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स्वावलम्बी समाजरचना का प्रारम्भ व्यक्ति के स्वावलम्बी होने के साथ होता है । व्यक्ति के स्वावलम्बी होने का सीधा सादा सूत्र है अपना काम खुद करों' । अतः व्यक्ति को स्वयं के लिये आवश्यक सारे काम छोटी आयु से ही सिखाये जाते है। व्यक्ति खानापीना, चलनादौडना, नहानाधोना तो स्वयं करता ही है परन्तु कपडे धोना, बर्तन साफ करना, अपनी वस्तुओं को व्यवस्थित रखना, अपना वाहन तथा अन्य सामान व्यवस्थित रखना आदि भी स्वयं करता है। अपना जीवननिर्वाह भी स्वयं कर सके इतना कुशल बनना भी सिखाया जाता है। अपने सुखदुःख, आनन्दप्रमोद, चित्तवृत्तियाँ भी स्वंय के अधीन हो यह सिखाया जाता है।
 
स्वावलम्बी समाजरचना का प्रारम्भ व्यक्ति के स्वावलम्बी होने के साथ होता है । व्यक्ति के स्वावलम्बी होने का सीधा सादा सूत्र है अपना काम खुद करों' । अतः व्यक्ति को स्वयं के लिये आवश्यक सारे काम छोटी आयु से ही सिखाये जाते है। व्यक्ति खानापीना, चलनादौडना, नहानाधोना तो स्वयं करता ही है परन्तु कपडे धोना, बर्तन साफ करना, अपनी वस्तुओं को व्यवस्थित रखना, अपना वाहन तथा अन्य सामान व्यवस्थित रखना आदि भी स्वयं करता है। अपना जीवननिर्वाह भी स्वयं कर सके इतना कुशल बनना भी सिखाया जाता है। अपने सुखदुःख, आनन्दप्रमोद, चित्तवृत्तियाँ भी स्वंय के अधीन हो यह सिखाया जाता है।
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परन्तु व्यवहार जगत में व्यक्ति अकेला नहीं होता,
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परन्तु व्यवहार जगत में व्यक्ति अकेला नहीं होता, अकेला रह भी नहीं सकता । उसे दूसरों के साथ रहना है । साथ रहने के लिये लेनदेन का व्यवहार करना ही होता है, दूसरों का काम करना होता है, दूसरों से काम लेना भी होता _है। तब स्वायत्तता और स्वतन्त्रता का क्या होगा ?
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इस प्रश्न का समाधान खोजते खोजते भारत ने कुटुम्ब व्यवस्था बनाई । कुटुम्ब व्यवस्था का, केन्द्रवर्ती तत्त्व है आत्मीयता । कुटुम्ब में सब साथ रहते हैं और साथ साथ काम करते हैं। कुटुम्ब में व्यक्ति दूसरों का काम करता है और उसका काम दूसरा कोई करता है। फिर व्यक्ति की स्वतन्त्रता और स्वायतत्ता का क्या होगा ? इस के लिये समाधान यह है कि कुटुम्ब में पहले अपनापन होता है, बाद में एकदूसरे का काम करना होता है। कुटुम्ब में सब एक होते हैं, एकदूसरे के होते हैं । यहाँ सब का काम सब करते हैं । कोई एक व्यक्ति दूसरे का काम, दूसरे की इच्छा के अनुसार काम कब करता है ? भारत में सिखाया जाता है कि भय, स्वार्थ, लालच, विवशता से दूसरे का काम न करो परन्तु आदर, स्नेह, श्रद्धा, दया से दूसरों का काम अवश्य  करो । इसे ही सेवा कहा गया है। इस सूत्र से ही मातापिता की, गुरु की, सन्त की, रुग्ण की, अनाथ और अपाहिज की, शिशु की सेवा करना कर्तव्य बताया गया है और किसी के दबाव में आकर, अपना स्वार्थ साधने के लिये, दीन बनकर, धूर्त बनकर किसी का काम करने को त्याज्य बताया गया है। इसलिये अर्थार्जन के क्षेत्र में नौकरी को कभी भी प्रतिष्ठा नहीं मिली है। विवशता अथवा गुलामी का ही दूसरा नाम नौकरी है। नौकरी को सेवा कहना सेवा शब्द की अवमानना है। अर्थार्जन के लिये व्यक्ति नहीं अपितु कुटुम्ब साथ मिलकर काम करता है। कामकाज के क्षेत्र में नौकरी नहीं अपितु परस्परावलम्बिता, परस्परपरकता, परस्पर सहयोग आधारभूत तत्व है। उदाहरण के लिये किसी की बड़ी खेती है तब प्रथम तो किसान अधिक भाई और बेटे चाहता है ताकि काम पूरा हो सके । परन्तु फिर भी व्यक्ति कम पड रहे हैं तो अपने भतीजें आदि को काम में सहयोगी बनने के लिये बुलाता है। भतीजा कुटुम्ब का ही सदस्य है। यदि कुटुम्बीजन के अलावा और किसी को बुलाने की आवश्यकता पड़ती है तब उसे भागीदारी पर बुलाया जाता _है, मजदूर के रूप में नहीं। वह सहभागी होता है, नौकर नहीं।
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स्वायत्त समाज में अर्थार्जन के क्षेत्र में भी कुटुम्बों को, भिन्न भिन्न व्यवसायों को साथ मिलकर ही काम करना होता है। तब भी परस्परावलम्बिता, परस्परपूरकता, सहभागिता और आत्मीयता के आधार पर रचना बनती है । मुख्य बात यह होती है कि श्रम और काम की प्रतिष्ठा होती है और श्रम और काम करनेवाला अपने श्रम और काम का मालिक होता है।
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स्वायत्त समाज सुसंस्कृत समाज बनने की दिशा में तब आगे बढता है जब केवल अपना नहीं अपितु सबका और अपने से पहले और अपने से अधिक दूसरों का विचार करता है। स्वायत्त समाज में व्यक्ति तो किसी का नौकर नहीं बनता, साथ ही किसी पर भी नौकर बनने की नौबत न आये इसकी चिन्ता करता है । इसलिये अर्थार्जन के क्षेत्र में दूसरों का काम छीनकर अपना अर्थार्जन का क्षेत्र विस्तृत करने की अनुमति किसी को भी नहीं होती। अर्थार्जन के क्षेत्र में स्पर्धा असंस्कृत और कम बुद्धिमान समाज का लक्षण है क्योंकि वह असुरक्षा, चिन्ता, मानसिक तनाव, दारिद्य और हिंसा को ही जन्म देती है।
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स्वायत्त समाज राज्य के अधीन भी नहीं होता । राज्य समाज की विभिन्न व्यवस्थाओं और गतिविधियों की सुरक्षा और सहूलियत के लिये होता है।
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स्वायत्त समाज परिवार भावना से कार्यरत होता है इसलिये समाज में कोई बेरोजगार और अनाथ नहीं होता । यहाँ बेरोजगारों को भत्ता नहीं मिलता काम मिलता है, अनाथों को राज्याश्रय नहीं मिलता है, कुटुम्ब का आश्रय मिलता है। स्वायत्त समाज में होटेल, बैंक, साहुकारी, छात्रालय, अनाथगृह, अबलाश्रम, वृद्धाश्रम नहीं होते । इनके स्थान पर सदाव्रत, धर्मशाला, मन्दिर आदि होते हैं।
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भारत ने अपनी इतनी सुन्दर और श्रेष्ठ व्यवस्थाओं का त्याग कर दिया है। ब्रिटीशों ने अपने स्वार्थ और अज्ञान के चलते इनका नाश किया और स्वाधीनता के बाद हमने उस नाश की ओर देखने के स्थान पर उनके द्वारा की गई व्यवस्था (?) को ही अपना लिया । अब भारत की स्वायत्त समाज की कल्पना हमें अत्यन्त अपरिचित और अवास्तविक लगती है। स्पर्धा नहीं होनी चाहिये ऐसा कहने वाले की बात ही समझ में नहीं आती। बिना बैंक के, बिना ऋण के व्यवसाय, शिक्षा, अपना मकान हो सकता है इसकी कल्पना भी नहीं कर सकते । व्यापक और मूलगत विचार करने हेतु आवश्यक शान्ति, धैर्य और विशाल बुद्धि का भी अभाव है।
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परन्तु भारत को अपनी ये मूल्यवान बातें पुनः प्राप्त करनी ही होंगी । ऐसा नहीं किया तो उसका क्या होगा ? विश्व का क्या होगा ?
    
==References==
 
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