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अमेरिका के विषय में इन अभिप्रायों को पढकर अब टिप्पणी करने के लिये क्या शेष रह जाता है ? लगता है कि लोग अमेरिका के बारे में प्रशंसा पूर्ण बातें करते हैं आकर्षित होते हैं तो भी सच्चाई भी जानते हैं। जो अन्तिम अभिप्राय मिला कि विश्व को अमेरिका से सावध रहने की आवश्यकता है वही सभी बातों का सार है।
 
अमेरिका के विषय में इन अभिप्रायों को पढकर अब टिप्पणी करने के लिये क्या शेष रह जाता है ? लगता है कि लोग अमेरिका के बारे में प्रशंसा पूर्ण बातें करते हैं आकर्षित होते हैं तो भी सच्चाई भी जानते हैं। जो अन्तिम अभिप्राय मिला कि विश्व को अमेरिका से सावध रहने की आवश्यकता है वही सभी बातों का सार है।
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==== प्रश्न ८ विश्व पर छाये हुए दो भीषण संकटों को दूर करने के लिये भारत क्या कर सकता है ? - ====
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उत्तर
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# मेरे मतानुसार भारत अपने आपको समर्थ माने यह प्रथम आवश्यकता है । अभी भारत अमेरिका से बहुत दब गया है। दबने का कोई कारण नहीं है तो भी दबा हआ है इसका अर्थ मनोवैज्ञानिक है। इस ग्रन्थि को छोड़ने के बाद ही भारत कुछ भी कर सकता है । दबा हुआ व्यक्ति या दबा हुआ समाज दूसरों को क्या परामर्श दे सकता है ? इसलिये प्रथम तो भारत को अपने आपके लिये ही प्रयास करने होंगे।
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# भारत प्रथम तो अपने से छोटे जितने भी देश हैं, उनमें से जो अमेरिका के दबाव में नहीं हैं, उन्हें लेकर अमेरिका की पर्यावरण के प्रदूषण करनेवाली गतिविधियों के विरुद्ध जनमत तैयार करे । साथ ही अपने तरीके से प्रदूषण के कारणों का और उसे दूर करने के उपायों का निरूपण करे । विश्व के देशों के लिये एक विधिनिषेध की मार्गदर्शिका तैयार करे । फिर उसका प्रचार करे और व्यवस्था पर जिनका प्रभाव है उनके साथ चर्चा करे । पर्यावरण का प्रदूषण चर्चा और कृति से ही रुक सकता है, राजनीति और सैन्य से नहीं । इसलिये भारत अपने तरीके से प्रदूषण मुक्त जीवनचर्या का नमूना तैयार करे, उसे अपनाये और उसके लाभ विश्व के समक्ष रखे ।
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# भारत ही आज अमेरिका का अनुकरण कर रहा है । यदि हम कहते हैं कि अमेरिका ही प्रदूषण के लिये जिम्मेदार है तो प्रथम तो हमें अमेरिका का अनुकरण छोड देना चाहिये । उसके बाद ही हम कुछ कर सकते हैं ।
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# अमेरिका आज पश्चिम का पर्याय बन गया है । पश्चिम विश्व का पर्याय बन गया है। जो बात अमेरिका में होती है वह विश्व के लिये ही होती है ऐसी विश्व की और अमेरिका की समझ बनी है। हमें इस समझ से मुक्त होना है। सही में वैश्विकता के मापदण्ड कौन से हो सकते हैं इसका विचार करना चाहिये । आज तो ऐसा लगता है कि विश्व के अनेक राष्ट्रों को अपने तरीके से विचार करने की, अपना देश चलने की स्वतन्त्रता ही नहीं है । इसका हल निकालने हेतु भारत को प्रथम अपना स्वतन्त्र चिन्तन विकसित करना होगा।
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# भारत स्वयं अनेक समस्याओं से घिरा हुआ है । वह अपनी समस्यायें तो सुलझा नहीं सकता, उस स्थिति में विश्व की सहायता कैसे कर सकता है ? भारत को अपने आप पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिये ।
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# अनेक भाषणों में हम सुनते हैं कि भारत विश्वगुरु था और आज भी वह विश्वगुरु है। लोग स्वामी विवेकानन्द के शिकागो भाषण का उदाहरण देते हैं, श्री अरविन्द की भविष्यवाणी का सन्दर्भ देते हैं । परन्तु भारत इन महापुरुषों की बाते स्वयं भी तो समझता नहीं है । ऐसी स्थिति में वर्तमान से मुँह मोडकर अतीत के गौरव की बातें करना केवल कल्पनाविलास है। उससे अपने देश की समस्या भी नहीं सुलझेगी । विश्व की बात तो दूर की है।
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सबका अभिप्राय सुनकर लगता है कि भारत और विश्व के विषय में लोगों का आकलन तो सही है। लोग समस्या को तो समझ रहे हैं परन्तु उपाय किसी के पास नहीं है। ऐसा इसलिये होता है कि सब मानते हैं कि उपाय दूसरों ने खोजने चाहिये । उपायों की जिम्मेदारी किसी की नहीं होने के कारण समस्याओं का कथन ही होता रहता है उपायों की चर्चा कम होती है । प्रश्न तो सुलझता नहीं, दुःख और निराशा बढ़ते हैं।
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==== प्रश्न ९ आपके मतानुसार विश्व के देशों का वर्गीकरण करने के सही मापदण्ड कौन से हो सकते हैं ? ====
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उत्तर इस प्रश्न के जो उत्तर मिले उनमें अधिकांश मापदण्ड आर्थिक ही थे, जैसे कि विकसित, विकासशील और अविकसित, निर्धन और गरीब, आधुनिक और पुरातनवादी आदि । विकसित, विकासशील और अविकसित का आधार आर्थिक ही था । और एक वर्गीकरण है इस्लामिक, इसाई, हिन्दू और पेगन अर्थात् इस्लाम और इसाइयत के उद्भव से पूर्व जो सम्प्रदाय थे उनका अनुसरण करनेवाले ।
    
==References==
 
==References==
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