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अच्छी क्रिया के तीन आयाम हैं । एक है कौशल, दूसरा है गति और तीसरा है निपुणता । हाथ वस्तु को पकड़ते हैं, दबाते हैं, फेंकते हैं, झेलते है, उछालते हैं । पकड़ने का काम एक उँगली और अंगूठे से, दो ऊँगलिया और अंगूठे से, चारों उँगलियाँ और अंगूठे से, मुट्ठी से होता है । पकड़ने में कुशलता चाहिए अर्थात ऊँगलियों और अंगूठे की स्थिति ठीक बनानी चाहिए । कई बार हम देखते हैं कि लिखने वाला पेंसिल ही ठीक नहीं पकड़ता है । उँगलियों की या मुट्ठी की स्थिति ही ठीक नहीं बनी है । लिखते समय केवल उँगलियाँ ही नहीं तो कलाई और कोहनी तक के हाथ की स्थिति ठीक नहीं बनी है । उँगलियाँ गूँथती हैं । उनकी सलाई पकड़ने की स्थिति ठीक नहीं बनती है। हाथों से कपड़ों या कागज की तह की जाती है । तब दोनों हाथों से कपड़ा या कागज पकड़ने की और उसे चलाने की स्थिति ठीक नहीं बनती है ।
 
अच्छी क्रिया के तीन आयाम हैं । एक है कौशल, दूसरा है गति और तीसरा है निपुणता । हाथ वस्तु को पकड़ते हैं, दबाते हैं, फेंकते हैं, झेलते है, उछालते हैं । पकड़ने का काम एक उँगली और अंगूठे से, दो ऊँगलिया और अंगूठे से, चारों उँगलियाँ और अंगूठे से, मुट्ठी से होता है । पकड़ने में कुशलता चाहिए अर्थात ऊँगलियों और अंगूठे की स्थिति ठीक बनानी चाहिए । कई बार हम देखते हैं कि लिखने वाला पेंसिल ही ठीक नहीं पकड़ता है । उँगलियों की या मुट्ठी की स्थिति ही ठीक नहीं बनी है । लिखते समय केवल उँगलियाँ ही नहीं तो कलाई और कोहनी तक के हाथ की स्थिति ठीक नहीं बनी है । उँगलियाँ गूँथती हैं । उनकी सलाई पकड़ने की स्थिति ठीक नहीं बनती है। हाथों से कपड़ों या कागज की तह की जाती है । तब दोनों हाथों से कपड़ा या कागज पकड़ने की और उसे चलाने की स्थिति ठीक नहीं बनती है ।
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उसी प्रकार से पैर खड़े रहकर शरीर का भार उठाते हैं। तब दोनों पैरों की सीधे खड़े रहने की, पैरों के तलवे की स्थिति ठीक नहीं बनती है । चलते हैं तब पैर उठाकर आगे रखने की स्थिति ठीक नहीं बनती है । व्यक्ति बोलता है तब बोलने में जो अवयव काम में आते हैं उनकी स्थिति ठीक नहीं बनती है । इस कारण से उच्चार ठीक नहीं होते, अक्षर सुन्दर नहीं बनते, चला ठीक नहीं जाता । क्रिया ठीक नहीं होती । आगे चित्र बनाने का, आकृति में रंग भरने का, मंत्र या गीत का गान करने का, छलांग लगाने का, दौड़ने का आदि काम भी ठीक से नहीं होते । कारीगरी के काम ठीक से नहीं होते क्योंकि साधन पकड़ने की स्थिति ठीक नहीं होती । दो हाथ जोड़कर, दृंडवत होकर प्रणाम करना, यज्ञ में आहुती देना, मालिश करना, गाँठ लगाना, आटा गुंधना, मिट्टी को आकार देना आदि असंख्य काम ठीक से नहीं होते । कर्मेन्द्रियों की स्थितियाँ दीवार में इँटों जैसी हैं । इंटें यदि ठीक नहीं बनी हैं तो दीवार ठीक नहीं बनती । दीवार ठीक नहीं बनती तो भवन भी ठीक नहीं बनता । अत: कर्मन्द्रियों की स्थिति ठीक बनाना प्रथम आवश्यकता है । स्थितियाँ ठीक बनाने के लिए अच्छे प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है । बारीकी से निरीक्षण कर छोटी से छोटी बात भी ठीक करनी होती है । ऐसा नहीं किया तो इंद्रियों की स्थिति में एक अवधि के बाद अनेक प्रयास करने पर भी सुधार नहीं होता है । इन स्थितियों के भी संस्कार बन जाते हैं । प्रारंभ में, छोटी आयु में एक बार संस्कार हो गए तो बाद में सुधार लगभग असम्भव हो जाते हैं । यही कारण है कि हम देखते हैं कि वर्णमाला के स्वरों और व्यंजनों के उच्चारणों की अनेक अशुद्धियाँ होती हैं और वे बड़ी आयु में ठीक नहीं होतीं । अक्षरों की बनावट ठीक नहीं होती और लेख सुन्दर या सही नहीं बनता । संगीत बेसुरा होता है । यज्ञ में आहुति डालना नहीं आता । प्रणाम करना नहीं आता । ये तो बहुत छोटी बातें हैं परंतु आगे चलकर भाषण और संभाषण ठीक नहीं होता, कारीगरी और कला ठीक नहीं अवगत होती, वस्तुयें ठीक नहीं रखी दूसरा आयाम है गति का । गति अभ्यास से बढ़ती है। पातंजल योगसूत्र अभ्यास को परिभाषित करते हुए कहते हैं:जातीं, वे खराब होती हैं आदि व्यवहार की अनेक कठिनाइयाँ निर्माण होती हैं ।<blockquote>तत्र स्थितौ यत्नोऽभ्यासः <ref>पतंजलि रचित योग सूत्र - 1.13  </ref>। 1.13 ।। </blockquote>और
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उसी प्रकार से पैर खड़े रहकर शरीर का भार उठाते हैं। तब दोनों पैरों की सीधे खड़े रहने की, पैरों के तलवे की स्थिति ठीक नहीं बनती है । चलते हैं तब पैर उठाकर आगे रखने की स्थिति ठीक नहीं बनती है । व्यक्ति बोलता है तब बोलने में जो अवयव काम में आते हैं उनकी स्थिति ठीक नहीं बनती है । इस कारण से उच्चार ठीक नहीं होते, अक्षर सुन्दर नहीं बनते, चला ठीक नहीं जाता । क्रिया ठीक नहीं होती । आगे चित्र बनाने का, आकृति में रंग भरने का, मंत्र या गीत का गान करने का, छलांग लगाने का, दौड़ने का आदि काम भी ठीक से नहीं होते । कारीगरी के काम ठीक से नहीं होते क्योंकि साधन पकड़ने की स्थिति ठीक नहीं होती । दो हाथ जोड़कर, दृंडवत होकर प्रणाम करना, यज्ञ में आहुती देना, मालिश करना, गाँठ लगाना, आटा गुंधना, मिट्टी को आकार देना आदि असंख्य काम ठीक से नहीं होते । कर्मेन्द्रियों की स्थितियाँ दीवार में इँटों जैसी हैं । इंटें यदि ठीक नहीं बनी हैं तो दीवार ठीक नहीं बनती । दीवार ठीक नहीं बनती तो भवन भी ठीक नहीं बनता । अत: कर्मन्द्रियों की स्थिति ठीक बनाना प्रथम आवश्यकता है । स्थितियाँ ठीक बनाने के लिए अच्छे प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है । बारीकी से निरीक्षण कर छोटी से छोटी बात भी ठीक करनी होती है । ऐसा नहीं किया तो इंद्रियों की स्थिति में एक अवधि के बाद अनेक प्रयास करने पर भी सुधार नहीं होता है । इन स्थितियों के भी संस्कार बन जाते हैं । प्रारंभ में, छोटी आयु में एक बार संस्कार हो गए तो बाद में सुधार लगभग असम्भव हो जाते हैं । यही कारण है कि हम देखते हैं कि वर्णमाला के स्वरों और व्यंजनों के उच्चारणों की अनेक अशुद्धियाँ होती हैं और वे बड़ी आयु में ठीक नहीं होतीं । अक्षरों की बनावट ठीक नहीं होती और लेख सुन्दर या सही नहीं बनता । संगीत बेसुरा होता है । यज्ञ में आहुति डालना नहीं आता । प्रणाम करना नहीं आता । ये तो बहुत छोटी बातें हैं परंतु आगे चलकर भाषण और संभाषण ठीक नहीं होता, कारीगरी और कला ठीक नहीं अवगत होती, वस्तुयें ठीक नहीं रखी दूसरा आयाम है गति का । गति अभ्यास से बढ़ती है। पातंजल योगसूत्र अभ्यास को परिभाषित करते हुए कहते हैं:जातीं, वे खराब होती हैं आदि व्यवहार की अनेक कठिनाइयाँ निर्माण होती हैं ।<blockquote>तत्र स्थितौ यत्नोऽभ्यासः <ref>पतंजलि रचित योग सूत्र - 1.13  </ref>। 1.13 ।। </blockquote><blockquote>और</blockquote><blockquote>स तु दीर्घकालनैरन्तर्यसत्कारासेवितो दृढभूमिः <ref>पतंजलि रचित योग सूत्र - 1.14</ref>|| 1.14 ||</blockquote>अर्थात अभ्यास स्थिरतापूर्वक करना चाहिए, निरन्तर करना चाहिए, नियमित करना चाहिए, सत्कारपूर्वक करना चाहिए । ये चारों बातें समान रूप से महत्त्वपूर्ण हैं ।
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* अभ्यास स्थिरतापूर्वक करना चाहिए । इसका अर्थ यह है कि करने वाले की उसमें एकाग्रता होनी चाहिए, वह करते समय और कुछ नहीं करना चाहिए । कुछ लोग लिखते समय या भोजन करते समय संगीत सुनते हैं, अखबार पढ़ते हैं या बातें करते हैं । अब खड़े खड़े या चलते चलते भोजन करने की एक फैशन बनी है । संस्कार की बात एक ओर रखें तो भी यह ठीक नहीं है क्योंकि ऐसा करने से क्रिया ठीक नहीं होती और उसका परिणाम ठीक नहीं होता । शारीरिक, मानसिक बौद्धिक रूप से अच्छी और श्रेष्ठ क्रियायें बैठकर ही करने का विधान है, यथा गाना, खाना, पढ़ना और पढ़ाना, उपदेश देना और ग्रहण करना, भाषण करना, पूजा करना, यज्ञ करना, लिखना, खाना बनाना आदि । यह इसलिए है कि ऐसा नहीं करने से एकाग्रता नहीं होती है और ध्यान बंट जाता है । एकाग्रता नहीं है तो किए हुए कार्य का ग्रहण भी पूरा पूरा नहीं होता । इसलिए एकाग्रता के लिए जो जो आवश्यक है वह सब करना चाहिए ।
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* अभ्यास नियमित रूप से करना चाहिए । कर्मन्द्रियों को भी आदत पड़ती है । केवल कर्मन्द्रियों को ही नहीं अन्य करणों को भी आदत पड़ती है । उदाहरण के लिए कुछ दिन यदि दिन में बारह बजे भोजन किया या रात्रि में दस बजे सो गए तो बारह बजते ही भूख लगती है और दस बजे ही नींद आने लगती है । आज की भाषा में कहें तो शरीर की घड़ी समय बताती है । जरा विचार करें तो शरीर की ही नहीं तो मन की भी एक घड़ी होती है । ठीक समय पर करने से शरीर और मन अभ्यास के अनुकूल बन जाते हैं और क्रिया ठीक होती है ।
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* अभ्यास निरन्तर रूप से करना चाहिए इसका अर्थ यह है कि कुछ समय किया और फिर छोड़ दिया, फिर कुछ समय बाद किया ऐसा नहीं करना चाहिए । वह प्रतिदिन करना चाहिए |
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* चौथी बात सबसे महत्त्वपूर्ण है। अभ्यास सत्कारपूर्वक करना चाहिए । अर्थात उसमें करने वाले का मन लगना चाहिए । वह मन को अच्छा लगना चाहिए । बेमन से किया हुआ अभ्यास भले ही एकाग्रतापूर्वक या नियमित भी किया हो तो भी वह फलदायी नहीं होता क्योंकि वह यान्त्रिक होता है । फिर यंत्र की तरह शरीर काम तो करता है परन्तु वह जीवन्त नहीं होता । इस प्रकार अभ्यास करने से क्रिया में गति बढ़ती है । अभ्यास से पूर्व यदि कौशल नहीं प्राप्त किया गया तो गलत स्थिति का अभ्यास हो जाता है और फिर उसे ठीक करना सम्भव नहीं होता । अभ्यास से पूरी क्षमता तक गति बढ़ती है । कौशल और अभ्यास के परिणामस्वरूप क्रिया निपुणता से होती है । उसमें उत्कृष्टता प्राप्त होती है । क्रिया की गुणवत्ता बढ़ती है । जिस प्रकार च्यवनप्राश जैसे औषध जितने पुराने होते हैं उतने अधिक गुणवत्तापूर्ण होते हैं उसी प्रकार नित्य अभ्यास और कुशलतापूर्वक की गई क्रियाओं की निपुणता होती है । गायक की निपुणता उसके गायन में, खाना बनाने वाले की निपुणता उसके भोजन में और कुम्हार की निपुणता वह जब पात्र बना रहा है उसकी प्रक्रिया में दिखाई देती है । अनुभवी कुम्हार, अनुभवी गृहिणी, अनुभवी गायक मिट्टी का लोंडा उठाने मात्र से या पदार्थ में मसाला डालने के लिए चुटकी में लेते हुए या कठ से जरा सा स्वर निकलते ही परखा जाता है । इतना वह परिणामकारी होता है ।
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आज कर्मन्द्रियों की क्रियाओं की इतनी दुर्दशा हुई है कि उसे फूहड़ कहना ही ठीक लगता है । एक तो हाथ, पैर आदि अब काम करने के लिए हैं ऐसा हमें लगता ही नहीं है । परन्तु इस धारणा में ही बदल करने की आवश्यकता है क्योंकि काम नहीं किया तो ये इंद्रियाँ स्वस्थ नहीं रहतीं और उन्हें यंत्र की तरह ही जंग लग जाती है । आज का अक्रिय मनोरंजन कर्मन्द्रियों को बीमार कर देता है। अक्रिय का अर्थ यह है कि हम संगीत सुनना चाहते हैं, स्वयं गाना नहीं, नृत्य देखना चाहते हैं, स्वयं नृत्य करना नहीं, हम यंत्रों से काम करवाना चाहते हैं हाथ से नहीं । हम वाहन से आनाजाना चाहते हैं, पैरों से नहीं । इस कारण से कर्मन्ट्रियों को असुख का अनुभव होता है, वे अपमानित और उपेक्षित अनुभव करती हैं, काम करने से वंचित रहती हैं इसलिए उदास रहती हैं और इसका परिणाम यह होता है कि भोक्ता अर्थात हम स्वयं आनन्द का अनुभव नहीं कर सकते । काम करने का आनन्द क्या होता है इसका हमें अनुभव ही नहीं होता है ।
