ग का यात्री है। स्वातंत्र्यवीर सावरकर ने सन १९०२ में अपनी एक कविता में 'विश्वमें आज तक शाश्वत क्या रहा है ?' ऐसा प्रश्न उपस्थित किया था । वर्तमान में वही प्रश्न अत्यंत प्रासंगिक सिद्ध हुआ है।

गत वर्ष में सोवियट संघ के विध्वंस के पचीस साल पूरे हुए। तो इस वर्ष युरोपिअन युनिअन के जन्म को पचीस वर्ष पूरे हो रहे हैं । परंतु अपनी पचीसी पूरी कर रहे युरोपिअन युनिअन को अपना कोई भविष्य है कि नहीं यह प्रश्न विश्व के विचारक लोग पूछने लगे हैं। तात्पर्य यह है कि 'वर्तमानकालीन वैश्विक परिस्थिति' यह विषय सांप्रत अत्यंत महत्त्वपूर्ण और प्रस्तुत है । इस लेख में जिस क्रम से हम विषय का विवेचन करने जा रहे हैं वह इस प्रकार है -

  1. सोवियत संघ का विनाश,
  2. युरो अटलान्टिक विश्व का (युरोपिअन युनिअन और अमरिका) पतन की दिशामें प्रवास और इन्डो पॅसिफिक विश्व का उदय (एशिया खंड की उन्नति) ,
  3. इस्लामिक आतंकवाद का प्रसार और
  4. चीन का उत्पात ।

सोवियत संघ का विनाश

सन १९१७ में रुस में बोल्शेविक क्रान्ति हुई। सन २०१७ में उस क्रान्ति की शताब्दी पूरी हो रही है। परन्तु उस क्रान्ति के कारण पूरे विश्व में श्रमिकों का राज्य लागू हो जायेगा ऐसे भविष्यकथन के मूल पर ही आघात हुआ है। जो कुछ भी पुराना है उसे नष्ट कर देने का उद्घोष करते हुए सन १९२२ में उदयमान हुआ सोवियत संघ अपने अस्तित्व के पचहत्तर साल पूरे करने से पूर्व ही मृतावस्था को प्राप्त हो गया । मार्क्सवाद को व्यवहार में कार्यान्वित करने के हेतु से सोवियत संघ का जन्म हुआ था परंतु मार्क्सवाद की गिनती के अनुसार मूडीवाद के पतन के पश्चात समाजवाद का उदय अपेक्षित था । रुस में तो सन १९१७ में सामंतवाद अस्तित्व में था ही । अर्थात नियति को अनदेखा कर के ही सोवियत संघ नामक शिशु समयपूर्व ही जन्म ले चूका था । सुमंत बेनर्जी नामक एक साम्यवादी चिंतक ने इसीलिये इस बात का विश्लेषण करते हुए महाभारत के अष्टावक्र की कथा सुनाई है । अष्टावक्र माता की कोख में था । वहां से ही उसने जन्मदाता पिता के साथ विवाद किया और उसके परिणाम स्वरूप पिताने शाप दिया 'बेटम जी, आप जन्म लेंगे वही अष्टावक्र हो कर !'आठ अंगो से वक्र, विकृत अष्टावक्र ने ही सन १९१७ में बोल्शेविक क्रान्ति के बाद सोवियत युनियन के स्वरूप में जन्म लिया ।

पंडित दीनदयाल उपाध्याय के कथनानुसार जो समाज अपना सर्वस्व राज्य शासन के हाथ में सोंप देता है वह जीते जी अपनी कबर तैयार करता है। दीनदयालजी की यह मीमांसा भी सुमंत बेनर्जी के विश्लेषण के साथ सुसंगत है । जिस गति से कम्युनिस्ट पार्टी ने सत्ता में आने के बाद औद्योगीकरण को बढावा दिया, भौतिक चीजों का उत्पादन बढाने का प्रारम्भ किया और नौकरशाही के माध्यम से प्राचीन संस्थाओं को और चिन्हों को नष्ट करने का बीडा उठाया वह बड़ा विस्मयकारक था । परन्तु बाढ़ के पानी से जो उथल पुथल मचती है वह पानी उतर जाने के बाद अति शीघ्र समाप्त भी हो जाती है। सोवियत संघ में भी वही हुआ । अर्थात दूसरे महायुद्ध में जर्मन सैन्य को मिट्टी में मिलाने वाले सोवियत युनिअन ने विश्व को प्रभावित किया था इस में कोई सन्देह नहीं है परन्तु वह विजय रुसी राष्ट्रवाद का था, सोवियत समाजवाद का नहीं । स्वाभाविक रूप से दूसरे महायुद्ध के बाद विजय का नशा उतरने के साथ ही स्तालिन की स्मृति का निष्कासन, निजी साहस का प्रारम्भ और लाभ के प्रेरणास्रोत को आमंत्रण, ब्रेझनेवकालीन गतिशून्यता और फिर प्रचंड गति से मृत्यु की दिशा में दौड और अंत में सर्वनाश यह भाटे की स्थिति यदि समज लेते हैं तो कम्युनिस्ट वर्ग की शोकांतिका ध्यान में आ जायेगी। पुराना सब मिट्टी में मिला दिया परंतु 'नवनिर्माण' के लिये अवकाश ही नहीं मिला, परिणामतः उसकी भग्नावस्था और मूल अवस्था ही सब के सामने आ गयी।

सन १९९१ में सोवियत संघ के पार्थिव में से पंद्रह राष्ट्रों का जन्म हुआ। इन राष्ट्रों में अब सोवियत पूर्व कालखंड का शोध प्रारम्भ हुआ है। मध्य एशिया के मुस्लिम राष्ट्र तो इस्लाम पूर्व का इतिहास जानने के लिये उतावले हो रहे हैं। अर्थात सन १९९१ से पूर्व 'नया सो चाहिये' यह मंत्र गूंज रहा था , परन्तु विगत छब्बीस वर्ष से 'पुराना सो बेहतर'यह कहावत मान्यता प्राप्त किये हुए है। सोवियत संघ के ध्वस्त होने के परिणाम स्वरूप अमरिका को आह्वान देने वाला एक ध्रुव समाप्त हो गया ऐसा कहा जाता है परन्तु मूलतः वह ध्रुव था ही नहीं. गीता में भी कहा गया है

यो ध्रुवाणी परित्यज्य अध्रुवं परिषेवते।

ध्रुवाणी तस्य नश्यन्ति अध्रुवम् नष्टमेवच ।।

युरो आटलिन्टिक विश्व का पतन और इन्डो पॅसिफिक विश्व का उदय

आट्लान्टिक महासागर के इर्दगीर्द मूडीवादी राष्ट्रों ने अपना डेरा जमाया है । एक समय था जब इन राष्ट्रों का बहुत बोलबाला था । ग्रेट ब्रिटन भारत पर राज्य जमाये हुए था, तो बेल्जियम जैसे छोटे राष्ट्र ने आफ्रिका के विस्तृत काँगो पर अधिराज्य स्थापित किया था । दूसरा महायुद्ध समाप्त हुआ और विभिन्न उपनिवेष पारतंत्र्य के बन्धन से मुक्त होने लगे । तब पश्चिम युरोप के भूतकालीन साम्राज्यों के समक्ष अस्तित्व का प्रश्न चिह्न उठ खडा हुआ। फिर उसी अस्तित्व को बनाये रखने के लिये सन १९५७ में, अर्थात ६० वर्ष पूर्व छः राष्ट्रों ने मिल कर 'युरोपिअन इकॉनोमिक कम्युनिटी' को जन्म दिया। सोवियत संघ ध्वस्त होने के बाद, सन १९९२ में उस कम्युनिटी में और छः राष्ट्र शामिल हुए और युरोपिअन युनिअन का उदय हुआ। सन २००४ में पूर्वी युरोप के सोलह राष्ट्रों ने उस युनिअन में प्रवेश लिया। इसका अर्थ हुआ ५१ कोटि जनसंख्या के २८ राष्ट्रों का युरोपिअन युनिअन सन १९५७ से २००४ तक विस्तारित होता रहा । इस विस्तार को ही किसी की बुरी नजर लग गई की क्या, पर उसी दौरान युरोप के दो बड़े राष्ट्र फ्रान्स और जर्मनी ने अमरिका के साथ वाक्युद्ध प्रारम्भ कर दिया । अमरिका युनाईटेड नेशन्स नामक वैश्विक संगठनकी परवा न करते हुए इराक में हस्तक्षेप करने के लिये आगे बढ़ गया था वह इस वाक्युद्ध का कारण था । स्वयं अमरिका के लिये भी पश्चिम युरोप के राष्ट्रों की मैत्री निरर्थक ही थी । मोस्को के विरुद्ध प्रतिक्रिया स्वरूप आटलांटिक के दोनों ओर जम कर बैठे राष्ट्र इकठ्ठे हुए। मॉस्को का किल्ला ध्वस्त होने के बाद युरोपियन युनिअन अप्रस्तुत सिद्ध हो रहा था । वॉशिंग्टन स्थित मूडीपतियों के ध्यान में आया कि उनके न्यूयोर्क स्थित 'ट्रिन टॉवर' अर्थात विश्व व्यापार संगठन पर जो हमला हुआ वह इस्लामी आतंकवादियों की ओर से हुआ था । सन २००१ का वह ११ सप्टेंबर का दिन था । उसके बाद ओसामा बिन लादेन और उसके साथियोंने सीधे अफघानिस्तान का रास्ता लिया । परिणाम स्वरूप अमरिका को स्वरक्षा के लिये अपना मोहरा युरोपसे हटाकर एशिया की ओर करना पड़ा। एशिया में तब तक चीन एक शक्तिशाली देश के रूप में उभर रहा था । अब जो चुनौति है वह चीन की ओर से है यह निष्कर्ष तक अमरिका पहुँच गया था । युरो आट्लांटिक विश्व का जो ह्रास प्रारंभ हुआ वह इस पृष्ठभूमि पर था । सन २००८ में लेहमन धोखाधड़ी का मामला सामने आया और अमरिका, ब्रिटन, फ्रांस, जर्मनी, स्पेन जैसे कई मूडीवादी देशों का विकास दर ७ प्रतिशत से नीचे आता हुआ २ प्रतिशत पर आ गया । सारांश यह कि सोवियत संघ समाप्त होने से युरोपिअन युनिअन के साथ की दोस्ती निरर्थक सिद्ध हुई। इस्लामी आतंकवाद समाप्त करने के लिये अपना मोर्चा युरोप से एशिया की ओर मोडना चाहिये यह नीति आकर्षक लगने लगी। चीन के विरुद्ध शक्ति केन्द्र विकसित करने होंगे तो एशिया में ही डेरा डालना पड़ेगा और विकास के मार्ग पर गतिशून्य सिद्ध हुए युरोप के देशों की ओर से विकास की ओर गति कर रहे एशियाई देशों की ओर आगे बढना चाहिये उस नीति का भी बीजारोपण हुआ । गत वर्ष ही ग्रेट ब्रिटन ने युरोपियन युनियन में से स्वयं को बाहर कर लिया है। हर एक युरोपीय देशों में देशीयता (नेटिविझम) अपने पैर जमाने लगी है। इसका तात्पर्य यह है कि स्थानिक भूमिपुत्रों को अधिक लाभ और बाहर के लोगोंं को कम , ऐसी भूमिका युरो अमरिकी देशों में स्थापित हो रही है। बहुविधता, अनेकविधता, सर्वसमावेशकता जैसे मंत्र युरोअमरिकी विश्व में कालबाह्य सिद्ध हो रहे हैं। स्मॉल इंग्लैंड (भूतपूर्व ग्रेट ब्रिटन), जर्मनी, फ्रांस, हॉलैंड जैसे युरोपियन राष्ट्र अब एशिया के साथ व्यापार बढाने के लिये उतावले हो रहे हैं। परिणामतः अंतर्राष्ट्रीय राजनीति एशिया एवम् इंडो पॅसिफिक विश्व की ओर मूडी है।

इस्लामी आतंकवाद का प्रसार

सन १९७९ में तत्कालीन सोवियत संघ ने अफघानिस्तान पर सैनिकी आक्रमण कर दिया । तब उस आक्रमण का मुकाबला करने के लिये अमरिकाने जिहादी तत्त्वों को निमंत्रित किया और तालिबान, अल कायदा, लष्कर ए तोयबा और बोको हराम जैसे आतंकी संगठनों का जो जन्म हुआ वह था अफघानिस्तान पर हए सोवियत आक्रमण के विरोध में । हमारा दुर्भाग्य रहा कि उसी दौरान पाकिस्तान को अमरिका की ओर से खाद पानी मिलना आरम्भ हुआ । ईक्कीसवीं शताब्दी का प्रारम्भ ही न्यूयोर्क पर हुए अति भयंकर आतंकी आक्रमण के साथ हुआ ।

शशी थरूर अत्यंत मार्मिक शब्दों में कहते हैं,

'present century is born in blood and baptized in fire!'

सन २००३ में अमरिकाने इराक पर हमला चढा कर सद्दाम को समाप्त किया । परिणामतः सुन्नी विरुद्ध शिया इस स्वरूप में भयानक संहार आरम्भ हुआ। इस्लामी आतंकवाद देखते ही देखते विश्व के सर्व देशों में प्रसारित हुआ। आफ्रिका खंड के नाईजीरिया, माली, घाना, जैसे अनेक देशों में बोको हराम ने कहर ढाया, रुस को चेचन्या के विद्रोहियों ने घायल किया और चीन में सीक्यांग प्रांत में इस्लामी आतंकवाद ने जन्म लिया । एक ओर सुन्नी पंथ वाले तो दूसरी ओर सुन्नी के विरुद्ध शिया, अलावी कुर्द इत्यादि पंथों के अनुयायी, ऐसा प्रकोप प्रारम्भ होने से पूरा अरब जगत आपदाग्रस्त हो गया । सुन्नी देश प्रारम्भ में मानते थे कि इस्लामिक स्टेट ऑफ इराक एंड सीरिया अर्थात आई एस आई एस संगठन केवल गैर सुन्नी को ही परेशान करेगा, परंतु एक बार कोई पंथ स्वयं को ही सत्य मान कर अन्य पंथों पर हमले करने लगता है तब उसी पंथ में उपपंथों का जन्म होता है और उनमें से प्रत्येक पंथ स्वयं को सत्य सिद्ध करने के प्रयास में रहता है । 'जो मेरे साथ नहीं है वह मेरा शत्रु है और उसे खतम ही करना है, उसका शरीर छिन्न विछिन्न करना है' यह सूत्र फिर अनेक भयंकर युद्धों को जन्म देता है। सीरियाने तो ऐसी भीषण लडाईयों की भीषण परिणति का अनुभव लिया है । विगत छः वर्ष में वहां पाँच लाख लोगोंं का लहू बहाया गया है। इजिप्त, सौदी, अरेबिया, तुर्कस्तान एवं पाकिस्तान जैसे सब देशों में आम तौर पर कत्तलें होती रहती हैं।

डॉ. अबूबक्र अल बगदादी नामक जिहादी सरदार ने इराक और सीरिया में इस्लामिक स्टेट के नाम से खिलाफत की स्थापना की और' मैं स्वयं ही खलीफा हूँ 'ऐसी घोषणा कर दी, तभी अल कायदा के सरदार एमान अल जवाहरी से भी अधिक शक्तिशाली मुखिया पैदा हुआ। उसके बाद अल नुस्रा, बोको हराम जैसे संगठनों ने उस मुखिया से संपर्क स्थापित किया। भारत सहित अनेक देशों में से इस्लामिक स्टेट के आदेशानुसार आत्मघाती पंथ के जथ्थे इराक की दिशामें आगे बढ़ने लगे । इराक और तुर्कस्तान में रह रहे कुर्द नागरिक इस्लामिक स्टेट एवं खिलाफत के क्रूर हमलों के शिकार हुए । हाल में ही अफघानिस्तान में भी इस्लामिक स्टेट ने अपना स्थान जमा लिया है। इस वर्ष सौदी अरेबिया की अगुवाई में ३९ सुन्नी मुस्लिम राष्ट्र एक झंडे के नीचे आ गये हैं । इन ३९ राष्ट्रों की युति का नेतृत्व पाकिस्तान के भूतपूर्व सरसेनापति जनरल राहील शरीफ के हाथों में सोंपा गया है। 'हमारी युति शांति की प्रस्थापना के लिये निर्माण की गई हैं' ऐसा दावा सौदी अरेबिया व पाकिस्तान के शासकों ने किया है। परंतु यह युति 'हम शिया राष्ट्रों के विरोध में खडी हुई है' ऐसी टिप्पणी इरान ने की है । तात्पर्य यह की इस्लामी आतंकवाद को समाप्त करने के लिये हमें पंथभेद भूल कर एक होना चाहिये यह समज अभी तक किसी को नहीं हुई है। परिणामतः पंथ बुद्ध, टोलीयुद्ध, वंश विच्छेद, अंधाधूंध हत्याएँ जैसी घटनाएँ विश्व में घटती ही रहेगी ऐसे दुश्चिन्ह् दिखाई दे रहे हैं।

चीनने मचाया हुआ उत्पात

आज चीन की महत्त्वाकांक्षी गतिविधियों के कारण पूरे विश्व में अस्वस्थता फैली हुई है। माओत्से तुंग के समय में समाजवाद के गठन के लिये विश्व के समाजवादी देशों के साथ मैत्री का सूत्र प्रभावी था । उस के बाद देंग सिहाओ पिंग के राज्यकाल में चीनी विशेषताओं के साथ का समाजवाद स्वदेश में और देश के बाहर भी प्रसारित करने की तजवीज होने लगी। झिआंग्झेमिके चीन के अध्यक्ष होने के बाद आधुनिकीकरण, राष्ट्रीय एकता का सुद्रढीकरण और वैश्विक शांतता एवं विकास की प्रक्रिया का संवर्धन ऐसे त्रिविध उद्दिष्ट केंद्रस्थान पर आ गये। हु जिंताओ के राज्यकाल में चीन की विदेशनीति देश में एवं विदेशों में सद्भाव एवं सामंजस्य निर्माण करने के हेतु से कार्यरत हुई । वर्तमान में सी जिन पिंग चीन के अध्यक्ष हैं। उन्होंने दो घटनाओं की शताब्दी के निमित्त विदेशनीति के सामने वैशिष्ट्यपूर्ण उद्देश्य रखे हैं। उदाहरणार्थ २०२० में चीन कम्युनिस्ट पार्टी की जन्मशताब्दी मनाने जा रहा है। तब चीन के राष्ट्रीय उत्पादन में चार गुना वृद्धि हो और चीन के मध्यमवर्गीय नागरिकों को आंतर्राष्ट्रीय स्तर का जीवनमान उपलब्ध हो इस हेतु से विदेशों के साथ सम्बन्ध बनाए रखना यही विद्यमान चीनी नेतृत्व की मनीषा है।

इतना पढकर किसी को भी लग सकता है कि पूरी शब्द रचना मीठा बोलने की है, परन्तु 'मुखमें राम बगल में छूरी' यही चीनी नेताओं की कार्यशैली है | One Belt, one Road इस नाम से पूरे विश्व में मार्ग रचना करने की वर्तमान अध्यक्ष की इच्छा है। इस इच्छा के दो विभाग है। एक विभाग में भूमार्ग से पॅसिफिक महासागर से बाल्टिक सागर का अन्तर पार करना यह उद्दिष्ट है । Silk Road Economic Belt ऐसा यह व्यूह रचना का नाम है। तो दूसरे विभाग में दरियाई सील्क मार्ग से एशिया खंड को युरोप के साथ जोडना यह उद्देश्य चीन ने अपने समक्ष रखा है। इस ब्यूहरचना का मेरीटाईम सील्क रोड ( maritime silk road) ऐसा नामकरण किया गया है। इस संदर्भ में प्रायोजित 'सिल्क' (रेशम) संज्ञा पूर्णतः धोखा देने वाली है। इतना ही नहीं तो समुद्री रेशम मार्ग के कारण तटीय अनेक राष्ट्र परेशान हैं।

चीन के पूर्व में पीत समुद्र है । इस समुद्र में से दक्षिण की ओर जहाज सफर करता है तो पूर्वी समुद्र, तैवान की सामुद्रीधूनी और आग्नेय में दक्षिण चीनी समुद्र फैला हुआ है। इसके पूर्व में फिलिपीन्स और पश्चिम में वियेट्नाम है। दक्षिण चीनी समुद्र जहां इंडोनेशिया को मिलता है उसी स्थान पर मलेशिया है। परन्तु अभी उल्लेखित सब समुद्रोंमें चीन ने अपने द्वीप बनाये हैं। इसके परिणाम स्वरूप वियेतनाम, फिलिपिन्स, मलेशिया, इंडोनेशिया इत्यादि राष्ट्रों में भय पैदा हुआ है। इंडोनेशिया में से मलाक्का की सामुद्रधूनी पार कर जहाज हिंदी महासागर में आता है। इसीलिये चीन ने म्याँमार, श्रीलंका, जैसे राष्ट्रों के तट पर अपने नौसेना के स्थानक बनाये हैं। चीन के हिसाब से ये सर्व जलाशय बीजींग के अधिकार क्षेत्र में आते हैं । तात्पर्य यह की चीन जिसे समुद्री रेशम मार्ग कहता है वह पास पडोस के सब छोटे बड़े राष्ट्रों के लिये फासी का फंदा सिद्ध होने जा रहा है।

एक समय था जब वियेटनाम चीन का मित्र था। वर्तमान में वह चीन का शत्रु है। आज रुस भले ही चीन का दोस्त बना हो परन्तु पीछले पूरे पचास वर्ष यही रुस चीन की नजर में शत्रु था। अमेरिकन अध्यक्ष निक्सन के समय में अमरिका और चीन परस्पर गले मिलते थे। वर्तमान में दोनों देशों के मन में संदेह का कोहरा व्याप्त है। सन १९५० से १९६० के दशक में उत्तर कोरिया चीन के गले का ताईत था । परंतु अभी अभी चीन ने उत्तर कोरिया की नीतियों का विरोध किया है।

चीन हिंदी महासागर में आफ्रिका के इशान छोर तक घुस लगाने की महेच्छा से ग्रस्त है। इशान्य अफ्रिका में जीबौती देश में चीनी आरमार का स्थानक है। शीत युद्धोत्तर काल में अमरिका के विरोध में चीन के रूप में एक नया ध्रुव तैयार हुआ है यही सत्य है।

भारत को तो चीन ने फाँस ही लिया है। पाक अधिकृत कश्मीर में से सीधा ग्वादर बंदरगाह तक चीन ने इकॉनोमिक कोरिडोर (economic corridor) निर्माण किया है और भारत के पश्चिम में अरब सागर में उसने छलांग लगाई है। भारत के पूर्व में म्याँमार के क्याउक फ्यू बंदरगाह तक भी चीन ने ऐसा ही 'सिल्क रोड'का निर्माण किया है। हिंदी महासागर में चीन के उत्पात का उल्लेख तो उपर हुआ ही है।

सारांश यह कि सन १९६२में चीन ने भारत पर हिमालय की वादियों में से आक्रमण किया था। तब से, अर्थात, तिब्बत में अपना पक्का स्थान बना लेने के बाद चीन ने घूसखोरी करनी आरम्भ कर दी है, 'अरुणाचल हमारा है' ऐसा उद्घोष वह करने लगा है। विगत चार वर्षों से 'समुद्री रेशम मार्ग' के निर्माण से भारत की तीनों दिशाओं में व्याप्त समुद्र में से चीन ने भारत को त्रासदी का अनुभव देना आरम्भ किया है।

प्रभु श्री रामचंद्र का चरित्र वर्णन करते हुए कहा गया है, 'समुद्र ईव गांभीर्ये , धैर्येण हिमवान ईव'। यह वर्णन भारत को भी लागू होता है। परंतु चीन ने भारत के आसपास के समुद्र एवं मस्तक पर के मुकुट समान हिमालय, ये दोनों के लिये चिंता का कारण निर्माण किया है।

भारत की पश्चिम दिशा में पर्शियन खाडी है। उस खाडी से ले कर भूमध्य महासागर पर्यंत व्याप्त भूभाग में मुस्लिम राष्ट्र हैं तथा भूमध्य महासागर के उस पार जो अफ्रिका खंड है वहां भी, विशेष रूप से उत्तर दिशा में मुस्लिम राष्ट्र ही बसे हुए हैं। विगत छः वर्षों में उन मुस्लिम राष्ट्रों में इस्लामिक स्टेट नामक आतंकवादी संगठन ने उत्पात मचाया हुआ है। स्पष्ट रूप से कहना हो तो मुस्लिम राष्ट्रों के लिये इस्लामिक स्टेट के स्वरूप में भस्मासुर ही अवतरित हुआ है।

एक ओर से चीन तो दूसरी ओर से इस्लामिक स्टेट, ये अहिरावण महिरावण वैश्विक शांति को सुरंग लगाने के लिये सिद्ध है। युरोप और अमरिका इस वैश्विक वातावरण में अत्यंत प्रक्षुब्ध हुए हैं। अभी पीछले कुछ दिनों तक ये श्वेतवर्णीय , अँग्लो सेक्संस कितनी गर्जनाएँ कर रहे थे। आज इन लोगोंं का मिजाज ठिकाने पे आ गया है।

सन १९०२ में, केवल बीस वर्ष की आयु में सावरकरजी ने एक कविता में इन साम्राज्यों को प्रश्न पूछा था, ' विश्व में आज तक शाश्वत क्या रहा है?' आज वही प्रश्न इन साम्राज्याधीशों के सामने आ कर खडा हो गया है । प्रातःकाल में उदित होने वाला सूर्य शाम होते होते अस्तंगत होता है वैसे ही, अरे ब्रिटिशों ! आप भी कल अस्त हो जाओगे , इस आशय का भविष्य कथन सावरकरजी ने तब किया था जो आज सत्य सिद्ध होने जा रहा है।

अर्थात भारत समक्ष अधिक जटिल आह्वान खड़े ही हैं। चीन और पाकिस्तान की मैत्री राहु केतु की युति समान है। आज रुस भी उस युति के साथ हाथ मिलाने जा रहा है। अमरिका ने भारत, जपान और ऑस्ट्रेलिया इन तीनों देशों के साथ मित्रता के संकेत दिये हैं यह सत्य है परंतु अमरिका के वर्तमान अध्यक्ष डोनाल्ड ट्रम्प विश्वसनीय नहीं लगते है। ग्रेट ब्रिटन का स्मॉल इंग्लैंड में परिवर्तन हुआ है। मुस्लिम देश भारत की ओर द्रष्टि फेरने लगे हैं। क्यों कि भारत की बहुविधता, सर्वसमावेशकता, यहाँ की मिट्टी में समाहित सर्वधर्मसमभाव, यहाँ का लोकतंत्र, आर्थिक विकास, यहाँ की संरक्षण सिद्धता, सुशिक्षितता इत्यादि विशेषताओं का मुस्लिम विश्व पर गहरा प्रभाव होता जा रहा है। परंतु इस्लामिक स्टेट धार्मिक मुस्लिमों को भी प्रभावित करेगा क्या यह गंभीर सवाल हमारे सामने भी उठ खडा हुआ है।

इस परिस्थिति में मुस्लिमों का सूफी संप्रदाय कैसे बना रहेगा, शताब्दियों से भारत में अपने मूल जमाये बैठा सामाजिक ऐक्य कैसे सुद्रढ होगा, जयिष्णुता और सहिष्णुता, क्रोधावशता और क्षमाशीलता एवं सर्वसमावेशकता और व्यावर्तकता के मध्य उचित सन्तुलन कैसे निर्माण होगा वही हमारे लिये चिंता के विषय हैं।

वर्तमान में इंडो पॅसिफिक विश्व में दक्षिण एशिया का ठीक ठीक विस्तार हुआ है। तथ्य तो यह है कि अब बृहत्तर दक्षिण एशिया ही उदयमान हुआ है। इस बृहत्तर दक्षिण एशिया के उत्तर में अफघानिस्तान और मध्य एशिया के पाँच मुस्लिम राष्ट्र जम कर बैठे हुए हैं। पश्चिम में पर्शिया की खाडी है और पूर्व में मलक्का की सामुद्रधुनी है। दक्षिण दिशा में विषुववृत्त तक बृहत्तर दक्षिण एशिया फैला हुआ है। विश्व की अपेक्षा है की यह बृहत्तर दक्षिण एशिया का नेतृत्व भारत करे । भारत ने भी उस दायित्व का स्वीकार किया है ऐसा दिखाई देता है। इसीलिये सन २०१४ के बाद हमारी सरकार ने हीनताबोध को एक ओर कर आत्मविश्वास के साथ अधिक व्यवहार्य, अधिक गतिमान विदेश नीति को कार्यान्वित किया है। अब पहले की असंलग्नता की नीति बहुसंलग्नता में परिवर्तित हुई है। अमरिका, जपान और ऑस्ट्रेलिया, इन राष्ट्रों के साथ हमने हमारे स्नेह सम्बन्ध अधिक द्रढ किये हैं। हमारी संस्कृति का, हमारी भावनाओं का, हमारी कालानुरूप परम्पराओं का यथोचित प्रयोग कर , अर्थात 'soft power' का प्रयोग कर हमने अनेक देशों के साथ मैत्री के सेतु निर्माण किये हैं। पूर्वाभिमुख नीति का पूर्वाभिमुख कृति में रूपान्तर किया है । भूसंलग्न मानसिकता को समुद्र संलग्न मानसिकता का साथ दिया है । भूमिदल, वायुदल एवं नौदल अत्याधुनिक एवं सामर्थ्यशील हों इस हेतु से कदम उठाये हैं। सब से महत्त्वपूर्ण बात यह है कि आवश्यकता होने पर हम सर्जिकल स्ट्राईक कर सकते हैं, शत्रु के आतंकवाद के केंद्र ध्वस्त कर सकते हैं ऐसी हमारी क्षमता हमने विश्व को दीखा दी है। ये सब होने पर भी प्रतियोगी सहकारिता 'responsive cooperation' यही हमारा प्रमुख सूत्र रहा है। पडोस के देश संयम रखते हैं तो हम भी यथोचित सम्बन्ध बनाये रखेंगे, परंतु विरोध करेंगे तो हम भी करारा जवाब देंगे' यही हमारी घोषणा है।

वर्तमान वैश्विक परिस्थिति को देखते हुए यही विदेशनीति उचित है ऐसा कोई भी कह सकता है।

References

धार्मिक शिक्षा : वैश्विक संकटों का निवारण धार्मिक शिक्षा (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला ५): पर्व २: अध्याय १७, प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे