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→‎माता बालक की प्रथम गुरु: लेख सम्पादित किया
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गौरव शब्द ही गुरु से बना है । सुभाषित कहता है कि माता जैसा कोई गुरु नहीं । अतः अपने बालक का गुरु बनना हर माता का दायित्व है । गुरु सिखाता है, गुरु ज्ञान देता है, गुरु चरित्रनिर्माण करता है, गुरु जीवन गढ़ता है । माता को यह सब करना है । इस बात का ज्ञान नहीं होने के कारण आज की मातायें चरित्र-निर्माण, ज्ञान, जीवन गढ़ना आदि बातों से अनभिज्ञ होती हैं इसलिये जानती ही नहीं कि क्या करना और क्या नहीं करना । माता यदि मातृभाव से परिपूर्ण है तो उसका प्रभाव टी.वी, से या बाहर के किसी भी अन्य आकर्षणों से अधिक होता है । आजकल हम एक शिकायत हमेशा सुनते हैं कि बच्चे टी.वी. और इण्टरनेट के कारण बिगड़ जाते हैं । इसका मूल कारण माता और पिता का गुरुत्व कम हो गया है, यह है । उनका प्रभाव न संस्कार देने में है, न टी.वी. आदि से परावृत करने में । और एक शिकायत भी सुनने को मिलती है कि आजकल बच्चे माता-पिता का या बडों का कहना नहीं मानते हैं । इसका भी मूल कारण माता-पिता या बड़े अपना गुरुत्व और बडप्पन बनाये नहीं रखते हैं, यही है । सारांश यह है कि माता को गुरु बनना सीखना है । परन्तु सीखना याने क्या करना ?
 
