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वर्ण का तीसरा और जो इस लेख के लिये लागू अर्थ है वह है 'वृत्ति या स्वभाव'। मनुष्य जाति का उस की प्रवृत्तियों या स्वभाव के अनुसार वर्गीकरण होता है। यह वर्गीकरण अत्यंत स्वाभाविक होता है। और हर समाज में होता ही है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र यह वे चार वर्ग है।
 
वर्ण का तीसरा और जो इस लेख के लिये लागू अर्थ है वह है 'वृत्ति या स्वभाव'। मनुष्य जाति का उस की प्रवृत्तियों या स्वभाव के अनुसार वर्गीकरण होता है। यह वर्गीकरण अत्यंत स्वाभाविक होता है। और हर समाज में होता ही है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र यह वे चार वर्ग है।
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वर्ण और वरण इन शब्दों में साम्य है। वरण का अर्थ है चयन करना। जो वरण किया जाता है उसे वर्ण कहते है। जन्म लेने वाला जीव अपने पूर्वजन्मों के कर्मो के अनुसार नये जन्म में ‘स्वभाव या प्रवृत्ति' लेकर आता है। अपने पूर्वजन्मों के कर्मों से ‘स्वभाव या प्रवृत्ति' का वरण करता है। नये जन्म में बच्चा न केवल स्वभाव या प्रवृत्ति का वरण करता है, अपने माता पिता और व्यावसायिक कुशलता का यानी जाति का भी वरण करता है। इस कारण [[Jaati_System_(जाति_व्यवस्था)|जाति व्यवस्था]], व्यापक वर्ण व्यवस्था का हिस्सा बन जाती है। वर्ण व्यवस्था कहने से [[Jaati_System_(जाति_व्यवस्था)|जाति व्यवस्था]] का और वर्ण व्यवस्था का दोनों का बोध होता है। दोनों को अलग नहीं किया जा सकता।
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वर्ण और वरण इन शब्दों में साम्य है। वरण का अर्थ है चयन करना। जो वरण किया जाता है उसे वर्ण कहते है। जन्म लेने वाला जीव अपने पूर्वजन्मों के कर्मो के अनुसार नये जन्म में ‘स्वभाव या प्रवृत्ति' लेकर आता है। अपने पूर्वजन्मों के कर्मों से ‘स्वभाव या प्रवृत्ति' का वरण करता है। नये जन्म में बच्चा न केवल स्वभाव या प्रवृत्ति का वरण करता है, अपने माता पिता और व्यावसायिक कुशलता का यानी जाति का भी वरण करता है। इस कारण [[Jaati_System_(जाति_व्यवस्था)|[[Jaati_System_(जाति_व्यवस्था)|जाति व्यवस्था]]]], व्यापक वर्ण व्यवस्था का हिस्सा बन जाती है। वर्ण व्यवस्था कहने से [[Jaati_System_(जाति_व्यवस्था)|[[Jaati_System_(जाति_व्यवस्था)|जाति व्यवस्था]]]] का और वर्ण व्यवस्था का दोनों का बोध होता है। दोनों को अलग नहीं किया जा सकता।
    
हर मनुष्य का स्वभाव, उस की प्रवृत्तियाँ, उस के गुण, उस की क्षमताएं, उस की व्यावसायिक कुशलताएं आदि भिन्न होते है। विशेष प्रकार के काम वह सहजता से कर सकता है। इन सहज कर्मों का विवरण हम आगे देखेंगे। मनुष्य जब अपने इन गुणों के आधारपर अपने काम के स्वरूप का व्यवसाय का या आजीविका का चयन और निर्वहन करता है तब उस का व्यक्तिगत जीवन और साथ ही में समाज का जीवन भी सुचारू रूप से चलता है। इसी को व्यवस्था में बिठाकर उसे वर्ण व्यवस्था का नाम दिया गया था।
 
हर मनुष्य का स्वभाव, उस की प्रवृत्तियाँ, उस के गुण, उस की क्षमताएं, उस की व्यावसायिक कुशलताएं आदि भिन्न होते है। विशेष प्रकार के काम वह सहजता से कर सकता है। इन सहज कर्मों का विवरण हम आगे देखेंगे। मनुष्य जब अपने इन गुणों के आधारपर अपने काम के स्वरूप का व्यवसाय का या आजीविका का चयन और निर्वहन करता है तब उस का व्यक्तिगत जीवन और साथ ही में समाज का जीवन भी सुचारू रूप से चलता है। इसी को व्यवस्था में बिठाकर उसे वर्ण व्यवस्था का नाम दिया गया था।
    
