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(अर्थकरी शिक्षा के व्यावहारिक आयाम)
 
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अध्याय १६
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आलेख १
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=== आलेख १ - अर्थकरी शिक्षा के व्यावहारिक आयाम ===
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* भगवान ने हाथ काम करने के लिये दिये हैं इसलिये हाथ से काम करना अनिवार्य है और अच्छा है<ref>धार्मिक शिक्षा के व्यावहारिक आयाम (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला ३, अध्याय १६): पर्व ५, प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे</ref>; इस बात को स्वीकार करना चाहिये।
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* घर में और विद्यालय में शिशुअवस्था से ही हाथ से काम करना सिखाना चाहिये ।
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* हाथ से काम करने वाला, न करने वाले से श्रेष्ठ है ऐसा मानस बनना चाहिये ।
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* काम करने वाले हाथ में ही लक्ष्मी, सरस्वती और लक्ष्मीपति का वास है, यह तथ्य समझना चाहिये।
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* श्रेष्ठ समाज समृद्ध समाज होता है। समाज को समृद्ध बनाने हेतु अर्थकरी शिक्षा की व्यवस्था होनी चाहिये।
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* समृद्धि, धर्म और संस्कृति की अविरोधी होनी चाहिये । धर्म अर्थ से श्रेष्ठ माना जाना चाहिये।
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* भौतिक पदार्थों के उत्पादन पर आधारित समृद्धि होनी चाहिये। अनेक सांस्कृतिक बातें अर्थ से परे होनी चाहिये ।
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* समाज में केवल गृहस्थ को ही अर्थार्जन करने का अधिकार है, शेष तीनों आश्रम गृहस्थ के आश्रित है।
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* हर गृहस्थ को अर्थार्जन करना ही चाहिये। परन्तु शिक्षक, वैद्य, पुरोहित, न्यायाधीश भिक्षावृत्ति से और राजा तथा अमात्य वर्ग चाकरी वृत्ति (नौकरी) से अर्थार्जन करेंगे।
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* देश की प्राकृतिक सम्पदा, मनुष्य के हाथों की कारीगरी की कुशलता और मनुष्य की बुद्धि की निर्माणक्षमता आर्थिक समृद्धि के मूल आधार हैं।
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* अर्थकरी शिक्षा उत्पादन केन्द्रों में, वाणिज्य के केन्द्रों में और शासन के केन्द्रों में दी जानी चाहिये।
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* देश की अर्थनीति विश्वविद्यालयों में बननी चाहिये, उसका क्रियान्वयन राज्य द्वारा होना चाहिये और उसका पालन प्रजा द्वारा होना चाहिये।
  
अर्थकरी शिक्षा के व्यावहारिक आयाम
+
=== आलेख २ - कामकरी शिक्षा के व्यावहारिक आयाम ===
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* काम का अर्थ केवल जातीयता नहीं है । सृजन के मूल संकल्प के रूप में वह सृष्टि में प्रथम उत्पन्न हुआ है । उसका आदरपूर्वक स्वीकार करना चाहिये ।
 +
* काम अनन्तकोटि कामना अर्थात् इच्छाओं का रूप धारण कर मनुष्य के मन में प्रतिष्ठित हुआ है। काम की शिक्षा मुख्य रूप से मन की शिक्षा है।
 +
* कामनायें उपभोग करने से कभी शान्त नहीं होतीं। कामनायें कभी समाप्त नहीं होतीं । कामनाओं को संयमित करना ही मनुष्य का लक्ष्य होना चाहिये । इसी को मनःसंयम कहते हैं।
 +
* सन्तोष मनःसंयम का एक महत्त्वपूर्ण आयाम है। सन्तोष से ही सुख, शान्ति, प्रसन्नता प्राप्त हो सकते हैं।
 +
* मनःसंयम हेतु ध्यान, जप, सत्संग, सेवा, स्वाध्याय, ॐकार उच्चारण और सात्त्विक आहार अनिवार्य है।
 +
* काम वस्तुओं की प्राप्ति हेतु प्रेरित करता है, येनकेन प्रकारेण उन्हें प्राप्त करने हेतु उकसाता है । उसमें बह नहीं जाना कामसाधना है ।
 +
* काम अनेक वस्तुओं के सृजन हेतु भी प्रेरित करता है। वस्तुओं के सृजन में कौशल, गति और उत्कृष्टता प्राप्त करना कामसाधना है।
 +
* काम सृजन को प्रेरित करता है । उसका सुसंस्कृत रूप कला है । कामतुष्टि विकसित होकर सौन्दर्यबोध और प्रसन्नता में परिणत होती है। काम प्रेम बन जाता है। यह काम साधना का श्रेष्ठ रूप है।
 +
* काम का एक अर्थ जातीयता है । वह शारीरिक स्तर पर सम्भोग, प्राणिक स्तर पर मैथुन, मानसिक स्तर पर आसक्ति, बौद्धिक स्तर पर आत्मीयता प्रेरित कर्तव्य, चित्त के स्तर पर प्रसन्नता और आत्मिक स्तर पर प्रेम के रूप में व्यक्त होता है। काम की शरीर से आत्मा तक की यात्रा कामसाधना है।
 +
* काम हमारा नियन्त्रण न करे अपितु हमारे नियन्त्रण में रहे तो वह बडी शक्ति है जो अनेक असम्भव बातों को सम्भव बनाती है।
  
भगवान ने हाथ काम करने के लिये दिये हैं इसलिये हाथ से काम करना अनिवार्य है
+
=== आलेख ३ -धर्मकरी शिक्षा के व्यावहारिक आयाम ===
 +
* धर्म केवल सम्प्रदाय नहीं है। सम्प्रदाय धर्म का एक अंग है। धर्म विश्वनियम है, विश्वव्यवस्था है । वह सृष्टि को और प्रजा को धारण करता है।
 +
* सृष्टि की उत्पत्ति के साथ ही सृष्टि को धारण करने वाले धर्म की उत्पत्ति हुई है। यह सृष्टिधर्म है । इसके ही अनुसरण में समष्टि को धारण करने वाले समष्टि धर्म की उत्पत्ति हुई है।
 +
* बने रहने के लिये, अभ्युदय प्राप्त करने के लिये, कल्याण को प्राप्त करने के लिये मनुष्य को धर्म का पालन करना अनिवार्य है।
 +
* धर्म की रक्षा करने से ही धर्म हमारी रक्षा करता है । धर्म के पालन से ही धर्म की रक्षा होती है।
 +
* समष्टि धर्म का एक आयाम कर्तव्यपालन है। समष्टि की धारणा हेतु हर व्यक्ति को अपनी अपनी भूमिका अनुसार कर्तव्य प्राप्त हुए हैं। ये कर्तव्य ही उसका धर्म है। जैसे कि पुत्रधर्म, शिक्षकधर्म, राजधर्म, व्यवसायधर्म आदि।
 +
* धर्म का एक अर्थ स्वभाव है। स्वभाव जन्मजात होता है। स्वभाव के अनुसार स्वधर्म होता है। हर व्यक्ति को अपने धर्म का ही पालन करना चाहिये, पराये धर्म का नहीं।
 +
* धर्म का एक अर्थ न्याय, नीति और सदाचार का पालन करना है। धर्म का एक आयाम सम्प्रदाय है।
 +
* धर्म का एक आयाम संप्रदाय है। हर व्यक्ति को अपने संप्रदाय के इष्ट, ग्रन्थ, पूजापद्धति, शैली आदि का पालन करना चाहिए और अन्य सम्प्रदायों का द्वेष नहीं अपितु आदर करना चाहिए।
 +
* दूसरों का हित करना सबसे बड़ा धर्म है और दूसरों का अहित करना सबसे बड़ा अधर्म है।
 +
* धर्म समाज के अनुकूल नहीं, समाज धर्म के अनुकूल होना चाहिये । समाज के हर व्यवस्था धर्म के अनुकूल, धर्म के अविरोधी होनी चाहिये ।
 +
* इन सभी बातों की शिक्षा हर स्तर पर अनिवार्य बननी चाहिये । तभी समाज का भला होगा।
  
और अच्छा है इस बात का स्वीकार करना चाहिये ।
+
=== आलेख ४-भवननिर्माण के मूल सूत्र ===
 +
* विद्यालय की पहचान भवन से नहीं, शिक्षा से होनी चाहिये । भवन साधन है, साध्य नहीं।
 +
* विद्यालय का भवन ज्ञान और विद्या को प्रकट करनेवाला होना चाहिये, प्रासाद, दुकान या कार्यालय नहीं लगना चाहिये।
 +
* विद्यालय का भवन शैक्षिक गतिविधियों के अनुरूप होना चाहिये, आवास के अनुकूल नहीं।
 +
* स्वच्छता और पवित्रता विद्यालय भवन के मूल आधार बनने चाहिये।
 +
* विद्यालय का भवन प्राकृतिक पदार्थों से बनना चाहिये। रेत, चूना, मिट्टी, पत्थर, लकडी प्राकृतिक पदार्थ हैं जबकि सिमेण्ट, लोहा, सनमाइका कृत्रिम । कृत्रिम पदार्थ पर्यावरण का प्रदूषण करते हैं।
 +
* विद्यालय के भवन में तापमान नियन्त्रण की प्राकृतिक व्यवस्था होनी चाहिये । भवन की वास्तुकला ऐसी होनी चाहिये कि दिन में भी विद्युत प्रकाश की आवश्यकता न रहे और ग्रीष्म ऋतु में भी पंखों की आवश्यकता न पड़े।
 +
* विद्यालय के भवन में सादगी होनी चाहिये, वैभव नहीं, सौन्दर्य होना चाहिये, विलासिता नहीं।
 +
* भवन निर्माण के धार्मिक शास्त्र के अनुसार भवन बनना चाहिये । वास्तुशास्त्र का भी अनुसरण करना चाहिये।
 +
* धार्मिक भवनों की खिडकियाँ भूतल से ढाई या तीन फीट की ऊँचाई पर नहीं होती अधिक से अधिक एक फूट की ऊँचाई पर ही होती हैं क्योंकि सबका भूमि पर बैठना ही अपेक्षित होता है।
 +
* विद्यालय भवन में वर्षा के पानी का संग्रह करने की व्यवस्था तो होनी ही चाहिये परन्तु गन्दे पानी की निकास की व्यवस्था भूमि के उपर होनी चाहिये ।  
 +
* विद्यालय के भवन को मिट्टी युक्त आँगन या मैदान होना चाहिये सब कुछ पथ्थर से बन्द नहीं कर देना चाहिये।
  
घर में और विद्यालय में शिशुअवस्था से ही हाथ से काम करना सिखाना चाहिये ।
+
=== आलेख ५-स्पर्धा होनी चाहिये या नहीं ===
 +
* हम स्पर्धा को पुरुषार्थ का प्रेरक तत्त्व मानते हैं परन्तु यह सत्य नहीं है । स्पर्धा संघर्ष की और, संघर्ष हिंसा की ओर तथा हिंसा विनाश की ओर ले जाती है। इसलिये स्पर्धा का त्याग करना चाहिये।
 +
* विद्यालयों में स्पर्धा का तत्त्व बहुत लोकप्रिय और प्रतिष्ठित बन गया है । स्पर्धा का अर्थ नहीं समझने वाले बच्चोंं के लिये भी स्पर्धा का आयोजन होता है । इसका सर्वथा त्याग करना चाहिये।
 +
* स्पर्धा सर्वश्रेष्ठ बनने के लिये होती है, श्रेष्ठ बनने के लिये नहीं । '''व्यक्ति को श्रेष्ठ बनना चाहिये, सर्वश्रेष्ठ नहीं।'''
 +
* 'स्वस्थ स्पर्धा' यह शब्दसमूह निरर्थक है, आकाश कुसुम या शशशृंग की तरह । आकाश में कभी फूल नहीं खिलता और खरगोश को कभी सिंग नहीं होते उसी प्रकार स्पर्धा कभी स्वस्थ नहीं होती।
 +
* खेलों में स्पर्धा होती है तब खेलना महत्त्वपूर्ण नहीं रहता जीतना महत्त्वपूर्ण बन जाता है। पढ़ाई में स्पर्धा होती है तब पढना महत्त्वपूर्ण नहीं रहता जीतना महत्वपूर्ण बन जाता है । जीतने का सिद्धान्त होता है किसी भी प्रकार से दूसरों को हराना ।
 +
* स्पर्धा से मुख्य विषय से ध्यान हटकर उसके फल पर केन्द्रित हो जाता है । फल नहीं मिला तो मुख्य विषय अप्रस्तुत बन जाता है।
 +
* स्पर्धा जीत और पुरस्कार इतने सहज हो गये हैं कि अब छोटे बड़े सब के लिये पुरस्कार नहीं तो जीत का महत्त्व नहीं, जीत नहीं तो स्पर्धा निरर्थक और स्पर्धा नहीं तो काम करने का कोई प्रयोजन नहीं । इस प्रकार स्पर्धा अनिष्टों का मूल है।
 +
* हमें संघर्ष नहीं, समन्वय चाहिये । स्पर्धा संघर्ष की जननी है इसलिये उसका त्याग करना चाहिये।
 +
* आज असम्भव लगता है तो भी विद्यालय से स्पर्धा का निष्कासन करने की आकांक्षा रखनी चाहिये और उसके लिये पुरुषार्थ करना चाहिये ।
  