गौरव शब्द ही गुरु से बना है । सुभाषित कहता है कि माता जैसा कोई गुरु नहीं । अतः अपने बालक का गुरु बनना हर माता का दायित्व है । गुरु सिखाता है, गुरु ज्ञान देता है, गुरु चरित्रनिर्माण करता है, गुरु जीवन गढ़ता है । माता को यह सब करना है । इस बात का ज्ञान नहीं होने के कारण आज की मातायें चरित्र-निर्माण, ज्ञान, जीवन गढ़ना आदि बातों से अनभिज्ञ होती हैं इसलिये जानती ही नहीं कि क्या करना और क्या नहीं करना । माता यदि मातृभाव से परिपूर्ण है तो उसका प्रभाव टी.वी, से या बाहर के किसी भी अन्य आकर्षणों से अधिक होता है । आजकल हम एक शिकायत हमेशा सुनते हैं कि बच्चे टी.वी. और इण्टरनेट के कारण बिगड़ जाते हैं । इसका मूल कारण माता और पिता का गुरुत्व कम हो गया है, यह है । उनका प्रभाव न संस्कार देने में है, न टी.वी. आदि से परावृत करने में । और एक शिकायत भी सुनने को मिलती है कि आजकल बच्चे माता-पिता का या बडों का कहना नहीं मानते हैं । इसका भी मूल कारण माता-पिता या बड़े अपना गुरुत्व और बडप्पन बनाये नहीं रखते हैं, यही है । सारांश यह है कि माता को गुरु बनना सीखना है । परन्तु सीखना याने क्या करना ?
# बालक के सामने अन्य सभी बातों को गौण मानना । अपने से भी पहले बालक को मानना । चाहिये । परिचर्या का अर्थ है स्नान, मालिश, शौच,
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# बालक के सामने अन्य सभी बातों को गौण मानना । अपने से भी पहले बालक को मानना ।
''माता ऐसा करती है कि नहीं इसका पता बालक को स्वच्छता, कपड़े, बिस्तर आदि के रूप में सेवा ।''
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# -----------pg 242----------  अपने से भी पहले बालक को मानना | माता ऐसा करती है कि नहीं इसका पता बालक को स्वत: से चल जाता है इसलिये इसमें कोई दिखावा नहीं चलता । . बालक को अपने हाथ से खिलाना चाहिए। एक श्लोक है - दान॑ कुर्यात्‌ स्वहस्तेन परहस्तेन मर्दनम्‌ । औषदधे वैद्यहस्तेन मातृहस्तेन भोजनम्‌ ।। अर्थात्‌ दान अपने हाथ से करना चाहिये, शरीर की मालिश दूसरे के हाथ से करवाना अच्छा है, औषध वैद्य के हाथ से लेने में भलाई है और भोजन माता के हाथ से करना श्रेयस्कर है । माता के हाथ से भोजन का अर्थ है बालक के लिये भोजन बनाना और बालक को भोजन करवाना | स्तनपान से यह कार्य शुरू होता है और पूर्ण भोजन तक पहुँचता है | भोजन का प्रभाव शरीर, प्राण, मन, बुद्धि, चित्त सभी पर होता है । इसका अर्थ है भोजन के माध्यम से माता का भी बालक के मन, बुद्धि आदि सब पर प्रभाव होता है । बालक के लिये भोजन बनाते समय केवल भोजन के विषय में नहीं अपितु बालक के विषय में भी पता चलता है। बालक की रुचि-अरुचि, स्वभाव, गुण-दोष, स्वास्थ्य, क्षमतायें आदि सभी बातों की जानकरी प्राप्त होती है। बालक जिस प्रकार अन्तःप्रज्ञा से सबकुछ समझता है उसी प्रकार माता भी अन्तर्मन से बालक के विषय में सबकुछ जानती है। इतनी निकटता 'मातृहस्तेन भोजनम्‌_ के माध्यम से प्राप्त होती है। 'मातृहस्तेन भोजनम्‌' केवल बालक का ही नहीं, माता का भी अधिकार है । मन से इसको स्वीकार करने के लिये और इसके आवश्यक कला-कौशल सीखने के लिये माता को अपनी करिअर, अपना वेतन, अपना जॉब, अपना शौक, अपना घर का काम आदि सभी बातों से भी बालक का भोजन अधिक महत्त्वपूर्ण है ऐसा लगना चाहिये । ३. इसी प्रकार शिशु की परिचर्या करना भी सीखना चाहिये । परिचर्या का अर्थ है स्नान, मालिश, शौच, स्वच्छता, कपड़े, बिस्तर आदि के रूप में सेवा । भोजन की ही तरह ये सब भी सम्बन्ध बनाने के माध्यम है । ४. बालक के लिये माता को और जो बातें सीखनी हैं वे हैं उसके खिलौने, उसके कपडे आदि का चयन | खिलौनों और कपडों का पूरा शास्सखत्र होता है। माता को इस शास्त्र का ज्ञान होना चाहिये | कम शिक्षित परन्तु श्रद्धावान माता आप्जनों से यह ज्ञान प्राप्त कर सकती है, उच्चशिक्षित माता शाखतग्रन्थों का स्वयं अध्ययन कर अथवा शास्त्र वेत्ताओं से यह ज्ञान प्राप्त कर सकती है। खिलौनों और कपडों का विषय स्वास्थ्य और संस्कार दोनों दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है । इस विषय के नितान्त अज्ञान के कारण माता-पिता महूँगे कपडे और खिलौने लाने में ही इति कर्तव्यता मानते हैं | प्लास्टिक के खिलौने, सोफ्ट टोयझ, पोलिएस्टर के कपड़े, ढेर सारे कृत्रिम प्रसाधन, स्वास्थ्य और संस्कार दोनों दृष्टि से हानिकारक हैं परन्तु जिनकी खरीदी का आधार केवल विज्ञापन और दुकान का शो केस है अथवा दुकानदार की चाटुकारिता है अथवा धनवानों की खरीदी पर है वे अपनी समझ से कैसे कुछ भी कर सकते हैं। वास्तव में इनमें से कोई हमारा आप्त नहीं है। हमें अपने आप्त कौन हैं इसकी तो पहचान होनी ही चाहिये । . अब माता के साथ पिता भी जुड़ सकते हैं | वैसे घर के अन्य लोग भी जुड़ सकते हैं| विषय है बच्चों के साथ बात करना, खेलना, उन्हें कहानी बताना । जब बात करके देखते हैं, कहानी सुनाकर देखते हैं या खेलकर देखते हैं तभी पता चलता है कि यह कितना कठिन कार्य है। इन बातों को सीखने के लिये सर्व प्रथम आवश्यकता है धैर्य । दूससी आवश्यकता होती है संयम की | क्रोध न करना, नियम नहीं सिखाना, डॉटना नहीं, चिल्लाना नहीं आदि के लिये बहुत संयम की आवश्यकता होती है । इन्हीं अवसरों पर जीवन का दृष्टिकोण विकसित होता है ।
 
