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# भारत केवल मनुष्यों की ही नहीं तो सजीव निर्जीव सभी पदार्थों की स्वतन्त्र सत्ता का स्वीकार और सम्मान करता है। अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिये वह किसी को नष्ट करने की प्रवृत्ति नहीं रखता । जिन जिनसे कुछ भी प्राप्त होता है उसके साथ कृतज्ञता से व्यवहार करता है।  
 
# भारत केवल मनुष्यों की ही नहीं तो सजीव निर्जीव सभी पदार्थों की स्वतन्त्र सत्ता का स्वीकार और सम्मान करता है। अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिये वह किसी को नष्ट करने की प्रवृत्ति नहीं रखता । जिन जिनसे कुछ भी प्राप्त होता है उसके साथ कृतज्ञता से व्यवहार करता है।  
 
# भारत धर्म को सर्वोपरि स्थान देता है। धर्म को आज की तरह केवल सम्प्रदाय नहीं मानता, धर्म को सम्पूर्ण विश्व की धारणा करने वाले विश्वनियम के रूप में जानता है और अपनी जीवनव्यवस्था के लिये उसी विश्वनियम के तत्त्व का स्वीकार करता है। इसलिये भारत के लिये जो धर्म के अनुकूल है वह स्वीकार्य है, धर्म के विरोधी है वह त्याज्य है। धर्मनिरपेक्षता भारतीय स्वभाव के विपरीत है, धर्म सापेक्षता ही स्वीकार्य है, सम्माननीय है।  
 
# भारत धर्म को सर्वोपरि स्थान देता है। धर्म को आज की तरह केवल सम्प्रदाय नहीं मानता, धर्म को सम्पूर्ण विश्व की धारणा करने वाले विश्वनियम के रूप में जानता है और अपनी जीवनव्यवस्था के लिये उसी विश्वनियम के तत्त्व का स्वीकार करता है। इसलिये भारत के लिये जो धर्म के अनुकूल है वह स्वीकार्य है, धर्म के विरोधी है वह त्याज्य है। धर्मनिरपेक्षता भारतीय स्वभाव के विपरीत है, धर्म सापेक्षता ही स्वीकार्य है, सम्माननीय है।  
जो धर्म सिखाती है वही शिक्षा है, धर्म सिखाने वाला शिक्षक है और वह सबके लिये सम्माननीय है।  
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* जो धर्म सिखाती है वही शिक्षा है, धर्म सिखाने वाला शिक्षक है और वह सबके लिये सम्माननीय है।  
 
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* शिक्षक धर्म सिखाता है इसलिये शासक के लिये भी सम्माननीय है।  
शिक्षक धर्म सिखाता है इसलिये शासक के लिये भी सम्माननीय है।  
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* शिक्षा की पूर्ण व्यवस्था शिक्षक के अधीन है। उसे वैसी ही रखना राजा और प्रजा सबके लिये हितकारी है।  
 
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* धर्म सिखानेवाला शिक्षक स्वतन्त्र है, स्वायत्त है, निःस्वार्थी है, चरित्रवान है और संयमित और सादा जीवन जीता है।  
शिक्षा की पूर्ण व्यवस्था शिक्षक के अधीन है। उसे वैसी ही रखना राजा और प्रजा सबके लिये हितकारी है।  
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* भारत में शिक्षा सार्वत्रिक है। प्रत्येक व्यक्ति अपनी अपनी भूमिका में अपनी अपनी क्षमता और सीखने वाले की आवश्यकता के अनुसार सिखाता है। मातापिता सन्तानों को, व्यवसायी अपने साथियों को, गुरु शिष्य को शिक्षा देता है, भौतिक बदले की अपेक्षा नहीं रखता। अपने को प्राप्त शिक्षा दूसरे को देनी ही चाहिये और शिक्षा का प्रसार करना ही चाहिये ऐसी अपेक्षा कोई व्यक्ति नहीं अपितु धर्म करता है, धर्म की इस अपेक्षा को पूर्ण करने के लिये सब सिद्ध रहते हैं।  
 
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* भारत परम्परा का देश है, परम्परा को बनाये रखना, परिष्कृत करना, समृद्ध बनाना शिक्षा का काम है।  
धर्म सिखानेवाला शिक्षक स्वतन्त्र है, स्वायत्त है, निःस्वार्थी है, चरित्रवान है और संयमित और सादा जीवन जीता है।  
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* भारत में अधिसत्ता धर्म की ही है, शिक्षक उसका प्रतिहारी है, शासक, कारीगर, व्यापारी सब उसकेअनुचर हैं, उसकी आज्ञा का पालन करनेवाले और उसके साम्राज्य की रक्षा करने वाले हैं। श
 
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* शिक्षा मुक्ति देनेवाले ज्ञान का व्यवस्थातन्त्र है वह स्वयं मुक्त होगी तभी ज्ञान की वाहक बन सकेंगी। इसलिये भारत में शासक के द्वारा, व्यापारियों के द्वारा शिक्षा को मुक्त ही रखा गया है और उसे पुष्ट होने हेतु सहयोग और सहायता दी जाती रही है।  
भारत में शिक्षा सार्वत्रिक है। प्रत्येक व्यक्ति अपनी अपनी भूमिका में अपनी अपनी क्षमता और सीखने वाले की आवश्यकता के अनुसार सिखाता है। मातापिता सन्तानों को, व्यवसायी अपने साथियों को, गुरु शिष्य को शिक्षा देता है, भौतिक बदले की अपेक्षा नहीं रखता। अपने को प्राप्त शिक्षा दूसरे को देनी ही चाहिये और शिक्षा का प्रसार करना ही चाहिये ऐसी अपेक्षा कोई व्यक्ति नहीं अपितु धर्म करता है, धर्म की इस अपेक्षा को पूर्ण करने के लिये सब सिद्ध रहते हैं।  
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* भारतीय शिक्षा हमेशा धर्मसापेक्ष परन्तु अर्थनिरपेक्ष रही है। शिक्षा ग्रहण करने को और देने को पैसे के साथ कभी जोडा नहीं गया है।  
 
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* भारत में शिक्षा राजा और प्रजा का मार्गदर्शन और नियमन करती रही है। उसने कभी शासन नहीं किया, व्यापार नहीं किया, उत्पादन नहीं किया, उसने धर्मसाधना और धर्मरक्षा ही की है।
भारत परम्परा का देश है, परम्परा को बनाये रखना, परिष्कृत करना, समृद्ध बनाना शिक्षा का काम है।  
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भारत में अधिसत्ता धर्म की ही है, शिक्षक उसका प्रतिहारी है, शासक, कारीगर, व्यापारी सब उसकेअनुचर हैं, उसकी आज्ञा का पालन करनेवाले और उसके साम्राज्य की रक्षा करने वाले हैं। श
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शिक्षा मुक्ति देनेवाले ज्ञान का व्यवस्थातन्त्र है वह स्वयं मुक्त होगी तभी ज्ञान की वाहक बन सकेंगी। इसलिये भारत में शासक के द्वारा, व्यापारियों के द्वारा शिक्षा को मुक्त ही रखा गया है और उसे पुष्ट होने हेतु सहयोग और सहायता दी जाती रही है।  
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भारतीय शिक्षा हमेशा धर्मसापेक्ष परन्तु अर्थनिरपेक्ष रही है। शिक्षा ग्रहण करने को और देने को पैसे के साथ कभी जोडा नहीं गया है।  
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भारत में शिक्षा राजा और प्रजा का मार्गदर्शन और नियमन करती रही है। उसने कभी शासन नहीं किया, व्यापार नहीं किया, उत्पादन नहीं किया, उसने धर्मसाधना और धर्मरक्षा ही की है।
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भारतीय शिक्षा की यह आत्मा है। भारतीय शिक्षा का यह स्वभाव रहा है। इस शिक्षा ने समाज को श्रेष्ठ बनाया है। इस शिक्षा ने प्रजा को समृद्ध और सुसंस्कृत बनाया है। इस शिक्षा ने राष्ट्र को चिरंजीव बनाया है।
 
भारतीय शिक्षा की यह आत्मा है। भारतीय शिक्षा का यह स्वभाव रहा है। इस शिक्षा ने समाज को श्रेष्ठ बनाया है। इस शिक्षा ने प्रजा को समृद्ध और सुसंस्कृत बनाया है। इस शिक्षा ने राष्ट्र को चिरंजीव बनाया है।
  
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