== समाज में विभूति संयम ==
 
== समाज में विभूति संयम ==
देशिक शास्त्र<ref>बद्रीशा ठुलधरिया, प्रकाशक पुनरुत्थान प्रकाशन पृष्ठ ९६</ref> के अनुसार और पहले बताए वर्ण और [[Jaati_System_(जाति_व्यवस्था)|जाति व्यवस्था]] के मूल आधार के अनुसार मनुष्य का स्वार्थ और समाज के हित में संतुलन बनाये रखने के लिये तथा समाज की आवश्यकताओं की निरंतर आपूर्ति के लिये यह व्यवस्थाएं स्थापित की गईं थीं। हर समाज घटक को कुछ विशेष त्याग भी करना होता था याने जिम्मेदारियाँ थीं और अन्यों से कुछ विशेष महत्वपूर्ण, ऐसी कुछ श्रेष्ठ बातें याने कुछ विभूतियाँ प्राप्त होतीं थीं। मान, ऐश्वर्य, विलास और निश्चिन्तता यह वे चार विभूतियाँ थीं। इन के बदले में समाज के लिये कुछ त्याग भी करना होता था। इनको हम इस [[Society (समाज)|लेख]] में देख सकते हैं।   
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देशिक शास्त्र<ref>बद्रीशा ठुलधरिया, प्रकाशक पुनरुत्थान प्रकाशन पृष्ठ ९६</ref> के अनुसार और पहले बताए वर्ण और [[Jaati_System_(जाति_व्यवस्था)|[[Jaati_System_(जाति_व्यवस्था)|जाति व्यवस्था]]]] के मूल आधार के अनुसार मनुष्य का स्वार्थ और समाज के हित में संतुलन बनाये रखने के लिये तथा समाज की आवश्यकताओं की निरंतर आपूर्ति के लिये यह व्यवस्थाएं स्थापित की गईं थीं। हर समाज घटक को कुछ विशेष त्याग भी करना होता था याने जिम्मेदारियाँ थीं और अन्यों से कुछ विशेष महत्वपूर्ण, ऐसी कुछ श्रेष्ठ बातें याने कुछ विभूतियाँ प्राप्त होतीं थीं। मान, ऐश्वर्य, विलास और निश्चिन्तता यह वे चार विभूतियाँ थीं। इन के बदले में समाज के लिये कुछ त्याग भी करना होता था। इनको हम इस [[Society (समाज)|लेख]] में देख सकते हैं।   
    
ब्राह्मण वर्ण के व्यक्ति को ज्ञानार्जन और ज्ञानदान की, समाज को श्रेष्ठतम आदर्शों का अपने प्रत्यक्ष व्यवहार के माध्यम से मार्गदर्शन करने की जिम्मेदारी थी। भिक्षावृत्ति से जीने का आग्रह था। इस के प्रतिकार में ब्राह्मण समाज सर्वोच्च सम्मान का अधिकारी माना जाता था। अपने बल, कौशल, निर्भयता, न्यायदृष्टि के आधारपर समाज का संरक्षण करने के लिये जान की बाजी लगाने की जिम्मेदारी क्षत्रिय वर्ण के व्यक्ति को दी गई थी। इस के प्रतिकार में उसे ऐश्वर्य और सत्ता की विभूति समाज से प्राप्त होती थी। समाज के पोषण के लिये उत्पादन, वितरण और व्यापार की जिम्मेदारी वैश्य को दी गई थी। इस के प्रतिकार में उसे संपत्ति संचय और आरामयुक्त जीवन की, विलास की विभूति समाज की ओर से प्राप्त होती थी। शूद्र को विभूति के रूप में मिलती थी निश्चिन्तता। और इस के प्रतिकार में उस की जिम्मेदारी थी कि वह अन्य तीनों वर्णों के व्यक्तियों की सेवा करे। जिस से उन्हें अपने कर्तव्यों की पूर्ति के लिये अध्ययन अनुसंधान, प्रयोग और व्यवहार के लिये अवकाश प्राप्त हो सके।  
 