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''स्वतः से चल जाता है इसलिये इसमें कोई दिखावा भोजन की ही तरह ये सब भी सम्बन्ध बनाने के''
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''नहीं चलता । माध्यम है ।''
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''2. बालक को अपने हाथ से खिलाना चाहिए। एक. ४... बालक के लिये माता को और जो बातें सीखनी हैं वे''
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''श्लोक है - हैं उसके खिलौने, उसके कपडे आदि का aaa |''
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''अर्थात्‌ दान अपने हाथ से करना चाहिये, शरीर की परन्तु श्रद्धावान माता आप्तजनों से यह ज्ञान प्राप्त कर''
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''मालिश दूसरे के हाथ से करवाना अच्छा है, औषध वैद्य के सकती है, उच्चशिक्षित माता शाख्रग्रन्थों का स्वयं''
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''हाथ से लेने में भलाई है और भोजन माता के हाथ से करना अध्ययन कर अथवा शास्त्र वेत्ताओं से यह ज्ञान प्राप्त''
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''श्रेयस्कर है । कर सकती है । खिलौनों और कपडों का विषय''
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''माता के हाथ से भोजन का अर्थ है बालक के लिये स्वास्थ्य और संस्कार दोनों दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है । इस''
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''भोजन बनाना और बालक को भोजन करवाना । विषय के नितान्त अज्ञान के कारण माता-पिता महँगे''
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''स्तनपान से यह कार्य शुरू होता है और पूर्ण भोजन कपडे और खिलौने लाने में ही इति कर्तव्यता मानते''
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''तक पहुँचता है भोजन का प्रभाव शरीर, प्राण, मन, हैं । प्लास्टिक के खिलौने, सोफ्ट टोयझ, पोलिएस्टर''
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''बुद्धि, चित्त सभी पर होता है । इसका अर्थ है भोजन के कपड़े, ढेर सारे कृत्रिम प्रसाधन, स्वास्थ्य और''
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''आदि सब पर प्रभाव होता है । बालक के लिये भोजन खरीदी का आधार केवल विज्ञापन और दुकान का शो''
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''बनाते समय केवल भोजन के विषय में नहीं अपितु केस है अथवा दुकानदार की चाट्कारिता है अथवा''
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''बालक के विषय में भी पता चलता है । बालक की धनवानों की खरीदी पर है वे अपनी समझ से कैसे''
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''रुचि-अरुचि, स्वभाव, गुण-दोष, स्वास्थ्य, क्षमतायें कुछ भी कर सकते हैं । वास्तव में इनमें से कोई''
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''जिस प्रकार अन्तम्प्रज्ञा से सबकुछ समझता है उसी तो पहचान होनी ही चाहिये ।''
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''प्रकार माता भी अन्तर्मन से बालक के विषय में 4. अब माता के साथ पिता भी जुड़ सकते हैं वैसे घर''
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''सबकुछ जानती है । इतनी निकटता “मातृहस्तेन के अन्य लोग भी जुड़ सकते हैं विषय है बच्चों के''
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''भोजनम्‌' के माध्यम से प्राप्त होती है । “मातृहस्तेन साथ बात करना, खेलना, उन्हें कहानी बताना । जब''
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''अधिकार है । खेलकर देखते हैं तभी पता चलता है कि यह कितना''
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''मन से इसको स्वीकार करने के लिये और इसके कठिन कार्य है । इन बातों को सीखने के लिये सर्व''
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''आवश्यक कला-कौशल सीखने के लिये माता को अपनी प्रथम आवश्यकता है धैर्य । दूसरी आवश्यकता होती''
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''करिअर, अपना वेतन, अपना जॉब, अपना शौक, अपना है संयम की क्रोध न करना, नियम नहीं सिखाना,''
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''घर का काम आदि सभी बातों से भी बालक का भोजन डाँटना नहीं, चिछ्लाना नहीं आदि के लिये बहुत संयम''
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''अधिक महत्त्वपूर्ण है ऐसा लगना चाहिये । की आवश्यकता होती है । इन्हीं अवसरों पर जीवन''
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''3. इसी प्रकार शिशु की परिचर्या करना भी सीखना का दृष्टिकोण विकसित होता है ।''
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==References==
 
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<references />
 
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[[Category:पर्व 5: कुटुम्ब शिक्षा एवं लोकशिक्षा]]
 
[[Category:पर्व 5: कुटुम्ब शिक्षा एवं लोकशिक्षा]]

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