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==== ६. यंत्रवाद से मुक्ति ====
 
==== ६. यंत्रवाद से मुक्ति ====
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१. यन्त्र जडता का प्रतीक है। जो जड को ही प्रमुख मानते हैं और चेतन को जड़ से उत्पन्न हुआ मानते हैं वे यन्त्र को प्रतिष्ठा देते हैं। ऐसे लोग जीवन में यन्त्रवाद का समर्थन करते हैं। पश्चिम ऐसा है, भारत ऐसा नहीं है।
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यन्त्र साधन है। काम करने का साधन है। काम करने वाला उसे अपनी इच्छा और आवश्यकता के अनुसार उपयोग करता है । यन्त्र को जैसा रखें वैसा रहता है । यन्त्र स्वयं निर्णय नहीं करता । उसे विवेक नहीं होता। लकडी काटने वाला यन्त्र लकडी के स्थान पर हाथ आ गया तो भी काटता है। उसने क्या काटा उसकी उसे जानकारी नहीं होती, परवाह भी नहीं होती और नहीं काटना था वह काट दिया, या उससे कट गया उसका पश्चात्ताप भी नहीं होता।
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ऐसे यन्त्र को प्रतिष्ठा देना यन्त्रवाद है, इसी तर्ज पर मनुष्य समाज की रचनायें बनाना यन्त्रवाद है । केवल शुष्क तर्कों के आधार पर स्थितियों को समझना या बनाना यन्त्रवाद है। मनुष्य की वृत्तियाँ तर्क से ही नहीं चलतीं । मनुष्य की प्रवृत्तियाँ केवल शरीर से ही नहीं चलतीं। उन्हें यन्त्र के नियम लागू करना यन्त्रवाद है।
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यन्त्र साधन है, मनुष्य को भी साधन मानना यन्त्रवाद है। मनुष्य को व्यवस्था का साधन बनाना यन्त्रवाद है। रचनाओं और व्यवस्थाओं को मनुष्य निरपेक्ष बनाना यन्त्रवाद है।
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दो पीढियों पूर्व भारतीय मानस पर पश्चिम का, पश्चिम की यन्त्रसंस्कृति का प्रभाव कम था तब यन्त्र से मनुष्य का महत्त्व अधिक था । यन्त्र से बनी रोटी के स्थान पर हाथ से बनी रोटी अधिक अच्छी लगती थी। हाथ से बुने स्वेटर, हाथ से कढाई की हुई चादर, हाथ से बनाया हुआ चित्र, हाथ से बनी हुई कारीगरी की वस्तु अधिक मूल्यवान मानी जाती थी। इस का कारण यह था कि इनकी बनने की प्रक्रिया में मनोभाव भी समाये हुए थे । बनने की प्रक्रिया जिन्दा थीं, यन्त्र के समान मृत नहीं । यह जीवित व्यक्ति का काम होता था।
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मनुष्य जब निर्मिती करता है तब निर्मित वस्तुओं में एकरूपता नहीं होती। हर वस्तु दूसरी वस्तु से भिन्न होती थी। यह बनानेवाले की कुशलता के साथ साथ मौलिकता और कल्पनाशीलता का परिणाम था। यन्त्र से वस्तु जल्दी बनती है, विपुल मात्रा में उत्पादन होता है, परन्तु उसमें सृजनशीलता, मौलिकता, कल्पनाशीलता, संवेदना, मनोभाव जैसे मानवीय गुणों का अभाव रहता है। भारत का मानस इसे पसन्द नहीं करता, निर्जीवता सुख नहीं देती, सजीवता चाहिये।
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रोटी में गेहूँ का स्वाद होता है, जिसमें गेहूँ ऊगा उस मिट्टी का स्वाद होता है, उसे ऊगाने में किसान ने जो मेहनत की उसका भी स्वाद होता है और रोटी बनानेवाले हाथ का भी स्वाद होता है । गेहूँ के बीज से रोटी बनने तक की प्रक्रिया में जब मनुष्य मुख्य होता है तब खाने वाले को बनानेवाले हाथ के किसान के और मिट्टी के स्वाद का पता चलता है। यन्त्र में यह सब नदारद है, मनुष्य ही नदारद है। मनुष्य यन्त्रवत् बन जाय इसमें क्या आश्चर्य है ।
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यन्त्र और यन्त्रवाद में अन्तर है। मनुष्य ने जमीन जोतने के लिये, कपडा बुनने के लिये, सूत कातने के लिये, सामान ढोने के लिये यन्त्र बनाये । कुछ काम तो बिना यन्त्र के सम्भव ही नहीं थे । उदाहरण के लिये जमीन जोतना या वस्त्र बुनना बिना हल या बिना करघे के हो नहीं सकता । अतः यन्त्र तो बडे उपयोगी और सहायक हैं । परन्तु वे जब मनुष्य और पशु से काम करते थे तब वे मनुष्य और पशु की प्राण ऊर्जा से चलते थे । यन्त्रवाद के तहत यन्त्र प्राण ऊर्जा से नहीं अपितु विद्युत, पेट्रोल, अणु की ऊर्जा से चलते हैं । यन्त्र और यन्त्रवाद में यही अन्तर है।
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हमें यन्त्र चाहिये, यन्त्रवाद नहीं। यन्त्रवाद में प्राणतत्त्व के कारण आने वाला जिन्दापन ही गायब हो जाता है । जगत को जड मानने की दृष्टि का यह परिणाम है।
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१०. जब मनुष्य का पशु की प्राणऊर्जा से कामकाज होता है तब काम की गति प्राकृतिक रहती है। जब अन्य ऊर्जा का प्रयोग होता है तब गति बढ़ जाती है। बढी हुई गति अप्राकृतिक होती है। मनुष्य या कोई भी जिन्दा प्राणी इस गति के साथ तालमेल नहीं बिठा सकता है । उसके शरीरस्वास्थ्य और मनोस्वास्थ्य पर इसका विपरीत प्रभाव होता है ।
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उदाहरण के लिये जब मसाले हाथ से कूटे जाते हैं या छाछ हाथ से बिलोई जाती है तब उसकी गति प्राकृतिक होती है परन्तु यन्त्र से काम होता है तब गति अत्यन्त तेज हो जाती है। केवल भौतिक दृष्टि से देखें तो भी बढी हुई गति से जो गरमी पैदा होती है उसमें मसालों का सत्त्व ही जल जाता है। निःसत्त्व मसाले शरीर को पोषण नहीं दे सकते । भोजन से शरीर और प्राण दोनों का पोषण होता है परन्तु सत्त्वहीन पदार्थों से शरीर और प्राण दोनों दुर्बल हो जाते हैं।
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१२. आज मनुष्य को गति और विपुलता का अदम्य आकर्षण हो गया है। दिन प्रतिदिन अधिकाधिक तेज गति से भागने वाले वाहन बनाने के प्रयास हो रहे हैं। कोई भी काम शीघ्रातिशीघ्र हो जाय इस की पैरवी हो रही है । परन्तु इससे उसकी स्थिरता और शान्ति का नाश हुआ है। विवेक, सृजनशीलता और बुद्धि की विशालता का नाश हुआ है। उत्तेजनायें बढ़ गई हैं जो उसके दैनन्दिन व्यवहार में प्रकट होती है । अब मनुष्य के पास इस प्रश्न । का भी उत्तर नहीं है कि वह कोई भी काम क्यों जल्दी करना चाहता है या क्यों कहीं भी जल्दी पहुँचना चाहता है।
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१३. मनुष्य के समग्र व्यक्तित्व का और समस्त प्रकृति का सन्तुलन बिगाडनेवाले प्राण के अलावा अन्य ऊर्जा से चलने वाले यन्त्रों के आविष्कार और प्रयोग के पीछे मनुष्य की बुद्धि नहीं अपितु असन्तुष्ट और अशान्त मनोवृत्ति प्रेरक तत्त्व है। विज्ञान की शक्ति भी इस मनोवृत्ति की गुलाम बनी हुई है। आज जिन वैज्ञानिक उपलब्धियों के गुणगान किये जाते हैं वे सब मनुष्य की मनोवृत्ति के दास बने हुए हैं। दोष विज्ञान का नहीं, मनोवृत्ति का है।
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१४. किसी भी यन्त्र का आविष्कार करने से पूर्व और यदि किसी ने आविष्कार कर ही दिया है तो करने के बाद मनुष्य पर, मनुष्य समाज पर और प्रकृति पर इसके क्या परिणाम होंगे इसका साधकबाधक विचार करने के बाद ही उसके प्रयोग की अनुमति देने का या नहीं देने का प्रचलन भारत में था। भारत यदि प्रभावी होता तो प्लास्टिक को अनुमति नहीं मिलती, पेट्रोल को तो कदापि नहीं मिलती । परन्तु पश्चिम प्रभावी था इसलिये मिली और जगत संकटों से घिर गया।
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१५. मनुष्य ने अब मनुष्य के ही विरुद्ध यन्त्रों का प्रयोग
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शुरू किया है । बडे बडे यन्त्रों वाले, सर्व प्रकार का काम करने वाले यन्त्रों वाले बड़े बड़े कारखाने स्थापित कर उत्पादन का केन्द्रीकरण कर मनुष्यों को बेरोजगार बना दिया है, मजदूरी करने हेतु विवश बनाकर मनुष्य के स्वमान और स्वतन्त्रता का नाश कर दिया है। असंख्य मनुष्य भुखमरी से मर रहे हैं जीवजन्तु और प्राणियों की प्रजातियाँ नष्ट हो रही हैं। इधर खरबोपतियों की सूचियाँ बन रही हैं, उनमें नाम दर्ज करवाने की लालसा बढ़ गई है।
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१६. खरबोपतियों की सूची में एक नाम बढता है उसके सामने गुलाम बनने वालों और भूख से मरने वालों की संख्या में दस हजार की वृद्धि होती है यह तो सादे तर्क से समझ में आने वाली बात है । जो इसे विकास की संज्ञा देता है उसकी तो बुद्धि की बलिहारी है।
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१७. प्राणशक्ति के अलावा और ऊर्जाओं के उपयोग का प्रचलन बढाने वालों ने पर्यावरण का नाश कर दिया है । नाश की प्रक्रिया तो अब भी चल ही रही है। आण्विक ऊर्जा के बाद अब सौर ऊर्जा की भी बात हो रही है । परन्तु गलत दिशा पकडने के बाद गति और प्रक्रिया बढाने से तो विनाश ही तेजी से होने वाला है। इसलिये दिशा बदलने की आवश्यकता है।
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१८. दिशा बदलने का अर्थ है अर्धवृत्त करना अर्थात् पीछे मुडना अर्थात् वापस लौटना । वापस लौटने को अनेक लोग अपना पराजय मानते हैं। वापस लौटने को समय की गति के साथ जोडकर बीता हुआ समय वापस नहीं आता कहकर समय के साथ आगे बढ़ने को ही सही मानते हैं । परन्तु यह कुतर्क है । गलत मार्ग पर जा रहे हों तो वापस लौटकर सही मार्ग पर चलना शुरू करने में पराजय नहीं है, समझदारी है। अपराध का पश्चाताप होना और उसके परिमार्जन हेतु प्रायश्चित करना बुरा नही है। इसी प्रकार गति और दिशा दोनों को ठीक करना बुद्धिमानी ही है।
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१९. शरीर भी एक यन्त्र है, धर्मसाधना हेतु यन्त्र है ऐसा कहकर उसकी सम्हाल करनेवाला परन्तु उसकी आसक्ति से बचनेवाला भारत यन्त्र का विरोधी नहीं है, यन्त्रवाद का विरोधी है। मनुष्य की श्रेष्ठता को प्रस्थापित कर प्रकृति की सुरक्षा और सन्तुलन हेतु उसे सक्षम बनाना ही यन्त्रवाद के विरोध का आशय है।
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२०. ऐसा कहने और करने का साहस भारत ही कर सकता है, पश्चिम नहीं । ऐसा करने के लिये जो धैर्य और मनोबल चाहिये वह पश्चिम में नहीं है। वर्तमान समय में तो भारत को भी यह जुटाना ही है। परन्तु भारत ऐसा करे ऐसी सबकी अपेक्षा है।
    
==References==
 
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