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===== प्राचीन भारत में शिक्षा का स्वरूप =====
 
===== प्राचीन भारत में शिक्षा का स्वरूप =====
तो फिर भारत में शिक्षा चलती कैसे थी ? छोटे गाँव में किसी ज्ञानवान व्यक्ति को लगता था कि मेरे गाँव के लोग अशिक्षित नहीं रहने चाहिये, मैं उन्हें शिक्षित बनाऊँगा, और वह विद्यालय आरम्भ करता था । गाँव का मुखिया किसी ज्ञानवान व्यक्ति को प्रार्थना करता था कि हमारे गाँव के बच्चे अनाडी नहीं रहने चाहिये, आप उन्हें ज्ञान दो, और वह व्यक्ति बिना किसी शर्त के विद्यालय आरम्भ करता था । वह अपने हिसाब से ही पढ़ाता था । विद्यालय कहाँ आरम्भ होता था ? अपने ही घर में शिक्षक विद्यालय आरम्भ करता था । यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है क्योंकि भारत में सारे व्यवसाय व्यवसायियों के घरों में ही चलते थे । वे व्यवसाय गृहजीवन के ही अंग होते थे । यदि विद्यार्थियों की संख्या अधिक रही तो किसी वटवृक्ष के नीचे बठ जाते थे, कहीं मन्दिर के अहाते में बैठ जाते थे, कहीं किसी के बड़े घर के आँगन में या बरामदे में बैठ जाते थे । गम्भीर से गम्भीर विषयों की शिक्षा भी बिना तामझाम के, बिना पैसे के हो जाती थी । विद्यार्थियों को पढ़ाने में शिक्षक का, उसे अपने घर का कमरा देने में उस घर के मालिक का, उसे गाँव के बच्चों को पढ़ाने की प्रार्थना करने वाले मुखिया का कोई अपना स्वार्थ नहीं था । शिक्षक किसी का नौकर नहीं था । पढने के लिये शुल्क नहीं देना पडता था फिर शिक्षक का निर्वाह कैसे चलता था ? उसकी व्यवस्था भी स्वाभाविक रूप से ही हो जाती थी । जब विद्यार्थी पहली बार पढने के लिये आता था तब कुछ न कुछ लेकर आता था । यह शुल्क नहीं था । कुछ न कुछ लाना अनिवार्य नहीं था । परन्तु देव, गुरु, पण्डित, राजा, बडा व्यक्ति, स्वजन के पास जाते समय खाली हाथ नहीं जाना यह भारत की परम्परा रही है । अतः विद्यार्थी कुछ न कुछ लेकर ही आता था । यह विद्यार्थी के घर्‌ की हैसियत के अनुरूप होता था । गरीब कम और अमीर अधिक मात्रा में लाता था | यह पैसे के रूप में न होकर अनाज, वस्त्र, गाय आदि के रूप में होता था ।
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तो फिर भारत में शिक्षा चलती कैसे थी ? छोटे गाँव में किसी ज्ञानवान व्यक्ति को लगता था कि मेरे गाँव के लोग अशिक्षित नहीं रहने चाहिये, मैं उन्हें शिक्षित बनाऊँगा, और वह विद्यालय आरम्भ करता था । गाँव का मुखिया किसी ज्ञानवान व्यक्ति को प्रार्थना करता था कि हमारे गाँव के बच्चे अनाडी नहीं रहने चाहिये, आप उन्हें ज्ञान दो, और वह व्यक्ति बिना किसी शर्त के विद्यालय आरम्भ करता था । वह अपने हिसाब से ही पढ़ाता था । विद्यालय कहाँ आरम्भ होता था ? अपने ही घर में शिक्षक विद्यालय आरम्भ करता था । यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है क्योंकि भारत में सारे व्यवसाय व्यवसायियों के घरों में ही चलते थे । वे व्यवसाय गृहजीवन के ही अंग होते थे । यदि विद्यार्थियों की संख्या अधिक रही तो किसी वटवृक्ष के नीचे बठ जाते थे, कहीं मन्दिर के अहाते में बैठ जाते थे, कहीं किसी के बड़े घर के आँगन में या बरामदे में बैठ जाते थे । गम्भीर से गम्भीर विषयों की शिक्षा भी बिना तामझाम के, बिना पैसे के हो जाती थी । विद्यार्थियों को पढ़ाने में शिक्षक का, उसे अपने घर का कमरा देने में उस घर के मालिक का, उसे गाँव के बच्चोंं को पढ़ाने की प्रार्थना करने वाले मुखिया का कोई अपना स्वार्थ नहीं था । शिक्षक किसी का नौकर नहीं था । पढने के लिये शुल्क नहीं देना पडता था फिर शिक्षक का निर्वाह कैसे चलता था ? उसकी व्यवस्था भी स्वाभाविक रूप से ही हो जाती थी । जब विद्यार्थी पहली बार पढने के लिये आता था तब कुछ न कुछ लेकर आता था । यह शुल्क नहीं था । कुछ न कुछ लाना अनिवार्य नहीं था । परन्तु देव, गुरु, पण्डित, राजा, बडा व्यक्ति, स्वजन के पास जाते समय खाली हाथ नहीं जाना यह भारत की परम्परा रही है । अतः विद्यार्थी कुछ न कुछ लेकर ही आता था । यह विद्यार्थी के घर्‌ की हैसियत के अनुरूप होता था । गरीब कम और अमीर अधिक मात्रा में लाता था | यह पैसे के रूप में न होकर अनाज, वस्त्र, गाय आदि के रूप में होता था ।
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शिक्षक पूरे गाँव के लिये सम्माननीय था । घर के विवाहादि अवसरों पर शिक्षक का सम्मान किया जाता था और वस्त्र, अलंकार जैसी भौतिक वस्तु के रूप में यह सम्मान होता था । उसे भोजन के लिये भी बुलाया जाता था । विद्यार्थी जब अध्ययन पूर्ण करता था तब गुरुदक्षिणा देता था । यह भी उसके घर की हैसियत से ही होती थी । संक्षेप में गाँव के बच्चों को ज्ञान देने वाले को गाँव कभी भी दृरिद्र और बेचारा नहीं रहने देता था ।
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शिक्षक पूरे गाँव के लिये सम्माननीय था । घर के विवाहादि अवसरों पर शिक्षक का सम्मान किया जाता था और वस्त्र, अलंकार जैसी भौतिक वस्तु के रूप में यह सम्मान होता था । उसे भोजन के लिये भी बुलाया जाता था । विद्यार्थी जब अध्ययन पूर्ण करता था तब गुरुदक्षिणा देता था । यह भी उसके घर की हैसियत से ही होती थी । संक्षेप में गाँव के बच्चोंं को ज्ञान देने वाले को गाँव कभी भी दृरिद्र और बेचारा नहीं रहने देता था ।
    
यह भारत का स्वभाव ही रहा है । परिवार-भावना से जब सारी व्यवस्थायें चलती हैं तब सम्मान, सुरक्षा, आवश्यकताओं की पूर्ति होती ही है। भारत का जो सांस्कृतिक नुकसान हुआ है वह इन सारी व्यवस्थाओं के टूट जाने और उनके स्थान पर अनात्मीय, अपना अपना स्वार्थ देखनेवाली व्यवस्थाओं की प्रतिष्ठापना का हुआ है ।
 
यह भारत का स्वभाव ही रहा है । परिवार-भावना से जब सारी व्यवस्थायें चलती हैं तब सम्मान, सुरक्षा, आवश्यकताओं की पूर्ति होती ही है। भारत का जो सांस्कृतिक नुकसान हुआ है वह इन सारी व्यवस्थाओं के टूट जाने और उनके स्थान पर अनात्मीय, अपना अपना स्वार्थ देखनेवाली व्यवस्थाओं की प्रतिष्ठापना का हुआ है ।
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===== शिक्षा में धार्मिक करण के उपाय =====
 
===== शिक्षा में धार्मिक करण के उपाय =====
वास्तव में शिक्षा का धार्मिककरण करने के लिये व्यवस्थातन्त्र का विचार तो करना ही पडेगा । हमें प्रयोग भी करने पड़ेंगे । हमे साहस दिखाना होगा ।
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वास्तव में शिक्षा का धार्मिककरण करने के लिये व्यवस्थातन्त्र का विचार तो करना ही पड़ेगा । हमें प्रयोग भी करने पड़ेंगे । हमे साहस दिखाना होगा ।
    
एक प्रयोग ऐसा हो सकता है - कुछ शिक्षकों ने मिलकर एक विद्यालय आरम्भ करना । इस विद्यालय हेतु शासन की मान्यता नहीं माँगना । शासन की मान्यता नहीं होगी तो बोर्ड की परीक्षा भी नहीं होगी । प्रमाणपत्र नहीं मिलेगा । नौकरी नहीं मिलेगी । इस प्रयोग के लिये नौकरी की चाह नहीं रखने वाले, प्रमाणपत्र की आकांक्षा नहीं रखने वाले साहसी मातापिताओं को इन शिक्षकों का साथ देना होगा। इस विद्यालयमें शिक्षित विद्यार्थी अच्छा अर्थार्जन कर सकें ऐसी शिक्षा उन्हें देनी होगी । समझो, वे किसी वस्तु का उत्पादन करते हैं तो उसे खरीद करने वाला ग्राहक वर्ग भी निर्माण करना होगा । यदि ऐसे विद्यालयों की संख्या बढ सके तो एक पर्याय निर्माण होने की सम्भावना बन सकती है । शिक्षा को स्वतन्त्रता की प्रतिष्ठा प्राप्त हो सकती है ।
 
एक प्रयोग ऐसा हो सकता है - कुछ शिक्षकों ने मिलकर एक विद्यालय आरम्भ करना । इस विद्यालय हेतु शासन की मान्यता नहीं माँगना । शासन की मान्यता नहीं होगी तो बोर्ड की परीक्षा भी नहीं होगी । प्रमाणपत्र नहीं मिलेगा । नौकरी नहीं मिलेगी । इस प्रयोग के लिये नौकरी की चाह नहीं रखने वाले, प्रमाणपत्र की आकांक्षा नहीं रखने वाले साहसी मातापिताओं को इन शिक्षकों का साथ देना होगा। इस विद्यालयमें शिक्षित विद्यार्थी अच्छा अर्थार्जन कर सकें ऐसी शिक्षा उन्हें देनी होगी । समझो, वे किसी वस्तु का उत्पादन करते हैं तो उसे खरीद करने वाला ग्राहक वर्ग भी निर्माण करना होगा । यदि ऐसे विद्यालयों की संख्या बढ सके तो एक पर्याय निर्माण होने की सम्भावना बन सकती है । शिक्षा को स्वतन्त्रता की प्रतिष्ठा प्राप्त हो सकती है ।
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यह काम इतना सरल नहीं है। शिक्षक और अभिभावकों का साहस बनना ही प्रथम कठिनाई है । यह कदाचित हो भी गया तो सरकार इसे “बच्चों को शिक्षा से वंचित कर रहे हैं क्योंकि ये मान्यता प्राप्त विद्यालय में नहीं पढ रहे हैं ।' कहकर दण्डित कर सकती है । इसलिये सरकार के साथ बातचीत करने का काम भी करना ही पडेगा । शिक्षकों को अधिक साहस जुटाना होगा ।
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यह काम इतना सरल नहीं है। शिक्षक और अभिभावकों का साहस बनना ही प्रथम कठिनाई है । यह कदाचित हो भी गया तो सरकार इसे “बच्चोंं को शिक्षा से वंचित कर रहे हैं क्योंकि ये मान्यता प्राप्त विद्यालय में नहीं पढ रहे हैं ।' कहकर दण्डित कर सकती है । इसलिये सरकार के साथ बातचीत करने का काम भी करना ही पड़ेगा । शिक्षकों को अधिक साहस जुटाना होगा ।
    
इसके साथ ही नया पाठ्यक्रम, नई पाठनसामग्री आदि भी तैयार करने होंगे। यदि ऐसा पर्याय निर्माण हो सकता है तो करना चाहिये ।दूसरा पर्याय कुछ समझौता करने का है।
 
इसके साथ ही नया पाठ्यक्रम, नई पाठनसामग्री आदि भी तैयार करने होंगे। यदि ऐसा पर्याय निर्माण हो सकता है तो करना चाहिये ।दूसरा पर्याय कुछ समझौता करने का है।
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# शिक्षक के जाने तक विद्यार्थियों को रुकना चाहिये । शिक्षक से पहले कक्षा नहीं छोडनी चाहिये । कक्षा चल रही है तब तक मध्य में से छोडकर नहीं जाना चाहिये।
 
# शिक्षक के जाने तक विद्यार्थियों को रुकना चाहिये । शिक्षक से पहले कक्षा नहीं छोडनी चाहिये । कक्षा चल रही है तब तक मध्य में से छोडकर नहीं जाना चाहिये।
 
# कक्षा चल रही हो तब विद्यार्थी आपस में बातें न करें । अपना और कोई काम न करें, खायें पीयें नहीं यह भी आवश्यक है । आजकल पानी की बोतल सबके साथ रहती है और प्यास लगे तब पानी पीना सबको स्वाभाविक लगता है । लघुशंका के लिये भी मध्य में ही जाना स्वाभाविक माना जाता है। आवेगों को नहीं रोकना चाहिये ऐसा शास्त्रीय कारण भी दिया जाता है । यह सब तो ठीक है परन्तु कक्षा प्रारम्भ होने से पूर्व ही इन कामों को निपट लेने की सावधानी सिखाना चाहिये । एक साथ कम से कम दो घण्टे बिना पानी के, बिना लघुशंका गये काम कर सकें ऐसा अभ्यास होना चाहिये । यह तो सभाओं और कार्यक्रमों में पालन किया जाना चाहिये ऐसा शिष्टाचार है । कक्षाकक्षों में ही इसके संस्कार होते हैं । यहाँ नहीं हुए तो जीवन में भी नहीं आते । घरों में और समाज में कक्षाकक्षों से ही पहुँचते हैं।
 
# कक्षा चल रही हो तब विद्यार्थी आपस में बातें न करें । अपना और कोई काम न करें, खायें पीयें नहीं यह भी आवश्यक है । आजकल पानी की बोतल सबके साथ रहती है और प्यास लगे तब पानी पीना सबको स्वाभाविक लगता है । लघुशंका के लिये भी मध्य में ही जाना स्वाभाविक माना जाता है। आवेगों को नहीं रोकना चाहिये ऐसा शास्त्रीय कारण भी दिया जाता है । यह सब तो ठीक है परन्तु कक्षा प्रारम्भ होने से पूर्व ही इन कामों को निपट लेने की सावधानी सिखाना चाहिये । एक साथ कम से कम दो घण्टे बिना पानी के, बिना लघुशंका गये काम कर सकें ऐसा अभ्यास होना चाहिये । यह तो सभाओं और कार्यक्रमों में पालन किया जाना चाहिये ऐसा शिष्टाचार है । कक्षाकक्षों में ही इसके संस्कार होते हैं । यहाँ नहीं हुए तो जीवन में भी नहीं आते । घरों में और समाज में कक्षाकक्षों से ही पहुँचते हैं।
# अनिवार्य कारण से यदि मध्य में ही कक्षा के अन्दर आना पडे या बाहर जाना पडे, बिना अनुमति के नहीं आना चाहिये । अनुमति माँगने पर मिलेगी ही या देनी ही चाहिये ऐसा नियम नहीं है । अनुमति देना या नहीं देना शिक्षक के विवेक पर निर्भर करता है  (मर्जी पर नहीं)।
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# अनिवार्य कारण से यदि मध्य में ही कक्षा के अन्दर आना पड़े या बाहर जाना पड़े, बिना अनुमति के नहीं आना चाहिये । अनुमति माँगने पर मिलेगी ही या देनी ही चाहिये ऐसा नियम नहीं है । अनुमति देना या नहीं देना शिक्षक के विवेक पर निर्भर करता है  (मर्जी पर नहीं)।
 
# कक्षा चल रही है तब शिक्षक की अनुमति के बिना विद्यार्थी तो क्या कोई भी नहीं आ सकता, यहाँ तक कि मुख्याध्यापक भी नहीं। जिस प्रकार मुख्याध्यापक विद्यालय का मुखिया है, शिक्षक अपनी कक्षा का मुखिया है। उसकी आज्ञा या अनुमति के बिना कुछ नहीं हो सकता। आजकल निरीक्षण करने के लिये आये हुए सरकारी शिक्षाविभाग के अधिकारी अनुमति माँगने की शिष्टता नहीं दर्शाते, परवाह भी नहीं करते । परन्तु यह होना अपेक्षित है।
 
# कक्षा चल रही है तब शिक्षक की अनुमति के बिना विद्यार्थी तो क्या कोई भी नहीं आ सकता, यहाँ तक कि मुख्याध्यापक भी नहीं। जिस प्रकार मुख्याध्यापक विद्यालय का मुखिया है, शिक्षक अपनी कक्षा का मुखिया है। उसकी आज्ञा या अनुमति के बिना कुछ नहीं हो सकता। आजकल निरीक्षण करने के लिये आये हुए सरकारी शिक्षाविभाग के अधिकारी अनुमति माँगने की शिष्टता नहीं दर्शाते, परवाह भी नहीं करते । परन्तु यह होना अपेक्षित है।
 
# कक्षा में शिक्षक के आसन पर और कोई नहीं बैठ सकता । कक्षा के बाहर अनेक व्यक्ति आयु में, ज्ञान में, अधिकार में शिक्षक से बड़े हो सकते हैं, वहाँ शिक्षक उनका उचित सम्मान करेगा परन्तु कक्षा के अन्दर सब शिक्षक का ही सम्मान करेंगे। विद्यार्थियों को भी इस बात की जानकारी होनी चाहिये, अन्यथा वे स्वयं ही खडे हो जाते हैं । शिक्षक का सम्मान करना है यह विषय शिक्षक स्वयं नहीं बतायेंगे, मुख्याध्यापक ने स्वयं विद्यालय के सभी छात्रों को सिखानी चाहिये। कक्षा में यदि मुख्याध्यापक या कोई वरिष्ठ अधिकारी या कोई सन्त आते हैं तब शिक्षक स्वयं विद्यार्थियों को खडे होकर प्रणाम करने की आज्ञा दे यही उचित पद्धति है।
 
# कक्षा में शिक्षक के आसन पर और कोई नहीं बैठ सकता । कक्षा के बाहर अनेक व्यक्ति आयु में, ज्ञान में, अधिकार में शिक्षक से बड़े हो सकते हैं, वहाँ शिक्षक उनका उचित सम्मान करेगा परन्तु कक्षा के अन्दर सब शिक्षक का ही सम्मान करेंगे। विद्यार्थियों को भी इस बात की जानकारी होनी चाहिये, अन्यथा वे स्वयं ही खडे हो जाते हैं । शिक्षक का सम्मान करना है यह विषय शिक्षक स्वयं नहीं बतायेंगे, मुख्याध्यापक ने स्वयं विद्यालय के सभी छात्रों को सिखानी चाहिये। कक्षा में यदि मुख्याध्यापक या कोई वरिष्ठ अधिकारी या कोई सन्त आते हैं तब शिक्षक स्वयं विद्यार्थियों को खडे होकर प्रणाम करने की आज्ञा दे यही उचित पद्धति है।
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अभिभावकों की शिक्षा अलग बात है और विद्यार्थियों के अपराध या दोष के निवारण का हवाला अभिभावकों को सौंपना अलग बात है।
 
अभिभावकों की शिक्षा अलग बात है और विद्यार्थियों के अपराध या दोष के निवारण का हवाला अभिभावकों को सौंपना अलग बात है।
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इसी प्रकार से विद्यालय परिसर में पुलीस को बुलाना, न्यायालय में केस दर्ज करना आदि नहीं होना चाहिये । यह मुख्याध्यापक की वरिष्ठता समाप्त कर देता है। विद्यार्थी, शिक्षक, अभिभावक या समाज से अन्य कोई न्यायालय में शिकायत करे ऐसी नौबत नहीं आने देना यह विद्यालय के मुख्याध्यापक और शिक्षकों की गुणवत्ता और व्यवहार दक्षता पर निर्भर करता है । यह बात ठीक है कि विद्यालय स्वयं पुलिस या न्यायालय के सामने नहीं जायेगा परन्तु कोई यदि उन्हें घसीटता है तो उन्हें जाना पडेगा । परन्तु स्थितियों का ठीक से आकलन करना शिक्षकों को आना ही चाहिये । शिक्षक बनना आसान नहीं है, विद्याव्रत भी आसान व्रत नहीं है, शिक्षक के नाते सम्मान सस्ते में नहीं मिलता है ।  
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इसी प्रकार से विद्यालय परिसर में पुलीस को बुलाना, न्यायालय में केस दर्ज करना आदि नहीं होना चाहिये । यह मुख्याध्यापक की वरिष्ठता समाप्त कर देता है। विद्यार्थी, शिक्षक, अभिभावक या समाज से अन्य कोई न्यायालय में शिकायत करे ऐसी नौबत नहीं आने देना यह विद्यालय के मुख्याध्यापक और शिक्षकों की गुणवत्ता और व्यवहार दक्षता पर निर्भर करता है । यह बात ठीक है कि विद्यालय स्वयं पुलिस या न्यायालय के सामने नहीं जायेगा परन्तु कोई यदि उन्हें घसीटता है तो उन्हें जाना पड़ेगा । परन्तु स्थितियों का ठीक से आकलन करना शिक्षकों को आना ही चाहिये । शिक्षक बनना आसान नहीं है, विद्याव्रत भी आसान व्रत नहीं है, शिक्षक के नाते सम्मान सस्ते में नहीं मिलता है ।  
    
====== विद्यालय की गरिमा व पवित्रता की रक्षा ======
 
====== विद्यालय की गरिमा व पवित्रता की रक्षा ======
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इस प्रकार यहाँ विद्यार्थी और शिक्षक मिलकर विद्यालय का संचालन करें इस विषय में कुछ विवरण दिया गया है । परन्तु ऐसा होना इतना सरल नहीं है । इसे सम्भव बनाने हेतु भी योजना पूर्वक कुछ प्रयास करने होंगे । ये प्रयास कुछ इस प्रकार हो सकते हैं...  
 
इस प्रकार यहाँ विद्यार्थी और शिक्षक मिलकर विद्यालय का संचालन करें इस विषय में कुछ विवरण दिया गया है । परन्तु ऐसा होना इतना सरल नहीं है । इसे सम्भव बनाने हेतु भी योजना पूर्वक कुछ प्रयास करने होंगे । ये प्रयास कुछ इस प्रकार हो सकते हैं...  
 
# इस संकल्पना की स्वीकृति लोकमानस में होना और अभिभावकों की समझ में आना आवश्यक है। आज केवल परीक्षा में अंक लाना ही शिक्षा का उद्देश्य माना जाता है तब शेष सारी बातें निरर्थक लगना स्वाभाविक है। अतः सार्थक शिक्षा की कल्पना लेकर व्यापक समाजप्रबोधन करना होगा । अभिभावकों की स्वीकृति के बिना कोई काम होना असम्भव है। इस दृष्टि से अनेक शिक्षण चिंतकों ने विभिन्न स्वरूपों में लोकमानस से संवाद करने की आवश्यकता होगी। बहुत कुछ लिखा जाना चाहिये और प्रचलित और प्रसारित होना चाहिये।  
 
# इस संकल्पना की स्वीकृति लोकमानस में होना और अभिभावकों की समझ में आना आवश्यक है। आज केवल परीक्षा में अंक लाना ही शिक्षा का उद्देश्य माना जाता है तब शेष सारी बातें निरर्थक लगना स्वाभाविक है। अतः सार्थक शिक्षा की कल्पना लेकर व्यापक समाजप्रबोधन करना होगा । अभिभावकों की स्वीकृति के बिना कोई काम होना असम्भव है। इस दृष्टि से अनेक शिक्षण चिंतकों ने विभिन्न स्वरूपों में लोकमानस से संवाद करने की आवश्यकता होगी। बहुत कुछ लिखा जाना चाहिये और प्रचलित और प्रसारित होना चाहिये।  
# हाथ से काम करने को आज हेय माना जाने लगा है। विद्यार्थी को घर में भी किसी प्रकार का काम करने का अभ्यास नहीं है। हर मातापिता की आकांक्षा होती है कि उनकी सन्तान पढलिखकर ऐसा व्यवसाय करे जहाँ उसे हाथ से काम न करना पडे। इस स्थिति में विद्यार्थी को हर काम सिखाना होगा और घर में भी करने के लिये उसे प्रेरित करना होगा। फिर हाथों को काम करना सिखाना होगा यह एक बहुत बड़ा काम है और धैर्यपूर्वक करने की आवश्यकता है ।  
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# हाथ से काम करने को आज हेय माना जाने लगा है। विद्यार्थी को घर में भी किसी प्रकार का काम करने का अभ्यास नहीं है। हर मातापिता की आकांक्षा होती है कि उनकी सन्तान पढलिखकर ऐसा व्यवसाय करे जहाँ उसे हाथ से काम न करना पड़े। इस स्थिति में विद्यार्थी को हर काम सिखाना होगा और घर में भी करने के लिये उसे प्रेरित करना होगा। फिर हाथों को काम करना सिखाना होगा यह एक बहुत बड़ा काम है और धैर्यपूर्वक करने की आवश्यकता है ।  
 
# विद्यालय की अध्ययन अध्यापन पद्धति, समयविभाजन, परीक्षा पद्धति, व्यवस्थायें आदि सब इस संकल्पना के अनुरूप बदलना होगा । गणवेश भी बदल सकता है। हर विषय को क्रियात्मक पद्धति से ढालना होगा। हर विषय का मूल्यांकन क्रियात्मक बनाना होगा । यही नहीं तो अनेक बातों को परीक्षा से परे रखना होगा। परीक्षा की पद्धति, परीक्षा का महत्व , परीक्षा विषयक मानसिकता में बड़ा बदल करना होगा । पुस्तकों का और लेखन का महत्व  कम करना होगा । पढाई को जीवन के साथ जोडना होगा ।  
 
# विद्यालय की अध्ययन अध्यापन पद्धति, समयविभाजन, परीक्षा पद्धति, व्यवस्थायें आदि सब इस संकल्पना के अनुरूप बदलना होगा । गणवेश भी बदल सकता है। हर विषय को क्रियात्मक पद्धति से ढालना होगा। हर विषय का मूल्यांकन क्रियात्मक बनाना होगा । यही नहीं तो अनेक बातों को परीक्षा से परे रखना होगा। परीक्षा की पद्धति, परीक्षा का महत्व , परीक्षा विषयक मानसिकता में बड़ा बदल करना होगा । पुस्तकों का और लेखन का महत्व  कम करना होगा । पढाई को जीवन के साथ जोडना होगा ।  
 
# किसी एक विद्यालय में इस प्रकार की शिक्षा होगी तो वह विद्यालय एक प्रयोग के रूप में चल तो जायेगा । प्रयोग के रूप में उसे प्रतिष्ठा भी कदाचित मिलेगी, उसके विषय में कहीं कोई लेख भी लिखा जायेगा परन्तु मुख्य धारा की शिक्षा में कोई परिवर्तन नहीं होगा । प्रयोग तो आज भी बहुत अच्छे हो रहे हैं, अच्छे से अच्छे हो रहे हैं परन्तु आवश्यकता मुख्य धारा की शिक्षा में परिवर्तन होने की है । मुख्य धारा जब धार्मिक होगी तब भारत की शिक्षा धार्मिक होगी और शिक्षा जब धार्मिक होगी तब भारत भी भारत बनेगा। मुख्य धारा की शिक्षा में इस प्रकार का परिवर्तन हो इस दृष्टि से देश के मूर्धन्य शिक्षाविदों ने इस पर चिन्तन करना होगा और बड़े बड़े देशव्यापी सामाजिकसांस्कृतिक-शैक्षिक संगठनों ने इसे अपनाना होगा । जब यह परिवर्तन देशव्यापी बनता है तभी अर्थपूर्ण भी बनता है। एक और शिक्षण चिन्तन, दूसरी और समाज प्रबोधन और तीसरी ओर प्रत्यक्ष कार्य ऐसे तीनों एक साथ होंगे तभी परिवर्तन होने की सम्भावना बनेगी।  
 
# किसी एक विद्यालय में इस प्रकार की शिक्षा होगी तो वह विद्यालय एक प्रयोग के रूप में चल तो जायेगा । प्रयोग के रूप में उसे प्रतिष्ठा भी कदाचित मिलेगी, उसके विषय में कहीं कोई लेख भी लिखा जायेगा परन्तु मुख्य धारा की शिक्षा में कोई परिवर्तन नहीं होगा । प्रयोग तो आज भी बहुत अच्छे हो रहे हैं, अच्छे से अच्छे हो रहे हैं परन्तु आवश्यकता मुख्य धारा की शिक्षा में परिवर्तन होने की है । मुख्य धारा जब धार्मिक होगी तब भारत की शिक्षा धार्मिक होगी और शिक्षा जब धार्मिक होगी तब भारत भी भारत बनेगा। मुख्य धारा की शिक्षा में इस प्रकार का परिवर्तन हो इस दृष्टि से देश के मूर्धन्य शिक्षाविदों ने इस पर चिन्तन करना होगा और बड़े बड़े देशव्यापी सामाजिकसांस्कृतिक-शैक्षिक संगठनों ने इसे अपनाना होगा । जब यह परिवर्तन देशव्यापी बनता है तभी अर्थपूर्ण भी बनता है। एक और शिक्षण चिन्तन, दूसरी और समाज प्रबोधन और तीसरी ओर प्रत्यक्ष कार्य ऐसे तीनों एक साथ होंगे तभी परिवर्तन होने की सम्भावना बनेगी।  
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* हम विद्यालय को भी परिवार कहते हैं तो उसका व्यावहारिक पक्ष यही होना चाहिए।  
 
* हम विद्यालय को भी परिवार कहते हैं तो उसका व्यावहारिक पक्ष यही होना चाहिए।  
 
* विद्यालय में प्रशासन हेतु भी एक व्यवस्था होनी होती है। आज इसके लिए संचालक मंडल होता है। नियुक्तियाँ करना, सरकार के साथ पत्रव्यवहार करना, आवश्यक सामग्री की खरीदी करना, भवन आदि बनवाना, धनसंग्रह करना आदि काम प्रबन्ध समिति के होते हैं । ये सारे काम शिक्षकों को । करना चाहिए। शिक्षकों की नियुक्तियाँ करना प्रधानाचार्य का काम है। प्रशासन की ज़िम्मेदारी शिक्षकों की है । इसमें भी विद्यार्थियों की सहभागिता अपेक्षित है।  
 
* विद्यालय में प्रशासन हेतु भी एक व्यवस्था होनी होती है। आज इसके लिए संचालक मंडल होता है। नियुक्तियाँ करना, सरकार के साथ पत्रव्यवहार करना, आवश्यक सामग्री की खरीदी करना, भवन आदि बनवाना, धनसंग्रह करना आदि काम प्रबन्ध समिति के होते हैं । ये सारे काम शिक्षकों को । करना चाहिए। शिक्षकों की नियुक्तियाँ करना प्रधानाचार्य का काम है। प्रशासन की ज़िम्मेदारी शिक्षकों की है । इसमें भी विद्यार्थियों की सहभागिता अपेक्षित है।  
* इस व्यवस्था हेतु विद्यालय स्वायत्त होने चाहिए । आज की शेष व्यवस्था वैसी ही रखकर यह व्यवस्था नहीं हो सकती। फिर भी संचालक मंडल, शिक्षक, अभिभावक और शासन को साथ मिलकर यह प्रयोग कैसे हो इसका विचार करना चाहिए । एक विद्यालय यदि दस वर्ष की योजना बनाता है तो यह आज भी व्यावहारिक बन सकती है।  
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* इस व्यवस्था हेतु विद्यालय स्वायत्त होने चाहिए । आज की शेष व्यवस्था वैसी ही रखकर यह व्यवस्था नहीं हो सकती। तथापि संचालक मंडल, शिक्षक, अभिभावक और शासन को साथ मिलकर यह प्रयोग कैसे हो इसका विचार करना चाहिए । एक विद्यालय यदि दस वर्ष की योजना बनाता है तो यह आज भी व्यावहारिक बन सकती है।  
 
* शिक्षकों को इस बात में अग्रसर होना चाहिए । वे स्वयं विद्यालय आरम्भ करें । प्रथम कुछ वर्ष इसे समाज के सहयोग से चलाएं । प्रारम्भ से गुरुदक्षिणा का विषय नहीं हो सकता । प्रयोग व्यावहारिक बन सके अतः बारह वर्ष की आयु के विद्यार्थियों से आरम्भ करें । ये विद्यार्थी बीस वर्ष के होते होते अर्थार्जन आरम्भ करेंगे, साथ ही चयनित छात्र विद्यालय में अध्यापन आरम्भ करेंगे।
 
* शिक्षकों को इस बात में अग्रसर होना चाहिए । वे स्वयं विद्यालय आरम्भ करें । प्रथम कुछ वर्ष इसे समाज के सहयोग से चलाएं । प्रारम्भ से गुरुदक्षिणा का विषय नहीं हो सकता । प्रयोग व्यावहारिक बन सके अतः बारह वर्ष की आयु के विद्यार्थियों से आरम्भ करें । ये विद्यार्थी बीस वर्ष के होते होते अर्थार्जन आरम्भ करेंगे, साथ ही चयनित छात्र विद्यालय में अध्यापन आरम्भ करेंगे।
 
* किसी भी विचार को मूर्त रूप देने के लिए बौद्धिक और मानसिक तैयारी करनी होती है वह इसमें भी करनी चाहिए । शिक्षा के धार्मिक प्रतिमान के लिए यह करणीय कार्य है इसका बौद्धिक स्वीकार प्रथम चरण है। सम्बन्धित लोगोंं की मानसिकता बनाना दूसरा चरण है। व्यावहारिक पक्ष की योजना बनाना तीसरा चरण है।  
 
* किसी भी विचार को मूर्त रूप देने के लिए बौद्धिक और मानसिक तैयारी करनी होती है वह इसमें भी करनी चाहिए । शिक्षा के धार्मिक प्रतिमान के लिए यह करणीय कार्य है इसका बौद्धिक स्वीकार प्रथम चरण है। सम्बन्धित लोगोंं की मानसिकता बनाना दूसरा चरण है। व्यावहारिक पक्ष की योजना बनाना तीसरा चरण है।  
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# कई बार अधिक समय तक विद्यालय चलाने के पीछे शैक्षिक विचार होता है। विद्यार्थियों को अच्छी शिक्षा दी जा सके, व्यक्तिगत मार्गदर्शन दिया जा सके यह उद्देश्य होता है। अधिक समय विद्यालय में रखना है तो भोजन आदि की व्यवस्था करनी ही होगी ऐसा विचार कर विद्यालय के संचालक ऐसी व्यवस्था करते हैं । यह केवल सुविधा की दृष्टि से होता है । इसमें शैक्षिक या आर्थिक दृष्टि नहीं होती ।  
 
# कई बार अधिक समय तक विद्यालय चलाने के पीछे शैक्षिक विचार होता है। विद्यार्थियों को अच्छी शिक्षा दी जा सके, व्यक्तिगत मार्गदर्शन दिया जा सके यह उद्देश्य होता है। अधिक समय विद्यालय में रखना है तो भोजन आदि की व्यवस्था करनी ही होगी ऐसा विचार कर विद्यालय के संचालक ऐसी व्यवस्था करते हैं । यह केवल सुविधा की दृष्टि से होता है । इसमें शैक्षिक या आर्थिक दृष्टि नहीं होती ।  
 
# क्वचित पूरे दिन के विद्यालय में विद्यार्थी अपना भोजन घर से ही लेकर आते हैं, विद्यालय की ओर से व्यवस्था नहीं की जाती । अभिभावकों का पैसा बचता है और विद्यालय झंझट से बचते हैं।  
 
# क्वचित पूरे दिन के विद्यालय में विद्यार्थी अपना भोजन घर से ही लेकर आते हैं, विद्यालय की ओर से व्यवस्था नहीं की जाती । अभिभावकों का पैसा बचता है और विद्यालय झंझट से बचते हैं।  
# पूरे दिन का विद्यालय अभिभावकों के लिये सुविधाजनक रहता है। विशेष रूप से महानगरों में जहाँ पतिपत्नी दोनों काम के लिये बाहर जाते हैं और बच्चों को देखनेवाला घर में और कोई नहीं होता तब इस व्यवस्था में बहुत सुविधा रहती है। यह केवल छोटे बच्चों की ही बात नहीं है, किशोर या तरुण आयु के बच्चों के लिये भी घर में अकेले रहना इष्ट नहीं लगता । इस दृष्टि से पूरे दिन के विद्यालय आशीर्वादरूप होते हैं। महानगरों या नगरों में जहाँ विद्यालय घर से पर्याप्त दूरी पर होते हैं वहाँ भी यह व्यवस्था बहुत सुविधाजनक होती है।  
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# पूरे दिन का विद्यालय अभिभावकों के लिये सुविधाजनक रहता है। विशेष रूप से महानगरों में जहाँ पतिपत्नी दोनों काम के लिये बाहर जाते हैं और बच्चोंं को देखनेवाला घर में और कोई नहीं होता तब इस व्यवस्था में बहुत सुविधा रहती है। यह केवल छोटे बच्चोंं की ही बात नहीं है, किशोर या तरुण आयु के बच्चोंं के लिये भी घर में अकेले रहना इष्ट नहीं लगता । इस दृष्टि से पूरे दिन के विद्यालय आशीर्वादरूप होते हैं। महानगरों या नगरों में जहाँ विद्यालय घर से पर्याप्त दूरी पर होते हैं वहाँ भी यह व्यवस्था बहुत सुविधाजनक होती है।  
 
# पूरे दिन के विद्यालय में पढ़ने वाले विद्यार्थियों के लिये अतिरिक्त ट्यूशन या कोचिंग क्लास की आवश्यकता नहीं होती। होनी भी नहीं चाहिये । यदि पूरे दिन का विद्यालय भी शिक्षक, विद्यार्थी या अभिभावकों को अपर्याप्त लगता है तो मानना चाहिये कि कहीं कुछ गडबड है। अतः समय का पूर्ण उपयोग करना चाहिये।  
 
# पूरे दिन के विद्यालय में पढ़ने वाले विद्यार्थियों के लिये अतिरिक्त ट्यूशन या कोचिंग क्लास की आवश्यकता नहीं होती। होनी भी नहीं चाहिये । यदि पूरे दिन का विद्यालय भी शिक्षक, विद्यार्थी या अभिभावकों को अपर्याप्त लगता है तो मानना चाहिये कि कहीं कुछ गडबड है। अतः समय का पूर्ण उपयोग करना चाहिये।  
 
# पूरे दिन के विद्यालय में या तो शिक्षकों की संख्या अधिक होती है अथवा उनका वेतन अधिक होता है। अधिकांश शिक्षक अधिक काम और अधिक वेतन चाहते हैं परन्तु वास्तव में अधिक शिक्षक होना शैक्षिक दृष्टि से अधिक उचित है। ऐसा होने से शिक्षक - विद्यार्थी का अनुपात कम हो जाता है, साथ ही शिक्षकों को शारीरिक और मानसिक थकान कम होती है। शिक्षक - विद्यार्थी का अनुपात कम होने से अध्ययन-अध्यापन की गुणवत्ता बढती है । यदि शिक्षक अधिक समय तक काम करते हैं तो उन्हें स्वाध्याय करने के लिये समय नहीं मिलता और शक्ति भी नहीं बचती।।  
 
# पूरे दिन के विद्यालय में या तो शिक्षकों की संख्या अधिक होती है अथवा उनका वेतन अधिक होता है। अधिकांश शिक्षक अधिक काम और अधिक वेतन चाहते हैं परन्तु वास्तव में अधिक शिक्षक होना शैक्षिक दृष्टि से अधिक उचित है। ऐसा होने से शिक्षक - विद्यार्थी का अनुपात कम हो जाता है, साथ ही शिक्षकों को शारीरिक और मानसिक थकान कम होती है। शिक्षक - विद्यार्थी का अनुपात कम होने से अध्ययन-अध्यापन की गुणवत्ता बढती है । यदि शिक्षक अधिक समय तक काम करते हैं तो उन्हें स्वाध्याय करने के लिये समय नहीं मिलता और शक्ति भी नहीं बचती।।  
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===== प्रयोजन =====
 
===== प्रयोजन =====
 
विद्यार्थी को आवासीय विद्यालय में जाने की आवश्यकता क्यों होती है ?  
 
विद्यार्थी को आवासीय विद्यालय में जाने की आवश्यकता क्यों होती है ?  
# प्राचीन गुरुकुलों में विद्यार्थी गुरु के घर में रहकर ही विद्या ग्रहण करता था। उसके लिये गुरुगृहवास शिक्षा प्राप्त करने का एक अनिवार्य अंग था । यह बात ठीक है कि जहाँ वह रहता था वहाँ गुरुकुल का होना सम्भव न हो इसलिये उसे अपना घर छोडकर गुरु के घर जाना पडे । परन्तु यह बात गौण थी । गुरु के साथ पूर्ण समय पूर्ण रूप से रहना अनिवार्य था ।  
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# प्राचीन गुरुकुलों में विद्यार्थी गुरु के घर में रहकर ही विद्या ग्रहण करता था। उसके लिये गुरुगृहवास शिक्षा प्राप्त करने का एक अनिवार्य अंग था । यह बात ठीक है कि जहाँ वह रहता था वहाँ गुरुकुल का होना सम्भव न हो इसलिये उसे अपना घर छोडकर गुरु के घर जाना पड़े । परन्तु यह बात गौण थी । गुरु के साथ पूर्ण समय पूर्ण रूप से रहना अनिवार्य था ।  
 
# चालीस पचास वर्ष पूर्व भारत के छोटे छोटे गाँवों में विद्यालय, विशेष रूप से माध्यमिक विद्यालय नहीं होते थे। नगरों में ऐसे विद्यालय होते थे । महाविद्यालय तो बड़े नगरों में या महानगरों  में होते थे। आज भी उच्च शिक्षा के अनेक विशिष्ट संस्थान विद्यार्थी जहाँ रहता है उससे पर्याप्त दूरी पर ही होते हैं। इस स्थिति में विद्यार्थी को आवासीय विद्यालय में रहना पडता है।  
 
# चालीस पचास वर्ष पूर्व भारत के छोटे छोटे गाँवों में विद्यालय, विशेष रूप से माध्यमिक विद्यालय नहीं होते थे। नगरों में ऐसे विद्यालय होते थे । महाविद्यालय तो बड़े नगरों में या महानगरों  में होते थे। आज भी उच्च शिक्षा के अनेक विशिष्ट संस्थान विद्यार्थी जहाँ रहता है उससे पर्याप्त दूरी पर ही होते हैं। इस स्थिति में विद्यार्थी को आवासीय विद्यालय में रहना पडता है।  
 
# अनेक ऐसे किस्से हैं जिनमें विद्यार्थी बहुत अधिक शरारती, उद्दण्ड है या घर में उसे देखने वाला, टोकने वाला कोई नहीं है तब उसे आवासीय विद्यालय में भेजा जाता है। उसके लिये आवासीय विद्यालय सुधार गृह जैसा है।  
 
# अनेक ऐसे किस्से हैं जिनमें विद्यार्थी बहुत अधिक शरारती, उद्दण्ड है या घर में उसे देखने वाला, टोकने वाला कोई नहीं है तब उसे आवासीय विद्यालय में भेजा जाता है। उसके लिये आवासीय विद्यालय सुधार गृह जैसा है।  
# अतिधनाढ्य, अतिउच्चशिक्षित, अतिसत्ताधीशों के बच्चों को देश के अत्याधुनिक, अतिसमृद्ध आवासी विद्यालयों में भेजा जाता है । ये प्रतिष्ठा के दर्शक हैं और विशेष छाप लिये हुए हैं।  
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# अतिधनाढ्य, अतिउच्चशिक्षित, अतिसत्ताधीशों के बच्चोंं को देश के अत्याधुनिक, अतिसमृद्ध आवासी विद्यालयों में भेजा जाता है । ये प्रतिष्ठा के दर्शक हैं और विशेष छाप लिये हुए हैं।  
# अनाथ, गरीब, दलित, पिछड़ी जातियों के, वनवासी बच्चों के लिये सरकार की ओर से निःशुल्क आवासी विद्यालय चलाये जाते हैं जिन्हें आश्रमशाला कहा जाता है।  
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# अनाथ, गरीब, दलित, पिछड़ी जातियों के, वनवासी बच्चोंं के लिये सरकार की ओर से निःशुल्क आवासी विद्यालय चलाये जाते हैं जिन्हें आश्रमशाला कहा जाता है।  
 
# आध्यात्मिक केन्द्रों में, मठों में, वेदाध्ययन केन्द्रों में जो विद्यालय चलते हैं वे आवासीय ही होते हैं । कई शिक्षक प्रशिक्षण विद्यालय भी अनिवार्य रूप से आवासीय होते हैं।  
 
# आध्यात्मिक केन्द्रों में, मठों में, वेदाध्ययन केन्द्रों में जो विद्यालय चलते हैं वे आवासीय ही होते हैं । कई शिक्षक प्रशिक्षण विद्यालय भी अनिवार्य रूप से आवासीय होते हैं।  
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====== एक समझने लायक उदाहरण ======
 
====== एक समझने लायक उदाहरण ======
एक उदाहरण समझने लायक है। मजदूरी करना ही जिनका स्वाभाविक जीवनक्रम है ऐसी एक जाति का मुखिया चुनाव जीतकर विधायक बन गया । उसकी जाति में गरीबी और निरक्षरता की मात्रा बहुत अधिक थी। उसे लगा कि अपनी जाति के लडके और लडकियों के लिये शिक्षा का प्रबन्ध करना चाहिये । इसलिये उसने दो छात्रावास बनाये और एक विद्यालय बनाया। एक छात्रावास लडकियों के लिये और दूसरा लडकों के लिये था । वे छात्रावास सारी सुविधाओं से पूर्ण थे । कपडे धोने के लिये नौकर, सोने के लिये पलंग, भोजन के लिये स्टील के बर्तन और कुर्सी मेज । विद्यार्थियों को केवल अपने निवासकक्ष की स्वच्छता और अपने भोजन के बर्तनों की सफाई करने का ही काम था । भोजन, आवास, शिक्षा सब निःशुल्क था । ये सारे लडके और लडकियाँ ऐसे परिवारों से थे जहाँ एक छोटे कमरे में सात आठ लोग रहते थे, रूखा सूखा भोजन करते थे, कभी दान में मिले किसी के पुराने कपडे भी पहनते थे और सोने के लिये टाट या दरी ही मिलती थी। छात्रावास के जीवन का वैभव भोगकर एक दो वर्षों में तो सबकी आदतें ऐसी बिगड गई कि वे अब घर जाना नहीं चाहते थे, अपने माँबाप से सम्बन्ध बताने में लज्जा का अनुभव करते थे और छात्रावास में भी वे कहने लगे कि अब कक्ष की और बर्तनों की सफाई के लिये भी नौकर हो तो अच्छा है । उस विधायक को बार बार मन में प्रश्न उठ रहा था कि उसने अच्छा काम किया या बुरा, अपनी जाति के लडके-लडकियों का भला किया या बुरा । वास्तव में वह भला करना चाहता था परन्तु शिक्षा विषयक दृष्टि के अभाव में उसने सबको हानि पहुँचाई ।
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एक उदाहरण समझने लायक है। मजदूरी करना ही जिनका स्वाभाविक जीवनक्रम है ऐसी एक जाति का मुखिया चुनाव जीतकर विधायक बन गया । उसकी जाति में गरीबी और निरक्षरता की मात्रा बहुत अधिक थी। उसे लगा कि अपनी जाति के लडके और लडकियों के लिये शिक्षा का प्रबन्ध करना चाहिये । इसलिये उसने दो छात्रावास बनाये और एक विद्यालय बनाया। एक छात्रावास लडकियों के लिये और दूसरा लडकों के लिये था । वे छात्रावास सारी सुविधाओं से पूर्ण थे । कपड़े धोने के लिये नौकर, सोने के लिये पलंग, भोजन के लिये स्टील के बर्तन और कुर्सी मेज । विद्यार्थियों को केवल अपने निवासकक्ष की स्वच्छता और अपने भोजन के बर्तनों की सफाई करने का ही काम था । भोजन, आवास, शिक्षा सब निःशुल्क था । ये सारे लडके और लडकियाँ ऐसे परिवारों से थे जहाँ एक छोटे कमरे में सात आठ लोग रहते थे, रूखा सूखा भोजन करते थे, कभी दान में मिले किसी के पुराने कपड़े भी पहनते थे और सोने के लिये टाट या दरी ही मिलती थी। छात्रावास के जीवन का वैभव भोगकर एक दो वर्षों में तो सबकी आदतें ऐसी बिगड गई कि वे अब घर जाना नहीं चाहते थे, अपने माँबाप से सम्बन्ध बताने में लज्जा का अनुभव करते थे और छात्रावास में भी वे कहने लगे कि अब कक्ष की और बर्तनों की सफाई के लिये भी नौकर हो तो अच्छा है । उस विधायक को बार बार मन में प्रश्न उठ रहा था कि उसने अच्छा काम किया या बुरा, अपनी जाति के लडके-लडकियों का भला किया या बुरा । वास्तव में वह भला करना चाहता था परन्तु शिक्षा विषयक दृष्टि के अभाव में उसने सबको हानि पहुँचाई ।
    
यही बात बहुत धनाढ्यों के बच्चे जब आवासीय विद्यालयों में पढ़ते हैं तब वे अधिक उद्दण्ड और वास्तविक जीवन से विमुख बन जाते हैं। ऐसे विद्यालयों का कृत्रिम अनुशासन उन्हें हृदयशून्य बना देता है और वैभव उन्हें मदान्वित बनाता है।  
 
यही बात बहुत धनाढ्यों के बच्चे जब आवासीय विद्यालयों में पढ़ते हैं तब वे अधिक उद्दण्ड और वास्तविक जीवन से विमुख बन जाते हैं। ऐसे विद्यालयों का कृत्रिम अनुशासन उन्हें हृदयशून्य बना देता है और वैभव उन्हें मदान्वित बनाता है।  
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===== वर्तमान स्थिति =====
 
===== वर्तमान स्थिति =====
शिक्षा सरकार के लिये चिन्ता का विषय है । शिक्षा की व्यवस्था करना सरकार ने अपना दायित्व माना है । हमारे संविधान में छः से चौदह वर्ष की आयु तक शिक्षा को अनिवार्य बनाया है । अनिवार्य है इसीलिये निःशुल्क भी करना होता है । सरकार की इच्छा है कि देश के ६ से १४ वर्ष के बच्चों को प्राथमिक शिक्षा मिले । इस दृष्टि से छोटे छोटे गाँवों में भी सरकारी प्राथमिक विद्यालय होते हैं ।
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शिक्षा सरकार के लिये चिन्ता का विषय है । शिक्षा की व्यवस्था करना सरकार ने अपना दायित्व माना है । हमारे संविधान में छः से चौदह वर्ष की आयु तक शिक्षा को अनिवार्य बनाया है । अनिवार्य है इसीलिये निःशुल्क भी करना होता है । सरकार की इच्छा है कि देश के ६ से १४ वर्ष के बच्चोंं को प्राथमिक शिक्षा मिले । इस दृष्टि से छोटे छोटे गाँवों में भी सरकारी प्राथमिक विद्यालय होते हैं ।
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इनमें बच्चों के प्रवेश हों, उन्हें प्रोत्साहन मिले इस हेतु से प्रवेशोत्सव मनाये जाते हैं । विद्यार्थी मध्य में ही विद्यालय छोड़कर न जाय इसका भी ध्यान रखा जाता है । गरीबों को अपने बच्चों को पढ़ाने की सुविधा हो इस दृष्टि से मद्यत्ह्य भोजन योजना चलाई जाती है । बच्चों को पुस्तकें, गणवेश, बस्ता आदि भी दिया जाता है । सरकार अनेक प्रयास करती है। सर्व शिक्षा अभियान चलता है। तो भी सरकारी विद्यालयों की हालत अत्यन्त दयनीय और चिन्ताजनक है । आँकडे भी दयनीय स्थिति दर्शाते हैं जबकि वास्तविक स्थिति आँकडों से अधिक दयनीय होती है यह सब जानते हैं ।
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इनमें बच्चोंं के प्रवेश हों, उन्हें प्रोत्साहन मिले इस हेतु से प्रवेशोत्सव मनाये जाते हैं । विद्यार्थी मध्य में ही विद्यालय छोड़कर न जाय इसका भी ध्यान रखा जाता है । गरीबों को अपने बच्चोंं को पढ़ाने की सुविधा हो इस दृष्टि से मद्यत्ह्य भोजन योजना चलाई जाती है । बच्चोंं को पुस्तकें, गणवेश, बस्ता आदि भी दिया जाता है । सरकार अनेक प्रयास करती है। सर्व शिक्षा अभियान चलता है। तो भी सरकारी विद्यालयों की हालत अत्यन्त दयनीय और चिन्ताजनक है । आँकडे भी दयनीय स्थिति दर्शाते हैं जबकि वास्तविक स्थिति आँकडों से अधिक दयनीय होती है यह सब जानते हैं ।
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सरकारी प्राथमिक विद्यालयों की कोई प्रतिष्ठा नहीं है । प्रजा को इन विद्यालयों पर कोई भरोसा नहीं है । अब ऐसा कहा जाता है कि सरकारी विद्यालयों में अच्छे लोगोंं के बच्चे पढ़ते ही नहीं हैं, झुग्गी झोंपडियों में रहनेवाले, नशा करने वाले, असंस्कारी मातापिता के बच्चे पढते हैं जिनकी संगत में हमारे बच्चें बिगड जायेंगे । परन्तु यह तो परिणाम है । “अच्छे' घर के लोगोंं ने अपने बच्चों को भेजना बन्द किया इसलिये अब 'पिछडे' बच्चे रह गये हैं । दो पीढ़ियों पूर्व आज के विद्वान लोग भी सरकारी विद्यालयों में पढ़े हुए ही हैं । धीरे धीरे पढ़ाना बन्द हुआ इसलिये लोगोंं ने अपने बच्चों को भेजना बन्द किया । झुग्गी झॉंपडियों में नहीं रहनेवाले सुसंस्कृत और झुग्गी झेंपडियों में रहनेवाले पिछडे यह वर्गीकरण तो बडी भ्रान्ति है परन्तु इस भ्रान्ति को दूर करने की चिन्ता कोई नहीं करता, उल्टे उसका ही लोग फायदा उठाने का प्रयास करते हैं । सरकारी विद्यालयों के शिक्षक सदा शिकायत करते हैं कि हमारे यहाँ बच्चे पढने के लिये आते ही नहीं हैं, केवल खाने के लिये ही आते हैं, अच्छे घर के आते ही नहीं है तो हम किसे पढायें । यह भी सत्य नहीं है परन्तु इस सम्बन्ध में कोई प्रयास नहीं किया जाता ।
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सरकारी प्राथमिक विद्यालयों की कोई प्रतिष्ठा नहीं है । प्रजा को इन विद्यालयों पर कोई भरोसा नहीं है । अब ऐसा कहा जाता है कि सरकारी विद्यालयों में अच्छे लोगोंं के बच्चे पढ़ते ही नहीं हैं, झुग्गी झोंपडियों में रहनेवाले, नशा करने वाले, असंस्कारी मातापिता के बच्चे पढते हैं जिनकी संगत में हमारे बच्चें बिगड जायेंगे । परन्तु यह तो परिणाम है । “अच्छे' घर के लोगोंं ने अपने बच्चोंं को भेजना बन्द किया इसलिये अब 'पिछडे' बच्चे रह गये हैं । दो पीढ़ियों पूर्व आज के विद्वान लोग भी सरकारी विद्यालयों में पढ़े हुए ही हैं । धीरे धीरे पढ़ाना बन्द हुआ इसलिये लोगोंं ने अपने बच्चोंं को भेजना बन्द किया । झुग्गी झॉंपडियों में नहीं रहनेवाले सुसंस्कृत और झुग्गी झेंपडियों में रहनेवाले पिछडे यह वर्गीकरण तो बडी भ्रान्ति है परन्तु इस भ्रान्ति को दूर करने की चिन्ता कोई नहीं करता, उल्टे उसका ही लोग फायदा उठाने का प्रयास करते हैं । सरकारी विद्यालयों के शिक्षक सदा शिकायत करते हैं कि हमारे यहाँ बच्चे पढने के लिये आते ही नहीं हैं, केवल खाने के लिये ही आते हैं, अच्छे घर के आते ही नहीं है तो हम किसे पढायें । यह भी सत्य नहीं है परन्तु इस सम्बन्ध में कोई प्रयास नहीं किया जाता ।
    
अनेक बार लोगोंं द्वारा शिकायतें की जाती हैं, अखबारों में सचित्र समाचार छपते हैं कि गाँवों में विद्यालय के भवन अच्छे नहीं हैं, बैठने की, शौचालयों की सुविधा नहीं है, शिक्षकों की नियुक्ति नहीं हुई है, यदि हुई है तो वे शिक्षक आते नहीं हैं, अपने स्थान पर अन्य किसी नौसीखिये को भेजकर स्वयं दूसरा व्यवसाय करते हैं । इस बात में सचाई होने पर भी इस कारण से शिक्षा नहीं दी जा सकती ऐसा नहीं है । नगरों और महानगरों के प्राथमिक विद्यालयों में अच्छा भवन, अच्छा मैदान, शिक्षक, साधनसामग्री, विद्यार्थी सबकुछ है तो भी शिक्षा की स्थिति तो वैसी ही दयनीय है । इसका क्या कारण है ?
 
अनेक बार लोगोंं द्वारा शिकायतें की जाती हैं, अखबारों में सचित्र समाचार छपते हैं कि गाँवों में विद्यालय के भवन अच्छे नहीं हैं, बैठने की, शौचालयों की सुविधा नहीं है, शिक्षकों की नियुक्ति नहीं हुई है, यदि हुई है तो वे शिक्षक आते नहीं हैं, अपने स्थान पर अन्य किसी नौसीखिये को भेजकर स्वयं दूसरा व्यवसाय करते हैं । इस बात में सचाई होने पर भी इस कारण से शिक्षा नहीं दी जा सकती ऐसा नहीं है । नगरों और महानगरों के प्राथमिक विद्यालयों में अच्छा भवन, अच्छा मैदान, शिक्षक, साधनसामग्री, विद्यार्थी सबकुछ है तो भी शिक्षा की स्थिति तो वैसी ही दयनीय है । इसका क्या कारण है ?
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# इस तन्त्र में विवेक पक्षपात बन जाता है, इसलिये कोई अपनी दृष्टि से, अपनी पद्धति से, अपने विवेक से निर्णय नहीं कर सकता, कारवाई नहीं कर सकता । भले ही उल्टे सीधे, टेढे मेढे रास्ते निकाले जाय तो भी उन्हें नियम कानून के द्वारा न्याय्य ठहराने ही होते हैं । यन्त्र की व्यवस्था में ऐसा होना अनिवार्य है। कोई भी यन्त्र स्वतन्त्र व्यवहार कर ही नहीं । सकता । यदि करने लगता है तो पूरी व्यवस्था चरमरा जाती है। तात्पर्य यह है कि विशाल और व्यापक सरकारी तन्त्र को अ-मानवीय होना ही पड़ता है। सूझबूझ, कल्पनाशक्ति, अन्तर्दष्टि, देशकाल परिस्थिति के अनुसार स्वविवेक आदि इसमें सम्भव ही नहीं होते हैं। शिक्षा का स्वभाव इससे सर्वथा उल्टा है। उसे इन सबकी आवश्यकता होती है। परन्तु शिक्षक के हाथ में अधिकार नहीं है । अधिकार यान्त्रिक व्यवस्था के हैं। ऐसे अ-मानवीय तन्त्र में शिक्षा का विचार, शिक्षा की प्रक्रिया, शिक्षा के निर्णय, योजनायें, नीतियाँ शैक्षिक दृष्टि से, शैक्षिक पद्धति से नहीं लिये जाते हैं, लिये जाना सम्भव भी नहीं है। इसका परिणाम यह होता है कि विद्यालय, शिक्षक और विद्यार्थियों के होते हुए भी शिक्षा नहीं चलती।
 
# इस तन्त्र में विवेक पक्षपात बन जाता है, इसलिये कोई अपनी दृष्टि से, अपनी पद्धति से, अपने विवेक से निर्णय नहीं कर सकता, कारवाई नहीं कर सकता । भले ही उल्टे सीधे, टेढे मेढे रास्ते निकाले जाय तो भी उन्हें नियम कानून के द्वारा न्याय्य ठहराने ही होते हैं । यन्त्र की व्यवस्था में ऐसा होना अनिवार्य है। कोई भी यन्त्र स्वतन्त्र व्यवहार कर ही नहीं । सकता । यदि करने लगता है तो पूरी व्यवस्था चरमरा जाती है। तात्पर्य यह है कि विशाल और व्यापक सरकारी तन्त्र को अ-मानवीय होना ही पड़ता है। सूझबूझ, कल्पनाशक्ति, अन्तर्दष्टि, देशकाल परिस्थिति के अनुसार स्वविवेक आदि इसमें सम्भव ही नहीं होते हैं। शिक्षा का स्वभाव इससे सर्वथा उल्टा है। उसे इन सबकी आवश्यकता होती है। परन्तु शिक्षक के हाथ में अधिकार नहीं है । अधिकार यान्त्रिक व्यवस्था के हैं। ऐसे अ-मानवीय तन्त्र में शिक्षा का विचार, शिक्षा की प्रक्रिया, शिक्षा के निर्णय, योजनायें, नीतियाँ शैक्षिक दृष्टि से, शैक्षिक पद्धति से नहीं लिये जाते हैं, लिये जाना सम्भव भी नहीं है। इसका परिणाम यह होता है कि विद्यालय, शिक्षक और विद्यार्थियों के होते हुए भी शिक्षा नहीं चलती।
 
# इसका अर्थ यह नहीं है कि निजी प्राथमिक विद्यालयों में शिक्षा अच्छी चलती है। वहाँ अच्छी चलती दिखाई देती है इसके कारण वहाँ के शिक्षक नहीं हैं, वहाँ का तन्त्र है। सरकारी प्राथमिक विद्यालय में शिक्षा अच्छी नहीं चलती इसका कारण शिक्षक नहीं है वहाँ का तन्त्र है। सरकारी प्राथमिक विद्यालय में शिक्षा अच्छी नहीं चलती इसका कारण शिक्षक नहीं हैं तन्त्र है । निजी विद्यालयों में अच्छी चलती दिखाई दे रही है इसका कारण भी शिक्षक नहीं है, तन्त्र ही हैं । सरकारी तन्त्र बहुत बडा होने के कारण से और अ-मानवीय होने के कारण से वहाँ शिक्षक से ‘पढवाना' सम्भव नहीं होता । निजी विद्यालयों में तन्त्र छोटा होने के कारण से, मानवीय होने के कारण से शिक्षक से पढवाना' सम्भव होता है । सरकारी तन्त्र में नौकरी देने वाली व्यवस्था है, निजी तन्त्र में मनुष्य है । मनुष्य इच्छा, भावना, विवेक आदि से परिचालित होकर व्यवहार करता है। इसलिये यहाँ शिक्षक को पढाना पडता है । निजी विद्यालयों में शुल्क देनेवाला अभिभावक भी एक महत्व पूर्ण घटक है । अभिभावक और संचालक मिलकर शिक्षक को पढाने के लिये बाध्य कर सकते हैं।
 
# इसका अर्थ यह नहीं है कि निजी प्राथमिक विद्यालयों में शिक्षा अच्छी चलती है। वहाँ अच्छी चलती दिखाई देती है इसके कारण वहाँ के शिक्षक नहीं हैं, वहाँ का तन्त्र है। सरकारी प्राथमिक विद्यालय में शिक्षा अच्छी नहीं चलती इसका कारण शिक्षक नहीं है वहाँ का तन्त्र है। सरकारी प्राथमिक विद्यालय में शिक्षा अच्छी नहीं चलती इसका कारण शिक्षक नहीं हैं तन्त्र है । निजी विद्यालयों में अच्छी चलती दिखाई दे रही है इसका कारण भी शिक्षक नहीं है, तन्त्र ही हैं । सरकारी तन्त्र बहुत बडा होने के कारण से और अ-मानवीय होने के कारण से वहाँ शिक्षक से ‘पढवाना' सम्भव नहीं होता । निजी विद्यालयों में तन्त्र छोटा होने के कारण से, मानवीय होने के कारण से शिक्षक से पढवाना' सम्भव होता है । सरकारी तन्त्र में नौकरी देने वाली व्यवस्था है, निजी तन्त्र में मनुष्य है । मनुष्य इच्छा, भावना, विवेक आदि से परिचालित होकर व्यवहार करता है। इसलिये यहाँ शिक्षक को पढाना पडता है । निजी विद्यालयों में शुल्क देनेवाला अभिभावक भी एक महत्व पूर्ण घटक है । अभिभावक और संचालक मिलकर शिक्षक को पढाने के लिये बाध्य कर सकते हैं।
# इस कारण से जो शुल्क दे सकते हैं ऐसे अभिभावक सरकारी विद्यालयों में अपनी सन्तानों को भेजना पसन्द नहीं करते । सरकारी विद्यालय तो चलेंगे ही क्योंकि उन्हें चलाना सरकारी बाध्यता है, परन्तु उसमें पढने के लिये कोई जायेगा नहीं । इसस्थिति में लालच देकर पढने के लिये बुलाना पडता है । अब जो आते हैं वे भोजन, कपडे आदि के आकर्षण से आते हैं, भोजन करके भाग जाते हैं। शिक्षक उनके इतने विमुख है कि वे भगा भी देते हैं ।
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# इस कारण से जो शुल्क दे सकते हैं ऐसे अभिभावक सरकारी विद्यालयों में अपनी सन्तानों को भेजना पसन्द नहीं करते । सरकारी विद्यालय तो चलेंगे ही क्योंकि उन्हें चलाना सरकारी बाध्यता है, परन्तु उसमें पढने के लिये कोई जायेगा नहीं । इसस्थिति में लालच देकर पढने के लिये बुलाना पडता है । अब जो आते हैं वे भोजन, कपड़े आदि के आकर्षण से आते हैं, भोजन करके भाग जाते हैं। शिक्षक उनके इतने विमुख है कि वे भगा भी देते हैं ।
    
===== उपाय क्या है =====
 
===== उपाय क्या है =====
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# प्रबोधन की आवश्यकता सरकार को भी है । सरकारी प्राथमिक शिक्षकों के पास पढाने के अतिरिक्त इतने अधिक काम रहते हैं कि वे पढाने का काम कम कर पाते हैं। उदाहरण के लिये जनगणना, विभिन्न प्रकार के सर्वेक्षण, चुनाव के समय जानकारी पहुँचाने का काम आदि विभिन्न सरकारी योजनाओं का काम प्राथमिक शिक्षकों को करना पडता है। शिक्षक और अभिभावक इससे तंग आ जाते हैं। यदि सरकारी विद्यालय ठीक से चलते हैं तो शिक्षकों को इस प्रकार की व्यस्तता से मुक्त करना होगा । अ-मानवीयतन्त्र सहजता से ऐसा करता नहीं है इसलिये उसके लिये प्रबोधन की अधिक आवश्यकता होगी।
 
# प्रबोधन की आवश्यकता सरकार को भी है । सरकारी प्राथमिक शिक्षकों के पास पढाने के अतिरिक्त इतने अधिक काम रहते हैं कि वे पढाने का काम कम कर पाते हैं। उदाहरण के लिये जनगणना, विभिन्न प्रकार के सर्वेक्षण, चुनाव के समय जानकारी पहुँचाने का काम आदि विभिन्न सरकारी योजनाओं का काम प्राथमिक शिक्षकों को करना पडता है। शिक्षक और अभिभावक इससे तंग आ जाते हैं। यदि सरकारी विद्यालय ठीक से चलते हैं तो शिक्षकों को इस प्रकार की व्यस्तता से मुक्त करना होगा । अ-मानवीयतन्त्र सहजता से ऐसा करता नहीं है इसलिये उसके लिये प्रबोधन की अधिक आवश्यकता होगी।
 
# प्रबोधन का कार्य निःस्वार्थ लोग या संस्थायें ही कर सकती हैं। यदि वे भी किसी प्रकार के लाभ की अपेक्षा करेंगे तो राजकीय पक्ष उनका लाभ उठायेंगे । फिर प्रबोधन भी एक व्यवसाय बन जायेगा। सरकार यदि अपनी प्रतिष्ठा बढाने हेतु पैसे का आधार लेती है तो उसका लाभ उठाने वाले तत्व निकल आयेंगे । इसलिये स्वेच्छा से, निरपेक्ष भाव से, समाजसेवा करने वाले लोग ही शिक्षा की तथा समाज की सेवा करने की दृष्टि से अभिभावक और सरकार का प्रबोधन करने का काम करेंगे तो कुछ परिणाम मिलने की सम्भावना है।
 
# प्रबोधन का कार्य निःस्वार्थ लोग या संस्थायें ही कर सकती हैं। यदि वे भी किसी प्रकार के लाभ की अपेक्षा करेंगे तो राजकीय पक्ष उनका लाभ उठायेंगे । फिर प्रबोधन भी एक व्यवसाय बन जायेगा। सरकार यदि अपनी प्रतिष्ठा बढाने हेतु पैसे का आधार लेती है तो उसका लाभ उठाने वाले तत्व निकल आयेंगे । इसलिये स्वेच्छा से, निरपेक्ष भाव से, समाजसेवा करने वाले लोग ही शिक्षा की तथा समाज की सेवा करने की दृष्टि से अभिभावक और सरकार का प्रबोधन करने का काम करेंगे तो कुछ परिणाम मिलने की सम्भावना है।
# कई सेवाभावी संस्थायें सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में भोजन, शैक्षिक सामग्री, कपडे आदि की सहायता करते हैं । कई संस्थायें यहाँ के विद्यार्थियों के लिये पढाने की और संस्कार देने की अतिरिक्त व्यवस्था करते हैं । यह इसी कारण से करते हैं क्योंकि सब जानते हैं कि इन विद्यालयों में पढाई होती नहीं है। यह अच्छा है, परन्तु इससे भी अच्छा यह है कि सब मिलकर शिक्षकों को पढाने हेतु प्रेरित करें । अभिभावक और अन्य संस्थायें मूल प्रश्न की ओर ध्यान न देकर मध्य में से रास्ता निकालने का प्रयास करते हैं। इससे तो कुल मिलाकर लाभ के स्थान पर हानि ही अधिक होती है ।
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# कई सेवाभावी संस्थायें सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में भोजन, शैक्षिक सामग्री, कपड़े आदि की सहायता करते हैं । कई संस्थायें यहाँ के विद्यार्थियों के लिये पढाने की और संस्कार देने की अतिरिक्त व्यवस्था करते हैं । यह इसी कारण से करते हैं क्योंकि सब जानते हैं कि इन विद्यालयों में पढाई होती नहीं है। यह अच्छा है, परन्तु इससे भी अच्छा यह है कि सब मिलकर शिक्षकों को पढाने हेतु प्रेरित करें । अभिभावक और अन्य संस्थायें मूल प्रश्न की ओर ध्यान न देकर मध्य में से रास्ता निकालने का प्रयास करते हैं। इससे तो कुल मिलाकर लाभ के स्थान पर हानि ही अधिक होती है ।
 
# एक ओर तो सरकारी प्राथमिक विद्यालयों को प्रबोधन और प्रेरणा के माध्यम से पुष्ट करने का काम करना चाहिये, दूसरी ओर सरकार से मुक्त करने का भी प्रयास होना चाहिये । वास्तव में शिक्षा सरकार की जिम्मेदारी नहीं है, अंग्रेजी शासन के प्रभाव में यह सरकार की बाध्यता बन गई है । सरकारी ढंग से चलने वाला कोई भी काम ऐसे ही चलेगा । इसमें सरकार का दोष नहीं है । लोकतन्त्र में भी ऐसे ही चलेगा । इसमें लोकतन्त्र का भी दोष नहीं है । वास्तव में शिक्षा यदि इस प्रकार चलनी है तो समाज शिक्षित होगा ऐसी अपेक्षा ही नहीं करनी चाहिये । सरकार से मुक्त होने पर ही कुछ किया जा सकता है। सरकार से शिक्षा को मुक्त करने के लिये समाज को इस दायित्व को स्वीकार करना होगा । समाज आज इस मानसिकता में नहीं है। निजी संस्थायें कुछ विद्यालय तो चला लेंगी परन्तु देश की इतनी जनसंख्या के लिये आवश्यक है उतनी संख्या में विद्यालय चलाना उसके बस की बात नहीं। यह भी समाज प्रबोधन का ही बहुत बडा विषय है। शिक्षा की स्वायत्तता की माँग करने वाले लोगोंं और संगठनों को इस विषय में विचार करना होगा।
 
# एक ओर तो सरकारी प्राथमिक विद्यालयों को प्रबोधन और प्रेरणा के माध्यम से पुष्ट करने का काम करना चाहिये, दूसरी ओर सरकार से मुक्त करने का भी प्रयास होना चाहिये । वास्तव में शिक्षा सरकार की जिम्मेदारी नहीं है, अंग्रेजी शासन के प्रभाव में यह सरकार की बाध्यता बन गई है । सरकारी ढंग से चलने वाला कोई भी काम ऐसे ही चलेगा । इसमें सरकार का दोष नहीं है । लोकतन्त्र में भी ऐसे ही चलेगा । इसमें लोकतन्त्र का भी दोष नहीं है । वास्तव में शिक्षा यदि इस प्रकार चलनी है तो समाज शिक्षित होगा ऐसी अपेक्षा ही नहीं करनी चाहिये । सरकार से मुक्त होने पर ही कुछ किया जा सकता है। सरकार से शिक्षा को मुक्त करने के लिये समाज को इस दायित्व को स्वीकार करना होगा । समाज आज इस मानसिकता में नहीं है। निजी संस्थायें कुछ विद्यालय तो चला लेंगी परन्तु देश की इतनी जनसंख्या के लिये आवश्यक है उतनी संख्या में विद्यालय चलाना उसके बस की बात नहीं। यह भी समाज प्रबोधन का ही बहुत बडा विषय है। शिक्षा की स्वायत्तता की माँग करने वाले लोगोंं और संगठनों को इस विषय में विचार करना होगा।
 
# कुछ इस प्रकार उपाय हो सकते हैं।
 
# कुछ इस प्रकार उपाय हो सकते हैं।
## सभी शिक्षित मातापिता अपने बच्चों को स्वयं पढायेंगे, साथ ही जो स्वयं अपने बच्चों को नहीं पढा सकते ऐसे मातापिता को बच्चों को भी पढायेंगे ऐसा विचार प्रस्तुत करना चाहिये । भोजन, वस्त्र, औषध आदि की व्यवस्था जिस प्रकार अपनी जिम्मेदारी पर की जाती है उसी प्रकार शिक्षा की भी व्यवस्था की जाय इसमें कुछ अस्वाभाविक नहीं लगना चाहिये ।
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## सभी शिक्षित मातापिता अपने बच्चोंं को स्वयं पढायेंगे, साथ ही जो स्वयं अपने बच्चोंं को नहीं पढा सकते ऐसे मातापिता को बच्चोंं को भी पढायेंगे ऐसा विचार प्रस्तुत करना चाहिये । भोजन, वस्त्र, औषध आदि की व्यवस्था जिस प्रकार अपनी जिम्मेदारी पर की जाती है उसी प्रकार शिक्षा की भी व्यवस्था की जाय इसमें कुछ अस्वाभाविक नहीं लगना चाहिये ।
 
## दस वर्ष की आयु तक की शिक्षा तो इसी प्रकार से चल सकती है । चलनी भी चाहिये । एक शिक्षक को पाँच विद्यार्थी होना शिक्षा मनोविज्ञान की दृष्टि से भी बहुत अच्छा होगा दस वर्ष की आयु के बाद कुछ सामूहिक शिक्षा की व्यवस्था का विचार करना होगा । हर सोसाइटी अपना अपना विद्यालय भी चलाये ऐसा प्रचलन आरम्भ हो सकता है।। सोसाइटी में जिस प्रकार कॉमन प्लॉट होता है, कम्युनिटी हॉल होता है, कई कॉलनियों में तरणताल और जिम होते हैं उसी प्रकार से विद्यालय भी हो सकता है, होना चाहिये । पन्द्रह वर्ष की आयु तक ऐसा विद्यालय चल सकता है ।
 
## दस वर्ष की आयु तक की शिक्षा तो इसी प्रकार से चल सकती है । चलनी भी चाहिये । एक शिक्षक को पाँच विद्यार्थी होना शिक्षा मनोविज्ञान की दृष्टि से भी बहुत अच्छा होगा दस वर्ष की आयु के बाद कुछ सामूहिक शिक्षा की व्यवस्था का विचार करना होगा । हर सोसाइटी अपना अपना विद्यालय भी चलाये ऐसा प्रचलन आरम्भ हो सकता है।। सोसाइटी में जिस प्रकार कॉमन प्लॉट होता है, कम्युनिटी हॉल होता है, कई कॉलनियों में तरणताल और जिम होते हैं उसी प्रकार से विद्यालय भी हो सकता है, होना चाहिये । पन्द्रह वर्ष की आयु तक ऐसा विद्यालय चल सकता है ।
 
## उद्योगगृहों को अपने कर्मचारियों की सन्तानों की शिक्षा की व्यवस्था करने का आग्रह होना चाहिये । ये प्राथमिक विद्यालय ही होंगे । दस वर्ष की आयु तक ऐसी शिक्षा दी जायेगी।
 
## उद्योगगृहों को अपने कर्मचारियों की सन्तानों की शिक्षा की व्यवस्था करने का आग्रह होना चाहिये । ये प्राथमिक विद्यालय ही होंगे । दस वर्ष की आयु तक ऐसी शिक्षा दी जायेगी।

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