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स तु दीर्घकालनैरन्तर्यसत्कारासेवितो दृढभूमिः || 1.14 ||
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बाल अवस्था में कर्मेन्ट्रियाँ सक्रिय होने लगती हैं और काम चाहती हैं । यह ऐसा ही है जिस प्रकार भूख लगने पर पेट भोजन मांगता है । भूख इसलिए लगती है क्योंकि भोजन से शरीर की पुष्टि होती है । भूख लगने पर भोजन नहीं किया तो शरीर कृश होने लगता है, बलहीन होता है और अस्वस्थ भी होने लगता है । अच्छा भोजन नहीं होने पर शरीर बीमार भी होता है । उसी प्रकार बालअवस्था में कर्मन्द्रियाँ काम मांगती हैं क्योंकि यह उनकी आवश्यकता है । उस समय काम मिला और वह अच्छे से करना सिखाया तो वे सुख का अनुभव करती हैं, उन्हें अपने होने में सार्थकता का अनुभव होता है और वे स्वस्थ और कार्यक्षम होती हैं । अत: बालअवस्था की शिक्षा क्रियाआधारित होनी चाहिए । क्रिया सिखाना पहली बात है और क्रिया के माध्यम से अन्य बातें सीखना दूसरी बात है ।
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अर्थात अभ्यास स्थिरतापूर्वक करना चाहिए, निरन्तर
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केवल कर्मेन्द्रियाँ ही क्रिया करती हैं ऐसा नहीं है। कर्मन्द्रियों के साथ साथ, कर्मन्द्रियों की सहायता से पूरा शरीर क्रिया करता है । पूरा शरीर यंत्र ही है जो काम करने के लिए बना है । शरीर को कार्यशील रखना आवश्यक है । उस दृष्टि से उसे काम करना सीखाना चाहिए और उससे काम लेना चाहिए । शरीर कार्यशील रहे इसलिए उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति करनी चाहिए । उसकी रक्षा भी करनी चाहिए । अन्न, वस्त्र, आवास की योजना शरीर को ध्यान में रखकर होनी चाहिए । यह विषय वैसे तो अति सामान्य है । परन्तु आज तथाकथित बडी बड़ी बातों के पीछे लगकर हमने इस सामान्य परन्तु अत्यन्त आवश्यक विषय को विस्मृत कर दिया है । ऐसा करने के कारण पूरी शिक्षा दुर्बल और निस्तेज बन गई है । भारतीय शिक्षा को पुन: शरीर रूपी यंत्र को कार्यरत करना होगा ।
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करना चाहिए, नियमित करना चाहिए, सत्कारपूर्वक करना
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== संवेदन ==
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''ध्वनियुक्त, वैसे ही कर्कश वाद्ययन्त्रों का संगीत, तेज पाँच कर्मेन्द्रियों की तरह पाँच ज्ञानेंद्रियां हैं। वे हैं मसालों से युक्त खाद्य पदार्थ ज्ञानेन्द्रियों की संवेदनाओं को नाक, कान, जीभ, आँखें और त्वचा । इन्हें क्रमश: अंधिर कर देते हैं । इन खोई हुई संवेदनशक्ति फिर से इस''
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चाहिए
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''avita, saita, «ita sea wifes, FHA तो प्राप्त नहीं की ect सकती जैसे जैसे इंद्रियाँ''
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ये चारों बातें समान रूप से महत्त्वपूर्ण हैं
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''aga sik anita कहते हैं । ये सब बाहरी जगत का... जधिर होती जाती हैं हम विषयों की तीब्रता बढ़ाते जाते हैं''
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अभ्यास स्थिरतापूर्वक करना चाहिए इसका अर्थ
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''अनुभव करते हैं वास्तव में ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से ही और शक्तियाँ और क्षीण होती जाती हैं । छोटी आयु में''
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श्श्८
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''चश्मा, भोजन में रुचिहीनता और स्वाद की पहचान का''
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भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप
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''अभाव, धीमी आवाज नहीं सुनाई देना आदि लक्षण तो हम''
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यह है कि करने वाले की उसमें एकाग्रता होनी चाहिए, वह
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''रोज रोज अपने आसपास देखते ही हैं ।''
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करते समय और कुछ नहीं करना चाहिए कुछ लोग
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''हम बाहरी जगत के साथ सम्पर्क में आते हैं इनके अभाव''
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लिखते समय या भोजन करते समय संगीत सुनते हैं,
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''में हम बाहर के जगत को जान ही नहीं सकते ।''
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अखबार पढ़ते हैं या बातें करते हैं । अब खड़े खड़े या
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''शब्द अथवा ध्वनि कान का विषय है, स्पर्श त्वचा के''
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चलते चलते भोजन करने की एक फैशन बनी है । संस्कार
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''का विषय है, गंध नाक का, स्वाद जीभ का और रंग और अतः पहली बात तो इनका हम रक्षण कैसे करें''
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की बात एक ओर रखें तो भी यह ठीक नहीं है क्योंकि ऐसा
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''आकार आँख का विषय है । ज्ञानिंद्रियाँ इन विषयों को... रैसका ही विचार करना है ।''
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करने से क्रिया ठीक नहीं होती और उसका परिणाम ठीक
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''संवेदनों के रूप में ग्रहण करती हैं । बाहरी जगत में इन्हें इंद्रियों की शक्ति का दूसरा आधार है नाड़ीशुद्धि ।''
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नहीं होता शारीरिक, मानसिक बौद्धिक रूप से अच्छी
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''तन्मात्रा कहते हैं और अपने शरीर में संवेदन हमारे शरीर में बहत्तर हजार नाड़ियाँ हैं जो इंद्रियों के''
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और श्रेष्ठ क्रियायें बैठकर ही करने का विधान है, यथा
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''ज्ञानिन्द्रियाँ वस्तु को वस्तु के रूप में नहीं अपितु संवेदनों को वहन करने का काम करती हैं । इन नाड़ियों की''
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गाना, खाना, पढ़ना और पढ़ाना, उपदेश देना और ग्रहण
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''संवेदन के रूप में ग्रहण करती हैं । वस्तु का संवेदन में... रशुद्धि के कारण संवेदनों के वहन में अवध निर्माण होता''
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करना, भाषण करना, पूजा करना, यज्ञ करना, लिखना,
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''रूपान्तरण वस्तु की तन्मात्रा शक्ति से और इंद्रिय की संवेदन .. हैं ! प्राणशक्ति के बल पर वे काम करती है । ज्ञानेन्दरियों''
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खाना बनाना आदि यह इसलिए है कि ऐसा नहीं करने से
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''शक्ति से होता है। का नियंत्रण करने का काम भी प्राण करते हैं अत:''
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एकाग्रता नहीं होती है और ध्यान बंट जाता है । एकाग्रता
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''प्राणशक्ति दुर्बल रही तो भी संबेदनशक्ति क्षीण होती है ।''
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नहीं है तो किए हुए कार्य का ग्रहण भी पूरा पूरा नहीं
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''प्राणशक्ति का. आधार आहार, विहार, निद्रा और''
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होता इसलिए एकाग्रता के लिए जो जो आवश्यक है वह
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''श्वसनप्रक्रिया पर है ये सब ठीक रहे तो प्राणशक्ति अच्छी''
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सब करना चाहिए ।
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''बाहरी जगत का सम्यक ज्ञान हो इसलिए ज्ञानेन्द्रियों''
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अभ्यास नियमित रूप से करना चाहिए । कर्मन्द्रियों
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''को सक्षम बनाना चाहिए । वे यदि दुर्बल रहीं तो बाहरी''
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को भी आदत पड़ती है । केवल कर्मेन्ट्रि यों को ही नहीं
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''जगत को जानना कठिन हो जाता है। इस दृष्टि से''
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अन्य करणों को भी आदत पड़ती है । उदाहरण के लिए
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''ज्ञानेन्द्रियों को संवेदनक्षम बनाना अत्यन्त आवश्यक है। . हँती है। वे टी ठीक नहीं रहे तो प्राणशक्ति और''
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कुछ दिन यदि दिन में बारह बजे भोजन किया या रात्रि में
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''यह काम लगता है उतना सरल नहीं है । परिणामस्वरूप इंद्रियों की शक्ति क्षीण होती है ।''
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दस बजे सो गए तो बारह बजते ही भूख लगती है और दस
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''yoy db afl A a ar ea ad a पर्यावरण ठीक नहीं रहा तो भी ज्ञानेन््रियों पर प्रभाव''
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बजे ही नींद आने लगती है । आज की भाषा में कहें तो
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''बचाना चाहिए। जब बालक का जन्म होता है तब. रीता है। ee FETS, कुरूप, कोलाहलयुक्त''
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शरीर की घड़ी समय बताती है जरा विचार करें तो शरीर
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''ज्ञानेंद्रियाँ बहुत नाजुक होती हैं । उस समय तीव्र अनुभवों. ाकर्ग में इंद्रियों को सुख का अनुभव नहीं होता अतः''
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की ही नहीं तो मन की भी एक घड़ी होती है ठीक समय
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''से बचाना चाहिए । बड़ी और कर्कश आवाज, तेज प्रकाश, पर्यावरण भी ठीक चाहिए संतर्पण''
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पर करने से शरीर और मन अभ्यास के अनुकूल बन जाते
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''तीव्र गंध, कठोर स्पर्श, बेस्वाद्‌ औषध ज्ञानिन्द्रियों की इंद्रियों को रक्षण, पोषण और संतर्पण की''
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हैं और क्रिया ठीक होती है ।
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''क्षमता तीव्र गति से कम कर देते हैं । आज तो यह संकट... आवश्यकता होती है । रक्षण और पोषण की बात तो समझ''
 
