Changes

Jump to navigation Jump to search
m
Text replacement - "जड" to "जड़"
Line 8: Line 8:  
जीवन और जगत को देखने की अपनी अपनी दृष्टि होती है।
 
जीवन और जगत को देखने की अपनी अपनी दृष्टि होती है।
 
उस दृष्टि के अनुसार हर राष्ट्र की जीवनशैली विकसित होती
 
उस दृष्टि के अनुसार हर राष्ट्र की जीवनशैली विकसित होती
है, लोगों का मानस बनता है, व्यवहार होता है, उस
+
है, लोगोंं का मानस बनता है, व्यवहार होता है, उस
 
व्यवहार के अनुरूप और अनुकूल व्यवस्थायें बनती हैं और
 
व्यवहार के अनुरूप और अनुकूल व्यवस्थायें बनती हैं और
 
जीवन चलता है।
 
जीवन चलता है।
Line 36: Line 36:     
== समग्र जीवनदृष्टि ==
 
== समग्र जीवनदृष्टि ==
यह जीवनदृष्टि व्यवहार में विभिन्न स्वरूप धारण करती है। इस दृष्टि पर आधारित समाजव्यवस्था में गृहसंस्था केन्द्रवर्ती है। गृहसंस्था का आधार ही एकात्मता है। गृह में प्रतिष्ठित एकात्मता का विस्तार वसुधैव कुटुम्बकम् तक होता है। सबको अपना मानना क्योंकि सब एक हैं यह व्यवहार और सम्बन्ध का मूल सूत्र बनता है। वेदों का महावाक्य कहता है, '''सर्वं खलु इदं ब्रह्म''' अर्थात् यह सब वास्तव में ब्रह्म ही है। इस वेदवाक्य की प्रतीति हमें सर्वत्र होती है। | इस सृष्टि में ज्ञान है तो अज्ञान भी है, सत्य है तो असत्य भी है, जड़ है तो चेतन भी है, अच्छा है तो बुरा भी है, इष्ट है तो अनिष्ट भी है, प्रकाश है तो अंधकार भी है। अर्थात् सृष्टि का अव्यक्त रूप एक ही है परन्तु व्यक्त रूप द्वन्द्वात्मक है। ये दोनों पक्ष सदा एक दूसरे के साथ ही रहते हैं। दो में से एक भी पूर्ण नष्ट नहीं होता। समय समय पर दो में से एक प्रभावी रहता है परन्तु सम्पूर्ण समाप्त नहीं हो जाता। इस तत्व को स्वीकार कर ही जीवन की सभी व्यवस्थायें बनाई गई हैं।
+
यह जीवनदृष्टि व्यवहार में विभिन्न स्वरूप धारण करती है। इस दृष्टि पर आधारित समाजव्यवस्था में गृहसंस्था केन्द्रवर्ती है। गृहसंस्था का आधार ही एकात्मता है। गृह में प्रतिष्ठित एकात्मता का विस्तार वसुधैव कुटुम्बकम् तक होता है। सबको अपना मानना क्योंकि सब एक हैं यह व्यवहार और सम्बन्ध का मूल सूत्र बनता है। वेदों का महावाक्य कहता है, '''सर्वं खलु इदं ब्रह्म''' अर्थात् यह सब वास्तव में ब्रह्म ही है। इस वेदवाक्य की प्रतीति हमें सर्वत्र होती है। | इस सृष्टि में ज्ञान है तो अज्ञान भी है, सत्य है तो असत्य भी है, जड़़ है तो चेतन भी है, अच्छा है तो बुरा भी है, इष्ट है तो अनिष्ट भी है, प्रकाश है तो अंधकार भी है। अर्थात् सृष्टि का अव्यक्त रूप एक ही है परन्तु व्यक्त रूप द्वन्द्वात्मक है। ये दोनों पक्ष सदा एक दूसरे के साथ ही रहते हैं। दो में से एक भी पूर्ण नष्ट नहीं होता। समय समय पर दो में से एक प्रभावी रहता है परन्तु सम्पूर्ण समाप्त नहीं हो जाता। इस तत्व को स्वीकार कर ही जीवन की सभी व्यवस्थायें बनाई गई हैं।
    
तथापि ज्ञान, सत्य, अच्छाई को ही व्यवहार में आदर्श माना गया है। कोई किसी को असत्य या दुर्जनता का व्यवहार करने को प्रोत्साहित नहीं करेगा। सब अच्छा ही बनना चाहेंगे। ऐसा बनने के लिए ऋषि तप, दान, यज्ञ, साधना, ज्ञान प्राप्ति के लिए सदा उपदेश देते हैं।
 
तथापि ज्ञान, सत्य, अच्छाई को ही व्यवहार में आदर्श माना गया है। कोई किसी को असत्य या दुर्जनता का व्यवहार करने को प्रोत्साहित नहीं करेगा। सब अच्छा ही बनना चाहेंगे। ऐसा बनने के लिए ऋषि तप, दान, यज्ञ, साधना, ज्ञान प्राप्ति के लिए सदा उपदेश देते हैं।

Navigation menu