हाथ से काम करने वाला न करने वाले से श्रेष्ठ है ऐसा मानस बनना चाहिये ।
+
=== आलेख ६-परीक्षा के सम्बन्ध में पुनर्विचार ===
 +
* परीक्षा शिक्षा का एकमेव अथवा मुख्य अंग नहीं है । परीक्षा में उत्तीर्ण होना एकमेव लक्ष्य नहीं है।
 +
* परीक्षा आवश्यकता पड़ने पर ही ली जानी चाहिये, स्वाभाविक क्रम में नहीं। अध्ययन परीक्षा के लिये नही ज्ञान के लिए होना चाहिये ।
 +
* विद्यार्थी को ज्ञान प्राप्त हुआ है कि नहीं, वह शिक्षक, मातापिता और समाज उसके व्यवहार से सहज ही जान सकते हैं, परीक्षा एक कृत्रिम व्यवस्था है।
 +
* नौकरी है इसलिये स्पर्धा है, स्पर्धा है इसलिये परीक्षा है । यहाँ ज्ञान या कौशल का कोई सम्बन्ध नहीं है।
 +
* येनकेन प्रकारेण परीक्षा में उत्तीर्ण होना है तब अनेक प्रकार के दूषण पनपते हैं । ज्ञान और चरित्र से उसका कोई लेनादेना नहीं होता ।
 +
* परीक्षा शिक्षा के तन्त्र पर इतनी हावी हो गई है कि अब सब परीक्षार्थी ही हैं, विद्यार्थी नहीं । हमें विद्यार्थी चाहिये, परीक्षार्थी नहीं।
 +
* परीक्षा को अर्थपूर्ण बनाने के लिये उसे उद्देश्य के साथ जोडना चाहिये, पाठ्यक्रम और पाठ्यपुस्तकों के साथ नहीं उद्देश्य के साथ जोडने पर परीक्षा का वर्तमान स्वरूप सर्वथा अप्रस्तुत बन जायेगा।
 +
* परीक्षा का वर्तमान स्वरूप अत्यन्त कृत्रिम है। उसका यथाशीघ्र त्याग करना चाहिये।
 +
* जो पढाता है वही मूल्यांकन कर सकता है यह शैक्षिक नियम है । आज जो पढाता है वह अविश्वसनीय बन गया है इसलिये जो पढाता नहीं और विद्यार्थी को जानता नहीं वह परीक्षा लेता है यह मूल्य और स्वाभाविकता दोनों का हास है।
 +
* परीक्षा के सम्बन्ध में पुनर्विचार कर उसे सार्थक बनाने की अत्यन्त आवश्यकता है।
  
काम करने वाले हाथ में ही लक्ष्मी, सरस्वती और लक्ष्मीपति का वास है यह तथ्य
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*
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समझना चाहिये ।
+
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श्रेष्ठ समाज समृद्ध समाज होता है । समाज को समृद्ध बनाने हेतु अर्थकरी शिक्षा की
+
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व्यवस्था होनी चाहिये ।
+
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समृद्धि, धर्म और संस्कृति के अविरोधी होनी चाहिये । धर्म अर्थ से श्रेष्ठ माना जाना
+
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चाहिये ।
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भौतिक पदार्थों के उत्पादन पर आधारित समृद्धि होनी चाहिये । अनेक सांस्कृतिक
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बातें अर्थ से परे होनी चाहिये ।
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समाज में केवल गृहस्थ को ही अथर्जिन करने का अधिकार है, शेष तीनों आश्रम
+
[[File:Capture32 .png|none|thumb|755x755px]]
  
गृहस्थ के आश्रित है ।
+
[[File:Capture33 .png|none|thumb|742x742px]]
  
हर गृहस्थ को AIT करना ही चाहिये । परन्तु शिक्षक, वैद्य, पुरोहित,
+
==References==
 +
<references />
  
न्यायाधीश भिक्षावृत्ति से और राजा तथा अमात्य वर्ग चाकरी वृत्ति (नौकरी) से
+
[[Category:ग्रंथमाला 3 पर्व 5: विविध]]
 
 
अथर्जिन करेंगे ।
 
 
 
देश की प्राकृतिक सम्पदा, मनुष्य के हाथों की कारीगरी की कुशलता और मनुष्य
 
 
 
की बुद्धि की निर्माणक्षमता आर्थिक समृद्धि के मूल आधार हैं ।
 
 
 
अर्थकरी शिक्षा उत्पादन केन्द्रों में, वाणिज्य के केन्द्रों में और शासन के केन्द्रों में दी
 
 
 
जानी चाहिये |
 
 
 
देश की अर्थनीति विश्वविद्यालयों में बननी चाहिये, उसका क्रियान्वयन राज्य द्वारा
 
 
 
होना चाहिये और उसका पालन प्रजा द्वारा होना चाहिये |
 
 
 
२९९
 
 
 
2८ ५
 
 
 
2 ५.
 
 
 
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भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम
 
 
 
आलेख २
 
 
 
कामकरी शिक्षा के व्यावहारिक आयाम
 
 
 
काम का अर्थ केवल जातीयता नहीं है । सृजन के मूल संकल्प के रूप में वह सृष्टि
 
 
 
में प्रथम उत्पन्न हुआ है । उसका आदरपूर्वक स्वीकार करना चाहिये ।
 
 
 
काम अनन्तकोटि कामना अर्थात्‌ इच्छाओं का रूप धारण कर मनुष्य के मन में
 
 
 
प्रतिष्ठित हुआ है । काम की शिक्षा मुख्य रूप से मन की शिक्षा है ।
 
 
 
कामनायें उपभोग करने से कभी शान्त नहीं होतीं । कामनायें कभी समाप्त नहीं
 
 
 
होतीं । कामनाओं को संयमित करना ही मनुष्य का लक्ष्य होना चाहिये । इसीको
 
 
 
मनःसंयम कहते हैं ।
 
 
 
सन्तोष मनःसंयम का एक महत्त्वपूर्ण आयाम है । सन्तोष से ही सुख, शान्ति,
 
 
 
प्रसन्नता प्राप्त हो सकते हैं ।
 
 
 
मनःसंयम हेतु ध्यान, जप, सत्संग, सेवा, स्वाध्याय, 3%कार उच्चारण और सात्विक
 
 
 
आहार अनिवार्य हैं ।
 
 
 
काम वस्तुओं की प्राप्ति हेतु प्रेरित करता है, येनकेन प्रकारेण उन्हें प्राप्त करने हेतु
 
 
 
उकसाता है । उसमें बह नहीं जाना कामसाधना है ।
 
 
 
काम अनेक वस्तुओं के सृजन हेतु भी प्रेरित करता है । वस्तुओं के सृजन में
 
 
 
कौशल, गति और उत्कृष्टता प्राप्त करना कामसाधना है ।
 
 
 
काम सृजन को प्रेरित करता है । उसका सुसंस्कृत रूप कला है । कामतुष्टि विकसित
 
 
 
होकर सौन्दर्यबोध और प्रसन्नता में परिणत होती है । काम प्रेम बन जाता है । यह
 
 
 
काम साधना का श्रेष्ठ रूप |
 
 
 
काम का एक अर्थ जातीयता है । वह शारीरिक स्तर पर सम्भोग, प्राणिक स्तर पर
 
 
 
मैथुन, मानसिक स्तर पर आसक्ति, बौद्धिक स्तर पर आत्मीयता प्रेरित कर्तव्य, चित्त
 
 
 
के स्तर पर प्रसन्नता और आत्मिक स्तर पर प्रेम के रूप में व्यक्त होता है । काम की
 
 
 
शरीर से आत्मा तक की यात्रा कामसाधना है ।
 
 
 
काम हमारा नियन्त्रण न करे अपितु हमारे नियन्त्रण में रहे तो वह बडी शक्ति है जो
 
 
 
अनेक असम्भव बातों को सम्भव बनाती है ।
 
 
 
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आलेख ३
 
 
 
धर्मकरी शिक्षा के व्यावहारिक आयाम
 
 
 
धर्म केवल सम्प्रदाय नहीं है । सम्प्रदाय धर्म का एक अंग है । धर्म विश्वनियम है,
 
 
 
विश्वव्यवस्था है । वह सृष्टि को और प्रजा को धारण करता है ।
 
 
 
सृष्टि की उत्पत्ति के साथ ही सृष्टि को धारण करने वाले धर्म की उत्पत्ति हुई है । यह
 
 
 
सृष्टिधर्म है । इसके ही अनुसरण में समष्टि को धारण करने वाले समष्टि धर्म की
 
 
 
उत्पत्ति हुई है ।
 
 
 
बने रहने के लिये, अभ्युदय प्राप्त करने के लिये, कल्याण को प्राप्त करने के लिये
 
 
 
मनुष्य को धर्म का पालन करना अनिवार्य है ।
 
 
 
धर्म की रक्षा करने से ही धर्म हमारी रक्षा करता है । धर्म के पालन से ही धर्म की
 
 
 
रक्षा होती है ।
 
 
 
समष्टि धर्म का एक आयाम कर्तव्यपालन है । समष्टि की धारणा हेतु हर व्यक्ति को
 
 
 
अपनी अपनी भूमिका अनुसार कर्तव्य प्राप्त हुए हैं । ये कर्तव्य ही उसका धर्म है ।
 
 
 
जैसे कि पुत्रधर्म, शिक्षकधर्म, राजधर्म, व्यवसायधर्म आदि |
 
 
 
धर्म का एक अर्थ स्वभाव है । स्वभाव जन्मजात होता है । स्वभाव के अनुसार
 
 
 
स्वधर्म होता है । हर व्यक्ति को अपने धर्म का ही पालन करना चाहिये, पराये धर्म
 
 
 
का नहीं ।
 
 
 
धर्म का एक अर्थ न्याय, नीति और सदाचार का पालन करना है ।
 
 
 
धर्म का एक आयाम सम्प्रदाय है । हर व्यक्ति को अपने सम्प्रदाय के इष्ट, ग्रन्थ,
 
 
 
पूजापद्धति, शैली आदि का पालन करना चाहिये और अन्य सम्प्रदायों का द्वेष नहीं
 
 
 
अपितु आदर करना चाहिये ।
 
 
 
दूसरों का हित करना सबसे बडा धर्म है और दूसरों का अहित करना सबसे बडा
 
 
 
अधर्म है ।
 
 
 
धर्म समाज के अनुकूल नहीं, समाज धर्म के अनुकूल होना चाहिये । समाज के हर
 
 
 
व्यवस्था धर्म के अनुकूल, धर्म के अविरोधी होनी चाहिये ।
 
 
 
इन सभी बातों की शिक्षा हर स्तर पर अनिवार्य बननी चाहिये । तभी समाज का
 
 
 
भला होगा |
 
 
 
३०१
 
 
 
2८ ५
 
 
 
2 ५.
 
 
 
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9९9 ५११११ ५१५9 भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम
 
 
 
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८५
 
 
 
+
 
 
 
आलेख ४
 
 
 
भवननिर्माण के मूल सूत्र
 
 
 
विद्यालय की पहचान भवन से नहीं, शिक्षा से होनी चाहिये । भवन साधन है, साध्य
 
 
 
नहीं ।
 
 
 
विद्यालय का भवन ज्ञान और विद्या को प्रकट करनेवाला होना चाहिये, प्रासाद,
 
 
 
दुकान या कार्यालय नहीं लगना चाहिये ।
 
 
 
विद्यालय का भवन शैक्षिक गतिविधियों के अनुरूप होना चाहिये, आवास के
 
 
 
अनुकूल नहीं ।
 
 
 
स्वच्छता और पवित्रता विद्यालय भवन के मूल आधार बनने चाहिये ।
 
 
 
विद्यालय का भवन प्राकृतिक पदार्थों से बनना चाहिये । रेत, चूना, मिट्टी, पथ्थर,
 
 
 
लकडी प्राकृतिक पदार्थ हैं जबकि सिमेण्ट, लोहा, सनमाइका कृत्रिम । कृत्रिम पदार्थ
 
 
 
पर्यावरण का प्रदूषण करते हैं ।
 
 
 
विद्यालय के भवन में तापमान नियन्त्रण की प्राकृतिक व्यवस्था होनी चाहिये । भवन
 
 
 
की वास्तुकला ऐसी होनी चाहिये कि दिन में भी विद्युत प्रकाश की आवश्यकता न
 
 
 
रहे और ग्रीष्म क्रतु में भी पंखों की आवश्यकता न पडे ।
 
 
 
विद्यालय के भवन में सादगी होनी चाहिये, वैभव नहीं, सौन्दर्य होना चाहिये,
 
 
 
विलासिता नहीं ।
 
 
 
भवन निर्माण के भारतीय शास्त्र के अनुसार भवन बनना चाहिये । वास्तुशास्त्र का भी
 
 
 
अनुसरण करना चाहिये ।
 
 
 
भारतीय भवनों की खिडकियाँ भूतल से ढाई या तीन फीट की ऊँचाई पर नहीं होतीं
 
 
 
अधिक से अधिक एक फूट की ऊँचाई पर ही होती हैं क्योंकि सबका भूमि पर
 
 
 
बैठना ही अपेक्षित होता है ।
 
 
 
विद्यालय भवन में वर्षा के पानी का संग्रह करने की व्यवस्था तो होनी ही चाहिये
 
 
 
परन्तु गन्दे पानी की निकास की व्यवस्था भूमि के उपर होनी चाहिये ।
 
 
 
विद्यालय के भवन को मिट्टी युक्त आँगन या मैदान होना चाहिये सब कुछ पथ्थर से
 
 
 
बन्द नहीं कर देना चाहिये ।
 
 
 
३०२
 
 
 
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आलेख ५
 
 
 
स्पर्धा होनी चाहिये या नहीं
 
 
 
हम स्पर्धा को पुरुषार्थ का प्रेरक तत्त्व मानते हैं परन्तु यह सत्य नहीं है । स्पर्धा संघर्ष
 
 
 
की और, संघर्ष हिंसा की ओर तथा हिंसा विनाश की ओर ले जाती है । इसलिये
 
 
 
स्पर्धा का त्याग करना चाहिये ।
 
 
 
विद्यालयों में स्पर्धा का तत्त्व बहुत लोकप्रिय और प्रतिष्ठित बन गया है । स्पर्धा का
 
 
 
अर्थ नहीं समझने वाले बच्चों के लिये भी स्पर्धा का आयोजन होता है । इसका
 
 
 
सर्वथा त्याग करना चाहिये ।
 
 
 
स्पर्धा सर्वश्रेष्ठ बनने के लिये होती है, श्रेष्ठ बनने के लिये नहीं । व्यक्ति को श्रेष्ठ बनना
 
 
 
चाहिये, सर्वश्रेष्ठ नहीं ।
 
 
 
“स्वस्थ स्पर्धा' यह शब्दसमूह निररर्धक है, आकाश कुसुम या शशशुंग की तरह ।
 
 
 
आकाश में कभी फूल नहीं खिलता और खरगोश को कभी सिंग नहीं होते उसी
 
 
 
प्रकार स्पर्धा कभी स्वस्थ नहीं होती ।
 
 
 
खेलों में स्पर्धा होती है तब खेलना महत्त्वपूर्ण नहीं रहता जीतना महत्त्वपूर्ण बन जाता
 
 
 
है । पढ़ाई में स्पर्धा होती है तब पढना महत्त्वपूर्ण नहीं रहता जीतना महत्वपूर्ण बन
 
 
 
जाता है । जीतने का सिद्धान्त होता है किसी भी प्रकार से दूसरों को हराना ।
 
 
 
स्पर्धा से मुख्य विषय से ध्यान हटकर उसके फल पर केन्द्रित हो जाता है । फल
 
 
 
नहीं मिला तो मुख्य विषय अप्रस्तुत बन जाता है ।
 
 
 
स्पर्धा जीत और पुरस्कार इतने सहज हो गये हैं कि अब छोटे बडे सब के लिये
 
 
 
पुरस्कार नहीं तो जीत का महत्त्व नहीं, जीत नहीं तो स्पर्धा निर््थक और स्पर्धा नहीं
 
 
 
तो काम करने का कोई प्रयोजन नहीं । इस प्रकार स्पर्धा अनिष्टों का मूल है ।
 
 
 
हमें संघर्ष नहीं, समन्वय चाहिये । स्पर्धा संघर्ष की जननी है इसलिये उसका त्याग
 
 
 
करना चाहिये ।
 
 
 
आज असम्भव लगता है तो भी विद्यालय से स्पर्धा का निष्कासन करने की
 
 
 
आकांक्षा रखनी चाहिये और उसके लिये पुरुषार्थ करना चाहिये ।
 
 
 
R08
 
 
 
2८ ५
 
 
 
2 ५.
 
 
 
............. page-320 .............
 
 
 
भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम
 
 
 
आलेख ६
 
 
 
परीक्षा के सम्बन्ध में पुनर्विचार
 
 
 
परीक्षा शिक्षा का एकमेव अथवा मुख्य अंग नहीं है । परीक्षा में उत्तीर्ण होना एकमेव
 
 
 
लक्ष्य नहीं है ।
 
 
 
परीक्षा आवश्यकता पड़ने पर ही ली जानी चाहिये, स्वाभाविक क्रम में नहीं ।
 
 
 
अध्ययन परीक्षा के लिये नही ज्ञान के लिए होना चाहिये ।
 
 
 
विद्यार्थी को ज्ञान प्राप्त हुआ है कि नहीं वह शिक्षक, मातापिता और समाज उसके
 
 
 
व्यवहार से सहज ही जान सकते हैं, परीक्षा एक कृत्रिम व्यवस्था है ।
 
 
 
नौकरी है इसलिये स्पर्धा है, स्पर्धा है इसलिये परीक्षा है । यहाँ ज्ञान या कौशल का
 
 
 
कोई सम्बन्ध नहीं है ।
 
 
 
येनकेन प्रकारेण परीक्षा में उत्तीर्ण होना है तब अनेक प्रकार के दूषण पनपते हैं । ज्ञान
 
 
 
और चरित्र से उसका कोई लेनादेना नहीं होता ।
 
 
 
परीक्षा शिक्षा के तन्त्र पर इतनी हावी हो गई है कि अब सब परीक्षार्थी ही हैं,
 
 
 
विद्यार्थी नहीं । हमें विद्यार्थी चाहिये, परीक्षार्थी नहीं ।
 
 
 
परीक्षा को अर्थपूर्ण बनाने के लिये उसे उद्देश्य के साथ जोडना चाहिये, पाठ्यक्रम
 
 
 
और पाठ्यपुस्तकों के साथ नहीं । उद्देश्य के साथ जोडने पर परीक्षा का वर्तमान
 
 
 
स्वरूप सर्वथा अप्रस्तुत बन जायेगा ।
 
 
 
परीक्षा का वर्तमान स्वरूप अत्यन्त कृत्रिम है । उसका यथाशीघ्र त्याग करना
 
 
 
चाहिये ।
 
 
 
जो USI है वही मूल्यांकन कर सकता है यह शैक्षिक नियम है । आज जो पढाता
 
 
 
है वह अविश्वसनीय बन गया है इसलिये जो पढाता नहीं और विद्यार्थी को जानता
 
 
 
नहीं वह परीक्षा लेता है यह मूल्य और स्वाभाविकता दोनों का हास है ।
 
 
 
परीक्षा के सम्बन्ध में पुनर्विचार कर उसे सार्थक बनाने की अत्यन्त आवश्यकता है।
 
 
 
३०४
 
 
 
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आलेख ७
 
 
 
परीक्षा के सम्बन्ध में पुनर्विचार
 
 
 
परीक्षा उद्देश्य के अनुरूप होनी चाहिये यह शैक्षिक नियम है । अतः हर विषय के
 
 
 
साथ उद्देश्यों को सम्यक्‌ रूप से निरूपित करना चाहिये ।
 
 
 
उद्देश्य के अनुरूप पाठन पद्धति होनी चाहिये और पाठन पद्धति के अनुरूप ही
 
 
 
परीक्षा की भी पद्धति विकसित होनी चाहिये ।
 
 
 
आज की तरह परीक्षा एक मात्र लिखित स्वरूप की नहीं होनी चाहिये । मौखिक
 
 
 
और प्रायोगिक स्वरूप की होनी चाहिये । विषय के स्वरूप के अनुसार परीक्षा का
 
 
 
भी स्वरूप होना चाहिये ।
 
 
 
परीक्षा में लिखित परीक्षा भी आज तो अत्यन्त कृत्रिम और निर्र्थक बन गई है ।
 
 
 
उसे बदलना चाहिये । जितने विद्यार्थियों के प्रकार उतने ही परीक्षा के प्रकार होना
 
 
 
चाहिये । सबके लिये एक ही प्रश्नपत्र होना अत्यन्त अस्वाभाविक है ।
 
 
 
जो पढ़ाता है वही परीक्षा लेता है और विद्यार्थी को जानने के कारण अपनी ही
 
 
 
पद्धति से लेता है इस नियम को यदि हम पुनःप्रतिष्ठित नहीं कर सकते तो विद्यालयों
 
 
 
का अर्थ ही क्‍या है ? शिक्षक ही यदि विश्वसनीय नहीं तो शिक्षाक्षेत्र का कोई
 
 
 
आधार ही नहीं है ।
 
 
 
परीक्षा उत्तीर्ण करने का ३५ प्रतिशत अंकों का नियम भी अत्यन्त हास्यास्पद है ।
 
 
 
साथ ही सभी विषयों के लिये एक ही मापदण्ड भी अवास्तविक है । उसे स्वाभाविक
 
 
 
और अर्थपूर्ण बनाना चाहिये ।
 
 
 
परीक्षा को जीवन के साथ जोड़ना चाहिये, ज्ञान के साथ जोडना चाहिये, समाज के
 
 
 
साथ जोड़ना चाहिये ।
 
 
 
नौकरीयों हेतु, प्रगत पाठ्यक्रम में प्रवेश हेतु, पुरस्कारों हेतु परीक्षा लेने की पद्धति
 
 
 
को छोड देना चाहिये । अध्ययन से पूर्व ही चयन, अध्ययन के दौरान ही मूल्यांकन
 
 
 
और सिद्धता प्राप्त होने पर नियुक्ति यह सही क्रम है ।
 
 
 
३०५
 
 
 
2८ ५
 
 
 
2 ५.
 
 
 
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भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम
 
 
 
आलेख ८
 
 
 
वृद्धावस्था की शिक्षा के आयाम
 
 
 
कया वृद्धावस्था में भी शिक्षा प्राप्त करना शेष रह जाता है ? हाँ, वृद्धावस्था में भी
 
 
 
शिक्षा होती है ।
 
 
 
आयु के साठ वर्ष के बाद वृद्धावस्था शुरू होती है और आजीवन चलती है ।
 
 
 
वृद्धावस्था में वानप्रस्थाश्रम और संन्यस्ताश्रम ऐसे दो आश्रम होते हैं । ७५ वर्ष की
 
 
 
आयु तक वानप्रस्थाश्रम और बाद में संन्यस्ताश्रम होता है ।
 
 
 
संन्यस्ताश्रम सबके लिये अनिवार्य नहीं होता है परन्तु वानप्रस्थाश्रम सबके लिये
 
 
 
होता है ।
 
 
 
वानप्रस्थाश्रम में समाजसेवा की शिक्षा प्रमुख विषय है ।
 
 
 
अनासक्ति, अधिकार छोडकर कर्तव्यपालन की शिक्षा और उपभोग का त्याग करने
 
 
 
की शिक्षा महत्त्वपूर्ण शिक्षाक्रम है ।
 
 
 
ब्रह्मचर्याश्रम में जिसका अभ्यास किया था वह स्वादसंयम अब व्यवहार में लाने का
 
 
 
समय है ।
 
 
 
तीर्थयात्रा, शास्त्रों का अध्ययन, सन्तचरणों का सेवन और कथाश्रवण शिक्षा के
 
 
 
मुख्य माध्यम है ।
 
 
 
BY की प्रवृत्ति का सर्वथा त्याग करना अपेक्षित है ।
 
 
 
समाजसेवा के विभिन्न दायित्वों का निरपेक्ष भाव से वहन करना इस अवस्था का
 
 
 
मुख्य लक्षण है ।
 
 
 
परन्तु ७५ वर्ष की आयु के बाद केवल धर्मचिन्तन और अध्यात्मसाधना ही शिक्षा
 
 
 
का स्वरूप है ।
 
 
 
गत जीवन की समीक्षा और आगामी जन्म का चिन्तनपूर्वक अनुमान भी इस
 
 
 
अवस्था की शिक्षा का अंग है ।
 
 
 
शास्त्रों का अध्ययन कर दूसरों को सिखाना भी चाहिये |
 
 
 
ROG
 
 
 
............. page-323 .............
 
 
 
आलेख ९
 
 
 
प्रौठावस्था की शिक्षा
 
 
 
३५ से ६० वर्ष की आयु प्रौढावस्था है ।
 
 
 
प्रौढावस्था में दो आश्रम सम्मिलित हैं । ५० वर्ष की आयु तक गृहस्थाश्रम और ५०
 
 
 
से ६० वर्ष की आयु तक वानप्रस्थाश्रम होता है ।
 
 
 
गृहस्थाश्रम में गृहस्थाश्रम का पालन करना महत्त्वपूर्ण है जिसमें सन्तानों का संगोपन,
 
 
 
निर्वाह हेतु अ्थार्जन और सांसारिक सुखों का उपभोग इन तीन बातों का मुख्य रूप
 
 
 
से समावेश होता है ।
 
 
 
इन तीनों बातों के लिये धर्माचरण का महत्त्व है । इसकी शिक्षा मातापिता से,
 
 
 
साधुसन्तों से और मित्रों तथा स्वजनों से प्राप्त होती है ।
 
 
 
गृहस्थ के नाते समाजधर्म का पालन भी महत्त्वपूर्ण है । व्यवसाय, दान, यज्ञ आदि
 
 
 
के माध्यम से यह कर्तव्य निभाया जाता है ।
 
 
 
वानप्रस्थाश्रम तक पहुँचते पहुँचते सांसारिक दायित्वों से मुक्त हो सर्के इस दृष्टि से
 
 
 
जीवनक्रम का नियोजन करना चाहिये ।
 
 
 
उपभोग से संयम की ओर, अधिकार से कर्तव्य की ओर तथा समाजसेवा की ओर
 
 
 
गति होनी चाहिये ।
 
 
 
सब कुछ जिम्मेदारीपूर्वक करना इस अवस्था में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण बात है ।
 
 
 
३०७
 
 
 
2८ ५
 
 
 
2 ५.
 
 
 
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भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम
 
 
 
आलेख १०
 
 
 
सोने के नियम
 
 
 
रात्रि में जल्दी सोयें, प्रता: जल्दी उठें ।
 
 
 
प्रातः ब्राह्ममुहूर्त में उठें । ब्राह्ममुूर्त सूर्योदय से पूर्व चार घडी अर्थात्‌ ९६ मिनट होता है ।
 
 
 
आवश्यकता के अनुसार ६ से ८ घण्टे नींद लें ।
 
 
 
दिन में न सोयें । भोजन के बाद वामकुक्षि करें । उस समय गद्दे पर न सोयें । दरी बिछायें ।
 
 
 
सायंकाल किये हुए भोजन का पाचन होने के बाद ही सोयें । जल्दी सो सकें इसलिये जल्दी
 
 
 
भोजन करें ।
 
 
 
फोम के गद्दे और पोलीएस्टर की चहर बिछाकर न सोयें । सिन्थेटिक कम्बल या रजाई
 
 
 
ओढकर न सोयें । रुई का गद्दा, सूती El, WA कम्बल या रुई की रजाई का प्रयोग करें ।
 
 
 
सोने से पहले हाथ पैर मुँह धोयें । गीले पैर लेकर न सोयें ।
 
 
 
feat या गरम कपडे पहनकर न सोयें ।
 
 
 
पीठ या पेट के बल न सोयें । करवट लेकर सोयें ।
 
 
 
मुँह खुला रखकर मुँह से श्वास लेते न सोयें ।
 
 
 
चेहरा ढक कर न सोयें ।
 
 
 
सीधा पंखे के नीचे न सोयें । यथासम्भव बिना ए.सी. सोयें । कम से कम एक खिड़की
 
 
 
खुली रखें ।
 
 
 
मच्छरों से बचने के लिये feats अगरबत्ती न जलायें । मच्छरदानी सबसे अच्छा उपाय
 
 
 
है।
 
 
 
पैर एकदूसरे पर चढाकर, या पेट के पास लेकर न सोयें ।
 
 
 
छाती पर हाथ रखकर न सोयें ।
 
 
 
तेज प्रकाश रखकर न सोयें । लाल प्रकाश में न सोयें । नीला या हरा प्रकाश रखें । प्रकाश
 
 
 
नभी हो तो अच्छा है ।
 
 
 
स्वाध्याय और प्रार्थना करके सोयें ।
 
 
 
३०८
 
 
 
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2८ ५
 
 
 
2 ५.
 
 
 
आलेख ११
 
 
 
आहार के नियम
 
 
 
आवश्यकता से अधिक या कम आहार न लें । पर्याप्त मात्रा में लें ।
 
 
 
तामसी भोजन न करें, सात्त्विक आहार लें ।
 
 
 
प्रातःकाल सूर्योदय के दो घडी बाद नास्ता करें, दोपहर मध्याहन के एक घडी पूर्व
 
 
 
और सायंकाल सूर्यास्त के एक घडी पूर्व भोजन करें । रात्रि भोजन न करें ।
 
 
 
विरुद्ध आहार न करें । ऋतु के अनुसार भोजन करें ।
 
 
 
अपवित्र भोजन न करें, भोजन को अपवित्र न बनायें ।
 
 
 
भोजन से पूर्व और भोजन के तुस्त बाद पानी न पियें, भोजन के मध्य थोडा सा
 
 
 
पानी पियें । भोजन के एक घण्टे बाद पानी पियें ।
 
 
 
बैठकर ही भोजन करें । कुर्सी से भी नीचे आसन बिछाकर भूमि पर बैठना अच्छा
 
 
 
है । खडे खडे भोजन न करें ।
 
 
 
व्यर्थ भूखे न रहें, परन्तु असमय खाने से, अखाद्य खाने से भूख रहना अच्छछा है ।
 
 
 
प्लास्टिक के पात्रों में भोजन न करें । एल्‍्युमिनियम के पात्रों में भी भोजन न करें ।
 
 
 
मिक्सर, ग्राइण्डर, माइक्रोवेव, प्रेशर कूकर आदि की सहायता से एल्यूमिनियम के
 
 
 
पात्रों में बनाया हुआ भोजन न करें । ऐसा खाने से भूखा रहना अच्छा है ।
 
 
 
रासायनिक खाद से उगाया गया, बिना क्रतु के असमय पकाया गया अनाज; फल
 
 
 
या सागसब्जी, अनुचित पद्धति से निकाला गया तेल, अनुचित पद्धति से बना घी,
 
 
 
जर्सी का दूध आरोग्य के लिये अत्यन्त हानिकारक है ।
 
 
 
भोजन से शरीर की पुष्टि और मन के संस्कार होते हैं । शरीर के लिये पौष्टिक, मन
 
 
 
के लिये सात्विक और जीभ के लिये स्वादिष्ट भोजन करें ।
 
 
 
३०९
 
 
 
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भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम
 
 
 
आलेख १२
 
 
 
अच्छी शिक्षा प्राप्त करने हेतु यह करें
 
 
 
रात को जल्दी सोयें, प्रात: जल्दी उठें, दिन में न सोयें ।
 
 
 
खूब मंत्र, स्तोत्र, सुभाषित, सूक्ति, सूत्र, पहाडे कंठस्थ करें ।
 
 
 
श्रीमदू भगवदूगीता को कण्ठस्थ करें, नित्य पाठ करें और उसका अध्ययन करें ।
 
 
 
जप करें, ध्यान करें, ऊँकार उच्चारण करें, स्वरसाधना करें
 
 
 
ब्रह्मचर्य का पालन करें अर्थात्‌ नियम, संयम, अनुशासन का पालन करें ।
 
 
 
खूब खेलें, व्यायाम करें, श्रम करें, काम करें ।
 
 
 
स्वाश्रयी और स्वाध्यायी बनें ।
 
 
 
शुद्ध उच्चारण और शुद्धलेखन के आग्रही बनें । सच्चा पढना सीखें । खूब वाचन करें ।
 
 
 
सारी बातें प्रत्यक्ष कार्य और प्रयोग करके सीखें ।
 
 
 
अपनी बुद्धि से सीखें, विचार, विवेक और निर्णय करना सीखें ।
 
 
 
कठिन सवालों का हल खोजने की चुनौती स्वीकार करें, हल प्राप्त न हो तब तक लगे रहें ।
 
 
 
अपना आदर्श, अपना ध्येय, अपना लक्ष्य निर्धारित करें, उसे प्राप्त करने की योजना बनायें ।
 
 
 
जिम्मेदारीपूर्वक अध्ययन करें, मेरी पढाई में किसका कितना योगदान है इसका विचार करें ।
 
 
 
जबतक स्वयं विचार नहीं कर सकते तब तक बडों की आज्ञा का पालन करें । बडों के साथ
 
 
 
वादविवाद न करें ।
 
 
 
अपनी पढाई का अपने जीवन के लिये, आसपास के जगत के लिये क्या उपयोग है इसका
 
 
 
विचार करें ।
 
 
 
भय, लालच, आकर्षण, स्वार्थ आदि को समझें और उन्हें परास्त करने का सामर्थ्य प्राप्त करें ।
 
 
 
अच्छा, खायें, अच्छा काम करें, मन को वश में रखें और बुद्धि को सक्रिय करें । बुद्धिपूर्वक
 
 
 
अध्ययन करें, बुद्धिपूर्वक व्यवहार करें ।
 
 
 
स्वतन्त्र बुद्धि का विकास ही अच्छी शिक्षा का परिणाम है । स्वतन्त्र बुद्धि से सर्व प्रकार की
 
 
 
स्वतन्त्रता प्राप्त होती है ।
 
 
 
शिक्षित व्यक्ति को शोभा देनेवाला आचरण करें ।
 
 
 
३१०
 
 
 
............. page-327 .............
 
 
 
आलेख १३
 
 
 
अच्छी शिक्षा प्राप्त करने के लिये यह न करें
 
 
 
देर तक न सोयें, जंक फूड न खायें, आलसी न बनें ।
 
 
 
मोबाइल, इण्टरनेट, टीवी और होटेल से बचें ।
 
 
 
क्रिकेट, पार्टी, शृंगार, विजातीय मैत्री के आकर्षण में न फँसे ।
 
 
 
गाईड बुक, ट्यूशन, कैल्क्युलेटर आदि का उपयोग न करें ।
 
 
 
परीक्षा में नकल न करें । छोटा लक्ष्य न रखें ।
 
 
 
किसी भी प्रश्न के तैयार उत्तरों की अपेक्षा न करें ।
 
 
 
उद्दण्ड, उच्छृखल, अविनयी, अहंकारी न बनें । अशिष्ट वाणी, अभद्र आचरण,
 
 
 
अविवेकी व्यवहार न करें ।
 
 
 
स्वार्थी न बनें, केवल अपना ही विचार न करें, किसी को मूर्ख बनाने में बहादुरी न
 
 
 
मानें ।
 
 
 
प्लास्टिक की वस्तुओं का, सिन्थेटिक पदार्थों का उपयोग न करें । पर्यावरण और
 
 
 
स्वास्थ्य की हानि न करें ।
 
 
 
भोगविलास के सपने न देखें, बिना परिश्रम के कमाई की आकांक्षा न रखें, कम काम
 
 
 
करके अधिक कमाई की खोज में न रहें ।
 
 
 
बिना स्वाध्याय और परिश्रम के अच्छे अंक लाने की कामना रखकर अनैतिक व्यवहार
 
 
 
A ae |
 
 
 
परिवार, विद्यालय और समाज के लिये आपत्तिरूप न बनें । स्वमान और गौरव न
 
 
 
ae |
 
 
 
स्वैराचार को स्वतन्त्रता न समझें । बुद्धि स्वतन्त्र होने पर ही स्वतन्त्रता प्राप्त होती है
 
 
 
यह समझें ।
 
 
 
बिना बुद्धिविकास विवेक नहीं, बिना विवेक अधिकार नहीं, बिना विवेक स्वतन्त्रता
 
 
 
नहीं ।
 
 
 
दूसरों की बुद्धि से ही सीखना पडता है तब तक आप बडे नहीं हुए । बडे नहीं हुए तो
 
 
 
स्वतन्त्रता और अधिकार कैसे मिलेंगे ?
 
 
 
विद्वानों का, सज्जनों का, वृद्धों का, सन्तजनों का अपमान, अनादर और उपहास न
 
 
 
करें । ऐसा करेंगे तो विद्या कभी भी प्राप्त नहीं होगी ।
 
 
 
३११
 
 
 
............. page-328 .............
 
 
 
भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम
 
 
 
आलेख १४
 
 
 
अच्छी शिक्षा के अवरोध
 
 
 
गर्भावस्था में माता का अनुचित आहारविहार
 
 
 
शिशुअवस्था में संस्कारक्षम वातावरण का अभाव
 
 
 
बच्चों को बहुत जल्दी विद्यालय में भेजना
 
 
 
बच्चों का अनुचित आहारविहार
 
 
 
सिन्थेटिक पदार्थों का उपयोग
 
 
 
भोजन बनाने में पोषक द्रव्यों को नष्ट करने वाले यन्त्रों का प्रयोग और पानी के
 
 
 
शुद्धीकरण की स्वास्थ्यविरोधी प्रक्रिया
 
 
 
अधिक समय पढाई, बिना समझे पढाई
 
 
 
अध्ययन अध्यापन की यान्त्रिक पद्धतियाँ
 
 
 
लिखित गृहकार्य, यान्त्रिक साधनों का उपयोग
 
 
 
व्यायाम, श्रम का, संयम नियम का अभाव
 
 
 
अविचारी और अनर्थकारी परीक्षापद्धति
 
 
 
बिना सोचे समझे अनावश्यक रूप से अत्यधिक साधनसामग्री का उपयोग
 
 
 
पाठ्यक्रम में अनावश्यक विषयों का समावेश और आवश्यक विषयों की उपेक्षा
 
 
 
जीवनव्यवहार के साथ शिक्षा का सम्बन्ध विच्छेद
 
 
 
शिक्षक और विद्यार्थी में प्रेम, आदर, श्रद्धा का अभाव
 
 
 
शिक्षक और मातापिता में परस्पर विश्वास का अभाव
 
 
 
मन की अर्थात्‌ सद्गुण और सदाचार की शिक्षा का अभाव
 
 
 
स्वार्थकेन्द्री जीवनविचार
 
 
 
शासन का नियन्त्रण और शिक्षकों में दायित्वबोध का अभाव
 
 
 
बिना अध्ययन के भी परीक्षा में उत्तीर्ण हो जाने की सम्भावना, सुविधा और व्यवस्था
 
 
 
शिक्षा अच्छी नहीं होने पर किसी को भी जिम्मेदार मानने की व्यवस्था का अभाव
 
 
 
शिक्षा का बाजारीकरण, यान्त्रिकीकरण और अभारतीयकरण
 
 
 
............. page-329 .............
 
 
 
आलेख १५
 
 
 
विश्वविद्यालयों का संकट
 
 
 
वर्तमान भारत के सारे विश्वविद्यालय युरोपीय प्रतिमान के अनुसार ही चलते हैं । भारत
 
 
 
की संसद में पारित हुए प्रस्ताव के आधार पर शुरू होते हैं । उनका राजकीय नियन्त्रण
 
 
 
अनिवार्य है ।
 
 
 
विश्वविद्यालयों के शोध और अनुसन्धान के सारे मानक युरोपीय हैं । भारत के मानकों
 
 
 
का उन्हें न परिचय है न उन्हें मानने का आग्रह ।
 
 
 
सभी विषयों के मूल सिद्धान्त, विचारधारा, विवरण और जानकारी युरोअमेरिकी
 
 
 
जीवनदृष्टि पर आधारित और युरोअमेरिकी विद्वानों द्वारा प्रतिपादित हैं ।
 
 
 
विश्वविद्यालयों में शिक्षित लोग ही राष्ट्रजीवन की नीतियाँ बनाते हैं और दिशा निर्धारित
 
 
 
करते हैं । परिणाम स्वरूप देश भारतीय नहीं अपितु युरोअमेरिकी ज्ञानधारा से ही चलता
 
 
 
a |
 
 
 
विश्वविद्यालय में दिये जाने वाले ज्ञान का भारतीय जीवनशैली, भारतीय परम्परा,
 
 
 
भारतीय संस्कृति से कोई सम्बन्ध नहीं है, यदि है तो विपरीत सम्बन्ध है ।
 
 
 
विश्वविद्यालयों को किसी भी विषय की आजीवन और सार्वत्रिक शिक्षा के स्वरूप का
 
 
 
कोई अतापता नहीं है | देश की प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा अनाश्रित बन गई है ।
 
 
 
विद्यार्थियों के चरित्रनिर्माण, जीवननिर्वाह, समाजधारणा जैसे गम्भीर विषयों के साथ
 
 
 
विश्वविद्यालयों का कोई सम्बन्ध नहीं है, कोई दायित्वबोध नहीं है ।
 
 
 
ज्ञान एक और अखण्ड है इसलिये सारे विषय एकदूसरे से जुडे हैं, अंगांगी सम्बन्ध से
 
 
 
जुडे हैं यह दृष्टि नहीं होने से विषयों का जीवन के साथ सम्बन्ध बनना असम्भव हो
 
 
 
जाता है ।
 
 
 
अभारतीय ज्ञानधारा की प्रतिष्ठा के कारण विश्वविद्यालय सारे सांस्कृतिक संकरटों के
 
 
 
उद्गम स्थान बन जाते हैं इस बात की दखल अभीतक नहीं ली गई है यह शोचनीय
 
 
 
है।
 
 
 
३१३
 
 
 
............. page-330 .............
 
 
 
भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम
 
 
 
आलेख १६
 
 
 
शिक्षाविषयक सरकारी तन्त्र की कठिनाई
 
 
 
शिक्षा सरकार का काम नहीं है तो भी सरकार ने इसका स्वीकार कर लिया है इसलिये
 
 
 
सरकार के लिये वह बाध्यता बन गई है, बोज बन गई है ।
 
 
 
सरकार यदि अपना नियन्त्रण हटाना चाहे तो शिक्षा का दायित्व लेने के लिये शिक्षक
 
 
 
समर्थ नहीं हैं, तैयार भी नहीं हैं इसलिये सरकार को शिक्षा की जिम्मेदारी उठाने की
 
 
 
बाध्यता बन जाती है ।
 
 
 
सरकार अपना बोज कम करने हेतु किसी की सहायता माँगती है तो उद्योजक सामने
 
 
 
आते हैं और वे शिक्षा का बाजारीकरण कर देते हैं । शिक्षारूपी चुहिया शेर के पंजे से
 
 
 
निकलकर मगरमच्छ के जबडों में जा गिरती है ।
 
 
 
सरकार में तन्त्र काम करता है व्यक्ति नहीं । समय समय पर तन्त्र सम्हालने वाले व्यक्ति
 
 
 
बदल जाते हैं । इससे दायित्व बोध कभी पैदा ही नहीं होता । बदलते रहते व्यक्ति
 
 
 
व्यवस्था को अनवस्था में बदल देते हैं तो भी किसी को जिम्मेदार नहीं बनाया जाता
 
 
 
है।
 
 
 
सरकार शिक्षा में सुधार तो बहुत करना चाहती है परन्तु डेमोक्रसी के तन्त्र में ज्ञान के भी
 
 
 
विषय में ज्ञानियों का अधिकार नहीं चलता, बहुमत का चलता है इसलिये ज्ञानात्मक
 
 
 
सुधार होने की कोई सम्भावना ही नहीं बचती |
 
 
 
केवल विश्वविद्यालय ही नहीं तो सरकारी तन्त्र भी युरोअमेरिकी जीवनदृष्टि और व्यवस्था
 
 
 
से चलता है । प्रशासन अपने आपको इतना श्रेष्ठ मानता है कि वह युरोअमेरिकी
 
 
 
विद्वानों की ही बात मानता है, भारतीय ज्ञान की ओर तुच्छता से देखता है । सरकारें
 
 
 
बदलती रहती हैं । इस कारण से सरकार के चाहने पर भी भारत में शिक्षा भारतीय नहीं
 
 
 
हो सकती ।
 
 
 
सरकार, प्रशासन, उद्योजक और विश्वविद्यालय मिलकर युरोअमेरिकी प्रतिमान की ही
 
 
 
प्रतिष्ठा में ही यदि लगे रहेंगे तो भारतीय शिक्षा की प्रतिष्ठा कैसे होगी ? किसकी
 
 
 
इच्छाशक्ति बलवान होने से भारतीय करण का प्रारम्भ हो सकता है ? प्रश्न विचित्र है,
 
 
 
उत्तर कठिन ।
 
 
 
३१४
 
 
 
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आलेख १७
 
 
 
क्या मातापिता इतना साहस कर सकते हैं
 
 
 
कम से कम पाँच वर्ष की आयु तक बच्चों को किसी प्रकार के विद्यालय में नहीं
 
 
 
भेजेंगे ।
 
 
 
जब तक बालक घर में है बालक की माता नौकरी हेतु घर से बाहर नहीं जायेगी ।
 
 
 
बालक को सिखायेगी । बालक की गुरु बनेगी ।
 
 
 
बालक को सरकारी निःशुल्क विद्यालय में ही पढने भेजेंगे और सरकारी विद्यालय के
 
 
 
शिक्षकों को पढ़ाने के लिये बाध्य करेंगे ।
 
 
 
सरकारी प्राथमिक विद्यालय में पढनेवाले दलित, झॉंपडी में रहनेवाले, गरीब पाँच बच्चों
 
 
 
को नियमित घर बुलायेंगे और अपने बालक के साथ खेलने का अवसर देंगे और उन्हें
 
 
 
संस्कारित करेंगे ।
 
 
 
बालक के लिये कभी भी ट्यूशन नहीं रखेंगे । विद्यालय में अच्छी पढाई हो इसके लिये
 
 
 
दबाव बनायेंगे । बहुत ऊँचा शुल्क, कोचिंग क्लास, ट्यूशन आदि के विरोध में
 
 
 
आन्दोलन करेंगे । विद्यार्थियों का समय बचायेंगे ।
 
 
 
अपने पुत्रपुत्रियों को घर के सारे काम सिखायेंगे, आग्रहपूर्वक करवायेंगे और अच्छी
 
 
 
तरह से काम करने का मन बनायेंगे ।
 
 
 
बालकों को भविष्य में क्या बनना है इसकी निश्चिति छोटी आयु में कर लेंगे और उसके
 
 
 
अनुरूप ही तैयारी करेंगे । निर्स्थक शिक्षा हेतु समय, पैसा और शक्ति का अपव्यय नहीं
 
 
 
करेंगे ।
 
 
 
अपनी सन्तानों को अच्छे गृहस्थाश्रम हेतु आवश्यक ऐसी शिक्षा अच्छी तरह से देने का
 
 
 
प्रबन्ध करेंगे । इस मामले में मातापिता का कोई विकल्प नहीं है । इसके लिये समय
 
 
 
और शक्ति का विनियोग करना ही चाहिये ।
 
 
 
अपनी सन्तानें परीक्षा में नकल न करें, आसान परीक्षा का आग्रह न रखें, बिना परिश्रम
 
 
 
के उत्तीर्ण होने से खुश न हों, शिक्षकों का आदर करें इस बात का आग्रह रखेंगे ।
 
 
 
अथार्जिन ही शिक्षा का एकमात्र उद्देश्य नहीं है यह समझाने में यशस्वी हों । साथ ही
 
 
 
अधथर्जिन हेतु उचित शिक्षा का प्रबन्ध करें ।
 
 
 
३१५
 
 
 
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भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम
 
 
 
आलेख १८
 
 
 
क्या महाविदायलयीन विद्यार्थियों में इतना साहस है
 
 
 
जितने वर्ष अध्ययन चलता है प्रतिदिन औसत छः घण्टे अध्ययन करें । अध्ययन में
 
 
 
कभी भी खण्ड न हो ।
 
 
 
परीक्षा हेतु शत प्रतिशत पाठ्यक्रम का पूर्ण अध्ययन करें । परीक्षा में कुछ भी पूछा
 
 
 
जाय कोई चिन्ता नहीं ।
 
 
 
परीक्षा में जरा भी नकल न करें । सरल प्रश्नपत्र की अपेक्षा न करें । कठिन प्रश्न पत्र
 
 
 
हल करना ही अपनी योग्यता मानें । बौद्धिक चुनौती का स्वीकार करने में आनन्द और
 
 
 
सन्तोष का अनुभव करें ।
 
 
 
महाविद्यालय की कक्षाओं में पूर्ण उपस्थिति का आग्रह हो ।
 
 
 
जबतक पढ़ते हैं कभी भी होटेल में, पार्टी में, वेलेण्टाइन डे जैसे आयोजनों में सहभागी
 
 
 
न हों । विद्यात्रती बनें ।
 
 
 
देश दुनिया में क्या चल रहा है इसकी जानकारी रहे इस दृष्टि से अखबार, टीवी के
 
 
 
समाचार, चचर्यिं सुनें, देखें, पढें, मित्रों के साथ चर्चा करें और अपने मत बनायें ।
 
 
 
विश्वस्थिति का भारत पर क्या प्रभाव हो रहा है इसका विचार करें और संकटों से बचने
 
 
 
के उपायों का चिन्तन करें ।
 
 
 
योगाभ्यास और व्यायाम कर अपनी शारीरिक और मानसिक शक्तियों का विकास करें ।
 
 
 
अध्ययन कर बौद्धिक सामर्थ्य बढ़ायें ।
 
 
 
जिस विषय पर अध्ययन कर रहे हैं उसका क्या उपयोग है इसका विचार करें । कितना
 
 
 
प्रगत अध्ययन करने की अपनी क्षमता है इसका आकलन करें ।
 
 
 
अथार्जिन हेतु क्षमता प्राप्त करें । अथर्जिन के सांस्कृतिक नियम अपनायें और अपनी
 
 
 
सीमा तय करें ।
 
 
 
अच्छे गृहस्थाश्रम की संकल्पना समझें और उसके लिये भी सिद्धता करें ।
 
 
 
अपने शिक्षित होने से अपना, अपने परिवार का, अपने समाज का, अपने देश का
 
 
 
गौरव बढ़ने वाला है कि कम होने वाला इसका आकलन करें ।
 
 
 
शिक्षा विषयक अपने मापदण्ड कितने ऊँचे हैं इसका विचार करें । मापद्‌ण्ड ऊँचे रखें
 
 
 
और उन पर खरे उतरने का पुरुषार्थ करें ।
 
 
 
३१६
 
 
 
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आलेख १९
 
 
 
क्या शिक्षकों में इतना साहस है कि...
 
 
 
अपने बलबूते पर विद्यालय शुरू करें और निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था करें ?
 
 
 
अपने आपको इतना विश्वसनीय बनायें कि बोली हुई बात के लिये कोई प्रमाण देना न
 
 
 
पडे ?
 
 
 
विद्यार्थी को जानें और सुपात्र विद्यार्थी को ही पढ़ायें । कुपात्र विद्यार्थी को सुपात्र बनने
 
 
 
का अवसर दें ?
 
 
 
भय, लोभ, लालच, दबाव, षडयन्त्र, कपट को जानें, उनका शिकार न बनें अपितु उन्हें
 
 
 
परास्त करें ?
 
 
 
शिक्षाक्षेत्र की समस्याओं को समझें, उनके निराकरण का सामर्थ्य और साहस जुटायें
 
 
 
और उनका समाधान करना अपना दायित्व मानें ?
 
 
 
ज्ञान की अवमानना न होने दें, उसे बाजारीकरण से बचायें और विद्यार्थियों को भी
 
 
 
ज्ञाननिष्ठ बनायें ?
 
 
 
अपने विद्यार्थियों में से दस प्रतिशत विद्यार्थियों को अपने जैसे शिक्षक बनने की प्रेरणा
 
 
 
और शिक्षण दें ?
 
 
 
भारतीय शिक्षा पर पश्चिमी शिक्षा का जो प्रभाव हुआ है उसका अनिष्ट समझें, उस
 
 
 
प्रभाव को निरस्त करने हेतु पुरुषार्थ करें और उसके स्थान पर भारतीय शिक्षा की प्रतिष्ठा
 
 
 
करें ?
 
 
 
शिक्षकों को संगठित करें, शिक्षा के अवरुद्ध प्रवाह को मुक्त करें और समाज और राज्य
 
 
 
का मार्गदर्शन करने का सामर्थ्य प्राप्त करें ?
 
 
 
धर्माचार्यों के सहयोग से धर्मानुसारी शिक्षा की प्रतिष्ठा करें ? धर्माचार्यों के साथ मिलकर
 
 
 
प्रथम तो धर्म को ही विवाद से मुक्त करें और जीवन के आधार के रूप में उसे प्रतिष्ठित
 
 
 
करें ?
 
 
 
अपने सामने प्राचीन गुरुकुलों के आचार्यों का आदर्श रखें, वर्तमान में विश्वमर से प्राप्त
 
 
 
ज्ञान को उसके अनुकूल बनायें, प्राचीन व्यवस्थाओं को युगानुकूल बनायें और शिक्षा
 
 
 
का एक प्रतिमान विकसित करें ?
 
 
 
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भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम
 
 
 
आलेख २०
 
 
 
शिक्षा को भारतीय बनाने हेतु यह किया जाय
 
 
 
देशभर में कम से कम एक सौ अनुसन्धान पीठ बनें जहाँ भारतीय ज्ञानधारा का अध्ययन हो और उसे
 
 
 
युगानुकूल बनाने हेतु अनुसन्धान हो ।
 
 
 
इन्हीं पीठों में अनुसन्धान के परिणामस्वरूप नये ग्रन्थों का निर्माण हो, नये पाठ्यक्रम बनें और उच्च
 
 
 
शिक्षा से प्राथमिक शिक्षा तक के विद्यालय चलाये जाय । एक एक संस्थान ऐसे दस विद्यालय
 
 
 
चलायें । इनमें उच्च शिक्षा प्राप्त करने वाले युवा विद्यार्थी किशोरवयीन विद्यार्थियों को, किशोरवयीन
 
 
 
विद्यार्थी बालवयीन विद्यार्थियों को पढायें और इस प्रकार एक शुखला तैयार हो ।
 
 
 
प्रत्येक स्तर पर दस दस विद्यार्थी हों । इस हिसाब से एक एक पीठ में दस युवा, एक सौ किशोर और
 
 
 
एक हजार बाल अवस्था के विद्यार्थी होंगे ।
 
 
 
एक पीठ में एक पीठाधीश, दस आचार्य हों । एक एक आचार्य के पास एक सौ ग्यारह विद्यार्थी
 
 
 
होंगे । एक पीठ की पीठाधीश सहित कुल संख्या १,१२१ होगी ।
 
 
 
वर्ष में एक बार सभी पीठों के पीठाधीश, आचार्य और उच्च शिक्षा के विद्यार्थियों का दस दिन का
 
 
 
सम्मेलन एक स्थान पर होगा । इसकी संख्या २११ होगी ।
 
 
 
दस वर्ष बाद दस आचार्य अपने अपने पीठ नये स्थानों पर शुरु करेंगे, उच्च शिक्षा के विद्यार्थी आचार्य
 
 
 
बनेंगे ।
 
 
 
इस प्रकार से संख्या बढते बढते पचास वर्षों में पूरे देश में भारतीय शिक्षा की प्रतिष्ठा होगी ।
 
 
 
इन अनुसन्धान पीठों के निभाव का खर्च समाज देगा । विद्यार्थीयों के भोजन तथा अन्य
 
 
 
आवश्यकताओं को उनके अभिभावक पूर्ण करेंगे । केवल एक सौ किशोर, दस युवा विद्यार्थी, दस
 
 
 
आचार्य और एक पीठाधीश ऐसे १२१ लोग ही आवासी होंगे । बालकवय के विद्यार्थी अपने घर में
 
 
 
रहेंगे ।
 
 
 
एक सौ किशोरों का निभाव उद्योजकों के द्वारा होगा । युवा विद्यार्थी और आचार्य इस हेतु से भिक्षा
 
 
 
माँगेंगे । किशोर विद्यार्थी व्यवस्था के सारे काम करेंगे ।
 
 
 
अनुसन्धान पीठ के शैक्षिक खर्च हेतु समाज के सामान्य जनों से सहयोग प्राप्त किया जायेगा ।
 
 
 
fiat atk दान कितना भी अधिक जमा करना पडे, पढनेवाले विद्यार्थियों के लिये शिक्षा निःशुल्क
 
 
 
होगी ।
 
 
 
वर्ष में एक बार पूरा पीठ देश में यात्रा के लिये जायेगा । यह प्रचार प्रसार हेतु होगा ।
 
 
 
अनुसन्धान पीठ में प्रवेश हेतु स्वास्थ्य, चरित्र, जिज्ञासा, सेवाभाव आदि के निकष होंगे ।
 
 
 
विद्यार्थियों के साथ साथ उनके अभिभावकों को भी पढ़ाने की व्यवस्था की जायेगी ।
 
 
 
राज्य के साथ संवाद स्थापित करना इन अनुसन्धान पीठों का महत्त्वपूर्ण कार्य होगा ।
 
 
 
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20
 
 
 
8
 
 
 
अवस्था
 
 
 
गर्भावस्था
 
 
 
शिशु अवस्था
 
 
 
बाल अवस्था
 
 
 
किशोरावस्था
 
 
 
तरुणावस्था
 
 
 
पूर्वयुवावस्था
 
 
 
उत्तरयुवावस्था
 
 
 
पूर्वप्रौदावस्था
 
 
 
उत्तर प्रौदावस्था
 
 
 
पूर्व वृद्धावस्था
 
 
 
उत्तर वृद्धावस्था
 
 
 
आलेख २१ : आयु की अवस्था एवं करण
 
 
 
आयु
 
 
 
गर्भधान से जन्म तक
 
 
 
ज्म से पाँच वर्ष
 
 
 
६ से १२ वर्ष ब्रह्माचर्य
 
 
 
१३ से १५ वर्ष ब्रह्मब्रयाश्रम
 
 
 
आश्रम
 
 
 
सक्रियकरण
 
 
 
कर्मन्द्रिय, ज्ञानेन्द्रिय, मनका
 
 
 
भावनापक्ष
 
 
 
मन का विचार पक्ष, बुद्धि का
 
 
 
निरीक्षण, परीक्षण, तर्क
 
 
 
८८ ८८५
 
 
 
2 ५.
 
 
 
८ 9-५४
 
 
 
शक्ति
 
 
 
संस्कार
 
 
 
संस्कार
 
 
 
क्रिया, अनुभव, भावना
 
 
 
विचार कुछ मात्रा में विवेक
 
 
 
२० से विवाहतक
 
 
 
ब्रह्मचर्याश्रिम
 
 
 
सभ बहिः और अन्तःकरण
 
 
 
३५ से ५० वर्ष तक
 
 
 
५० से ६० वर्ष
 
 
 
६० से ७५ वर्ष
 
 
 
७५ से मृत्यु तक
 
 
 
गृहस्थाश्रम
 
 
 
गृहस्थाश्रम
 
 
 
वानप्रस्थाश्रम
 
 
 
वानप्रस्थाश्रम
 
 
 
संन्यस्ताश्रम
 
 
 
(यह अनिवार्यन हीं है,
 
 
 
संन्यास नहीं लिया तो
 
 
 
वानप्रस्थाश्रम)
 
 
 
३१९
 
 
 
सभी विशेष रूप से बुद्धि
 
 
 
सभी विशेष रूप से अन्तःकरण
 
 
 
विवेक, दायित्वबोध
 
 
 
विवेक और दायित्वबोध
 
 
 
कर्तृत्वभाव
 
 
 
चिन्तन, दायित्वबोध,
 
 
 
कर्तृत्वभाव
 
 
 
विवेक दायित्वबोध
 
 
 
विवेक ज्ञाताभाव
 
 
 
विवेक ज्ञाताभाव
 
 
 
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८“
 
 
 
८ न
 
 
 
कि,
 
 
 
शिक्षा का स्वरूप
 
 
 
माता का आहार, विहार,
 
 
 
संगीत, क्रियाकलाप
 
 
 
आसपास के लोग तथा वातावरण से
 
 
 
संस्कार ग्रहण करना, सीखने का अखण्ड | अन्य लोग, सहयोगी
 
 
 
पुरुषार्थ, अनुकरण
 
 
 
क्रियाआधारित प्रेरणा आधारित अनुभव
 
 
 
आधाख़ि
 
 
 
निरीक्षण और प्रयोग, संवाद, वार्तालाप,
 
 
 
पठन, लेखन
 
 
 
चिन्तन करना, समझना, निर्णय करना,
 
 
 
अपना मत बनाना
 
 
 
व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन में
 
 
 
दायित्व समझना स्वतन्त्र बुद्धि से निर्णय
 
 
 
का
 
 
 
गृहस्थधर्म का पालन शिक्षितों से संवाद
 
 
 
प्रत्यक्ष अनुभव से सीखना
 
 
 
कुलधर्म, समाजधर्म का पालन, दान,
 
 
 
यज्ञ, सेवा, स्वाध्याय, विद्वानों और
 
 
 
Brit का उपदेश
 
 
 
१, कुलधर्म और समाजधर्म
 
 
 
का चिन्तन और व्यवहार,
 
 
 
२. नई पीढ़ी को इन सब
 
 
 
का हस्तास्तरण
 
 
 
१, मनो व्यापारो का अवलोकन, २.
 
 
 
जगत के व्यवहारों का अवलोकन
 
 
 
१, चिन्तन,
 
 
 
२. अनुसन्धान,
 
 
 
३. मार्गदर्शन
 
 
 
शिक्षा देने वाले
 
 
 
क्या करें
 
 
 
भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम
 
 
 
क्या न करें
 
 
 
माता संस्कासक्षम वातावरण का निर्माण गर्भ | चिन्ता, क्रोध, शोक आदि
 
 
 
की सुरक्षा
 
 
 
लालन कों सम्मान दे, गीत, खेल,
 
 
 
कहानी,
 
 
 
माता पिता तथा घर के
 
 
 
घर में मातापिता,
 
 
 
विद्यालय में शिक्षक
 
 
 
अन्य क्रियाकलाप
 
 
 
संस्कारक्षम वातावरण, क्रियाकलाप,
 
 
 
अनुभव, और प्रेरणा
 
 
 
संयम, परिश्रम, घर के अनेक काम,
 
 
 
घ्में मातापिता,ब घिलय में शिक्षक. | साधक बाधक विचार
 
 
 
घर में मातापिता, विद्यालय में शिक्षक, | स्वतन्त्र बुद्धि से विचार करे दें,
 
 
 
अन्य विजन मित्रतापूर्वक व्यवहार कों
 
 
 
घर में मातापिता,
 
 
 
विद्यालय में शिक्षक, ग्रन्थालय, अनुभवी
 
 
 
लोग
 
 
 
मातापिता, ग्रन्थ, समाज के वर्ष लोग,
 
 
 
स्वजन और मित्र
 
 
 
ग्रन्थ, विद्वान, सन्त, स्नेही, स्वजन,
 
 
 
अनुभव
 
 
 
अनुभव, ग्रन्थ,
 
 
 
सम्तजन, gE, KR
 
 
 
TAM, WY,
 
 
 
विद्रजन, सन्तजन
 
 
 
WRT, GASH,
 
 
 
विद्रजन, जगत
 
 
 
कठोर ब्रह्मचर्य का पालन, जिम्मेदारी
 
 
 
का स्वीकार
 
 
 
१, समर्थ सन्तान को
 
 
 
जन्म देना, २. अ्थार्जन करना, है.
 
 
 
TRAC ST पालन करना
 
 
 
१. जो कों समझ कर विवेकपूर्वक कॉं,
 
 
 
२. सन्तानों को संस्कारयुक्त शिक्षा दें,
 
 
 
३. चख़ि का रक्षण कों
 
 
 
१, क्रमश: आसक्ति कम कों, २.
 
 
 
FRI al जिम्मेदारी सॉप दे
 
 
 
३. समाजसेवा हेतु सिद्धता
 
 
 
प्राप्त कों
 
 
 
१, समाजसेवा, २. दायित्वों का
 
 
 
हस्तान्तरण, ३. नई पीढ़ी का मार्गदर्शन,
 
 
 
४, अधिकारों का त्याग, ५. कथा
 
 
 
श्रवण,
 
 
 
६. तीर्थयात्रा
 
 
 
१, यात्रा, १. आसक्ति का त्याग,
 
 
 
३. अपेक्षाओं का त्याग, ४. उदारता,
 
 
 
५, क्षमाशीलता, ६. सत्य और धर्म के
 
 
 
प्रति निष्ठा, ७. संयम, ८. तप, ९, ईश्वर
 
 
 
प्रणिधान
 
 
 
३२०
 
 
 
औपचारिक शिक्षा उपदेश, दण्ड न दें,
 
 
 
विद्यालय न भैंजे
 
 
 
केवल लिखने पढने की शिक्षा
 
 
 
अक्रिय, मनोरंजन, विजातीय मैत्री,
 
 
 
अनुचित आहार विहार
 
 
 
यान्त्रिक रूप से न पढ़ें, गैर जिम्मेदार न
 
 
 
बनें
 
 
 
विलास, उच्छुखलता
 
 
 
१, असंस्कारी, अशिष्ट आचरण *.
 
 
 
जिम्मेदारी का त्याग
 
 
 
१, अविवेक और असंयम, २. अशिष्ट
 
 
 
व्यवहार, ३.. अनैतिक अधर्जिन, ४.
 
 
 
अधार्मिक आचरण
 
 
 
१, विलास, २. अशिष्ट और अविचारी
 
 
 
व्यवहार, ३. नई पीढ़ी से स्पर्धा और
 
 
 
तुलना
 
 
 
१, अधथर्जिन, २. भोगविलास, 2.
 
 
 
दायित्वों का त्याग, ४. अधर्मयुक्त
 
 
 
आचरण
 
 
 
१, अस्वास्थ्यकर और असंस्कृत
 
 
 
आचरण, २. परिवार और समाज के
 
 
 
व्यवहारों में दल, ३. बचकाना
 
 
 
व्यवहार
 
 
 
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Latest revision as of 22:45, 12 December 2020

आलेख १ - अर्थकरी शिक्षा के व्यावहारिक आयाम

  • भगवान ने हाथ काम करने के लिये दिये हैं इसलिये हाथ से काम करना अनिवार्य है और अच्छा है[1]; इस बात को स्वीकार करना चाहिये।
  • घर में और विद्यालय में शिशुअवस्था से ही हाथ से काम करना सिखाना चाहिये ।
  • हाथ से काम करने वाला, न करने वाले से श्रेष्ठ है ऐसा मानस बनना चाहिये ।
  • काम करने वाले हाथ में ही लक्ष्मी, सरस्वती और लक्ष्मीपति का वास है, यह तथ्य समझना चाहिये।
  • श्रेष्ठ समाज समृद्ध समाज होता है। समाज को समृद्ध बनाने हेतु अर्थकरी शिक्षा की व्यवस्था होनी चाहिये।
  • समृद्धि, धर्म और संस्कृति की अविरोधी होनी चाहिये । धर्म अर्थ से श्रेष्ठ माना जाना चाहिये।
  • भौतिक पदार्थों के उत्पादन पर आधारित समृद्धि होनी चाहिये। अनेक सांस्कृतिक बातें अर्थ से परे होनी चाहिये ।
  • समाज में केवल गृहस्थ को ही अर्थार्जन करने का अधिकार है, शेष तीनों आश्रम गृहस्थ के आश्रित है।
  • हर गृहस्थ को अर्थार्जन करना ही चाहिये। परन्तु शिक्षक, वैद्य, पुरोहित, न्यायाधीश भिक्षावृत्ति से और राजा तथा अमात्य वर्ग चाकरी वृत्ति (नौकरी) से अर्थार्जन करेंगे।
  • देश की प्राकृतिक सम्पदा, मनुष्य के हाथों की कारीगरी की कुशलता और मनुष्य की बुद्धि की निर्माणक्षमता आर्थिक समृद्धि के मूल आधार हैं।
  • अर्थकरी शिक्षा उत्पादन केन्द्रों में, वाणिज्य के केन्द्रों में और शासन के केन्द्रों में दी जानी चाहिये।
  • देश की अर्थनीति विश्वविद्यालयों में बननी चाहिये, उसका क्रियान्वयन राज्य द्वारा होना चाहिये और उसका पालन प्रजा द्वारा होना चाहिये।

आलेख २ - कामकरी शिक्षा के व्यावहारिक आयाम

  • काम का अर्थ केवल जातीयता नहीं है । सृजन के मूल संकल्प के रूप में वह सृष्टि में प्रथम उत्पन्न हुआ है । उसका आदरपूर्वक स्वीकार करना चाहिये ।
  • काम अनन्तकोटि कामना अर्थात् इच्छाओं का रूप धारण कर मनुष्य के मन में प्रतिष्ठित हुआ है। काम की शिक्षा मुख्य रूप से मन की शिक्षा है।
  • कामनायें उपभोग करने से कभी शान्त नहीं होतीं। कामनायें कभी समाप्त नहीं होतीं । कामनाओं को संयमित करना ही मनुष्य का लक्ष्य होना चाहिये । इसी को मनःसंयम कहते हैं।
  • सन्तोष मनःसंयम का एक महत्त्वपूर्ण आयाम है। सन्तोष से ही सुख, शान्ति, प्रसन्नता प्राप्त हो सकते हैं।
  • मनःसंयम हेतु ध्यान, जप, सत्संग, सेवा, स्वाध्याय, ॐकार उच्चारण और सात्त्विक आहार अनिवार्य है।
  • काम वस्तुओं की प्राप्ति हेतु प्रेरित करता है, येनकेन प्रकारेण उन्हें प्राप्त करने हेतु उकसाता है । उसमें बह नहीं जाना कामसाधना है ।
  • काम अनेक वस्तुओं के सृजन हेतु भी प्रेरित करता है। वस्तुओं के सृजन में कौशल, गति और उत्कृष्टता प्राप्त करना कामसाधना है।
  • काम सृजन को प्रेरित करता है । उसका सुसंस्कृत रूप कला है । कामतुष्टि विकसित होकर सौन्दर्यबोध और प्रसन्नता में परिणत होती है। काम प्रेम बन जाता है। यह काम साधना का श्रेष्ठ रूप है।
  • काम का एक अर्थ जातीयता है । वह शारीरिक स्तर पर सम्भोग, प्राणिक स्तर पर मैथुन, मानसिक स्तर पर आसक्ति, बौद्धिक स्तर पर आत्मीयता प्रेरित कर्तव्य, चित्त के स्तर पर प्रसन्नता और आत्मिक स्तर पर प्रेम के रूप में व्यक्त होता है। काम की शरीर से आत्मा तक की यात्रा कामसाधना है।
  • काम हमारा नियन्त्रण न करे अपितु हमारे नियन्त्रण में रहे तो वह बडी शक्ति है जो अनेक असम्भव बातों को सम्भव बनाती है।

आलेख ३ -धर्मकरी शिक्षा के व्यावहारिक आयाम

  • धर्म केवल सम्प्रदाय नहीं है। सम्प्रदाय धर्म का एक अंग है। धर्म विश्वनियम है, विश्वव्यवस्था है । वह सृष्टि को और प्रजा को धारण करता है।
  • सृष्टि की उत्पत्ति के साथ ही सृष्टि को धारण करने वाले धर्म की उत्पत्ति हुई है। यह सृष्टिधर्म है । इसके ही अनुसरण में समष्टि को धारण करने वाले समष्टि धर्म की उत्पत्ति हुई है।
  • बने रहने के लिये, अभ्युदय प्राप्त करने के लिये, कल्याण को प्राप्त करने के लिये मनुष्य को धर्म का पालन करना अनिवार्य है।
  • धर्म की रक्षा करने से ही धर्म हमारी रक्षा करता है । धर्म के पालन से ही धर्म की रक्षा होती है।
  • समष्टि धर्म का एक आयाम कर्तव्यपालन है। समष्टि की धारणा हेतु हर व्यक्ति को अपनी अपनी भूमिका अनुसार कर्तव्य प्राप्त हुए हैं। ये कर्तव्य ही उसका धर्म है। जैसे कि पुत्रधर्म, शिक्षकधर्म, राजधर्म, व्यवसायधर्म आदि।
  • धर्म का एक अर्थ स्वभाव है। स्वभाव जन्मजात होता है। स्वभाव के अनुसार स्वधर्म होता है। हर व्यक्ति को अपने धर्म का ही पालन करना चाहिये, पराये धर्म का नहीं।
  • धर्म का एक अर्थ न्याय, नीति और सदाचार का पालन करना है। धर्म का एक आयाम सम्प्रदाय है।
  • धर्म का एक आयाम संप्रदाय है। हर व्यक्ति को अपने संप्रदाय के इष्ट, ग्रन्थ, पूजापद्धति, शैली आदि का पालन करना चाहिए और अन्य सम्प्रदायों का द्वेष नहीं अपितु आदर करना चाहिए।
  • दूसरों का हित करना सबसे बड़ा धर्म है और दूसरों का अहित करना सबसे बड़ा अधर्म है।
  • धर्म समाज के अनुकूल नहीं, समाज धर्म के अनुकूल होना चाहिये । समाज के हर व्यवस्था धर्म के अनुकूल, धर्म के अविरोधी होनी चाहिये ।
  • इन सभी बातों की शिक्षा हर स्तर पर अनिवार्य बननी चाहिये । तभी समाज का भला होगा।

आलेख ४-भवननिर्माण के मूल सूत्र

  • विद्यालय की पहचान भवन से नहीं, शिक्षा से होनी चाहिये । भवन साधन है, साध्य नहीं।
  • विद्यालय का भवन ज्ञान और विद्या को प्रकट करनेवाला होना चाहिये, प्रासाद, दुकान या कार्यालय नहीं लगना चाहिये।
  • विद्यालय का भवन शैक्षिक गतिविधियों के अनुरूप होना चाहिये, आवास के अनुकूल नहीं।
  • स्वच्छता और पवित्रता विद्यालय भवन के मूल आधार बनने चाहिये।
  • विद्यालय का भवन प्राकृतिक पदार्थों से बनना चाहिये। रेत, चूना, मिट्टी, पत्थर, लकडी प्राकृतिक पदार्थ हैं जबकि सिमेण्ट, लोहा, सनमाइका कृत्रिम । कृत्रिम पदार्थ पर्यावरण का प्रदूषण करते हैं।
  • विद्यालय के भवन में तापमान नियन्त्रण की प्राकृतिक व्यवस्था होनी चाहिये । भवन की वास्तुकला ऐसी होनी चाहिये कि दिन में भी विद्युत प्रकाश की आवश्यकता न रहे और ग्रीष्म ऋतु में भी पंखों की आवश्यकता न पड़े।
  • विद्यालय के भवन में सादगी होनी चाहिये, वैभव नहीं, सौन्दर्य होना चाहिये, विलासिता नहीं।
  • भवन निर्माण के धार्मिक शास्त्र के अनुसार भवन बनना चाहिये । वास्तुशास्त्र का भी अनुसरण करना चाहिये।
  • धार्मिक भवनों की खिडकियाँ भूतल से ढाई या तीन फीट की ऊँचाई पर नहीं होती अधिक से अधिक एक फूट की ऊँचाई पर ही होती हैं क्योंकि सबका भूमि पर बैठना ही अपेक्षित होता है।
  • विद्यालय भवन में वर्षा के पानी का संग्रह करने की व्यवस्था तो होनी ही चाहिये परन्तु गन्दे पानी की निकास की व्यवस्था भूमि के उपर होनी चाहिये ।
  • विद्यालय के भवन को मिट्टी युक्त आँगन या मैदान होना चाहिये सब कुछ पथ्थर से बन्द नहीं कर देना चाहिये।

आलेख ५-स्पर्धा होनी चाहिये या नहीं

  • हम स्पर्धा को पुरुषार्थ का प्रेरक तत्त्व मानते हैं परन्तु यह सत्य नहीं है । स्पर्धा संघर्ष की और, संघर्ष हिंसा की ओर तथा हिंसा विनाश की ओर ले जाती है। इसलिये स्पर्धा का त्याग करना चाहिये।
  • विद्यालयों में स्पर्धा का तत्त्व बहुत लोकप्रिय और प्रतिष्ठित बन गया है । स्पर्धा का अर्थ नहीं समझने वाले बच्चोंं के लिये भी स्पर्धा का आयोजन होता है । इसका सर्वथा त्याग करना चाहिये।
  • स्पर्धा सर्वश्रेष्ठ बनने के लिये होती है, श्रेष्ठ बनने के लिये नहीं । व्यक्ति को श्रेष्ठ बनना चाहिये, सर्वश्रेष्ठ नहीं।
  • 'स्वस्थ स्पर्धा' यह शब्दसमूह निरर्थक है, आकाश कुसुम या शशशृंग की तरह । आकाश में कभी फूल नहीं खिलता और खरगोश को कभी सिंग नहीं होते उसी प्रकार स्पर्धा कभी स्वस्थ नहीं होती।
  • खेलों में स्पर्धा होती है तब खेलना महत्त्वपूर्ण नहीं रहता जीतना महत्त्वपूर्ण बन जाता है। पढ़ाई में स्पर्धा होती है तब पढना महत्त्वपूर्ण नहीं रहता जीतना महत्वपूर्ण बन जाता है । जीतने का सिद्धान्त होता है किसी भी प्रकार से दूसरों को हराना ।
  • स्पर्धा से मुख्य विषय से ध्यान हटकर उसके फल पर केन्द्रित हो जाता है । फल नहीं मिला तो मुख्य विषय अप्रस्तुत बन जाता है।
  • स्पर्धा जीत और पुरस्कार इतने सहज हो गये हैं कि अब छोटे बड़े सब के लिये पुरस्कार नहीं तो जीत का महत्त्व नहीं, जीत नहीं तो स्पर्धा निरर्थक और स्पर्धा नहीं तो काम करने का कोई प्रयोजन नहीं । इस प्रकार स्पर्धा अनिष्टों का मूल है।
  • हमें संघर्ष नहीं, समन्वय चाहिये । स्पर्धा संघर्ष की जननी है इसलिये उसका त्याग करना चाहिये।
  • आज असम्भव लगता है तो भी विद्यालय से स्पर्धा का निष्कासन करने की आकांक्षा रखनी चाहिये और उसके लिये पुरुषार्थ करना चाहिये ।

आलेख ६-परीक्षा के सम्बन्ध में पुनर्विचार

  • परीक्षा शिक्षा का एकमेव अथवा मुख्य अंग नहीं है । परीक्षा में उत्तीर्ण होना एकमेव लक्ष्य नहीं है।
  • परीक्षा आवश्यकता पड़ने पर ही ली जानी चाहिये, स्वाभाविक क्रम में नहीं। अध्ययन परीक्षा के लिये नही ज्ञान के लिए होना चाहिये ।
  • विद्यार्थी को ज्ञान प्राप्त हुआ है कि नहीं, वह शिक्षक, मातापिता और समाज उसके व्यवहार से सहज ही जान सकते हैं, परीक्षा एक कृत्रिम व्यवस्था है।
  • नौकरी है इसलिये स्पर्धा है, स्पर्धा है इसलिये परीक्षा है । यहाँ ज्ञान या कौशल का कोई सम्बन्ध नहीं है।
  • येनकेन प्रकारेण परीक्षा में उत्तीर्ण होना है तब अनेक प्रकार के दूषण पनपते हैं । ज्ञान और चरित्र से उसका कोई लेनादेना नहीं होता ।
  • परीक्षा शिक्षा के तन्त्र पर इतनी हावी हो गई है कि अब सब परीक्षार्थी ही हैं, विद्यार्थी नहीं । हमें विद्यार्थी चाहिये, परीक्षार्थी नहीं।
  • परीक्षा को अर्थपूर्ण बनाने के लिये उसे उद्देश्य के साथ जोडना चाहिये, पाठ्यक्रम और पाठ्यपुस्तकों के साथ नहीं । उद्देश्य के साथ जोडने पर परीक्षा का वर्तमान स्वरूप सर्वथा अप्रस्तुत बन जायेगा।
  • परीक्षा का वर्तमान स्वरूप अत्यन्त कृत्रिम है। उसका यथाशीघ्र त्याग करना चाहिये।
  • जो पढाता है वही मूल्यांकन कर सकता है यह शैक्षिक नियम है । आज जो पढाता है वह अविश्वसनीय बन गया है इसलिये जो पढाता नहीं और विद्यार्थी को जानता नहीं वह परीक्षा लेता है यह मूल्य और स्वाभाविकता दोनों का हास है।
  • परीक्षा के सम्बन्ध में पुनर्विचार कर उसे सार्थक बनाने की अत्यन्त आवश्यकता है।
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References

  1. धार्मिक शिक्षा के व्यावहारिक आयाम (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला ३, अध्याय १६): पर्व ५, प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे