Difference between revisions of "सम्पूर्ण शिक्षा क्षेत्र का विचार"

From Dharmawiki
Jump to navigation Jump to search
m (Text replacement - "जुडे" to "जुड़े")
 
(33 intermediate revisions by 3 users not shown)
Line 1: Line 1:
=== अध्याय १५ ===
+
{{One source}}
  
 
==== शिक्षा धर्म सिखाती है ====
 
==== शिक्षा धर्म सिखाती है ====
यह निरन्तर प्रतिपादन हो रहा है कि शिक्षा धर्म सिखाती है । तो प्रश्न यह होगा कि धर्माचार्य ही धर्म क्यों नहीं सिखाते ? धर्म सिखाने के लिये शिक्षक क्यों चाहिये ?
+
यह निरन्तर प्रतिपादन हो रहा है कि शिक्षा धर्म सिखाती है <ref>धार्मिक शिक्षा के व्यावहारिक आयाम (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला ३): पर्व ४: अध्याय १५, प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे</ref>। तो प्रश्न यह होगा कि धर्माचार्य ही धर्म क्यों नहीं सिखाते ? धर्म सिखाने के लिये शिक्षक क्यों चाहिये ?
  
धर्म और शिक्षा का सम्बन्ध साध्य और साधन जैसा है। धर्म के बारे में हमने अनेक बार चर्चा की ही है वह
+
धर्म और शिक्षा का सम्बन्ध साध्य और साधन जैसा है। धर्म के बारे में हमने अनेक बार चर्चा की ही है वह एक विश्वनियम है जिससे व्यक्ति से लेकर सृष्टि तक सबकी धारणा होती है । इन नियमों के अनुसार जब समष्टिजीवन का व्यवहार चलता है, तब धर्म संस्कृति का रूप धारण करता है । इस व्यवहार और संस्कृति को एक पीढ़ी से दूसरी पीढी तक पहुँचाने की जो व्यवस्था है वह शिक्षा है । तात्पर्य यही है कि धर्म, धर्म का व्यवहार और धर्म का हस्तान्तरण एक दूसरे के साथ अविनाभाव सम्बन्ध से जुड़े हैं। धर्माचार्य धर्म को जानता है, उसे व्यवहार्य बनाता है, देशकाल परिस्थिति के अनुसार उसमें परिष्कार करता है, समष्टिनियमों का सृष्टिनियमों के साथ समायोजन करता है । धर्माचार्य धर्म कहता है । धर्माचार्य जो कहता है, उसे लोगोंं तक पहुँचाने का कार्य शिक्षा का है ।
एक विश्वनियम है जिससे व्यक्ति से लेकर सृष्टि तक सबकी धारणा होती है । इन नियमों के अनुसार जब सम्टिजीवन का व्यवहार चलता है तब धर्म संस्कृति का रूप धारण करता है । इस व्यवहार और संस्कृति को एक पीढ़ी से दूसरी पीढी तक पहुँचाने की जो व्यवस्था है वह शिक्षा है । तात्पर्य यही है कि धर्म, धर्म का व्यवहार और धर्म का हस्तान्तरण एकदूसरे के साथ अविनाभाव सम्बन्ध से जुडे हैं। धर्माचार्य धर्म को जानता है, उसे व्यवहार्य बनाता है, देशकाल परिस्थिति के अनुसार उसमें परिष्कार करता है, समष्टिनियमों का सृष्टिनियमों के साथ समायोजन करता है । धर्माचार्य धर्म कहता है । धर्माचार्य जो कहता है उसे लोगों तक पहुँचाने का कार्य शिक्षा का है ।
 
  
यदि भारतीय समाज धर्मनिष्ठ है और वह अर्थनिष्ठ बन गया है तो उसे पुनः धर्मनिष्ठ बनाने में धर्माचार्य की भूमिका महत्त्वपूर्ण है । उसके बिना धर्म की प्रतिष्ठा नहीं होगी और भारत भारत नहीं होगा ।
+
यदि धार्मिक समाज धर्मनिष्ठ है और वह अर्थनिष्ठ बन गया है तो उसे पुनः धर्मनिष्ठ बनाने में धर्माचार्य की भूमिका महत्त्वपूर्ण है । उसके बिना धर्म की प्रतिष्ठा नहीं होगी और भारत भारत नहीं होगा ।
  
 
==== धर्माचार्य किसे कहेंगे ? ====
 
==== धर्माचार्य किसे कहेंगे ? ====
धर्माचार्य कौन है ? जो विशिष्ट प्रकार के तिलक, माला, केश, वेश धारण करता है वह धर्माचार्य नहीं है । जो किसी एक सम्प्रदाय का प्रवर्तक या गादीपति है वही धर्माचार्य नहीं है । जिसने संन्यास की दीक्षा ली है वही धर्माचार्य नहीं है । जटा, शिखा आदि रखता है वही धर्माचार्य नहीं है । ये सबके सब सम्प्रदाय के चिक्नविशेष हैं । सम्प्रदाय धर्म का एक अंग अवश्य हैं परन्तु समग्रता में धर्म नहीं हैं ।
+
धर्माचार्य कौन है ? जो विशिष्ट प्रकार के तिलक, माला, केश, वेश धारण करता है वह धर्माचार्य नहीं है। जो किसी एक सम्प्रदाय का प्रवर्तक या गादीपति है वही धर्माचार्य नहीं है। जिसने संन्यास की दीक्षा ली है वही धर्माचार्य नहीं है। जटा, शिखा आदि रखता है वही धर्माचार्य नहीं है । ये सबके सब सम्प्रदाय के चिह्नविशेष हैं। सम्प्रदाय धर्म का एक अंग अवश्य हैं, परन्तु समग्रता में धर्म नहीं हैं ।
  
धर्माचार्य पूर्व में कहे अनुसार वह है जो धर्म को जानता है, धर्मशास्त्र की रचना करता है और उसे बताता है। हम कह सकते हैं कि धर्माचार्य धर्म के शासन में शासक है । शिक्षाचार्य उसके अमात्य हैं । शिक्षा धर्म का अनुसरण करती है । अतः धर्माचार्य और शिक्षक एकदूसरे के पूरक हैं ।
+
धर्माचार्य पूर्व में कहे अनुसार वह है जो धर्म को जानता है, धर्मशास्त्र की रचना करता है और उसे बताता है। हम कह सकते हैं कि धर्माचार्य धर्म के शासन में शासक है। शिक्षाचार्य उसके अमात्य हैं । शिक्षा धर्म का अनुसरण करती है । अतः धर्माचार्य और शिक्षक एकदूसरे के पूरक हैं ।
  
धर्माचार्य और शिक्षक एकदूसरे का स्थान ले सकते है। हम यह भी कह सकते हैं कि शिक्षाक्षेत्र का सर्वोच्च
+
धर्माचार्य और शिक्षक एकदूसरे का स्थान ले सकते है। हम यह भी कह सकते हैं कि शिक्षाक्षेत्र का सर्वोच्च पद धर्माचार्य का ही होगा हम धर्म और शिक्षा को अलग कर ही नहीं सकते ।
पद धर्माचार्य का ही होगा हम धर्म और शिक्षा को अलग कर ही नहीं सकते ।
 
  
आज हम क्या करें ?
+
==== आज हम क्या करें ? ====
 +
भारत को यदि धर्मनिष्ठ बनाना है तो हमें धर्माचार्यों की आवश्यकता है । वर्तमान में जो धर्माचार्य के नाम से अपने आपको प्रस्तुत करते हैं उन्हें अपनी भूमिका को अधिक व्यापक बनाने की आवश्यकता है । उदाहरण के लिये वर्तमान में धर्मक्षेत्र - आचरण, पूजा, भक्ति, अध्यात्मचर्चा, योग आदि में सीमित बन गया है । अर्थक्षेत्र, राजनीति का क्षेत्र, शिक्षा क्षेत्र आदि व्यष्टि जीवन और समष्टिजीवन का नियमन करने वाले महत्त्वपूर्ण क्षेत्र धर्म के दायरे से बाहर रह गये हैं । दिखाई तो यह देता है कि ये सारी व्यवस्थायें आज के धर्मक्षेत्र को भी नियन्त्रित कर रही हैं। अथवा कहें कि उन्होंने इन व्यवस्थाओं के साथ अनुकूलन बना लिया है। उदाहरण के लिये अनेक धर्माचार्यों के, मठों के, मन्दिरों के आश्रय में अंग्रेजी माध्यम के विद्यालय चलते हैं, देश से बाहर के शिक्षा बोर्ड के साथ संलग्न भी होते हैं, प्लास्टिक का भरपूर प्रयोग वहाँ होता है और सरकारी नियमों से ही वहाँ शिक्षा होती है । इन विद्यालयों में धर्म सिखाने वाली शिक्षा नहीं होती । धर्माचार्यों के प्रश्नय में निःशुल्क शिक्षा भी चलती है परन्तु वह धर्मादाय है, शिक्षा का सम्मान नहीं है । अर्थक्षेत्र को नियमन में लाना वर्तमान धर्मक्षेत्र के दायरे से बाहर ही रह गया है जबकि भारत की प्रथम आवश्यकता अर्थक्षेत्र के नियमन की है ।
  
भारत को यदि धर्मनिष्ठ बनाना है तो हमें धर्माचार्यों की आवश्यकता है । वर्तमान में जो धर्माचार्य के नाम से अपने आपको प्रस्तुत करते हैं उन्हें अपनी भूमिका को अधिक व्यापक बनाने की आवश्यकता है । उदाहरण के
+
धर्म जीवनव्यापी है, सृष्टिव्यापी है। आज उसे संकुचित बना दिया गया है । धर्म को सर्वव्यापक बनाने की प्रथम आवश्यकता है। उसे ऐसा बनाने वाले धर्माचार्य की आवश्यकता है ।
लिये. वर्तमान में  धर्मक्षेत्र आचरण, पूजा, भक्ति, अध्यात्मचर्चा, योग आदि में सीमित बन गया है । अर्थक्षेत्र, राजनीति का क्षेत्र, शिक्षा क्षेत्र आदि व्यष्टि जीवन और समश्टिजीवन का नियमन करने वाले महत्त्वपूर्ण क्षेत्र धर्म के दायरे से बाहर रह गये हैं । दिखाई तो यह देता है कि ये सारी व्यवस्थायें आज के धर्मक्षेत्र को भी नियन्त्रित कर रही हैं। अथवा कहें कि उन्होंने इन व्यवस्थाओं के साथ अनुकूलन बना लिया है। उदाहरण के लिये अनेक धर्माचार्यों के, मठों के, मन्दिरों के आश्रय में अंग्रेजी माध्यम के विद्यालय चलते हैं, देश से बाहर के शिक्षा बोर्ड के साथ संलग्न भी होते हैं, प्लास्टीक का भरपूर प्रयोग वहाँ होता है और सरकारी नियमों से ही वहाँ शिक्षा होती है । इन विद्यालयों में धर्म सिखाने वाली शिक्षा नहीं होती । धर्माचार्यों के प्रश्नय में निःशुल्क शिक्षा भी चलती है परन्तु वह धर्मादाय है, शिक्षा का सम्मान नहीं है । अर्थक्षेत्र को नियमन में लाना वर्तमान धर्मक्षेत्र के दायरे से बाहर ही रह गया है जबकि भारत की प्रथम आवश्यकता अर्थक्षेत्र के नियमन की है ।
 
 
 
धर्म जीवनव्यापी है, सृष्टिव्यापी है। आज उसे संकुचित बना दिया गया है । धर्म को सर्वव्यापक बनाने की
 
प्रथम आवश्यकता है । उसे ऐसा बनाने वाले धर्माचार्य की आवश्यकता है ।
 
  
 
ऐसे धर्माचार्य कैसे प्राप्त होंगे ?
 
ऐसे धर्माचार्य कैसे प्राप्त होंगे ?
Line 31: Line 26:
 
==== तप के उदाहरण ====
 
==== तप के उदाहरण ====
 
तप कहते ही हमारे सामने अनेक प्राचीन उदाहरण आते हैं ।  
 
तप कहते ही हमारे सामने अनेक प्राचीन उदाहरण आते हैं ।  
* राजा भगीरथने गंगा नदी को स्वर्ग से पृथ्वी पर लाने के लिये तप किया |
+
* राजा भगीरथ ने गंगा नदी को स्वर्ग से पृथ्वी पर लाने के लिये तप किया |
 
* बालक ध्रुव ने अपने पिता का स्नेह प्राप्त करने के लिये तप किया |
 
* बालक ध्रुव ने अपने पिता का स्नेह प्राप्त करने के लिये तप किया |
* अर्जुनने पाशुपतास्त्र प्राप्त करने के लिये तप किया |
+
* अर्जुन ने पाशुपतास्त्र प्राप्त करने के लिये तप किया |
 
* पार्वती ने शंकर को पति के रूप में प्राप्त करने हेतु तप किया ।
 
* पार्वती ने शंकर को पति के रूप में प्राप्त करने हेतु तप किया ।
* अनेक ऋ्रषिमुनि अपने संकल्प की सिद्धि हेतु तप करते हैं ।
+
* अनेक ऋषि मुनि अपने संकल्प की सिद्धि हेतु तप करते हैं ।
* भूगु ने अपने पिता से ब्रह्म क्या है ऐसा पूछा तब पिताने कहा कि तप करो और ब्रह्म को जानो ।
+
* भृगु ने अपने पिता से पूछा - ब्रह्म क्या है ? तब पिता ने कहा कि तप करो और ब्रह्म को जानो ।
* विश्वामित्र ने तप किया और राजर्षि से ब्रह्मार्षि है
+
* विश्वामित्र ने तप किया और राजर्षि से ब्रह्मार्षि हुए
 
तात्पर्य यह है कि ऐसा कोई काम नहीं है जो तप से सिद्ध नही होता, और ऐसा कोई श्रेष्ठ काम नहीं है जो बिना तप के सिद्ध हो जाता है ।
 
तात्पर्य यह है कि ऐसा कोई काम नहीं है जो तप से सिद्ध नही होता, और ऐसा कोई श्रेष्ठ काम नहीं है जो बिना तप के सिद्ध हो जाता है ।
  
तप कहते ही हमारे सामने बालक श्रुव अरप्य में अकेला एक पैर पर खडा हुआ नारायण का जप करता हुआ दिखाई देता है । पार्वती चारों ओर अग्नि है और बीच
+
तप कहते ही हमारे सामने बालक ध्रुव अरण्य में अकेला एक पैर पर खडा हुआ नारायण का जप करता हुआ दिखाई देता है। पार्वती चारों ओर अग्नि है और मध्य में बैठी है और उपर से प्रखर सूर्य तप रहा है ऐसा पंचाग्नि का ताप सहती हुई निराहार, निर्जला रहती हुई दिखाई देती है । अर्जुन, भगीरथ, विश्वामित्र आदि सब इसी प्रकार की घोर तपश्चर्या करते हैं । यह सब सुनकर और सोचकर ऐसा लगता है कि आज तो ऐसा तप सम्भव ही नहीं है। सम्भव है भी तो कोई करने के लिये अपने आपको प्रस्तुत करे यह सम्भव नहीं है।
में बैठी है और उपर से प्रखर सूर्य तप रहा है ऐसा पंचाग़ि का ताप सहती हुई निराहार, निर्जला रहती हुई दिखाई देती है । अर्जुन, भगीरथ, विश्वामित्र आदि सब इसी प्रकार की घोर तपश्चर्या करते हैं ।
 
  
यह सब सुनकर और सोचकर ऐसा लगता है कि आज तो ऐसा तप सम्भव ही नहीं है। सम्भव है भी तो कोई करने के लिये अपने आपको प्रस्तुत करे यह सम्भव नहीं है ।
+
परन्तु इस प्रकार तप आज के समय में असम्भव है, ऐसा मानने से या स्वीकार कर लेने से हमारी समस्या दूर होने वाली नहीं है । समस्या तो दूर करनी ही है । अतः तप नहीं हो सकता ऐसा कहने के स्थान, पर तप कैसे हो सकता है इसका विचार करना चाहिये
  
परन्तु इस प्रकार तप को आज के समय में असम्भव है ऐसा मानने से या स्वीकार कर लेने से हमारी समस्या दूर होने वाली नहीं है । समस्या तो दूर करनी ही है । अतः तप नहीं हो सकता ऐसा कहने के स्थान पर तप कैसे हो सकता है इसका विचार करना चाहिये
+
खास बात यह है कि यह कलियुग है। कलियुग में मनुष्य की शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक शक्ति भी क्षीण हो जाती हैं। कठोर तप करने की शक्ति भी क्षीण हो जाती है । इसलिये हमें लगता है कि सत्ययुग और त्रेतायुग में अनेक लोगोंं ने जो कठोर तप किये थे वैसे तप आज नहीं हो सकते । यह बात ठीक है परन्तु यह बात भी सत्य है कि उस समय जितना कठोर तप करने पर सिद्धि मिलती थी उतना कठोर तप आज कलियुग में नहीं करना पडता है । उससे बहुत कम तप करने पर भी संकल्प की सिद्धि होती है। यह हमारे लिये बहुत बडा आश्वासन है ।
  
खास बात यह है कि यह कलियुग है । कलियुग में मनुष्य की शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक शक्ति भी क्षीण हो जाती हैं । कठोर तप करने की शक्ति भी क्षीण हो जाती है । इसलिये हमें लगता है कि सत्ययुग और त्रेतायुग में अनेक लोगों ने जो कठोर तप किये थे वैसे तप आज नहीं हो सकते । यह बात ठीक है परन्तु यह बात भी सत्य है कि उस समय जितना कठोर तप करने पर सिद्धि मिलती थी उतना कठोर तप आज कलियुग में नहीं करना पडता है । उससे बहुत कम तप करने पर भी संकल्प की सिद्धि होती है । यह हमारे लिये बहुत बडा आश्वासन है ।
+
इन बातों को ध्यान में रखकर हमें धर्माचार्यों और समाज को तप कैसे करना चाहिये इसका विचार करना है ।
 
 
इन बातों को ध्यान में रखकर हमें धर्माचार्यों और
 
समाज को तप कैसे करना चाहिये इसका विचार करना है ।
 
  
 
==== धर्माचार्यों के लिये तप ====
 
==== धर्माचार्यों के लिये तप ====
धर्माचार्यों का दायित्व शेष समाज से अधिक है क्योंकि उन्हें समाज का मार्गदर्शन करना है । समाज भी उनका सम्मान करता है । समाजव्यवस्था की जो श्रेणियों बनी हैं उनमें धर्माचार्य सबसे ऊपर हैं क्योंकि भारतीय समाज धर्मनिष्ठ है । भारत में जो बडा है उसे ही अपने साथ अधिक कठोर बनना है। बड़ों को कर्तव्य का विचार प्रथम करना है, भोग और सुविधा के बारे में अपने आपको अन्त में रखना है। इस तथ्य का स्वीकार करना तप का प्रथम चरण है।  
+
धर्माचार्यों का दायित्व शेष समाज से अधिक है क्योंकि उन्हें समाज का मार्गदर्शन करना है । समाज भी उनका सम्मान करता है । समाजव्यवस्था की जो श्रेणियों बनी हैं उनमें धर्माचार्य सबसे ऊपर हैं क्योंकि धार्मिक समाज धर्मनिष्ठ है । भारत में जो बडा है उसे ही अपने साथ अधिक कठोर बनना है। बड़ों को कर्तव्य का विचार प्रथम करना है, भोग और सुविधा के बारे में अपने आपको अन्त में रखना है। इस तथ्य का स्वीकार करना तप का प्रथम चरण है।  
  
तप त्याग की अपेक्षा करता है । वर्तमान स्थिति को देखते हुए प्रथम त्याग सम्मान और प्रतिष्ठा का करना होगा। आज अनुयायिओं की ओर से जो सम्मान मिलता है और उसके कारण जो प्रतिष्ठा मिलती है वह हमें तप नहीं करने देती। इन दो बातों के लिये सिद्धता करेंगे तो आगे के तप के लिये भी सिद्धता होगी।  
+
तप त्याग की अपेक्षा करता है । वर्तमान स्थिति को देखते हुए प्रथम त्याग, सम्मान और प्रतिष्ठा का करना होगा। आज अनुयायियों की ओर से जो सम्मान मिलता है और उसके कारण जो प्रतिष्ठा मिलती है, वह हमें तप नहीं करने देती। इन दो बातों के लिये सिद्धता करेंगे तो आगे के तप के लिये भी सिद्धता होगी।  
  
धर्माचार्यों को आज बौद्धिक तप की बहुत आवश्यकता है । इस तप के मुख्य आयाम इस प्रकार हैं...
+
धर्माचार्यों को आज बौद्धिक तप की बहुत आवश्यकता है । इस तप के मुख्य आयाम इस प्रकार हैं:
  
अनुयायिओं की ओर से सम्मान क्यों मिल रहा है, कौन से तत्त्व उन्हें हमारे पास आने के लिये प्रेरित कर रहे हैं, उनकी दुर्बलतायें कौन सी हैं, आकांक्षायें कैसी हैं और अपेक्षायें क्या होती हैं इन्हें समझना और उसके बाद उनका मार्गदर्शन करना।  
+
अनुयायियों की ओर से सम्मान क्यों मिल रहा है, कौन से तत्त्व उन्हें हमारे पास आने के लिये प्रेरित कर रहे हैं, उनकी दुर्बलतायें कौन सी हैं, आकांक्षायें कैसी हैं और अपेक्षायें क्या होती हैं, इन्हें समझना और उसके बाद उनका मार्गदर्शन करना।  
  
धर्म को आज विवाद का विषय बना दिया गया है। इस विवाद से धर्म को मुक्त करने हेतु तप की आवश्यकता है। इस विवाद को समझना, उसके पीछे जो निहित स्वार्थ है उन्हें समझना, उन स्वार्थों को कैसे परास्त करना इसका विचार करना, उसकी योजना करना और योजनाओं का क्रियान्वयन करना यह तप है। विवाद में न पडना पडे इसके लिये धर्म के नाम पर संस्कृति, अध्यात्म, योग आदि के नाम स्वीकार कर धर्म संज्ञा का ही त्याग करना युद्धक्षेत्र से पलायन करना होता है। बौद्धिक तप का यह दूसरा आयाम है।  
+
धर्म को आज विवाद का विषय बना दिया गया है। इस विवाद से धर्म को मुक्त करने हेतु तप की आवश्यकता है। इस विवाद को समझना, उसके पीछे जो निहित स्वार्थ है उन्हें समझना, उन स्वार्थों को कैसे परास्त करना इसका विचार करना, उसकी योजना करना और योजनाओं का क्रियान्वयन करना, यह तप है। विवाद में न पडना पड़े,  इसके लिये धर्म के नाम पर संस्कृति, अध्यात्म, योग आदि के नाम स्वीकार कर धर्म संज्ञा का ही त्याग करना युद्धक्षेत्र से पलायन करना होता है। बौद्धिक तप का यह दूसरा आयाम है।  
  
सम्प्रदाय को धर्म के रूप में प्रस्तुत करना धर्म को ही संकुचित बना देना है। सम्प्रदाय को व्यापक धर्म का एक अंग मानकर उसकी प्रतिष्ठा के लिये सम्प्रदाय की शक्ति का उपयोग करना तप ही है क्योंकि तब अनुयायिओं की आर्थिक, राजकीय, सामाजिक, व्यक्तिगत गतिविधियों पर नियन्त्रण करना पडता है।
+
सम्प्रदाय को धर्म के रूप में प्रस्तुत करना, धर्म को ही संकुचित बना देना है। सम्प्रदाय को व्यापक धर्म का एक अंग मानकर उसकी प्रतिष्ठा के लिये सम्प्रदाय की शक्ति का उपयोग करना तप ही है क्योंकि तब अनुयायियों की आर्थिक, राजकीय, सामाजिक, व्यक्तिगत गतिविधियों पर नियन्त्रण करना पड़ता है।
  
अर्थनिष्ठ समाज को धर्मनिष्ठ समाज बनाने हेतु क्या करना पड़ेगा इसका आकलन करना यह बौद्धिक तप है। इस आधार पर नई रचनायें बनाना यह बौद्धिक तप है। इन रचनाओं को ही भारतीय परम्परा में स्मृति कहा गया है। स्मृति की रचना करना धर्माचार्यों के लिये बौद्धिक तप है। ऐसा तप करनेवाले ऋषि हैं।  
+
अर्थनिष्ठ समाज को धर्मनिष्ठ समाज बनाने हेतु क्या करना पड़ेगा इसका आकलन करना बौद्धिक तप है। इस आधार पर नई रचनायें बनाना बौद्धिक तप है। इन रचनाओं को ही धार्मिक परम्परा में स्मृति कहा गया है। स्मृति की रचना करना धर्माचार्यों के लिये बौद्धिक तप है। ऐसा तप करनेवाले ऋषि हैं।  
  
दूसरा है मानसिक तप । मानसिक तप करने पर ही बौद्धिक तप करने की क्षमता प्राप्त होती है। मानसिक तप के कुछ आयाम इस प्रकार हैं...
+
दूसरा है मानसिक तप । मानसिक तप करने पर ही बौद्धिक तप करने की क्षमता प्राप्त होती है। मानसिक तप के कुछ आयाम इस प्रकार हैं:
 
# सम्मान और प्रतिष्ठा का त्याग करना, उसकी अपेक्षा नहीं करना यह प्रथम चरण है। इसका उल्लेख पूर्व में भी हुआ है।  
 
# सम्मान और प्रतिष्ठा का त्याग करना, उसकी अपेक्षा नहीं करना यह प्रथम चरण है। इसका उल्लेख पूर्व में भी हुआ है।  
# सामाजिक स्वीकृति के लिये आसान तरीके, लुभावने रास्ते अपनाने का मोह टालना यह जरा कठिन मानसिक तप है।  
+
# सामाजिक स्वीकृति के लिये आसान तरीके, लुभावने रास्ते अपनाने का मोह टालना, यह जरा कठिन मानसिक तप है।  
# सही बातें कहने पर अनेक अवरोध निर्माण हो सकते हैं, प्रतिरोध भी हो सकता है। इन प्रतिरोधों और अवरोधों को सहना और डटे रहना भी मानसिक तप है
+
# सही बातें कहने पर अनेक अवरोध निर्माण हो सकते हैं, प्रतिरोध भी हो सकता है। इन प्रतिरोधों और अवरोधों को सहना और डटे रहना भी मानसिक तप है।
 
# आर्थिक और राजनीतिक लालचों में न फंसना बहुत बडा मानसिक तप है।  
 
# आर्थिक और राजनीतिक लालचों में न फंसना बहुत बडा मानसिक तप है।  
 
# निहित स्वार्थों का पोषण कर लाभ प्राप्त करने के लिये प्रवृत्त नहीं होना मानसिक तप है ।  
 
# निहित स्वार्थों का पोषण कर लाभ प्राप्त करने के लिये प्रवृत्त नहीं होना मानसिक तप है ।  
# धर्माचार्यों को भोग विलास के साधन बहत सुलभ हो जाते हैं। इनसे प्रभावित नहीं होना भी मानसिक तप है.
+
# धर्माचार्यों को भोग विलास के साधन बहत सुलभ हो जाते हैं। इनसे प्रभावित नहीं होना भी मानसिक तप है
* धर्माचार्यों के लिये तप का तीसरा आयाम है शारीरिक तप का । इसके कुछ आयाम इस प्रकार हैं...
+
* धर्माचार्यों के लिये तप का तीसरा आयाम है, शारीरिक तप का । इसके कुछ आयाम इस प्रकार हैं:
# धर्माचार्य गृहस्थ हो, वानप्रस्थ हो या संन्यासी उसे धर्म के विरोधी किसी भी प्रकार का आचरण नहीं करना चाहिये।
+
# धर्माचार्य गृहस्थ हो, वानप्रस्थ हो या संन्यासी, उसे धर्म के विरोधी, किसी भी प्रकार का आचरण नहीं करना चाहिये।
# खानपान, वेशभूषा, बोलचाल, उपभोग आदि में संयम, सादगी और त्याग होना ही चाहिये । उदाहरण के लिये न खाने के पदार्थ खाना, शृंगार और अलंकारों का अतिरेक करना, शृंगार की बातें करना, टीवी सिनेमा आदि में अधिक रुचि लेना किसी को प्रेरणा देने वाला आचरण नहीं होता। भारतीय मानस संयम, सदाचार, त्याग, अनुशासन आदि से ही प्रेरित होता है । दम्भ समझता है, उससे प्रभावित नहीं होता। जिसे समाज का मार्गदर्शन करना है उसे शारीरिक स्तर के वैभव विलास से परहेज करना ही होता है। दिखावे के लिये संयम और एकान्त में असंयम से चरित्र दुर्बल होता है और लोग छले नहीं जाते इसलिये ऐसा करने से सब कुछ नष्ट होता है।  
+
# खानपान, वेशभूषा, बोलचाल, उपभोग आदि में संयम, सादगी और त्याग होना ही चाहिये। उदाहरण के लिये न खाने के पदार्थ खाना, शृंगार और अलंकारों का अतिरेक करना, शृंगार की बातें करना, टीवी सिनेमा आदि में अधिक रुचि लेना, किसी को प्रेरणा देने वाला आचरण नहीं होता। धार्मिक मानस संयम, सदाचार, त्याग, अनुशासन आदि से ही प्रेरित होता है । दम्भ समझता है, उससे प्रभावित नहीं होता। जिसे समाज का मार्गदर्शन करना है उसे शारीरिक स्तर के वैभव विलास से परहेज करना ही होता है। दिखावे के लिये संयम और एकान्त में असंयम से चरित्र दुर्बल होता है और लोग छले नहीं जाते - इसलिये ऐसा करने से सब कुछ नष्ट होता है।  
# जो समाजविरोधी, पर्यावरणविरोधी, स्वास्थ्यविरोधी है वह धर्मविरोधी है। जरा इन बातों पर विचार करना चाहिये...
+
# जो समाजविरोधी, पर्यावरणविरोधी, स्वास्थ्यविरोधी है वह धर्मविरोधी है। जरा इन बातों पर विचार करना चाहिये:
 
* विदेशी वस्तुयें आकर्षक और सुविधायुक्त हैं, क्या उन्हें अपनाने से बच सकते हैं ? ए.सी. पर्यावरण विरोधी है। क्या उससे बचकर गर्मी सह सकते हैं ?  
 
* विदेशी वस्तुयें आकर्षक और सुविधायुक्त हैं, क्या उन्हें अपनाने से बच सकते हैं ? ए.सी. पर्यावरण विरोधी है। क्या उससे बचकर गर्मी सह सकते हैं ?  
 
* बिना स्नान के भोजन करने का नियम अपनाने में कभी चौबीस घण्टे भूखा रहना पड़ सकता है। क्या ऐसा नियम अपना सकते हैं ?  
 
* बिना स्नान के भोजन करने का नियम अपनाने में कभी चौबीस घण्टे भूखा रहना पड़ सकता है। क्या ऐसा नियम अपना सकते हैं ?  
Line 86: Line 77:
 
उपरी स्तर पर प्रभावित करने के तरीके अपनाना सरल है, परन्तु उनसे आन्तरिक और स्थायी परिवर्तन नहीं होता । समाज को शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक स्तर पर प्रभावित और प्रेरित करने हेतु तीनों प्रकार के तप करने होते है।  
 
उपरी स्तर पर प्रभावित करने के तरीके अपनाना सरल है, परन्तु उनसे आन्तरिक और स्थायी परिवर्तन नहीं होता । समाज को शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक स्तर पर प्रभावित और प्रेरित करने हेतु तीनों प्रकार के तप करने होते है।  
  
जितनी तपश्चर्या उग्र उतना ही प्रभाव स्थायी यह वैज्ञानिक नियम है । समाज यदि दुर्बल है तो उसका कारण धर्माचार्यों की तपश्चर्या कम पड़ रही है यही समझना चाहिये।
+
जितनी तपश्चर्या उग्र उतना ही प्रभाव स्थायी यह वैज्ञानिक नियम है । समाज यदि दुर्बल है तो उसका कारण धर्माचार्यों की तपश्चर्या कम पड़ रही है, यही समझना चाहिये।
  
ऐसा नहीं है कि आज ऐसा तप करनेवाले लोग हैं ही नहीं । तपश्चर्या करने वाले लोग हैं इसीलिये समाज पूर्ण रूप से नष्ट नहीं हो रहा है और अच्छे भविष्य की सम्भावना बची है। परन्तु तप कम पड रहा है यह भी स्पष्ट रूप से दिखाई दे रहा है। आसुरी शक्तियों का प्रभाव बढ़ रहा है यही इसका प्रमाण है। जो हैं उन धर्माचार्यों को अपनी तपश्चर्या बढाना यह एक आवश्यकता है, तपश्चर्या करने वालों की संख्या बढाना दूसरी आवश्यकता है। यह भी ध्यान में रखने की बात है कि केवल संख्या बढ़ने से होगा नहीं, तपश्चर्या की मात्रा भी बढनी चाहिये । सत्ययुग हो या कलियुग तपश्चर्या की उग्रता तो होना आवश्यक ही है।
+
ऐसा नहीं है कि आज ऐसा तप करनेवाले लोग हैं ही नहीं । तपश्चर्या करने वाले लोग हैं, इसीलिये समाज पूर्ण रूप से नष्ट नहीं हो रहा है और अच्छे भविष्य की सम्भावना बची है। परन्तु तप कम पड रहा है यह भी स्पष्ट रूप से दिखाई दे रहा है। आसुरी शक्तियों का प्रभाव बढ़ रहा है, यही इसका प्रमाण है। जो धर्माचार्य बचे हैं, उन धर्माचार्यों को अपनी तपश्चर्या बढाना एक आवश्यकता है, तपश्चर्या करने वालों की संख्या बढाना दूसरी आवश्यकता है। यह भी ध्यान में रखने की बात है कि केवल संख्या बढ़ने से नहीं होगा, तपश्चर्या की मात्रा भी बढनी चाहिये । सत्ययुग हो या कलियुग तपश्चर्या की उग्रता तो होना आवश्यक ही है।
  
 
==== समाज के लिये तप ====
 
==== समाज के लिये तप ====
अच्छे धर्माचार्य प्राप्त हों यह समाजका भी भाग्य है। ऐसा भाग्य प्राप्त होने हेतु समाज को भी तप करने की आवश्यकता होती है।
+
अच्छे धर्माचार्य प्राप्त हों यह समाज का भी भाग्य है। ऐसा भाग्य प्राप्त होने हेतु समाज को भी तप करने की आवश्यकता होती है।
  
समाज के तप के कुछ आयाम इस प्रकार हैं...
+
समाज के तप के कुछ आयाम इस प्रकार हैं:
  
 
आस्था, विश्वास और श्रद्धा का भाव सांस्कृतिक विकास के लिये आवश्यक है। आज इन तीनों बातों का अभाव सार्वत्रिक रूप में दिखाई दे रहा है। किसी की किसी बात पर या किसी व्यक्ति पर श्रद्धा नहीं है। इसी प्रकार किसी पर विश्वास भी नहीं है। किसी तत्त्व पर, किसी सिद्धान्त पर, किसी ग्रन्थ पर आस्था भी नहीं है। ये तीनों बातें दिखाई भी देती हैं तो बहुत जल्दी नष्ट भी हो जाती हैं । इसका कारण यह है कि किसी न किसी स्वार्थ की पूर्ति के आलम्बन से जब आस्था, विश्वास या श्रद्धा जुड़ जाते हैं तब स्वार्थ सिद्ध नहीं होने पर वे टूट भी जाते हैं।
 
आस्था, विश्वास और श्रद्धा का भाव सांस्कृतिक विकास के लिये आवश्यक है। आज इन तीनों बातों का अभाव सार्वत्रिक रूप में दिखाई दे रहा है। किसी की किसी बात पर या किसी व्यक्ति पर श्रद्धा नहीं है। इसी प्रकार किसी पर विश्वास भी नहीं है। किसी तत्त्व पर, किसी सिद्धान्त पर, किसी ग्रन्थ पर आस्था भी नहीं है। ये तीनों बातें दिखाई भी देती हैं तो बहुत जल्दी नष्ट भी हो जाती हैं । इसका कारण यह है कि किसी न किसी स्वार्थ की पूर्ति के आलम्बन से जब आस्था, विश्वास या श्रद्धा जुड़ जाते हैं तब स्वार्थ सिद्ध नहीं होने पर वे टूट भी जाते हैं।
Line 101: Line 92:
 
इसी प्रकार से दम्भी, झूठे, शिथिल चरित्रवाले धर्माचार्यों को पहचानना भी चाहिये और उनसे बचना चाहिये । स्वार्थ छोडने से ऐसा हो सकता है।  
 
इसी प्रकार से दम्भी, झूठे, शिथिल चरित्रवाले धर्माचार्यों को पहचानना भी चाहिये और उनसे बचना चाहिये । स्वार्थ छोडने से ऐसा हो सकता है।  
  
थोडा भी दूसरे का विचार नहीं करने से, समाज की धारणा हेतु थोडी भी असुविधा नहीं सहने से, थोडा भी सदाचारी नहीं होने से, थोडा भी संयम नहीं करने से चरित्र बनता ही नहीं है। ऐसे चरित्रहीन लोगों में से धर्माचार्य पैदा ही नहीं होते।  
+
थोडा भी दूसरे का विचार नहीं करने से, समाज की धारणा हेतु थोडी भी असुविधा नहीं सहने से, थोडा भी सदाचारी नहीं होने से, थोडा भी संयम नहीं करने से चरित्र बनता ही नहीं है। ऐसे चरित्रहीन लोगोंं में से धर्माचार्य पैदा ही नहीं होते।  
  
 
समाज त्रस्त है। त्रस्त समाज ने ऐसी कामना करनी चाहिये कि उन्हें मार्गदर्शक प्राप्त हो । इस कामना की पूर्ति हेतु ईश्वर से प्रार्थना करनी चाहिये । आज कामना व्यक्तिगत सुख की होती है और प्रार्थना उसकी पूर्ति के लिये की जाती है, परिणाम स्वरूप सच्चे और समर्थ धर्माचार्य प्राप्त ही नहीं होते।
 
समाज त्रस्त है। त्रस्त समाज ने ऐसी कामना करनी चाहिये कि उन्हें मार्गदर्शक प्राप्त हो । इस कामना की पूर्ति हेतु ईश्वर से प्रार्थना करनी चाहिये । आज कामना व्यक्तिगत सुख की होती है और प्रार्थना उसकी पूर्ति के लिये की जाती है, परिणाम स्वरूप सच्चे और समर्थ धर्माचार्य प्राप्त ही नहीं होते।
Line 109: Line 100:
 
इस प्रकार समाज और धर्माचार्य दोनों को तप करने की आवश्यकता है, परन्तु दोनों में भी धर्माचार्य का दायित्व विशेष है क्योंकि वे शीर्षस्थान पर हैं।
 
इस प्रकार समाज और धर्माचार्य दोनों को तप करने की आवश्यकता है, परन्तु दोनों में भी धर्माचार्य का दायित्व विशेष है क्योंकि वे शीर्षस्थान पर हैं।
  
तपश्चर्या से अपना सामर्थ्य बढाने के बाद, समाज को सच्चरित्र बनाने की योजना के बाद धर्माचार्यों ने शिक्षाक्षेत्र के साथ समायोजन करना चाहिये। धर्माचार्य और शिक्षक दोनों ने मिलकर धर्मानुसारी शिक्षा का प्रतिमान विकसित करना चाहिये । इस शिक्षा का प्रसार किस प्रकार हो इसकी योजना करनी चाहिये।
+
तपश्चर्या से अपना सामर्थ्य बढाने के बाद, समाज को सच्चरित्र बनाने की योजना के बाद धर्माचार्यों को शिक्षाक्षेत्र के साथ समायोजन करना चाहिये। धर्माचार्य और शिक्षक दोनों को मिलकर धर्मानुसारी शिक्षा का प्रतिमान विकसित करना चाहिये । इस शिक्षा का प्रसार किस प्रकार हो, इसकी योजना करनी चाहिये।
  
उदाहरण के लिये भारत के हर मन्दिर, मठ, संस्थान, मिशन आदिने शिक्षा की व्यवस्था करनी चाहिये और उसे राज्यनिरपेक्ष और अर्थनिरपेक्ष बनाना चाहिये । भारतीय शिक्षा का जो स्वरूप है उसे साकार करने वाली यह शिक्षाव्यवस्था होनी चाहिये। यह सर्व प्रकार से सम्प्रदायनिरपेक्ष तो स्वभाव से ही होगी।
+
उदाहरण के लिये भारत के हर मन्दिर, मठ, संस्थान, मिशन आदि को शिक्षा की व्यवस्था करनी चाहिये और उसे राज्यनिरपेक्ष और अर्थनिरपेक्ष बनाना चाहिये । धार्मिक शिक्षा का जो स्वरूप है उसे साकार करने वाली यह शिक्षाव्यवस्था होनी चाहिये। यह सर्व प्रकार से सम्प्रदायनिरपेक्ष तो स्वभाव से ही होगी।
  
 
सम्पूर्ण देश की शिक्षा को धर्मानुसारी बनाना धर्माचार्यों और शिक्षकों का संयुक्त कर्तव्य है।
 
सम्पूर्ण देश की शिक्षा को धर्मानुसारी बनाना धर्माचार्यों और शिक्षकों का संयुक्त कर्तव्य है।
Line 118: Line 109:
  
 
==== भारत में भारतीय शिक्षा होनी चाहिये ====
 
==== भारत में भारतीय शिक्षा होनी चाहिये ====
यह एक स्वाभाविक कथन है । कभी कभी तो लोग आश्चर्य व्यक्त करते हैं कि ऐसा कथन करने की आवश्यकता ही क्या है। भारत में शिक्षा भारतीय ही तो है। भारत सरकार इसे चला रही है। भारत के ही संसाधनों से चलती है। भारत के ही लोग इसे चला रहे हैं। भारत के ही संचालक, भारत के ही शिक्षक, भारत के ही विद्यार्थी हैं फिर शिक्षा का भारतीय होना स्वाभाविक ही तो है। फिर भारतीय होनी चाहिये ऐसा कहने का प्रयोजन ही क्या है ? भारत के लोगों को भारतीय होना चाहिये ऐसा कभी कोई कहता है क्या ? हमारा संविधान हमें भारत का नागरिकत्व देता है फिर प्रश्न ही नहीं है। अमेरिका के अमेरिकन, चीन के चीनी, अफ्रीका के अफ्रीकी तो भारत के लोग भारतीय हैं यह जितना स्वाभाविक है उतना ही स्वाभाविक भारत में शिक्षा का भारतीय होना है। भारत में शिक्षा भारतीय होनी चाहिये इस कथन का कोई विशेष प्रयोजन ही नहीं है।
+
यह एक स्वाभाविक कथन है । कभी कभी तो लोग आश्चर्य व्यक्त करते हैं कि ऐसा कथन करने की आवश्यकता ही क्या है। भारत में शिक्षा भारतीय ही तो है। भारत सरकार इसे चला रही है। भारत के ही संसाधनों से चलती है। भारत के ही लोग इसे चला रहे हैं। भारत के ही संचालक, भारत के ही शिक्षक, भारत के ही विद्यार्थी हैं फिर शिक्षा का भारतीय होना स्वाभाविक ही तो है। फिर भारतीय होनी चाहिये ऐसा कहने का प्रयोजन ही क्या है ? भारत के लोगोंं को भारतीय होना चाहिये ऐसा कभी कोई कहता है क्या ? हमारा संविधान हमें भारत का नागरिकत्व देता है फिर प्रश्न ही नहीं है। अमेरिका के अमेरिकन, चीन के चीनी, अफ्रीका के अफ्रीकी, तो भारत के लोग भारतीय हैं यह जितना स्वाभाविक है उतना ही स्वाभाविक भारत में शिक्षा का भारतीय होना है। भारत में शिक्षा भारतीय होनी चाहिये इस कथन का कोई विशेष प्रयोजन ही नहीं है।
  
देश के अधिकतम लोगों के लिये यह प्रश्न ही नहीं है। भारतीय और अभारतीय जैसी संज्ञाओं से कोई विशेष अर्थबोध होता है ऐसा भी नहीं है। भारतीय होने से और अभारतीय होने से क्या अन्तर हो जायेगा इसकी कल्पना भी नहीं है। घूमन्तु, अनपढ, भिखारी, गँवार, मजदूर ऐसे लोगों की यह स्थिति है ऐसा नहीं है, झुग्गी झोंपडियों में रहनेवाले, दिनभर परिश्रम करके मुश्किल से दो जून रोटी
+
देश के अधिकतम लोगोंं के लिये यह प्रश्न ही नहीं है। भारतीय और अभारतीय जैसी संज्ञाओं से कोई विशेष अर्थबोध होता है ऐसा भी नहीं है। भारतीय होने से और अभारतीय होने से क्या अन्तर हो जायेगा इसकी कल्पना भी नहीं है। घूमन्तु, अनपढ, भिखारी, गँवार, मजदूर ऐसे लोगोंं की यह स्थिति है ऐसा नहीं है, झुग्गी झोंपडियों में रहनेवाले, दिनभर परिश्रम करके मुश्किल से दो जून रोटी खाने वाले लोगोंं की यह बात नहीं है। कार्यालयों में बाबूगीरी या अफसरी करने वाले, व्यापार करने वाले, उद्योग चलाने वाले, लाखों रूपये कमाने वाले, लाखों रूपये अपने बच्चोंं की शिक्षा पर खर्च करने वाले, शिक्षा संस्थाओं का संचालन करने वाले, उनमें पढाने वाले, अधिकांश लोग ऐसे हैं जिन्हें भारतीय और अभारतीय का प्रश्न ही परेशान नहीं करता है। उन्हें कभी कभी शिक्षा अच्छी होनी चाहिये, सुलभ होनी चाहिये, सरलता से नौकरी दिलाने वाली होनी चाहिये ऐसा तो लगता है, विद्यालयों के अभिभावक सम्मेलनों में या गोष्ठियों में अच्छी शिक्षा के विषय पर तो चर्चा होती है परन्तु भारतीय और अभारतीय के प्रश्न की चर्चा नहीं होती। सामान्य जन के लिये, शिक्षा नौकरी दिलाने वाली होने से, प्रतिष्ठा दिलाने वाली होने से, प्रयोजन है। उसे अपने बच्चे की चिन्ता है, अपने निर्वाह की चिन्ता है, देश के, समाज के या शिक्षा के विषय में विचार करना उसके विश्व का हिस्सा नहीं है। सामान्य जन अपने आपसे मतलब रखता है, अपने परिवार से मतलब रखता है, उससे आगे या उससे परे जाकर चिन्ता करने की आवश्यकता उसे नहीं लगती। ऐसी अपेक्षा भी उससे कम ही की जाती है। हाँ, धार्मिक संगठन धर्म के लिये अर्थात् अपने सम्प्रदाय के लिये और राजकीय पक्ष अपने पक्ष के लिये कुछ कार्य करते दिखाई देते हैं, परन्तु कुल मिलाकर देश के लिये और शिक्षा के लिये काम करने वाले कम ही लोग दिखाई देते हैं।
  
खाने वाले लोगों की यह बात नहीं है। कार्यालयों में बाबूगीरी या अफसरी करने वाले, व्यापार करने वाले, उद्योग चलाने वाले, लाखों रूपये कमाने वाले, लाखों रूपये अपने बच्चों की शिक्षा पर खर्च करने वाले, शिक्षा संस्थाओं का संचालन करने वाले, उनमें पढाने वाले, अधिकांश लोग ऐसे हैं जिन्हें भारतीय और अभारतीय का प्रश्न ही परेशान नहीं करता है। उन्हें कभी कभी शिक्षा अच्छी होनी चाहिये, सुलभ होनी चाहिये, सरलता से नौकरी दिलाने वाली होनी चाहिये ऐसा तो लगता है, विद्यालयों के अभिभावक सम्मेलनों में या गोष्ठियों में अच्छी शिक्षा के विषय पर तो चर्चा होती है परन्तु भारतीय और अभारतीय के प्रश्न की चर्चा नहीं होती। सामान्य जन के लिये शिक्षा नौकरी दिलाने वाली होने से, प्रतिष्ठा दिलाने वाली होने से प्रयोजन है। उसे अपने बच्चे की चिन्ता है, अपने निर्वाह की चिन्ता है, देश के, समाज के या शिक्षा के विषय में विचार करना उसके विश्व का हिस्सा नहीं है। सामान्य जन अपने आपसे मतलब रखता है, अपने परिवार से मतलब रखता है, उससे आगे या उससे परे जाकर चिन्ता करने की आवश्यकता उसे नहीं लगती। ऐसी अपेक्षा भी उससे कम ही की जाती है। हाँ, धार्मिक संगठन धर्म के लिये अर्थात् अपने सम्प्रदाय के लिये और राजकीय पक्ष अपने पक्ष के लिये कुछ कार्य करते दिखाई देते हैं परन्तु कुल मिलाकर देश के लिये और शिक्षा के लिये काम करने वाले कम ही लोग दिखाई देते हैं।
+
==== धार्मिक शिक्षा हेतु कार्यरत संगठन ====
 +
देश में कुछ ऐसे शैक्षिक संगठन हैं जो शिक्षा के भारतीय या अभारतीय होने की चिन्ता करते हैं। इन्हें लगता है कि शिक्षा भारतीय होनी चाहिये । वे इस दिशा में प्रयत्नशील भी हैं। वे स्थानिक से लेकर अखिल भारतीय स्तर पर कार्यरत हैं। वे लोगोंं तक इस विषय को ले जाने का प्रयास भी करते हैं। उनके लिये यह आन्दोलन का विषय है। अपने आन्दोलन में वे अनेक लोगोंं को जोडना चाहते हैं, कुछ मात्रा में उन्हें यश भी मिलता है। उनका कार्यक्षेत्र और पहुँच परिवार से लेकर सरकार तक भी है।
  
==== भारतीय शिक्षा हेतु कार्यरत संगठन ====
+
कुछ ऐसे संगठन भी है जिनका मुख्य कार्य शिक्षा नहीं है, संस्कृति और धर्म है। परन्तु अपने कार्य के एक अंग के रूप में वे शिक्षा पर भी काम करते हैं । मूल्यनिष्ठा संस्कारयुक्त शिक्षा यह उनका विषय है,भारतीय शिक्षा नहीं। विगत सौ सवा-सौ वर्षों में राष्ट्रीय शिक्षा के नाम से इस देश में शिक्षा को धार्मिक बनाने के आन्दोलन चले हैं। उनके लिये शिक्षा का धार्मिक और अधार्मिक होना प्राणप्रश्न था और अपनी सारी शक्ति लगाकर उन्होंने राष्ट्रीय शिक्षा के नमूने खड़े किये थे, इस अपेक्षा से कि पूरे देश में इन के जैसे शिक्षाकेन्द्र निर्माण होंगे। उनका कहना था कि शिक्षा राष्ट्रीय अर्थात् धार्मिक होनी चाहिये ।  
देश में कुछ ऐसे शैक्षिक संगठन हैं जो शिक्षा के भारतीय या अभारतीय होने की चिन्ता करते हैं। इन्हें लगता है कि शिक्षा भारतीय होनी चाहिये । वे इस दिशा में प्रयत्नशील भी हैं। वे स्थानिक से लेकर अखिल भारतीय स्तर पर कार्यरत हैं। वे लोगों तक इस विषय को ले जाने का प्रयास भी करते हैं। उनेक लिये यह आन्दोलन का विषय है। अपने आन्दोलन में वे अनेक
 
 
 
लोगों को जोडना चाहते हैं, कुछ मात्रा में उन्हें यश भी मिलता है। उनका कार्यक्षेत्र और पहुँच परिवार से लेकर सरकार तक भी है।
 
 
 
कुछ ऐसे संगठन भी है जिनका मुख्य कार्य शिक्षा नहीं है, संस्कृति और धर्म है। परन्तु अपने कार्य के एक अंग के रूप में वे शिक्षा पर भी काम करते हैं । मूल्यनिष्ठा संस्कारयुक्त शिक्षा यह उनका विषय है, भारतीय शिक्षा नहीं।  
 
 
 
विगत सौ सवासौ वर्षों में राष्ट्रीय शिक्षा के नाम से इस देश में शिक्षा को भारतीय बनाने के आन्दोलन चले हैं। उनके लिये शिक्षा का भारतीय और अभारतीय होना प्राणप्रश्न था और अपनी सारी शक्ति लगाकर उन्होंने राष्ट्रीय शिक्षा के नमूने खड़े किये थे, इस अपेक्षा से कि पूरे देश में इन के जैसे शिक्षाकेन्द्र निर्माण होंगे। उनका कहना था कि शिक्षा राष्ट्रीय अर्थात् भारतीय होनी चाहिये ।
 
  
 
परन्तु आज तो वह भी इतिहास की बात हो गई। भारत स्वाधीन हुआ और शिक्षा के भारतीय या अभारतीय होने का प्रश्न ही मिट गया। भले ही भ्रान्त हो परन्तु मानो ऐसी धारणा बन गई कि अब सब कुछ भारतीय ही है।
 
परन्तु आज तो वह भी इतिहास की बात हो गई। भारत स्वाधीन हुआ और शिक्षा के भारतीय या अभारतीय होने का प्रश्न ही मिट गया। भले ही भ्रान्त हो परन्तु मानो ऐसी धारणा बन गई कि अब सब कुछ भारतीय ही है।
Line 138: Line 123:
  
 
==== वैश्विक शिक्षा के हिमायती ====
 
==== वैश्विक शिक्षा के हिमायती ====
देश में एक ऐसा तबका भी है जो मानता है कि अब भारतीय अभारतीय का प्रश्न नहीं होना चाहिये, वैश्विकता का होना चाहिये । दुनिया छोटी हो गई है, संचार माध्यमों के प्रभाव से हमारा सम्पर्क क्षेत्र विस्तृत हो गया है, कहीं पर भी पहुँचना अब दुर्गम नहीं है, फिर अपने ही देश में बँधे रहने की आवश्यकता ही क्या है। हमें विश्व नागरिकता की बात करनी चाहिये, विश्वसंस्कृति की ही प्रतिष्ठा करनी चाहिये । हमें अपने आपको व्यापक सन्दर्भ में देखना चाहिये। भारत में बँधे रहने की आवश्यकता नहीं । विश्वभर से अच्छी बातों का स्वीकार कर अपने आपको समृद्ध बनाना चाहिये । शिक्षा का ही प्रश्न है तो हमें भारतीय नहीं अपितु वैश्विक शिक्षा की बात करनी चाहिये।
+
देश में एक ऐसा तबका भी है जो मानता है कि अब भारतीय अभारतीय का प्रश्न नहीं होना चाहिये, वैश्विकता का होना चाहिये । दुनिया छोटी हो गई है, संचार माध्यमों के प्रभाव से हमारा सम्पर्क क्षेत्र विस्तृत हो गया है, कहीं पर भी पहुँचना अब दुर्गम नहीं है, फिर अपने ही देश में बँधे रहने की आवश्यकता ही क्या है। हमें विश्व नागरिकता की बात करनी चाहिये, विश्वसंस्कृति की ही प्रतिष्ठा करनी चाहिये । हमें अपने आपको व्यापक सन्दर्भ में देखना चाहिये। भारत में बँधे रहने की आवश्यकता नहीं । विश्वभर से अच्छी बातों का स्वीकार कर अपने आपको समृद्ध बनाना चाहिये । शिक्षा का ही प्रश्न है तो हमें धार्मिक नहीं अपितु वैश्विक शिक्षा की बात करनी चाहिये। इस मान्यता के अनुसरण में स्कूली शिक्षा के लिये कई आन्तर्राष्ट्रीय शिक्षाबोर्ड और उच्च शिक्षा के क्षेत्र में कई आन्तर्राष्ट्रीय महाविद्यालय निर्माण हुए हैं और धार्मिक नागरिक अपने बच्चोंं को उनमें पढ़ा रहे हैं। अब वे 'टेकनिकली' धार्मिक हैं, भावना से आन्तर्राष्ट्रीय अर्थात् वैश्विक हैं (भले ही वास्तविकता में विदेशी हों)।
  
इस मान्यता के अनुसरण में स्कूली शिक्षा के लिये कई आन्तर्राष्ट्रीय शिक्षाबोर्ड और उच्च शिक्षा के क्षेत्र में कई आन्तर्राष्ट्रीय महाविद्यालय निर्माण हुए हैं और भारतीय नागरिक अपने बच्चों को उनमें पढ़ा रहे हैं। अब वे 'टेकनिकली' भारतीय हैं, भावना से आन्तर्राष्ट्रीय अर्थात् वैश्विक हैं (भले ही वास्तविकता में विदेशी हों)
+
==== अधार्मिकता का आधार ====
 +
तो फिर यह धार्मिक अधार्मिक का प्रश्न क्या है ? जो लोग भारत में शिक्षा धार्मिक होनी चाहिय ऐसा कहते हैं और शिक्षा के धार्मिककरण हेतु प्रयास भी करते हैं उनका गृहीत है कि भारत में शिक्षा धार्मिक नहीं है और उसे धार्मिक बनाना चाहिये
  
==== अभारतीयता का आधार ====
+
धार्मिक और अधार्मिक किस आधार पर तय होता है ? वर्तमान शिक्षा में ऐसा क्या है जो धार्मिक नहीं है ? शिक्षा अच्छी नहीं होना समझ में आता है। क्या धार्मिक शिक्षा से अच्छी शिक्षा निहित है ? शिक्षा महँगी है, वह नहीं होनी चाहिये, सस्ती और सुलभ होनी चाहिये, हो सके तो निःशुल्क होनी चाहिये । क्या धार्मिक शिक्षा से शिक्षा निःशुल्क और सुलभ होनी चाहिये यह तात्पर्य है ? क्या प्राचीन काल में दी जाती थी वह शिक्षा आज दी जाय तो शिक्षा धार्मिक होगी ? प्राचीन काल में वेद पढाये जाते थे। क्या वेद पढाना धार्मिक शिक्षा है ? प्राचीन काल में शिक्षा गुरुकुलों में होती थी। विद्यार्थी ब्रह्मचारी कहे जाते थे, भिक्षा माँगते थे, गुरु की सेवा करते थे। क्या उस प्रकार के गुरुकुल बनाना धार्मिक शिक्षा है ? प्राचीन समय में कुछ लोग ही पढते थे। ऐसे कुछ लोगोंं तक ही शिक्षा को सीमित कर देना धार्मिक शिक्षा है ? यदि यही धार्मिक शिक्षा है तो वह आज के जमाने में कैसे सम्भव है ? आज कोई ब्रह्मचारी बनकर भिक्षा कैसे माँग सकता है ? आज कोई वेद कैसे पढ सकता है ? दुनिया इतनी आगे बढ़ गई, हम वापस कैसे जा सकते हैं ? यदि यही धार्मिक शिक्षा है तो उसकी अपेक्षा करना व्यावहारिक नहीं है। वह तो आदर्श भी नहीं है क्योंकि वह पीछे ले जानेवाली है, आगे नहीं।
तो फिर यह भारतीय अभारतीय का प्रश्न क्या है ? जो लोग भारत में शिक्षा भारतीय होनी चाहिय ऐसा कहते हैं और शिक्षा के भारतीयकरण हेतु प्रयास भी करते हैं उनका गृहीत है कि भारत में शिक्षा भारतीय नहीं है और उसे भारतीय बनाना चाहिये ।
 
  
भारतीय और अभारतीय किस आधार पर तय होता है ? वर्तमान शिक्षा में ऐसा क्या है जो भारतीय नहीं है ? शिक्षा अच्छी नहीं होना समझ में आता है। क्या भारतीय शिक्षा से अच्छी शिक्षा निहित है ? शिक्षा महँगी है, वह नहीं होनी चाहिये, सस्ती और सुलभ होनी चाहिये, हो सके तो निःशुल्क होनी चाहिये । क्या भारतीय शिक्षा से शिक्षा निःशुल्क और सुलभ होनी चाहिये यह तात्पर्य है ? क्या प्राचीन काल में दी जाती थी वह शिक्षा आज दी जाय तो शिक्षा भारतीय होगी ? प्राचीन काल में वेद पढाये जाते थे। क्या वेद पढाना भारतीय शिक्षा है ? प्राचीन काल में शिक्षा गुरुकुलों में होती थी। विद्यार्थी ब्रह्मचारी कहे जाते थे, भिक्षा माँगते थे, गुरु की सेवा करते थे। क्या उस प्रकार के गुरुकुल बनाना भारतीय शिक्षा है ? प्राचीन समय में कुछ लोग ही पढते थे। ऐसे कुछ लोगों तक ही शिक्षा को सीमित कर देना भारतीय शिक्षा है ? यदि यही भारतीय शिक्षा है तो वह आज के जमाने में कैसे सम्भव है ? आज कोई ब्रह्मचारी बनकर भिक्षा कैसे माँग सकता है ? आज कोई वेद कैसे पढ सकता है ? दुनिया इतनी आगे बढ़ गई, हम वापस कैसे जा सकते हैं ? यदि यही भारतीय शिक्षा है तो उसकी अपेक्षा करना व्यावहारिक नहीं है। वह तो आदर्श भी नहीं है क्योंकि वह पीछे ले जानेवाली है, आगे नहीं।
+
इस प्रकार शिक्षा के धार्मिक होने की और उसे धार्मिक बनाने की बात जल्दी लोगोंं की समझ में ही नहीं आती। शिक्षाक्षेत्र के लोगोंं का दायित्व है कि प्रथम तो लोगोंं के मन में इस विषय की स्पष्टता हो इस हेतु प्रयास करें और फिर अपने कार्य में सबको सहभागी बनायें ।
  
इस प्रकार शिक्षा के भारतीय होने की और उसे भारतीय बनाने की बात जल्दी लोगों की समझ में ही नहीं आती। शिक्षाक्षेत्र के लोगों का दायित्व है कि प्रथम तो लोगों के मन में इस विषय की स्पष्टता हो इस हेतु प्रयास करें और फिर अपने कार्य में सबको सहभागी बनायें ।
+
==== शिक्षा धार्मिक कब होगी ? ====
 +
शिक्षा धार्मिक है ऐसा कब कहा जायेगा ? इस विषय की तात्त्विक चर्चा [[:Category:धार्मिक शिक्षा ग्रंथमाला 1: संकल्पना एवं स्वरूप|भारतीय शिक्षा संकल्पना एवं स्वरूप]] ग्रंथ में की गई है, उसका पुनरावर्तन करने की आवश्यकता नहीं है। यहाँ व्यावहारिकता के धरातल पर ही विचार करेंगे।
  
==== शिक्षा भारतीय कब होगी ? ====
+
कुछ मुद्दे इस प्रकार हैं:
शिक्षा भारतीय है ऐसा कब कहा जायेगा ? इस विषय की तात्त्विक चर्चा 'भातीय शिक्षा संकल्पना एवं स्वरूप' ग्रंथ में की गई है, उसका पुनरावर्तन करने की आवश्यकता नहीं है। यहाँ व्यावहारिकता के धरातल पर ही विचार करेंगे।
+
* धार्मिक शिक्षा निःशुल्क होती है परन्तु निःशुल्क है इसलिये धार्मिक होना आवश्नयक नहीं है। सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में शिक्षा निःशुल्क ही होती है। परन्तु वह धार्मिक नहीं है।
 +
* धार्मिक शिक्षा शिक्षक के अधीन होती है, परन्तु केवल शिक्षक के अधीन है इसलिये वह धार्मिक नहीं हो जाती। आज भी तो शिक्षक ही शिक्षा का सर्व प्रकार का कार्य कर ही रहे हैं।
 +
* धार्मिक शिक्षा घरों में, विद्यालयों में, मन्दिरों में होती है परन्तु घरों में और मन्दिरों में होती है इसलिये वह धार्मिक नहीं हो जाती। आज भी 'होमस्कुलिंग' के नाम से घरों में शिक्षा देने के प्रयोग हो रहे हैं, आज भी मन्दिरों द्वारा शिक्षासंस्थान चलाये जाते हैं परन्तु वह शिक्षा धार्मिक होने की कोई निश्चिति नहीं है।
 +
* धार्मिक शिक्षा धर्म और अध्यात्म की शिक्षा होती है, परन्तु धार्मिक और आध्यात्मिक है इसलिये वह धार्मिक नहीं हो जाती । आज भी अनेक धार्मिक और सांस्कृतिक संगठन वेद, उपनिषद, षडदर्शन, भगवद्गीता आदि पढाते हैं, पूजापाठ भी पढाते हैं, परन्तु वह शिक्षा धार्मिक नहीं है।
 +
ऐसे अनेक पहलू हैं जो धार्मिक शिक्षा के अंगप्रत्यंग हैं परन्तु वे अंगप्रत्यंग शिक्षा को धार्मिक नहीं बनाते।
  
कुछ मुद्दे इस प्रकार हैं...
+
जिस शिक्षा की आत्मा धार्मिक है वही शिक्षा धार्मिक है। जिसकी आत्मा धार्मिक है और जिसकी नहीं है उन दोनों के अंगप्रत्यंग तो समान हो सकते हैं, परन्तु राष्ट्र अथवा सामान्य अर्थ में देश अंगप्रत्यंग से नहीं, आत्मा से विशिष्ट पहचान प्राप्त करता है । आत्मा ही देश का स्वभाव होती है। भारत के लिये जो स्वाभाविक है वही धार्मिक है। भारत के स्वभाव के अनुरूप जो है वह धार्मिक शिक्षा है, स्वभाव के विपरीत है वह अधार्मिक
* भारतीय शिक्षा निःशुल्क होती है परन्तु निःशुल्क है इसलिये भारतीय नहीं है। सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में शिक्षा निःशुल्क ही होती है। परन्तु वह भारतीय नहीं है।
 
* भारतीय शिक्षा शिक्षक के अधीन होती है, परन्तु केवल शिक्षक के अधीन है इसलिये वह भारतीय नहीं हो जाती। आज भी तो शिक्षक ही शिक्षा का सर्व प्रकार का कार्य कर ही रहे हैं।
 
* भारतीय शिक्षा घरों में, विद्यालयों में, मन्दिरों में होती है परन्तु घरों में और मन्दिरों में होती है इसलिये वह भारतीय नहीं हो जाती। आज भी 'होमस्कुलिंग' के नाम से घरों में शिक्षा देने के प्रयोग हो रहे हैं, आज भी मन्दिरों द्वारा शिक्षासंस्थान चलाये जाते हैं परन्तु वह शिक्षा भारतीय होने की कोई निश्चिति नहीं है।
 
* भारतीय शिक्षा धर्म और अध्यात्म की शिक्षा होती है, परन्तु धार्मिक और आध्यात्मिक है इसलिये वह भारतीय नहीं हो जाती आज भी अनेक धार्मिक और सांस्कृतिक संगठन वेद, उपनिषद, षडदर्शन, भगवद्गीता आदि पढाते हैं, पूजापाठ भी पढाते हैं, परन्तु वह शिक्षा भारतीय नहीं है।
 
ऐसे अनेक पहलू हैं जो भारतीय शिक्षा के अंगप्रत्यंग हैं परन्तु वे अंगप्रत्यंग शिक्षा को भारतीय नहीं बनाते।
 
  
जिस शिक्षा की आत्मा भारतीय है वही शिक्षा भारतीय है। जिसकी आत्मा भारतीय है और जिसकी नहीं है उन दोनों के अंगप्रत्यंग तो समान हो सकते हैं, परन्तु राष्ट्र अथवा सामान्य अर्थ में देश अंगप्रत्यंग से नहीं, आत्मा से विशिष्ट पहचान प्राप्त करता है । आत्मा ही देश का स्वभाव होती है। भारत के लिये जो स्वाभाविक है वही भारतीय है। भारत के स्वभाव के अनुरूप जो है वह भारतीय शिक्षा है, स्वभाव के विपरीत है वह अभारतीय ।
+
==== धार्मिक शिक्षा के विचारणीय सूत्र ====
 
+
शिक्षा को लेकर भारत के स्वभाव के अनुरूप और विपरीत क्या है इस का विचार करने पर कुछ सूत्र ध्यान में आते हैं:
==== भारतीय शिक्षा के विचारणीय सूत्र ====
 
शिक्षा को लेकर भारत के स्वभाव के अनुरूप और विपरीत क्या है इस का विचार करने पर कुछ सूत्र ध्यान में आते हैं...
 
 
# भारत सबको एक मानता है, अपना मानता है, किसी को पराया नहीं मानता। इसलिये सबका कल्याण हो, सब सुखी हों, किसीका अहित न हो ऐसी कामना करता है और प्रयास भी करता है।  
 
# भारत सबको एक मानता है, अपना मानता है, किसी को पराया नहीं मानता। इसलिये सबका कल्याण हो, सब सुखी हों, किसीका अहित न हो ऐसी कामना करता है और प्रयास भी करता है।  
 
# भारत स्वतन्त्रता को सबसे बडा मूल्य मानता है। भारत अपनी स्वतन्त्रता की तो रक्षा करना चाहता ही है परन्तु और किसी की स्वतन्त्रता छीनना भी नहीं चाहता। वह और किसी को अपनी स्वतन्त्रता छीनने भी नहीं देता।
 
# भारत स्वतन्त्रता को सबसे बडा मूल्य मानता है। भारत अपनी स्वतन्त्रता की तो रक्षा करना चाहता ही है परन्तु और किसी की स्वतन्त्रता छीनना भी नहीं चाहता। वह और किसी को अपनी स्वतन्त्रता छीनने भी नहीं देता।
 
# भारत केवल मनुष्यों की ही नहीं तो सजीव निर्जीव सभी पदार्थों की स्वतन्त्र सत्ता का स्वीकार और सम्मान करता है। अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिये वह किसी को नष्ट करने की प्रवृत्ति नहीं रखता । जिन जिनसे कुछ भी प्राप्त होता है उसके साथ कृतज्ञता से व्यवहार करता है।  
 
# भारत केवल मनुष्यों की ही नहीं तो सजीव निर्जीव सभी पदार्थों की स्वतन्त्र सत्ता का स्वीकार और सम्मान करता है। अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिये वह किसी को नष्ट करने की प्रवृत्ति नहीं रखता । जिन जिनसे कुछ भी प्राप्त होता है उसके साथ कृतज्ञता से व्यवहार करता है।  
# भारत धर्म को सर्वोपरि स्थान देता है। धर्म को आज की तरह केवल सम्प्रदाय नहीं मानता, धर्म को सम्पूर्ण विश्व की धारणा करने वाले विश्वनियम के रूप में जानता है और अपनी जीवनव्यवस्था के लिये उसी विश्वनियम के तत्त्व का स्वीकार करता है। इसलिये भारत के लिये जो धर्म के अनुकूल है वह स्वीकार्य है, धर्म के विरोधी है वह त्याज्य है। धर्मनिरपेक्षता भारतीय स्वभाव के विपरीत है, धर्म सापेक्षता ही स्वीकार्य है, सम्माननीय है।  
+
# भारत धर्म को सर्वोपरि स्थान देता है। धर्म को आज की तरह केवल सम्प्रदाय नहीं मानता, धर्म को सम्पूर्ण विश्व की धारणा करने वाले विश्वनियम के रूप में जानता है और अपनी जीवनव्यवस्था के लिये उसी विश्वनियम के तत्त्व का स्वीकार करता है। इसलिये भारत के लिये जो धर्म के अनुकूल है वह स्वीकार्य है, धर्म के विरोधी है वह त्याज्य है। धर्मनिरपेक्षता धार्मिक स्वभाव के विपरीत है, धर्म सापेक्षता ही स्वीकार्य है, सम्माननीय है।  
 
* जो धर्म सिखाती है वही शिक्षा है, धर्म सिखाने वाला शिक्षक है और वह सबके लिये सम्माननीय है।  
 
* जो धर्म सिखाती है वही शिक्षा है, धर्म सिखाने वाला शिक्षक है और वह सबके लिये सम्माननीय है।  
 
* शिक्षक धर्म सिखाता है इसलिये शासक के लिये भी सम्माननीय है।  
 
* शिक्षक धर्म सिखाता है इसलिये शासक के लिये भी सम्माननीय है।  
Line 173: Line 156:
 
* भारत में शिक्षा सार्वत्रिक है। प्रत्येक व्यक्ति अपनी अपनी भूमिका में अपनी अपनी क्षमता और सीखने वाले की आवश्यकता के अनुसार सिखाता है। मातापिता सन्तानों को, व्यवसायी अपने साथियों को, गुरु शिष्य को शिक्षा देता है, भौतिक बदले की अपेक्षा नहीं रखता। अपने को प्राप्त शिक्षा दूसरे को देनी ही चाहिये और शिक्षा का प्रसार करना ही चाहिये ऐसी अपेक्षा कोई व्यक्ति नहीं अपितु धर्म करता है, धर्म की इस अपेक्षा को पूर्ण करने के लिये सब सिद्ध रहते हैं।  
 
* भारत में शिक्षा सार्वत्रिक है। प्रत्येक व्यक्ति अपनी अपनी भूमिका में अपनी अपनी क्षमता और सीखने वाले की आवश्यकता के अनुसार सिखाता है। मातापिता सन्तानों को, व्यवसायी अपने साथियों को, गुरु शिष्य को शिक्षा देता है, भौतिक बदले की अपेक्षा नहीं रखता। अपने को प्राप्त शिक्षा दूसरे को देनी ही चाहिये और शिक्षा का प्रसार करना ही चाहिये ऐसी अपेक्षा कोई व्यक्ति नहीं अपितु धर्म करता है, धर्म की इस अपेक्षा को पूर्ण करने के लिये सब सिद्ध रहते हैं।  
 
* भारत परम्परा का देश है, परम्परा को बनाये रखना, परिष्कृत करना, समृद्ध बनाना शिक्षा का काम है।  
 
* भारत परम्परा का देश है, परम्परा को बनाये रखना, परिष्कृत करना, समृद्ध बनाना शिक्षा का काम है।  
* भारत में अधिसत्ता धर्म की ही है, शिक्षक उसका प्रतिहारी है, शासक, कारीगर, व्यापारी सब उसकेअनुचर हैं, उसकी आज्ञा का पालन करनेवाले और उसके साम्राज्य की रक्षा करने वाले हैं।
+
* भारत में अधिसत्ता धर्म की ही है, शिक्षक उसका प्रतिहारी है, शासक, कारीगर, व्यापारी सब उसके अनुचर हैं, उसकी आज्ञा का पालन करनेवाले और उसके साम्राज्य की रक्षा करने वाले हैं।
* शिक्षा मुक्ति देनेवाले ज्ञान का व्यवस्थातन्त्र है वह स्वयं मुक्त होगी तभी ज्ञान की वाहक बन सकेंगी। इसलिये भारत में शासक के द्वारा, व्यापारियों के द्वारा शिक्षा को मुक्त ही रखा गया है और उसे पुष्ट होने हेतु सहयोग और सहायता दी जाती रही है।  
+
* शिक्षा मुक्ति देनेवाले ज्ञान का व्यवस्थातन्त्र है। वह स्वयं मुक्त होगी तभी ज्ञान की वाहक बन सकेंगी। इसलिये भारत में शासक के द्वारा, व्यापारियों के द्वारा शिक्षा को मुक्त ही रखा गया है और उसे पुष्ट होने हेतु सहयोग और सहायता दी जाती रही है।  
* भारतीय शिक्षा हमेशा धर्मसापेक्ष परन्तु अर्थनिरपेक्ष रही है। शिक्षा ग्रहण करने को और देने को पैसे के साथ कभी जोडा नहीं गया है।  
+
* धार्मिक शिक्षा सदा धर्मसापेक्ष परन्तु अर्थनिरपेक्ष रही है। शिक्षा ग्रहण करने को और देने को पैसे के साथ कभी जोड़ा नहीं गया है।  
 
* भारत में शिक्षा राजा और प्रजा का मार्गदर्शन और नियमन करती रही है। उसने कभी शासन नहीं किया, व्यापार नहीं किया, उत्पादन नहीं किया, उसने धर्मसाधना और धर्मरक्षा ही की है।
 
* भारत में शिक्षा राजा और प्रजा का मार्गदर्शन और नियमन करती रही है। उसने कभी शासन नहीं किया, व्यापार नहीं किया, उत्पादन नहीं किया, उसने धर्मसाधना और धर्मरक्षा ही की है।
भारतीय शिक्षा की यह आत्मा है। भारतीय शिक्षा का यह स्वभाव रहा है। इस शिक्षा ने समाज को श्रेष्ठ बनाया है। इस शिक्षा ने प्रजा को समृद्ध और सुसंस्कृत बनाया है। इस शिक्षा ने राष्ट्र को चिरंजीव बनाया है।
+
धार्मिक शिक्षा की यह आत्मा है। धार्मिक शिक्षा का यह स्वभाव रहा है। इस शिक्षा ने समाज को श्रेष्ठ बनाया है। इस शिक्षा ने प्रजा को समृद्ध और सुसंस्कृत बनाया है। इस शिक्षा ने राष्ट्र को चिरंजीव बनाया है।
  
आज सामान्य जन भी कह सकता है कि भारत की वर्तमान शिक्षा 'टेकनिकली' भारतीय होने पर भी स्वभाव से भारतीय नहीं है।
+
आज सामान्य जन भी कह सकता है कि भारत की वर्तमान शिक्षा 'टेकनिकली' धार्मिक होने पर भी स्वभाव से धार्मिक नहीं है।
  
शिक्षा ऊपर बताये गये हैं ऐसे अर्थों में भारतीय होनी चाहिये कि नहीं ऐसा यदि पूछा जाय तो लोग बडे असमंजस में पड जायेंगे । उत्तर देते नहीं बनेगा।
+
शिक्षा ऊपर बताये गये अर्थों में धार्मिक होनी चाहिये कि नहीं, ऐसा यदि पूछा जाय तो लोग बडे असमंजस में पड जायेंगे । उत्तर देते नहीं बनेगा।
  
 
==== आज के जमाने में यह नहीं चलेगा ====
 
==== आज के जमाने में यह नहीं चलेगा ====
एक ओर तो आज भी भारतीय अन्तर्मन में इन सारी बातों के लिये प्रेम है, आकर्षण है और सुप्त इच्छा है कि यह सब ऐसा ही होना चाहिये । परन्तु व्यावहारिक धरातल पर तो यह सब रम्य स्वप्न जैसा ही लगता है। एक ही बात मन में उठती है कि यह सम्भव ही नहीं है, आज का जमाना अलग है, उसमें यह सब नहीं चलता।
+
एक ओर तो आज भी धार्मिक अन्तर्मन में इन सारी बातों के लिये प्रेम है, आकर्षण है और सुप्त इच्छा है कि यह सब ऐसा ही होना चाहिये । परन्तु व्यावहारिक धरातल पर तो यह सब रम्य स्वप्न जैसा ही लगता है। एक ही बात मन में उठती है कि यह सम्भव ही नहीं है, आज का जमाना अलग है, उसमें यह सब नहीं चलता।
  
 
आज पैसे का बोलबाला है। कोई मुफ्त में पढायेगा नहीं और मुफ्त में मिलने वाली शिक्षा कोई लेगा नहीं ।
 
आज पैसे का बोलबाला है। कोई मुफ्त में पढायेगा नहीं और मुफ्त में मिलने वाली शिक्षा कोई लेगा नहीं ।
Line 192: Line 175:
 
आज शिक्षक सम्माननीय नहीं रहा है। वह पैसे के लिये ही तो पढाता है। उसे विद्यार्थी की ही चिन्ता नहीं है तो विद्या की या देश की कैसे होगी ? यदि बन्धन नहीं है तो वह पढायेगा ही नहीं। बन्धन हैं तब भी तो वह सही नीयत नहीं रखता, फिर मुक्त कर देने से तो वह क्या नहीं करेगा ? इसलिये सरकारी नियन्त्रण तो अनिवार्य है, नहीं रहा तो सब अराजक हो जायेगा।
 
आज शिक्षक सम्माननीय नहीं रहा है। वह पैसे के लिये ही तो पढाता है। उसे विद्यार्थी की ही चिन्ता नहीं है तो विद्या की या देश की कैसे होगी ? यदि बन्धन नहीं है तो वह पढायेगा ही नहीं। बन्धन हैं तब भी तो वह सही नीयत नहीं रखता, फिर मुक्त कर देने से तो वह क्या नहीं करेगा ? इसलिये सरकारी नियन्त्रण तो अनिवार्य है, नहीं रहा तो सब अराजक हो जायेगा।
  
धर्म की और मुक्ति की तो बात ही बेमानी है । धर्म का नाम लेते ही साम्प्रदायिकता का लेबल चिपक जाता है और हजार प्रकार की परेशानियाँ निर्माण हो जाती है। आज के धर्माचार्य, साधु संन्यासी सब भोंदूगीरी ही तो कर रहे हैं। यह जमाना विज्ञान का है। विज्ञान के जमाने में वेद, उपनिषद पढाना बुद्धिमानी नहीं है । दुनिया आगे बढ़ रही है और हम पीछे जाने की बात कर रहे हैं।
+
धर्म की और मुक्ति की तो बात ही बेमानी है। धर्म का नाम लेते ही साम्प्रदायिकता का लेबल चिपक जाता है और हजार प्रकार की परेशानियाँ निर्माण हो जाती है। आज के धर्माचार्य, साधु संन्यासी सब भोंदूगीरी ही तो कर रहे हैं। यह जमाना विज्ञान का है। विज्ञान के जमाने में वेद, उपनिषद पढाना बुद्धिमानी नहीं है । दुनिया आगे बढ़ रही है और हम पीछे जाने की बात कर रहे हैं। आज अंग्रेजी सीखनी चाहिये, कम्प्यूटर सीखना चाहिये, मेनेजमेण्ट सिखना चाहिये, टेक्नोलोजी सीखनी चाहिये । भारत को विश्व में स्थान मिलना चाहिये और उसे प्राप्त करने के लिये इन सारे विषयों की आवश्यकता है। वेद, उपनिषद सीखने के लिये संस्कृत सीखनी पडेगी। संस्कृत अब 'आउट ऑफ डेट' है। अंग्रेजी ने विश्वभाषा का स्थान ले लिया है।
 
 
आज अंग्रेजी सीखनी चाहिये, कम्प्यूटर सीखना चाहिये, मेनेजमेण्ट सिखना चाहिये, टेक्नोलोजी सीखनी चाहिये । भारत को विश्व में स्थान मिलना चाहिये और उसे प्राप्त करने के लिये इन सारे विषयों की आवश्यकता है। वेद, उपनिषद सीखने के लिये संस्कृत सीखनी पडेगी। संस्कृत अब 'आउट ऑफ डेट' है। अंग्रेजी ने विश्वभाषा का स्थान ले लिया है।
 
 
 
भारत ने अमेरिका में जाकर अपना स्थान बनाना चाहिये और प्रतिष्ठा प्राप्त करनी चाहिये । भारत के लोग बुद्धिमान हैं, कर्तृत्ववान हैं, विश्वमानकों पर खरे उतरने वाले हैं। उन्हें इस दिशा में पुरुषार्थ करना चाहिये । इसके लिये अंग्रेजी, विज्ञान तथा कम्प्यूटर पर प्रभुत्व प्राप्त करना चाहिये । हमें आधुनिक बनना चाहिये ।
 
 
 
अतः भारतीयता की नहीं, वैश्विकता की आवश्यकता है। प्रयास उसे प्राप्त करने हेतु होने चाहिये ।
 
 
 
इस प्रकार भारतीयता के सन्दर्भ में आशंका और अविश्वास का वातावरण चारों और फैला हुआ है। बात बहुत कठिन है, जटिल है।
 
 
 
कर्तव्य का विचार प्रथम करना है, भोग और सुविधा के बारे में अपने आपको अन्त में रखना है। इस तथ्य का स्वीकार करना तप का प्रथम चरण है। तप त्याग की अपेक्षा करता है । वर्तमान स्थिति को देखते हुए प्रथम त्याग सम्मान और प्रतिष्ठा का करना होगा । आज अनुयायिओं की ओर से जो सम्मान मिलता है और उसके कारण जो प्रतिष्ठा मिलती है वह हमें तप नहीं करने देती। इन दो बातों के लिये सिद्धता करेंगे तो आगे के तप के लिये भी सिद्धता होगी। धर्माचार्यों को आज बौद्धिक तप की बहुत आवश्यकता है। इस तप के मुख्य आयाम इस प्रकार
 
 
 
अनुयायिओं की ओर से सम्मान क्यों मिल रहा है, कौन से तत्त्व उन्हें हमारे पास आने के लिये प्रेरित कर रहे हैं, उनकी दुर्बलतायें कौन सी हैं, आकांक्षायें कैसी हैं और अपेक्षायें क्या होती हैं इन्हें समझना
 
 
 
और उसके बाद उनका मार्गदर्शन करना । २. धर्म को आज विवाद का विषय बना दिया गया है।
 
 
 
इस विवाद से धर्म को मुक्त करने हेतु तप की आवश्यकता है। इस विवाद को समझना, उसके पीछे जो निहित स्वार्थ है उन्हें समझना, उन स्वार्थों को कैसे परास्त करना इसका विचार करना, उसकी योजना करना और योजनाओं का क्रियान्वयन करना यह तप है । विवाद में न पडना पडे इसके लिये धर्म के नाम पर संस्कृति, अध्यात्म, योग आदि के नाम स्वीकार कर धर्म संज्ञा का ही त्याग करना युद्धक्षेत्र से पलायन करना होता है। बौद्धिक तप का यह दूसरा आयाम है। सम्प्रदाय को धर्म के रूप में प्रस्तुत करना धर्म को ही संकुचित बना देना है । सम्प्रदाय को व्यापक धर्म का एक अंग मानकर उसकी प्रतिष्ठा के लिये सम्प्रदाय की शक्ति का उपयोग करना तप ही है क्योंकि तब
 
 
 
भारतीय समाज धर्मनिष्ठ है । भारत में जो बडा है उसे ही अपने साथ अधिक कठोर बनना है। बड़ों को
 
 
 
ही अपने साथ अधिक कठोर बनना है । बडों को राजकीय, सामाजिक, व्यक्तिगत गतिविधियों पर
 
कर्तव्य का विचार प्रथम करना है, भोग और सुविधा नियन्त्रण करना पडता है ।
 
के बारे में अपने आपको अन्त में रखना है । इस. *.... अआर्थनिष्ठ समाज को धर्मनिष्ठ समाज बनाने हेतु कया
 
तथ्य का स्वीकार करना तप का प्रथम चरण है । करना पडेगा इसका आकलन करना यह बौद्धिक तप
 
०... तप त्याग की अपेक्षा करता है । वर्तमान स्थिति को है । इस आधार पर नई रचनायें बनाना यह बौद्धिक
 
देखते हुए प्रथम त्याग सम्मान और प्रतिष्ठा का करना तप है। इन रचनाओं को ही भारतीय परम्परा में
 
होगा । आज अनुयायिओं की ओर से जो सम्मान स्मृति कहा गया है। स्मृति की रचना करना
 
मिलता है और उसके कारण जो प्रतिष्ठा मिलती है धर्माचार्यों के लिये बौद्धिक तप है। ऐसा तप
 
वह हमें तप नहीं करने देती । इन दो बातों के लिये करनेवाले ऋषि हैं ।
 
सिद्धता करेंगे तो आगे के तप के लिये भी सिद्धता .. *... दूसरा है मानसिक तप । मानसिक तप करने पर ही
 
होगी । बौद्धिक तप करने की क्षमता प्राप्त होती है ।
 
०. धमचार्यों को आज बौद्धिक तप की. बहुत मानसिक तप के कुछ आयाम इस प्रकार हैं
 
 
 
आवश्यकता है । इस तप के मुख्य आयाम इस प्रकार. १... सम्मान और प्रतिष्ठा का त्याग करना, उसकी अपेक्षा
 
 
 
हैं नहीं करना यह प्रथम चरण है । इसका उल्लेख पूर्व में
 
g. अनुयायिओं की ओर से सम्मान क्यों मिल रहा है, भी हुआ है ।
 
 
 
कौन से तत्त्व उन्हें हमारे पास आने के लिये प्रेरित... २. सामाजिक स्वीकृति के लिये आसान तरीके, लुभावने
 
 
 
कर रहे हैं, उनकी दुर्बलतायें कौन सी हैं, आकांक्षायें रास्ते अपनाने का मोह टालना यह जरा कठिन
 
 
 
कैसी हैं और अपेक्षायें क्या होती हैं इन्हें समझना मानसिक तप है ।
 
 
 
और उसके बाद उनका मार्गदर्शन करना । ३... सही बातें कहने पर अनेक अवरोध निर्माण हो सकते
 
2. धर्म को आज विवाद का विषय बना दिया गया है । हैं, प्रतिरोध भी हो सकता है । इन प्रतिरोधों और
 
 
 
इस विवाद से धर्म को मुक्त करने हेतु तप की अवरोधों को सहना और डटे रहना भी मानसिक तप
 
 
 
आवश्यकता है । इस विवाद को समझना, उसके है।
 
 
 
पीछे जो निहित स्वार्थ है उन्हें समझना, उन स्वार्थों... ४... आर्थिक और राजनीतिक लालचों में न फँसना बहुत
 
 
 
को कैसे परास्त करना इसका विचार करना, उसकी बडा मानसिक तप है ।
 
 
 
योजना करना और योजनाओं का क्रियान्वयन करना... ५. निहित स्वार्थों का पोषण कर लाभ प्राप्त करने के
 
 
 
यह तप है । विवाद में न पडना पडे इसके लिये धर्म लिये प्रवृत्त नहीं होना मानसिक तप है ।
 
 
 
के नाम पर संस्कृति, अध्यात्म, योग आदि के नाम... ६... धमचार्यों को भोग विलास के साधन बहुत सुलभ हो
 
 
 
स्वीकार कर धर्म संज्ञा का ही त्याग करना युद्धक्षेत्र से जाते हैं । इनसे प्रभावित नहीं होना भी मानसिक तप
 
 
 
पलायन करना होता है । बौद्धिक तप का यह दूसरा है ।
 
 
 
आयाम है । ०... धमचार्यों के लिये तप का तीसरा आयाम है शारीरिक
 
रे... सम्प्रदाय को धर्म के रूप में प्रस्तुत करना धर्म को ही तप का । इसके कुछ आयाम इस प्रकार हैं
 
 
 
संकुचित बना देना है । सम्प्रदाय को व्यापक धर्म का... १... धर्माचार्य गृहस्थ हो, वानप्रस्थ हो या संन्यासी उसे
 
 
 
एक अंग मानकर उसकी प्रतिष्ठा के लिये सम्प्रदाय की धर्म के विरोधी किसी भी प्रकार का आचरण नहीं
 
 
 
शक्ति का उपयोग करना तप ही है क्योंकि तब करना चाहिये ।
 
 
 
२८१
 
 
 
 
............. page-298 .............
 
 
 
         
 
 
 
२... खानपान, वेशभूषा, बोलचाल,
 
उपभोग आदि में संयम, सादगी और त्याग होना ही
 
चाहिये । उदाहरण के लिये न खाने के पदार्थ खाना,
 
शुंगार और अलंकारों का अतिरेक करना, शृंगार की
 
बातें करना, टीवी सिनेमा आदि में अधिक रुचि लेना
 
किसी को प्रेरणा देने वाला आचरण नहीं होता ।
 
भारतीय मानस संयम, सदाचार, त्याग, अनुशासन
 
आदि से ही प्रेरित होता है । दम्भ समझता है, उससे
 
प्रभावित नहीं होता । जिसे समाज का मार्गदर्शन
 
करना है उसे शारीरिक स्तर के वैभव विलास से
 
परहेज करना ही होता है ।
 
 
 
दिखावे के लिये संयम और एकान्त में असंयम से
 
चरित्र दुर्बल होता है और लोग छले नहीं जाते
 
इसलिये ऐसा करने से सब कुछ नष्ट होता है ।
 
जो समाजविरोधी, पर्यावरणविरोधी, स्वास्थ्यविरोधी है
 
वह धर्मविरोधी है । जरा इन बातों पर विचार करना
 
चाहिये...
 
विदेशी वस्तुयें आकर्षक और सुविधायुक्त हैं, कया
 
उन्हें अपनाने से बच सकते हैं ?
 
ए.सी. पर्यावरण विरोधी है । क्या उससे बचकर गर्मी
 
सह सकते हैं ?
 
बिना स्नान के भोजन करने का नियम अपनाने में
 
कभी चौबीस घण्टे भूखा रहना पड सकता है । क्या
 
ऐसा नियम अपना सकते हैं ?
 
प्लास्टिक और पोलीएस्टर पर्यावरण का भयंकर
 
नुकसान करते हैं । क्या उनका त्याग कर अनेक
 
प्रकार की असुविधाओं का स्वीकार कर सकते हैं,
 
और अन्यों को भी इनका त्याग करने हेतु प्रेरित कर
 
सकते हैं ?
 
क्या काले धन का अस्वीकार कर सकते हैं ?
 
ऐसे तो अनेक आयाम हैं जो शारीरिक स्तर पर
 
असुविधा, कष्ट, अभाव आदि का स्वीकार करने हेतु बाध्य
 
बना सकते हैं । यही एक धर्माचार्य के लिये तप है ।
 
धर्माचार्य स्वयं जब ऐसा तप करते हैं तब वे समाज का
 
मार्गदर्शन कर सकते हैं, समाज को प्रभावित कर सकते हैं ।
 
 
 
२८२
 
 
 
भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम
 
 
 
उपरी स्तर पर प्रभावित करने के तरीके अपनाना सरल है,
 
परन्तु उनसे आन्तरिक और स्थायी परिवर्तन नहीं होता ।
 
समाज को शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक स्तर पर
 
प्रभावित और प्रेरित करने हेतु तीनों प्रकार के तप करने होते
 
हैं ।
 
 
 
जितनी तपश्चर्या उग्र उतना ही प्रभाव स्थायी यह
 
वैज्ञानिक नियम है । समाज यदि दुर्बल है तो उसका कारण
 
धर्माचार्यों की तपश्चर्या कम पड रही है यही समझना
 
चाहिये ।
 
 
 
ऐसा नहीं है कि आज ऐसा तप करनेवाले लोग हैं ही
 
नहीं । तपश्चर्या करने वाले लोग हैं इसीलिये समाज पूर्ण रूप
 
से नष्ट नहीं हो रहा है और अच्छे भविष्य की सम्भावना
 
बची है । परन्तु तप कम पड रहा है यह भी स्पष्ट रूप से
 
दिखाई दे रहा है । आसुरी शक्तियों का प्रभाव बढ रहा है
 
यही इसका प्रमाण है । जो हैं उन धर्माचार्यों को अपनी
 
तपश्चर्या बढाना यह एक आवश्यकता है, तपश्चर्या करने
 
वालों की संख्या बढाना दूसरी आवश्यकता है । यह भी
 
ध्यान में रखने की बात है कि केवल संख्या बढने से होगा
 
नहीं, तपश्चर्या की मात्रा भी बढनी चाहिये । सत्ययुग हो या
 
कलियुग तपश्चर्या की उग्रता तो होना आवश्यक ही है ।
 
 
 
समाज के लिये तप
 
 
 
अच्छे धर्माचार्य प्राप्त हों यह समाजका भी भाग्य है ।
 
ऐसा भाग्य प्राप्त होने हेतु समाज को भी तप करने की
 
आवश्यकता होती है ।
 
 
 
समाज के तप के कुछ आयाम इस प्रकार हैं...
 
 
 
आस्था, विश्वास और श्रद्धा का भाव सांस्कृतिक
 
विकास के लिये आवश्यक है । आज इन तीनों बातों का
 
अभाव सार्वत्रिक रूप में दिखाई दे रहा है । किसी की किसी
 
बात पर या किसी व्यक्ति पर श्रद्धा नहीं है । इसी प्रकार
 
किसी पर विश्वास भी नहीं है। किसी तत्त्व पर, किसी
 
सिद्धान्त पर, किसी ग्रन्थ पर आस्था भी नहीं है । ये तीनों
 
बातें दिखाई भी देती हैं तो बहुत जल्दी नष्ट भी हो जाती
 
हैं । इसका कारण यह है कि किसी न किसी स्वार्थ की पूर्ति
 
के आलम्बन से जब आस्था, विश्वास या श्रद्धा जुड जाते हैं
 
 
 
 
............. page-299 .............
 
 
 
पर्व ४ : विद्यालय की भौतिक एवं आर्थिक व्यवस्थाएँ
 
 
 
तब स्वार्थ सिद्ध नहीं होने पर वे टूट भी जाते हैं ।
 
इसलिये समाज को आस्था, विश्वास और श्रद्धा
 
बढ़ाना चाहिये और उन्हें स्वार्थ से मुक्त करना चाहिये |
 
इसी प्रकार से दम्भी, झूठे, शिथिल चस्त्रिवाले
 
धर्माचार्यों को पहचानना भी चाहिये और उनसे बचना
 
चाहिये । स्वार्थ छोडने से ऐसा हो सकता है ।
 
थोडा भी दूसरे का विचार नहीं करने से, समाज की
 
धारणा हेतु थोडी भी असुविधा नहीं सहने से, थोडा
 
भी सदाचारी नहीं होने से, थोडा भी संयम नहीं करने
 
से चरित्र बनता ही नहीं है । ऐसे चरित्रहीन लोगों में
 
से धर्माचार्य पैदा ही नहीं होते ।
 
समाज त्रस्त है । त्रस्त समाज ने ऐसी कामना करनी
 
चाहिये कि उन्हें मार्गदर्शक प्राप्त हो । इस कामना की
 
पूर्ति हेतु ईश्वर से प्रार्थथा करनी चाहिये । आज
 
कामना व्यक्तिगत सुख की होती है और प्रार्थना
 
उसकी पूर्ति के लिये की जाती है, परिणाम स्वरूप
 
सच्चे और समर्थ धर्माचार्य प्राप्त ही नहीं होते ।
 
जो समाज अपने कर्तव्य भूल जाता है और अधिकारों
 
के लिये लडाई करता है उसके भाग्य में समर्थ
 
 
 
     
 
 
 
2८ ५
 
2 ५.
 
 
 
 
 
 
 
धर्माचार्य कैसे हो सकता है ?
 
 
 
ऐसे धर्माचार्य तो समाज का त्याग ही कर देंगे ।
 
 
 
इस प्रकार समाज और धर्माचार्य दोनों को तप करने
 
की आवश्यकता है, परन्तु दोनों में भी धर्माचार्य का दायित्व
 
विशेष है क्योंकि वे शीर्षस्थान पर हैं ।
 
 
 
तपश्चर्या से अपना सामर्थ्य बढाने के बाद, समाज को
 
सच्चरित्र बनाने की योजना के बाद धर्माचार्यों ने शिक्षाक्षेत्र
 
के साथ समायोजन करना चाहिये । धर्माचार्य और शिक्षक
 
दोनों ने मिलकर धर्मानुसारी शिक्षा का प्रतिमान विकसित
 
करना चाहिये । इस शिक्षा का प्रसार किस प्रकार हो इसकी
 
योजना करनी चाहिये ।
 
 
 
उदाहरण के लिये भारत के हर मन्दिर, मठ, संस्थान,
 
मिशन आदिने शिक्षा की व्यवस्था करनी चाहिये और उसे
 
राज्यनिरपेक्ष और अर्थनिरपेक्ष बनाना चाहिये । भारतीय
 
शिक्षा का जो स्वरूप है उसे साकार करने वाली यह
 
शिक्षाव्यवस्था होनी चाहिये। यह सर्व प्रकार से
 
सम्प्रदायनिरपेक्ष तो स्वभाव से ही होगी |
 
 
 
सम्पूर्ण देश की शिक्षा को धर्मानुसारी बनाना
 
धर्माचार्यों और शिक्षकों का संयुक्त कर्तव्य है ।
 
 
 
 
 
 
भारत के शिक्षाक्षेत्र की पुर्नरंचना
 
 
 
भारत में भारतीय शिक्षा होनी चाहिये
 
 
 
यह एक स्वाभाविक कथन है । कभी कभी तो लोग
 
आश्चर्य व्यक्त करते हैं कि ऐसा कथन करने की
 
आवश्यकता ही क्या है । भारत में शिक्षा भारतीय ही तो
 
है। भारत सरकार इसे चला रही है। भारत के ही
 
संसाधनों से चलती है । भारत के ही लोग इसे चला रहे
 
हैं। भारत के ही संचालक, भारत के ही शिक्षक, भारत
 
के ही विद्यार्थी हैं फिर शिक्षा का भारतीय होना
 
स्वाभाविक ही तो है । फिर भारतीय होनी चाहिये ऐसा
 
कहने का प्रयोजन ही क्या है ? भारत के लोगों को
 
भारतीय होना चाहिये ऐसा कभी कोई कहता है क्या ?
 
हमारा संविधान हमें भारत का नागरिकत्व देता है फिर प्रश्र
 
 
 
२८३
 
 
 
ही नहीं है। अमेरिका के अमेरिकन, चीन के चीनी,
 
अफ्रीका के अफ्रीकी तो भारत के लोग भारतीय हैं यह
 
जितना स्वाभाविक है उतना ही स्वाभाविक भारत में
 
शिक्षा का भारतीय होना है । भारत में शिक्षा भारतीय होनी
 
चाहिये इस कथन का कोई विशेष प्रयोजन ही नहीं है ।
 
 
 
देश के अधिकतम लोगों के लिये यह प्रश्न ही नहीं
 
है । भारतीय और अभारतीय जैसी संज्ञाओं से कोई विशेष
 
अर्थबोध होता है ऐसा भी नहीं है । भारतीय होने से और
 
अभारतीय होने से क्या अन्तर हो जायेगा इसकी कल्पना
 
भी नहीं है । घूमन्तु, अनपढ़, भिखारी, गँवार, मजदूर ऐसे
 
लोगों की यह स्थिति है ऐसा नहीं है, झुग्गी झॉंपडियों में
 
रहनेवाले, दिनभर परिश्रम करके मुश्किल से दो जून रोटी
 
 
 
 
............. page-300 .............
 
 
 
       
 
 
 
भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम
 
 
 
 
 
 
 
खाने वाले लोगों की यह बात नहीं... लोगों को जोडना चाहते हैं, कुछ मात्रा में उन्हें यश भी
 
है। कार्यालयों में बाबूगीरी या अफसरी करने ac, मिलता है । उनका कार्यक्षेत्र और पहुँच परिवार से लेकर
 
व्यापार करने वाले, उद्योग चलाने वाले, लाखों रूपये. सरकार तक भी है ।
 
 
 
कमाने वाले, लाखों रूपये अपने बच्चों की शिक्षा पर कुछ ऐसे संगठन भी है जिनका मुख्य कार्य शिक्षा
 
खर्च करने वाले, शिक्षा संस्थाओं का संचालन करने... नहीं है, संस्कृति और धर्म है । परन्तु अपने कार्य के एक
 
वाले, उनमें पढ़ाने वाले, अधिकांश लोग ऐसे हैं जिन्हें. अंग के रूप में वे शिक्षा पर भी काम करते हैं । मूल्यनिष्ठा
 
भारतीय और अभारतीय का प्रश्न ही परेशान नहीं करता... संस्कारयुक्त शिक्षा यह उनका विषय है, भारतीय शिक्षा
 
है। उन्हें कभी कभी शिक्षा अच्छी होनी चाहिये, सुलभ... नहीं ।
 
 
 
होनी चाहिये, सरलता से नौकरी दिलाने वाली होनी विगत सौ सवासौ वर्षों में राष्ट्रीय शिक्षा के नाम से
 
चाहिये ऐसा तो लगता है, विद्यालयों के अभिभावक इस देश में शिक्षा को भारतीय बनाने के आन्दोलन चले
 
सम्मेलनों में या गोष्टियों में अच्छी शिक्षा के विषय पर तो... हैं । उनके लिये शिक्षा का भारतीय और अभारतीय होना
 
चर्चा होती है परन्तु भारतीय और अभारतीय के प्रश्न की... प्राणप्रश्न था और अपनी सारी शक्ति लगाकर उन्होंने राष्ट्रीय
 
चर्चा नहीं होती । सामान्य जन के लिये शिक्षा नौकरी. शिक्षा के नमूने खडे किये थे, इस अपेक्षा से कि पूरे देश
 
दिलाने वाली होने से, प्रतिष्ठा दिलाने वाली होने से... में इन के जैसे शिक्षाकेन्द्र निर्माण होंगे । उनका कहना था
 
प्रयोजन है । उसे अपने बच्चे की चिन्ता है, अपने निर्वाह... कि शिक्षा राष्ट्रीय अर्थात्‌ भारतीय होनी चाहिये ।
 
 
 
की चिन्ता है, देश के, समाज के या शिक्षा के विषय में परन्तु आज तो वह भी इतिहास की बात हो गई ।
 
विचार करना उसके विश्व का हिस्सा नहीं है। सामान्य... भारत स्वाधीन हुआ और शिक्षा के भारतीय या अभारतीय
 
जन अपने आपसे मतलब रखता है, अपने परिवार से... होने का प्रश्न ही मिट गया । भले A we हो परन्तु मानो
 
मतलब रखता है, उससे आगे या उससे परे जाकर चिन्ता... ऐसी धारणा बन गई कि अब सब कुछ भारतीय ही है ।
 
करने की आवश्यकता उसे नहीं लगती । ऐसी अपेक्षा भी अब प्रश्न अच्छी शिक्षा का है, भारतीय शिक्षा का
 
उससे कम ही की जाती है । हाँ, धार्मिक संगठन धर्म के... नहीं ।
 
 
 
लिये अर्थात्‌ अपने सम्प्रदाय के लिये और राजकीय पक्ष
 
 
 
अपने पक्ष के लिये कुछ कार्य करते दिखाई देते हैं परन्तु वैश्विक शिक्षा के हिमायती
 
 
 
कुल मिलाकर देश के लिये और शिक्षा के लिये काम देश में एक ऐसा तबका भी है जो मानता है कि
 
करने वाले कम ही लोग दिखाई देते हैं । अब भारतीय अभारतीय का प्रश्न नहीं होना चाहिये,
 
 
 
वैश्विकता का होना चाहिये । दुनिया छोटी हो गई है,
 
संचार माध्यमों के प्रभाव से हमारा सम्पर्क क्षेत्र विस्तृत हो
 
 
 
देश में कुछ ऐसे शैक्षिक संगठन हैं जो शिक्षा के... गया है, कहीं पर भी पहुँचना अब दुर्गम नहीं है, फिर
 
भारतीय या अभारतीय होने की चिन्ता करते हैं। इन्हें अपने ही देश में बँधे रहने की आवश्यकता ही क्या है ।
 
लगता है कि शिक्षा भारतीय होनी चाहिये । वे इस दिशा... हमें विश्व नागरिकता की बात करनी चाहिये, विश्वसंस्कृति
 
में प्रयत्नशील भी हैं। वे स्थानिक से लेकर अखिल की ही प्रतिष्ठा करनी चाहिये । हमें अपने आपको व्यापक
 
भारतीय स्तर पर कार्यरत हैं । वे लोगों तक इस विषय को... सन्दर्भ में देखना चाहिये । भारत में बँधे रहने की
 
ले जाने का प्रयास भी करते हैं। उनेक लिये यह... आवश्यकता नहीं । विश्वमर से अच्छी बातों का स्वीकार
 
आन्दोलन का विषय है । अपने आन्दोलन में वे अनेक... कर अपने आपको समृद्ध बनाना चाहिये । शिक्षा का ही
 
 
 
भारतीय शिक्षा हेतु कार्यरत संगठन
 
 
 
र्ट््ड
 
 
 
 
............. page-301 .............
 
 
 
पर्व ४ : विद्यालय की भौतिक एवं आर्थिक व्यवस्थाएँ
 
 
 
प्रश्न है तो हमें भारतीय नहीं अपितु वैश्विक शिक्षा की बात
 
करनी चाहिये ।
 
 
 
इस मान्यता के अनुसरण में स्कूली शिक्षा के लिये
 
कई आन्तर्राष्ट्रीय शिक्षाबोर्ड और उच्च शिक्षा के क्षेत्र में
 
कई आन्तर्सष्ट्रीय महाविद्यालय निर्माण हुए हैं और भारतीय
 
नागरिक अपने बच्चों को उनमें पढा रहे हैं। अब वे
 
‘caked! भारतीय हैं, भावना से आन्तर्राष्ट्रीय अर्थात्‌
 
वैश्विक हैं (भले ही वास्तविकता में विदेशी हों) ।
 
 
 
अभारतीयता का आधार
 
 
 
तो फिर यह भारतीय अभारतीय का प्रश्न क्‍या है ?
 
जो लोग भारत में शिक्षा भारतीय होनी चाहिय ऐसा कहते
 
हैं और शिक्षा के भारतीयकरण हेतु प्रयास भी करते हैं
 
उनका गृहीत है कि भारत में शिक्षा भारतीय नहीं है और
 
उसे भारतीय बनाना चाहिये |
 
 
 
भारतीय और अभारतीय किस आधार पर तय होता
 
है ? वर्तमान शिक्षा में ऐसा क्या है जो भारतीय नहीं है ?
 
शिक्षा अच्छी नहीं होना समझ में आता है । क्या भारतीय
 
शिक्षा से अच्छी शिक्षा निहित है ? शिक्षा महँगी है, वह
 
नहीं होनी चाहिये, सस्ती और सुलभ होनी चाहिये, हो
 
सके तो निःशुल्क होनी चाहिये । क्या भारतीय शिक्षा से
 
शिक्षा निःशुल्क और सुलभ होनी चाहिये यह तात्पर्य है ?
 
क्या प्राचीन काल में दी जाती थी वह शिक्षा आज दी
 
जाय तो शिक्षा भारतीय होगी ? प्राचीन काल में वेद
 
पढाये जाते थे । क्या वेद ver भारतीय शिक्षा है ?
 
प्राचीन काल में शिक्षा गुरुकुलों में होती थी । विद्यार्थी
 
ब्रह्मचारी कहे जाते थे, भिक्षा माँगते थे, गुरु की सेवा
 
करते थे । क्या उस प्रकार के गुरुकुल बनाना भारतीय
 
शिक्षा है ? प्राचीन समय में कुछ लोग ही पढते थे । ऐसे
 
कुछ लोगों तक ही शिक्षा को सीमित कर देना भारतीय
 
शिक्षा है ? यदि यही भारतीय शिक्षा है तो वह आज के
 
जमाने में कैसे सम्भव है ? आज कोई ब्रह्मचारी बनकर
 
fiat कैसे माँग सकता है ? आज कोई वेद कैसे पढ़
 
सकता है ? दुनिया इतनी आगे बढ़ गई, हम वापस कैसे
 
 
 
२८५
 
 
 
         
 
 
 
जा सकते हैं ? यदि यही भारतीय
 
शिक्षा है तो उसकी अपेक्षा करना व्यावहारिक नहीं है ।
 
वह तो आदर्श भी नहीं है क्योंकि वह पीछे ले जानेवाली
 
है, आगे नहीं ।
 
 
 
इस प्रकार शिक्षा के भारतीय होने की और उसे
 
भारतीय बनाने की बात जल्दी लोगों की समझ में ही नहीं
 
आती । शिक्षाक्षेत्र के लोगों का दायित्व है कि प्रथम तो
 
लोगों के मन में इस विषय की स्पष्टता हो इस हेतु प्रयास
 
करें और फिर अपने कार्य में सबको सहभागी बनायें ।
 
 
 
शिक्षा भारतीय कब होगी ?
 
 
 
शिक्षा भारतीय है ऐसा कब कहा जायेगा ? इस
 
विषय की तात्विक चर्चा “'भातीय शिक्षा संकल्पना एवं
 
स्वरूप ग्रंथ में की गई है, उसका पुनरावर्तन करने की
 
आवश्यकता नहीं है । यहाँ व्यावहारिकता के धरातल पर
 
ही विचार करेंगे ।
 
कुछ मुद्दे इस प्रकार हैं
 
भारतीय शिक्षा निःशुल्क होती है परन्तु निःशुल्क है
 
इसलिये भारतीय नहीं है। सरकारी प्राथमिक
 
विद्यालयों में शिक्षा निःशुल्क ही होती है । परन्तु
 
वह भारतीय नहीं है ।
 
भारतीय शिक्षा शिक्षक के अधीन होती है, परन्तु
 
केवल शिक्षक के अधीन है इसलिये वह भारतीय
 
नहीं हो जाती । आज भी तो शिक्षक ही शिक्षा का
 
सर्व प्रकार का कार्य कर ही रहे हैं ।
 
भारतीय शिक्षा घरों में, विद्यालयों में, मन्दिरों में
 
होती है परन्तु घरों में और मन्दिरों में होती है
 
इसलिये वह भारतीय नहीं हो जाती । आज भी
 
“होमस्कुलिंग' के नाम से घरों में शिक्षा देने के
 
प्रयोग हो रहे हैं, आज भी मन्दिरों द्वारा
 
शिक्षासंस्थान चलाये जाते हैं परन्तु वह शिक्षा
 
भारतीय होने की कोई निश्चिति नहीं है ।
 
भारतीय शिक्षा धर्म और अध्यात्म की शिक्षा होती है,
 
परन्तु धार्मिक और आध्यात्मिक है इसलिये वह
 
 
 
 
............. page-302 .............
 
 
 
 
 
 
 
भारतीय नहीं हो जाती । आज भी अनेक
 
 
 
धार्मिक और सांस्कृतिक संगठन वेद, उपनिषद,
 
 
 
षडदर्शन, भगवदूगीता आदि पढ़ाते हैं, पूजापाठ भी
 
 
 
पढ़ाते हैं, परन्तु वह शिक्षा भारतीय नहीं है ।
 
 
 
ऐसे अनेक पहलू हैं जो भारतीय शिक्षा के
 
अंगप्रत्यंग हैं परन्तु वे अंगप्रत्यंग शिक्षा को भारतीय नहीं
 
बनाते ।
 
 
 
जिस शिक्षा की आत्मा भारतीय है वही शिक्षा
 
भारतीय है । जिसकी आत्मा भारतीय है और जिसकी नहीं
 
है उन दोनों के अंगप्रत्यंग तो समान हो सकते हैं, परन्तु
 
राष्ट्र अथवा सामान्य अर्थ में देश अंगप्रत्यंग से नहीं,
 
आत्मा से विशिष्ट पहचान प्राप्त करता है । आत्मा ही देश
 
का स्वभाव होती है । भारत के लिये जो स्वाभाविक है
 
वही भारतीय है । भारत के स्वभाव के अनुरूप जो है वह
 
भारतीय शिक्षा है, स्वभाव के विपरीत है वह अभारतीय ।
 
 
 
भारतीय शिक्षा के विचारणीय सूत्र
 
 
 
शिक्षा को लेकर भारत के स्वभाव के अनुरूप और
 
विपरीत क्‍या है इस का विचार करने पर कुछ सूत्र ध्यान
 
में आते हैं
 
 
 
१, भारत सबको एक मानता है, अपना मानता है,
 
किसी को पराया नहीं मानता । इसलिये सबका
 
कल्याण हो, सब सुखी हों, किसीका अहित न हो
 
ऐसी कामना करता है और प्रयास भी करता है ।
 
 
 
२... भारत स्वतन्त्रता को सबसे बडा मूल्य मानता है ।
 
भारत अपनी स्वतन्त्रता की तो रक्षा करना चाहता
 
ही है परन्तु और किसी की स्वतन्त्रता छीनना भी
 
नहीं चाहता । वह और किसी को अपनी स्वतन्त्रता
 
छीनने भी नहीं देता ।
 
 
 
३... भारत केवल मनुष्यों की ही नहीं तो सजीव निर्जीव
 
सभी पदार्थों की स्वतन्त्र सत्ता का स्वीकार और
 
सम्मान करता है । अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिये
 
वह किसी को नष्ट करने की प्रवृत्ति नहीं रखता ।
 
जिन जिनसे कुछ भी प्राप्त होता है उसके साथ
 
 
 
२८६
 
 
 
भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम
 
 
 
     
 
 
 
कृतज्ञता से व्यवहार करता है ।
 
 
 
भारत धर्म को सर्वोपरि स्थान देता है। धर्म को
 
आज की तरह केवल सम्प्रदाय नहीं मानता, धर्म
 
को सम्पूर्ण विश्व की धारणा करने वाले विश्वनियम
 
के रूप में जानता है और अपनी जीवनव्यवस्था के
 
लिये उसी विश्वनियम के तत्त्व का स्वीकार करता
 
है । इसलिये भारत के लिये जो धर्म के अनुकूल है
 
वह स्वीकार्य है, धर्म के विरोधी है वह त्याज्य है ।
 
धर्मनिरपेक्षता भारतीय स्वभाव के विपरीत है, धर्म
 
सापेक्षता ही स्वीकार्य है, सम्माननीय है ।
 
 
 
जो धर्म सिखाती है वही शिक्षा है, धर्म सिखाने वाला
 
शिक्षक है और वह सबके लिये सम्माननीय है ।
 
शिक्षक धर्म सिखाता है इसलिये शासक के लिये भी
 
सम्माननीय है ।
 
 
 
शिक्षा की पूर्ण व्यवस्था शिक्षक के अधीन है । उसे
 
वैसी ही रखना राजा और प्रजा सबके लिये
 
हितकारी है ।
 
 
 
धर्म सिखानेवाला शिक्षक स्वतन्त्र है, स्वायत्त है,
 
निःस्वार्थी है, चरित्रवान है और संयमित और सादा
 
जीवन जीता है ।
 
 
 
भारत में शिक्षा सार्वत्रिक है । प्रत्येक व्यक्ति अपनी
 
अपनी भूमिका में अपनी अपनी क्षमता और सीखने
 
वाले की आवश्यकता के अनुसार सिखाता है ।
 
मातापिता सन्तानों को, व्यवसायी अपने साथियों
 
को, गुरु शिष्य को शिक्षा देता है, भौतिक बदले की
 
अपेक्षा नहीं रखता । अपने को प्राप्त शिक्षा दूसरे
 
को देनी ही चाहिये और शिक्षा का प्रसार करना ही
 
चाहिये ऐसी अपेक्षा कोई व्यक्ति नहीं अपितु धर्म
 
करता है, धर्म की इस अपेक्षा को पूर्ण करने के
 
लिये सब सिद्ध रहते हैं ।
 
 
 
भारत परम्परा का देश है, परम्परा को बनाये रखना,
 
परिष्कृत करना, समृद्ध बनाना शिक्षा का काम है ।
 
भारत में अधिसत्ता धर्म की ही है, शिक्षक उसका
 
प्रतिहारी है, शासक, कारीगर, व्यापारी सब उसके
 
 
 
 
............. page-303 .............
 
 
 
पर्व ४ : विद्यालय की भौतिक एवं आर्थिक व्यवस्थाएँ
 
 
 
अनुचर हैं, उसकी आज्ञा का पालन करनेवाले और
 
उसके साम्राज्य की रक्षा करने वाले हैं ।
 
शिक्षा मुक्ति देनेवाले ज्ञान का व्यवस्थातन्त्र है वह
 
स्वयं मुक्त होगी तभी ज्ञान की वाहक बन सकेंगी ।
 
इसलिये भारत में शासक के ट्वारा, व्यापारियों के
 
द्वारा शिक्षा को मुक्त ही रखा गया है और उसे पुष्ठ
 
होने हेतु सहयोग और सहायता दी जाती रही है ।
 
भारतीय शिक्षा हमेशा धर्मसापेक्ष परन्तु अर्थनिरपेक्ष
 
रही है । शिक्षा ग्रहण करने को और देने को पैसे के
 
साथ कभी जोडा नहीं गया है ।
 
भारत में शिक्षा राजा और प्रजा का मार्गदर्शन और
 
नियमन करती रही है । उसने कभी शासन नहीं
 
किया, व्यापार नहीं किया, उत्पादन नहीं किया,
 
उसने धर्मसाधना और धर्मरक्षा ही की है ।
 
भारतीय शिक्षा की यह आत्मा है । भारतीय शिक्षा
 
का यह स्वभाव रहा है । इस शिक्षा ने समाज को श्रेष्ठ
 
बनाया है । इस शिक्षा ने प्रजा को समृद्ध और सुसंस्कृत
 
बनाया है । इस शिक्षा ने राष्ट्र को चिरंजीव बनाया है ।
 
 
 
आज सामान्य जन भी कह सकता है कि भारत की
 
वर्तमान शिक्षा 'टेकनिकली' भारतीय होने पर भी स्वभाव
 
से भारतीय नहीं है ।
 
 
 
शिक्षा ऊपर बताये गये हैं ऐसे अर्थों में भारतीय
 
होनी चाहिये कि नहीं ऐसा यदि पूछा जाय तो लोग बडे
 
असमंजस में पड जायेंगे । उत्तर देते नहीं बनेगा ।
 
 
 
आज के जमाने में यह नहीं चलेगा
 
 
 
एक ओर तो आज भी भारतीय अन्तर्मन में इन सारी
 
बातों के लिये प्रेम है, आकर्षण है और सुप्त इच्छा है कि
 
यह सब ऐसा ही होना चाहिये we व्यावहारिक
 
धरातल पर तो यह aa we स्वप्न जैसा ही लगता है।
 
एक ही बात मन में उठती है कि यह सम्भव ही नहीं है,
 
आज का जमाना अलग है, उसमें यह सब नहीं चलता ।
 
 
 
आज पैसे का बोलबाला है । कोई मुफ्त में पढायेगा
 
नहीं और मुफ्त में मिलने वाली शिक्षा कोई लेगा नहीं ।
 
 
 
 
 
 
 
२८७
 
 
 
     
 
 
 
मुफ्त में मिलनेवाली वस्तु का कोई
 
मूल्य नहीं होता ।
 
 
 
आज शिक्षक सम्माननीय नहीं रहा है । वह पैसे के
 
लिये ही तो पढाता है । उसे विद्यार्थी की ही चिन्ता नहीं
 
है तो विद्या की या देश की कैसे होगी ? यदि बन्धन नहीं
 
है तो वह पढायेगा ही नहीं । बन्धन हैं तब भी तो वह
 
सही नीयत नहीं रखता, फिर मुक्त कर देने से तो वह क्या
 
नहीं करेगा ? इसलिये सरकारी नियन्त्रण तो अनिवार्य है,
 
नहीं रहा तो सब अराजक हो जायेगा ।
 
 
 
धर्म की और मुक्ति की तो बात ही बेमानी है । धर्म
 
का नाम लेते ही साम्प्रदायिकता का लेबल चिपक जाता
 
है और हजार प्रकार की परेशानियाँ निर्माण हो जाती है ।
 
आज के धर्माचार्य, साधु संन्यासी सब भोंदूगीरी ही तो कर
 
रहे हैं । यह जमाना विज्ञान का है । विज्ञान के जमाने में
 
वेद, उपनिषद्‌ पढ़ाना बुद्धिमानी नहीं है । दुनिया आगे बढ
 
रही है और हम पीछे जाने की बात कर रहे हैं ।
 
 
 
आज अंग्रेजी सीखनी चाहिये, कम्प्यूटर सीखना
 
चाहिये, मेनेजमेण्ट सिखना चाहिये, टेक्नोलोजी सीखनी
 
चाहिये । भारत को विश्व में स्थान मिलना चाहिये और
 
उसे प्राप्त करने के लिये इन सारे विषयों की आवश्यकता
 
है। वेद, उपनिषद सीखने के लिये संस्कृत सीखनी
 
पडेगी । संस्कृत अब “आउट ऑफ डेट' है। अंग्रेजी ने
 
विश्वभाषा का स्थान ले लिया है ।
 
 
 
भारत ने अमेरिका में जाकर अपना स्थान बनाना
 
चाहिये और प्रतिष्ठा प्राप्त करनी चाहिये । भारत के लोग
 
बुद्धिमान हैं, कर्तृत्ववान हैं, विश्वमानकों पर खरे उतरने
 
वाले हैं । उन्हें इस दिशा में पुरुषार्थ करना चाहिये । इसके
 
लिये अंग्रेजी, विज्ञान तथा कम्प्यूटर पर प्रभुत्व प्राप्त करना
 
चाहिये । हमें आधुनिक बनना चाहिये ।
 
 
 
aa: undead की. नहीं, वैश्विकता की
 
आवश्यकता है । प्रयास उसे प्राप्त करने हेतु होने चाहिये ।
 
 
 
इस प्रकार भारतीयता के सन्दर्भ में आशंका और
 
अविश्वास का वातावरण चारों और फैला हुआ है । बात
 
बहुत कठिन है, जटिल है ।
 
 
 
 
............. page-304 .............
 
 
 
 
 
 
 
पुरुषार्थ करने की आवश्यकता है
 
 
 
जो लोग कहते हैं कि यहाँ बताया गया है वही
 
भारतीय शिक्षा है तो उसका प्रतिष्ठित होना आज तो
 
असम्भव है और अनावश्यक भी, उनकी बात सर्वथा
 
अनुचित नहीं है। हम उल्टी दिशा में इतने दूर तक
 
निकल गये हैं कि ये बातें आज असम्भव सी लगती हैं ।
 
कठिन तो हैं ही । आज के सारे वातावरण से सब इतने
 
सम्भ्रम में पड गये हैं कि सब कुछ असम्भव के साथ साथ
 
सब अव्यावहारिक और अनावश्यक लग रहा है ।
 
 
 
अतः भारतीय शिक्षा का क्या करना इसकी चर्चा शुरू
 
करने से पूर्व दो चार बातों में स्पष्ट हो जाना चाहिये ।
 
१, भारत को भारत रहना है तो भारत की शिक्षा
 
 
 
भारतीय होना अनिवार्य है ।
 
 
 
२... भारत को भारत रहना ही है । भारत भारत रहे यह
 
विश्वकल्याण के लिये अनिवार्य है ।
 
 
 
3. भारत में शिक्षा भारतीय होना कठिन अवश्य है
 
असम्भव नहीं क्योंकि वह भारत के लिये
 
स्वाभाविक है ।
 
 
 
¥. कठिन बात को व्यावहारिक बनाने हेतु पुरुषार्थ
 
 
 
करने की आवश्यकता है । यह पुरुषार्थ शिक्षकों के
 
 
 
नेतृत्व में, धर्माचार्यों के मार्गदर्शन में, सरकार के
 
 
 
सहयोग से प्रजा का होगा, सरकार का नहीं ।
 
 
 
इन गृहीतों को सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं
 
है। भारत में सारे काम इस पद्धति से ही होते आये हैं ।
 
इस काम के लिये भी यही पद्धति उपयोगी होगी ।
 
 
 
भारतीय शिक्षा की पुरर्रचना के आयाम इस
 
प्रकार हैं...
 
 
 
१. शैक्षिक पुर्नरचना
 
 
 
२. आर्थिक पुरर्रचना
 
 
 
३. व्यवस्थाकीय पुनर्रचना
 
 
 
शैक्षिक पुर्नरचना
 
 
 
इसका केन्द्रवर्ती विषय है कया पढाना ? घरों में,
 
विद्यालयों में, कारखानों मे, खेत खलिहानों में सिखाने
 
 
 
 
 
 
 
२८८
 
 
 
भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम
 
 
 
   
 
 
 
वाला सीखने वाले को, बडा छोटे को, सत्ताधीश सत्ताधीन
 
को, मालिक नौकर को, अधिकारी कर्मचारी को क्या
 
सिखा रहा है, क्या करने को कह रहा है, क्या बना रहा
 
है, किस पद्धति को अपना रहा है, उसकी भावना और
 
उद्देश्य क्या है यह सबसे पहली विचारणीय बात है ।
 
उदाहरण के लिये मालिक नौकर को खाद्य पदार्थ में
 
मिलावट करने को कह रहा है या किसी भी स्थिति में
 
मिलावट नहीं करने को कह रहा है, पिता पुत्र को स्वार्थी
 
बनाना चाहता है या सेवाभावी, उद्योजक यन्त्र को अधिक
 
महत्त्व देता है या मनुष्य को, शिक्षक विद्यार्थी को रटना
 
सिखाता है या स्वतन्त्र बुद्धि से विचार करना, प्राध्यापक
 
विद्यार्थी को अर्थ ही प्रधान है यह सिखाता है या धर्म को
 
प्रधानता बताता है, धर्माचार्य अपने ही सम्प्रदाय को सही
 
मानना सिखाता है या सर्वपंथ Gat यह ध्यान देने योग्य
 
बातें हैं । सिखानेवाले और सीखनेवाले के बीच यह
 
आदानप्रदान निरन्तर चलता रहता है, सर्वत्र चलता रहता
 
है । यह प्रक्रिया ही वास्तव में शिक्षा है ।
 
 
 
इसे शैक्षिक परिभाषा में पाठ्यक्रम कहते हैं । यह
 
पाठ्यक्रम सभी आयु वर्गों के लिये होता है, सभी
 
व्यवस्थाओं के लिये होता है, जीवन के सभी क्षेत्रों में
 
होता है । इसके आधार पर व्यक्ति का चस्त्रि बनता है,
 
समाज का और राष्ट्र का चरित्र बनता है । पाठ्यक्रम
 
शिक्षाप्रक्रिया का केन्द्र है और उसके आधार पर व्यक्तिगत
 
से लेकर राष्ट्रीय जीवन चलता है । इसलिये इस विषय की
 
चिन्ता करनी चाहिये ।
 
 
 
यह पाठ्यक्रम आज भारतीय नहीं है। सर्वत्र जो
 
पढ़ाया जाता है । वह मुख्य रूप से पश्चिमी जीवनदृष्टि पर
 
आधारित है । यही सारे अनिष्टों और संकटों का मूल है ।
 
इसकी तात्विक चर्चा अन्यत्र की गई है। अब उसे
 
व्यावहारिक बनाने के लिये क्‍या करना होगा इसका ही
 
विचार करना आवश्यक है । कुछ मुद्दे इस प्रकार हैं
 
 
 
(१) प्रथम तो विश्वविद्यालयों को इसका दायित्व
 
लेना चाहिये । विश्वविद्यालय देश की शिक्षा का सर्वप्रकार
 
का निर्देशन करने वाले हों यह अत्यन्त आवश्यक है ।
 
 
 
 
............. page-305 .............
 
 
 
पर्व ४ : विद्यालय की भौतिक एवं आर्थिक व्यवस्थाएँ
 
 
 
देश के सर्व प्रकार के सांस्कृतिक और अन्य संकटों का
 
मूल स्रोत अथवा सांस्कृतिक उन्नति का मुख्य परिचालक
 
विश्वविद्यालय हैं । विश्वविद्यालय का अर्थ है उनके
 
अध्यापक ।. परन्तु वर्तमान विपरीतता यह है कि
 
विश्वविद्यालय अध्यापकों के नहीं अपितु सरकार के अधीन
 
हैं। सरकार के अधीन रहकर विश्वविद्यालय के अध्यापक
 
यह काम नहीं कर सकते । इसलिये ऐसे विश्वविद्यालयों
 
की स्थापना होनी चाहिये जो सरकार के अधीन न हों ।
 
देशभर में पचास सौ ऐसे विश्वविद्यालय होने से कार्य का
 
अच्छा प्रास्भ हो सकता है। इन विश्वविद्यालयों को
 
सरकारी मान्यता नहीं होगी इसलिये इनके द्वारा दिये गये
 
प्रमाणपत्रों से सरकारी या सरकार मान्य संस्थाओं या
 
उद्योगों में नौकरी नहीं मिलेगी । जिन्हें किसी प्रकार की
 
सरकारी मान्यता या आर्थिक सहायता की आवश्यकता
 
नहीं है ऐसी संस्थाओं और उद्योगों में इन्हें अवश्य काम
 
मिल सकता है। सरकार की मान्यता नहीं है ऐसे
 
विश्वविद्यालयों में पढे हुए विद्यार्थी स्वयं ऐसी शिक्षासंस्थायें
 
शुरु करें यह एक अच्छा पर्याय है, साथ ही वे उद्योग
 
तथा समाज के लिये उपयोगी अन्य संस्थाओं का प्रारम्भ
 
भी कर सकते हैं । उन संस्थाओं और उद्योगों में अनेक
 
लोगों को काम मिल सकता है ।
 
 
 
सरकारी सहायता नहीं होगी तब ये विश्वविद्यालय
 
कैसे चलेंगे ? ये समाज के सहयोग से चलेंगे । भारतीय
 
समाज ऐसे संस्थानों को सहयोग करने के लिये तत्पर
 
रहता ही है। देश में अनेक धार्मिक - सामाजिक -
 
सांस्कृतिक संगठनों को समाज ही सहयोग करता है ।
 
वर्तमान में भी ऐसी बहुत बडी व्यवस्था देश में चल ही
 
रही है । ऐसे संगठनों ने इन विश्वविद्यालयों को आर्थिक
 
सहयोग करना चाहिये ।
 
 
 
देशभर में ऐसे पचास विश्वविद्यालय हों तो उनके
 
पाँचसौ या हजार अध्यापकों को एक संगठित समूह की तरह
 
कार्य करना चाहिये । इन सभी विश्वविद्यालयों के कुलपतियों
 
ने मिलकर एक कुलाधिपति का चयन करना चाहिये । सारे
 
अध्यापक मिलकर एक आचार्य परिषद्‌ बनेगी । देशभर में
 
 
 
२८९
 
 
 
       
 
 
 
हजार अध्यापकों की ज्ञानशक्ति कार्य का
 
प्रारम्भ करने के लिये कम नहीं है ।
 
 
 
अध्यापकों के इस संगठनने एक AN salva,
 
दूसरी ओर प्रशासकों और तीसरी ओर सरकार के मन्त्री
 
परिषद के साथ समायोजन स्थापित करना चाहिये ।
 
विश्वविद्यालयों को सरकार से मुक्त रखने का कारण यह
 
नहीं है कि अध्यापक सरकार का विरोध करते हैं, विरोधी
 
विचारधारा वाले हैं या सरकार उनका विरोध करती है।
 
प्रशासन से मुक्त रहना भी विरोध के कारण से नहीं है ।
 
मुक्त रहना तो सर्वकल्याणकारी शिक्षा की आवश्यकता
 
है । इसलिये सबका कर्तव्य है । परन्तु मुक्त रहने के बाद
 
भी संवाद, समन्वय और समर्थन तो हो ही सकता है।
 
सरकार प्रजा के लिये है और विश्वविद्यालय सरकार और
 
प्रजा दोनों के लिये हैं । इसलिये संवाद लाभकारी है ।
 
 
 
उद्योजकों के साथ संवाद इसलिये नहीं करना है
 
क्योंकि उनसे धन चाहिये । उद्योगकों से संवाद इसलिये
 
चाहिये कि देश की अर्थव्यवस्था ठीक करने में उनका
 
सहयोग प्राप्त हो । उसी प्रकार प्रबोधन की दृष्टि से सामान्य
 
waa भी संवाद स्थापित हो यह आवश्यक है । संक्षेप में
 
इन विद्यालयों को समाजाभिमुख होना चाहिये ।
 
 
 
उन्हें अन्य विश्वविद्यालयों के साथ भी विचार विमर्श
 
करने की दृष्टि से संवाद स्थापित करना शिक्षाक्षेत्र के हित
 
की दृष्टि से लाभकारी है ।
 
 
 
(२) इन विश्वविद्यालयों को पहला कार्य देशभर की
 
शिक्षा का एक शैक्षिक प्रारूप तैयार करने का करना
 
चाहिये । ऐसा करने में उन्हें तीन काम करने होंगे...
 
 
 
१, अध्ययन और अनुसन्धान
 
 
 
२. पाठ्यक्रम निर्माण
 
 
 
३. सन्दर्भसाहित्य का निर्माण
 
 
 
अध्ययन और अनुसन्धान
 
 
 
भारतीय ज्ञानधारा युगों से प्रवाहित है । ट्रष्टा ऋषियों
 
ने अपने हृदय में इस ज्ञान की अनुभूति की है। इस
 
अनुभूति के आधार पर शाख्रग्रन्थों की रचना हुई है । इन
 
 
 
 
............. page-306 .............
 
 
 
         
 
 
 
शाख्रग्रन्थों का अध्ययन करना पहला
 
काम है। इस अध्ययन का उद्देश्य वर्तमान जीवन को
 
सुस्थिति में लाने का है। अतः वर्तमान सन्दर्भ सहित
 
उसका अध्ययन करना आवश्यक है । वर्तमान जीवन की
 
सर्व व्यवस्थाओं में हमारे शाख्रग्रन्थों में निरूपित ज्ञान किस
 
प्रकार लागू हो सकता है इस विषय को लेकर व्यावहारिक
 
अनुसन्धान होना चाहिये । उदाहरण के लिये हम वेदों को
 
विश्व का प्रथम ज्ञानग्रन्थ मानते हैं, श्रीमटदू भगवद्गीता को
 
सर्व उपनिषदों का सार मानते हैं । तब इन ग्रन्थों में स्थित
 
ज्ञान के आधार पर घर, बाजार, संसद और शिक्षा क्षेत्र
 
चलने चाहिये । यह ज्ञान व्यावहारिक नहीं है ऐसा तो
 
नहीं कह सकते । फिर आज व्यावहारिक क्यों नहीं हो
 
सकता ? पतंजली मुनिने योगसूत्नों की स्चना की हैं।
 
योगसूत्र मनोविज्ञान है, अनेक मनीषियों के भाष्यग्रन्थ भी
 
उस विषय में उपलब्ध हैं । भाष्य लिखने वाले सभी श्रेष्ठ
 
विद्वज्जन रहे हैं । यह भारतीय मनोविज्ञान है । फिर प्रश्न
 
पूछा जाना चाहिये कि विश्वविद्यालय में यह मनोविज्ञान
 
क्यों नहीं पढाया जाता है ? भौतिक विज्ञान के अनेक
 
ग्रन्थ विज्ञान विद्याशाखा में सर्वथा अपरिचित क्यों हैं ?
 
प्राणविज्ञान क्या है, आत्मविज्ञान क्या हैं ? अथर्ववेद्‌ तो
 
यन्त्रविज्ञान और तन्त्रशात्र का भण्डार है। वर्तमान
 
इन्जिनीयरींग की शाखायें इनसे अनभिन्ञ हैं ।
 
 
 
भारतीय ज्ञान की वर्तमान ज्ञानविश्व में प्रतिष्ठा हो यह
 
अनुसन्धान कर्ताओं का उद्देश्य होना चाहिये ।
 
 
 
आज ज्ञानक्षेत्र में जिन शास्त्रों की प्रतिष्ठा है उनका
 
भारतीय पर्याय बन सर्के, उनसे भी अधिक व्यापक और
 
समावेशक शाख्रग्रन्थों की सम्भावना स्थापित कर सकें इस
 
प्रकार के अनुसन्धान की आवश्यकता है ।
 
 
 
देशभर में जहाँ जहाँ ऐसा अनुसन्धान का कार्य हो रहा
 
है वहाँ संवाद भी साथ ही साथ स्थापित करना चाहिये ।
 
 
 
पाठ्यक्रम निर्माण
 
 
 
इस अध्ययन और अनुस्थान के आधार पर विभिन्न
 
स्तरों के लिये विभिन्न विषयों के पर्यायी पाठ्यक्रम तैयार
 
 
 
२९०
 
 
 
भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम
 
 
 
करने चाहिये । उदाहरण के लिये
 
 
 
१, आयु की प्रत्येक अवस्था के लिये सामान्य
 
पाठ्यक्रम । यह सर्वसमावेशक होना चाहिये । अर्थात्‌
 
गर्भावस्‍था से वृद्धावस्था तक का पाठ्यक्रम । गृहीत यह है
 
कि शिक्षा आजीवन चलती है । मनुष्य का इस जन्म का
 
जीवन गभाधिन से शुरू होता है और मृत्यु तक चलता
 
है । मृत्यु के साथ इस जन्म का जीवन पूर्ण होता है । इन
 
दो क्षणों के मध्य जीवन गर्भावस्‍था, शिशुअवस्था,
 
बालावस्था, किशोरावस्था, युवावस्था, प्रौढावस्था और
 
वृद्धावस्था से गुजरता है। इन सभी अवस्थाओं में
 
अवस्था के अनुरूप शिक्षा की व्यवस्था होना आवश्यक
 
है । अतः इस शिक्षा के लिये पाठ्यक्रम चाहिये । सामान्य
 
पाठ्यक्रम का अर्थ यह है कि व्यक्ति राजा हो या प्रजा,
 
मालिक हो या नौकर, स्त्री हो या पुरुष, किसान हो या
 
व्यापारी, दर्जी हो या मोची, सब को लागू होने वाला
 
पाठ्यक्रम ।
 
 
 
उदाहरण के लिये धर्मपरायण होना, सज्जन होना,
 
बलवान होना, बुद्धिमान होना, व्यवहारदक्ष होना, प्रचुर
 
होना, सबके लिये समान रूप से लागू है ।
 
 
 
२. सन्दर्भ विशेष के लिये विशेष पाठ्यक्रम । व्यक्ति
 
विभिन्न परिस्थितियों में विभिन्न भूमिकाओं में होता है ।
 
कहीं पिता है तो कहीं पुत्र, कहीं शिक्षक है तो कहीं
 
विद्यार्थी, कहीं राजा है तो कहीं अमात्य, आज की भाषा
 
में कहें तो कहीं सांसद या मंत्री है तो कहीं सचिव, तो
 
कहीं प्रजाजन, कहीं उद्योजक है तो कहीं व्यापारी, कहीं
 
कृषक है तो कहीं गोपाल । इन भूमिकाओं के अनुरूप
 
उसे शिक्षा की आवश्यकता होती है । उदाहरण के लिये
 
एक गोपाल को गायों की जाति, उनके स्वभाव, उनकी
 
आवश्यकताओं, उसके आहार, उनकी क्षमता, उनकी
 
बिमारी आदि का ज्ञान होना आवश्यक है। साथ ही
 
उनकी सन्तति, उनका दूध, दूध की व्यवस्था आदि विषयों
 
का ज्ञान होना भी आवश्यक है । एक उत्पादक को
 
उत्पादन करने योग्य वस्तुयें, लोगों की आवश्यकता,
 
उत्पादन प्रक्रिया, उत्पादन हेतु आवश्यक यन्त्र, स्थान,
 
 
 
 
............. page-307 .............
 
 
 
पर्व ४ : विद्यालय की भौतिक एवं आर्थिक व्यवस्थाएँ
 
 
 
भवन, उत्पादन में सहभागी होनेवाले मनुष्यों के स्वभाव,
 
क्षमताओं और आवश्यकताओं, उत्पादन से समाज पर
 
और प्रकृति पर होनेवाला प्रभाव, बाजार पर होने वाला
 
प्रभाव आदि के बारे में शिक्षा मिलने की आवश्यकता है ।
 
भारतीय ज्ञानधारा के अनुकूल इन भूमिकाओं के लिये
 
विभिन्न प्रकार के विभिन्न स्तरों के पाठ्यक्रम बनना
 
आवश्यक है ।
 
 
 
३. ज्ञानक्षेत्र की आवश्यकता की पूर्ति हेतु
 
पाठ्यक्रम
 
 
 
ज्ञानक्षेत्र की स्थिति और विकास हेतु विभिन्न प्रकार
 
के प्रयासों की आवश्यकता रहेगी । इस दृष्टि से विभिन्न
 
प्रकार के पाठ्यक्रमों की आवश्यकता रहेगी । उदाहरण के
 
लिये सामान्य व्यवहार के लिये एक प्रकार के तो प्रगत
 
अध्ययन के लिये अलग प्रकार के पाठ्यक्रम की
 
आवश्यकता रहेगी । इसी प्रकार से उस शास्त्र की शिक्षा
 
हेतु एक प्रकार के और अनुसन्धान हेतु अन्य प्रकार के
 
पाठ्यक्रमों की आवश्यकता रहेगी ।
 
 
 
इस प्रकार से विभिन्न विषयों के, विभिन्न स्तरों के,
 
विभिन्न प्रयोजनों को पूर्ण करने वाले पाठ्यक्रमों की सूची
 
एवं रूपरेखा बनाने का महत्त्वपूर्ण कार्य इन विश्वविद्यालयों
 
को करना चाहिये ।
 
 
 
सन्दर्भ साहित्य का निर्माण
 
 
 
यह सबसे अधिक समय और शक्ति की अपेक्षा
 
करनेवाला काम है । पाठ्यक्रमों की रूपरेखा बनने वाला
 
काम है । पाठ्यक्रमों की रूपरेखा बनने से शिक्षा नहीं
 
होती । इसके लिये पुस्तकें आवश्यक हैं । आजकल लोग
 
दृश्यश्राव्य सामग्री की उपयोगिता और परिणामकारकता की
 
चर्चा करते हैं । इस कथन के विषय में चर्चा करने की
 
आवश्यकता है परन्तु चर्चा अन्यत्र होगी । यहाँ इतना तो
 
कह सकते हैं कि इनके लिये भी मूल तो लिखा हुआ ही
 
होना चाहिये । हम दूसरे के पास अपना ज्ञान बोलकर या
 
लिखकर ही पहुँचा सकते हैं ।
 
 
 
तात्पर्य यह है कि पुस्तकें चाहिये । विभिन्न रुचि,
 
 
 
२९१
 
 
 
         
 
 
 
क्षमता, आयु के लोगों के लिये
 
विभिन्न शैलियों में पुस्तकें तैयार करने की आवश्यकता
 
रहेगी ।
 
 
 
उदाहरण के लिये पुस्तकों के इतने प्रकार हो सकते
 
हैं... १. GATT, २. WY, रे. सन्दर्भ ग्रन्थ, ४.
 
निरूपण ग्रन्थ, ५. कथा ग्रन्थ, ६. काव्य ग्रन्थ, ७. संवाद
 
ग्रन्थ, ८. चित्र ग्रन्थ आदि ।
 
 
 
ये विभिन्न स्तरों के लिये भी होने की आवश्यकता
 
है जैसे कि शिशुओं के लिये, कम शिक्षित लोगों के लिये,
 
शिक्षकों के लिये, विद्वानों के लिये, व्यवसायिओं के लिये
 
आदि।
 
 
 
ये ग्रन्थ भारत की सभी भाषाओं में होने चाहिये,
 
प्रभूत मात्रा में होने चाहिये, सुलभ होने चाहिये, सुबोध
 
भाषा में और अभिव्यक्ति में होने चाहिये । पर्याप्त होने
 
चाहिये ।
 
 
 
यह बडा चुनौतीपूर्ण कार्य है । सभी लेखकों और
 
विद्वानों का अनुभव है कि सरल बातों को भी कठिन बना
 
देना तो सरल है परन्तु कठिन बातों को सरल बनाना
 
कठिन है । बडे बडे विद्वान छोटे बच्चों के लिये पुस्तक
 
नहीं लिख सकते, सामान्य व्यक्ति को गहन विषय नहीं
 
समझा सकते । इसलिये विद्वानों के लिये सरल अभिव्यक्ति
 
सिखाने की व्यवस्था करना भी आवश्यक है ।
 
 
 
विश्वविद्यालयों को सब का मिलकर एक ग्रन्थागार भी
 
बनाना चाहिये । यह अभिनव स्वरूप का रहेगा । सभी
 
पचास विश्वविद्यालयों द्वारा निर्मित, सभी भाषाओं में निर्मित
 
साहित्य एक स्थान पर उपलब्ध हो ऐसी व्यवस्था करनी
 
चाहिये । साथ ही विभिन्न विषयों और विद्याशाखाओं के मूल
 
ग्रन्थ तथा भारत में विभिन्न भाषाओं में लिखित भाष्यग्रन्थों का
 
समावेश इस केन्द्रीय ग्रन्थालय में होना चाहिये । नालन्दा
 
विद्यापीठ का ज्ञानगंज ग्रन्थालय सभी ग्रन्थालयों के मानक
 
के रूप में आज भी सर्वविदित है । इससे प्रेरणा प्राप्त कर इस
 
ग्रन्थालय की स्चना हो सकती है ।
 
 
 
साथ ही एक कार्य faa की. विभिन्न
 
विचारधाराओं के साथ भारतीय विचारधारा का तुलनात्मक
 
 
 
 
............. page-308 .............
 
 
 
       
 
 
 
अध्ययन तथा faa की. वर्तमान
 
स्थिति, उसके संकट, समस्याओं तथा उनके भारतीय हल
 
आदि विषयों का समावेश करने वाला अध्ययन भी इन
 
विश्वविद्यालयों का कार्यक्षेत्र बनना आवश्यक है ।
 
 
 
इन विश्वविद्यालयों की गोष्टियाँ, अनुसन्धान की
 
पत्रिका तथा मुखपत्रों का प्रकाशन होना तो सहज है ।
 
 
 
भारत में पूर्व में भी विद्यापीठों ने इसी प्रकार काम
 
किया है और भारत के ज्ञान को विश्व में ले जाने में वे
 
यशस्वी हुए हैं। विश्व ने ज्ञान का प्रकाश उन्हीं
 
विश्वविद्यालयों से पाया है। ऐसे विश्वविद्यालयों की
 
स्थापना भारतीय शिक्षा की पुर्नचना का प्रथम चरण है ।
 
समाज द्वारा पोषित और समर्पित ये विश्वविद्यालय अन्य
 
सभी आयामों के लिये मार्गदर्शक होंगे ।
 
 
 
आर्थिक पुर्ाचना
 
विश्वविद्यालयों को आर्थिक क्षेत्र में दो प्रकार से
 
 
 
काम करना होगा |
 
 
 
१, शिक्षा का आर्थिक पक्ष व्यवस्थित करना
 
 
 
२. समाज की आर्थिक व्यवस्था ठीक करना
 
 
 
वर्तमान विश्वस्थिति को देखते हुए आर्थिक पक्ष की
 
ओर ध्यान देना आवश्यक है । इसका कारण यह है कि विश्व
 
आज अर्थसंकट से ग्रस्त हो गया है । इसका मूल कारण
 
पश्चिमी देशों की जीवन व्यवस्था अर्थनिष्ठ है । उपभोग प्रधान
 
जीवनशैली होने के कारण उन्हें अर्थ की आवश्यकता अधिक
 
होती है और अर्थप्राप्ति ही परम पुरुषार्थ होने के कारण
 
अर्थप्राप्ति के प्रयासों को कोई बन्धन नहीं है । कोई मर्यादा
 
नहीं है । भारत अपने स्वभाव से अर्थनिष्ठ नहीं है, धर्मनिष्ठ
 
है। चार पुरुषार्थों में अर्थ भी एक पुरुषार्थ है और सभी
 
आवश्यकताओं को अच्छी तरह से पूर्ण किया जा सके ऐसा
 
अर्थसम्पादन सबको करना चाहिये ऐसा आदेश सभी
 
गृहस्थाश्रमियों को दिया जाता है । ऐसा आदेश धर्म ही देता
 
है । परन्तु मनुष्य के अर्थ पुरुषार्थ को ओर उपभोग को धर्म
 
की मर्यादा में बाँधा गया है। परिणाम स्वरूप सबकी
 
आवश्यकताओं की पूर्ति सम्यक्‌ रूप से होती है ।
 
 
 
२९२
 
 
 
भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम
 
 
 
परन्तु आज भारत, पश्चिमी प्रभाव से ग्रस्त हो गया
 
है। हम जब कहते हैं कि भारत में शिक्षा भारतीय नहीं है
 
तब वह कथन सम्पूर्ण जीवन को लागू होता है । भारत में
 
आज सम्पूर्ण जीवनव्यवस्था ही भारतीय नहीं रही ।
 
पश्चिमी जीवनदृष्टि का प्रभाव जीवनव्यापी हुआ है । अतः
 
धर्मनिष्ठ भारत आज अर्थनिष्ठ बन गया है । हम पैसे को
 
सर्वस्व मानते हैं, एक मात्र प्राप्त करने लायक वस्तु मानते
 
हैं, येन केन प्रकारेण उसे प्राप्त करने का प्रयास करते हैं,
 
अर्थ के ही सन्दर्भ में सभी बातों का मूल्यांकन करते हैं ।
 
अर्थ, धर्म, ज्ञान, संस्कार, सदूगुण, भावना, राजनीति,
 
परिवार व्यवस्था, शिक्षा आदि का नियन्त्रक बन गया है ।
 
 
 
इसके कारण अनेक संकट निर्माण हुए हैं । सर्वाधिक
 
संकट तो स्वयं अर्थक्षेत्र का ही है। इस प्रकार इनकी
 
सूची बना सकते हैं
 
दारिद्य में वृद्धि
 
जीवनावश्यक वस्तुओं का अभाव
 
बेरोजगारी
 
भ्रष्टाचार और अनाचार
 
वस्तुओं की गुणवत्ता का हास और कीमतो में वृद्धि
 
वितरण व्यवस्ता में जटिलता
 
उत्पादन का केन्द्रीकरण
 
विज्ञापन
 
इनके साथ साथ स्वास्थ्य में गिरावट और पर्यावरण
 
का प्रदूषण भी बढ़ा है । अर्थक्षेत्र ने राजकीय क्षेत्र को
 
अपने नियन्त्रण में ले लिया है । देश की अर्थनीति संसद
 
नहीं बनाती, उससे बनवाई जाती है। चुनाव अर्थ के
 
प्रभाव से ही जीते जाते हैं ।
 
 
 
अर्थ के अभाव से कई समस्‍यायें निर्माण होती हैं,
 
अर्थ के प्रभाव से भी होती हैं ।
 
 
 
शिक्षा के व्यवस्थापक्ष की पुनर्रचना
 
शिक्षा के व्यवस्थाकीय पक्ष के मुख्य सूत्र इस प्रकार
 
 
 
१, शिक्षा राज्य और समाज दोनों का मार्गदर्शन
 
 
 
 
............. page-309 .............
 
 
 
पर्व ४ : विद्यालय की भौतिक एवं आर्थिक व्यवस्थाएँ
 
 
 
करनेवाली है । जो मार्गदर्शन करता है वह मार्गदर्शन
 
प्राप्त करने वाले के अधीन रहे यह दोनों में से एक
 
को भी अनुकूल नहीं है । इसलिये शिक्षाक्षेत्र राज्य
 
और समाज दोनों से उपर, स्वायत्त, स्वाधीन होना
 
चाहिये ।
 
 
 
शिक्षाक्षेत्र शिक्षक के अधीन होना चाहिये । शिक्षक
 
अपने से श्रेष्ठ शिक्षक द्वारा ही नियुक्त होना चाहिये ।
 
शिक्षक नहीं है ऐसी कोई सत्ता उसे नियुक्त नहीं
 
करेगी ।
 
 
 
इसी कारण से उसे विद्यार्थी के तथा सम्पूर्ण समाज
 
के चरित्र का दायित्व लेना होता है। जैसा
 
विद्यालय वैसी शिक्षा, जैसी शिक्षा वैसा समाज
 
परन्तु जैसा शिक्षक वैसा विद्यालय ।
 
 
 
इसलिये केन्द्र सरकार से लेकर छोटे गाँव तक जो
 
शिक्षकों की नियुक्ति की व्यवस्था बनी है वह
 
बदलनी होगी ।
 
 
 
जो पढाता है, पढता है, अनुसन्धान करता है
 
शैक्षिक साहित्य निर्माण करता है वही शिक्षक ऐसी
 
शिक्षक की परिभाषा बनानी होगी ।
 
 
 
विद्यालय के शिक्षक, मुख्यशिक्षक यह तो विद्यालय
 
की व्यवस्था होगी । मुख्य शिक्षक यदि विद्यालय
 
की स्थापना करता है तो वह स्वर्यनियुक्त होगा ।
 
अपने अनुगामी मुख्य शिक्षक की तथा अन्य
 
शिक्षकों की नियुक्ति करेगा । विद्यार्थियों का प्रवेश,
 
पाठ्यक्रम, मूल्यांकन आदि के विषय में विद्यालय
 
का शिक्षकवून्द ही व्यवस्था करेगा ।
 
 
 
यदि सारे मुख्य शिक्षक और शिक्षक चाहें तो गाँव
 
या नगर के सभी विद्यालयों की शिक्षक परिषद्‌ या
 
आचार्य परिषद बन सकती है । यह परिषद शैक्षिक
 
विषयों तक सीमित रहेगी, व्यवस्थाकीय विषयों में
 
प्रत्यक विद्यालय स्वायत्त ही रहेगा । विद्यालय मुख्य
 
शिक्षक के नाम से जाना जायेगा ।
 
 
 
विद्यालय की अर्थव्यवस्था मुख्यशिक्षक के नेतृत्व में
 
अन्य शिक्षक और विद्यार्थी मिलकर करेंगे यह तो
 
 
 
२९३
 
 
 
8.
 
 
 
Ro.
 
 
 
8.
 
 
 
RX.
 
 
 
8.
 
 
 
RY.
 
 
 
4.
 
 
 
wo
 
 
 
६.
 
 
 
       
 
 
 
सीधी समझ में आने वाली बात
 
है।
 
 
 
सामान्य अध्ययन स्थानिक स्वरूप का ही होगा |
 
प्रगत अध्ययन के लिये बडे विद्यालय होंगे जहाँ
 
अन्य स्थानों से भी विद्यार्थी अध्ययन के लिये
 
आयेंगे । ये विद्यार्थी गुरु के साथ ही रहेंगे । यह
 
गुरुकुल कहा जायेगा । इनमें पढने वाले विद्यार्थियों
 
के लिये निःशुल्क व्यवस्था होगी । वे घर के सदस्य
 
के समान रहेंगे । व्यवस्थाओं में भी सहभागी बनेंगे ।
 
गुरुकुलों में कुलपति होंगे । यदि उन्होंने गुरुकुल
 
स्थापन किया है तो वे स्वर्य॑नियुक्त कुलपति होंगे,
 
नहीं तो पूर्व कुलपति के द्वारा नियुक्त । सभी
 
आचार्यों की नियुक्ति कुलपति द्वारा होगी ।
 
 
 
गुरुकुल की सारी भौतिक व्यवस्थायें भी आचार्य
 
और विद्यार्थी मिलकर ही करेंगे ।
 
 
 
नगर के लोग विद्यापीठ या गुरुकुल के कार्यक्रमों में
 
सहभागी बन सकते हैं । छोटे मोटे काम करके सेवा
 
भी कर सकते हैं। नगरजन गुरुकुल को अपने
 
कार्यक्रमों में नियन्त्रित भी कर सकते हैं । गृहस्थों के
 
कामों में गुरुकुल मार्गदर्शक भी बन सकता है।
 
विशेषरूप से. गृहस्थजीवन की समस्याओं में
 
परामर्शक के रूप में आचार्यवृन्द्‌ सहभागी बन
 
सकता है ।
 
 
 
प्रगत अध्ययन के ये केन्द्र सामाजिक चेतना के केन्द्र
 
के रूप में काम करेंगे ।
 
 
 
विद्यार्थियों के प्रवेश, परीक्षा, पाठ्यक्रम आदि के
 
निर्णय गुरुकुल अथवा विद्यापीठ स्वयं लेगा ।
 
 
 
राज्य के और समस्त देश के गुरुकुलों या विद्यापीठों
 
की विट्रतू परिषद at आचार्य परिषद्‌ बनेगी ।
 
आचार्य परिषद्‌ के सदस्य कौन बन सकते हैं इसके
 
मापदण्ड कुलपतियों की परिषद निश्चित करेगी । ये
 
मापदण्ड निश्चित ही ज्ञानक्षेत्र और धर्मक्षेत्र को शोभा
 
देने वाले ही होंगे ।
 
 
 
eas, जिलास्तरीय और राज्यस्तरीय विद्रत्‌
 
 
 
 
............. page-310 .............
 
 
 
       
 
 
 
भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम
 
 
 
 
 
 
 
परिषदें बनेंगी जो विद्यालयों को. व्यवस्था की दृष्टि से दोनों भिन्न रहेंगे । शिक्षक और
 
शैक्षिक सहयोग करेंगी । afar में कौन बडा है ऐसा यदि कोई पूछता है तो
 
१७. सम्पूर्ण देश की मिलकर एक विद्वतू परिषद्‌ और एक... निश्चित ही धर्माचार्य बडा है, अधिक सम्माननीय है । एक
 
कुलपति परिषद्‌ होगी । कुलपति अपने में से ही. ही साथ यदि राष्ट्रपति, कुलाधिपति और धर्माधिपति
 
कुलाधिपति का चयन करेंगे । यह कुलपति परिषद उपस्थित हों तो सर्वाच्च स्थान धर्माधिपति को, दूसरा
 
कुलाधिपति के नेतृत्व में राज्य और समाजधुरीणों स्थान कुलाधिपति को और तीसरा राष्ट्रपति को दिया जाना
 
से संवाद और समायोजन स्थापित करेंगे । चाहिये । भारतीय समाज की यही व्यवस्था रही है, युगगों
 
१८. देशविदेशों के शिक्षाक्षेत्र के साथ सम्पर्क में रहना, से रही है । भारत के लिये यही स्वाभाविक व्यवस्था है ।
 
उनसे संवाद स्थापित करना, वहाँ जाना और उन्हें .
 
अपने यहाँ निमन्त्रि करना कुलपति परिषद्‌ का किसकी शिक्षा कहाँ और कैसे हो
 
काम है । भारतीय शिक्षा की पुर्चना का एक और आयाम
 
१९, देश के ज्ञान का रक्षण, वर्धन, परिष्करण wer, है किसकी शिक्षा कहाँ और कैसे होगी इसका विचार
 
अगली पीढी को हस्तान्तरित करना, जीवन की... करना । इसका विचार कुछ इस प्रकार किया जा सकता
 
और जगत की समस्याओं का ज्ञानात्मक समाधान. है
 
करना, राज्य और समाज के कल्याण हेतु नित्य... १... गर्भाधान से लेकर सात वर्ष की आयु तक की
 
 
 
चिन्तन करना, मार्गदर्शन करने हेतु सदैव सिद्ध शिक्षा घर में ही मातापिता के सान्निध्य में होगी ।
 
रहना, नित्य ज्ञानसाधक और विद्यावृत्ती रहना, ज्ञान इसी दृष्टि से माता को बालक की प्रथम गुरु कहा
 
के प्रति एकानिष्ठ रहना, ज्ञान का अनादर नहीं होने है।
 
देना, अज्ञानी को प्रश्रय नहीं देना, सत्ता या धन के... २... इसके बाद पन्द्रह वर्ष तक की शिक्षा तीन केन्द्रों में
 
समक्ष नहीं झुकना, इनके स्वार्थों के साथ समझौते विभाजित होगी । एक केन्द्र होगा घर जहाँ गृहस्थ
 
नहीं करना, राज्य की ओर से पुरस्कार या बनने की शिक्षा होगी । इस सन्दर्भ में पिता गुरु है
 
अर्थसहयोग की अपेक्षा नहीं करना, सम्मान और और माता उसकी सहायक । दूसरा केन्द्र विद्यालय है
 
खुशामद का अन्तर समझना विद्यापीठों के लिये जहाँ उसे देशदुनिया का और धर्म का ज्ञान मिलेगा ।
 
अत्यन्त आवश्यक है । विद्यालय के शिक्षक उसके गुरु होंगे । तीसरा केन्द्र
 
२०. सर्व स्तरों पर विद्यासंस्था के मुखिया को धर्मसंस्था होगा. उत्पादन का केन्द्र जहाँ वह व्यवसाय
 
के मुखिया के साथ समयायोजन करना आवश्यक सीखेगा । व्यवसाय का मालिक उसका गुरु होगा ।
 
है । धर्म और शिक्षा एक ही सिस्के के दो पक्ष हैं । तीनों केन्द्रों पर एक विद्यार्थी की तरह ही उसके
 
शिक्षा वही है जो धर्म सिखाती है । शिक्षा के बिना साथ व्यवहार होंगा ।
 
धर्म का प्रसार नहीं होगा, धर्म के बिना शिक्षा का यदि उसे शिक्षक, पुरोहित, राज्यकर्ता, अमात्य
 
आधार नहीं बनेगा । दोनों परस्परपूरक हैं । अतः आदि बनना है तो विद्यालय में ही जायेगा, उत्पादन
 
दोनों का एकदूसरे के साथ मेल होना आवश्यक है । केन्द्र में जाने की आवश्यकता नहीं ।
 
शिक्षक को धर्मतत्त्त अवगत होना चाहिये, धर्माचार्य .... रे... पन्द्रह वर्ष से लेकर विवाह करता है तब तक तीनों
 
को शिक्षक की कला का ज्ञान होना चाहिये । केन्द्र पर ही रहेगा परन्तु अब उसका विद्यार्थी और
 
दोनों यदि एक ही हैं तब तो अच्छा ही है परन्तु शिक्षक दोनों का काम शुरू होगा । अर्थात्‌ वह
 
 
 
र्९ढ
 
 
 
 
............. page-311 .............
 
 
 
पर्व ४ : विद्यालय की भौतिक एवं आर्थिक व्यवस्थाएँ
 
 
 
 
 
 
 
विद्यालय में है तो पढेगा और पढायेगा, व्यवसाय
 
केन्द्र में है तो व्यवसाय सीखेगा और करेगा घर में
 
है तो पिता के साथ गृहस्थी के कामों में सहभागी
 
बनेगा । पिता इस स्थिति में व्यवसाय और गृहस्थी
 
दोनों में गुरु हैं ।
 
गृहस्थाश्रम में प्रवेश के साथ उसकी गृहस्थी की
 
शिक्षा शुरू होती है। अब वह पिता, शिक्षक या
 
व्यवसाय के मालिक का विद्यार्थी नहीं है । ये सब
 
उसके मार्गदर्शक हैं ।
 
अपनी शिक्षा की चिन्ता अब उसे स्वयं करनी है ।
 
अब मार्गदर्शन प्राप्त करने हेतु उसके घर में बडे बुझुर्ग
 
हैं। ये तो हमेशा साथ ही रहते हैं और नित्य
 
उपलब्ध है । विचारविमर्श करने के लिये पत्नी है
 
जिसकी गृहस्थी की शिक्षा उसके समान ही हुई है ।
 
क्रियात्मक अनुभव लेने के लिये घर है जहाँ उसे
 
जिम्मेदारीपूर्वक जीना है । उसका मित्रपरिवार है जो
 
उसके समान ही शिक्षा पूर्ण कर अब गृहस्थ बना है ।
 
विद्यालय में तथा घर में प्राप्त शिक्षा का स्मरण रखते
 
हुए अब उसे शिक्षा को क्रियात्मक स्वरूप देना है ।
 
घर में बच्चों का जन्म होता है । उनका संगोपन
 
करते करते वह अनुभव प्राप्त करता है । अब अपने
 
बच्चों के लिये वह शिक्षक है । जिस प्रकार मार्गदर्शन
 
के लिये अपने मातापिता से परामर्श करता है उसी
 
प्रकार समय समय पर विद्यालय में भी जाता है जहाँ
 
उसका शिक्षक वृन्द है । इस प्रकार उसकी शिक्षा का
 
यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण चरण है ।
 
 
 
इस अवस्था की शिक्षा के लिये दो प्रकार की
 
व्यवस्था करनी चाहिये । एक तो विद्यालय में पूर्व
 
छात्र परिषद बनानी चाहिये जिसके माध्यम से
 
विद्यालय में पढकर गये हुए विद्यार्थी निश्चित किये
 
हुए कार्यक्रमों के माध्यम से विद्यालय में आ सर्के ।
 
दूसरी समाज में भी शिक्षित लोगों की परिषद्‌ की
 
स्चना करनी चाहिये । यह उनके लिये विश्वविद्यालय
 
का अंग ही होगा जिसमें वे आपस में अनुभवों का
 
 
 
२९५
 
 
 
   
 
 
 
आदानप्रदान कर सकते हैं और
 
एकदूसरे से सहयोग प्राप्त कर सकते हैं । ये परिषद
 
किसी न किसी स्वरूप में विश्वविद्यालय के साथ
 
जुडी रहेंगी । इन परिषदों का एक काम अपने
 
विश्वविद्यालयों की आर्थिक तथा अन्य प्रकार की
 
चिन्ता करने का भी रहेगा । जिस प्रकार वह अपने
 
परिवारजनों के प्रति अपना दायित्व निभाता है उसी
 
प्रकार अपने विद्यालय के प्रति दायित्व भी
 
निभायेगा । इनके माध्यम से विद्यालय भी समाज के
 
साथ जुड़ा रहेगा । विद्यालय के अन्य व्यवस्थात्मक
 
कार्यों जैसे कि सभा सम्मेलनों या परिषद के
 
आयोजनों में वह सहभागी होता रहेगा । विद्यालय
 
के समाज प्रबोधन कार्यक्रम में भी वह सहभागी
 
बनेगा । वह मातापिता का पुत्र और विद्यालय का
 
विद्यार्थी बना ही रहेगा ।
 
ae wie अवस्था का होता है तब उसके दो प्रकार
 
के शिक्षक होंगे । एक होंगे ग्रन्थ जिनका स्वाध्याय
 
उसे करना है । अब उसके अध्ययन का स्वरूप
 
चिन्तनात्मक रहेगा। घर में, विद्यालय में और
 
समाज में वह विद्यार्थी कम और शिक्षक अधिक
 
रहेगा । वह धीरे धीरे अनुभवी मार्गदर्शक बनेगा ।
 
दूसरा शिक्षक है सन्त, कथाकार, तीर्थयात्रा, धार्मिक
 
अनुष्ठान आदि । यह उसका सत्संग है । यहाँ वह
 
विद्यार्थी के रूप में ही जाता है । अब तक प्राप्त
 
की हुई अनुभवात्मक शिक्षा को और अधिक
 
परिपक्क बनाता है ।
 
 
 
ऐसी शिक्षा के लिये विश्वविद्यालय के कुलपति
 
और धर्माचार्यों ने मिलकर लोकविद्यालयों की रचना
 
करनी चाहिये । इन विद्यालयों में सत्संग, अनुष्ठान,
 
कथा, प्रवचन आदि के माध्यम से धर्माचर्चा चले ।
 
लोकशिक्षा के इन विद्यालयों में जिन्होंने शास्त्रों का
 
अध्ययन किया है ऐसे लोग भी आ सकते हैं और
 
नहीं किया है ऐसे भी लोग आ सकते हैं । दोनों के
 
लिये आवश्यकता के अनुसार शिक्षा की योजना
 
 
 
 
............. page-312 .............
 
  
 
+
भारत को अमेरिका में जाकर अपना स्थान बनाना चाहिये और प्रतिष्ठा प्राप्त करनी चाहिये । भारत के लोग बुद्धिमान हैं, कर्तृत्ववान हैं, विश्वमानकों पर खरे उतरने वाले हैं। उन्हें इस दिशा में पुरुषार्थ करना चाहिये । इसके लिये अंग्रेजी, विज्ञान तथा कम्प्यूटर पर प्रभुत्व प्राप्त करना चाहिये । हमें आधुनिक बनना चाहिये । अतः धार्मिकता की नहीं, वैश्विकता की आवश्यकता है। प्रयास उसे प्राप्त करने हेतु होने चाहिये । इस प्रकार धार्मिकता के सन्दर्भ में आशंका और अविश्वास का वातावरण चारों और फैला हुआ है। बात बहुत कठिन है, जटिल है।
  
होगी जरूरी नहीं कि इन विद्यालयों
+
==== पुरुषार्थ करने की आवश्यकता है ====
में वानप्रस्थी ही विद्यार्थी के रूप में आयें । जो
+
जो लोग कहते हैं कि यहां बताया गया है वही धार्मिक शिक्षा है तो उसका प्रतिष्ठित होना आज तो असम्भव है और अनावश्यक भी, उनकी बात सर्वथा अनुचित नहीं है। हम उल्टी दिशा में इतने दूर तक निकल गये हैं कि ये बातें आज असम्भव सी लगती हैं। कठिन तो हैं ही। आज के सारे वातावरण से सब इतने सम्भ्रम में पड गये हैं कि सब कुछ असम्भव के साथ साथ सब अव्यावहारिक और अनावश्यक लग रहा है।
अभी वानप्रस्थी नहीं हुए हैं ऐसे गृहस्थ भी
 
सकते हैं । इनमें उपनिषदों और पुराणों का अध्ययन
 
और देशविदेश की जानकारी देने का प्रबन्ध होगा ।
 
सम्पूर्ण समाज को देशकाल परिस्थिति के अनुसार
 
शिक्षित करने हेतु ये विद्यालय होंगे । इन विद्यालयों
 
के संचालन का प्रमुख दायित्व धर्माचार्यों का रहेगा
 
जिन्हें शिक्षक सहायता करेंगे । ऐसे लोकविद्यालयों
 
के नाम भिन्न भिन्न हो सकते हैं परन्तु यह विधिवत्‌
 
लोकशिक्षा की ही योजना के अंग होंगे ।
 
  
इसके साथ ही वानप्रस्थों, सन्यासियों के लिये जो
+
अतः धार्मिक शिक्षा का क्या करना है, इसकी चर्चा आरम्भ करने से पूर्व दो चार बातों में स्पष्ट हो जाना चाहिये।
विद्यालय होंगे वे आश्रम, मन्दिर, मठ आदि नामों से
+
# भारत को भारत रहना है तो भारत की शिक्षा धार्मिक होना अनिवार्य है।
जाने जायेंगे। ये भी सत्संग और धर्माचर्चा,
+
# भारत को भारत रहना ही है। भारत भारत रहे यह विश्वकल्याण के लिये अनिवार्य है।
कथाकीर्तन और प्रवचन के माध्यम से समाजशिक्षा
+
# भारत में शिक्षा धार्मिक होना कठिन अवश्य है असम्भव नहीं क्योंकि वह भारत के लिये स्वाभाविक है।
का काम ही करेंगे ।
+
# कठिन बात को व्यावहारिक बनाने हेतु पुरुषार्थ करने की आवश्यकता है। यह पुरुषार्थ शिक्षकों के नेतृत्व में, धर्माचार्यों के मार्गदर्शन में, सरकार के सहयोग से प्रजा का होगा, सरकार का नहीं ।
 +
इन गृहीतों को सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं है। भारत में सारे काम इस पद्धति से ही होते आये हैं। इस काम के लिये भी यही पद्धति उपयोगी होगी।
  
८. वानप्रस्थियों के लिये समाजसेवा यह अपेक्षित आचार
+
==== धार्मिक शिक्षा की पुनर्रचना के आयाम इस प्रकार हैं: ====
बनाया जाना चाहिये । समाजेसवा की सारी संस्थायें
+
# शैक्षिक पुनर्रचना
वानप्रस्थियों के दायित्व में चलेंगी जिनमें वेतन की
+
# आर्थिक पुनर्रचना
कोई व्यवस्था नहीं रहेगी । वानप्रस्थियों के निर्वाह
+
# व्यवस्थाकीय पुनर्रचना
का दायित्व उनके परिवार का ही रहेगा । यदि वे
 
घर छोडकर संस्था में ही रहना चाहेंगे तो संस्था
 
निर्वाह कर सकती है परन्तु संस्था में निर्वाह की
 
व्यवस्था हो सके इस उद्देश्य से वे समाजेसवा नहीं
 
करेंगे ।
 
  
समाज में गृहस्थ परिषद्‌, वानप्रस्थ परिषद, प्रौढ
+
==== शैक्षिक पुनर्रचना ====
वानप्रस्थ परिषद्‌, वृद्ध वानप्रस्थ परिषद्‌ आदि अनेक
+
इसका केन्द्रवर्ती विषय है क्या पढाना ? घरों में, विद्यालयों में, कारखानों मे, खेत खलिहानों में सिखाने वाला सीखने वाले को, बडा छोटे को, सत्ताधीश सत्ताधीन को, मालिक नौकर को, अधिकारी कर्मचारी को क्या सिखा रहा है, क्या करने को कह रहा है, क्या बना रहा है, किस पद्धति को अपना रहा है, उसकी भावना और उद्देश्य क्या है यह सबसे पहली विचारणीय बात है। उदाहरण के लिये मालिक नौकर को खाद्य पदार्थ में मिलावट करने को कह रहा है या किसी भी स्थिति में मिलावट नहीं करने को कह रहा है, पिता पुत्र को स्वार्थी बनाना चाहता है या सेवाभावी, उद्योजक यन्त्र को अधिक महत्त्व देता है या मनुष्य को, शिक्षक विद्यार्थी को रटना सिखाता है या स्वतन्त्र बुद्धि से विचार करना, प्राध्यापक विद्यार्थी को अर्थ ही प्रधान है यह सिखाता है या धर्म को प्रधानता बताता है, धर्माचार्य अपने ही सम्प्रदाय को सही मानना सिखाता है या सर्वपंथ समादर यह ध्यान देने योग्य बातें हैं। सिखानेवाले और सीखनेवाले के मध्य यह आदानप्रदान निरन्तर चलता रहता है, सर्वत्र चलता रहता है। यह प्रक्रिया ही वास्तव में शिक्षा है।
प्रकार की रचनायें हो सकती हैं । गृहसंचालन,
 
समाजसेवा की विभिन्न संस्थाओं का संचालन,
 
सामाजिक उत्सवों, पर्वों आदि का आयोजन इन
 
परिषदों के लिये सीखने सिखाने के विषय रहेंगे ।
 
इनका नियमन धर्माचार्य करेंगे ।
 
  
इसी प्रकार से विभिन्न उत्पादन केन्द्रों में कार्यरत,
+
इसे शैक्षिक परिभाषा में पाठ्यक्रम कहते हैं। यह पाठ्यक्रम सभी आयु वर्गों के लिये होता है, सभी व्यवस्थाओं के लिये होता है, जीवन के सभी क्षेत्रों में होता है। इसके आधार पर व्यक्ति का चरित्र बनता है, समाज का और राष्ट्र का चरित्र बनता है। पाठ्यक्रम शिक्षाप्रक्रिया का केन्द्र है और उसके आधार पर व्यक्तिगत से लेकर राष्ट्रीय जीवन चलता है। इसलिये इस विषय की चिन्ता करनी चाहिये।
अपने ही घर में व्यवसाय करने वाले लोगों की भी
 
  
Ro.
+
यह पाठ्यक्रम आज धार्मिक नहीं है। सर्वत्र जो पढाया जाता है। वह मुख्य रूप से पश्चिमी जीवनदृष्टि पर आधारित है। यही सारे अनिष्टों और संकटों का मूल है। इसकी तात्त्विक चर्चा अन्यत्र की गई है। अब उसे व्यावहारिक बनाने के लिये क्या करना होगा इसका ही विचार करना आवश्यक है। कुछ मुद्दे इस प्रकार हैं:
  
२९६
+
प्रथम तो विश्वविद्यालयों को इसका दायित्व लेना चाहिये । विश्वविद्यालय देश की शिक्षा का सर्वप्रकार का निर्देशन करने वाले हों यह अत्यन्त आवश्यक है। देश के सर्व प्रकार के सांस्कृतिक और अन्य संकटों का मूल स्रोत अथवा सांस्कृतिक उन्नति का मुख्य परिचालक विश्वविद्यालय हैं। विश्वविद्यालय का अर्थ है उनके अध्यापक । परन्तु वर्तमान विपरीतता यह है कि विश्वविद्यालय अध्यापकों के नहीं अपितु सरकार के अधीन हैं। सरकार के अधीन रहकर विश्वविद्यालय के अध्यापक यह काम नहीं कर सकते। इसलिये ऐसे विश्वविद्यालयों की स्थापना होनी चाहिये जो सरकार के अधीन न हों। देशभर में पचास सौ ऐसे विश्वविद्यालय होने से कार्य का अच्छा प्रारम्भ हो सकता है। इन विश्वविद्यालयों को सरकारी मान्यता नहीं होगी इसलिये इनके द्वारा दिये गये प्रमाणपत्रों से सरकारी या सरकार मान्य संस्थाओं या उद्योगों में नौकरी नहीं मिलेगी। जिन्हें किसी प्रकार की सरकारी मान्यता या आर्थिक सहायता की आवश्यकता नहीं है ऐसी संस्थाओं और उद्योगों में इन्हें अवश्य काम मिल सकता है। सरकार की मान्यता नहीं है ऐसे विश्वविद्यालयों में पढे हुए विद्यार्थी स्वयं ऐसी शिक्षासंस्थायें आरम्भ करें यह एक अच्छा पर्याय है, साथ ही वे उद्योग तथा समाज के लिये उपयोगी अन्य संस्थाओं का प्रारम्भ भी कर सकते हैं। उन संस्थाओं और उद्योगों में अनेक लोगोंं को काम मिल सकता है।
  
भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम
+
सरकारी सहायता नहीं होगी तब ये विश्वविद्यालय कैसे चलेंगे ? ये समाज के सहयोग से चलेंगे । धार्मिक समाज ऐसे संस्थानों को सहयोग करने के लिये तत्पर रहता ही है। देश में अनेक धार्मिक - सामाजिक - सांस्कृतिक संगठनों को समाज ही सहयोग करता है। वर्तमान में भी ऐसी बहत बडी व्यवस्था देश में चल ही रही है। ऐसे संगठनों ने इन विश्वविद्यालयों को आर्थिक सहयोग करना चाहिये। देशभर में ऐसे पचास विश्वविद्यालय हों तो उनके पाँचसौ या हजार अध्यापकों को एक संगठित समूह की तरह कार्य करना चाहिये । इन सभी विश्वविद्यालयों के कुलपतियों ने मिलकर एक कुलाधिपति का चयन करना चाहिये । सारे अध्यापक मिलकर एक आचार्य परिषद बनेगी। देशभर में हजार अध्यापकों की ज्ञानशक्ति कार्य का । प्रारम्भ करने के लिये कम नहीं है।
  
     
+
अध्यापकों के इस संगठन को एक ओर उद्योजकों, दूसरी ओर प्रशासकों और तीसरी ओर सरकार के मन्त्री परिषद के साथ समायोजन स्थापित करना चाहिये । विश्वविद्यालयों को सरकार से मुक्त रखने का कारण यह नहीं है कि अध्यापक सरकार का विरोध करते हैं, विरोधी विचारधारा वाले हैं या सरकार उनका विरोध करती है। प्रशासन से मुक्त रहना भी विरोध के कारण से नहीं है। मुक्त रहना तो सर्वकल्याणकारी शिक्षा की आवश्यकता है। इसलिये सबका कर्तव्य है। परन्तु मुक्त रहने के बाद भी संवाद, समन्वय और समर्थन तो हो ही सकता है। सरकार प्रजा के लिये है और विश्वविद्यालय सरकार और प्रजा दोनों के लिये हैं । इसलिये संवाद लाभकारी है। उद्योजकों के साथ संवाद इसलिये नहीं करना है क्योंकि उनसे धन चाहिये । उद्योगकों से संवाद इसलिये चाहिये कि देश की अर्थव्यवस्था ठीक करने में उनका सहयोग प्राप्त हो । उसी प्रकार प्रबोधन की दृष्टि से सामान्य जनसे भी संवाद स्थापित हो यह आवश्यक है। संक्षेप में इन विद्यालयों को समाजाभिमुख होना चाहिये । उन्हें अन्य विश्वविद्यालयों के साथ भी विचार विमर्श करने की दृष्टि से संवाद स्थापित करना शिक्षाक्षेत्र के हित की दृष्टि से लाभकारी है।
  
परिषर्दे होंगी जिनका संचालन महाजन करेंगे । इनमें
+
इन विश्वविद्यालयों को पहला कार्य देशभर की शिक्षा का एक शैक्षिक प्रारूप तैयार करने का करना चाहिये ऐसा करने में उन्हें तीन काम करने होंगे:
व्यावसायिक कुशलताओं की तथा समाज की समृद्धि
+
# अध्ययन और अनुसन्धान
की चर्चा होगी ।
+
# पाठ्यक्रम निर्माण
इस प्रकार समाजव्यापी शिक्षा की व्यवस्था करनी
+
# सन्दर्भसाहित्य का निर्माण
होगी देश में कोई अशिक्षित न रहे यह देखने का दायित्व
 
विश्वविद्यालयों का, असंस्कारी न रहे यह देखने का दायित्व
 
धर्माचार्यों का और अभावपग्रस्त न रहे यह देखने का काम
 
महाजनों का रहेगा । ये तीनों संस्थायें अपना अपना कार्य
 
अच्छी तरह से कर सर्के, निर्विघ्नरूप से कर सकें यह देखने
 
का काम शासक का अर्थात्‌ सरकार का रहेगा ।
 
  
इस प्रकार केवल शिक्षा की ही नहीं, उसके साथ साथ
+
==== अध्ययन और अनुसन्धान ====
धर्मतन्त्र और अर्थतन्त्र की भी पुर्ननचना होगी अकेले शिक्षा
+
धार्मिक ज्ञानधारा युगों से प्रवाहित है। द्रष्टा ऋषियों ने अपने हृदय में इस ज्ञान की अनुभूति की है। इस अनुभूति के आधार पर शास्त्रग्रन्थों की रचना हुई है। इन शास्त्रग्रन्थों का अध्ययन करना पहला काम है। इस अध्ययन का उद्देश्य वर्तमान जीवन को सुस्थिति में लाने का है। अतः वर्तमान सन्दर्भ सहित उसका अध्ययन करना आवश्यक है। वर्तमान जीवन की सर्व व्यवस्थाओं में हमारे शास्त्रग्रन्थों में निरूपित ज्ञान किस प्रकार लागू हो सकता है इस विषय को लेकर व्यावहारिक अनुसन्धान होना चाहिये । उदाहरण के लिये हम वेदों को विश्व का प्रथम ज्ञानग्रन्थ मानते हैं, श्रीमद् भगवद्गीता को सर्व उपनिषदों का सार मानते हैं। तब इन ग्रन्थों में स्थित ज्ञान के आधार पर घर, बाजार, संसद और शिक्षा क्षेत्र चलने चाहिये यह ज्ञान व्यावहारिक नहीं है ऐसा तो नहीं कह सकते फिर आज व्यावहारिक क्यों नहीं हो सकता?
Al gatas ar fran vate ae है, साथ में अन्य
 
व्यवस्थाओं की पुरर्रचना का विचार भी करना होगा
 
  
कहने की आवश्यकता नहीं कि सर्व पुरनरचना की
+
पतंजलि मुनि ने योगसूत्रों की रचना की हैं। योगसूत्र मनोविज्ञान है, अनेक मनीषियों के भाष्यग्रन्थ भी उस विषय में उपलब्ध हैं। भाष्य लिखने वाले सभी श्रेष्ठ विद्वज्जन रहे हैं। यह धार्मिक मनोविज्ञान है। फिर प्रश्न पूछा जाना चाहिये कि विश्वविद्यालय में यह मनोविज्ञान क्यों नहीं पढाया जाता है? भौतिक विज्ञान के अनेक ग्रन्थ विज्ञान विद्याशाखा में सर्वथा अपरिचित क्यों हैं? प्राणविज्ञान क्या है, आत्मविज्ञान क्या हैं? अथर्ववेद तो यन्त्रविज्ञान और तन्त्रशास्त्र का भण्डार है। वर्तमान इन्जिनीयरींग की शाखायें इनसे अनभिज्ञ हैं।
शुरुआत विश्वविद्यालय में ही होती है । वहाँ जिस प्रकार की
 
शिक्षा प्राप्त होती है वैसे व्यक्ति का आगे का तथा पूरे समाज
 
का जीवन चलता है ।
 
  
वर्तमान विश्वविद्यालयों का कार्यक्षेत्र और कार्य का
+
धार्मिक ज्ञान की वर्तमान ज्ञानविश्व में प्रतिष्ठा हो यह अनुसन्धान कर्ताओं का उद्देश्य होना चाहिये आज ज्ञानक्षेत्र में जिन शास्त्रों की प्रतिष्ठा है उनका धार्मिक पर्याय बन सकें, उनसे भी अधिक व्यापक और समावेशक शास्त्रग्रन्थों की सम्भावना स्थापित कर सकें इस प्रकार के अनुसन्धान की आवश्यकता है। देशभर में जहाँ जहाँ ऐसा अनुसन्धान का कार्य हो रहा है वहाँ संवाद भी साथ ही साथ स्थापित करना चाहिये
स्वरूप अत्यन्त संकुचित, सीमित और एकांगी है । भारत के
 
विश्वविद्यालय ऐसे नहीं हो सकते उन्हें समाज के साथ
 
समरस होने की आवश्यकता है, जीवनलक्षी होने की
 
आवश्यकता है ।
 
  
इस प्रकार Al GST a एक परिणाम यह होगा
+
==== पाठ्यक्रम निर्माण ====
कि समाज स्वायत्त बनेगा । स्वायत्त समाज अधिक
+
इस अध्ययन और अनुस्धान के आधार पर विभिन्न स्तरों के लिये विभिन्न विषयों के पर्यायी पाठ्यक्रम तैयार करने चाहिये । उदाहरण के लिये
जिम्मेदार होता है, अधिक सक्रिय होता है, अधिक समरस
+
# आयु की प्रत्येक अवस्था के लिये सामान्य पाठ्यक्रम । यह सर्वसमावेशक होना चाहिये। अर्थात् गर्भावस्था से वृद्धावस्था तक का पाठ्यक्रम । गृहीत यह है कि शिक्षा आजीवन चलती है। मनुष्य का इस जन्म का जीवन गभाधान से आरम्भ होता है और मृत्यु तक चलता है। मृत्यु के साथ इस जन्म का जीवन पूर्ण होता है। इन दो क्षणों के मध्य जीवन गर्भावस्था, शिशुअवस्था, बालावस्था, किशोरावस्था, युवावस्था, प्रौढावस्था और वृद्धावस्था से गुजरता है। इन सभी अवस्थाओं में अवस्था के अनुरूप शिक्षा की व्यवस्था होना आवश्यक है। अतः इस शिक्षा के लिये पाठ्यक्रम चाहिये । सामान्य पाठ्यक्रम का अर्थ यह है कि व्यक्ति राजा हो या प्रजा, मालिक हो या नौकर, स्त्री हो या पुरुष, किसान हो या व्यापारी, दर्जी हो या मोची, सब को लागू होने वाला पाठ्यक्रम । उदाहरण के लिये धर्मपरायण होना, सज्जन होना, बलवान होना, बुद्धिमान होना, व्यवहारदक्ष होना, प्रचुर होना, सबके लिये समान रूप से लागू है।
होता हैं ऐसे समाज में संस्कृति चिरंजीव बनती है और
+
# सन्दर्भ विशेष के लिये विशेष पाठ्यक्रम व्यक्ति विभिन्न परिस्थितियों में विभिन्न भूमिकाओं में होता है। कहीं पिता है तो कहीं पुत्र, कहीं शिक्षक है तो कहीं विद्यार्थी, कहीं राजा है तो कहीं अमात्य, आज की भाषा में कहें तो कहीं सांसद या मंत्री है तो कहीं सचिव, तो कहीं प्रजाजन, कहीं उद्योजक है तो कहीं व्यापारी, कहीं कृषक है तो कहीं गोपाल इन भूमिकाओं के अनुरूप उसे शिक्षा की आवश्यकता होती है। उदाहरण के लिये एक गोपाल को गायों की जाति, उनके स्वभाव, उनकी आवश्यकताओं, उसके आहार, उनकी क्षमता, उनकी बिमारी आदि का ज्ञान होना आवश्यक है। साथ ही उनकी सन्तति, उनका दूध, दूध की व्यवस्था आदि विषयों का ज्ञान होना भी आवश्यक है। एक उत्पादक को उत्पादन करने योग्य वस्तुयें, लोगोंं की आवश्यकता, उत्पादन प्रक्रिया, उत्पादन हेतु आवश्यक यन्त्र, स्थान, भवन, उत्पादन में सहभागी होनेवाले मनुष्यों के स्वभाव, क्षमताओं और आवश्यकताओं, उत्पादन से समाज पर और प्रकृति पर होनेवाला प्रभाव, बाजार पर होने वाला प्रभाव आदि के बारे में शिक्षा मिलने की आवश्यकता है। धार्मिक ज्ञानधारा के अनुकूल इन भूमिकाओं के लिये विभिन्न प्रकार के विभिन्न स्तरों के पाठ्यक्रम बनना आवश्यक है।
सभ्यता का विकास होता है । ऐसे समाज में भौतिकता भी
+
# ज्ञानक्षेत्र की आवश्यकता की पूर्ति हेतु पाठ्यक्रम: ज्ञानक्षेत्र की स्थिति और विकास हेतु विभिन्न प्रकार के प्रयासों की आवश्यकता रहेगी। इस दृष्टि से विभिन्न प्रकार के पाठ्यक्रमों की आवश्यकता रहेगी। उदाहरण के लिये सामान्य व्यवहार के लिये एक प्रकार के तो प्रगत अध्ययन के लिये अलग प्रकार के पाठ्यक्रम की आवश्यकता रहेगी। इसी प्रकार से उस शास्त्र की शिक्षा हेतु एक प्रकार के और अनुसन्धान हेतु अन्य प्रकार के पाठ्यक्रमों की आवश्यकता रहेगी।
अभिजात बनती है, निकृष्टता कम होती है । ऐसे समाज
+
इस प्रकार से विभिन्न विषयों के, विभिन्न स्तरों के, विभिन्न प्रयोजनों को पूर्ण करने वाले पाठ्यक्रमों की सूची एवं रूपरेखा बनाने का महत्त्वपूर्ण कार्य इन विश्वविद्यालयों को करना चाहिये।
के कला, साहित्य, संगीत आदि मनोरंजन से भी अधिक
 
आत्मसाक्षात्कार की दिशा में जा सकते हैं । वैभव नष्ट
 
नहीं होता, परिष्कृत होता है । भारत में इतिहास में अनेक
 
बार ऐ
 
सी पुनर्रचनायें हुई हैं, आज भी हो सकती है।
 
भारत की सम्भावना कभी नष्ट नहीं होती ।
 
 
  
............. page-313 .............
+
==== सन्दर्भ साहित्य का निर्माण ====
 +
यह सबसे अधिक समय और शक्ति की अपेक्षा करनेवाला काम है। पाठ्यक्रमों की रूपरेखा बनने वाला काम है। पाठ्यक्रमों की रूपरेखा बनने से शिक्षा नहीं होती। इसके लिये पुस्तकें आवश्यक हैं। आजकल लोग दृश्यश्राव्य सामग्री की उपयोगिता और परिणामकारकता की चर्चा करते हैं। इस कथन के विषय में चर्चा करने की आवश्यकता है परन्तु चर्चा अन्यत्र होगी। यहाँ इतना तो कह सकते हैं कि इनके लिये भी मूल तो लिखा हुआ ही होना चाहिये । हम दूसरे के पास अपना ज्ञान बोलकर या लिखकर ही पहुँचा सकते हैं।
  
 
+
तात्पर्य यह है कि पुस्तकें चाहिये । विभिन्न रुचि, क्षमता, आयु के लोगोंं के लिये । विभिन्न शैलियों में पुस्तकें तैयार करने की आवश्यकता रहेगी।
  
पर्व
+
उदाहरण के लिये पुस्तकों के इतने प्रकार हो सकते हैं: १. सूत्रग्रन्थ, २. भाष्यग्रन्थ, ३. सन्दर्भ ग्रन्थ, ४. निरूपण ग्रन्थ, . कथा ग्रन्थ, ६. काव्य ग्रन्थ, ७. संवाद ग्रन्थ, ८. चित्र ग्रन्थ आदि ।
  
विविध
+
ये विभिन्न स्तरों के लिये भी होने की आवश्यकता है जैसे कि शिशुओं के लिये, कम शिक्षित लोगोंं के लिये, शिक्षकों के लिये, विद्वानों के लिये, व्यवसायिओं के लिये आदि।
  
प्रथम पर्व के प्रकाश में दूसरे, दूसरे के प्रकाश में तीसरे इस प्रकार क्रमशः
+
ये ग्रन्थ भारत की सभी भाषाओं में होने चाहिये, प्रभूत मात्रा में होने चाहिये, सुलभ होने चाहिये, सुबोध भाषा में और अभिव्यक्ति में होने चाहिये पर्याप्त होने चाहिये।
पर्वों की रचना हुई है । यह पाँचवा पर्व एक दृष्टि से समापन पर्व है
 
  
इस पर्व में कुछ आलेख दिये गये हैं समस्त शिक्षाविचार को सूत्ररूप में
+
यह बडा चुनौतीपूर्ण कार्य है। सभी लेखकों और विद्वानों का अनुभव है कि सरल बातों को भी कठिन बना देना तो सरल है परन्तु कठिन बातों को सरल बनाना कठिन है। बडे बडे विद्वान छोटे बच्चोंं के लिये पुस्तक नहीं लिख सकते, सामान्य व्यक्ति को गहन विषय नहीं समझा सकते इसलिये विद्वानों के लिये सरल अभिव्यक्ति सिखाने की व्यवस्था करना भी आवश्यक है।
प्रस्तुत करते हैं । इनका प्रयोग स्वतन्त्ररूप में भी किया जा सकता है । इनके
 
आधार पर स्थान स्थान पर चर्चा की जा सकती है ।
 
  
साथ ही जिनके माध्यम से इस ग्रन्थ के अनेक विषयों में व्यापक
+
विश्वविद्यालयों को सब का मिलकर एक ग्रन्थागार भी बनाना चाहिये। यह अभिनव स्वरूप का रहेगा। सभी पचास विश्वविद्यालयों द्वारा निर्मित, सभी भाषाओं में निर्मित साहित्य एक स्थान पर उपलब्ध हो ऐसी व्यवस्था करनी चाहिये । साथ ही विभिन्न विषयों और विद्याशाखाओं के मूल ग्रन्थ तथा भारत में विभिन्न भाषाओं में लिखित भाष्यग्रन्थों का समावेश इस केन्द्रीय ग्रन्थालय में होना चाहिये । नालन्दा विद्यापीठ का ज्ञानगंज ग्रन्थालय सभी ग्रन्थालयों के मानक के रूप में आज भी सर्वविदित है । इससे प्रेरणा प्राप्त कर इस ग्रन्थालय की रचना हो सकती है।
सहभागिता प्राप्त करने का प्रयास हुआ उन प्रश्नावलियों को भी एक साथ रखा
 
गया है । विभिन्न समूहों में इन विषयों पर चर्चा के प्रवर्तन हेतु इनका उपयोग
 
सुलभ बने इस दृष्टि से यह प्रयास किया है ।
 
  
इस पर्व का, और इस ग्रन्थ का समापन एक सर्वसामान्य प्रश्नोत्तरी से
+
साथ ही एक कार्य विश्वभर की विभिन्न विचारधाराओं के साथ धार्मिक विचारधारा का तुलनात्मक अध्ययन तथा विश्व की वर्तमान स्थिति, उसके संकट, समस्याओं तथा उनके धार्मिक हल आदि विषयों का समावेश करने वाला अध्ययन भी इन विश्वविद्यालयों का कार्यक्षेत्र बनना आवश्यक है।
होता है । ये प्रश्न ऐसे हैं जिनकी सर्वत्र चर्चा होती है और सब अपनी अपनी
 
दृष्टि से उनके उत्तर खोजते हैं । यहाँ भारतीय शैक्षिक दृष्टि से इन प्रश्नों के उत्तर
 
देने का प्रयास किया गया है । अपेक्षा यह है कि शिक्षा के विषय में केवल
 
चिन्ता करने के स्थान पर हम यथासम्भव, यथाशीघ्र प्रत्यक्ष परिवर्तन करने का
 
  
प्रारम्भ करें ।
+
इन विश्वविद्यालयों की गोष्ठियाँ, अनुसन्धान की पत्रिका तथा मुखपत्रों का प्रकाशन होना तो सहज है।
  
 
+
भारत में पूर्व में भी विद्यापीठों ने इसी प्रकार काम किया है और भारत के ज्ञान को विश्व में ले जाने में वे यशस्वी हुए हैं। विश्व ने ज्ञान का प्रकाश उन्हीं विश्वविद्यालयों से पाया है। ऐसे विश्वविद्यालयों की स्थापना धार्मिक शिक्षा की पुनर्रचना का प्रथम चरण है। समाज द्वारा पोषित और समर्पित ये विश्वविद्यालय अन्य सभी आयामों के लिये मार्गदर्शक होंगे।
  
२९७
+
==== आर्थिक पुनर्रचना ====
 +
विश्वविद्यालयों को आर्थिक क्षेत्र में दो प्रकार से काम करना होगा।
 +
# शिक्षा का आर्थिक पक्ष व्यवस्थित करना
 +
# समाज की आर्थिक व्यवस्था ठीक करना
 +
वर्तमान विश्वस्थिति को देखते हुए आर्थिक पक्ष की ओर ध्यान देना आवश्यक है । इसका कारण यह है कि विश्व आज अर्थसंकट से ग्रस्त हो गया है। इसका मूल कारण पश्चिमी देशों की जीवन व्यवस्था अर्थनिष्ठ है । उपभोग प्रधान जीवनशैली होने के कारण उन्हें अर्थ की आवश्यकता अधिक होती है और अर्थप्राप्ति ही परम पुरुषार्थ होने के कारण अर्थप्राप्ति के प्रयासों को कोई बन्धन नहीं है। कोई मर्यादा नहीं है। भारत अपने स्वभाव से अर्थनिष्ठ नहीं है, धर्मनिष्ठ है। चार पुरुषार्थों में अर्थ भी एक पुरुषार्थ है और सभी आवश्यकताओं को अच्छी तरह से पूर्ण किया जा सके ऐसा अर्थसम्पादन सबको करना चाहिये ऐसा आदेश सभी गृहस्थाश्रमियों को दिया जाता है। ऐसा आदेश धर्म ही देता है । परन्तु मनुष्य के अर्थ पुरुषार्थ को ओर उपभोग को धर्म की मर्यादा में बाँधा गया है। परिणाम स्वरूप सबकी आवश्यकताओं की पूर्ति सम्यक् रूप से होती है।
  
८८ ८ ८५
+
परन्तु आज भारत, पश्चिमी प्रभाव से ग्रस्त हो गया है। हम जब कहते हैं कि भारत में शिक्षा धार्मिक नहीं है
2 नि न
 
८ 9८-५४
 
  
+
तब वह कथन सम्पूर्ण जीवन को लागू होता है। भारत में आज सम्पूर्ण जीवनव्यवस्था ही धार्मिक नहीं रही। पश्चिमी जीवनदृष्टि का प्रभाव जीवनव्यापी हुआ है। अतः धर्मनिष्ठ भारत आज अर्थनिष्ठ बन गया है। हम पैसे को सर्वस्व मानते हैं, एक मात्र प्राप्त करने लायक वस्तु मानते हैं, येन केन प्रकारेण उसे प्राप्त करने का प्रयास करते हैं, अर्थ के ही सन्दर्भ में सभी बातों का मूल्यांकन करते हैं। अर्थ, धर्म, ज्ञान, संस्कार, सद्गुण, भावना, राजनीति, परिवार व्यवस्था, शिक्षा आदि का नियन्त्रक बन गया है।
 
  
............. page-314 .............
+
इसके कारण अनेक संकट निर्माण हुए हैं । सर्वाधिक संकट तो स्वयं अर्थक्षेत्र का ही है। इस प्रकार इनकी सूची बना सकते हैं...  
 +
* दारिद्य में वृद्धि
 +
* जीवनावश्यक वस्तुओं का अभाव
 +
* बेरोजगारी
 +
* भ्रष्टाचार और अनाचार
 +
* वस्तुओं की गुणवत्ता का ह्रास और कीमतो में वृद्धि
 +
* वितरण व्यवस्ता में जटिलता
 +
* उत्पादन का केन्द्रीकरण
 +
* विज्ञापन
 +
इनके साथ साथ स्वास्थ्य में गिरावट और पर्यावरण का प्रदूषण भी बढा है। अर्थक्षेत्र ने राजकीय क्षेत्र को अपने नियन्त्रण में ले लिया है। देश की अर्थनीति संसद नहीं बनाती, उससे बनवाई जाती है। चुनाव अर्थ के प्रभाव से ही जीते जाते हैं।
  
   
+
अर्थ के अभाव से कई समस्यायें निर्माण होती हैं, अर्थ के प्रभाव से भी होती हैं।
  
भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम
+
==== शिक्षा के व्यवस्थापक्ष की पुनर्रचना ====
 +
शिक्षा के व्यवस्थाकीय पक्ष के मुख्य सूत्र इस प्रकार हैं:
 +
# शिक्षा राज्य और समाज दोनों का मार्गदर्शन करनेवाली है। जो मार्गदर्शन करता है वह मार्गदर्शन प्राप्त करने वाले के अधीन रहे यह दोनों में से एक को भी अनुकूल नहीं है। इसलिये शिक्षाक्षेत्र राज्य और समाज दोनों से उपर, स्वायत्त, स्वाधीन होना चाहिये।
 +
# शिक्षाक्षेत्र शिक्षक के अधीन होना चाहिये । शिक्षक अपने से श्रेष्ठ शिक्षक द्वारा ही नियुक्त होना चाहिये । शिक्षक नहीं है ऐसी कोई सत्ता उसे नियुक्त नहीं करेगी।
 +
# इसी कारण से उसे विद्यार्थी के तथा सम्पूर्ण समाज के चरित्र का दायित्व लेना होता है। जैसा विद्यालय वैसी शिक्षा, जैसी शिक्षा वैसा समाज परन्तु जैसा शिक्षक वैसा विद्यालय ।
 +
# इसलिये केन्द्र सरकार से लेकर छोटे गाँव तक जो शिक्षकों की नियुक्ति की व्यवस्था बनी है वह बदलनी होगी।
 +
# जो पढाता है, पढता है, अनुसन्धान करता है शैक्षिक साहित्य निर्माण करता है वही शिक्षक ऐसी शिक्षक की परिभाषा बनानी होगी।
 +
# विद्यालय के शिक्षक, मुख्यशिक्षक यह तो विद्यालय की व्यवस्था होगी। मुख्य शिक्षक यदि विद्यालय की स्थापना करता है तो वह स्वयंनियुक्त होगा। अपने अनुगामी मुख्य शिक्षक की तथा अन्य शिक्षकों की नियुक्ति करेगा। विद्यार्थियों का प्रवेश, पाठ्यक्रम, मूल्यांकन आदि के विषय में विद्यालय का शिक्षकवृन्द ही व्यवस्था करेगा।
 +
# यदि सारे मुख्य शिक्षक और शिक्षक चाहें तो गाँव या नगर के सभी विद्यालयों की शिक्षक परिषद या आचार्य परिषद बन सकती है। यह परिषद शैक्षिक विषयों तक सीमित रहेगी, व्यवस्थाकीय विषयों में प्रत्यक विद्यालय स्वायत्त ही रहेगा। विद्यालय मुख्य शिक्षक के नाम से जाना जायेगा।
 +
# विद्यालय की अर्थव्यवस्था मुख्यशिक्षक के नेतृत्व में अन्य शिक्षक और विद्यार्थी मिलकर करेंगे यह तो सीधी समझ में आने वाली बात है।
 +
# सामान्य अध्ययन स्थानिक स्वरूप का ही होगा। प्रगत अध्ययन के लिये बड़े विद्यालय होंगे जहाँ अन्य स्थानों से भी विद्यार्थी अध्ययन के लिये आयेंगे। ये विद्यार्थी गुरु के साथ ही रहेंगे। यह गुरुकुल कहा जायेगा। इनमें पढ़ने वाले विद्यार्थियों के लिये निःशुल्क व्यवस्था होगी। वे घर के सदस्य के समान रहेंगे । व्यवस्थाओं में भी सहभागी बनेंगे।
 +
# गुरुकुलों में कुलपति होंगे। यदि उन्होंने गुरुकुल स्थापन किया है तो वे स्वयंनियुक्त कुलपति होंगे, नहीं तो पूर्व कुलपति के द्वारा नियुक्त । सभी आचार्यों की नियुक्ति कुलपति द्वारा होगी।
 +
# गुरुकुल की सारी भौतिक व्यवस्थायें भी आचार्य और विद्यार्थी मिलकर ही करेंगे।
 +
# नगर के लोग विद्यापीठ या गुरुकुल के कार्यक्रमों में सहभागी बन सकते हैं। छोटे मोटे काम करके सेवा भी कर सकते हैं। नगरजन गुरुकुल को अपने कार्यक्रमों में नियन्त्रित भी कर सकते हैं । गृहस्थों के कामों में गुरुकुल मार्गदर्शक भी बन सकता है। विशेषरूप से गृहस्थजीवन की समस्याओं में परामर्शक के रूप में आचार्यवृन्द सहभागी बन सकता है।
 +
# प्रगत अध्ययन के ये केन्द्र सामाजिक चेतना के केन्द्र के रूप में काम करेंगे।
 +
# विद्यार्थियों के प्रवेश, परीक्षा, पाठ्यक्रम आदि के निर्णय गुरुकुल अथवा विद्यापीठ स्वयं लेगा।
 +
# राज्य के और समस्त देश के गुरुकुलों या विद्यापीठों की विद्वत् परिषद या आचार्य परिषद बनेगी। आचार्य परिषद के सदस्य कौन बन सकते हैं इसके मापदण्ड कुलपतियों की परिषद निश्चित करेगी। ये मापदण्ड निश्चित ही ज्ञानक्षेत्र और धर्मक्षेत्र को शोभा देने वाले ही होंगे।
 +
# स्थानिक, जिलास्तरीय और राज्यस्तरीय विद्वत्प रिषदें बनेंगी जो विद्यालयों को शैक्षिक सहयोग करेंगी।
 +
# सम्पूर्ण देश की मिलकर एक विद्वत् परिषद और एक कुलपति परिषद होगी। कुलपति अपने में से ही कुलाधिपति का चयन करेंगे। यह कुलपति परिषद कुलाधिपति के नेतृत्व में राज्य और समाजधुरीणों से संवाद और समायोजन स्थापित करेंगे।
 +
# देशविदेशों के शिक्षाक्षेत्र के साथ सम्पर्क में रहना, उनसे संवाद स्थापित करना, वहाँ जाना और उन्हें अपने यहाँ निमन्त्रित करना कुलपति परिषद का काम है।
 +
# देश के ज्ञान का रक्षण, वर्धन, परिष्करण करना, अगली पीढी को हस्तान्तरित करना, जीवन की और जगत की समस्याओं का ज्ञानात्मक समाधान करना, राज्य और समाज के कल्याण हेतु नित्य चिन्तन करना, मार्गदर्शन करने हेतु सदैव सिद्ध रहना, नित्य ज्ञानसाधक और विद्यावृत्ती रहना, ज्ञान के प्रति एकानिष्ठ रहना, ज्ञान का अनादर नहीं होने देना, अज्ञानी को प्रश्रय नहीं देना, सत्ता या धन के समक्ष नहीं झुकना, इनके स्वार्थों के साथ समझौते नहीं करना, राज्य की ओर से पुरस्कार या अर्थसहयोग की अपेक्षा नहीं करना, सम्मान और खुशामद का अन्तर समझना विद्यापीठों के लिये अत्यन्त आवश्यक है।
 +
# सर्व स्तरों पर विद्यासंस्था के मुखिया को धर्मसंस्था के मुखिया के साथ समयायोजन करना आवश्यक है। धर्म और शिक्षा एक ही सिस्के के दो पक्ष हैं। शिक्षा वही है जो धर्म सिखाती है । शिक्षा के बिना धर्म का प्रसार नहीं होगा, धर्म के बिना शिक्षा का आधार नहीं बनेगा। दोनों परस्परपूरक हैं। अतः दोनों का एकदूसरे के साथ मेल होना आवश्यक है। शिक्षक को धर्मतत्त्व अवगत होना चाहिये, धर्माचार्य को शिक्षक की कला का ज्ञान होना चाहिये । दोनों यदि एक ही हैं तब तो अच्छा ही है परन्तु व्यवस्था की दृष्टि से दोनों भिन्न रहेंगे। शिक्षक और धर्माचार्य में कौन बडा है ऐसा यदि कोई पूछता है तो निश्चित ही धर्माचार्य बडा है, अधिक सम्माननीय है। एक ही साथ यदि राष्ट्रपति, कुलाधिपति और धर्माधिपति उपस्थित हों तो सर्वोच्च स्थान धर्माधिपति को, दूसरा स्थान कुलाधिपति को और तीसरा राष्ट्रपति को दिया जाना चाहिये । धार्मिक समाज की यही व्यवस्था रही है, युगों से रही है। भारत के लिये यही स्वाभाविक व्यवस्था है।
  
अनुक्रमणिका
+
==== किसकी शिक्षा कहाँ और कैसे हो ====
26. आलेख २९९
+
धार्मिक शिक्षा की पुनर्रचना का एक और आयाम है किसकी शिक्षा कहाँ और कैसे होगी इसका विचार करना । इसका विचार कुछ इस प्रकार किया जा सकता है:
29. भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम प्रश्नचावलि ३२१
+
# गर्भाधान से लेकर सात वर्ष की आयु तक की शिक्षा घर में ही मातापिता के सान्निध्य में होगी। इसी दृष्टि से माता को बालक की प्रथम गुरु कहा है।
१८... एक सर्वसामान्य प्रश्नोत्तरी 343
+
# इसके बाद पन्द्रह वर्ष तक की शिक्षा तीन केन्द्रों में विभाजित होगी। एक केन्द्र होगा घर जहाँ गृहस्थ बनने की शिक्षा होगी। इस सन्दर्भ में पिता गुरु है और माता उसकी सहायक । दूसरा केन्द्र विद्यालय है जहाँ उसे देशदुनिया का और धर्म का ज्ञान मिलेगा। विद्यालय के शिक्षक उसके गुरु होंगे। तीसरा केन्द्र होगा उत्पादन का केन्द्र जहाँ वह व्यवसाय सीखेगा। व्यवसाय का मालिक उसका गुरु होगा। तीनों केन्द्रों पर एक विद्यार्थी की तरह ही उसके साथ व्यवहार होगा। यदि उसे शिक्षक, पुरोहित, राज्यकर्ता, अमात्य आदि बनना है तो विद्यालय में ही जायेगा, उत्पादन केन्द्र में जाने की आवश्यकता नहीं।
 +
# पन्द्रह वर्ष से लेकर विवाह करता है तब तक तीनों केन्द्र पर ही रहेगा परन्तु अब उसका विद्यार्थी और शिक्षक दोनों का काम आरम्भ होगा। अर्थात् वह विद्यालय में है तो पढेगा और पढायेगा, व्यवसाय केन्द्र में है तो व्यवसाय सीखेगा और करेगा घर में है तो पिता के साथ गृहस्थी के कामों में सहभागी बनेगा। पिता इस स्थिति में व्यवसाय और गृहस्थी दोनों में गुरु हैं। 
 +
# गृहस्थाश्रम में प्रवेश के साथ उसकी गृहस्थी की शिक्षा आरम्भ होती है। अब वह पिता, शिक्षक या व्यवसाय के मालिक का विद्यार्थी नहीं है। ये सब उसके मार्गदर्शक हैं। अपनी शिक्षा की चिन्ता अब उसे स्वयं करनी है। 
 +
# अब मार्गदर्शन प्राप्त करने हेतु उसके घर में बडे बुजुर्ग हैं। ये तो सदा साथ ही रहते हैं और नित्य उपलब्ध है। विचारविमर्श करने के लिये पत्नी है जिसकी गृहस्थी की शिक्षा उसके समान ही हुई है। क्रियात्मक अनुभव लेने के लिये घर है जहाँ उसे जिम्मेदारीपूर्वक जीना है। उसका मित्रपरिवार है जो उसके समान ही शिक्षा पूर्ण कर अब गृहस्थ बना है। विद्यालय में तथा घर में प्राप्त शिक्षा का स्मरण रखते हुए अब उसे शिक्षा को क्रियात्मक स्वरूप देना है। घर में बच्चोंं का जन्म होता है। उनका संगोपन करते करते वह अनुभव प्राप्त करता है। अब अपने बच्चोंं के लिये वह शिक्षक है । जिस प्रकार मार्गदर्शन के लिये अपने मातापिता से परामर्श करता है उसी प्रकार समय समय पर विद्यालय में भी जाता है जहाँ उसका शिक्षक वृन्द है। इस प्रकार उसकी शिक्षा का यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण चरण है। इस अवस्था की शिक्षा के लिये दो प्रकार की व्यवस्था करनी चाहिये। एक तो विद्यालय में पूर्व छात्र परिषद बनानी चाहिये जिसके माध्यम से विद्यालय में पढकर गये हुए विद्यार्थी निश्चित किये हुए कार्यक्रमों के माध्यम से विद्यालय में आ सकें। दूसरी समाज में भी शिक्षित लोगोंं की परिषद की रचना करनी चाहिये । यह उनके लिये विश्वविद्यालय का अंग ही होगा जिसमें वे आपस में अनुभवों का आदानप्रदान कर सकते हैं और एकदूसरे से सहयोग प्राप्त कर सकते हैं। ये परिषदें किसी न किसी स्वरूप में विश्वविद्यालय के साथ जुडी रहेंगी। इन परिषदों का एक काम अपने विश्वविद्यालयों की आर्थिक तथा अन्य प्रकार की चिन्ता करने का भी रहेगा । जिस प्रकार वह अपने परिवारजनों के प्रति अपना दायित्व निभाता है उसी प्रकार अपने विद्यालय के प्रति दायित्व भी निभायेगा। इनके माध्यम से विद्यालय भी समाज के साथ जुडा रहेगा। विद्यालय के अन्य व्यवस्थात्मक कार्यों जैसे कि सभा सम्मेलनों या परिषद के आयोजनों में वह सहभागी होता रहेगा। विद्यालय के समाज प्रबोधन कार्यक्रम में भी वह सहभागी बनेगा। वह मातापिता का पुत्र और विद्यालय का विद्यार्थी बना ही रहेगा। 
 +
# वह प्रौढ अवस्था का होता है तब उसके दो प्रकार के शिक्षक होंगे । एक होंगे ग्रन्थ जिनका स्वाध्याय उसे करना है। अब उसके अध्ययन का स्वरूप चिन्तनात्मक रहेगा। घर में, विद्यालय में और समाज में वह विद्यार्थी कम और शिक्षक अधिक रहेगा। वह धीरे धीरे अनुभवी मार्गदर्शक बनेगा। दूसरा शिक्षक है सन्त, कथाकार, तीर्थयात्रा, धार्मिक अनुष्ठान आदि। यह उसका सत्संग है। यहाँ वह विद्यार्थी के रूप में ही जाता है। अब तक प्राप्त की हुई अनुभवात्मक शिक्षा को और अधिक परिपक्व बनाता है। ऐसी शिक्षा के लिये विश्वविद्यालय के कुलपति और धर्माचार्यों ने मिलकर लोकविद्यालयों की रचना करनी चाहिये । इन विद्यालयों में सत्संग, अनुष्ठान, कथा, प्रवचन आदि के माध्यम से धर्माचर्चा चले । लोकशिक्षा के इन विद्यालयों में जिन्होंने शास्त्रों का अध्ययन किया है ऐसे लोग भी आ सकते हैं और नहीं किया है ऐसे भी लोग आ सकते हैं। दोनों के लिये आवश्यकता के अनुसार शिक्षा की योजना होगी। आवश्यक नहीं कि इन विद्यालयों में वानप्रस्थी ही विद्यार्थी के रूप में आयें। जो अभी वानप्रस्थी नहीं हुए हैं ऐसे गृहस्थ भी आ सकते हैं। इनमें उपनिषदों और पुराणों का अध्ययन और देशविदेश की जानकारी देने का प्रबन्ध होगा । सम्पूर्ण समाज को देशकाल परिस्थिति के अनुसार शिक्षित करने हेतु ये विद्यालय होंगे। इन विद्यालयों के संचालन का प्रमुख दायित्व धर्माचार्यों का रहेगा जिन्हें शिक्षक सहायता करेंगे। ऐसे लोकविद्यालयों के नाम भिन्न भिन्न हो सकते हैं परन्तु यह विधिवत लोक शिक्षा की ही योजना के अंग होंगे।
 +
# इसके साथ ही वानप्रस्थों, सन्यासियों के लिये जो विद्यालय होंगे वे आश्रम, मन्दिर, मठ आदि नामों से जाने जायेंगे। ये भी सत्संग और धर्माचर्चा, कथाकीर्तन और प्रवचन के माध्यम से समाजशिक्षा का काम ही करेंगे।
 +
# वानप्रस्थियों के लिये समाजसेवा यह अपेक्षित आचार बनाया जाना चाहिये । समाजेसवा की सारी संस्थायें वानप्रस्थियों के दायित्व में चलेंगी जिनमें वेतन की कोई व्यवस्था नहीं रहेगी। वानप्रस्थियों के निर्वाह का दायित्व उनके परिवार का ही रहेगा। यदि वे घर छोडकर संस्था में ही रहना चाहेंगे तो संस्था निर्वाह कर सकती है परन्तु संस्था में निर्वाह की व्यवस्था हो सके इस उद्देश्य से वे समाजेसवा नहीं करेंगे।
 +
# समाज में गृहस्थ परिषद, वानप्रस्थ परिषद, प्रौढ वानप्रस्थ परिषद, वृद्ध वानप्रस्थ परिषद आदि अनेक प्रकार की रचनायें हो सकती हैं। गृहसंचालन, समाजसेवा की विभिन्न संस्थाओं का संचालन, सामाजिक उत्सवों, पर्वो आदि का आयोजन इन परिषदों के लिये सीखने सिखाने के विषय रहंगे। इनका नियमन धर्माचार्य करेंगे।
 +
# इसी प्रकार से विभिन्न उत्पादन केन्द्रों में कार्यरत, अपने ही घर में व्यवसाय करने वाले लोगोंं की भी परिषदें होंगी जिनका संचालन महाजन करेंगे । इनमें व्यावसायिक कुशलताओं की तथा समाज की समृद्धि की चर्चा होगी।
 +
[[Dharmik Science and Technology (धार्मिक विज्ञान एवं तन्त्रज्ञान दृष्टि)|यह लेख]] भी देखें ।
  
२९८
+
==References==
+
<references />
  
............. page-315 .............
+
[[Category:ग्रंथमाला 3 पर्व 4: विद्यालय की भौतिक एवं आर्थिक व्यवस्थाएँ]]

Latest revision as of 15:01, 7 March 2021

शिक्षा धर्म सिखाती है

यह निरन्तर प्रतिपादन हो रहा है कि शिक्षा धर्म सिखाती है [1]। तो प्रश्न यह होगा कि धर्माचार्य ही धर्म क्यों नहीं सिखाते ? धर्म सिखाने के लिये शिक्षक क्यों चाहिये ?

धर्म और शिक्षा का सम्बन्ध साध्य और साधन जैसा है। धर्म के बारे में हमने अनेक बार चर्चा की ही है वह एक विश्वनियम है जिससे व्यक्ति से लेकर सृष्टि तक सबकी धारणा होती है । इन नियमों के अनुसार जब समष्टिजीवन का व्यवहार चलता है, तब धर्म संस्कृति का रूप धारण करता है । इस व्यवहार और संस्कृति को एक पीढ़ी से दूसरी पीढी तक पहुँचाने की जो व्यवस्था है वह शिक्षा है । तात्पर्य यही है कि धर्म, धर्म का व्यवहार और धर्म का हस्तान्तरण एक दूसरे के साथ अविनाभाव सम्बन्ध से जुड़े हैं। धर्माचार्य धर्म को जानता है, उसे व्यवहार्य बनाता है, देशकाल परिस्थिति के अनुसार उसमें परिष्कार करता है, समष्टिनियमों का सृष्टिनियमों के साथ समायोजन करता है । धर्माचार्य धर्म कहता है । धर्माचार्य जो कहता है, उसे लोगोंं तक पहुँचाने का कार्य शिक्षा का है ।

यदि धार्मिक समाज धर्मनिष्ठ है और वह अर्थनिष्ठ बन गया है तो उसे पुनः धर्मनिष्ठ बनाने में धर्माचार्य की भूमिका महत्त्वपूर्ण है । उसके बिना धर्म की प्रतिष्ठा नहीं होगी और भारत भारत नहीं होगा ।

धर्माचार्य किसे कहेंगे ?

धर्माचार्य कौन है ? जो विशिष्ट प्रकार के तिलक, माला, केश, वेश धारण करता है वह धर्माचार्य नहीं है। जो किसी एक सम्प्रदाय का प्रवर्तक या गादीपति है वही धर्माचार्य नहीं है। जिसने संन्यास की दीक्षा ली है वही धर्माचार्य नहीं है। जटा, शिखा आदि रखता है वही धर्माचार्य नहीं है । ये सबके सब सम्प्रदाय के चिह्नविशेष हैं। सम्प्रदाय धर्म का एक अंग अवश्य हैं, परन्तु समग्रता में धर्म नहीं हैं ।

धर्माचार्य पूर्व में कहे अनुसार वह है जो धर्म को जानता है, धर्मशास्त्र की रचना करता है और उसे बताता है। हम कह सकते हैं कि धर्माचार्य धर्म के शासन में शासक है। शिक्षाचार्य उसके अमात्य हैं । शिक्षा धर्म का अनुसरण करती है । अतः धर्माचार्य और शिक्षक एकदूसरे के पूरक हैं ।

धर्माचार्य और शिक्षक एकदूसरे का स्थान ले सकते है। हम यह भी कह सकते हैं कि शिक्षाक्षेत्र का सर्वोच्च पद धर्माचार्य का ही होगा हम धर्म और शिक्षा को अलग कर ही नहीं सकते ।

आज हम क्या करें ?

भारत को यदि धर्मनिष्ठ बनाना है तो हमें धर्माचार्यों की आवश्यकता है । वर्तमान में जो धर्माचार्य के नाम से अपने आपको प्रस्तुत करते हैं उन्हें अपनी भूमिका को अधिक व्यापक बनाने की आवश्यकता है । उदाहरण के लिये वर्तमान में धर्मक्षेत्र - आचरण, पूजा, भक्ति, अध्यात्मचर्चा, योग आदि में सीमित बन गया है । अर्थक्षेत्र, राजनीति का क्षेत्र, शिक्षा क्षेत्र आदि व्यष्टि जीवन और समष्टिजीवन का नियमन करने वाले महत्त्वपूर्ण क्षेत्र धर्म के दायरे से बाहर रह गये हैं । दिखाई तो यह देता है कि ये सारी व्यवस्थायें आज के धर्मक्षेत्र को भी नियन्त्रित कर रही हैं। अथवा कहें कि उन्होंने इन व्यवस्थाओं के साथ अनुकूलन बना लिया है। उदाहरण के लिये अनेक धर्माचार्यों के, मठों के, मन्दिरों के आश्रय में अंग्रेजी माध्यम के विद्यालय चलते हैं, देश से बाहर के शिक्षा बोर्ड के साथ संलग्न भी होते हैं, प्लास्टिक का भरपूर प्रयोग वहाँ होता है और सरकारी नियमों से ही वहाँ शिक्षा होती है । इन विद्यालयों में धर्म सिखाने वाली शिक्षा नहीं होती । धर्माचार्यों के प्रश्नय में निःशुल्क शिक्षा भी चलती है परन्तु वह धर्मादाय है, शिक्षा का सम्मान नहीं है । अर्थक्षेत्र को नियमन में लाना वर्तमान धर्मक्षेत्र के दायरे से बाहर ही रह गया है जबकि भारत की प्रथम आवश्यकता अर्थक्षेत्र के नियमन की है ।

धर्म जीवनव्यापी है, सृष्टिव्यापी है। आज उसे संकुचित बना दिया गया है । धर्म को सर्वव्यापक बनाने की प्रथम आवश्यकता है। उसे ऐसा बनाने वाले धर्माचार्य की आवश्यकता है ।

ऐसे धर्माचार्य कैसे प्राप्त होंगे ?

ऐसे धर्माचार्य बनने के लिये व्यक्ति को और ऐसे धर्माचार्य प्राप्त करने के लिये समाज को तप करने की अनिवार्य आवश्यकता है । कोई भी श्रेष्ठ बात तपश्चर्या के बिना प्राप्त नहीं होता ।

तप के उदाहरण

तप कहते ही हमारे सामने अनेक प्राचीन उदाहरण आते हैं ।

  • राजा भगीरथ ने गंगा नदी को स्वर्ग से पृथ्वी पर लाने के लिये तप किया |
  • बालक ध्रुव ने अपने पिता का स्नेह प्राप्त करने के लिये तप किया |
  • अर्जुन ने पाशुपतास्त्र प्राप्त करने के लिये तप किया |
  • पार्वती ने शंकर को पति के रूप में प्राप्त करने हेतु तप किया ।
  • अनेक ऋषि मुनि अपने संकल्प की सिद्धि हेतु तप करते हैं ।
  • भृगु ने अपने पिता से पूछा - ब्रह्म क्या है ? तब पिता ने कहा कि तप करो और ब्रह्म को जानो ।
  • विश्वामित्र ने तप किया और राजर्षि से ब्रह्मार्षि हुए ।

तात्पर्य यह है कि ऐसा कोई काम नहीं है जो तप से सिद्ध नही होता, और ऐसा कोई श्रेष्ठ काम नहीं है जो बिना तप के सिद्ध हो जाता है ।

तप कहते ही हमारे सामने बालक ध्रुव अरण्य में अकेला एक पैर पर खडा हुआ नारायण का जप करता हुआ दिखाई देता है। पार्वती चारों ओर अग्नि है और मध्य में बैठी है और उपर से प्रखर सूर्य तप रहा है ऐसा पंचाग्नि का ताप सहती हुई निराहार, निर्जला रहती हुई दिखाई देती है । अर्जुन, भगीरथ, विश्वामित्र आदि सब इसी प्रकार की घोर तपश्चर्या करते हैं । यह सब सुनकर और सोचकर ऐसा लगता है कि आज तो ऐसा तप सम्भव ही नहीं है। सम्भव है भी तो कोई करने के लिये अपने आपको प्रस्तुत करे यह सम्भव नहीं है।

परन्तु इस प्रकार तप आज के समय में असम्भव है, ऐसा मानने से या स्वीकार कर लेने से हमारी समस्या दूर होने वाली नहीं है । समस्या तो दूर करनी ही है । अतः तप नहीं हो सकता ऐसा कहने के स्थान, पर तप कैसे हो सकता है इसका विचार करना चाहिये ।

खास बात यह है कि यह कलियुग है। कलियुग में मनुष्य की शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक शक्ति भी क्षीण हो जाती हैं। कठोर तप करने की शक्ति भी क्षीण हो जाती है । इसलिये हमें लगता है कि सत्ययुग और त्रेतायुग में अनेक लोगोंं ने जो कठोर तप किये थे वैसे तप आज नहीं हो सकते । यह बात ठीक है परन्तु यह बात भी सत्य है कि उस समय जितना कठोर तप करने पर सिद्धि मिलती थी उतना कठोर तप आज कलियुग में नहीं करना पडता है । उससे बहुत कम तप करने पर भी संकल्प की सिद्धि होती है। यह हमारे लिये बहुत बडा आश्वासन है ।

इन बातों को ध्यान में रखकर हमें धर्माचार्यों और समाज को तप कैसे करना चाहिये इसका विचार करना है ।

धर्माचार्यों के लिये तप

धर्माचार्यों का दायित्व शेष समाज से अधिक है क्योंकि उन्हें समाज का मार्गदर्शन करना है । समाज भी उनका सम्मान करता है । समाजव्यवस्था की जो श्रेणियों बनी हैं उनमें धर्माचार्य सबसे ऊपर हैं क्योंकि धार्मिक समाज धर्मनिष्ठ है । भारत में जो बडा है उसे ही अपने साथ अधिक कठोर बनना है। बड़ों को कर्तव्य का विचार प्रथम करना है, भोग और सुविधा के बारे में अपने आपको अन्त में रखना है। इस तथ्य का स्वीकार करना तप का प्रथम चरण है।

तप त्याग की अपेक्षा करता है । वर्तमान स्थिति को देखते हुए प्रथम त्याग, सम्मान और प्रतिष्ठा का करना होगा। आज अनुयायियों की ओर से जो सम्मान मिलता है और उसके कारण जो प्रतिष्ठा मिलती है, वह हमें तप नहीं करने देती। इन दो बातों के लिये सिद्धता करेंगे तो आगे के तप के लिये भी सिद्धता होगी।

धर्माचार्यों को आज बौद्धिक तप की बहुत आवश्यकता है । इस तप के मुख्य आयाम इस प्रकार हैं:

अनुयायियों की ओर से सम्मान क्यों मिल रहा है, कौन से तत्त्व उन्हें हमारे पास आने के लिये प्रेरित कर रहे हैं, उनकी दुर्बलतायें कौन सी हैं, आकांक्षायें कैसी हैं और अपेक्षायें क्या होती हैं, इन्हें समझना और उसके बाद उनका मार्गदर्शन करना।

धर्म को आज विवाद का विषय बना दिया गया है। इस विवाद से धर्म को मुक्त करने हेतु तप की आवश्यकता है। इस विवाद को समझना, उसके पीछे जो निहित स्वार्थ है उन्हें समझना, उन स्वार्थों को कैसे परास्त करना इसका विचार करना, उसकी योजना करना और योजनाओं का क्रियान्वयन करना, यह तप है। विवाद में न पडना पड़े, इसके लिये धर्म के नाम पर संस्कृति, अध्यात्म, योग आदि के नाम स्वीकार कर धर्म संज्ञा का ही त्याग करना युद्धक्षेत्र से पलायन करना होता है। बौद्धिक तप का यह दूसरा आयाम है।

सम्प्रदाय को धर्म के रूप में प्रस्तुत करना, धर्म को ही संकुचित बना देना है। सम्प्रदाय को व्यापक धर्म का एक अंग मानकर उसकी प्रतिष्ठा के लिये सम्प्रदाय की शक्ति का उपयोग करना तप ही है क्योंकि तब अनुयायियों की आर्थिक, राजकीय, सामाजिक, व्यक्तिगत गतिविधियों पर नियन्त्रण करना पड़ता है।

अर्थनिष्ठ समाज को धर्मनिष्ठ समाज बनाने हेतु क्या करना पड़ेगा इसका आकलन करना बौद्धिक तप है। इस आधार पर नई रचनायें बनाना बौद्धिक तप है। इन रचनाओं को ही धार्मिक परम्परा में स्मृति कहा गया है। स्मृति की रचना करना धर्माचार्यों के लिये बौद्धिक तप है। ऐसा तप करनेवाले ऋषि हैं।

दूसरा है मानसिक तप । मानसिक तप करने पर ही बौद्धिक तप करने की क्षमता प्राप्त होती है। मानसिक तप के कुछ आयाम इस प्रकार हैं:

  1. सम्मान और प्रतिष्ठा का त्याग करना, उसकी अपेक्षा नहीं करना यह प्रथम चरण है। इसका उल्लेख पूर्व में भी हुआ है।
  2. सामाजिक स्वीकृति के लिये आसान तरीके, लुभावने रास्ते अपनाने का मोह टालना, यह जरा कठिन मानसिक तप है।
  3. सही बातें कहने पर अनेक अवरोध निर्माण हो सकते हैं, प्रतिरोध भी हो सकता है। इन प्रतिरोधों और अवरोधों को सहना और डटे रहना भी मानसिक तप है।
  4. आर्थिक और राजनीतिक लालचों में न फंसना बहुत बडा मानसिक तप है।
  5. निहित स्वार्थों का पोषण कर लाभ प्राप्त करने के लिये प्रवृत्त नहीं होना मानसिक तप है ।
  6. धर्माचार्यों को भोग विलास के साधन बहत सुलभ हो जाते हैं। इनसे प्रभावित नहीं होना भी मानसिक तप है ।
  • धर्माचार्यों के लिये तप का तीसरा आयाम है, शारीरिक तप का । इसके कुछ आयाम इस प्रकार हैं:
  1. धर्माचार्य गृहस्थ हो, वानप्रस्थ हो या संन्यासी, उसे धर्म के विरोधी, किसी भी प्रकार का आचरण नहीं करना चाहिये।
  2. खानपान, वेशभूषा, बोलचाल, उपभोग आदि में संयम, सादगी और त्याग होना ही चाहिये। उदाहरण के लिये न खाने के पदार्थ खाना, शृंगार और अलंकारों का अतिरेक करना, शृंगार की बातें करना, टीवी सिनेमा आदि में अधिक रुचि लेना, किसी को प्रेरणा देने वाला आचरण नहीं होता। धार्मिक मानस संयम, सदाचार, त्याग, अनुशासन आदि से ही प्रेरित होता है । दम्भ समझता है, उससे प्रभावित नहीं होता। जिसे समाज का मार्गदर्शन करना है उसे शारीरिक स्तर के वैभव विलास से परहेज करना ही होता है। दिखावे के लिये संयम और एकान्त में असंयम से चरित्र दुर्बल होता है और लोग छले नहीं जाते - इसलिये ऐसा करने से सब कुछ नष्ट होता है।
  3. जो समाजविरोधी, पर्यावरणविरोधी, स्वास्थ्यविरोधी है वह धर्मविरोधी है। जरा इन बातों पर विचार करना चाहिये:
  • विदेशी वस्तुयें आकर्षक और सुविधायुक्त हैं, क्या उन्हें अपनाने से बच सकते हैं ? ए.सी. पर्यावरण विरोधी है। क्या उससे बचकर गर्मी सह सकते हैं ?
  • बिना स्नान के भोजन करने का नियम अपनाने में कभी चौबीस घण्टे भूखा रहना पड़ सकता है। क्या ऐसा नियम अपना सकते हैं ?
  • प्लास्टिक और पोलीएस्टर पर्यावरण का भयंकर नुकसान करते हैं। क्या उनका त्याग कर अनेक प्रकार की असुविधाओं का स्वीकार कर सकते हैं, और अन्यों को भी इनका त्याग करने हेतु प्रेरित कर सकते हैं?
  • क्या काले धन का अस्वीकार कर सकते हैं?

ऐसे तो अनेक आयाम हैं जो शारीरिक स्तर पर असुविधा, कष्ट, अभाव आदि का स्वीकार करने हेतु बाध्य बना सकते हैं। यही एक धर्माचार्य के लिये तप है। धर्माचार्य स्वयं जब ऐसा तप करते हैं तब वे समाज का मार्गदर्शन कर सकते हैं, समाज को प्रभावित कर सकते हैं।

उपरी स्तर पर प्रभावित करने के तरीके अपनाना सरल है, परन्तु उनसे आन्तरिक और स्थायी परिवर्तन नहीं होता । समाज को शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक स्तर पर प्रभावित और प्रेरित करने हेतु तीनों प्रकार के तप करने होते है।

जितनी तपश्चर्या उग्र उतना ही प्रभाव स्थायी यह वैज्ञानिक नियम है । समाज यदि दुर्बल है तो उसका कारण धर्माचार्यों की तपश्चर्या कम पड़ रही है, यही समझना चाहिये।

ऐसा नहीं है कि आज ऐसा तप करनेवाले लोग हैं ही नहीं । तपश्चर्या करने वाले लोग हैं, इसीलिये समाज पूर्ण रूप से नष्ट नहीं हो रहा है और अच्छे भविष्य की सम्भावना बची है। परन्तु तप कम पड रहा है यह भी स्पष्ट रूप से दिखाई दे रहा है। आसुरी शक्तियों का प्रभाव बढ़ रहा है, यही इसका प्रमाण है। जो धर्माचार्य बचे हैं, उन धर्माचार्यों को अपनी तपश्चर्या बढाना एक आवश्यकता है, तपश्चर्या करने वालों की संख्या बढाना दूसरी आवश्यकता है। यह भी ध्यान में रखने की बात है कि केवल संख्या बढ़ने से नहीं होगा, तपश्चर्या की मात्रा भी बढनी चाहिये । सत्ययुग हो या कलियुग तपश्चर्या की उग्रता तो होना आवश्यक ही है।

समाज के लिये तप

अच्छे धर्माचार्य प्राप्त हों यह समाज का भी भाग्य है। ऐसा भाग्य प्राप्त होने हेतु समाज को भी तप करने की आवश्यकता होती है।

समाज के तप के कुछ आयाम इस प्रकार हैं:

आस्था, विश्वास और श्रद्धा का भाव सांस्कृतिक विकास के लिये आवश्यक है। आज इन तीनों बातों का अभाव सार्वत्रिक रूप में दिखाई दे रहा है। किसी की किसी बात पर या किसी व्यक्ति पर श्रद्धा नहीं है। इसी प्रकार किसी पर विश्वास भी नहीं है। किसी तत्त्व पर, किसी सिद्धान्त पर, किसी ग्रन्थ पर आस्था भी नहीं है। ये तीनों बातें दिखाई भी देती हैं तो बहुत जल्दी नष्ट भी हो जाती हैं । इसका कारण यह है कि किसी न किसी स्वार्थ की पूर्ति के आलम्बन से जब आस्था, विश्वास या श्रद्धा जुड़ जाते हैं तब स्वार्थ सिद्ध नहीं होने पर वे टूट भी जाते हैं।

इसलिये समाज को आस्था, विश्वास और श्रद्धा बढाना चाहिये और उन्हें स्वार्थ से मुक्त करना चाहिये ।

इसी प्रकार से दम्भी, झूठे, शिथिल चरित्रवाले धर्माचार्यों को पहचानना भी चाहिये और उनसे बचना चाहिये । स्वार्थ छोडने से ऐसा हो सकता है।

थोडा भी दूसरे का विचार नहीं करने से, समाज की धारणा हेतु थोडी भी असुविधा नहीं सहने से, थोडा भी सदाचारी नहीं होने से, थोडा भी संयम नहीं करने से चरित्र बनता ही नहीं है। ऐसे चरित्रहीन लोगोंं में से धर्माचार्य पैदा ही नहीं होते।

समाज त्रस्त है। त्रस्त समाज ने ऐसी कामना करनी चाहिये कि उन्हें मार्गदर्शक प्राप्त हो । इस कामना की पूर्ति हेतु ईश्वर से प्रार्थना करनी चाहिये । आज कामना व्यक्तिगत सुख की होती है और प्रार्थना उसकी पूर्ति के लिये की जाती है, परिणाम स्वरूप सच्चे और समर्थ धर्माचार्य प्राप्त ही नहीं होते।

जो समाज अपने कर्तव्य भूल जाता है और अधिकारों के लिये लडाई करता है उसके भाग्य में समर्थ धर्माचार्य कैसे हो सकता है ? ऐसे धर्माचार्य तो समाज का त्याग ही कर देंगे।

इस प्रकार समाज और धर्माचार्य दोनों को तप करने की आवश्यकता है, परन्तु दोनों में भी धर्माचार्य का दायित्व विशेष है क्योंकि वे शीर्षस्थान पर हैं।

तपश्चर्या से अपना सामर्थ्य बढाने के बाद, समाज को सच्चरित्र बनाने की योजना के बाद धर्माचार्यों को शिक्षाक्षेत्र के साथ समायोजन करना चाहिये। धर्माचार्य और शिक्षक दोनों को मिलकर धर्मानुसारी शिक्षा का प्रतिमान विकसित करना चाहिये । इस शिक्षा का प्रसार किस प्रकार हो, इसकी योजना करनी चाहिये।

उदाहरण के लिये भारत के हर मन्दिर, मठ, संस्थान, मिशन आदि को शिक्षा की व्यवस्था करनी चाहिये और उसे राज्यनिरपेक्ष और अर्थनिरपेक्ष बनाना चाहिये । धार्मिक शिक्षा का जो स्वरूप है उसे साकार करने वाली यह शिक्षाव्यवस्था होनी चाहिये। यह सर्व प्रकार से सम्प्रदायनिरपेक्ष तो स्वभाव से ही होगी।

सम्पूर्ण देश की शिक्षा को धर्मानुसारी बनाना धर्माचार्यों और शिक्षकों का संयुक्त कर्तव्य है।

भारत के शिक्षाक्षेत्र की पुनर्रचना

भारत में भारतीय शिक्षा होनी चाहिये

यह एक स्वाभाविक कथन है । कभी कभी तो लोग आश्चर्य व्यक्त करते हैं कि ऐसा कथन करने की आवश्यकता ही क्या है। भारत में शिक्षा भारतीय ही तो है। भारत सरकार इसे चला रही है। भारत के ही संसाधनों से चलती है। भारत के ही लोग इसे चला रहे हैं। भारत के ही संचालक, भारत के ही शिक्षक, भारत के ही विद्यार्थी हैं फिर शिक्षा का भारतीय होना स्वाभाविक ही तो है। फिर भारतीय होनी चाहिये ऐसा कहने का प्रयोजन ही क्या है ? भारत के लोगोंं को भारतीय होना चाहिये ऐसा कभी कोई कहता है क्या ? हमारा संविधान हमें भारत का नागरिकत्व देता है फिर प्रश्न ही नहीं है। अमेरिका के अमेरिकन, चीन के चीनी, अफ्रीका के अफ्रीकी, तो भारत के लोग भारतीय हैं यह जितना स्वाभाविक है उतना ही स्वाभाविक भारत में शिक्षा का भारतीय होना है। भारत में शिक्षा भारतीय होनी चाहिये इस कथन का कोई विशेष प्रयोजन ही नहीं है।

देश के अधिकतम लोगोंं के लिये यह प्रश्न ही नहीं है। भारतीय और अभारतीय जैसी संज्ञाओं से कोई विशेष अर्थबोध होता है ऐसा भी नहीं है। भारतीय होने से और अभारतीय होने से क्या अन्तर हो जायेगा इसकी कल्पना भी नहीं है। घूमन्तु, अनपढ, भिखारी, गँवार, मजदूर ऐसे लोगोंं की यह स्थिति है ऐसा नहीं है, झुग्गी झोंपडियों में रहनेवाले, दिनभर परिश्रम करके मुश्किल से दो जून रोटी खाने वाले लोगोंं की यह बात नहीं है। कार्यालयों में बाबूगीरी या अफसरी करने वाले, व्यापार करने वाले, उद्योग चलाने वाले, लाखों रूपये कमाने वाले, लाखों रूपये अपने बच्चोंं की शिक्षा पर खर्च करने वाले, शिक्षा संस्थाओं का संचालन करने वाले, उनमें पढाने वाले, अधिकांश लोग ऐसे हैं जिन्हें भारतीय और अभारतीय का प्रश्न ही परेशान नहीं करता है। उन्हें कभी कभी शिक्षा अच्छी होनी चाहिये, सुलभ होनी चाहिये, सरलता से नौकरी दिलाने वाली होनी चाहिये ऐसा तो लगता है, विद्यालयों के अभिभावक सम्मेलनों में या गोष्ठियों में अच्छी शिक्षा के विषय पर तो चर्चा होती है परन्तु भारतीय और अभारतीय के प्रश्न की चर्चा नहीं होती। सामान्य जन के लिये, शिक्षा नौकरी दिलाने वाली होने से, प्रतिष्ठा दिलाने वाली होने से, प्रयोजन है। उसे अपने बच्चे की चिन्ता है, अपने निर्वाह की चिन्ता है, देश के, समाज के या शिक्षा के विषय में विचार करना उसके विश्व का हिस्सा नहीं है। सामान्य जन अपने आपसे मतलब रखता है, अपने परिवार से मतलब रखता है, उससे आगे या उससे परे जाकर चिन्ता करने की आवश्यकता उसे नहीं लगती। ऐसी अपेक्षा भी उससे कम ही की जाती है। हाँ, धार्मिक संगठन धर्म के लिये अर्थात् अपने सम्प्रदाय के लिये और राजकीय पक्ष अपने पक्ष के लिये कुछ कार्य करते दिखाई देते हैं, परन्तु कुल मिलाकर देश के लिये और शिक्षा के लिये काम करने वाले कम ही लोग दिखाई देते हैं।

धार्मिक शिक्षा हेतु कार्यरत संगठन

देश में कुछ ऐसे शैक्षिक संगठन हैं जो शिक्षा के भारतीय या अभारतीय होने की चिन्ता करते हैं। इन्हें लगता है कि शिक्षा भारतीय होनी चाहिये । वे इस दिशा में प्रयत्नशील भी हैं। वे स्थानिक से लेकर अखिल भारतीय स्तर पर कार्यरत हैं। वे लोगोंं तक इस विषय को ले जाने का प्रयास भी करते हैं। उनके लिये यह आन्दोलन का विषय है। अपने आन्दोलन में वे अनेक लोगोंं को जोडना चाहते हैं, कुछ मात्रा में उन्हें यश भी मिलता है। उनका कार्यक्षेत्र और पहुँच परिवार से लेकर सरकार तक भी है।

कुछ ऐसे संगठन भी है जिनका मुख्य कार्य शिक्षा नहीं है, संस्कृति और धर्म है। परन्तु अपने कार्य के एक अंग के रूप में वे शिक्षा पर भी काम करते हैं । मूल्यनिष्ठा संस्कारयुक्त शिक्षा यह उनका विषय है,भारतीय शिक्षा नहीं। विगत सौ सवा-सौ वर्षों में राष्ट्रीय शिक्षा के नाम से इस देश में शिक्षा को धार्मिक बनाने के आन्दोलन चले हैं। उनके लिये शिक्षा का धार्मिक और अधार्मिक होना प्राणप्रश्न था और अपनी सारी शक्ति लगाकर उन्होंने राष्ट्रीय शिक्षा के नमूने खड़े किये थे, इस अपेक्षा से कि पूरे देश में इन के जैसे शिक्षाकेन्द्र निर्माण होंगे। उनका कहना था कि शिक्षा राष्ट्रीय अर्थात् धार्मिक होनी चाहिये ।

परन्तु आज तो वह भी इतिहास की बात हो गई। भारत स्वाधीन हुआ और शिक्षा के भारतीय या अभारतीय होने का प्रश्न ही मिट गया। भले ही भ्रान्त हो परन्तु मानो ऐसी धारणा बन गई कि अब सब कुछ भारतीय ही है।

अब प्रश्न अच्छी शिक्षा का है, भारतीय शिक्षा का नहीं।

वैश्विक शिक्षा के हिमायती

देश में एक ऐसा तबका भी है जो मानता है कि अब भारतीय अभारतीय का प्रश्न नहीं होना चाहिये, वैश्विकता का होना चाहिये । दुनिया छोटी हो गई है, संचार माध्यमों के प्रभाव से हमारा सम्पर्क क्षेत्र विस्तृत हो गया है, कहीं पर भी पहुँचना अब दुर्गम नहीं है, फिर अपने ही देश में बँधे रहने की आवश्यकता ही क्या है। हमें विश्व नागरिकता की बात करनी चाहिये, विश्वसंस्कृति की ही प्रतिष्ठा करनी चाहिये । हमें अपने आपको व्यापक सन्दर्भ में देखना चाहिये। भारत में बँधे रहने की आवश्यकता नहीं । विश्वभर से अच्छी बातों का स्वीकार कर अपने आपको समृद्ध बनाना चाहिये । शिक्षा का ही प्रश्न है तो हमें धार्मिक नहीं अपितु वैश्विक शिक्षा की बात करनी चाहिये। इस मान्यता के अनुसरण में स्कूली शिक्षा के लिये कई आन्तर्राष्ट्रीय शिक्षाबोर्ड और उच्च शिक्षा के क्षेत्र में कई आन्तर्राष्ट्रीय महाविद्यालय निर्माण हुए हैं और धार्मिक नागरिक अपने बच्चोंं को उनमें पढ़ा रहे हैं। अब वे 'टेकनिकली' धार्मिक हैं, भावना से आन्तर्राष्ट्रीय अर्थात् वैश्विक हैं (भले ही वास्तविकता में विदेशी हों)।

अधार्मिकता का आधार

तो फिर यह धार्मिक अधार्मिक का प्रश्न क्या है ? जो लोग भारत में शिक्षा धार्मिक होनी चाहिय ऐसा कहते हैं और शिक्षा के धार्मिककरण हेतु प्रयास भी करते हैं उनका गृहीत है कि भारत में शिक्षा धार्मिक नहीं है और उसे धार्मिक बनाना चाहिये ।

धार्मिक और अधार्मिक किस आधार पर तय होता है ? वर्तमान शिक्षा में ऐसा क्या है जो धार्मिक नहीं है ? शिक्षा अच्छी नहीं होना समझ में आता है। क्या धार्मिक शिक्षा से अच्छी शिक्षा निहित है ? शिक्षा महँगी है, वह नहीं होनी चाहिये, सस्ती और सुलभ होनी चाहिये, हो सके तो निःशुल्क होनी चाहिये । क्या धार्मिक शिक्षा से शिक्षा निःशुल्क और सुलभ होनी चाहिये यह तात्पर्य है ? क्या प्राचीन काल में दी जाती थी वह शिक्षा आज दी जाय तो शिक्षा धार्मिक होगी ? प्राचीन काल में वेद पढाये जाते थे। क्या वेद पढाना धार्मिक शिक्षा है ? प्राचीन काल में शिक्षा गुरुकुलों में होती थी। विद्यार्थी ब्रह्मचारी कहे जाते थे, भिक्षा माँगते थे, गुरु की सेवा करते थे। क्या उस प्रकार के गुरुकुल बनाना धार्मिक शिक्षा है ? प्राचीन समय में कुछ लोग ही पढते थे। ऐसे कुछ लोगोंं तक ही शिक्षा को सीमित कर देना धार्मिक शिक्षा है ? यदि यही धार्मिक शिक्षा है तो वह आज के जमाने में कैसे सम्भव है ? आज कोई ब्रह्मचारी बनकर भिक्षा कैसे माँग सकता है ? आज कोई वेद कैसे पढ सकता है ? दुनिया इतनी आगे बढ़ गई, हम वापस कैसे जा सकते हैं ? यदि यही धार्मिक शिक्षा है तो उसकी अपेक्षा करना व्यावहारिक नहीं है। वह तो आदर्श भी नहीं है क्योंकि वह पीछे ले जानेवाली है, आगे नहीं।

इस प्रकार शिक्षा के धार्मिक होने की और उसे धार्मिक बनाने की बात जल्दी लोगोंं की समझ में ही नहीं आती। शिक्षाक्षेत्र के लोगोंं का दायित्व है कि प्रथम तो लोगोंं के मन में इस विषय की स्पष्टता हो इस हेतु प्रयास करें और फिर अपने कार्य में सबको सहभागी बनायें ।

शिक्षा धार्मिक कब होगी ?

शिक्षा धार्मिक है ऐसा कब कहा जायेगा ? इस विषय की तात्त्विक चर्चा भारतीय शिक्षा संकल्पना एवं स्वरूप ग्रंथ में की गई है, उसका पुनरावर्तन करने की आवश्यकता नहीं है। यहाँ व्यावहारिकता के धरातल पर ही विचार करेंगे।

कुछ मुद्दे इस प्रकार हैं:

  • धार्मिक शिक्षा निःशुल्क होती है परन्तु निःशुल्क है इसलिये धार्मिक होना आवश्नयक नहीं है। सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में शिक्षा निःशुल्क ही होती है। परन्तु वह धार्मिक नहीं है।
  • धार्मिक शिक्षा शिक्षक के अधीन होती है, परन्तु केवल शिक्षक के अधीन है इसलिये वह धार्मिक नहीं हो जाती। आज भी तो शिक्षक ही शिक्षा का सर्व प्रकार का कार्य कर ही रहे हैं।
  • धार्मिक शिक्षा घरों में, विद्यालयों में, मन्दिरों में होती है परन्तु घरों में और मन्दिरों में होती है इसलिये वह धार्मिक नहीं हो जाती। आज भी 'होमस्कुलिंग' के नाम से घरों में शिक्षा देने के प्रयोग हो रहे हैं, आज भी मन्दिरों द्वारा शिक्षासंस्थान चलाये जाते हैं परन्तु वह शिक्षा धार्मिक होने की कोई निश्चिति नहीं है।
  • धार्मिक शिक्षा धर्म और अध्यात्म की शिक्षा होती है, परन्तु धार्मिक और आध्यात्मिक है इसलिये वह धार्मिक नहीं हो जाती । आज भी अनेक धार्मिक और सांस्कृतिक संगठन वेद, उपनिषद, षडदर्शन, भगवद्गीता आदि पढाते हैं, पूजापाठ भी पढाते हैं, परन्तु वह शिक्षा धार्मिक नहीं है।

ऐसे अनेक पहलू हैं जो धार्मिक शिक्षा के अंगप्रत्यंग हैं परन्तु वे अंगप्रत्यंग शिक्षा को धार्मिक नहीं बनाते।

जिस शिक्षा की आत्मा धार्मिक है वही शिक्षा धार्मिक है। जिसकी आत्मा धार्मिक है और जिसकी नहीं है उन दोनों के अंगप्रत्यंग तो समान हो सकते हैं, परन्तु राष्ट्र अथवा सामान्य अर्थ में देश अंगप्रत्यंग से नहीं, आत्मा से विशिष्ट पहचान प्राप्त करता है । आत्मा ही देश का स्वभाव होती है। भारत के लिये जो स्वाभाविक है वही धार्मिक है। भारत के स्वभाव के अनुरूप जो है वह धार्मिक शिक्षा है, स्वभाव के विपरीत है वह अधार्मिक ।

धार्मिक शिक्षा के विचारणीय सूत्र

शिक्षा को लेकर भारत के स्वभाव के अनुरूप और विपरीत क्या है इस का विचार करने पर कुछ सूत्र ध्यान में आते हैं:

  1. भारत सबको एक मानता है, अपना मानता है, किसी को पराया नहीं मानता। इसलिये सबका कल्याण हो, सब सुखी हों, किसीका अहित न हो ऐसी कामना करता है और प्रयास भी करता है।
  2. भारत स्वतन्त्रता को सबसे बडा मूल्य मानता है। भारत अपनी स्वतन्त्रता की तो रक्षा करना चाहता ही है परन्तु और किसी की स्वतन्त्रता छीनना भी नहीं चाहता। वह और किसी को अपनी स्वतन्त्रता छीनने भी नहीं देता।
  3. भारत केवल मनुष्यों की ही नहीं तो सजीव निर्जीव सभी पदार्थों की स्वतन्त्र सत्ता का स्वीकार और सम्मान करता है। अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिये वह किसी को नष्ट करने की प्रवृत्ति नहीं रखता । जिन जिनसे कुछ भी प्राप्त होता है उसके साथ कृतज्ञता से व्यवहार करता है।
  4. भारत धर्म को सर्वोपरि स्थान देता है। धर्म को आज की तरह केवल सम्प्रदाय नहीं मानता, धर्म को सम्पूर्ण विश्व की धारणा करने वाले विश्वनियम के रूप में जानता है और अपनी जीवनव्यवस्था के लिये उसी विश्वनियम के तत्त्व का स्वीकार करता है। इसलिये भारत के लिये जो धर्म के अनुकूल है वह स्वीकार्य है, धर्म के विरोधी है वह त्याज्य है। धर्मनिरपेक्षता धार्मिक स्वभाव के विपरीत है, धर्म सापेक्षता ही स्वीकार्य है, सम्माननीय है।
  • जो धर्म सिखाती है वही शिक्षा है, धर्म सिखाने वाला शिक्षक है और वह सबके लिये सम्माननीय है।
  • शिक्षक धर्म सिखाता है इसलिये शासक के लिये भी सम्माननीय है।
  • शिक्षा की पूर्ण व्यवस्था शिक्षक के अधीन है। उसे वैसी ही रखना राजा और प्रजा सबके लिये हितकारी है।
  • धर्म सिखानेवाला शिक्षक स्वतन्त्र है, स्वायत्त है, निःस्वार्थी है, चरित्रवान है और संयमित और सादा जीवन जीता है।
  • भारत में शिक्षा सार्वत्रिक है। प्रत्येक व्यक्ति अपनी अपनी भूमिका में अपनी अपनी क्षमता और सीखने वाले की आवश्यकता के अनुसार सिखाता है। मातापिता सन्तानों को, व्यवसायी अपने साथियों को, गुरु शिष्य को शिक्षा देता है, भौतिक बदले की अपेक्षा नहीं रखता। अपने को प्राप्त शिक्षा दूसरे को देनी ही चाहिये और शिक्षा का प्रसार करना ही चाहिये ऐसी अपेक्षा कोई व्यक्ति नहीं अपितु धर्म करता है, धर्म की इस अपेक्षा को पूर्ण करने के लिये सब सिद्ध रहते हैं।
  • भारत परम्परा का देश है, परम्परा को बनाये रखना, परिष्कृत करना, समृद्ध बनाना शिक्षा का काम है।
  • भारत में अधिसत्ता धर्म की ही है, शिक्षक उसका प्रतिहारी है, शासक, कारीगर, व्यापारी सब उसके अनुचर हैं, उसकी आज्ञा का पालन करनेवाले और उसके साम्राज्य की रक्षा करने वाले हैं।
  • शिक्षा मुक्ति देनेवाले ज्ञान का व्यवस्थातन्त्र है। वह स्वयं मुक्त होगी तभी ज्ञान की वाहक बन सकेंगी। इसलिये भारत में शासक के द्वारा, व्यापारियों के द्वारा शिक्षा को मुक्त ही रखा गया है और उसे पुष्ट होने हेतु सहयोग और सहायता दी जाती रही है।
  • धार्मिक शिक्षा सदा धर्मसापेक्ष परन्तु अर्थनिरपेक्ष रही है। शिक्षा ग्रहण करने को और देने को पैसे के साथ कभी जोड़ा नहीं गया है।
  • भारत में शिक्षा राजा और प्रजा का मार्गदर्शन और नियमन करती रही है। उसने कभी शासन नहीं किया, व्यापार नहीं किया, उत्पादन नहीं किया, उसने धर्मसाधना और धर्मरक्षा ही की है।

धार्मिक शिक्षा की यह आत्मा है। धार्मिक शिक्षा का यह स्वभाव रहा है। इस शिक्षा ने समाज को श्रेष्ठ बनाया है। इस शिक्षा ने प्रजा को समृद्ध और सुसंस्कृत बनाया है। इस शिक्षा ने राष्ट्र को चिरंजीव बनाया है।

आज सामान्य जन भी कह सकता है कि भारत की वर्तमान शिक्षा 'टेकनिकली' धार्मिक होने पर भी स्वभाव से धार्मिक नहीं है।

शिक्षा ऊपर बताये गये अर्थों में धार्मिक होनी चाहिये कि नहीं, ऐसा यदि पूछा जाय तो लोग बडे असमंजस में पड जायेंगे । उत्तर देते नहीं बनेगा।

आज के जमाने में यह नहीं चलेगा

एक ओर तो आज भी धार्मिक अन्तर्मन में इन सारी बातों के लिये प्रेम है, आकर्षण है और सुप्त इच्छा है कि यह सब ऐसा ही होना चाहिये । परन्तु व्यावहारिक धरातल पर तो यह सब रम्य स्वप्न जैसा ही लगता है। एक ही बात मन में उठती है कि यह सम्भव ही नहीं है, आज का जमाना अलग है, उसमें यह सब नहीं चलता।

आज पैसे का बोलबाला है। कोई मुफ्त में पढायेगा नहीं और मुफ्त में मिलने वाली शिक्षा कोई लेगा नहीं ।

मुफ्त में मिलनेवाली वस्तु का कोई मूल्य नहीं होता।

आज शिक्षक सम्माननीय नहीं रहा है। वह पैसे के लिये ही तो पढाता है। उसे विद्यार्थी की ही चिन्ता नहीं है तो विद्या की या देश की कैसे होगी ? यदि बन्धन नहीं है तो वह पढायेगा ही नहीं। बन्धन हैं तब भी तो वह सही नीयत नहीं रखता, फिर मुक्त कर देने से तो वह क्या नहीं करेगा ? इसलिये सरकारी नियन्त्रण तो अनिवार्य है, नहीं रहा तो सब अराजक हो जायेगा।

धर्म की और मुक्ति की तो बात ही बेमानी है। धर्म का नाम लेते ही साम्प्रदायिकता का लेबल चिपक जाता है और हजार प्रकार की परेशानियाँ निर्माण हो जाती है। आज के धर्माचार्य, साधु संन्यासी सब भोंदूगीरी ही तो कर रहे हैं। यह जमाना विज्ञान का है। विज्ञान के जमाने में वेद, उपनिषद पढाना बुद्धिमानी नहीं है । दुनिया आगे बढ़ रही है और हम पीछे जाने की बात कर रहे हैं। आज अंग्रेजी सीखनी चाहिये, कम्प्यूटर सीखना चाहिये, मेनेजमेण्ट सिखना चाहिये, टेक्नोलोजी सीखनी चाहिये । भारत को विश्व में स्थान मिलना चाहिये और उसे प्राप्त करने के लिये इन सारे विषयों की आवश्यकता है। वेद, उपनिषद सीखने के लिये संस्कृत सीखनी पडेगी। संस्कृत अब 'आउट ऑफ डेट' है। अंग्रेजी ने विश्वभाषा का स्थान ले लिया है।

भारत को अमेरिका में जाकर अपना स्थान बनाना चाहिये और प्रतिष्ठा प्राप्त करनी चाहिये । भारत के लोग बुद्धिमान हैं, कर्तृत्ववान हैं, विश्वमानकों पर खरे उतरने वाले हैं। उन्हें इस दिशा में पुरुषार्थ करना चाहिये । इसके लिये अंग्रेजी, विज्ञान तथा कम्प्यूटर पर प्रभुत्व प्राप्त करना चाहिये । हमें आधुनिक बनना चाहिये । अतः धार्मिकता की नहीं, वैश्विकता की आवश्यकता है। प्रयास उसे प्राप्त करने हेतु होने चाहिये । इस प्रकार धार्मिकता के सन्दर्भ में आशंका और अविश्वास का वातावरण चारों और फैला हुआ है। बात बहुत कठिन है, जटिल है।

पुरुषार्थ करने की आवश्यकता है ।

जो लोग कहते हैं कि यहां बताया गया है वही धार्मिक शिक्षा है तो उसका प्रतिष्ठित होना आज तो असम्भव है और अनावश्यक भी, उनकी बात सर्वथा अनुचित नहीं है। हम उल्टी दिशा में इतने दूर तक निकल गये हैं कि ये बातें आज असम्भव सी लगती हैं। कठिन तो हैं ही। आज के सारे वातावरण से सब इतने सम्भ्रम में पड गये हैं कि सब कुछ असम्भव के साथ साथ सब अव्यावहारिक और अनावश्यक लग रहा है।

अतः धार्मिक शिक्षा का क्या करना है, इसकी चर्चा आरम्भ करने से पूर्व दो चार बातों में स्पष्ट हो जाना चाहिये।

  1. भारत को भारत रहना है तो भारत की शिक्षा धार्मिक होना अनिवार्य है।
  2. भारत को भारत रहना ही है। भारत भारत रहे यह विश्वकल्याण के लिये अनिवार्य है।
  3. भारत में शिक्षा धार्मिक होना कठिन अवश्य है असम्भव नहीं क्योंकि वह भारत के लिये स्वाभाविक है।
  4. कठिन बात को व्यावहारिक बनाने हेतु पुरुषार्थ करने की आवश्यकता है। यह पुरुषार्थ शिक्षकों के नेतृत्व में, धर्माचार्यों के मार्गदर्शन में, सरकार के सहयोग से प्रजा का होगा, सरकार का नहीं ।

इन गृहीतों को सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं है। भारत में सारे काम इस पद्धति से ही होते आये हैं। इस काम के लिये भी यही पद्धति उपयोगी होगी।

धार्मिक शिक्षा की पुनर्रचना के आयाम इस प्रकार हैं:

  1. शैक्षिक पुनर्रचना
  2. आर्थिक पुनर्रचना
  3. व्यवस्थाकीय पुनर्रचना

शैक्षिक पुनर्रचना

इसका केन्द्रवर्ती विषय है क्या पढाना ? घरों में, विद्यालयों में, कारखानों मे, खेत खलिहानों में सिखाने वाला सीखने वाले को, बडा छोटे को, सत्ताधीश सत्ताधीन को, मालिक नौकर को, अधिकारी कर्मचारी को क्या सिखा रहा है, क्या करने को कह रहा है, क्या बना रहा है, किस पद्धति को अपना रहा है, उसकी भावना और उद्देश्य क्या है यह सबसे पहली विचारणीय बात है। उदाहरण के लिये मालिक नौकर को खाद्य पदार्थ में मिलावट करने को कह रहा है या किसी भी स्थिति में मिलावट नहीं करने को कह रहा है, पिता पुत्र को स्वार्थी बनाना चाहता है या सेवाभावी, उद्योजक यन्त्र को अधिक महत्त्व देता है या मनुष्य को, शिक्षक विद्यार्थी को रटना सिखाता है या स्वतन्त्र बुद्धि से विचार करना, प्राध्यापक विद्यार्थी को अर्थ ही प्रधान है यह सिखाता है या धर्म को प्रधानता बताता है, धर्माचार्य अपने ही सम्प्रदाय को सही मानना सिखाता है या सर्वपंथ समादर यह ध्यान देने योग्य बातें हैं। सिखानेवाले और सीखनेवाले के मध्य यह आदानप्रदान निरन्तर चलता रहता है, सर्वत्र चलता रहता है। यह प्रक्रिया ही वास्तव में शिक्षा है।

इसे शैक्षिक परिभाषा में पाठ्यक्रम कहते हैं। यह पाठ्यक्रम सभी आयु वर्गों के लिये होता है, सभी व्यवस्थाओं के लिये होता है, जीवन के सभी क्षेत्रों में होता है। इसके आधार पर व्यक्ति का चरित्र बनता है, समाज का और राष्ट्र का चरित्र बनता है। पाठ्यक्रम शिक्षाप्रक्रिया का केन्द्र है और उसके आधार पर व्यक्तिगत से लेकर राष्ट्रीय जीवन चलता है। इसलिये इस विषय की चिन्ता करनी चाहिये।

यह पाठ्यक्रम आज धार्मिक नहीं है। सर्वत्र जो पढाया जाता है। वह मुख्य रूप से पश्चिमी जीवनदृष्टि पर आधारित है। यही सारे अनिष्टों और संकटों का मूल है। इसकी तात्त्विक चर्चा अन्यत्र की गई है। अब उसे व्यावहारिक बनाने के लिये क्या करना होगा इसका ही विचार करना आवश्यक है। कुछ मुद्दे इस प्रकार हैं:

प्रथम तो विश्वविद्यालयों को इसका दायित्व लेना चाहिये । विश्वविद्यालय देश की शिक्षा का सर्वप्रकार का निर्देशन करने वाले हों यह अत्यन्त आवश्यक है। देश के सर्व प्रकार के सांस्कृतिक और अन्य संकटों का मूल स्रोत अथवा सांस्कृतिक उन्नति का मुख्य परिचालक विश्वविद्यालय हैं। विश्वविद्यालय का अर्थ है उनके अध्यापक । परन्तु वर्तमान विपरीतता यह है कि विश्वविद्यालय अध्यापकों के नहीं अपितु सरकार के अधीन हैं। सरकार के अधीन रहकर विश्वविद्यालय के अध्यापक यह काम नहीं कर सकते। इसलिये ऐसे विश्वविद्यालयों की स्थापना होनी चाहिये जो सरकार के अधीन न हों। देशभर में पचास सौ ऐसे विश्वविद्यालय होने से कार्य का अच्छा प्रारम्भ हो सकता है। इन विश्वविद्यालयों को सरकारी मान्यता नहीं होगी इसलिये इनके द्वारा दिये गये प्रमाणपत्रों से सरकारी या सरकार मान्य संस्थाओं या उद्योगों में नौकरी नहीं मिलेगी। जिन्हें किसी प्रकार की सरकारी मान्यता या आर्थिक सहायता की आवश्यकता नहीं है ऐसी संस्थाओं और उद्योगों में इन्हें अवश्य काम मिल सकता है। सरकार की मान्यता नहीं है ऐसे विश्वविद्यालयों में पढे हुए विद्यार्थी स्वयं ऐसी शिक्षासंस्थायें आरम्भ करें यह एक अच्छा पर्याय है, साथ ही वे उद्योग तथा समाज के लिये उपयोगी अन्य संस्थाओं का प्रारम्भ भी कर सकते हैं। उन संस्थाओं और उद्योगों में अनेक लोगोंं को काम मिल सकता है।

सरकारी सहायता नहीं होगी तब ये विश्वविद्यालय कैसे चलेंगे ? ये समाज के सहयोग से चलेंगे । धार्मिक समाज ऐसे संस्थानों को सहयोग करने के लिये तत्पर रहता ही है। देश में अनेक धार्मिक - सामाजिक - सांस्कृतिक संगठनों को समाज ही सहयोग करता है। वर्तमान में भी ऐसी बहत बडी व्यवस्था देश में चल ही रही है। ऐसे संगठनों ने इन विश्वविद्यालयों को आर्थिक सहयोग करना चाहिये। देशभर में ऐसे पचास विश्वविद्यालय हों तो उनके पाँचसौ या हजार अध्यापकों को एक संगठित समूह की तरह कार्य करना चाहिये । इन सभी विश्वविद्यालयों के कुलपतियों ने मिलकर एक कुलाधिपति का चयन करना चाहिये । सारे अध्यापक मिलकर एक आचार्य परिषद बनेगी। देशभर में हजार अध्यापकों की ज्ञानशक्ति कार्य का । प्रारम्भ करने के लिये कम नहीं है।

अध्यापकों के इस संगठन को एक ओर उद्योजकों, दूसरी ओर प्रशासकों और तीसरी ओर सरकार के मन्त्री परिषद के साथ समायोजन स्थापित करना चाहिये । विश्वविद्यालयों को सरकार से मुक्त रखने का कारण यह नहीं है कि अध्यापक सरकार का विरोध करते हैं, विरोधी विचारधारा वाले हैं या सरकार उनका विरोध करती है। प्रशासन से मुक्त रहना भी विरोध के कारण से नहीं है। मुक्त रहना तो सर्वकल्याणकारी शिक्षा की आवश्यकता है। इसलिये सबका कर्तव्य है। परन्तु मुक्त रहने के बाद भी संवाद, समन्वय और समर्थन तो हो ही सकता है। सरकार प्रजा के लिये है और विश्वविद्यालय सरकार और प्रजा दोनों के लिये हैं । इसलिये संवाद लाभकारी है। उद्योजकों के साथ संवाद इसलिये नहीं करना है क्योंकि उनसे धन चाहिये । उद्योगकों से संवाद इसलिये चाहिये कि देश की अर्थव्यवस्था ठीक करने में उनका सहयोग प्राप्त हो । उसी प्रकार प्रबोधन की दृष्टि से सामान्य जनसे भी संवाद स्थापित हो यह आवश्यक है। संक्षेप में इन विद्यालयों को समाजाभिमुख होना चाहिये । उन्हें अन्य विश्वविद्यालयों के साथ भी विचार विमर्श करने की दृष्टि से संवाद स्थापित करना शिक्षाक्षेत्र के हित की दृष्टि से लाभकारी है।

इन विश्वविद्यालयों को पहला कार्य देशभर की शिक्षा का एक शैक्षिक प्रारूप तैयार करने का करना चाहिये । ऐसा करने में उन्हें तीन काम करने होंगे:

  1. अध्ययन और अनुसन्धान
  2. पाठ्यक्रम निर्माण
  3. सन्दर्भसाहित्य का निर्माण

अध्ययन और अनुसन्धान

धार्मिक ज्ञानधारा युगों से प्रवाहित है। द्रष्टा ऋषियों ने अपने हृदय में इस ज्ञान की अनुभूति की है। इस अनुभूति के आधार पर शास्त्रग्रन्थों की रचना हुई है। इन शास्त्रग्रन्थों का अध्ययन करना पहला काम है। इस अध्ययन का उद्देश्य वर्तमान जीवन को सुस्थिति में लाने का है। अतः वर्तमान सन्दर्भ सहित उसका अध्ययन करना आवश्यक है। वर्तमान जीवन की सर्व व्यवस्थाओं में हमारे शास्त्रग्रन्थों में निरूपित ज्ञान किस प्रकार लागू हो सकता है इस विषय को लेकर व्यावहारिक अनुसन्धान होना चाहिये । उदाहरण के लिये हम वेदों को विश्व का प्रथम ज्ञानग्रन्थ मानते हैं, श्रीमद् भगवद्गीता को सर्व उपनिषदों का सार मानते हैं। तब इन ग्रन्थों में स्थित ज्ञान के आधार पर घर, बाजार, संसद और शिक्षा क्षेत्र चलने चाहिये । यह ज्ञान व्यावहारिक नहीं है ऐसा तो नहीं कह सकते । फिर आज व्यावहारिक क्यों नहीं हो सकता?

पतंजलि मुनि ने योगसूत्रों की रचना की हैं। योगसूत्र मनोविज्ञान है, अनेक मनीषियों के भाष्यग्रन्थ भी उस विषय में उपलब्ध हैं। भाष्य लिखने वाले सभी श्रेष्ठ विद्वज्जन रहे हैं। यह धार्मिक मनोविज्ञान है। फिर प्रश्न पूछा जाना चाहिये कि विश्वविद्यालय में यह मनोविज्ञान क्यों नहीं पढाया जाता है? भौतिक विज्ञान के अनेक ग्रन्थ विज्ञान विद्याशाखा में सर्वथा अपरिचित क्यों हैं? प्राणविज्ञान क्या है, आत्मविज्ञान क्या हैं? अथर्ववेद तो यन्त्रविज्ञान और तन्त्रशास्त्र का भण्डार है। वर्तमान इन्जिनीयरींग की शाखायें इनसे अनभिज्ञ हैं।

धार्मिक ज्ञान की वर्तमान ज्ञानविश्व में प्रतिष्ठा हो यह अनुसन्धान कर्ताओं का उद्देश्य होना चाहिये । आज ज्ञानक्षेत्र में जिन शास्त्रों की प्रतिष्ठा है उनका धार्मिक पर्याय बन सकें, उनसे भी अधिक व्यापक और समावेशक शास्त्रग्रन्थों की सम्भावना स्थापित कर सकें इस प्रकार के अनुसन्धान की आवश्यकता है। देशभर में जहाँ जहाँ ऐसा अनुसन्धान का कार्य हो रहा है वहाँ संवाद भी साथ ही साथ स्थापित करना चाहिये ।

पाठ्यक्रम निर्माण

इस अध्ययन और अनुस्धान के आधार पर विभिन्न स्तरों के लिये विभिन्न विषयों के पर्यायी पाठ्यक्रम तैयार करने चाहिये । उदाहरण के लिये

  1. आयु की प्रत्येक अवस्था के लिये सामान्य पाठ्यक्रम । यह सर्वसमावेशक होना चाहिये। अर्थात् गर्भावस्था से वृद्धावस्था तक का पाठ्यक्रम । गृहीत यह है कि शिक्षा आजीवन चलती है। मनुष्य का इस जन्म का जीवन गभाधान से आरम्भ होता है और मृत्यु तक चलता है। मृत्यु के साथ इस जन्म का जीवन पूर्ण होता है। इन दो क्षणों के मध्य जीवन गर्भावस्था, शिशुअवस्था, बालावस्था, किशोरावस्था, युवावस्था, प्रौढावस्था और वृद्धावस्था से गुजरता है। इन सभी अवस्थाओं में अवस्था के अनुरूप शिक्षा की व्यवस्था होना आवश्यक है। अतः इस शिक्षा के लिये पाठ्यक्रम चाहिये । सामान्य पाठ्यक्रम का अर्थ यह है कि व्यक्ति राजा हो या प्रजा, मालिक हो या नौकर, स्त्री हो या पुरुष, किसान हो या व्यापारी, दर्जी हो या मोची, सब को लागू होने वाला पाठ्यक्रम । उदाहरण के लिये धर्मपरायण होना, सज्जन होना, बलवान होना, बुद्धिमान होना, व्यवहारदक्ष होना, प्रचुर होना, सबके लिये समान रूप से लागू है।
  2. सन्दर्भ विशेष के लिये विशेष पाठ्यक्रम । व्यक्ति विभिन्न परिस्थितियों में विभिन्न भूमिकाओं में होता है। कहीं पिता है तो कहीं पुत्र, कहीं शिक्षक है तो कहीं विद्यार्थी, कहीं राजा है तो कहीं अमात्य, आज की भाषा में कहें तो कहीं सांसद या मंत्री है तो कहीं सचिव, तो कहीं प्रजाजन, कहीं उद्योजक है तो कहीं व्यापारी, कहीं कृषक है तो कहीं गोपाल । इन भूमिकाओं के अनुरूप उसे शिक्षा की आवश्यकता होती है। उदाहरण के लिये एक गोपाल को गायों की जाति, उनके स्वभाव, उनकी आवश्यकताओं, उसके आहार, उनकी क्षमता, उनकी बिमारी आदि का ज्ञान होना आवश्यक है। साथ ही उनकी सन्तति, उनका दूध, दूध की व्यवस्था आदि विषयों का ज्ञान होना भी आवश्यक है। एक उत्पादक को उत्पादन करने योग्य वस्तुयें, लोगोंं की आवश्यकता, उत्पादन प्रक्रिया, उत्पादन हेतु आवश्यक यन्त्र, स्थान, भवन, उत्पादन में सहभागी होनेवाले मनुष्यों के स्वभाव, क्षमताओं और आवश्यकताओं, उत्पादन से समाज पर और प्रकृति पर होनेवाला प्रभाव, बाजार पर होने वाला प्रभाव आदि के बारे में शिक्षा मिलने की आवश्यकता है। धार्मिक ज्ञानधारा के अनुकूल इन भूमिकाओं के लिये विभिन्न प्रकार के विभिन्न स्तरों के पाठ्यक्रम बनना आवश्यक है।
  3. ज्ञानक्षेत्र की आवश्यकता की पूर्ति हेतु पाठ्यक्रम: ज्ञानक्षेत्र की स्थिति और विकास हेतु विभिन्न प्रकार के प्रयासों की आवश्यकता रहेगी। इस दृष्टि से विभिन्न प्रकार के पाठ्यक्रमों की आवश्यकता रहेगी। उदाहरण के लिये सामान्य व्यवहार के लिये एक प्रकार के तो प्रगत अध्ययन के लिये अलग प्रकार के पाठ्यक्रम की आवश्यकता रहेगी। इसी प्रकार से उस शास्त्र की शिक्षा हेतु एक प्रकार के और अनुसन्धान हेतु अन्य प्रकार के पाठ्यक्रमों की आवश्यकता रहेगी।

इस प्रकार से विभिन्न विषयों के, विभिन्न स्तरों के, विभिन्न प्रयोजनों को पूर्ण करने वाले पाठ्यक्रमों की सूची एवं रूपरेखा बनाने का महत्त्वपूर्ण कार्य इन विश्वविद्यालयों को करना चाहिये।

सन्दर्भ साहित्य का निर्माण

यह सबसे अधिक समय और शक्ति की अपेक्षा करनेवाला काम है। पाठ्यक्रमों की रूपरेखा बनने वाला काम है। पाठ्यक्रमों की रूपरेखा बनने से शिक्षा नहीं होती। इसके लिये पुस्तकें आवश्यक हैं। आजकल लोग दृश्यश्राव्य सामग्री की उपयोगिता और परिणामकारकता की चर्चा करते हैं। इस कथन के विषय में चर्चा करने की आवश्यकता है परन्तु चर्चा अन्यत्र होगी। यहाँ इतना तो कह सकते हैं कि इनके लिये भी मूल तो लिखा हुआ ही होना चाहिये । हम दूसरे के पास अपना ज्ञान बोलकर या लिखकर ही पहुँचा सकते हैं।

तात्पर्य यह है कि पुस्तकें चाहिये । विभिन्न रुचि, क्षमता, आयु के लोगोंं के लिये । विभिन्न शैलियों में पुस्तकें तैयार करने की आवश्यकता रहेगी।

उदाहरण के लिये पुस्तकों के इतने प्रकार हो सकते हैं: १. सूत्रग्रन्थ, २. भाष्यग्रन्थ, ३. सन्दर्भ ग्रन्थ, ४. निरूपण ग्रन्थ, ५. कथा ग्रन्थ, ६. काव्य ग्रन्थ, ७. संवाद ग्रन्थ, ८. चित्र ग्रन्थ आदि ।

ये विभिन्न स्तरों के लिये भी होने की आवश्यकता है जैसे कि शिशुओं के लिये, कम शिक्षित लोगोंं के लिये, शिक्षकों के लिये, विद्वानों के लिये, व्यवसायिओं के लिये आदि।

ये ग्रन्थ भारत की सभी भाषाओं में होने चाहिये, प्रभूत मात्रा में होने चाहिये, सुलभ होने चाहिये, सुबोध भाषा में और अभिव्यक्ति में होने चाहिये । पर्याप्त होने चाहिये।

यह बडा चुनौतीपूर्ण कार्य है। सभी लेखकों और विद्वानों का अनुभव है कि सरल बातों को भी कठिन बना देना तो सरल है परन्तु कठिन बातों को सरल बनाना कठिन है। बडे बडे विद्वान छोटे बच्चोंं के लिये पुस्तक नहीं लिख सकते, सामान्य व्यक्ति को गहन विषय नहीं समझा सकते । इसलिये विद्वानों के लिये सरल अभिव्यक्ति सिखाने की व्यवस्था करना भी आवश्यक है।

विश्वविद्यालयों को सब का मिलकर एक ग्रन्थागार भी बनाना चाहिये। यह अभिनव स्वरूप का रहेगा। सभी पचास विश्वविद्यालयों द्वारा निर्मित, सभी भाषाओं में निर्मित साहित्य एक स्थान पर उपलब्ध हो ऐसी व्यवस्था करनी चाहिये । साथ ही विभिन्न विषयों और विद्याशाखाओं के मूल ग्रन्थ तथा भारत में विभिन्न भाषाओं में लिखित भाष्यग्रन्थों का समावेश इस केन्द्रीय ग्रन्थालय में होना चाहिये । नालन्दा विद्यापीठ का ज्ञानगंज ग्रन्थालय सभी ग्रन्थालयों के मानक के रूप में आज भी सर्वविदित है । इससे प्रेरणा प्राप्त कर इस ग्रन्थालय की रचना हो सकती है।

साथ ही एक कार्य विश्वभर की विभिन्न विचारधाराओं के साथ धार्मिक विचारधारा का तुलनात्मक अध्ययन तथा विश्व की वर्तमान स्थिति, उसके संकट, समस्याओं तथा उनके धार्मिक हल आदि विषयों का समावेश करने वाला अध्ययन भी इन विश्वविद्यालयों का कार्यक्षेत्र बनना आवश्यक है।

इन विश्वविद्यालयों की गोष्ठियाँ, अनुसन्धान की पत्रिका तथा मुखपत्रों का प्रकाशन होना तो सहज है।

भारत में पूर्व में भी विद्यापीठों ने इसी प्रकार काम किया है और भारत के ज्ञान को विश्व में ले जाने में वे यशस्वी हुए हैं। विश्व ने ज्ञान का प्रकाश उन्हीं विश्वविद्यालयों से पाया है। ऐसे विश्वविद्यालयों की स्थापना धार्मिक शिक्षा की पुनर्रचना का प्रथम चरण है। समाज द्वारा पोषित और समर्पित ये विश्वविद्यालय अन्य सभी आयामों के लिये मार्गदर्शक होंगे।

आर्थिक पुनर्रचना

विश्वविद्यालयों को आर्थिक क्षेत्र में दो प्रकार से काम करना होगा।

  1. शिक्षा का आर्थिक पक्ष व्यवस्थित करना
  2. समाज की आर्थिक व्यवस्था ठीक करना

वर्तमान विश्वस्थिति को देखते हुए आर्थिक पक्ष की ओर ध्यान देना आवश्यक है । इसका कारण यह है कि विश्व आज अर्थसंकट से ग्रस्त हो गया है। इसका मूल कारण पश्चिमी देशों की जीवन व्यवस्था अर्थनिष्ठ है । उपभोग प्रधान जीवनशैली होने के कारण उन्हें अर्थ की आवश्यकता अधिक होती है और अर्थप्राप्ति ही परम पुरुषार्थ होने के कारण अर्थप्राप्ति के प्रयासों को कोई बन्धन नहीं है। कोई मर्यादा नहीं है। भारत अपने स्वभाव से अर्थनिष्ठ नहीं है, धर्मनिष्ठ है। चार पुरुषार्थों में अर्थ भी एक पुरुषार्थ है और सभी आवश्यकताओं को अच्छी तरह से पूर्ण किया जा सके ऐसा अर्थसम्पादन सबको करना चाहिये ऐसा आदेश सभी गृहस्थाश्रमियों को दिया जाता है। ऐसा आदेश धर्म ही देता है । परन्तु मनुष्य के अर्थ पुरुषार्थ को ओर उपभोग को धर्म की मर्यादा में बाँधा गया है। परिणाम स्वरूप सबकी आवश्यकताओं की पूर्ति सम्यक् रूप से होती है।

परन्तु आज भारत, पश्चिमी प्रभाव से ग्रस्त हो गया है। हम जब कहते हैं कि भारत में शिक्षा धार्मिक नहीं है

तब वह कथन सम्पूर्ण जीवन को लागू होता है। भारत में आज सम्पूर्ण जीवनव्यवस्था ही धार्मिक नहीं रही। पश्चिमी जीवनदृष्टि का प्रभाव जीवनव्यापी हुआ है। अतः धर्मनिष्ठ भारत आज अर्थनिष्ठ बन गया है। हम पैसे को सर्वस्व मानते हैं, एक मात्र प्राप्त करने लायक वस्तु मानते हैं, येन केन प्रकारेण उसे प्राप्त करने का प्रयास करते हैं, अर्थ के ही सन्दर्भ में सभी बातों का मूल्यांकन करते हैं। अर्थ, धर्म, ज्ञान, संस्कार, सद्गुण, भावना, राजनीति, परिवार व्यवस्था, शिक्षा आदि का नियन्त्रक बन गया है।

इसके कारण अनेक संकट निर्माण हुए हैं । सर्वाधिक संकट तो स्वयं अर्थक्षेत्र का ही है। इस प्रकार इनकी सूची बना सकते हैं...

  • दारिद्य में वृद्धि
  • जीवनावश्यक वस्तुओं का अभाव
  • बेरोजगारी
  • भ्रष्टाचार और अनाचार
  • वस्तुओं की गुणवत्ता का ह्रास और कीमतो में वृद्धि
  • वितरण व्यवस्ता में जटिलता
  • उत्पादन का केन्द्रीकरण
  • विज्ञापन

इनके साथ साथ स्वास्थ्य में गिरावट और पर्यावरण का प्रदूषण भी बढा है। अर्थक्षेत्र ने राजकीय क्षेत्र को अपने नियन्त्रण में ले लिया है। देश की अर्थनीति संसद नहीं बनाती, उससे बनवाई जाती है। चुनाव अर्थ के प्रभाव से ही जीते जाते हैं।

अर्थ के अभाव से कई समस्यायें निर्माण होती हैं, अर्थ के प्रभाव से भी होती हैं।

शिक्षा के व्यवस्थापक्ष की पुनर्रचना

शिक्षा के व्यवस्थाकीय पक्ष के मुख्य सूत्र इस प्रकार हैं:

  1. शिक्षा राज्य और समाज दोनों का मार्गदर्शन करनेवाली है। जो मार्गदर्शन करता है वह मार्गदर्शन प्राप्त करने वाले के अधीन रहे यह दोनों में से एक को भी अनुकूल नहीं है। इसलिये शिक्षाक्षेत्र राज्य और समाज दोनों से उपर, स्वायत्त, स्वाधीन होना चाहिये।
  2. शिक्षाक्षेत्र शिक्षक के अधीन होना चाहिये । शिक्षक अपने से श्रेष्ठ शिक्षक द्वारा ही नियुक्त होना चाहिये । शिक्षक नहीं है ऐसी कोई सत्ता उसे नियुक्त नहीं करेगी।
  3. इसी कारण से उसे विद्यार्थी के तथा सम्पूर्ण समाज के चरित्र का दायित्व लेना होता है। जैसा विद्यालय वैसी शिक्षा, जैसी शिक्षा वैसा समाज परन्तु जैसा शिक्षक वैसा विद्यालय ।
  4. इसलिये केन्द्र सरकार से लेकर छोटे गाँव तक जो शिक्षकों की नियुक्ति की व्यवस्था बनी है वह बदलनी होगी।
  5. जो पढाता है, पढता है, अनुसन्धान करता है शैक्षिक साहित्य निर्माण करता है वही शिक्षक ऐसी शिक्षक की परिभाषा बनानी होगी।
  6. विद्यालय के शिक्षक, मुख्यशिक्षक यह तो विद्यालय की व्यवस्था होगी। मुख्य शिक्षक यदि विद्यालय की स्थापना करता है तो वह स्वयंनियुक्त होगा। अपने अनुगामी मुख्य शिक्षक की तथा अन्य शिक्षकों की नियुक्ति करेगा। विद्यार्थियों का प्रवेश, पाठ्यक्रम, मूल्यांकन आदि के विषय में विद्यालय का शिक्षकवृन्द ही व्यवस्था करेगा।
  7. यदि सारे मुख्य शिक्षक और शिक्षक चाहें तो गाँव या नगर के सभी विद्यालयों की शिक्षक परिषद या आचार्य परिषद बन सकती है। यह परिषद शैक्षिक विषयों तक सीमित रहेगी, व्यवस्थाकीय विषयों में प्रत्यक विद्यालय स्वायत्त ही रहेगा। विद्यालय मुख्य शिक्षक के नाम से जाना जायेगा।
  8. विद्यालय की अर्थव्यवस्था मुख्यशिक्षक के नेतृत्व में अन्य शिक्षक और विद्यार्थी मिलकर करेंगे यह तो सीधी समझ में आने वाली बात है।
  9. सामान्य अध्ययन स्थानिक स्वरूप का ही होगा। प्रगत अध्ययन के लिये बड़े विद्यालय होंगे जहाँ अन्य स्थानों से भी विद्यार्थी अध्ययन के लिये आयेंगे। ये विद्यार्थी गुरु के साथ ही रहेंगे। यह गुरुकुल कहा जायेगा। इनमें पढ़ने वाले विद्यार्थियों के लिये निःशुल्क व्यवस्था होगी। वे घर के सदस्य के समान रहेंगे । व्यवस्थाओं में भी सहभागी बनेंगे।
  10. गुरुकुलों में कुलपति होंगे। यदि उन्होंने गुरुकुल स्थापन किया है तो वे स्वयंनियुक्त कुलपति होंगे, नहीं तो पूर्व कुलपति के द्वारा नियुक्त । सभी आचार्यों की नियुक्ति कुलपति द्वारा होगी।
  11. गुरुकुल की सारी भौतिक व्यवस्थायें भी आचार्य और विद्यार्थी मिलकर ही करेंगे।
  12. नगर के लोग विद्यापीठ या गुरुकुल के कार्यक्रमों में सहभागी बन सकते हैं। छोटे मोटे काम करके सेवा भी कर सकते हैं। नगरजन गुरुकुल को अपने कार्यक्रमों में नियन्त्रित भी कर सकते हैं । गृहस्थों के कामों में गुरुकुल मार्गदर्शक भी बन सकता है। विशेषरूप से गृहस्थजीवन की समस्याओं में परामर्शक के रूप में आचार्यवृन्द सहभागी बन सकता है।
  13. प्रगत अध्ययन के ये केन्द्र सामाजिक चेतना के केन्द्र के रूप में काम करेंगे।
  14. विद्यार्थियों के प्रवेश, परीक्षा, पाठ्यक्रम आदि के निर्णय गुरुकुल अथवा विद्यापीठ स्वयं लेगा।
  15. राज्य के और समस्त देश के गुरुकुलों या विद्यापीठों की विद्वत् परिषद या आचार्य परिषद बनेगी। आचार्य परिषद के सदस्य कौन बन सकते हैं इसके मापदण्ड कुलपतियों की परिषद निश्चित करेगी। ये मापदण्ड निश्चित ही ज्ञानक्षेत्र और धर्मक्षेत्र को शोभा देने वाले ही होंगे।
  16. स्थानिक, जिलास्तरीय और राज्यस्तरीय विद्वत्प रिषदें बनेंगी जो विद्यालयों को शैक्षिक सहयोग करेंगी।
  17. सम्पूर्ण देश की मिलकर एक विद्वत् परिषद और एक कुलपति परिषद होगी। कुलपति अपने में से ही कुलाधिपति का चयन करेंगे। यह कुलपति परिषद कुलाधिपति के नेतृत्व में राज्य और समाजधुरीणों से संवाद और समायोजन स्थापित करेंगे।
  18. देशविदेशों के शिक्षाक्षेत्र के साथ सम्पर्क में रहना, उनसे संवाद स्थापित करना, वहाँ जाना और उन्हें अपने यहाँ निमन्त्रित करना कुलपति परिषद का काम है।
  19. देश के ज्ञान का रक्षण, वर्धन, परिष्करण करना, अगली पीढी को हस्तान्तरित करना, जीवन की और जगत की समस्याओं का ज्ञानात्मक समाधान करना, राज्य और समाज के कल्याण हेतु नित्य चिन्तन करना, मार्गदर्शन करने हेतु सदैव सिद्ध रहना, नित्य ज्ञानसाधक और विद्यावृत्ती रहना, ज्ञान के प्रति एकानिष्ठ रहना, ज्ञान का अनादर नहीं होने देना, अज्ञानी को प्रश्रय नहीं देना, सत्ता या धन के समक्ष नहीं झुकना, इनके स्वार्थों के साथ समझौते नहीं करना, राज्य की ओर से पुरस्कार या अर्थसहयोग की अपेक्षा नहीं करना, सम्मान और खुशामद का अन्तर समझना विद्यापीठों के लिये अत्यन्त आवश्यक है।
  20. सर्व स्तरों पर विद्यासंस्था के मुखिया को धर्मसंस्था के मुखिया के साथ समयायोजन करना आवश्यक है। धर्म और शिक्षा एक ही सिस्के के दो पक्ष हैं। शिक्षा वही है जो धर्म सिखाती है । शिक्षा के बिना धर्म का प्रसार नहीं होगा, धर्म के बिना शिक्षा का आधार नहीं बनेगा। दोनों परस्परपूरक हैं। अतः दोनों का एकदूसरे के साथ मेल होना आवश्यक है। शिक्षक को धर्मतत्त्व अवगत होना चाहिये, धर्माचार्य को शिक्षक की कला का ज्ञान होना चाहिये । दोनों यदि एक ही हैं तब तो अच्छा ही है परन्तु व्यवस्था की दृष्टि से दोनों भिन्न रहेंगे। शिक्षक और धर्माचार्य में कौन बडा है ऐसा यदि कोई पूछता है तो निश्चित ही धर्माचार्य बडा है, अधिक सम्माननीय है। एक ही साथ यदि राष्ट्रपति, कुलाधिपति और धर्माधिपति उपस्थित हों तो सर्वोच्च स्थान धर्माधिपति को, दूसरा स्थान कुलाधिपति को और तीसरा राष्ट्रपति को दिया जाना चाहिये । धार्मिक समाज की यही व्यवस्था रही है, युगों से रही है। भारत के लिये यही स्वाभाविक व्यवस्था है।

किसकी शिक्षा कहाँ और कैसे हो

धार्मिक शिक्षा की पुनर्रचना का एक और आयाम है किसकी शिक्षा कहाँ और कैसे होगी इसका विचार करना । इसका विचार कुछ इस प्रकार किया जा सकता है:

  1. गर्भाधान से लेकर सात वर्ष की आयु तक की शिक्षा घर में ही मातापिता के सान्निध्य में होगी। इसी दृष्टि से माता को बालक की प्रथम गुरु कहा है।
  2. इसके बाद पन्द्रह वर्ष तक की शिक्षा तीन केन्द्रों में विभाजित होगी। एक केन्द्र होगा घर जहाँ गृहस्थ बनने की शिक्षा होगी। इस सन्दर्भ में पिता गुरु है और माता उसकी सहायक । दूसरा केन्द्र विद्यालय है जहाँ उसे देशदुनिया का और धर्म का ज्ञान मिलेगा। विद्यालय के शिक्षक उसके गुरु होंगे। तीसरा केन्द्र होगा उत्पादन का केन्द्र जहाँ वह व्यवसाय सीखेगा। व्यवसाय का मालिक उसका गुरु होगा। तीनों केन्द्रों पर एक विद्यार्थी की तरह ही उसके साथ व्यवहार होगा। यदि उसे शिक्षक, पुरोहित, राज्यकर्ता, अमात्य आदि बनना है तो विद्यालय में ही जायेगा, उत्पादन केन्द्र में जाने की आवश्यकता नहीं।
  3. पन्द्रह वर्ष से लेकर विवाह करता है तब तक तीनों केन्द्र पर ही रहेगा परन्तु अब उसका विद्यार्थी और शिक्षक दोनों का काम आरम्भ होगा। अर्थात् वह विद्यालय में है तो पढेगा और पढायेगा, व्यवसाय केन्द्र में है तो व्यवसाय सीखेगा और करेगा घर में है तो पिता के साथ गृहस्थी के कामों में सहभागी बनेगा। पिता इस स्थिति में व्यवसाय और गृहस्थी दोनों में गुरु हैं।
  4. गृहस्थाश्रम में प्रवेश के साथ उसकी गृहस्थी की शिक्षा आरम्भ होती है। अब वह पिता, शिक्षक या व्यवसाय के मालिक का विद्यार्थी नहीं है। ये सब उसके मार्गदर्शक हैं। अपनी शिक्षा की चिन्ता अब उसे स्वयं करनी है।
  5. अब मार्गदर्शन प्राप्त करने हेतु उसके घर में बडे बुजुर्ग हैं। ये तो सदा साथ ही रहते हैं और नित्य उपलब्ध है। विचारविमर्श करने के लिये पत्नी है जिसकी गृहस्थी की शिक्षा उसके समान ही हुई है। क्रियात्मक अनुभव लेने के लिये घर है जहाँ उसे जिम्मेदारीपूर्वक जीना है। उसका मित्रपरिवार है जो उसके समान ही शिक्षा पूर्ण कर अब गृहस्थ बना है। विद्यालय में तथा घर में प्राप्त शिक्षा का स्मरण रखते हुए अब उसे शिक्षा को क्रियात्मक स्वरूप देना है। घर में बच्चोंं का जन्म होता है। उनका संगोपन करते करते वह अनुभव प्राप्त करता है। अब अपने बच्चोंं के लिये वह शिक्षक है । जिस प्रकार मार्गदर्शन के लिये अपने मातापिता से परामर्श करता है उसी प्रकार समय समय पर विद्यालय में भी जाता है जहाँ उसका शिक्षक वृन्द है। इस प्रकार उसकी शिक्षा का यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण चरण है। इस अवस्था की शिक्षा के लिये दो प्रकार की व्यवस्था करनी चाहिये। एक तो विद्यालय में पूर्व छात्र परिषद बनानी चाहिये जिसके माध्यम से विद्यालय में पढकर गये हुए विद्यार्थी निश्चित किये हुए कार्यक्रमों के माध्यम से विद्यालय में आ सकें। दूसरी समाज में भी शिक्षित लोगोंं की परिषद की रचना करनी चाहिये । यह उनके लिये विश्वविद्यालय का अंग ही होगा जिसमें वे आपस में अनुभवों का आदानप्रदान कर सकते हैं और एकदूसरे से सहयोग प्राप्त कर सकते हैं। ये परिषदें किसी न किसी स्वरूप में विश्वविद्यालय के साथ जुडी रहेंगी। इन परिषदों का एक काम अपने विश्वविद्यालयों की आर्थिक तथा अन्य प्रकार की चिन्ता करने का भी रहेगा । जिस प्रकार वह अपने परिवारजनों के प्रति अपना दायित्व निभाता है उसी प्रकार अपने विद्यालय के प्रति दायित्व भी निभायेगा। इनके माध्यम से विद्यालय भी समाज के साथ जुडा रहेगा। विद्यालय के अन्य व्यवस्थात्मक कार्यों जैसे कि सभा सम्मेलनों या परिषद के आयोजनों में वह सहभागी होता रहेगा। विद्यालय के समाज प्रबोधन कार्यक्रम में भी वह सहभागी बनेगा। वह मातापिता का पुत्र और विद्यालय का विद्यार्थी बना ही रहेगा।
  6. वह प्रौढ अवस्था का होता है तब उसके दो प्रकार के शिक्षक होंगे । एक होंगे ग्रन्थ जिनका स्वाध्याय उसे करना है। अब उसके अध्ययन का स्वरूप चिन्तनात्मक रहेगा। घर में, विद्यालय में और समाज में वह विद्यार्थी कम और शिक्षक अधिक रहेगा। वह धीरे धीरे अनुभवी मार्गदर्शक बनेगा। दूसरा शिक्षक है सन्त, कथाकार, तीर्थयात्रा, धार्मिक अनुष्ठान आदि। यह उसका सत्संग है। यहाँ वह विद्यार्थी के रूप में ही जाता है। अब तक प्राप्त की हुई अनुभवात्मक शिक्षा को और अधिक परिपक्व बनाता है। ऐसी शिक्षा के लिये विश्वविद्यालय के कुलपति और धर्माचार्यों ने मिलकर लोकविद्यालयों की रचना करनी चाहिये । इन विद्यालयों में सत्संग, अनुष्ठान, कथा, प्रवचन आदि के माध्यम से धर्माचर्चा चले । लोकशिक्षा के इन विद्यालयों में जिन्होंने शास्त्रों का अध्ययन किया है ऐसे लोग भी आ सकते हैं और नहीं किया है ऐसे भी लोग आ सकते हैं। दोनों के लिये आवश्यकता के अनुसार शिक्षा की योजना होगी। आवश्यक नहीं कि इन विद्यालयों में वानप्रस्थी ही विद्यार्थी के रूप में आयें। जो अभी वानप्रस्थी नहीं हुए हैं ऐसे गृहस्थ भी आ सकते हैं। इनमें उपनिषदों और पुराणों का अध्ययन और देशविदेश की जानकारी देने का प्रबन्ध होगा । सम्पूर्ण समाज को देशकाल परिस्थिति के अनुसार शिक्षित करने हेतु ये विद्यालय होंगे। इन विद्यालयों के संचालन का प्रमुख दायित्व धर्माचार्यों का रहेगा जिन्हें शिक्षक सहायता करेंगे। ऐसे लोकविद्यालयों के नाम भिन्न भिन्न हो सकते हैं परन्तु यह विधिवत लोक शिक्षा की ही योजना के अंग होंगे।
  7. इसके साथ ही वानप्रस्थों, सन्यासियों के लिये जो विद्यालय होंगे वे आश्रम, मन्दिर, मठ आदि नामों से जाने जायेंगे। ये भी सत्संग और धर्माचर्चा, कथाकीर्तन और प्रवचन के माध्यम से समाजशिक्षा का काम ही करेंगे।
  8. वानप्रस्थियों के लिये समाजसेवा यह अपेक्षित आचार बनाया जाना चाहिये । समाजेसवा की सारी संस्थायें वानप्रस्थियों के दायित्व में चलेंगी जिनमें वेतन की कोई व्यवस्था नहीं रहेगी। वानप्रस्थियों के निर्वाह का दायित्व उनके परिवार का ही रहेगा। यदि वे घर छोडकर संस्था में ही रहना चाहेंगे तो संस्था निर्वाह कर सकती है परन्तु संस्था में निर्वाह की व्यवस्था हो सके इस उद्देश्य से वे समाजेसवा नहीं करेंगे।
  9. समाज में गृहस्थ परिषद, वानप्रस्थ परिषद, प्रौढ वानप्रस्थ परिषद, वृद्ध वानप्रस्थ परिषद आदि अनेक प्रकार की रचनायें हो सकती हैं। गृहसंचालन, समाजसेवा की विभिन्न संस्थाओं का संचालन, सामाजिक उत्सवों, पर्वो आदि का आयोजन इन परिषदों के लिये सीखने सिखाने के विषय रहंगे। इनका नियमन धर्माचार्य करेंगे।
  10. इसी प्रकार से विभिन्न उत्पादन केन्द्रों में कार्यरत, अपने ही घर में व्यवसाय करने वाले लोगोंं की भी परिषदें होंगी जिनका संचालन महाजन करेंगे । इनमें व्यावसायिक कुशलताओं की तथा समाज की समृद्धि की चर्चा होगी।

यह लेख भी देखें ।

References

  1. धार्मिक शिक्षा के व्यावहारिक आयाम (धार्मिक शिक्षा ग्रन्थमाला ३): पर्व ४: अध्याय १५, प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे