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वर्ण का तीसरा और जो इस लेख के लिये लागू अर्थ है वह है 'वृत्ति या स्वभाव'। मनुष्य जाति का उस की प्रवृत्तियों या स्वभाव के अनुसार वर्गीकरण होता है। यह वर्गीकरण अत्यंत स्वाभाविक होता है। और हर समाज में होता ही है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र यह वे चार वर्ग है।
 
वर्ण का तीसरा और जो इस लेख के लिये लागू अर्थ है वह है 'वृत्ति या स्वभाव'। मनुष्य जाति का उस की प्रवृत्तियों या स्वभाव के अनुसार वर्गीकरण होता है। यह वर्गीकरण अत्यंत स्वाभाविक होता है। और हर समाज में होता ही है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र यह वे चार वर्ग है।
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वर्ण और वरण इन शब्दों में साम्य है। वरण का अर्थ है चयन करना। जो वरण किया जाता है उसे वर्ण कहते है। जन्म लेने वाला जीव अपने पूर्वजन्मों के कर्मो के अनुसार नये जन्म में ‘स्वभाव या प्रवृत्ति' लेकर आता है। अपने पूर्वजन्मों के कर्मों से ‘स्वभाव या प्रवृत्ति' का वरण करता है। नये जन्म में बच्चा न केवल स्वभाव या प्रवृत्ति का वरण करता है, अपने माता पिता और व्यावसायिक कुशलता का यानी जाति का भी वरण करता है। इस कारण [[Jaati_System_(जाति_व्यवस्था)|जाति व्यवस्था]], व्यापक वर्ण व्यवस्था का हिस्सा बन जाती है। वर्ण व्यवस्था कहने से [[Jaati_System_(जाति_व्यवस्था)|जाति व्यवस्था]] का और वर्ण व्यवस्था का दोनों का बोध होता है। दोनों को अलग नहीं किया जा सकता।
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वर्ण और वरण इन शब्दों में साम्य है। वरण का अर्थ है चयन करना। जो वरण किया जाता है उसे वर्ण कहते है। जन्म लेने वाला जीव अपने पूर्वजन्मों के कर्मो के अनुसार नये जन्म में ‘स्वभाव या प्रवृत्ति' लेकर आता है। अपने पूर्वजन्मों के कर्मों से ‘स्वभाव या प्रवृत्ति' का वरण करता है। नये जन्म में बच्चा न केवल स्वभाव या प्रवृत्ति का वरण करता है, अपने माता पिता और व्यावसायिक कुशलता का यानी जाति का भी वरण करता है। इस कारण [[Jaati_System_(जाति_व्यवस्था)|[[Jaati_System_(जाति_व्यवस्था)|जाति व्यवस्था]]]], व्यापक वर्ण व्यवस्था का हिस्सा बन जाती है। वर्ण व्यवस्था कहने से [[Jaati_System_(जाति_व्यवस्था)|[[Jaati_System_(जाति_व्यवस्था)|जाति व्यवस्था]]]] का और वर्ण व्यवस्था का दोनों का बोध होता है। दोनों को अलग नहीं किया जा सकता।
    
हर मनुष्य का स्वभाव, उस की प्रवृत्तियाँ, उस के गुण, उस की क्षमताएं, उस की व्यावसायिक कुशलताएं आदि भिन्न होते है। विशेष प्रकार के काम वह सहजता से कर सकता है। इन सहज कर्मों का विवरण हम आगे देखेंगे। मनुष्य जब अपने इन गुणों के आधारपर अपने काम के स्वरूप का व्यवसाय का या आजीविका का चयन और निर्वहन करता है तब उस का व्यक्तिगत जीवन और साथ ही में समाज का जीवन भी सुचारू रूप से चलता है। इसी को व्यवस्था में बिठाकर उसे वर्ण व्यवस्था का नाम दिया गया था।
 
हर मनुष्य का स्वभाव, उस की प्रवृत्तियाँ, उस के गुण, उस की क्षमताएं, उस की व्यावसायिक कुशलताएं आदि भिन्न होते है। विशेष प्रकार के काम वह सहजता से कर सकता है। इन सहज कर्मों का विवरण हम आगे देखेंगे। मनुष्य जब अपने इन गुणों के आधारपर अपने काम के स्वरूप का व्यवसाय का या आजीविका का चयन और निर्वहन करता है तब उस का व्यक्तिगत जीवन और साथ ही में समाज का जीवन भी सुचारू रूप से चलता है। इसी को व्यवस्था में बिठाकर उसे वर्ण व्यवस्था का नाम दिया गया था।
    
== समाज में विभूति संयम ==
 
== समाज में विभूति संयम ==
देशिक शास्त्र<ref>बद्रीशा ठुलधरिया, प्रकाशक पुनरुत्थान प्रकाशन पृष्ठ ९६</ref> के अनुसार और पहले बताए वर्ण और [[Jaati_System_(जाति_व्यवस्था)|जाति व्यवस्था]] के मूल आधार के अनुसार मनुष्य का स्वार्थ और समाज के हित में संतुलन बनाये रखने के लिये तथा समाज की आवश्यकताओं की निरंतर आपूर्ति के लिये यह व्यवस्थाएं स्थापित की गईं थीं। हर समाज घटक को कुछ विशेष त्याग भी करना होता था याने जिम्मेदारियाँ थीं और अन्यों से कुछ विशेष महत्वपूर्ण, ऐसी कुछ श्रेष्ठ बातें याने कुछ विभूतियाँ प्राप्त होतीं थीं। मान, ऐश्वर्य, विलास और निश्चिन्तता यह वे चार विभूतियाँ थीं। इन के बदले में समाज के लिये कुछ त्याग भी करना होता था। इनको हम इस [[Society (समाज)|लेख]] में देख सकते हैं।   
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देशिक शास्त्र<ref>बद्रीशा ठुलधरिया, प्रकाशक पुनरुत्थान प्रकाशन पृष्ठ ९६</ref> के अनुसार और पहले बताए वर्ण और [[Jaati_System_(जाति_व्यवस्था)|[[Jaati_System_(जाति_व्यवस्था)|जाति व्यवस्था]]]] के मूल आधार के अनुसार मनुष्य का स्वार्थ और समाज के हित में संतुलन बनाये रखने के लिये तथा समाज की आवश्यकताओं की निरंतर आपूर्ति के लिये यह व्यवस्थाएं स्थापित की गईं थीं। हर समाज घटक को कुछ विशेष त्याग भी करना होता था याने जिम्मेदारियाँ थीं और अन्यों से कुछ विशेष महत्वपूर्ण, ऐसी कुछ श्रेष्ठ बातें याने कुछ विभूतियाँ प्राप्त होतीं थीं। मान, ऐश्वर्य, विलास और निश्चिन्तता यह वे चार विभूतियाँ थीं। इन के बदले में समाज के लिये कुछ त्याग भी करना होता था। इनको हम इस [[Society (समाज)|लेख]] में देख सकते हैं।   
    
ब्राह्मण वर्ण के व्यक्ति को ज्ञानार्जन और ज्ञानदान की, समाज को श्रेष्ठतम आदर्शों का अपने प्रत्यक्ष व्यवहार के माध्यम से मार्गदर्शन करने की जिम्मेदारी थी। भिक्षावृत्ति से जीने का आग्रह था। इस के प्रतिकार में ब्राह्मण समाज सर्वोच्च सम्मान का अधिकारी माना जाता था। अपने बल, कौशल, निर्भयता, न्यायदृष्टि के आधारपर समाज का संरक्षण करने के लिये जान की बाजी लगाने की जिम्मेदारी क्षत्रिय वर्ण के व्यक्ति को दी गई थी। इस के प्रतिकार में उसे ऐश्वर्य और सत्ता की विभूति समाज से प्राप्त होती थी। समाज के पोषण के लिये उत्पादन, वितरण और व्यापार की जिम्मेदारी वैश्य को दी गई थी। इस के प्रतिकार में उसे संपत्ति संचय और आरामयुक्त जीवन की, विलास की विभूति समाज की ओर से प्राप्त होती थी। शूद्र को विभूति के रूप में मिलती थी निश्चिन्तता। और इस के प्रतिकार में उस की जिम्मेदारी थी कि वह अन्य तीनों वर्णों के व्यक्तियों की सेवा करे। जिस से उन्हें अपने कर्तव्यों की पूर्ति के लिये अध्ययन अनुसंधान, प्रयोग और व्यवहार के लिये अवकाश प्राप्त हो सके।  
 
ब्राह्मण वर्ण के व्यक्ति को ज्ञानार्जन और ज्ञानदान की, समाज को श्रेष्ठतम आदर्शों का अपने प्रत्यक्ष व्यवहार के माध्यम से मार्गदर्शन करने की जिम्मेदारी थी। भिक्षावृत्ति से जीने का आग्रह था। इस के प्रतिकार में ब्राह्मण समाज सर्वोच्च सम्मान का अधिकारी माना जाता था। अपने बल, कौशल, निर्भयता, न्यायदृष्टि के आधारपर समाज का संरक्षण करने के लिये जान की बाजी लगाने की जिम्मेदारी क्षत्रिय वर्ण के व्यक्ति को दी गई थी। इस के प्रतिकार में उसे ऐश्वर्य और सत्ता की विभूति समाज से प्राप्त होती थी। समाज के पोषण के लिये उत्पादन, वितरण और व्यापार की जिम्मेदारी वैश्य को दी गई थी। इस के प्रतिकार में उसे संपत्ति संचय और आरामयुक्त जीवन की, विलास की विभूति समाज की ओर से प्राप्त होती थी। शूद्र को विभूति के रूप में मिलती थी निश्चिन्तता। और इस के प्रतिकार में उस की जिम्मेदारी थी कि वह अन्य तीनों वर्णों के व्यक्तियों की सेवा करे। जिस से उन्हें अपने कर्तव्यों की पूर्ति के लिये अध्ययन अनुसंधान, प्रयोग और व्यवहार के लिये अवकाश प्राप्त हो सके।  
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# चाणक्य का सूत्र कहता है - लालयेत पंचवर्षाणि दश वर्षाणि ताडयेत् । इस का अर्थ है कि पाँच वर्ष तक बालक को लाड प्यार ही देना चाहिये। कोई बात उस के मन के विपरीत नहीं करनीं चाहिये। इस का यह अर्थ नहीं है कि बच्चे को आग में भी हाथ डालने देना चाहिये। इस से उस बच्चे का जो स्वभाव है वैसा ही व्यवहार बच्चा करता है। भयमुक्त और दबावमुक्त ऐसे वातावरण में बच्चा उसके स्वभाव के अनुरूप ही सहजता से व्यवहार करता है। बच्चे के इस सहज व्यवहार से भी वर्ण की पुष्टि हो सकती है। शुध्द सात्विक स्वभाव ब्राह्मण वर्ण का, सात्विक और राजसी का मेल क्षत्रिय वर्ण का, राजसी और तामसी का मेल वैश्य वर्ण का और तामसी स्वभाव शूद्र वर्ण का परिचायक होता है।
 
# चाणक्य का सूत्र कहता है - लालयेत पंचवर्षाणि दश वर्षाणि ताडयेत् । इस का अर्थ है कि पाँच वर्ष तक बालक को लाड प्यार ही देना चाहिये। कोई बात उस के मन के विपरीत नहीं करनीं चाहिये। इस का यह अर्थ नहीं है कि बच्चे को आग में भी हाथ डालने देना चाहिये। इस से उस बच्चे का जो स्वभाव है वैसा ही व्यवहार बच्चा करता है। भयमुक्त और दबावमुक्त ऐसे वातावरण में बच्चा उसके स्वभाव के अनुरूप ही सहजता से व्यवहार करता है। बच्चे के इस सहज व्यवहार से भी वर्ण की पुष्टि हो सकती है। शुध्द सात्विक स्वभाव ब्राह्मण वर्ण का, सात्विक और राजसी का मेल क्षत्रिय वर्ण का, राजसी और तामसी का मेल वैश्य वर्ण का और तामसी स्वभाव शूद्र वर्ण का परिचायक होता है।
 
# जिन बच्चोंं की जन्मपत्रिकाएं या तो बनीं नहीं है या जिनकी जन्मतिथि और समय ठीक से ज्ञात नहीं है ऐसे बच्चोंं के लिये १५ वर्ष के बाद जब हस्त-रेखाएं कुछ पक्की होने लगती है हस्त-सामुद्रिक या हस्त-रेखा देखकर भी बच्चे या मनुष्य के वर्ण का अनुमान लगाया जा सकता है।  
 
# जिन बच्चोंं की जन्मपत्रिकाएं या तो बनीं नहीं है या जिनकी जन्मतिथि और समय ठीक से ज्ञात नहीं है ऐसे बच्चोंं के लिये १५ वर्ष के बाद जब हस्त-रेखाएं कुछ पक्की होने लगती है हस्त-सामुद्रिक या हस्त-रेखा देखकर भी बच्चे या मनुष्य के वर्ण का अनुमान लगाया जा सकता है।  
# जब किसी को व्यवसाय या नित्यकर्म बोझ लगता है, सहजता से सफलता नहीं मिलती तब यह स्पष्ट है कि उस का वर्तमान व्यवसाय और काम का स्वरुप उस के वर्ण से मेल नहीं खाता । उसी तरह जब किसी को व्यवसाय या नित्यकर्म बोझ नहीं लगता है, सहजता से सफलता मिलती है तब यह स्पष्ट है कि उस का वर्तमान व्यवसाय और काम का स्वरुप उस की जाति और उस के वर्ण से मेल खाता है । इस कसौटी का उपयोग जिन का वर्तमान व्यवसाय और काम का स्वरुप उन की जाति और उन के वर्ण से मेल खाता है ऐसे लोगोंं का समाज में प्रतिशत जानने तक ही सीमित है । उतने प्रतिशत लोगोंं को वर्ण और जाति यह व्यवस्थाएं शास्त्रसंमत ही है, और जाने अनजाने में तथा पूर्व पुण्य के कारण, वर्ण और [[Jaati_System_(जाति_व्यवस्था)|जाति व्यवस्था]] के तत्वों का पालन होनेसे वे सुखी है, यह ठीक से समझाना होगा । आगे भी इन लाभों को बनाए रखने के लिये उन्हे प्रेरित करना होगा। उन का अनुसरण करने के लिये औरों को भी प्रेरित करना होगा।
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# जब किसी को व्यवसाय या नित्यकर्म बोझ लगता है, सहजता से सफलता नहीं मिलती तब यह स्पष्ट है कि उस का वर्तमान व्यवसाय और काम का स्वरुप उस के वर्ण से मेल नहीं खाता । उसी तरह जब किसी को व्यवसाय या नित्यकर्म बोझ नहीं लगता है, सहजता से सफलता मिलती है तब यह स्पष्ट है कि उस का वर्तमान व्यवसाय और काम का स्वरुप उस की जाति और उस के वर्ण से मेल खाता है । इस कसौटी का उपयोग जिन का वर्तमान व्यवसाय और काम का स्वरुप उन की जाति और उन के वर्ण से मेल खाता है ऐसे लोगोंं का समाज में प्रतिशत जानने तक ही सीमित है । उतने प्रतिशत लोगोंं को वर्ण और जाति यह व्यवस्थाएं शास्त्रसंमत ही है, और जाने अनजाने में तथा पूर्व पुण्य के कारण, वर्ण और [[Jaati_System_(जाति_व्यवस्था)|[[Jaati_System_(जाति_व्यवस्था)|जाति व्यवस्था]]]] के तत्वों का पालन होनेसे वे सुखी है, यह ठीक से समझाना होगा । आगे भी इन लाभों को बनाए रखने के लिये उन्हे प्रेरित करना होगा। उन का अनुसरण करने के लिये औरों को भी प्रेरित करना होगा।
    
== वर्ण संतुलन व्यवस्था ==
 
== वर्ण संतुलन व्यवस्था ==
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जो बातें एक छोटी इकाई में पायी जातीं है वैसीं हीं बातें बडी इकाई में भी पायी जातीं है। जो गुणधर्म धातु के एक छोटे कण में पाये जाते है वही गुणधर्म एक बडे धातुखण्ड में भी पाए जाते है। उसी प्रकार जो गुणधर्म एक छोटी जीवंत इकाई में पाये जाते है वही गुणधर्म बडी और विशाल ऐसी जीवंत इकाई में भी पाये जाते है। जैसे जन्म, शैशव, यौवन, जरा और मरण सभी जीवंत इकाई में स्वाभाविक बातें है। यह सिद्धांत की बात है। उसी तरह हम सब के अनुभव की भी बात है। एक परिवार में भी ऐसी चार वृत्तियों के काम होते ही है।   
 
जो बातें एक छोटी इकाई में पायी जातीं है वैसीं हीं बातें बडी इकाई में भी पायी जातीं है। जो गुणधर्म धातु के एक छोटे कण में पाये जाते है वही गुणधर्म एक बडे धातुखण्ड में भी पाए जाते है। उसी प्रकार जो गुणधर्म एक छोटी जीवंत इकाई में पाये जाते है वही गुणधर्म बडी और विशाल ऐसी जीवंत इकाई में भी पाये जाते है। जैसे जन्म, शैशव, यौवन, जरा और मरण सभी जीवंत इकाई में स्वाभाविक बातें है। यह सिद्धांत की बात है। उसी तरह हम सब के अनुभव की भी बात है। एक परिवार में भी ऐसी चार वृत्तियों के काम होते ही है।   
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इस दृष्टि से धार्मिक (धार्मिक) [[Jaati_System_(जाति_व्यवस्था)|जाति व्यवस्था]] में एक जाति में भी उन्हीं गुणधर्मों का होना जो एक जीवंत इकाई जैसे मनुष्य या एक जीवंत बडी इकाई समाज या राष्ट्र में पाये जाते है, उन का होना यह स्वाभाविक ही है। इस का कारण है कि जाति भी एक जीवंत इकाई है। धार्मिक (धार्मिक) मान्यता के अनुसार समाज की कल्पना एक विराट समाज पुरूष के रूप में की गयी है। जैसे एक सामान्य मनुष्य के भिन्न भिन्न अंग मनुष्य के लिए भिन्न भिन्न क्रियाएं करते है। इसी तरह यह कहा गया कि समाज में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चार वर्णों के लोग हर समाज में होते ही है। यह केवल धार्मिक (धार्मिक) समाज में होते है ऐसी बात नहीं है। जिन समाजों में वर्णव्यवस्था नहीं है ऐसे विश्व के सभी समाजों का निरीक्षण करने से यह ध्यान में आ जाएगा कि उन में भी ऐसी चार वृत्तियों के लोग पाये जाते है। उन समाजों में वर्णव्यवस्था नहीं है लेकिन वर्ण तो हैं ही।  
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इस दृष्टि से धार्मिक (धार्मिक) [[Jaati_System_(जाति_व्यवस्था)|[[Jaati_System_(जाति_व्यवस्था)|जाति व्यवस्था]]]] में एक जाति में भी उन्हीं गुणधर्मों का होना जो एक जीवंत इकाई जैसे मनुष्य या एक जीवंत बडी इकाई समाज या राष्ट्र में पाये जाते है, उन का होना यह स्वाभाविक ही है। इस का कारण है कि जाति भी एक जीवंत इकाई है। धार्मिक (धार्मिक) मान्यता के अनुसार समाज की कल्पना एक विराट समाज पुरूष के रूप में की गयी है। जैसे एक सामान्य मनुष्य के भिन्न भिन्न अंग मनुष्य के लिए भिन्न भिन्न क्रियाएं करते है। इसी तरह यह कहा गया कि समाज में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चार वर्णों के लोग हर समाज में होते ही है। यह केवल धार्मिक (धार्मिक) समाज में होते है ऐसी बात नहीं है। जिन समाजों में वर्णव्यवस्था नहीं है ऐसे विश्व के सभी समाजों का निरीक्षण करने से यह ध्यान में आ जाएगा कि उन में भी ऐसी चार वृत्तियों के लोग पाये जाते है। उन समाजों में वर्णव्यवस्था नहीं है लेकिन वर्ण तो हैं ही।  
    
इस तर्क के आधार पर यदि कहा जाए कि हर जाति एक जीवंत इकाई होने के कारण इस में भी ऐसी ही चार वृत्तियों के लोगोंं का होना अनिवार्य है, स्वाभाविक है तो इस तर्क को गलत नहीं कहा जा सकता। अर्थात् हर जाति में चार वर्णों के लोग होते ही है, इसे मान्य करना होगा। कोई भी शास्त्र इसे नकारता नहीं है।  
 
इस तर्क के आधार पर यदि कहा जाए कि हर जाति एक जीवंत इकाई होने के कारण इस में भी ऐसी ही चार वृत्तियों के लोगोंं का होना अनिवार्य है, स्वाभाविक है तो इस तर्क को गलत नहीं कहा जा सकता। अर्थात् हर जाति में चार वर्णों के लोग होते ही है, इसे मान्य करना होगा। कोई भी शास्त्र इसे नकारता नहीं है।  

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