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अभ्यास निरन्तर रूप से करना चाहिए इसका अर्थ
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यह है कि कुछ समय किया और फिर छोड़ दिया, फिर
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कुछ समय बाद किया ऐसा नहीं करना चाहिए । वह
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प्रतिदिन करना चाहिए |
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''बहुत गहरा गया है। जन्म से ही क्षमताओं के हास का में आती है परन्तु संतर्पण ei चिन्ता भी करनी चाहिए |''
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चौथी बात. सबसे. महत्त्वपूर्ण है। अभ्यास
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''प्रारंभ हो जाता है । आयुष्य के प्रथम दस दिनों में लगभग संतर्पण का अर्थ है इंद्रियों को अपने अपने विषयों का''
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सत्कारपूर्वक करना चाहिए अर्थात उसमें करने वाले का
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''पचास प्रतिशत नुकसान हो जाता है आहार मिलना । सुमधुर और सात्विक संगीत, सुन्दर,''
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मन लगना चाहिए । वह मन को अच्छा लगना चाहिए ।
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''दैनंदिन जीवन में भड़कीले असुन्दर कृत्रिम रंग, बेढब ... गमोहँक दृश्य, सात्त्विक, स्वादिष्ट पदार्थों का स्वाद, मधुर''
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बेमन से किया हुआ अभ्यास भले ही एकाग्रतापूर्वक या
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''आकृतियाँ, घृणास्पद एवं जुगुप्सात्मक दृश्य, टीवी, कंप्यूटर. "१ः सुखद स्पर्श इंद्रियों को सुख देता है । ये सब उन्मादक''
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''sit Haga A ail, उत्तेजक, बेसुरा, कर्कश, तेज... हैं तो इंद्रियों को कष्ट होता है और वे क्षीण होती हैं ।''
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पर्व ३ : शिक्षा का मनोविज्ञान
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अत: इन सभी बातों का भी ध्यान रखना चाहिए । इंद्रियों की शक्ति केवल देखने की या सुनने की शक्ति ही नहीं है, उनको ठीक तरह और सूक्ष्मता से सुनने देखने आदि की शक्ति है । रंग या गंध या ध्वनि पूर्ण क्षमता के साथ ग्रहण करना यह एक मुद्दा है और सूक्ष्म भेद परखना दूसरी क्षमता है । उदाहरण के लिए कपड़े की मीलों में जो डाइंग मास्टर होते हैं वे रंगों की सूक्ष्म छटायें पहचानते हैं और भेद बताते हैं । दर्जी कपड़ा देखता है और बिना नापे उसमें से वस्त्र बनेगा कि नहीं यह कह देता है । गृहिणी दाल या सब्जी की मात्रा देखकर कितना नमक या मिर्च चाहिए वह हाथ में भरकर बता देती है । पहचानने की यह क्षमता बुद्धि की अनुमान शक्ति है परन्तु उसका साधन इन्द्रियां हैं । हमारे ज्ञानार्जन का बड़ा आधार इंद्रियों की क्षमता पर है। हमारे सुख का भी बड़ा आधार इंद्रियों की क्षमता पर है। चारों ओर सुन्दरता तो बहुत फैली हुई है परन्तु ग्रहण करने के लिए साधन ही नहीं है तो उस सुन्दरता का हम क्या करेंगे? परन्तु जब ग्रहण कभी किया ही न हो तो हम किन बातों से वंचित रह रहे हैं इसका अभी पता कैसे चलेगा ? अतः वंचित रह जाने का भी दुःख नहीं होता । संक्षेप में ज्ञानेन्द्रियों की क्षमता प्राप्त करने की, प्राप्त क्षमताओं का रक्षण करने की और उन्हें बढ़ाने की चिन्ता करनी चाहिए ।
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नियमित भी किया हो तो भी वह फलदायी नहीं होता
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== विचार ==
 
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ठोस पदार्थ का, प्रत्यक्ष घटना का, व्यक्त वाणी का सूक्ष्म स्वरूप विचार है । विचार इंद्रियगम्य नहीं है । वह मनोगम्य है । ठोस पदार्थों का ज्ञान इंद्रियों को होता है । इंद्रियाँ भी ठोस रूप को सूक्ष्म संवेदनों में ही रूपांतरित करती हैं । वे रूपांतरित करती हैं यह कहना भी ठीक नहीं होगा । ठोस पदार्थ के साथ ही उसका संवेदन स्वरूप होता ही है । उस संवेदन रूप को ही तन्मात्रा कहते हैं यह हमने अभी देखा । पदार्थ का उससे भी सूक्ष्म स्वरूप विचार का है। मन पदार्थ को विचार के रूप में ग्रहण करता है। इंद्रियों के संवेदनों को मन विचार के रूप में ग्रहण करता है परन्तु उसमें बहुत अवरोध आते हैं प्रथम अवरोध तो मन के स्वत: के स्वभाव का है। मन स्वयं इतना चंचल है की अपनी चंचलता के कारण कभी यहाँ का तो कभी वहाँ का तरंग ग्रहण करता है। वह विचारों को पूर्ण रूप से ग्रहण ही नहीं करता ।
क्योंकि वह यान्त्रिक होता है । फिर यंत्र की तरह शरीर
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काम तो करता है परन्तु वह जीवन्त नहीं होता
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इस प्रकार अभ्यास करने से क्रिया में गति बढ़ती है
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अभ्यास से पूर्व यदि कौशल नहीं प्राप्त किया गया तो गलत
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स्थिति का अभ्यास हो जाता है और फिर उसे ठीक करना
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बाहर के विश्व में असंख्य भिन्न भिन्न विचार तरंग होते हैं । मन उन सबको ग्रहण करने के लिए भागदौड़ करता है और एक भी ठीक से नहीं करता । मन एकाग्र नहीं होने से विषय को ग्रहण करना उसके लिए कठिन हो जाता है । मन यदि एकाग्र रहा तो इंद्रियाँ जिस विषय को ग्रहण कर रही हैं उस विषय के संवेदनों के विचार पूर्ण रूप से ग्रहण कर पाता है। एकाग्र नहीं रहा तो थोड़ा ग्रहण करता है, शेष छूट जाता है। जिस प्रकार किसी का भाषण चल रहा है और लिखने वाला बोलने वाले की गति से लिख नहीं पाता तब कुछ बातें छूट जाती हैं वैसे ही मन अपनी अनुपस्थिति के कारण बहुत बातें छोड़ देता है । जब एक बात को छोड़ देता है तब दूसरी जगह पर वह होता है और वहाँ के विचार तरंगों को ग्रहण कर रहा होता है । अत: तरह तरह के विचारतरंग एक साथ मिल जाते हैं और एक भी विषय पूर्ण रूप से ग्रहण नहीं होता । ऐसे अनेकाग्र मन से अध्ययन नहीं हो सकता।
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सम्भव नहीं होता ।
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मन का दूसरा लक्षण है उत्तेजना । उत्तेजना की स्थिति चूल्हे पर रखे खौलते पानी जैसी है । शांत पानी में पदार्थ का प्रतिबिम्ब पदार्थ के समान ही दिखता है, परन्तु खौलते पानी में उसी पदार्थ के टुकड़े टुकड़े दिखाई देते हैं । दोष पदार्थ का नहीं होता, दोष खौलते हुए पानी का होता है । मन भी हर्ष, शोक, चिन्ता, भय, मान, अपमान के संवेगों से खौलता रहता है । लोभ लालच भी उस पर सवार हो जाते हैं । यश और कीर्ति भी उसे उत्तेजित कर देते हैं । इस अवस्था में वह विषय के विचार तरंगों को खंड खंड में ही ग्रहण करता है और एक बेढब आकृति बन जाती है जिसकी आँखें मछली जैसी, नाक तोते जैसी, पूंछ कुत्ते जैसी, पैर हिरण जैसे, दाँत शूर्पणखा जैसे, पूरा मुख वानर जैसा, बोली वक्ता जैसी होती है। मन की उत्तेजना के कारण ग्रहण किया हुआ चित्र इससे भी विचित्र हो सकता है । उसमें कोई कार्यकारण सम्बन्ध नहीं होता । हम समझ सकते हैं कि मन की स्थिति जब ऐसी होगी तब अध्ययन कैसे सम्भव है ?
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अभ्यास से पूरी क्षमता तक गति बढ़ती है ।
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मन का एक और लक्षण है । मन आसक्त हो जाता है। आसक्ति के कारण वह जो भी विचार तरंग अनुकूल लगता है उसमें चिपक जाता है और उससे छुटना नहीं चाहता। छूटना पड़े तो वह दुःखी होता है और दुःख की अवस्था में ग्रहण करना ही बंद कर देता है । अथवा विषय को नकारात्मक रूप में ग्रहण करता है । उदाहरण के लिए कोई एक पुरस्कार की उसे अपेक्षा है और वह उसे मिलता नहीं है । तब पहले वह दुःखी होता है, बाद में क्रोधित होता है और पुरस्कार नहीं देने वाले के प्रति नाराज हो जाता है । परन्तु इतने से ही पुरस्कार की आसक्ति से वह मुक्त नहीं होता । मन में वह रहता है इसलिए अध्ययन करते समय भी विषय को नकारात्मक रूप में ही ग्रहण करता है ।
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कौशल और अभ्यास के परिणामस्वरूप क्रिया
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कोई एक प्राध्यापक उसे परीक्षा में कम अंक देता है । वह कम अंक के लायक ही होता है । तब भी पहले वह दुःखी होता है, फिर दूसरों के समक्ष लज्जित होता है, फिर नाराज होता है और उस प्राध्यापक का प्रवचन उसे फालतू लगता है। या कभी सही या गलत ढंग से भी किसी प्राध्यापक ने उसे शाबाशी दी है तो उसका प्रवचन उसे अच्छा लगता है। आसक्ति के कारण वह पूर्वग्रहों से ग्रस्त हो जाता है तो उस विषय का आकलन ठीक से नहीं करता ।
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निपुणता से होती है । उसमें उत्कृष्टता प्राप्त होती है । क्रिया
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जो भी विचार तरंग मन तक आते हैं उन्हें वह अपने रागद्वेष, रुचिअरुचि, इच्छा अनिच्छा आदि के रंग में रंग देता है । इसलिए संवेदनों के स्तर पर विषय का जो स्वरूप
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की गुणवत्ता बढ़ती है ।
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होता है वह बदल जाता है । अपनी स्थिति और प्रवृत्ति के अनुसार मन उसका रूप परिवर्तन कर देता है । इसलिए कहने वाला कहता है और सुनने वाला समझता है उसमें अन्तर पड़ता है । बोलने वाला अपने संदर्भों में कहता है और सुनने वाला अपने मन के संदर्भों में सुनता है । दोनों की एकवाक्यता नहीं होती । ऐसी मन की प्रवृत्ति अजब है । ऐसा मन लेकर कोई भी कैसे अध्ययन कर सकता है या ज्ञान ग्रहण कर सकता है ? ऐसे मन से ज्ञान का क्या स्वरूप बनेगा ? जाहीर है कि क्या होगा कह नहीं सकते।
   −
जिस प्रकार च्यवनप्राश जैसे औषध जीतने पुराने होते
+
अतः मन को ठीक करने की आवश्यकता रहती है । मन एकाग्र होना यह अध्ययन की प्रथम आवश्यकता है । मन शांत होना दूसरी आवश्यकता है । मन अनासक्त अर्थात स्वस्थ होना तीसरी आवश्यकता है । मन को इस स्थिति में लाना सरल नहीं है क्योंकि मन बहुत बलवान और जिद्दी है । मन को ऐसा बनाने के लिए देखा जाय तो बहुत सादे उपाय हैं परन्तु मन उन्हें चलने नहीं देता ।
   −
हैं उतने अधिक गुणवत्तापूर्ण होते हैं उसी प्रकार नित्य
+
उपाय कुछ इस प्रकार हैं:
 
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* आहार : मन को अच्छा बनाने के लिए सात्विक आहार आवश्यक है । आज के तथाकथित वैज्ञानिक युग में पौष्टिक आहार की बात तो सर्वत्र होती है, विज्ञापन तो पौष्टिकता की भी ऐसीतैसी कर देते हैं, परन्तु सात्विक आहार की संकल्पना परिचित भी नहीं है, है तो गलत रूप से परिचित है और परिचित है तो भी मान्य नहीं है। वे कहते हैं कि सात्विक भोजन स्वादिष्ट नहीं होता, बीमारों के खाने जैसा होता है और खाया नहीं जाता । परन्तु यह धारणा गलत है। सात्विक आहार पौष्टिक या स्वादिष्ट नहीं होता ऐसा नहीं है । शरीर स्वस्थ रहने के लिए जिस प्रकार पौष्टिक आहार चाहिए उस प्रकार मन अच्छा रहने के लिए सात्त्विक आहार आवश्यक है । ज्ञान के साथ जुड़े हुए सबको सात्त्विक आहार के विषय में जानकारी प्राप्त कर लेनी चाहिए ।
अभ्यास और कुशलतापूर्वक की गई क्रियाओं की निपुणता
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* मन को ठीक रखने के लिए हर प्रकार के व्रत और नियमों के विषय में युगानुकूलता अवश्य बरतनी चाहिए । उदाहरण के लिए इक्कीसवी शताब्दी में सप्ताह में एक दिन होटल का, एक दिन मोबाइल का, एक दिन टीवी का, एक दिन वाहन का, एक दिन प्लास्टिक का उपवास रख सकते हैं । इसी प्रकार से संयम के और तरीके निश्चित करने चाहिए । मन को ठीक रखने के लिए प्राणायाम, ध्यान, संगीत, जप जैसा अन्य कोई साधन नहीं है ।
 
+
* नाड़ी शुद्धि प्राणायाम अत्यन्त उपयोगी है । साथ ही ध्यान भी उपयोगी है । अनेक उपायों से मन को ठीक करने से मन विचारों के रूप में ज्ञानार्जन करने के लायक बनता है । मन द्वारा ग्रहण किए गए विचार बुद्धि के समक्ष प्रस्तुत होते हैं । ऐसा होने पर बुद्धि ज्ञानार्जन के क्षेत्र में अपना काम करती है । आज मन की शिक्षा के अभाव में मन को विचार ग्रहण करने लायक बनाना चाहिये और जैसे ग्रहण किए हैं वैसे ही बुद्धि के समक्ष प्रस्तुत करना सिखाना चाहिए । शिक्षा के क्षेत्र में सर्वत्र अराजक फैला हुआ है । मन को ठीक करना चाहिए यह मूल उपाय है परन्तु वह छोड़कर ट्यूशन, ढेर सारे उपकरण, तरह तरह के नवाचार आदि के रूप में उपाय खोजे जाते हैं परन्तु वे परिणामकारी होते नहीं हैं , इस बात को ठीक से समझना चाहिये ।
होती है । गायक की निपुणता उसके गायन में, खाना बनाने
  −
 
  −
वाले की निपुणता उसके भोजन में और कुम्हार की निपुणता
  −
 
  −
वह जब पात्र बना रहा है उसकी प्रक्रिया में दिखाई देती है ।
  −
 
  −
अनुभवी कुम्हार, अनुभवी गृहिणी, अनुभवी गायक मिट्टी
  −
 
  −
का लोंडा उठाने मात्र से या पदार्थ में मसाला डालने के
  −
 
  −
लिए चुटकी में लेते हुए या कठ से जरा सा स्वर निकलते
  −
 
  −
ही परखा जाता है । इतना वह परिणामकारी होता है ।
  −
 
  −
आज कर्मन्ट्रियों की क्रियाओं की इतनी दुर्दशा हुई है
  −
 
  −
कि उसे फूहड़ कहना ही ठीक लगता है । एक तो हाथ, पैर
  −
 
  −
आदि अब काम करने के लिए हैं ऐसा हमें लगता ही नहीं
  −
 
  −
है । परन्तु इस धारणा में ही बदल करने की आवश्यकता है
  −
 
  −
क्योंकि काम नहीं किया तो ये इंद्रियाँ स्वस्थ नहीं रहतीं और
  −
 
  −
उन्हें यंत्र की तरह ही जंग लग जाती है । आज का अक्रिय
  −
 
  −
मनोरंजन कर्मेन्ट्रि यों को बीमार कर देता है। अक्रिय का
  −
 
  −
अर्थ यह है कि हम संगीत सुनना चाहते हैं, स्वयं गाना
  −
 
  −
नहीं, नृत्य देखना चाहते हैं, स्वयं नृत्य करना नहीं, हम
  −
 
  −
यंत्रों से काम करवाना चाहते हैं हाथ से नहीं । हम वाहन से
  −
 
  −
आनाजाना चाहते हैं, पैरों से नहीं । इस कारण से कर्मन्ट्रियों
  −
 
  −
को असुख का अनुभव होता है, वे अपमानित और उपेक्षित
  −
 
  −
अनुभव करती हैं, काम करने से वंचित रहती हैं इसलिए
  −
 
  −
श्२९
  −
 
  −
उदास रहती हैं और इसका परिणाम यह
  −
 
  −
होता है कि भोक्ता अर्थात हम स्वयं आनन्द का अनुभव
  −
 
  −
नहीं कर सकते । काम करने का आनन्द क्या होता है
  −
 
  −
इसका हमें अनुभव ही नहीं होता है ।
  −
 
  −
बाल अवस्था में कर्मेन्ट्रियाँ सक्रिय होने लगती हैं
  −
 
  −
और काम चाहती हैं । यह ऐसा ही है जिस प्रकार भूख
  −
 
  −
लगने पर पेट भोजन मांगता है । भूख इसलिए लगती है
  −
 
  −
क्योंकि भोजन से शरीर की पुष्टि होती है । भूख लगने पर
  −
 
  −
भोजन नहीं किया तो शरीर कृश होने लगता है, बलहीन
  −
 
  −
होता है और अस्वस्थ भी होने लगता है । अच्छा भोजन
  −
 
  −
नहीं होने पर शरीर बीमार भी होता है । उसी प्रकार
  −
 
  −
बालअवस्था में कर्मन्द्रियाँ काम मांगती हैं क्योंकि यह
  −
 
  −
उनकी आवश्यकता है । उस समय काम मिला और वह
  −
 
  −
अच्छे से करना सिखाया तो वे सुख का अनुभव करती हैं,
  −
 
  −
उन्हें अपने होने में सार्थकता का अनुभव होता है और वे
  −
 
  −
स्वस्थ और कार्यक्षम होती हैं । अत: बालअवस्था की
  −
 
  −
शिक्षा क्रियाआधारित होनी चाहिए । क्रिया सिखाना पहली
  −
 
  −
बात है और क्रिया के माध्यम से अन्य बातें सीखना दूसरी
  −
 
  −
बात है ।
  −
 
  −
केवल कर्मेन्द्रियाँ ही क्रिया करती हैं ऐसा नहीं है ।
  −
 
  −
कर्मन्द्रियों के साथ साथ, कर्मेन्ट्रि यों की सहायता से पूरा
  −
 
  −
शरीर क्रिया करता है । पूरा शरीर यंत्र ही है जो काम करने
  −
 
  −
के लिए बना है । शरीर को कार्यशील रखना आवश्यक है ।
  −
 
  −
उस दृष्टि से उसे काम करना सीखाना चाहिए और उससे
  −
 
  −
काम लेना चाहिए । शरीर कार्यशील रहे इसलिए उसकी
  −
 
  −
आवश्यकताओं की पूर्ति करनी चाहिए । उसकी रक्षा भी
  −
 
  −
करनी चाहिए । अन्न, वस्त्र, आवास की योजना शरीर को
  −
 
  −
ध्यान में रखकर होनी चाहिए । यह विषय वैसे तो अति
  −
 
  −
सामान्य है । परन्तु आज तथाकथित बडी बड़ी बातों के
  −
 
  −
पीछे लगकर हमने इस सामान्य परन्तु अत्यन्त आवश्यक
  −
 
  −
विषय को विस्मृत कर दिया है । ऐसा करने के कारण पूरी
  −
 
  −
शिक्षा दुर्बल और निस्तेज बन गई है । भारतीय शिक्षा को
  −
 
  −
पुन: शरीर रूपी यंत्र को कार्यरत करना होगा ।
  −
 
  −
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  −
 
  −
भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप
  −
 
  −
संवेदन ध्वनियुक्त, वैसे ही कर्कश वाद्ययन्त्रों का संगीत, तेज
  −
 
  −
पाँच कर्मेन्द्रियों की तरह पाँच ज्ञानेंद्रिया हैं। वे हैं मसालों से युक्त खाद्य पदार्थ ज्ञानेन्द्रियों की संबेदनाओं को
  −
 
  −
नाक, कान, जीभ, आँखें और त्वचा । इन्हें क्रमश: .. अंधिर कर देते हैं । इन खोई हुई संवेदनशक्ति फिर से इस
  −
 
  −
avita, saita, «ita sea wifes, FHA तो प्राप्त नहीं की ect सकती । जैसे जैसे इंद्रियाँ
  −
 
  −
aga sik anita कहते हैं । ये सब बाहरी जगत का... जधिर होती जाती हैं हम विषयों की तीब्रता बढ़ाते जाते हैं
  −
 
  −
अनुभव करते हैं । वास्तव में ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से ही और शक्तियाँ और क्षीण होती जाती हैं । छोटी आयु में
  −
 
  −
चश्मा, भोजन में रुचिहीनता और स्वाद की पहचान का
  −
 
  −
अभाव, धीमी आवाज नहीं सुनाई देना आदि लक्षण तो हम
  −
 
  −
रोज रोज अपने आसपास देखते ही हैं ।
  −
 
  −
हम बाहरी जगत के साथ सम्पर्क में आते हैं । इनके अभाव
  −
 
  −
में हम बाहर के जगत को जान ही नहीं सकते ।
  −
 
  −
शब्द अथवा ध्वनि कान का विषय है, स्पर्श त्वचा के
  −
 
  −
का विषय है, गंध नाक का, स्वाद जीभ का और रंग और अतः पहली बात तो इनका हम रक्षण कैसे करें
  −
 
  −
आकार आँख का विषय है । ज्ञानिंद्रियाँ इन विषयों को... रैसका ही विचार करना है ।
  −
 
  −
संवेदनों के रूप में ग्रहण करती हैं । बाहरी जगत में इन्हें इंद्रियों की शक्ति का दूसरा आधार है नाड़ीशुद्धि ।
  −
 
  −
तन्मात्रा कहते हैं और अपने शरीर में संवेदन । हमारे शरीर में बहत्तर हजार नाड़ियाँ हैं जो इंद्रियों के
  −
 
  −
ज्ञानिन्द्रियाँ वस्तु को वस्तु के रूप में नहीं अपितु संवेदनों को वहन करने का काम करती हैं । इन नाड़ियों की
  −
 
  −
संवेदन के रूप में ग्रहण करती हैं । वस्तु का संवेदन में... रशुद्धि के कारण संवेदनों के वहन में अवध निर्माण होता
  −
 
  −
रूपान्तरण वस्तु की तन्मात्रा शक्ति से और इंद्रिय की संवेदन .. हैं ! प्राणशक्ति के बल पर वे काम करती है । ज्ञानेन्दरियों
  −
 
  −
शक्ति से होता है। का नियंत्रण करने का काम भी प्राण करते हैं । अत:
  −
 
  −
प्राणशक्ति दुर्बल रही तो भी संबेदनशक्ति क्षीण होती है ।
  −
 
  −
प्राणशक्ति का. आधार आहार, विहार, निद्रा और
  −
 
  −
श्वसनप्रक्रिया पर है । ये सब ठीक रहे तो प्राणशक्ति अच्छी
  −
 
  −
बाहरी जगत का सम्यक ज्ञान हो इसलिए ज्ञानेन्द्रियों
  −
 
  −
को सक्षम बनाना चाहिए । वे यदि दुर्बल रहीं तो बाहरी
  −
 
  −
जगत को जानना कठिन हो जाता है। इस दृष्टि से
  −
 
  −
ज्ञानेन्द्रियों को संवेदनक्षम बनाना अत्यन्त आवश्यक है। . हँती है। वे टी ठीक नहीं रहे तो प्राणशक्ति और
  −
 
  −
यह काम लगता है उतना सरल नहीं है । परिणामस्वरूप इंद्रियों की शक्ति क्षीण होती है ।
  −
 
  −
yoy db afl A a ar ea ad a पर्यावरण ठीक नहीं रहा तो भी ज्ञानेन््रियों पर प्रभाव
  −
 
  −
बचाना चाहिए। जब बालक का जन्म होता है तब. रीता है। ee FETS, कुरूप, कोलाहलयुक्त
  −
 
  −
ज्ञानेंद्रियाँ बहुत नाजुक होती हैं । उस समय तीव्र अनुभवों. ाकर्ग में इंद्रियों को सुख का अनुभव नहीं होता । अतः
  −
 
  −
से बचाना चाहिए । बड़ी और कर्कश आवाज, तेज प्रकाश, पर्यावरण भी ठीक चाहिए । संतर्पण
  −
 
  −
तीव्र गंध, कठोर स्पर्श, बेस्वाद्‌ औषध ज्ञानिन्द्रियों की इंद्रियों को रक्षण, पोषण और संतर्पण की
  −
 
  −
क्षमता तीव्र गति से कम कर देते हैं । आज तो यह संकट... आवश्यकता होती है । रक्षण और पोषण की बात तो समझ
  −
 
  −
बहुत गहरा गया है। जन्म से ही क्षमताओं के हास का में आती है परन्तु संतर्पण ei चिन्ता भी करनी चाहिए |
  −
 
  −
प्रारंभ हो जाता है । आयुष्य के प्रथम दस दिनों में लगभग संतर्पण का अर्थ है इंद्रियों को अपने अपने विषयों का
  −
 
  −
पचास प्रतिशत नुकसान हो जाता है । आहार मिलना । सुमधुर और सात्विक संगीत, सुन्दर,
  −
 
  −
दैनंदिन जीवन में भड़कीले असुन्दर कृत्रिम रंग, बेढब ... गमोहँक दृश्य, सात्त्विक, स्वादिष्ट पदार्थों का स्वाद, मधुर
  −
 
  −
आकृतियाँ, घृणास्पद एवं जुगुप्सात्मक दृश्य, टीवी, कंप्यूटर. "१ः सुखद स्पर्श इंद्रियों को सुख देता है । ये सब उन्मादक
  −
 
  −
sit Haga A ail, उत्तेजक, बेसुरा, कर्कश, तेज... हैं तो इंद्रियों को कष्ट होता है और वे क्षीण होती हैं ।
  −
 
  −
१३०
  −
 
  −
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  −
 
  −
पर्व ३ : शिक्षा का मनोविज्ञान
  −
 
  −
अत: इन सभी बातों का भी ध्यान रखना चाहिए ।
  −
 
  −
इंद्रियों की शक्ति केवल देखने की या सुनने की शक्ति
  −
 
  −
ही नहीं है, उनको ठीक तरह और सूक्ष्मता से सुनने देखने
  −
 
  −
आदि की शक्ति है । रंग या गंध या ध्वनि पूर्ण क्षमता के
  −
 
  −
साथ ग्रहण करना यह एक मुद्दा है और सूक्ष्म भेद परखना
  −
 
  −
दूसरी क्षमता है । उदाहरण के लिए कपड़े की मीलों में जो
  −
 
  −
डाइंग मास्टर होते हैं वे रंगों की सूक्ष्म छटायें पहचानते हैं
  −
 
  −
और भेद बताते हैं । दर्जी कपड़ा देखता है और बिना नापे
  −
 
  −
उसमें से वस्त्र बनेगा कि नहीं यह कह देता है । गृहिणी दाल
  −
 
  −
या सब्जी की मात्रा देखकर कितना नमक या मिर्च चाहिए
  −
 
  −
वह हाथ में भरकर बता देती है । पहचानने की यह क्षमता
  −
 
  −
बुद्धि की अनुमान शक्ति है परन्तु उसका साधन इंट्रियाँ हैं ।
  −
 
  −
हमारे ज्ञानार्जन का बड़ा आधार इंट्रियों की क्षमता पर
  −
 
  −
है । हमारे सुख का भी बड़ा आधार इंद्रियों की क्षमता पर
  −
 
  −
है। चारों ओर सुन्दरता तो बहुत फैली हुई है परन्तु ग्रहण
  −
 
  −
करने के लिए साधन ही नहीं है तो उस सुन्दरता का हम
  −
 
  −
क्या करेंगे ? परन्तु जब ग्रहण कभी किया ही न हो तो हम
  −
 
  −
किन बातों से वंचित रह रहे हैं इसका अभी पता कैसे
  −
 
  −
चलेगा ? अतः वंचित रह जाने का भी दुःख नहीं होता ।
  −
 
  −
संक्षेप में ज्ञानेन्द्रियों की क्षमता प्राप्त करने की, प्राप्त
  −
 
  −
क्षमताओं का रक्षण करने की और उन्हें बढ़ाने की चिन्ता
  −
 
  −
करनी चाहिए ।
  −
 
  −
== विचार ==
  −
ठोस पदार्थ का, प्रत्यक्ष घटना का, व्यक्त वाणी का
  −
 
  −
सूक्ष्म स्वरूप विचार है । विचार इंट्रियगम्य नहीं है । वह
  −
 
  −
मनोगम्य है । ठोस पदार्थों का ज्ञान इंट्रियों को होता है ।
  −
 
  −
इंद्रियाँ भी ठोस रूप को सूक्ष्म संबेदनों में ही रूपांतरित
  −
 
  −
करती हैं । वे रूपांतरित करती हैं यह कहना भी ठीक नहीं
  −
 
  −
होगा । ठोस पदार्थ के साथ ही उसका संवेदन स्वरूप होता
  −
 
  −
ही है । उस संवेदन रूप को ही तन्मात्रा कहते हैं यह हमने
  −
 
  −
अभी देखा । पदार्थ का उससे भी सूक्ष्म स्वरूप विचार का
  −
 
  −
है । मन पदार्थ को विचार के रूप में ग्रहण करता है ।
  −
 
  −
इंद्रियों के संवेदनों को मन विचार के रूप में ग्रहण
  −
 
  −
श्३१
  −
 
  −
करता है । परन्तु उसमें बहुत अवरोध
  −
 
  −
आते हैं । प्रथम अवरोध तो मन के स्वत: के स्वभाव का
  −
 
  −
है। मन स्वयं इतना चंचल है की अपनी चंचलता के
  −
 
  −
कारण कभी यहाँ का तो कभी वहाँ का तरंग ग्रहण करता
  −
 
  −
है। वह विचारों को पूर्ण रूप से ग्रहण ही नहीं करता ।
  −
 
  −
बाहर के विश्व में असंख्य भिन्न भिन्न विचार तरंग होते हैं ।
  −
 
  −
मन उन सबको ग्रहण करने के लिए भागदौड़ करता है और
  −
 
  −
एक भी ठीक से नहीं करता । मन एकाग्र नहीं होने से विषय
  −
 
  −
को ग्रहण करना उसके लिए कठिन हो जाता है ।
  −
 
  −
मन यदि एकाग्र रहा तो इंद्रियाँ जिस विषय को ग्रहण
  −
 
  −
कर रही हैं उस विषय के संबेदनों के विचार पूर्ण रूप से
  −
 
  −
ग्रहण कर पाता है । एकाग्र नहीं रहा तो थोड़ा ग्रहण करता
  −
 
  −
है, शेष छूट जाता है । जिस प्रकार किसीका भाषण चल
  −
 
  −
रहा है और लिखने वाला बोलने वाले की गति से लिख
  −
 
  −
नहीं पाता तब कुछ बातें छूट जाती हैं वैसे ही मन अपनी
  −
 
  −
अनुपस्थिति के कारण बहुत बातें छोड़ देता है । जब एक
  −
 
  −
बात को छोड़ देता है तब दूसरी जगह पर वह होता है और
  −
 
  −
वहाँ के विचार तरंगों को ग्रहण कर रहा होता है । अत:
  −
 
  −
तरह तरह के विचारतरंग एक साथ मिल जाते हैं और एक
  −
 
  −
भी विषय पूर्ण रूप से ग्रहण नहीं होता । ऐसे अनेकाग्र मन
  −
 
  −
से अध्ययन नहीं हो सकता ।
  −
 
  −
मन का दूसरा लक्षण है उत्तेजना । उत्तेजना की स्थिति
  −
 
  −
चूल्हे पर रखे खौलते पानी जैसी है । शांत पानी में पदार्थ
  −
 
  −
का प्रतिबिम्ब पदार्थ के समान ही दिखता है, परन्तु खौलते
  −
 
  −
पानी में उसी पदार्थ के टुकड़े टुकड़े दिखाई देते हैं । दोष
  −
 
  −
पदार्थ का नहीं होता, दोष खौलते हुए पानी का होता है ।
  −
 
  −
मन भी हर्ष, शोक, चिन्ता, भय, मान, अपमान के संवेगों
  −
 
  −
से खौलता रहता है । लोभ लालच भी उस पर सवार हो
  −
 
  −
जाते हैं । यश और कीर्ति भी उसे उत्तेजित कर देते हैं । इस
  −
 
  −
अवस्था में वह विषय के विचार तरंगों को खंड खंड में ही
  −
 
  −
ग्रहण करता है और एक बेढब आकृति बन जाती है
  −
 
  −
जिसकी आँखें मछली जैसी, नाक तोते जैसी, पूंछ कुत्ते
  −
 
  −
जैसी, पैर हिरण जैसे, दाँत शूर्पणखा जैसे, पूरा मुख वानर
  −
 
  −
जैसा, बोली वक्ता जैसी होती है। मन की उत्तेजना के
  −
 
  −
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  −
 
  −
कारण ग्रहण किया हुआ चित्र इससे भी
  −
 
  −
विचित्र हो सकता है । उसमें कोई कार्यकारण सम्बन्ध नहीं
  −
 
  −
होता । हम समझ सकते हैं कि मन की स्थिति जब ऐसी
  −
 
  −
होगी तब अध्ययन कैसे सम्भव है ?
  −
 
  −
मन का एक और लक्षण है । मन आसक्त हो जाता
  −
 
  −
है। आसक्ति के कारण वह जो भी विचार तरंग अनुकूल
  −
 
  −
लगता है उसमें चिपक जाता है और उससे छुटना नहीं
  −
 
  −
चाहता । छुटना पड़े तो वह दुःखी होता है और दुःख की
  −
 
  −
अवस्था में ग्रहण करना ही बंद कर देता है । अथवा विषय
  −
 
  −
को नकारात्मक रूप में ग्रहण करता है । उदाहरण के लिए
  −
 
  −
कोई एक पुरस्कार की उसे अपेक्षा है और वह उसे मिलता
  −
 
  −
नहीं है । तब पहले वह दुःखी होता है, बाद में क्रोधित
  −
 
  −
होता है और पुरस्कार नहीं देने वाले के प्रति नाराज हो
  −
 
  −
जाता है । परन्तु इतने से ही पुरस्कार की आसक्ति से वह
  −
 
  −
मुक्त नहीं होता । मन में वह रहता है इसलिए अध्ययन करते
  −
 
  −
समय भी विषय को नकारात्मक रूप में ही ग्रहण करता है ।
  −
 
  −
कोई एक प्राध्यापक उसे परीक्षा में कम अंक देता है । वह
  −
 
  −
कम अंक के लायक ही होता है । तब भी पहले वह दुःखी
  −
 
  −
होता है, फिर दूसरों के समक्ष लज्जित होता है, फिर नाराज
  −
 
  −
होता है और उस प्राध्यापक का प्रवचन उसे फालतू लगता
  −
 
  −
है । या कभी सही या गलत ढंग से भी किसी प्राध्यापक ने
  −
 
  −
उसे शाबाशी दी है तो उसका प्रवचन उसे अच्छा लगता
  −
 
  −
है । आसक्ति के कारण वह पूर्वग्रहों से ग्रस्त हो जाता है तो
  −
 
  −
उस विषय का आकलन ठीक से नहीं करता ।
  −
 
  −
जो भी विचार तरंग मन तक आते हैं उन्हें वह अपने
  −
 
  −
रागट्रेष, रुचिअरुचि, इच्छा अनिच्छा आदि के रंग में रंग
  −
 
  −
देता है । इसलिए संवेदनों के स्तर पर विषय का जो स्वरूप
  −
 
  −
होता है वह बदल जाता है । अपनी स्थिति और प्रवृत्ति के
  −
 
  −
अनुसार मन उसका रूप परिवर्तन कर देता है । इसलिए
  −
 
  −
कहने वाला कहता है और सुनने वाला समझता है उसमें
  −
 
  −
अन्तर पड़ता है । बोलने वाला अपने संदर्भों में कहता है
  −
 
  −
और सुनने वाला अपने मन के संदर्भों में सुनता है । दोनों
  −
 
  −
की एकवाक्यता नहीं होती । ऐसी मन की प्रवृत्ति अजब है ।
  −
 
  −
ऐसा मन लेकर कोई भी कैसे अध्ययन कर सकता है
  −
 
  −
श्३२
  −
 
  −
भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप
  −
 
  −
या ज्ञान ग्रहण कर सकता है ? ऐसे मन से ज्ञान का क्या
  −
 
  −
स्वरूप बनेगा ? जाहीर है कि क्या होगा कह नहीं सकते ।
  −
 
  −
अतः मन को ठीक करने की आवश्यकता रहती है । मन
  −
 
  −
एकाग्र होना यह अध्ययन की प्रथम आवश्यकता है । मन
  −
 
  −
शांत होना दूसरी आवश्यकता है । मन अनासक्त अर्थात
  −
 
  −
स्वस्थ होना तीसरी आवश्यकता है ।
  −
 
  −
मन को इस स्थिति में लाना सरल नहीं है क्योंकि मन
  −
 
  −
बहुत बलवान और जिद्दी है । मन को ऐसा बनाने के लिए
  −
 
  −
देखा जाय तो बहुत सादे उपाय हैं परन्तु मन उन्हें चलने
  −
 
  −
नहीं देता ।
  −
 
  −
उपाय कुछ इस प्रकार हैं ...
  −
 
  −
आहार : मन को अच्छा बनाने के लिए सात्चिक
  −
 
  −
आहार आवश्यक है । आज के तथाकथित वैज्ञानिक
  −
 
  −
युग में पौष्टिक आहार की बात तो सर्वत्र होती है,
  −
 
  −
विज्ञापन तो पौष्टिकता की भी ऐसीतैसी कर देते हैं,
  −
 
  −
परन्तु सात्त्तिक आहार की संकल्पना परिचित भी नहीं
  −
 
  −
है, है तो गलत रूप से परिचित है और परिचित है
  −
 
  −
तो भी मान्य नहीं है। वे कहते हैं कि सात्तिक
  −
 
  −
भोजन स्वादिष्ट नहीं होता, बीमारों के खाने जैसा
  −
 
  −
होता है और खाया नहीं जाता । परन्तु यह धारणा
  −
 
  −
गलत है । सात्तिक आहार पौष्टिक या स्वादिष्ट नहीं
  −
 
  −
होता ऐसा नहीं है । शरीर स्वस्थ रहने के लिए जिस
  −
 
  −
प्रकार पौष्टिक आहार चाहिए उस प्रकार मन अच्छा
  −
 
  −
रहने के लिए सात्त्विक आहार आवश्यक है । ज्ञान के
  −
 
  −
साथ जुड़े हुए सबको सात्त्विक आहार के विषय में
  −
 
  −
जानकारी प्राप्त कर लेनी चाहिए ।
  −
 
  −
मन को ठीक रखने के लिए हर प्रकार के ब्रत और
  −
 
  −
नियमों के विषय में युगानुकूलता अवश्य बरतनी
  −
 
  −
चाहिए । उदाहरण के लिए इकछ्कीसवीं शताब्दी में
  −
 
  −
सप्ताह में एक दिन होटल का, एक दिन मोबाइल
  −
 
  −
का, एक दिन टीवी का, एक दिन वाहन का, एक
  −
 
  −
दिन प्लास्टिक का उपवास रख सकते हैं । इसी
  −
 
  −
प्रकार से संयम के और तरीके निश्चित करने चाहिए ।
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मन को ठीक रखने के लिए प्राणायाम, ध्यान,
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पर्व ३ : शिक्षा का मनोविज्ञान
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संगीत, जप जैसा अन्य कोई साधन नहीं है ।
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नाडीशुद्धि प्राणायाम अत्यन्त उपयोगी है । साथ ही
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ध्यान भी उपयोगी है ।
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अनेक उपायों से मन को ठीक करने से मन विचारों
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के रूप में ज्ञानार्जन करने के लायक बनता है । मन
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द्वारा ग्रहण किए गए विचार बुद्धि के समक्ष प्रस्तुत
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होते हैं । ऐसा होने पर बुद्धि ज्ञानार्जन के क्षेत्र में
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अपना काम करती है ।
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आज मन की शिक्षा के अभाव में मन को विचार
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ग्रहण करने लायक बनाना चाहिये और जैसे ग्रहण किए हैं
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वैसे ही बुद्धि के समक्ष प्रस्तुत करना सिखाना चाहिए ।
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शिक्षा के क्षेत्र में सर्वत्र अराजक फैला हुआ है । मन को
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ठीक करना चाहिए यह मूल उपाय है परन्तु वह छोड़कर
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स्थूशन, ढेर सारे उपकरण, तरह तरह के नवाचार आदि के
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रूप में उपाय खोजे जाते हैं परन्तु वे परिणामकारी होते नहीं
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हैं , इस बात को ठीक से समझना चाहिये ।
      
== विवेक ==
 
== विवेक ==
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प्रश्न यह उठेगा कि फिर बुद्धि सीधे ही निरीक्षण क्यों
 
प्रश्न यह उठेगा कि फिर बुद्धि सीधे ही निरीक्षण क्यों
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नहीं करती, मन को बीच में लाती ही क्यों है ? या इंट्रियाँ
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नहीं करती, मन को बीच में लाती ही क्यों है ? या इन्द्रियां
    
सीधे बुद्धि के समक्ष अपने संवेदनों को क्यों नहीं भेजतीं ।
 
सीधे बुद्धि के समक्ष अपने संवेदनों को क्यों नहीं भेजतीं ।
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भौतिकवाद से बचाने का काम प्रथम करना होगा ।
 
भौतिकवाद से बचाने का काम प्रथम करना होगा ।
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दूसरा अवरोध यह है कि हम इंट्रियों और मन में
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दूसरा अवरोध यह है कि हम इंद्रियों और मन में
    
अटक गए हैं। भौतिकवाद में अतिशय विश्वास होनेके
 
अटक गए हैं। भौतिकवाद में अतिशय विश्वास होनेके
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भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप
 
भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप
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सुख बिना इंट्रियों के होता है । किसी भी प्रकार से हो मन
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सुख बिना इंद्रियों के होता है । किसी भी प्रकार से हो मन
    
से होने वाला ज्ञान सापेक्ष ही होता है । मन तत्त्वार्थ नहीं
 
से होने वाला ज्ञान सापेक्ष ही होता है । मन तत्त्वार्थ नहीं
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वह हाथ में भरकर बता देती है । पहचानने की यह क्षमता
 
वह हाथ में भरकर बता देती है । पहचानने की यह क्षमता
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बुद्धि की अनुमान शक्ति है परन्तु उसका साधन इंट्रियाँ हैं ।
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बुद्धि की अनुमान शक्ति है परन्तु उसका साधन इन्द्रियां हैं ।
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हमारे ज्ञानार्जन का बड़ा आधार इंट्रियों की क्षमता पर
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हमारे ज्ञानार्जन का बड़ा आधार इंद्रियों की क्षमता पर
    
है । हमारे सुख का भी बड़ा आधार इंद्रियों की क्षमता पर
 
है । हमारे सुख का भी बड़ा आधार इंद्रियों की क्षमता पर
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ठोस पदार्थ का, प्रत्यक्ष घटना का, व्यक्त वाणी का
 
ठोस पदार्थ का, प्रत्यक्ष घटना का, व्यक्त वाणी का
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सूक्ष्म स्वरूप विचार है । विचार इंट्रियगम्य नहीं है । वह
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सूक्ष्म स्वरूप विचार है । विचार इंद्रियगम्य नहीं है । वह
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मनोगम्य है । ठोस पदार्थों का ज्ञान इंट्रियों को होता है ।
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मनोगम्य है । ठोस पदार्थों का ज्ञान इंद्रियों को होता है ।
    
इंद्रियाँ भी ठोस रूप को सूक्ष्म संबेदनों में ही रूपांतरित
 
इंद्रियाँ भी ठोस रूप को सूक्ष्म संबेदनों में ही रूपांतरित
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प्रश्न यह उठेगा कि फिर बुद्धि सीधे ही निरीक्षण क्यों
 
प्रश्न यह उठेगा कि फिर बुद्धि सीधे ही निरीक्षण क्यों
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नहीं करती, मन को बीच में लाती ही क्यों है ? या इंट्रियाँ
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नहीं करती, मन को बीच में लाती ही क्यों है ? या इन्द्रियां
    
सीधे बुद्धि के समक्ष अपने संवेदनों को क्यों नहीं भेजतीं ।
 
सीधे बुद्धि के समक्ष अपने संवेदनों को क्यों नहीं भेजतीं ।
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भौतिकवाद से बचाने का काम प्रथम करना होगा ।
 
भौतिकवाद से बचाने का काम प्रथम करना होगा ।
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दूसरा अवरोध यह है कि हम इंट्रियों और मन में
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दूसरा अवरोध यह है कि हम इंद्रियों और मन में
    
अटक गए हैं। भौतिकवाद में अतिशय विश्वास होनेके
 
अटक गए हैं। भौतिकवाद में अतिशय विश्वास होनेके
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भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप
 
भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप
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सुख बिना इंट्रियों के होता है । किसी भी प्रकार से हो मन
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सुख बिना इंद्रियों के होता है । किसी भी प्रकार से हो मन
    
से होने वाला ज्ञान सापेक्ष ही होता है । मन तत्त्वार्थ नहीं
 
से होने वाला ज्ञान सापेक्ष ही होता है । मन तत्त्वार्थ नहीं

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