ब्राह्मण वर्ण के व्यक्ति को ज्ञानार्जन और ज्ञानदान की, समाज को श्रेष्ठतम आदर्शों का अपने प्रत्यक्ष व्यवहार के माध्यम से मार्गदर्शन करने की जिम्मेदारी थी। भिक्षावृत्ति से जीने का आग्रह था। इस के प्रतिकार में ब्राह्मण समाज सर्वोच्च सम्मान का अधिकारी माना जाता था। अपने बल, कौशल, निर्भयता, न्यायदृष्टि के आधारपर समाज का संरक्षण करने के लिये जान की बाजी लगाने की जिम्मेदारी क्षत्रिय वर्ण के व्यक्ति को दी गई थी। इस के प्रतिकार में उसे ऐश्वर्य और सत्ता की विभूति समाज से प्राप्त होती थी। समाज के पोषण के लिये उत्पादन, वितरण और व्यापार की जिम्मेदारी वैश्य को दी गई थी। इस के प्रतिकार में उसे संपत्ति संचय और आरामयुक्त जीवन की, विलास की विभूति समाज की ओर से प्राप्त होती थी। शूद्र को विभूति के रूप में मिलती थी निश्चिन्तता। और इस के प्रतिकार में उस की जिम्मेदारी थी कि वह अन्य तीनों वर्णों के व्यक्तियों की सेवा करे। जिस से उन्हें अपने कर्तव्यों की पूर्ति के लिये अध्ययन अनुसंधान, प्रयोग और व्यवहार के लिये अवकाश प्राप्त हो सके।  
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श्रीमद्भगवद्गीता में चारों वर्णों के 'स्व' भावज कर्म बताये हैं। श्रीमद्भगवद्गीता योग 'शास्त्र' है। इस में प्रस्तुत सूत्र हजारों वर्षों से आज तक प्रासंगिक है और आगे भी रहेंगे। 'स्व' भावज कर्म यानी जिनको करने से करने वाले को बोझ नहीं लगता।   
 
श्रीमद्भगवद्गीता में चारों वर्णों के 'स्व' भावज कर्म बताये हैं। श्रीमद्भगवद्गीता योग 'शास्त्र' है। इस में प्रस्तुत सूत्र हजारों वर्षों से आज तक प्रासंगिक है और आगे भी रहेंगे। 'स्व' भावज कर्म यानी जिनको करने से करने वाले को बोझ नहीं लगता।   
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ब्राह्मण के गुण और कर्मों के लक्षणों का वर्णन है<ref>श्रीमद्भगवद्गीता 18-42</ref> <blockquote>शमो दमस्तप: शाप्रचं क्षान्तिरार्जवमेव च ।</blockquote><blockquote>ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम् ॥ 18-42 ॥</blockquote>अर्थात् शम ( मनपर नियंत्रण), दम (इंद्रियों का दमन), तप (कार्य के लिये कठिनाई का सामना करने की शक्ति), शौच (अंतर्बाह्य पवित्रता/शुचिता - जल और माटी से शरीर की और धनशुद्धि, आहारशुद्धि और आचारशुद्धि से आसक्ति, कपट, द्वेषभाव आदि को दूर करने वाली आंतरिक शुद्धि), शान्ति (बिना हडबडाए व्यवहार करना), आस्तिक्यम् (आस्तिक बुध्दि), ज्ञान (ब्रह्म) और विज्ञान(अष्टधा प्रकृति) की समझ और वैसा व्यवहार।  
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ब्राह्मण के गुण और कर्मों के लक्षणों का वर्णन है<ref>श्रीमद्भगवद्गीता 18-42</ref> <blockquote>शमो दमस्तप: शाप्रचं क्षान्तिरार्जवमेव च ।</blockquote><blockquote>ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम् ॥ 18-42 ॥</blockquote>अर्थात् शम ( मनपर नियंत्रण), दम (इंद्रियों का दमन), तप (कार्य के लिये कठिनाई का सामना करने की शक्ति), शौच (अंतर्बाह्य पवित्रता/शुचिता - जल और माटी से शरीर की और धनशुद्धि, आहारशुद्धि और आचारशुद्धि से आसक्ति, कपट, द्वेषभाव आदि को दूर करने वाली आंतरिक शुद्धि), शान्ति (बिना हडबडाए व्यवहार करना), आस्तिक्यम् (आस्तिक बुद्धि), ज्ञान (ब्रह्म) और विज्ञान(अष्टधा प्रकृति) की समझ और वैसा व्यवहार।  
    
मनुस्मृति में ब्राह्मण के कर्म बताए गये हैं<ref>मनुस्मृति: 1-88</ref>: <blockquote>अध्यापनमध्ययनं यजनं याजनं तथा ।</blockquote><blockquote>दानं प्रतिग्रहंचैव ब्राह्मणानामकल्पयत् ॥ 1-88 ॥</blockquote>अर्थ : पढना / पढाना, यज्ञ करना/कराना और दान लेना/देना यह ब्राह्मण के कर्म है।  
 
मनुस्मृति में ब्राह्मण के कर्म बताए गये हैं<ref>मनुस्मृति: 1-88</ref>: <blockquote>अध्यापनमध्ययनं यजनं याजनं तथा ।</blockquote><blockquote>दानं प्रतिग्रहंचैव ब्राह्मणानामकल्पयत् ॥ 1-88 ॥</blockquote>अर्थ : पढना / पढाना, यज्ञ करना/कराना और दान लेना/देना यह ब्राह्मण के कर्म है।  
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श्रीमद्भगवद्गीता में आगे बताया है<ref>श्रीमद्भगवद्गीता 18-4</ref>: <blockquote>स्वे स्वे कर्मण्यभिरत: संसिद्धिं लभते नरा ।। 18-4 ।।</blockquote>याने अपने वर्ण के स्वभावज कर्मों को करने से ही सिद्धि प्राप्त होती है। अन्य वर्ण के स्वभावज कर्मों को करने से नहीं । आगे और बताया है<ref>श्रीमद्भगवद्गीता 18-47</ref> <blockquote>श्रेयान स्वधर्मों विगुणा: परधर्मात्स्वनुष्ठितात ।। 18-47 ।।</blockquote>याने अपने वर्ण के स्वभावज कर्म हेय लगने पर भी उन्हे ही करना चाहिये।  
 
श्रीमद्भगवद्गीता में आगे बताया है<ref>श्रीमद्भगवद्गीता 18-4</ref>: <blockquote>स्वे स्वे कर्मण्यभिरत: संसिद्धिं लभते नरा ।। 18-4 ।।</blockquote>याने अपने वर्ण के स्वभावज कर्मों को करने से ही सिद्धि प्राप्त होती है। अन्य वर्ण के स्वभावज कर्मों को करने से नहीं । आगे और बताया है<ref>श्रीमद्भगवद्गीता 18-47</ref> <blockquote>श्रेयान स्वधर्मों विगुणा: परधर्मात्स्वनुष्ठितात ।। 18-47 ।।</blockquote>याने अपने वर्ण के स्वभावज कर्म हेय लगने पर भी उन्हे ही करना चाहिये।  
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महाभारत में शांतिपर्व १८९.४ और ८ में तथा अनुशासन पर्व में शंकर पार्वती से कहते हैं कि हीन कुल में जन्मा हुआ शूद्र भी यदि आगम संपन्न याने धर्मज्ञानी हो तो उसे ब्राह्मण मानना चाहिए। इसका अर्थ है यदि वह इतनी योग्यतावाला है तो केवल शूद्र के घर में पैदा हुआ है अतः उसे ब्राह्मणत्व नकारना उचित नहीं है। डॉ. बाबासाहब अम्बेडकर जैसे लोगोंं के विषय में ही शायद ऐसा कहा होगा ऐसा लगता है।  
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महाभारत में शांतिपर्व १८९.४ और ८ में तथा अनुशासन पर्व में शंकर पार्वती से कहते हैं कि हीन कुल में जन्मा हुआ शूद्र भी यदि आगम संपन्न याने धर्मज्ञानी हो तो उसे ब्राह्मण मानना चाहिए। इसका अर्थ है यदि वह इतनी योग्यतावाला है तो केवल शूद्र के घर में पैदा हुआ है अतः उसे ब्राह्मणत्व नकारना उचित नहीं है। डॉ. बाबासाहब अम्बेडकर जैसे लोगोंं के विषय में ही संभवतः ऐसा कहा होगा ऐसा लगता है।  
    
== वर्ण निश्चिति और वर्ण शिक्षा ==
 
== वर्ण निश्चिति और वर्ण शिक्षा ==
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# चाणक्य का सूत्र कहता है - लालयेत पंचवर्षाणि दश वर्षाणि ताडयेत् । इस का अर्थ है कि पाँच वर्ष तक बालक को लाड प्यार ही देना चाहिये। कोई बात उस के मन के विपरीत नहीं करनीं चाहिये। इस का यह अर्थ नहीं है कि बच्चे को आग में भी हाथ डालने देना चाहिये। इस से उस बच्चे का जो स्वभाव है वैसा ही व्यवहार बच्चा करता है। भयमुक्त और दबावमुक्त ऐसे वातावरण में बच्चा उसके स्वभाव के अनुरूप ही सहजता से व्यवहार करता है। बच्चे के इस सहज व्यवहार से भी वर्ण की पुष्टि हो सकती है। शुध्द सात्विक स्वभाव ब्राह्मण वर्ण का, सात्विक और राजसी का मेल क्षत्रिय वर्ण का, राजसी और तामसी का मेल वैश्य वर्ण का और तामसी स्वभाव शूद्र वर्ण का परिचायक होता है।
 
# चाणक्य का सूत्र कहता है - लालयेत पंचवर्षाणि दश वर्षाणि ताडयेत् । इस का अर्थ है कि पाँच वर्ष तक बालक को लाड प्यार ही देना चाहिये। कोई बात उस के मन के विपरीत नहीं करनीं चाहिये। इस का यह अर्थ नहीं है कि बच्चे को आग में भी हाथ डालने देना चाहिये। इस से उस बच्चे का जो स्वभाव है वैसा ही व्यवहार बच्चा करता है। भयमुक्त और दबावमुक्त ऐसे वातावरण में बच्चा उसके स्वभाव के अनुरूप ही सहजता से व्यवहार करता है। बच्चे के इस सहज व्यवहार से भी वर्ण की पुष्टि हो सकती है। शुध्द सात्विक स्वभाव ब्राह्मण वर्ण का, सात्विक और राजसी का मेल क्षत्रिय वर्ण का, राजसी और तामसी का मेल वैश्य वर्ण का और तामसी स्वभाव शूद्र वर्ण का परिचायक होता है।
 
# जिन बच्चोंं की जन्मपत्रिकाएं या तो बनीं नहीं है या जिनकी जन्मतिथि और समय ठीक से ज्ञात नहीं है ऐसे बच्चोंं के लिये १५ वर्ष के बाद जब हस्त-रेखाएं कुछ पक्की होने लगती है हस्त-सामुद्रिक या हस्त-रेखा देखकर भी बच्चे या मनुष्य के वर्ण का अनुमान लगाया जा सकता है।  
 
# जिन बच्चोंं की जन्मपत्रिकाएं या तो बनीं नहीं है या जिनकी जन्मतिथि और समय ठीक से ज्ञात नहीं है ऐसे बच्चोंं के लिये १५ वर्ष के बाद जब हस्त-रेखाएं कुछ पक्की होने लगती है हस्त-सामुद्रिक या हस्त-रेखा देखकर भी बच्चे या मनुष्य के वर्ण का अनुमान लगाया जा सकता है।  
# जब किसी को व्यवसाय या नित्यकर्म बोझ लगता है, सहजता से सफलता नहीं मिलती तब यह स्पष्ट है कि उस का वर्तमान व्यवसाय और काम का स्वरुप उस के वर्ण से मेल नहीं खाता । उसी तरह जब किसी को व्यवसाय या नित्यकर्म बोझ नहीं लगता है, सहजता से सफलता मिलती है तब यह स्पष्ट है कि उस का वर्तमान व्यवसाय और काम का स्वरुप उस की जाति और उस के वर्ण से मेल खाता है । इस कसौटी का उपयोग जिन का वर्तमान व्यवसाय और काम का स्वरुप उन की जाति और उन के वर्ण से मेल खाता है ऐसे लोगोंं का समाज में प्रतिशत जानने तक ही सीमित है । उतने प्रतिशत लोगोंं को वर्ण और जाति यह व्यवस्थाएं शास्त्रसंमत ही है, और जाने अनजाने में तथा पूर्व पुण्य के कारण, वर्ण और [[Jaati_System_(जाति_व्यवस्था)|जाति व्यवस्था]] के तत्वों का पालन होनेसे वे सुखी है, यह ठीक से समझाना होगा । आगे भी इन लाभों को बनाए रखने के लिये उन्हे प्रेरित करना होगा। उन का अनुसरण करने के लिये औरों को भी प्रेरित करना होगा।
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# जब किसी को व्यवसाय या नित्यकर्म बोझ लगता है, सहजता से सफलता नहीं मिलती तब यह स्पष्ट है कि उस का वर्तमान व्यवसाय और काम का स्वरुप उस के वर्ण से मेल नहीं खाता । उसी तरह जब किसी को व्यवसाय या नित्यकर्म बोझ नहीं लगता है, सहजता से सफलता मिलती है तब यह स्पष्ट है कि उस का वर्तमान व्यवसाय और काम का स्वरुप उस की जाति और उस के वर्ण से मेल खाता है । इस कसौटी का उपयोग जिन का वर्तमान व्यवसाय और काम का स्वरुप उन की जाति और उन के वर्ण से मेल खाता है ऐसे लोगोंं का समाज में प्रतिशत जानने तक ही सीमित है । उतने प्रतिशत लोगोंं को वर्ण और जाति यह व्यवस्थाएं शास्त्रसंमत ही है, और जाने अनजाने में तथा पूर्व पुण्य के कारण, वर्ण और [[Jaati_System_(जाति_व्यवस्था)|[[Jaati_System_(जाति_व्यवस्था)|जाति व्यवस्था]]]] के तत्वों का पालन होनेसे वे सुखी है, यह ठीक से समझाना होगा । आगे भी इन लाभों को बनाए रखने के लिये उन्हे प्रेरित करना होगा। उन का अनुसरण करने के लिये औरों को भी प्रेरित करना होगा।
    
== वर्ण संतुलन व्यवस्था ==
 
== वर्ण संतुलन व्यवस्था ==
वर्ण संतुलन व्यवस्था इस नाम की किसी व्यवस्था का संदर्भ धार्मिक (धार्मिक) साहित्य में नहीं मिलता है। लेकिन ऐसी व्यवस्था तो रही होगी। स्वभाव से ही मानव स्खलनशील होने से समाज में वर्ण संतुलन अव्यवस्थित होता रहा होगा। इस असंतुलन को ठीक करने के लिये भी कोई व्यवस्था रही होगी। समाज का सतत निरीक्षण कर आवश्यकता के अनुसार गुरूकुलों में ब्राह्मण या फिर क्षत्रिय वर्णों के परस्पर और समाज में अपेक्षित अनुपात को व्यवस्थित करने के लिये जन्म से मिले मुख्य वर्ण से भिन्न दूसरे क्रमांक के मुख्य वर्ण के संस्कार और शिक्षा की व्यवस्था की जाती होगी।  
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वर्ण संतुलन व्यवस्था इस नाम की किसी व्यवस्था का संदर्भ धार्मिक साहित्य में नहीं मिलता है। लेकिन ऐसी व्यवस्था तो रही होगी। स्वभाव से ही मानव स्खलनशील होने से समाज में वर्ण संतुलन अव्यवस्थित होता रहा होगा। इस असंतुलन को ठीक करने के लिये भी कोई व्यवस्था रही होगी। समाज का सतत निरीक्षण कर आवश्यकता के अनुसार गुरूकुलों में ब्राह्मण या फिर क्षत्रिय वर्णों के परस्पर और समाज में अपेक्षित अनुपात को व्यवस्थित करने के लिये जन्म से मिले मुख्य वर्ण से भिन्न दूसरे क्रमांक के मुख्य वर्ण के संस्कार और शिक्षा की व्यवस्था की जाती होगी।  
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समाज में अपेक्षित वर्णों के अनुपात का संदर्भ भी धार्मिक (धार्मिक) साहित्य में नहीं मिलता है। लेकिन चाणक्य सूत्रों से शायद संकेत मिल सकते है। राजा के सलाहकार कैसे और कितने हों इस विषय में चाणक्य सूत्रों में बताया गया है कि राजा को विद्वान सलाहकार मंत्रियों की सहायता से राज्य चलाना चाहिये। ३ ब्राह्मण, ८ क्षत्रिय, २१ वैश्य और ३ शूद्र मंत्रियों का मंत्रिमंडल रहे। विद्वान सलाहकार मंत्री हों यह कहना ठीक ही है। लेकिन साथ में जब वर्णश: संख्या दी जाती है तब उस का संबंध समाज में विद्यमान वर्णश: संख्या से हो सकता है। इस अनुपात को व्यवस्थित रखने की व्यवस्था गुरूकुलों में की जाती होगी। मोटे तौर पर यह अनुपात ठीक ही लगता है।
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समाज में अपेक्षित वर्णों के अनुपात का संदर्भ भी धार्मिक साहित्य में नहीं मिलता है। लेकिन चाणक्य सूत्रों से संभवतः संकेत मिल सकते है। राजा के सलाहकार कैसे और कितने हों इस विषय में चाणक्य सूत्रों में बताया गया है कि राजा को विद्वान सलाहकार मंत्रियों की सहायता से राज्य चलाना चाहिये। ३ ब्राह्मण, ८ क्षत्रिय, २१ वैश्य और ३ शूद्र मंत्रियों का मंत्रिमंडल रहे। विद्वान सलाहकार मंत्री हों यह कहना ठीक ही है। लेकिन साथ में जब वर्णश: संख्या दी जाती है तब उस का संबंध समाज में विद्यमान वर्णश: संख्या से हो सकता है। इस अनुपात को व्यवस्थित रखने की व्यवस्था गुरूकुलों में की जाती होगी। मोटे तौर पर यह अनुपात ठीक ही लगता है।
    
== वर्णों में श्रेष्ठता - कनिष्ठता ==
 
== वर्णों में श्रेष्ठता - कनिष्ठता ==
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== वर्ण परिवर्तन ==
 
== वर्ण परिवर्तन ==
धार्मिक समाज की व्यवस्थाओं की विशेषता यह रही है की यह पर्याप्त लचीली रही है । बालक के जन्म से वर्ण जानने की और उसे सुनिश्चित करने की, वर्ण के अनुसार संस्कार और शिक्षा की व्यवस्था क्षीण हो जाने से वर्ण व्यवस्था को आनुवांशिक बनाया गया होगा। या शायद आनुवांशिक वर्ण व्यवस्था में त्रुटियाँ आ जाने से वर्ण के अनुसार शिक्षा और संस्कार की गुरुकुलों की योजना चलाई गयी होगी। दोनों ही व्यवस्थाओं में अपवाद तो होंगे ही। यह जानकर वर्ण परिवर्तन की भी व्यवस्था रखी गई थी। हम देखते है कि वेश्यापुत्र जाबालि को गुरूकुल की ओर से उस के गुण लक्षण ध्यान में लेकर ब्राह्मण वर्ण प्राप्त हुआथा।  
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धार्मिक समाज की व्यवस्थाओं की विशेषता यह रही है की यह पर्याप्त लचीली रही है । बालक के जन्म से वर्ण जानने की और उसे सुनिश्चित करने की, वर्ण के अनुसार संस्कार और शिक्षा की व्यवस्था क्षीण हो जाने से वर्ण व्यवस्था को आनुवांशिक बनाया गया होगा। या संभवतः आनुवांशिक वर्ण व्यवस्था में त्रुटियाँ आ जाने से वर्ण के अनुसार शिक्षा और संस्कार की गुरुकुलों की योजना चलाई गयी होगी। दोनों ही व्यवस्थाओं में अपवाद तो होंगे ही। यह जानकर वर्ण परिवर्तन की भी व्यवस्था रखी गई थी। हम देखते है कि वेश्यापुत्र जाबालि को गुरूकुल की ओर से उस के गुण लक्षण ध्यान में लेकर ब्राह्मण वर्ण प्राप्त हुआथा।  
    
प्रत्यक्ष में भी जो अपने जन्म से प्राप्त वर्ण के अनुसार विहित कर्म नहीं करते थे उन के वर्ण बदल जाते थे।  
 
प्रत्यक्ष में भी जो अपने जन्म से प्राप्त वर्ण के अनुसार विहित कर्म नहीं करते थे उन के वर्ण बदल जाते थे।  
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जो बातें एक छोटी इकाई में पायी जातीं है वैसीं हीं बातें बडी इकाई में भी पायी जातीं है। जो गुणधर्म धातु के एक छोटे कण में पाये जाते है वही गुणधर्म एक बडे धातुखण्ड में भी पाए जाते है। उसी प्रकार जो गुणधर्म एक छोटी जीवंत इकाई में पाये जाते है वही गुणधर्म बडी और विशाल ऐसी जीवंत इकाई में भी पाये जाते है। जैसे जन्म, शैशव, यौवन, जरा और मरण सभी जीवंत इकाई में स्वाभाविक बातें है। यह सिद्धांत की बात है। उसी तरह हम सब के अनुभव की भी बात है। एक परिवार में भी ऐसी चार वृत्तियों के काम होते ही है।   
 
जो बातें एक छोटी इकाई में पायी जातीं है वैसीं हीं बातें बडी इकाई में भी पायी जातीं है। जो गुणधर्म धातु के एक छोटे कण में पाये जाते है वही गुणधर्म एक बडे धातुखण्ड में भी पाए जाते है। उसी प्रकार जो गुणधर्म एक छोटी जीवंत इकाई में पाये जाते है वही गुणधर्म बडी और विशाल ऐसी जीवंत इकाई में भी पाये जाते है। जैसे जन्म, शैशव, यौवन, जरा और मरण सभी जीवंत इकाई में स्वाभाविक बातें है। यह सिद्धांत की बात है। उसी तरह हम सब के अनुभव की भी बात है। एक परिवार में भी ऐसी चार वृत्तियों के काम होते ही है।   
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इस दृष्टि से धार्मिक (धार्मिक) [[Jaati_System_(जाति_व्यवस्था)|जाति व्यवस्था]] में एक जाति में भी उन्हीं गुणधर्मों का होना जो एक जीवंत इकाई जैसे मनुष्य या एक जीवंत बडी इकाई समाज या राष्ट्र में पाये जाते है, उन का होना यह स्वाभाविक ही है। इस का कारण है कि जाति भी एक जीवंत इकाई है। धार्मिक (धार्मिक) मान्यता के अनुसार समाज की कल्पना एक विराट समाज पुरूष के रूप में की गयी है। जैसे एक सामान्य मनुष्य के भिन्न भिन्न अंग मनुष्य के लिए भिन्न भिन्न क्रियाएं करते है। इसी तरह यह कहा गया कि समाज में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चार वर्णों के लोग हर समाज में होते ही है। यह केवल धार्मिक (धार्मिक) समाज में होते है ऐसी बात नहीं है। जिन समाजों में वर्णव्यवस्था नहीं है ऐसे विश्व के सभी समाजों का निरीक्षण करने से यह ध्यान में आ जाएगा कि उन में भी ऐसी चार वृत्तियों के लोग पाये जाते है। उन समाजों में वर्णव्यवस्था नहीं है लेकिन वर्ण तो हैं ही।  
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इस दृष्टि से धार्मिक [[Jaati_System_(जाति_व्यवस्था)|[[Jaati_System_(जाति_व्यवस्था)|जाति व्यवस्था]]]] में एक जाति में भी उन्हीं गुणधर्मों का होना जो एक जीवंत इकाई जैसे मनुष्य या एक जीवंत बडी इकाई समाज या राष्ट्र में पाये जाते है, उन का होना यह स्वाभाविक ही है। इस का कारण है कि जाति भी एक जीवंत इकाई है। धार्मिक मान्यता के अनुसार समाज की कल्पना एक विराट समाज पुरूष के रूप में की गयी है। जैसे एक सामान्य मनुष्य के भिन्न भिन्न अंग मनुष्य के लिए भिन्न भिन्न क्रियाएं करते है। इसी तरह यह कहा गया कि समाज में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चार वर्णों के लोग हर समाज में होते ही है। यह केवल धार्मिक समाज में होते है ऐसी बात नहीं है। जिन समाजों में वर्णव्यवस्था नहीं है ऐसे विश्व के सभी समाजों का निरीक्षण करने से यह ध्यान में आ जाएगा कि उन में भी ऐसी चार वृत्तियों के लोग पाये जाते है। उन समाजों में वर्णव्यवस्था नहीं है लेकिन वर्ण तो हैं ही।  
    
इस तर्क के आधार पर यदि कहा जाए कि हर जाति एक जीवंत इकाई होने के कारण इस में भी ऐसी ही चार वृत्तियों के लोगोंं का होना अनिवार्य है, स्वाभाविक है तो इस तर्क को गलत नहीं कहा जा सकता। अर्थात् हर जाति में चार वर्णों के लोग होते ही है, इसे मान्य करना होगा। कोई भी शास्त्र इसे नकारता नहीं है।  
 
इस तर्क के आधार पर यदि कहा जाए कि हर जाति एक जीवंत इकाई होने के कारण इस में भी ऐसी ही चार वृत्तियों के लोगोंं का होना अनिवार्य है, स्वाभाविक है तो इस तर्क को गलत नहीं कहा जा सकता। अर्थात् हर जाति में चार वर्णों के लोग होते ही है, इसे मान्य करना होगा। कोई भी शास्त्र इसे नकारता नहीं है।  
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[[Category:Dharmik Jeevan Pratiman (धार्मिक जीवन प्रतिमान - भाग १)]]
 
[[Category:Dharmik Jeevan Pratiman (धार्मिक जीवन प्रतिमान - भाग १)]]
 
[[Category:Dharmik Jeevan Pratiman (धार्मिक जीवन प्रतिमान)]]
 
[[Category:Dharmik Jeevan Pratiman (धार्मिक जीवन प्रतिमान)]]
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[[Category:Dharmik Jeevan Pratimaan Paathykram]]

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